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क्या है भगवान शिव के 32 रहस्य?SHIVRATRI SPECIAL...


भगवान शिव के रहस्य;-

1-आदिनाथ शिव;-

09 POINTS;-

1-सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम

'आदिश' भी है।इस ‘आदिश’ शब्द से ही ‘आदेश’ शब्द बना है। नाथ साधु जब एक–दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश।

2-आइंस्टीन से पूर्व भगवान शिव ने ही कहा था कि ‘कल्पना’ ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हम जैसी कल्पना और विचार करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। शिव ने इस आधार पर ध्यान की कई विधियों का विकास किया। भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों का मूल हैं। शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है।

3-आज से 15 से 20 हजार वर्ष पूर्व वराह काल की शुरुआत में जब देवी-देवताओं ने धरती पर कदम रखे थे, तब उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी। इस दौरान भगवान शंकर ने धरती के केंद्र कैलाश को अपना निवास स्थान बनाया। भगवान विष्णु ने समुद्र को और ब्रह्मा ने नदी के किनारे को अपना स्थान बनाया था।

4-पुराण कहते हैं कि जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है, जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था। इन तीनों से सब कुछ हो गया।

5-वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और

इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया।सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही धरती पर जीवन के

प्रचार-प्रसार का प्रयास किया ।भगवान शिव के अलावा ब्रह्मा और विष्णु ने संपूर्ण धरती पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया। सभी ने मिलकर धरती को रहने लायक बनाया और यहां देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष और मनुष्य की आबादी को बढ़ाया।

ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह रूप में ही रह गए अत: उनके विग्रहों की पूजा की जाती है।

6-पहले भगवान शिव थे रुद्र ... वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला। वेद जिन्हें रुद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। वराह काल के पूर्व के कालों में भी शिव थे। उन कालों की शिव की गाथा अलग है।

7-देवों के देव महादेव : देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। भगवान शिव दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं।

8-सन् 2007 में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारत और अन्य जगह पर 20 से 22 फिट मानव के कंकाल ढूंढ निकाले हैं। भारत में मिले कंकाल को कुछ लोग भीम पुत्र घटोत्कच और कुछ लोग बकासुर का कंकाल मानते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी। भारत में मिले इस कंकाल के साथ एक शिलालेख भी मिला है। यह उस काल की ब्राह्मी लिपि का शिलालेख है।

9-इसमें लिखा है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।

2-आदियोगी/योग के जन्मदाता;-

05 POINTS;-

1-योगिक परंपरा में शिव की पूजा ईश्वर के रूप में नहीं की जाती है। वह आदियोगी, यानि पहले योगी और आदिगुरु, यानि पहले गुरु हैं, जिनसे योगिक विज्ञान जन्मा। दक्षिणायन की पहली पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा होती है, जब आदियोगी ने इस विज्ञान को अपने पहले सात शिष्यों, सप्तऋषियों को सौंपना शुरू किया।

2-आज जिस भी चीज़ को हम योग के नाम से जानते हैं, उसकी शुरुआत कई सालों पहले भगवान शिव द्वारा की गयी थी। वैज्ञानिक तथ्य भी यह बताते हैं कि करीब पचास हज़ार साल पहले इंसानों में बुद्धि और चेतना का अचानक विस्फोट सा हुआ, जो सामान्य विकास के क्रम में नहीं है। योगिक परंपरा के मुताबिक यही वो समय था जब हिमालय क्षेत्र में योगिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी।

3-आदियोगी ने अपने सात शिष्यों यानी सप्तऋषियों के साथ दक्षिण का रुख किया। उन्होंने जीवन-तंत्र की खोज करनी शुरू कर दी, जिसे आज हम योग कहते हैं।शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

4-शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया।एक ऋषि दक्षिण अमेरिका तो एक दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में चले गए। एक शिष्य ने कभी अपना मुंह नहीं खोला और न ही कोई उपदेश दिया, लेकिन उनकी मौजूदगी ने बड़े-बड़े काम किए। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी।

5-परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।आदियोगी ने बताया कि आपका जो वर्तमान ढांचा है, यही आपकी सीमा नहीं है। आप इस ढांचे को पार कर सकते हैं और जीवन के एक पूरी तरह से अलग पहलू की ओर बढ़ सकते हैं।

3-शिव एक महायोगी ;-

04 POINTS;-

1-शिव एक महायोगी हैं – अगर वह ध्यान में बैठ जाते हैं, तो वह हिलते नहीं हैं। साथ ही, वह हमेशा नशे की हालत में होते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह रोज भांग खाते है या नशा करते है। योग के विज्ञान में यह संभावना होती है कि आप शांत रहते हुए भी हर समय आनंद की चरम अवस्था में रह सकते हैं।

2-योगी आनंद के विरुद्ध नहीं होते। हां, वे छोटे-मोटे आनंद या सुख से संतुष्ट नहीं होना चाहते। वे लालची होते हैं। वे जानते हैं कि अगर आप एक गिलास शराब पीते हैं तो उससे आपको थोड़ा सा सुरूर होगा जो अगली सुबह सिरदर्द में बदल जाएगा। आप नशे का आनंद तभी उठा सकते हैं, जब आप नशे में चूर होते हुए भी सौ फीसदी स्थिर और सचेत रहें। प्रकृति ने आपको यह संभावना दी है।

3-एक इस्रायली वैज्ञानिक ने मानव मस्तिष्क पर कई वर्षों के शोध के बाद यह पाया कि मस्तिष्क में लाखों ऐसे ग्राहिकाएं हैं जो नशे को ग्रहण और महसूस करती हैं, जिन्हें कैनाबिस रिसेप्टर कहते हैं। फिर न्यूरोलॉजिस्टों ने पाया कि शरीर इन ग्राहिकाओं को संतुष्ट करने के लिए खुद एक नशीला रसायन विकसित कर सकता है।

4-जब उस वैज्ञानिक ने इस रसायन को एक सटीक नाम देना चाहा, तो उसने दुनिया भर के बहुत से ग्रंथ पढ़े। फिर उसे यह जान कर हैरानी हुई कि सिर्फ भारतीय ग्रंथों में आनंद का जिक्र मिलता है। इसलिए उसने उस रसायन को ‘आनंदामाइड’ नाम दिया।इसलिए आपको बस थोड़ा सा

आनंदामाइड पैदा करना है क्योंकि आपके अंदर नशे की पूरी की पूरी फसल है। अगर आप उसे ठीक से उगाएं और उसका पोषण करें, तो आप हर समय नशे में चूर रह सकते हैं।

4-शिव ही सर्वस्व;-

03 POINTS;-

1-शिव और शक्ति – ये परम तत्व के दो रूप है। शिव और शक्ति एक दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरा अधूरा है, शिव पुराण में कहा गया है

''शक्ति और शिव को सदा एक दूसरे की अपेक्षा रहती है। न शिव के बिना शक्ति रह सकती हैं और न शक्ति के बिना शिव रह सकते हैं।''

2-जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है – ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ समस्त शरीरों का अन्तिम आधार एक परम आध्यात्मिक शक्ति है जो अपने मूल रूप में अद्वैत परमात्मा शिव से अभिन्न एवं तद्रूप है। समस्त शरीर एक स्वतः विकासमान दिव्य शक्ति की आत्माभिव्यक्ति है। वह शक्ति अद्वैत शिव से अभिन्न है।

3-वही आत्म चैतन्य आत्मानंद, अद्वैत परमात्मा अपने आत्म रूप में स्थित होती है तब शिव कहलाती है और जब सक्रिय होकर अपने को ब्रहमाण्ड रूप में परिणत कर लेती है तथा दिक, काल सीमित असंख्य पिण्डों की रचना, विकास तथा संहार में प्रवृत्त होती है, तथा अपने को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, तब शक्ति कहलाती है। यह शक्ति पिण्ड में कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। यही शक्ति महाकुण्डलिनी के रूप में ब्रह्माण्ड में स्थित है।

5-शिव-शक्ति का संयोग(पंचतत्वों का रहस्य);-

08 POINTS;-

1-शिव पुराण के अनुसार शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है। शिव की जो पराशक्ति है उससे चित्‌ शक्ति प्रकट होती है। चित्‌ शक्ति से आनंद शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, आनंद शक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है, इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पांचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है। इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएं उत्पन्न हुई हैं।

2-चित्‌ शक्ति से नाद और आनंद शक्ति से बिंदु का प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्ति से 'म' कार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्ति से पांचवां स्वर 'उ' कार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्ति से 'अ' कार की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रणव (ॐ) की उत्पत्ति हुई है।

3-शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है। तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है। उत्पत्ति क्रम में ईशान से शांत्यतीताकला उत्पन्न हुई है। ईशान से चित्‌ शक्ति द्वारा मिथुन पंचक की उत्पत्ति होती है।

4-अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि इन पांच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक कहते हैं।These five are ‘srishti’ (creation), ‘sthiti’ (maintenance), ‘samhara’ (dissolution/transformation), ‘tirobhava’ (veiling) and ‘anugraha’ (grace).आकाशादि के क्रम से इन पांचों तत्व/मिथुनों की उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला तत्व/मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां मिथुन पृथ्वी है।

5-आकाश में एकमात्र ''शब्द'' ही गुण है, वायु में 'शब्द और स्पर्श' दो गुण हैं, अग्नि में 'शब्द, स्पर्श और रूप' इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में 'शब्द, स्पर्श, रूप और रस' ये चार गुण माने गए हैं तथा पृथ्वी 'शब्द, स्पर्श, रूप , रस और गंध' इन पांच गुणों से संपन्न है। यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है।पांच भूतों (महत तत्व) का यह विस्तार ही सृष्टि रचना रहस्य कहलाता है।

6-उसी एक के पांचों मुख पूर्वा ,पश्चिमा, उत्तरा, दक्षिणा एवं ऊर्ध्वा दिक्भेद से क्रमश: तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर एवं ईशान नामों से जाने जाते हैं। इस पंचवक्त्र शिव के 'प्रतिवक्त्रं भुजदयम' सिद्धांत से 10 हाथ हैं। इनमें अभय, टंक, शूल, वज्र, पाश, खड्ग, अंकुश, घंटा, नाद और अग्नि- ये 10 आयुध हैं।जब शिव विभोर हो उठते हैं तब वह नृत्य करने लगते हैं क्योंकि नृत्य उनका स्वानन्द है, स्वयं वह नृत्यमय हैं, नृत्य हैं। नृत्य करते समय वह अपना प्रिय वाद्य डमरू भी बजाते हैं। डमरू की ध्वनि से जीवों में आत्मा प्रविष्टï होती है। इस तरह डमरू सृष्टि के कण-कण, अणु-अणु में क्रिया एवं गति संचरण तथा शक्ति का विकास करती है। उनके पांव के थाप से पृथ्वी अन्न, कन्द-मूल-फल उपजाती है। 7-प्रदीप स्तोत्रम् के अनुसार जगत की रक्षा एवम् कल्याण के लिए शिव नित्य संध्या समय लास्य-नृत्य करते हैं। वस्तुत: उनका नृत्य कभी नहीं रुकता क्योंकि इसी से ब्रह्मïण्ड चलता है। यदि उनका नृत्य रुक जाये तो संपूर्ण सृष्टि नष्ट हो जायेगी। उनका नर्तन जीवन की जीवंतता का नृत्य है। उनका नृत्य, ताल, वाद्य सभी जीवन प्रदाता हैं, जीवन के प्रतीक हैं। 8-शिव सृजन, विलय, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के उस अनंत चक्र के प्रतीक हैं जिसमें संपूर्ण ब्रह्मïण्ड क्रियाशील है। इस तरह उनके नृत्य में सृष्टि के लय एवं प्रलय का रहस्य समाहित है। शिव का स्वरूप ही ब्रह्मïण्डिक नर्तन है जो सृजन एवं विलय जैसी पराकाष्ठïओं एवं विरोधाभासी अनास्थाओं का प्रदर्शक है।

6-नटराज शिव;-

09 POINTS;-

1-नृत्य के देवता नटेश या नटराज, शिव के सबसे महत्वपूर्ण रूपों में से एक है। नटराज, दो शब्दों 'नट' यानी कला और राज से मिलकर बना है। इस स्वरूप में शिव कलाओं के आधार हैं।नटराज शिव के लय एवं नृत्य की विभिन्न गतियां हैं। वह स्वयं नर्तक और स्वयं ही दर्शक भी हैं। उनका नृत्य संगीतमय ..आदि शक्ति का विलास है जिससे लोगों का जीवन चलता है।शिव तांडव के भी दो प्रकार हैं। पहला है 'तांडव', शिव का ये रूप 'रुद्र' कहलाता है। जबकि दूसरा है 'आनंद-तांडव', शिव का ये रूप 'नटराज' कहलाता है। रुद्र रूप में शिव समूचे ब्रह्माण्ड के संहारक बन जाते हैं वहीं सर्न के बाहर लगी नटराज प्रतिमा 'सृष्टि निर्माण' का प्रतीक है। उनका नृत्य सृष्टि के आरंभ से अनवरत चल रहा है।

2-यह ईश्वर की पांच क्रियाओं – सृष्टिï, स्थिति, संहार, तिरोभाव तथा अनुग्रह का द्योतक है।आनंद तांडव के भी पांच रूप हैं -1. 'सृष्टि' : निर्माण, रचना 2. 'स्थिति' : संरक्षण, समर्थन 3. 'संहार' : विनाश 4. तिरोभाव : मोह-माया 5. अनुग्रह : मुक्ति

3-शिव के बाएं हाथ में डमरू है। तांडव नृत्य के समय वे उसे बजाते हैं। पुरुष और प्रकृति के मिलन का नाम ही तांडव नृत्य है।उस समय अणु-अणु में क्रियाशीलता जागृत होती है और सृष्टि का निर्माण होता है।डमरू की ध्वनि से सृष्टि, संचरण, अग्नि से दुष्ट का संहार, अभयहस्त से भक्तों की रक्षा, ऊध्र्व पद से उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है।उपर्युक्त पांच क्रियाओं में से प्रथम तीन सृष्टि, स्थिति, संहार, क्रमानुसार ब्रह्मï , विष्णु तथा रूद्र के पास हैं जबकि अनुग्रह तथा तिरोभाव महाशिव के पास।अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश उनके पांच मुख हैं। चित्त, स्पन्दन, ज्ञान, इच्छा तथा कृति उनकी पांच कलाएं।

4-पंच भूतों के अंतर्गत पृथ्वी संपूर्ण सृष्टि का कारण है उसी से सारे

भूतों की उत्पत्ति होती है। जितने भूत हैं सभी के शरीर का निर्माण पृथ्वी से ही होता है और पालन जल से, संपूर्ण भूतों का अंत अग्नि से होता है जो सभी कुछ क्षार कर देती है। वायु तथा आकाश के अंदर तिरोभाव तथा अनुग्रह शक्ति है। वायु किसी को भी उड़ा कर तिरोहित कर देती है। इस प्रकार सदाशिव पांच क्रियाओं या शक्तियों द्वारा समस्त विश्व की रक्षा करते हैं। 5-ब्रह्मï की अनन्त रात्रि में जब तक महाशिव की इच्छा न हो, प्रकृति स्थिर रहती है। अपनी निद्रा से जागकर नृत्य के माध्यम से तत्व में लय की लहर एवं नाद के स्वर द्वारा शिव ही क्रियाशीलता संचरित करते हैं। इस ब्रह्मïण्डीय नृत्य के माध्यम से समस्त अवयव अनन्त संचरण से संयुक्त हो जाते हैं। जब किसी युग में इस नृत्य की पूर्णता आती है तब अग्नि-रुद्र का जन्म होता है और नृत्य प्रलय-विनाश का कारण बनता है। यद्यपि यह एक कविता के लय की भांति है तथापि वैज्ञानिक सच्चाई भी है।

6-नटराज रूप सृष्टि के उल्लास और नृत्य यानी कंपन को दर्शाता है, जिसने शाश्वत स्थिरता और नि:शब्दता से खुद को उत्पन्न किया है। चिदंबरम मंदिर में स्थापित नटराज की मूर्ति बहुत प्रतीकात्मक है। क्योंकि जिसे आप चिदंबरम कहते हैं, वह पूर्ण स्थिरता है। इस मंदिर के रूप में यही बात प्रतिष्ठित की गई है कि सारी गति पूर्ण स्थिरता से ही पैदा हुई है। शास्त्रीय कलाएं इंसान के अंदर यही पूर्ण स्थिरता लाती हैं। स्थिरता के बिना सच्ची कला नहीं आ सकती।

7-नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति की चार भुजाएं हैं। उनके चारो ओर अग्नि का घेरा है। अपने एक पांव से शिव ने एक बौने को दबा रखा है। दूसरा पांव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। शिव अपने दाहिने हाथ में डमरू पकड़े हुए हैं। डमरू की ध्वनि यहां सृजन का प्रतीक है। ऊपर की ओर उठे उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। यहां अग्नि विनाश का प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन और दूसरे से विनाश करते हैं।

8-शिव का तीसरा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है। उनका चौथा बांया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इशारा करता है, इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है। शिव के पैरे के नीचे दबा बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है, जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। चारो ओर उठ रही लपटें इस ब्रह्माण्ड का प्रतीक है। शिव की संपूर्ण आकृति ओंकार स्वरूप दिखाई पड़ती है। यह इस बात की ओर इशारा करती है कि 'ॐ' दरअसल शिव में ही निहित है।

9-जटाएं... शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं। वायु आकाश में व्याप्त रहती है। सूर्यमंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है। इसके अर्थतत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है। शिव रुद्रस्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।

7-आनन्दमूर्ति शिव;-

03 POINTS;- 1-शिव को आनन्दमूर्ति, अशान्त मन को शांत करने वाला-शंकर-कल्याणकर्ता कहा जाता है और शास्त्रों में सृष्टि प्रवर्तन को शिव-शिवा का लास्य नृत्य, इसका निवर्तन-तांडव-कहा गया है।पार्वती के साथ विवाह के अनन्तर शिव ने अपने शरीर में इसके दो भाग कर दिये हैं।पहला ताण्डव है और दूसरा लास्य। ताण्डव शंकर का नृत्य है-उद्धत। लास्य पार्वती का नृत्य है-सुकुमार तथा मनोहर।नटराज की नृत्यशाला यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड है।शिव ताण्डव रस भाव से विवर्तित था और पार्वती का किया लास्य रस भाव से समन्वित। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक नटराज का नृत्य ही है।

2-शिव के आनंद तांडव के साथ ही सृजन का आरंभ होता है और रोद्र ताण्डव के साथ ही संपूर्ण विश्व शिव में पुनः समाहित हो जाता है।इस प्रकार शिव का नृत्य मात्र सृजन-सृष्टि और संहार का परिचायक नहीं अपितु काल के प्रत्येक क्षण में सृष्टि एवं विनाश का प्रतीक है जिसमें समस्त जीवन एवं दृश्य, कारण स्वरूप विद्यमान रहता है जो प्रकृति की परिवर्तनशीलता एवं समरूपता को इंगित करता है।

3-खगोलशास्त्री के अनुसार यह परमाणविक कणों के नर्तन का प्रतीक है। पाश्चात्य चिन्तक हेनरिख जीमर की मान्यता है कि शिव नृत्य की मुद्रायें, अवस्थायें एवं भंगिमायें ब्रह्मïण्डीय अस्पष्टता की सूचक हैं। उनकी हस्त-भंगिमा, पद-स्थिति, कटि-अवस्था यथार्थत: उस सतत् सृजन एवं विनाश की स्थिति के सूचक हैं जिसके परिणामस्वरूप उद्भव एवं विकास की नियंत्रित समायोजनात्मक स्थिति का, सृजन का निर्माण होता है । निस्सन्देह विनाश में ही नव-निर्माण के बीज अवगुंठित होते हैं और यही उनकी आधारशिला भी होती है।यही शिव के नर्तन का, तांडव का रहस्य है क्योंकि उनका नृत्य सृष्टि का विधान है और उसकी निवृत्ति प्रलय।

8-संगीत-नाट्य के आदि प्रवर्तक शिव;-

02 POINTS;-

1-संगीत-नाट्य के आदि प्रवर्तक हैं भगवान शिव। कहते हैं, कभी अपनेे नृत्य के बाद उन्होंने डमरू बजाया। डमरू की ध्वनि से ही शब्द ब्रह्म नाद हुआ। यही ध्वनि चौदह बार प्रतिध्वनित होकर व्याकरण शास्त्र के वाक् शक्ति के चौदह सूत्र हुए।महर्षि व्याघ्रपाद ने जब शिव से व्याकरण तत्व को ग्रहण किया तो इस माहेश्वरसूत्र की परम्परा के संवाहक बने पाणिनि।

2-आदि देव हैं भगवान शिव, देवों के भी देव, सुर-ताल के महान ज्ञाता। नृत्य की चरम परिणति शिव का ताण्डव ही तो है। नटराज जब नृत्य करते हैं तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वेश्वर की लीला का उच्छास उनके अंग-प्रत्यंग में थिरक उठता है। शिव का नृत्य तांडव है और पार्वती का लास्य। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार लास्य का अर्थ लीला या क्रीडा करना है।

9-भोलेनाथ;-

02 POINTS;-

1-शिव को हमेशा से एक बहुत शक्तिशाली प्राणी के रूप में देखा जाता रहा है। साथ ही, यह समझा जाता है कि वह सांसारिक रूप से बहुत चतुर नहीं हैं। इसलिए, शिव के एक रूप को भोलेनाथ कहा जाता है, क्योंकि वह किसी बच्चे की तरह हैं। ‘भोलेनाथ’ का मतलब है, मासूम या अज्ञानी। आप पाएंगे कि सबसे बुद्धिमान लोग भी बहुत आसानी से मूर्ख बन जाते हैं, क्योंकि वे छोटी-मोटी चीजों में अपनी बुद्धि नहीं लगा सकते।

2-बहुत कम बुद्धिमत्ता वाले चालाक और धूर्त लोग दुनिया में आसानी से किसी बुद्धिमान व्यक्ति को पछाड़ सकते हैं। यह धन-दौलत के अर्थ में या सामाजिक तौर पर मायने रख सकता है, मगर जीवन के संबंध में इस तरह की जीत का कोई महत्व नहीं है।बुद्धिमान से हमारा मतलब

स्मार्ट होने से नहीं है।इसका मतलब उस आयाम को स्वीकार करने से है, जो जीवन को पूर्ण रूप से घटित होने देता है, विकसित होने देता है। शिव भी ऐसे ही हैं।वो इस ब्रह्मïण्ड के सबसे बुद्धिमान प्राणी है, मगर वह हर छोटी-मोटी चीज में बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करते।इसलिए ‘भोलेनाथ’ हैं।

10-अर्धनारीश्वर

05 POINTS;-

1-आम तौर पर, शिव को परम या पूर्ण पुरुष माना जाता है। मगर अर्धनारीश्वर रूप में, उनका आधा हिस्सा एक पूर्ण विकसित स्त्री का होता है। कहा जाता है कि अगर आपके अंदर की पौरुष यानी पुरुष-गुण और स्त्रैण यानी स्त्री-गुण मिल जाएं, तो आप परमानंद की स्थायी अवस्था में रहते हैं। अगर आप बाहरी तौर पर इसे करने की कोशिश करते हैं, तो वह टिकाऊ नहीं होता और उसके साथ आने वाली मुसीबतें कभी खत्म नहीं होतीं।

2-पौरुष और स्त्रैण का मतलब पुरुष और स्त्री नहीं है। ये खास गुण या विशेषताएं हैं। मुख्य रूप से यह दो लोगों के मिलन की चाह नहीं है, यह जीवन के दो पहलुओं के मिलन की चाह है, जो बाहरी और भीतरी तौर पर एक होना चाहते हैं। अगर आप भीतरी तौर पर इसे हासिल कर लें, तो बाहरी तौर पर यह सौ फीसदी अपने आप हो जाएगा। वरना, बाहरी तौर पर यह एक भयानक विवशता बन जाएगा।

3-यह रूप इस बात को दर्शाता है कि अगर आप चरम रूप में विकसित होते हैं, तो आप आधे पुरुष और आधी स्त्री होंगे। इसका मतलब हैं,कि आप एक पूर्ण विकसित पुरुष और एक पूर्ण विकसित स्त्री होंगे। तभी आप एक पूर्ण विकसित इंसान बन पाते हैं।

4-नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। तीन मूलभूत नाड़ियों से 72,000 नाड़ियां निकलती हैं। इन नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता। यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है।

5-प्राण या ऊर्जा 72,000 विभिन्न रास्तों से होकर गुजरती है। इड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैत के प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का/ अर्धनारीश्वर का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू ...तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं।

11-कालभैरव शिव;-

02 POINTS;-

1-कालभैरव शिव का एक मारक या जानलेवा रूप है – जब उन्होंने समय के विनाश की मुद्रा अपना ली थी। सभी भौतिक हकीकतें समय के भीतर मौजूद होती हैं। अगर समय को नष्ट कर दिया जाए, तो सब कुछ नष्ट हो

जाएगा।शिव भैरवी-यातना को पैदा करने के लिए उपयुक्त वस्त्र धारण करके कालभैरव बन गए।

2-‘यातना’ का मतलब है, घोर पीड़ा। जब मृत्यु का पल आता है, तो बहुत से जीवनकाल पूरी तीव्रता में सामने आ जाते हैं, आपके साथ जो भी पीड़ा और कष्ट होना है, वह एक माइक्रोसेकेंड में ‍घटित हो जाएगा। उसके बाद, अतीत का कुछ भी आपके अंदर नहीं रह जाएगा। अपने ‘सॉफ्टवेयर’ को नष्ट करना कष्टदायक है। मगर मृत्यु के समय ऐसा होता है, इसलिए आपके पास कोई चारा नहीं होता। लेकिन वह इसे जितना हो सके, छोटा बना देते हैं। कष्ट को जल्दी से खत्म होना होता है। ऐसा तभी होगा, जब हम इसे अत्यंत तीव्र बना देंगे। अगर वह हल्का होगा, तो हमेशा चलता ही रहेगा।

12-शिव के अस्त्र-शस्त्र;-

04 POINTS;-

1-शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था। शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था।

2-उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया। देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था।उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।

3-भगवान शिव का चक्र ..चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।परन्तु सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।

4-त्रिशूल : इस तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र देवताओं को सौंप दिए। उनके पास सिर्फ एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था। त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन।तीन गुणों को दर्शाता भगवान शिव का त्रिशूल शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है। ये तीनों प्राणमय कोष यानि मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं – बाईं, दाहिनी और मध्य।इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी शिव का अस्त्र है। 13- शिव का नाग;-

03 POINTS;-

1-आध्यात्मिकता या रहस्यवाद को सांपों से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस जीव में बोध का एक खास आयाम विकसित है। यह एक रेंगने वाला जीव है, जिसे जमीन पर रेंगना चाहिए मगर शिव ने उसे अपने सिर पर धारण किया है। इससे यह पता चलता है कि वह उनसे भी ऊपर है। यह दर्शाता है कि कुछ रूपों में सांप शिव से भी बेहतर हैं। सांप ऐसा जानवर है जो आपके सहज रहने पर आपके साथ बहुत आराम से रहता है।

2-शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।सर्पयोग संस्कृति में, सर्प यानी सांप कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है।

3-जब तक वह अपनी जगह से हिलती-डुलती नहीं, उसका अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर होता है।इस कारण सांप को कुंडलिनी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, क्योंकि कुंडली मारे सांप को भी देखना बहुत मुश्किल होता है, जब तक कि वह आगे नहीं बढ़ता। इसी तरह, आप कुंडलिनी में कैद इस ऊर्जा को सिर्फ तब देख पाते हैं जब वह हिलती-डुलती है। शिव के साथ सांप को दिखाने की यही वजह है। यह दर्शाता है कि उनकी ऊर्जा शिखर तक पहुंच चुकी है।

14- शिव की अर्द्धांगिनी और पुत्र

शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है। 15-शिव के गण/द्वारपाल/पार्षद/पंचायत;-

04 POINTS;-

1-शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं।इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है।द्वारपाल है..नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं। भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

2-वृषभ शिव का वाहन है। वह हमेशा शिव के साथ है। वृषभ का अर्थ धर्म है। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को चार पैरों वाला प्राणी कहा है। उसके चार पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। महादेव इस चार पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।नंदी अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में इंतजार को सबसे बड़ा गुण माना गया है। जो बस चुपचाप बैठकर इंतजार करना जानता है, वह कुदरती तौर पर ध्यानमग्न हो सकता है। नंदी को ऐसी उम्मीद नहीं है कि शिव कल आ जाएंगे। वह किसी चीज का अंदाजा नहीं लगाता या उम्मीद नहीं करता .. बस इंतजार करता है। वह हमेशा इंतजार करेगा। यह गुण ग्रहणशीलता का मूल तत्व है।

3-नंदी शिव का सबसे करीबी साथी है क्योंकि उसमें ग्रहणशीलता का गुण है।किसी मंदिर में जाने के लिए आपके अंदर नंदी का गुण होना चाहिए। ताकि आप बस बैठ सकें।इस गुण के होने का मतलब है ..आप स्वर्ग जाने की कोशिश नहीं करेंगे, आप यह या वह पाने की कोशिश नहीं करेंगे ...आप

बस वहां बैठेंगे।ध्यान किसी तरह की क्रिया नहीं है– यह एक गुण है।यही बुनियादी अंतर है...

4-ध्यान का मतलब है कि आप भगवान की बात सुनना चाहते हैं। आप बस अस्तित्व को, सृष्टि की परम प्रकृति को सुनना चाहते हैं। आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं है, आप बस सुनते हैं। नंदी का गुण यही है, वह बस सजग होकर बैठा रहता है। यह बहुत अहम चीज है ...वह सजग है, सुस्त नहीं है। वह आलसी की तरह नहीं बैठा है।वह पूरी तरह सक्रिय,पूरी सजगता से, जीवन से भरपूर बैठा है, ध्यान यही है।

16-देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव;-

02 POINTS;-

1-भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

2-वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं। 17-शिव के पैरों के निशान/गुफा;-

05 POINTS;-

1-श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।

2-रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।

3-तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।

4-जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।

रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है। 5-शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है। 18- शिव के अवतार;-

वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव। 19- शिव का विरोधाभासिक परिवार;-

शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।ति‍ब्बतस्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।

20-शिव भक्त :-

ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर श्रीकृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी। 21-शिव मंत्र :-

02 POINTS;-

1-शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है। दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।

2-ॐ नम: शिवाय“ॐ नम: शिवाय” वह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है। इस मंत्र का अभ्यास विभिन्न आयामों में किया जा सकता है। इन्हें पंचाक्षर कहा गया है, इसमें पांच मंत्र हैं। ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं। इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है। ये पूरे तंत्र (सिस्टम) के शुद्धीकरण के लिए बहुत शक्तिशाली माध्यम हैं।लेकिन अगर आपके अंदर एक खास तरह की तैयारी नहीं है तो बेहतर होगा कि आप खुद मंत्रोच्‍चारण न करें। आप इस मंत्रोच्‍चारण को खूब ध्‍यान से सुनें, यही लाभदायक होगा। 22-शिव प्रचारक :-

भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

23-शैव परम्परा :-

दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।

24-ज्ञानयोग तथा तंत्र के मूल सूत्र और शिव;-

03 POINTS;-

1-वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।

शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है।

2-'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया, उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं।वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

3-योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव संहिता’ में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है।तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं।इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- ''वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है।''

25-सोमसुंदर;-

03 POINTS;-

1-शिव के कई नाम हैं।उनमें एक काफी प्रचलित नाम है सोम या सोमसुंदर।वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा होता है मगर सोम का असली अर्थ नशा होता है।नशा सिर्फ बाहरी पदार्थों से ही नहीं होता, बल्कि केवल अपने भीतर चल रही जीवन की प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं।

2-अगर आप जीवन के नशे में नहीं डूबे हैं, तो सिर्फ सुबह का उठना, अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करना, खाना-पीना, रोजी-रोटी कमाना, आस-पास फैले दुश्मनों से खुद को बचाना और फिर हर रात सोने जाना, जैसी दैनिक क्रियाएं आपकी जिंदगी कष्टदायक बना सकती हैं। अभी ज्यादातर लोगों के साथ यही हो रहा है। जीवन की सरल प्रक्रिया उनके लिए नर्क बन गई है।ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे जीवन का नशा किए बिना उसे बस जीने की कोशिश कर रहे हैं।चंद्रमा को सोम कहा गया है, यानि नशे का स्रोत।

3-अगर आप किसी चांदनी रात में किसी ऐसी जगह गए हों जहां बिजली की रोशनी नही हो, या आपने बस चंद्रमा की रोशनी की ओर ध्यान से देखा हो, तो धीरे-धीरे आपको सुरूर चढ़ने लगता है।हम चंद्रमा की रोशनी के बिना भी ऐसा कर सकते हैं मगर चांदनी से ऐसा बहुत आसानी से हो जाता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है। शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं। नशे का आनंद उठाने के लिए आपको सचेत होना ही चाहिए।

26-त्रयंबक शिव;-

04 POINTS;-

1-शिव को हमेशा त्रयंबक कहा गया है क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का मतलब यह नहीं है कि माथे में कोई दरार है। इसका मतलब बस यह है कि उनका बोध या अनुभव अपनी चरम संभावना पर पहुंच गया है। तीसरी आंख अंतर्दृष्टि की आंख है।दोनों भौतिक आंखें सिर्फ आपकी इंद्रियां हैं। वे मन में तरह-तरह की फालतू बातें भरती हैं क्योंकि आप जो देखते हैं, वह सच नहीं है।

2-आप इस या उस व्यक्ति को देखकर उसके बारे में कुछ अंदाजा लगाते हैं, मगर आप उसके अंदर शिव को नहीं देख पाते। आप चीजों को इस तरह देखते हैं, जो आपके जीवित रहने के लिए जरूरी हैं।कोई दूसरा प्राणी उसे दूसरे तरीके से देखता है, जो उसके जीवित रहने के लिए जरूरी है। इसीलिए हम इस दुनिया को माया कहते हैं। माया का मतलब है कि यह एक तरह का धोखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि अस्तित्व एक कल्पना है।

3-आप किसी इंसान को देखकर उसके बारे में कुछ अंदाजा लगाते हैं, मगर आप उसके अंदर शिव को नहीं देख पाते। इसलिए एक और आंख को खोलना जरूरी है, जो और गहराई में देख सके।कितना भी सोचने से या

दार्शनिक चिंतन से कभी आपके मन को स्पष्टता नहीं मिल पाएगी। कोई भी आपकी तार्किक स्पष्टता को बिगाड़ सकता है, मुश्किल हालात उसे पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर सकते हैं।जब आपकी भीतरी दृष्टि खुल जाती है, जब आपके पास एक आंतरिक दृष्टि होती है, तभी आपको पूर्ण स्पष्टता मिलती है।

4-शिव की तीसरी आंखशिव को हमेशा त्रयंबक कहा गया है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है।इसका मतल‍ब सिर्फ यह है कि बोध या अनुभव का एक दूसरा आयाम खुल गया है। दो आंखें सिर्फ भौतिक चीजों को देख सकती हैं ;वे उसके परे नहीं देख पाएंगी। उनकी सीमा यही है। अगर तीसरी आंख खुल जाती है, तो इसका मतलब है कि बोध का एक दूसरा आयाम खुल जाता है जो कि भीतर की ओर देख सकता है। इस बोध से आप जीवन को बिल्कुल अलग ढंग से देख सकते हैं।आपके बोध के विकास के लिए सबसे अहम चीज यह है – कि आपकी ऊर्जा को विकसित होना होगा और अपना स्तर ऊंचा करना होगा। योग की सारी प्रक्रिया यही है

कि आपकी ऊर्जा को इस तरीके से विकसित किया जाए और सुधारा जाए कि आपका बोध बढ़े और तीसरी आंख खुल जाए।

27-शिवलिंग :-

वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है।वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है।बिंदु शक्ति है और नाद शिव।बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि।यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है।इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है। 28-बारह ज्योतिर्लिंग :-

02 POINTS;-

1-सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं।

2-शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।

29-शिव के रुद्र अवतार;-

04 POINTS;-

1-पुराण के अनुसार भगवान शिव के 11 रुद्र अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है...एक बार देवताओं और दानवों में लड़ाई छिड़ गई। इसमें दानव जीत गए और उन्होंने देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। सभी देवता बड़े दु:खी मन से अपने पिता कश्यप मुनि के पास गए। उन्होंने पिता को अपने दु:ख का कारण बताया। कश्यप मुनि परम शिवभक्त थे। उन्होंने अपने पुत्रों को आश्वासन दिया और काशी जाकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना शुरु कर दी। उनकी सच्ची भक्ति देखकर भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हुए और दर्शन देकर वर मांगने को कहा। 2-कश्यप मुनि ने देवताओं की भलाई के लिए उनके यहां पुत्र रूप में आने का वरदान मांगा। शिव भगवान ने कश्यप को वर दिया और वे उनकी पत्नी सुरभि के गर्भ से ग्यारह रुपों में प्रकट हुए। यही ग्यारह रुद्र कहलाए। ये देवताओं के दु:ख को दूर करने के लिए प्रकट हुए थे इसीलिए इन्होंने देवताओं को पुन: स्वर्ग का राज दिलाया। भगवान शिव के रूद्र रूप को पालनहार और संहारक दोनों ही संज्ञा प्राप्त है। इसीलिए जब वह इस रूप में आते हैं तो हर कहीं प्रलय आ जाता है। 3- शास्त्रों के अनुसार यह ग्यारह रुद्र सदैव देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में ही रहते हैं।ये इस प्रकार हैं... 1- कपाली 2- पिंगल 3- भीम 4- विरुपाक्ष 5- विलोहित 6- शास्ता 7- अजपाद 8- अहिर्बुधन्य 9- शंभु 10- चण्ड 11- भव

रू का अर्थ होता है चिंता और द्र का अर्थ होता है दूर करना। इस कारण से रूद्र का अर्थ हुआ जो आपके सारी समस्याएं और चिंताओं का नाश कर दे।इसी कारण से भगवान शिव का

रूद्राभिषेक भी जब किया जाता है तो वह भी उनके रूपों की भांति 11 बार ही करने की परंपरा चली आ रही है। 4-ऋग्वेद और यजुरवेद में रूद्र भगवान को पृथ्वी और स्वर्ग के बीच बसी दुनिया के ईष्टदेव के रूप में बताया गया है। दरअसल इस सृष्टि में जैसे जीवित रहने के लिए प्राणवायु का महत्व है, उसी प्रकार रूद्र रूप का भी अस्तित्व सर्वोपरि है। उपनिषदों में भगवान रूद्र के ग्यारह रूपों को शरीर के 10 महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत मानने के साथ ही 11 वें को आत्म स्वरूप माना गया है। सृष्टि में जो भी जीवित है, इन्हीं की बदौलत है। मृत्यु पश्चात् आपके सगे-संबंधियों को रोना आता है। इसीलिए रूद्र को पवित्र अर्थों में रुलानेवाला भी कहा जाता है।

30-शिव और शंकर में अंतर:-

04 POINTS;-

1-शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।

2-जबकि भगवान शिव ज्योति बिंदु स्वरूप हैं। जिनकी पूजा ज्योति र्लिंग के रूप में की जाती है। वास्तव में भगवान शिव के तीन प्रमुख कर्तव्य हैं। नई पावन दैवीय सतयुगी दुनिया की स्थापना, दैवीय दुनिया की पालना और पुरानी पतित दुनिया का विनाश। इसलिए भगवान शिव को परमात्मा कहा जाता है। ये तीनों कर्तव्य तीन प्रमुख देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, शंकर द्वारा करवाए जाते हैं।इसलिए शिवलिंग में शिव की त्रिमूर्ति अथार्त ब्रह्मा, विष्णु, शंकर होते है।तीनों अभेद हैं, तीनों समान हैं।लिंग की जलहरी ब्रह्माण्ड का स्वरूप है।शिव के इसी लिंगस्वरूप द्वारा मानव शरीर को रुद्र से शिव बनने का ज्ञान प्राप्त होता है। भगवान शिव सदा कल्याणकारी हैं, जन्म-मरण के चक्र या बंधन से सदा मुक्त हैं जबकि

शंकर साकारी देवता है।शंकर को ही देव आदि देव महादेव भी कहा जाता है। भगवान शिव शंकर में प्रवेश करके वो महान से महान कार्य करवाते हैं जो अन्य कोई देवी-देवता, साधु, संत, महात्मा नहीं कर पाते।

3-अब तो विज्ञान ने भी ज्योतिर्लिंगों की वैज्ञानिक महत्ता पर मुहर लगा दी है। भारत सरकार के परमाणु केंद्रों के अलावा सबसे ज्यादा विकिरण (रेडिएशन) देश के द्वादश ज्योतिर्लिंग स्थलों पर ही पाया जाता है। गौरतलब है कि भाभा परमाणु केंद्र की बनावट भी शिवलिंग की तरह है। दरअसल, शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि परमाणु केंद्र ही है।हमें विचार करना होगा कि प्राचीन भारत का ज्ञान-विज्ञान कितनी उच्च कोटि का था।तभी तो हमारे ऋषि-मुनियों ने शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा डाली थी ताकि उससे उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा तरंगें शांत रहें।

4-जल और दूध के साथ शिवलिंग पर अर्पित किए जाने वाले बिल्व पत्र, आक, धतूरा, गुड़हल आदि पदार्थ भी परमाणु ऊर्जा सोखने वाले पदार्थ होते हैं। शिवलिंग पर चढ़ा पानी भी रेडियो एक्टिव हो जाता है, तभी जल निकासी नलिका को लांघा नहीं जाता। शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल नदी के बहते हुए जल के साथ मिलकर औषधि का रूप ले लेता है। तभी तो हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि महादेव शिव शंकर अगर नाराज हो जाएंगे तो प्रलय आ जाएगी। हमारी परंपराओं के पीछे गहन विज्ञान छिपा हुआ है।हमारे ऋषियों ने विज्ञान को परंपराओं का जामा इसलिए पहनाया था, ताकि वे प्रचलन बन जाएं और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें।

31-दक्षिणमूर्ति शिव;-

10 POINTS;-

1-भगवान शंकर के कई रहस्य है,बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है। यह रूप गुरुओं के गुरु के रूप में शिव को दर्शाता है।दक्षिण भारत के कई मंदिरों में बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख किये हुए भगवान शिव की मूर्तियों का पाया जाना आम बात है। शिव का यह रूप दक्षिणमूर्ति कहलाता है।

2-दक्षिणमूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। वह बरगद के पेड़ की छाया में बैठते हैं। बरगद का पेड़ भारत के साधु परंपराओं के साथ जुड़ा हुआ है और ये तपस्वी भौतिकवादी संसार के गृहस्थ लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं।दक्षिण केंद्र दक्षिण में दक्षिणकाली प्रसिद्ध है जो देवी का सबसे भयंकर रूप मानी जाती है। यहां दक्षिण दिशा मृत्यु और परिवर्तन को दर्शाती है। यहां वैतर्नी बहती है। यह नदी जीवित लोगों की भूमि को मृतकों की भूमि से अलग करती है। हिंदू गांवों में दक्षिण दिशा में शमशान भूमि का होना आम बात है। यहां मृतकों के शरीर को भी दक्षिण दिशा की ओर रखा जाता है।

3-शिव के कई रूप हैं लेकिन इस रूप में शिव के गले के चारो ओर एक सर्प लिपटा हुआ है और जटाओं के उपर एक चांद है। उनकी दाहिनी तरफ पुरुष की और बाईं ओर स्त्री की बाली है। यह स्वरूप तीन स्तरों को बतलाता है। पहला पौरुष और स्त्रीत्व रूप, दूसरा मन और भौतिकता और तीसरा नाम और रूपों के संसार के साथ अज्ञात और निराकार दुनिया। दक्षिणमूर्ति का बायां हाथ वरद मुद्रा को दर्शाता है जो दान की मुद्रा है। उनके दाहिने हाथ की मुद्रा में उनकी तर्जनी अंगुली अंगुठे को छूती दिखाई गई है जो ज्ञान या पांडित्य को दर्शाता है। यह मुद्रा उन्हें एक गुरु के रूप में भी दिखलाता है जो ज्ञान देते हैं।

4-उनके दो और हाथ दिखाए गये हैं। उनके संकेत अलग-अलग हैं लेकिन वो सभी पांडित्य को दर्शाते हैं। यह एक ईंधनविहीन ताप की आग है या ध्यान का अभ्यास है, जो ज्ञान को दर्शाता है और उन सभी गांठों को जला देता है जो मन को विस्तृत होने से रोकते हैं। उनकी जटा मे लिपटा सांप ज्ञान की जगमगाहट को दर्शाता है और संसार में लिप्त होने के बजाय यह इसकी उत्पत्ति के गवाहों में से एक है। उनके पास मनकों की एक माला है जिसका उपयोग जाप करने और यादाश्त के लिए किया जाता है।

5-उनके पास कई वाद्ययंत्र और किताबें हैं। उनके दाहिने पैर के नीचे अपस्मार नाम का एक राक्षस है जिसे विकृत यादों का राक्षस माना गया है और जो हमारे मन को अनंतता की ओर विस्तृत होने से रोकता है। शिव अपना बायां पैर अपनी दाहिनी जांघ पर रखते हैं। पारंपरिक रूप से शरीर का बायां हिस्सा प्रकृति को दर्शाता है और दायां हिस्सा मन को। नटराज की मूर्ति के अनुसार शिव अपने दाएं पैर को जमीन पर रखे हुए हैं और उनका बायां पैर या तो हवा में है या दाईं जांघ पर।

6-इस छवि के विपरीत श्रीकृष्ण हमेशा अपने बाएं पैर पर आराम करते हैं या दायें पैर को बायें पैर के उपर रखते हैं। श्रीकृष्ण भौतिकता का आनंद लेते हैं पर वह इसमें ज्ञान को भी समाहित करते हैं। जब श्रीकृष्ण के दोनों पैर जमीन पर होते हैं तो इसका अर्थ है कि वो भौतिकता और मन दोनों को महत्ता देते हैं। शिव भौतिकता के उपर मन को महत्ता देते हैं, इसलिये उनका केवल एक पैर जमीन पर होता है और इस कारण उन्हें एकपद यानि कि एक पैर वाला भगवान कहा जाता है।

7-इस प्रकार सांकेतिक रूप से यह रूप ज्ञान के कई प्रकारों को बतलाता है जैसे कि, भौतिकवाद की उथल-पुथल जो दुख का कारण बनती है और उस विचलित मन को स्थिर करने का ज्ञान।शिव के चरणों में कई संत बैठते हैं। शिव कभी-कभी उनलोगों को वेद और तंत्र का रहस्य बतलाते हैं। यह प्रवचन अगम या पौराणिक मंदिर परंपरा कहलाती है और यह निगम या वैदिक अनुष्ठान परंपरा का पूरक है। यह प्रवचन दक्षिणमूर्ति उपनिषद भी कहलाता है।

8-शिव का यह रूप उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत की परंपराओं में अधिक लोकप्रिय है। कहानी के अनुसार सभी साधू शिव के प्रवचन को सुनने के लिए उत्तर की ओर गये और इस कारण पृथ्वी उनके बोझ से एक ओर झुक गया। धरती को संतुलित करने के लिए शिव ने अपने शिष्य अगस्त्य को दक्षिण की ओर यात्रा करने को कहा। यही कारण है कि अगस्त्य दक्षिण के महान साधुओं में गिने जाते हैं। जिन साधुओं ने प्रवचन सुना, उन्होंने शिव से व्याघ्रपद का दान मांगा ताकि वो आसानी से उनकी पूजा के लिए जंगल से फूल इकठ्ठा कर सकें।

9-पतंजलि, सर्प, नंदी बैल और भृंगी को भी एक तीसरे पैर की आवश्यकता थी ताकि वो एक तिपाई की तरह खड़े हो सकें। हयग्रीव एक ऐसे पशु हैं जिनका सिर घोड़े का है और वो श्रीकृष्ण का एक रूप माने जाते हैं। कभी-कभी वो शुक का भी रूप माने जाते हैं जिसका सिर तोते का है और जो व्यास के पुत्र हैं।काल और कालीआदि शंकर ने दक्षिणमूर्ति स्त्रोतम की रचना की जिसमें उन्होंने महसूस किया कि किस प्रकार खामोश दिखने वाला यह युवा शिक्षक अपने ज्ञान से बूढ़े साधुओं को प्रकाशित करता है।

10-शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में उन्होंने शिव से शादी कर ली और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से साधुओं के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। तंत्र में इसी प्रकार यह संवाद दिखाया गया है। अगर वो काल यानि समय हैं तो वो काली हैं जो समय को अपने अधीन रखती हैं। यह वो ही हैं जो शव या शिव में शव बनाती हैं। यह देवी ही हैं जो दक्षिण से हैं, जो भौतिकता और परिवर्तन को मूर्त रूप देती हैं और जवाबों को प्रेरित करती हैं। जवाब केवल बोलकर ही नहीं दिए जाते हैं बल्कि इन्हें नृत्य या गीतों के द्वारा भी दर्शाया जाता है। इसलिये भारतीय शास्त्रीय नृत्य इतना समृद्ध है।

32-शिव हर काल में ..सर्वत्र शिव ही शिव:-

11 POINTS;-

1-वेद कहते हैं कि जो जन्मा है, वह मरेगा । वेदों के अनुसार ईश्वर या परमात्मा अजन्मा, अप्रकट, निराकार, निर्गुण, निर्विकार है और अजन्मा का अर्थ है,जिसने कभी जन्म नहीं लिया और जो आगे भी जन्म नहीं लेगा।प्रकट अर्थात जो किसी भी गर्भ से उत्पन्न न होकर स्वयंभू प्रकट हो गया है और अप्रकट अर्थात जो स्वयंभू प्रकट भी नहीं है। निराकार अर्थात जिसका कोई आकार नहीं है, निर्गुण अर्थात जिसमें किसी भी प्रकार का कोई गुण नहीं है, निर्विकार अर्थात जिसमें किसी भी प्रकार का कोई विकार या दोष भी नहीं है।

2-भगवान शिव स्वयंभू(सेल्फ बॉर्न) है।सृष्टि, पालन, संहार तिरोभाव और अनुगृह ये पांच शिवजी के कृत्य है।शिवजी कहते है कि इन पांच कृत्यों का भार वहन करने के लिए मेरे पांच मुख है। मेरे पांच मुखों से ओंकार प्रकट हुआ है। मेरे उत्तर के मुख से (अ) कार, पश्चिम के मुख से (उ) कार, दक्षिण के मुख से (म) कार, पूर्व के मुख से बिंदु तथा मध्य के मुख से नाद प्रकट हुआ है।सृष्टि भूतल में; स्थिति जल में; संहार अग्नि में; तिरोभाव वायु में और अनुगृह आकाश में स्थित है।

3-शिवपुराण के अनुसार भगवान सदाशिव और पराशक्ति अम्बिका (माता पार्वती या माता सती नहीं) से ही भगवान शंकर की उत्पत्ति मानी गई है। उस अम्बिका को प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी (ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माता), नित्या और मूल कारण भी कहते हैं।सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं।पराशक्ति जगतजननी ,वह शक्ति की देवी कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी माता दुर्गा हैं।

4-काशी के आनंदरूप वन में रमण करते हुए एक समय दोनों को यह इच्‍छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें। इस हेतु उन्होंने वामांग से विष्णु को प्रकट किया।इस प्रकार विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं।विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके ब्रह्माजी को अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही उन्हें विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया।इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ।

5-एक बार ब्रह्मा और विष्‍णु दोनों में सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई हो गई, तो बीच में कालरूपी प्रचण्ड अग्नि का एक महा स्तंभ प्रकट हुआ जो ऊपर-नीचे अनादि और आनन्त था। दोनों ने इसे ही झगड़े का निर्णायक समझा। दोनों ने निर्णय किया-ब्रह्मा स्तंभ के ऊपरी हिस्से का पता लगाएं तथा विष्णु नीचे के भाग का। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया तथा विष्णु ने बाराह का रूप धारण किया। दोनों ने हजार वर्ष तक उस ज्योति-स्तंभ का अंत पा लेने की चेष्टा की, पर पार नहीं पा सके। अन्त में हार कर उस ज्योतिर्लिंग की दोनों ने प्रार्थना की, पूजा की। भगवान शिव प्रकट हुए तथा उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र तीनों की उत्पत्ति महेश्वर के अंश से ही होती है। तीनों अभेद हैं, तीनों समान हैं।

6-तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा- 'पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके मुझसे सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (प्राणों को निकालकर दूसरे शरीर में स्थापित करने की क्रिया ) मुझसे प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना/मोक्ष) नामक कृत्य कोई दूसरा नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।

7-सदाशिव कहते हैं- ''ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।''अब यहां 7 आत्माये हो

गईं...ब्रह्म (परमेश्वर) से सदाशिव, सदाशिव से दुर्गा। ‍‍सदाशिव-दुर्गा से विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, महेश्वर। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और महेश के जन्मदाता कालरूपी सदाशिव और दुर्गा हैं।

8-यह 'ब्रह्माण्ड' परमात्मा की निजी शक्ति का व्यावहारिक पक्ष है।शिव की स्वतंत्र निजी शक्ति के दो शाश्वत रूप उसकी ब्रहमाण्ड व्यवस्था में प्रतीत होते हैं, जिन्हें विद्या तथा अविद्या कह सकते हैं। परमात्मा के पारमार्थिक आनंदमय स्वरूप को प्रकट करने वाली शक्ति 'विद्या' कहलाती है तथा परमात्मा की प्रापंचिक विभिन्ननाओं के आवरण से ढकी शक्ति अविद्या कहलाती है। परमात्मा की अभिन्न शक्ति के ही दोनों रूप हैं।

9-नाना आकारों में उसकी ही अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति उसकी शक्ति का विलास है, लीला है।पारमार्थिक पक्ष में परमात्मा पूर्णतया एक है।उसके चरम सत् और चित् में कोई भेद नहीं, उसके स्वभाव में कोई द्वैत एवं सापेक्षिता नहीं।यहां वह चरम अनुभव की अवस्था में है जिसमें स्वनिर्मित ज्ञाता-ज्ञेय(Knower- known)का कोई भेद नहीं है। परमात्मा का यह स्वरूप प्रकाश स्वरूप है।

10-जब कुछ नहीं था तो भगवान शिव थे और सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी उनका अस्तित्व रहेगा। भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे।जिसे हम शिव कहते हैं, वह और कुछ नहीं, बस चरम बोध का साकार रूप है।शिव और योग का मतलब है '' आंतरिक विकास का विज्ञान'' है।

11-शिव अनादि-अनन्त है, शिव ही तो सर्वत्र है।यत्र तत्र सर्वत्र ..शिव ही शिव है, वर्तमान शिव , भूत शिव और भविष्य भी शिव है। शिव ही शक्ति है, शिव ही भक्ति है और शिव से ही हर अभिव्यक्ति पूर्ण होती हैं ।शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है।मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। इसीलिए कहा गया है- शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है.. यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं और सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है.. आनंद, परम मंगल , परम कल्याण। ॐ नमः शिवाय।हर हर महादेव।

....SHIVOHAM....


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