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इस जगत में काटे अकेले नहीं आते, फूलों के साथ आते हैं। न फूल अकेले आते हैं, फूल भी कीटों के साथ आते ह


कुछ बातें समझ लेने जैसी है।

पहली बात, यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी अड़चनें होती हैं, बहुत से रोग होते हैं। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना,कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। क्योंकि इस जगत में काटे अकेले नहीं आते, फूलों के साथ आते हैं। न फूल अकेले आते हैं, फूल भी कीटों के साथ आते हैं। यहां हर कड़वाहट में कोई मिठास छिपी होती है।

तो यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी तकलीफें होती हैं। दूसरी बात भी इतनी ही सच है—जों खयाल में नहीं है—कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। जैसे समझो, मासिक धर्म के चार दिन, पांच दिन स्त्रियों के लिए बड़ी नकारात्मक दशा के दिन हैं। सारा चित्त निषेध सै भर जाता है। रुग्ण हो जाता है, क्रोध से भर जाता है, विषाद से भर जाता है, जीवन बोझिल मालूम होता है। जैसे एक छोटी सी मौत घटने लगी। ऐसी तकलीफ पुरुष को नहीं आती। लेकिन तुम्हें पता नहीं, ये चार— दिन में जो नकारात्मकता पैदा हो जाती है, वह बह भी जाती है चार दिन में और बाकी जो महीना है वह ज्यादा प्रफुल्लता का होता है। वैसी प्रफुल्लता पुरुष की नहीं होती। उसकी नकारात्मकता निकलने में तीस ही दिन लगते हैं। थोड़ी— थोड़ी निकलती है, इकट्ठी नहीं निकलती। स्त्रियों का रोग इकट्ठा चार दिन में निकल जाता है। क्योंकि अंततः तो दोनों के रोग एक जैसे हैं, निकलना तो पड़ेगा ही।

तो स्त्री चार दिन में थोक रूप से परेशान हो लेती है, पुरुष तीस दिन फुटकर रूप से परेशान रहता है। इसलिए पुरुष की पीड़ा कभी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। लेकिन पुरुष की प्रफुल्लता भी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। स्त्री की कोमलता, स्त्री का सौंदर्य, उसी मासिक धर्म के कारण है। वह जो मासिक धर्म सारे विषाद को, सारे जहर को बहा देता है, तो बाकी शेष महीने में स्त्री हल्की हो जाती है। पुरुष पूरे महीने उसी बेचैनी में रहता है। धीरे—धीरे करके उसकी बेचैनी निकलती है।

तो एक बात तो खयाल रखना, अगर बेचैनी की पूरी मात्रा खयाल में लो तो स्त्री—पुरुष में कोई भेद नहीं है, बेचैनी की मात्रा तो बराबर है। जैसे समझ लो कि सौ का आकड़ा है, तो चार दिन में स्त्री सौ का आकड़ा निकाल लेती है, और पुरुष को निकालने में तीस दिन लगते हैं। स्वभावत: रोज की मात्रा पुरुष पर कम पड़ती है, स्त्री की चार दिन में मात्रा बहुत हो जाती है। एक बात।

दूसरा पहलू बहुत कम देखा गया है। स्त्रियां भी नहीं देखतीं कि दूसरा पहलू भी छिपा है। स्त्रियों का जो गीत है, स्त्रियों का जो सौंदर्य है, स्त्रियों की जो कोमलता है, स्त्रियों का जो प्रसाद है, वह कहां से आ रहा है र वह चार दिन में जो निकल गया जहर, तो फिर से एकदम हल्कापन हो गया, बोझ उतर गया। अगर यह दूसरी बात भी खयाल में रहे, तो चार दिन का बोझ बहुत बोझ नहीं मालूम पड़ेगा। उसका लाभ भी ध्यान में रखना जरूरी है, एक बात।

दूसरी बात, मासिक धर्म के कारण उतनी गड़बड़ी नहीं हो रही है, जितनी गड़बड़ी होती है स्त्रियों के शरीर—तादात्म के कारण। स्त्रिया अपने को बहुत शरीर मानती हैं, इतना पुरुष नहीं मानता। पुरुष अपने को मन के साथ तादात्म करता है। स्त्री अपने को शरीर के साथ तादात्म करती है।

इसलिए स्त्री की उत्सुकता शरीर में होती है, दर्पण के सामने खड़ी है घंटों! पुरुष को समझ में ही नहीं आता कि दर्पण के सामने अपनी ही सूरत घंटों देखने का क्या प्रयोजन है! घंटों वस्त्र सम्हाल रही है। ऐसा कोई मौका ही नहीं होता जब कि स्त्री समय पर कहीं पहुंच जाए, क्योंकि वह उसका बार—बार मन बदल जाता है कि दूसरी साड़ी पहन लूं, कि इस तरह कर लूं कि उस तरह के बाल सजा लूं। पति हार्न बजा रहा है नीचे और वह तैयार ही नहीं हो पाती। हर तैयारी कम मालूम पड़ती है। स्त्री का शरीर—बोध बहुत प्रगाढ़ है।

मनुष्य के भीतर तीन तत्व हैं—आत्मा, मन और शरीर। पुरुष का रोग मन से जुड़ा है, स्त्री का रोग शरीर से जुड़ा है। इसलिए पुरुष के झगड़े और ढंग के होते हैं। पुरुष का झगड़ा होता है सिद्धात का, शास्त्र का, हिंदू का, मुसलमान का, राजनीति का; इस विचार का, उस विचार का, हम इस विचार को मानते,तुम उस विचार को मानते। स्त्री को समझ में नहीं आता कि क्या बकवास कर रहे हो! अरे, कुरान मानो कि बाइबिल मानो, कुछ भी मानो, रखा क्या है, सब बराबर है। असली सवाल तो शरीर है—सुंदर कौन है? कीमती साड़ी किसने पहनी है? बहुमूल्य हीरे—जवाहरात किसके पास हैं? यह बात सोचने जैसी है।

स्त्री इसमें बेचैन नहीं होती, जब एक दूसरी स्त्री उसके सामने से निकलती है, तो वह यह नहीं देखती कि यह हिंदू है कि मुसलमान है कि ईसाई है कि पारसी है, वह देखती है यह कि अच्छा, तो यह साड़ी इसने खरीद ली! तो ये गहने इसने बना लिए! तो मैं पिछड़ गयी! स्त्रियों की चर्चाएं सुनते हो? बैठकर जब वे चर्चाएं करती हैं तो वे इसी तरह की चर्चाएं हैं, बहुत शरीर से जुड़ी हैं, शरीर से बंधी हैं।

तो इस कारण अड़चन आती है। क्योंकि मासिक धर्म में शरीर बड़ी पीड़ा से गुजरता है और स्त्रियों का बहुत जोर शरीर से है कि हम शरीर हैं, इसलिए अड़चन होती है। अड़चन असली में मासिक धर्म के कारण नहीं हो रही है, शरीर के साथ जुड़े होने के कारण हो रही है।

तो अड़चन से बाहर होना हो तो धीरे— धीरे शरीर से अपना जोड़ कम करना चाहिए। यह बोध धीरे—धीरे लाना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। यह औषधि। खासकर मासिक धर्म के चार दिनों में तो निरंतर यह चिंतन और भाव करना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। बाकी समय भी यह चिंतन चलना चाहिए, यह भाव चलना चाहिए। यह भाव जितना घना होकर भीतर बैठ जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं—और इस भाव को घना करने के लिए जो—जो जरूरी हो, वह भी करना चाहिए।

इसलिए तो मैं कहता हूं तुमने संन्यास ले लिया तो मैं कहता हूं र बस अब गैरिक वस्त्र पहनो, और बाकी सब रंग समाप्त हुए। अब इनका चिंतन न करना पड़ेगा, अब विचार न करना पड़ेगा। संन्यासी स्त्री का फायदा देखते हैं, जल्दी तैयार हो जाती है। कुछ तैयार होने को ज्यादा है नहीं। वह एक ही रंग है,रंगों में कोई चुनाव नहीं करना है, बहुत साड़ियां नहीं हैं।

स्त्रियां मेरे पास संन्यास लेने आती हैं, पुरुष लेने आते हैं, उनके रुकने के कारण अलग होते हैं। एक स्त्री ने कहा कि कैसे संन्यास लूं र तीन सौ साड़ियां हैं, इनका क्या होगा? किसी पुरुष ने अब तक मुझसे नहीं कहा कि इतने कपड़े हैं, इनका क्या होगा? उसका कारण दूसरा होता है। वह कुछ और कारण बताता है। लेकिन स्त्री का कारण सीधा—साफ है कि उसके पास तीन सौ साड़िया हैं, ये सब बेकार चली जाएंगी अगर संन्यास ले लिया तो। फिर इनका क्या होगा? स्त्रियां मुझसे पूछती हैं, संन्यास लेने के बाद गहने इत्यादि पहन सकते कि नहीं?

तो जिन—जिन बातों से शरीर का तादात्म्य बढ़ता है—वस्त्र हैं, गहने हैं, सजावट है—उनको धीरे—धीरे विसर्जित कर दो। और तुम पाओगे कि मासिक धर्म को जितना प्रभाव था, वह उसी मात्रा में कम होने लगा जिस मात्रा में शरीर से जोड़ हटने लगा। शरीर के साथ अपने को थोड़ा शिथिल करो। शरीर के साथ जोड़कर अपने को मत देखो। शरीर से अपने को भिन्न देखो। और ऐसा कोई अवसर मत नको जब शरीर से भिन्न देखने का मौका मिले, जरूर देख लो। दर्पण के सामने भी खड़े होकर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। तो कोई हर्जा नहीं, तीन घंटे दर्पण के सामने खड़े होना है तो खड़े रहो, मगर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। इस खयाल की गहराई के बढ़ने के साथ ही साथ मासिक धर्म की पीड़ा एकदम कम होती चली जाएगी।

और तब तुम चकित होकर पाओगी कि जैसे—जैसे मासिक धर्म की पीड़ा कम हो गयी है, वैसे—वैसे मासिक धर्म का जो लाभ है, वह तुम्हें दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगा। कि चार दिन में निपट गए, यह अच्छा ही है। यह समझदारी ही है। जल्दी निपट गए। माना कि आग तेज थी, मगर जल्दी निपट गए। बाकी दिन जो बचते हैं, वे ज्यादा सुख—शांति के हैं।

मासिक धर्म की बात कुछ नयी नहीं है। धर्म शास्त्रों में बड़ा विचार हुआ है। बुद्ध—महावीर को भी विचार करना पड़ा है। क्योंकि यह प्रश्न प्राचीन है। यह सदा से है। कोई आज की ही स्त्री शरीर से नहीं जुड़ गयी है, सदा से जुड़ी रही है। स्त्री का रोग है शरीर, पुरुष का रोग है मन। और चाहे तुम शरीर से जुड़े रहो, चाहे मन से, दोनों हालत में तुम आत्मा से चूकते हो। मन से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे, शरीर से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे।

पुरुष को छोड़ना है मन के साथ अपना लगाव, स्त्री को छोड़ना है तन के साथ अपना लगाव। दोनों को बराबर मेहनत करनी है। तन के साथ लगाव छोड़ने में उतनी ही मेहनत है जितनी मन के साथ लगाव छोड़ने में हैं। और दोनों से लगाव छूट जाने पर जो शेष रह जाता है, अ—लगाव की जो दशा, असंग दशा, वहीं आत्मबोध है। वही आत्मबोध स्वास्थ्य है।

पूछा है तुमने कि 'स्वस्थ होने की कोई औषधि?

स्वस्थ होने की एक ही औषधि है, इस बात की प्रतीति कि मैं आत्मा हूं—न शरीर, न मन। मन के रोग हैं, शरीर के रोग हैं।

तुम जानकर चकित होओगे, स्त्रिया कम पागल होती हैं पुरुषों की बजाय, संख्या पुरुषों की दुगुनी है। पुरुष दोगुने ज्यादा पागल होते हैं। क्यों? क्योंकि स्त्रियों का पागलपन थोक मात्रा में निकल जाता है, पुरुषों का पागलपन अटका रह जाता है। फिर स्त्रियां कम पागल होती हैं, क्योंकि उनका लगाव तन से है, तन थोड़े ही पागल होता है। पुरुष पागल होते हैं, क्योंकि उनका लगाव मन से है, मन पागल होता है। ज्यादा पुरुष आत्म हत्याएं करते हैं—दुगुने पुरुष।

यह तुम्हें थोड़ी हैरानी होगी। क्योंकि आमतौर से तुम स्त्रियों को ज्यादा धमकी देते पाओगे आत्महत्या की। करतीं नहीं, धमकी देती हैं, उनकी धमकी की बहुत चिंता मत लेना। और अगर करती भी हैं तो इतने इंतजाम से करने की कोशिश करती हैं कि बचा ली जाएं। अगर नींद की गोली भी खाएंगी तो पांच—छह—सात से ज्यादा नहीं खातीं। वह सिर्फ धमकी है। दस स्त्रियां चेष्टा करती हैं आत्महत्या की, नौ बच जाती हैं। दस पुरुष चेष्टा करते हैं, पांच बच पाते हैं। पुरुष की चेष्टा, वह हिम्मत से घुस ही जाता है अंदर एकदम, फिर वह सोचता ही नहीं कि यह अब क्या करना है! वह बिलकुल पागल हो जाता है।

दुगुने पुरुष आत्महत्या से मरते हैं, दुगुने पुरुष पागल होते हैं। और इस सबके मूल में मासिक धर्म का सहारा है स्त्री को। चार दिन में उसका सारा पागलपन निकल जाता है—रों लेती, धो लेती, पीड़ा में तडुफ लेती, सब तरह के विषाद से भर जाती, फिर हल्की हो जाती।

स्त्री का तन कष्ट पाता है, पुरुष का मन कष्ट पाता है। और कष्ट तो जारी रहेगा, जब तक आत्मा से जोड़ न हो जाए। फिर पुरुष का कष्ट हो, स्त्री का कष्ट हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—बराबर हैं दोनों।

तो जैसे—जैसे तुम तन और मन से अपने को तोड़ते चलो, वैसे—वैसे स्वस्थ होते चलो। आत्मा में डूब जाना ही स्वस्थ होने का उपाय है।

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क्‍या अंग्रेजी का शब्द साल्वेशन और संस्कृत कै मोक्ष, बैकुंठ और निर्वाण, सब समानार्थी हैं?

परम अर्थो में, अंतिम अर्थों में, हां। प्रथामिक अर्थों में नहीं। पारमार्थिक अर्थों में, हां। व्‍यवहारिक अर्थों में तो फर्क है।

साल्‍वेशन अर्थ होता है, किसी और के द्वारा। इसलिए ईसाई सोचते हैं, जीसस के द्वारा। स्वयं के द्वारा नहीं, किसी और के द्वारा कोई आएगा कल्याणकर्ता, कोई आएगा उद्धारक, मसीहा, उसके द्वारा मुक्‍ति होगी, तो साल्वेशन।

यह मोक्ष की सबसे निम्न धारणा है। क्योंकि दूसरे के द्वारा जो होगा, वह तो मोक्ष होगा कैसे? दूसरे में ही उलझे—उलझे तो संसार है, फिर भी उलझे दूसरे में ही हैं। पहले पत्नी में उलझे थे, पति में उलझे थे, बेटे में उलझे थे, अब इससे छूटे तो अब मसीहा आएगा, तो मुक्‍ति होगी। मुक्‍ति भी अपने हाथ में नहीं तो क्या खाक मुक्‍ति! जब मुक्‍ति भी दूसरे के हाथ में है, तो मुक्‍ति भी बंधन हो गयी। फिर मसीहा आज क्या कर देगा। और कल अगर मसीहा का दिल बदल गया! जो हाथ में दूसरे के है, वह तुम्हारा नहीं। वह तुम्हारी मालकियत नहीं। यह मोक्ष की सबसे निम्नतम धारणा है, कि दूसरा। यह संसार के बहुत करीब है।

इसलिए ईसाइयत बहुत ऊपर नहीं उठी। ईसाइयत का धर्म संसार के बहुत करीब है। इसलिए ईसाई पादरी—पुरोहित बिलकुल सांसारिक है। उसमें कुछ धर्म की वैसी पारलौकिक गंध नहीं है, जैसी बौद्ध भिक्षु में दिखायी पड़ेगी, हिंदू संन्यासी में दिखायी पड़ेगी, जैन मुनि में दिखायी पड़ेगी, वैसी गंध नहीं है। कुछ चूक रहा है। उसकी साल्वेशन की जो धारणा है, मुक्‍ति की जो धारणा है, वह भी बासी और उधार है —दूसरा कोई करेगा। तो बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे। और जीसस आए और गए भी और ईसाई सोचते हैं, मुक्‍ति हो गयी, जीसस के आने से मुक्‍ति हो गयी। तो अब करने को कुछ बचा ही नहीं है! इसलिए यह मुक्‍ति की धारणा मुक्‍ति में सहयोगी तो नहीं बनी, बाधा बनी। अब तो करने को कुछ है नहीं!

अब तुम समझो। ईसाइयत की धारणा यह है कि अदम के कारण पाप हुआ। तुमने पाप भी नहीं किया। हद्द हो गयी! तुम कुछ करोगे कभी कि नहीं! पाप भी अदम ने किया, तो उसका पाप तुम भोग रहे थे। फिर आए जीसस, उन्होंने पुण्य किया, अब उनका पुण्य तुम भोग रहे हो। तुम उधार ही उधार हो! नगद कुछ भी है तुम्हारे भीतर न पाप भी अपना नहीं! पुण्य भी अपना नहीं!

यह बात बहुत गहरी नहीं है। अदम का पाप हमें क्यों पापी बनाएगा ' अदम ने किया होगा, अदम समझे—बूझे! इससे तो व्यक्तिगत आत्मा की हत्या ही हो गयी। अदम कब हुआ! हुआ कि नहीं हुआ! पाप भी कोई बहुत बड़ा नहीं किया। पाप ऐसा किया जो करना ही था। ईश्वर ने कहा था कि इस बगीचे के ज्ञान के फल को मत चखना और अदम ने चखा। कोई भी आदमी जिसमें थोड़ी भी हिम्मत हो, यही करता। और फिर ज्ञान का फल! छोड़ देने जैसा भी नहीं था। अदम ने जोखिम उठायी, उसने कहा, हो पाप हो! कारण क्या रहा होगा g अगर हम अदम के मनोविज्ञान में उतरें तो हमें समझ में आएगा।

अदम ऊब गया था, सुख ही सुख, सुख ही सुख। मिठाई ही मिठाई, मिठाई ही मिठाई, तो डायाबिटीज पैदा हो जाती है। तो अदम को डायबिटीज हो गयी होगी। सुख ही सुख था वहा, दुख तो था ही नहीं कुछ मोक्ष में, उस ईश्वर के राज्य में, सब सुख ही सुख था, पीड़ा तो कुछ थी ही नहीं। ऊब गया होगा। थक गया होगा। जितना आदमी सुख से थक जाता है उतना किसी और चीज से नहीं थकता। कुछ करने का जी होने लगा होगा। कुछ नए का स्वाद लेने का मन उठने लगा होगा।

तो उसने जोखिम उठायी। वह ऊबा हुआ था, उसने कहा कि ठीक है, ज्यादा से ज्यादा इस स्वर्ग के बाहर ही निकाल दोगे न! इस स्वर्ग में रखा भी क्या है! यह स्वर्ग एक तरह की गुलामी थी। जहा ज्ञान का फल खाने की भी आशा न हो, वह स्वर्ग क्या! और क्या आज्ञा दोगे, जहा शान का फल खाने की भी आशा नहीं है! तो अदम राजी हो गया, उसने ज्ञान का फल खा लिया और स्वर्ग से निकाल दिया गया। क्योंकि ईश्वर बहुत नाराज हो गया—उसकी आज्ञा का उल्लंघन हुआ।

यह ईश्वर न हुआ साधारण बाप हुआ, यह छोटी—मोटी आशाओं के उल्लंघन से एकदम दीवाना हो जाता है। अगर बाप भी थोड़ा हिम्मतवर होता तो पीठ ठोंकता अदम की कि तूने ठीक किया बेटा, अब तू जवान हुआ। बाप को इनकार करके ही तो बेटा जवान होता है। जब तक बेटा बाप को इनकार नहीं करता तब तक तो दुधमुंहा रहता है—तब तक जवान होता ही नहीं, दूध के दांत टूटे ही नहीं। जब तक बाप जो कहता है, ही में ही भरता है, तब तक कहीं कोई बेटा जवान होता है! मनोविज्ञान से पूछो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जब बेटा नहीं कहता है बाप को, उसी दिन बेटा जवान होता है। तो अदम ने कुछ कसूर न किया,जवान हुआ।

अदम को निकाल दिया, कसूर भी कोई बड़ा न था, सिर्फ अपनी प्रौढ़ता की घोषणा थी कि मैं अपनी जिंदगी अपने हाथ में लेना चाहता हूं। ज्ञान का फल खाने का मतलब क्या? कि अब मैं उधार नहीं जीना चाहता; तुम जानो और मैं बिना जाने जीयूं! बाप ने यही कहा था कि तुझे जानने की जरूरत क्या, मैं सब जानता हूं; तू सिर्फ मेरी मान और चल।

यही तो सभी बाप कहते हैं कि तुझे जानने की क्या जरूरत है, मैं तो सब जानता हूं तू तो सिर्फ हमारी आशा मान। लेकिन कौन बेटा ज्यादा देर तक इसके लिए राजी हो सकता है! उन बेटों को छोड़ दो जो गोबर—गणेश हैं। उनका कोई मतलब भी नहीं है, वे हैं भी नहीं।

अदम ने जो पाप किया, करना ही था। जरूरी था, पाप था ही नहीं। अदम ने हिम्‍मत की जवान होने की। हर बेटे को करनी पड़ती है, एक दिन हर बेटे को, हर बेटी को अपने मां—बाप को इनकार करना पड़ता है। यह होना ही है। यह होना ही चाहिए। इसी से तो रीढ़ पैदा होती है। इसको ईसाई कहते हैं, पाप हो गया। यह भी खूब पाप हुआ!

और दूसरा मजा यह कि पाप किसी ने किया—जिसका हमें कोई लेना—देना नहीं—हम सब उसका पाप भोग रहे हैं, क्योंकि हम सब उसकी संतान हैं! यह भी अजीब बात हुई! बाप पाप करे और बेटा भोगे। बाप के बाप पाप करें और बेटा 'भोगे। तो फिर व्यक्तिगत आत्मा का अर्थ ही न रहा। फिर व्यक्तिगत आत्मा का क्या मूल्य! फिर तुम हो, यह कहने में क्या सार! तुम हो ही नहीं।

हजारों साल पहले किसी आदमी ने कोई भूल—चूक की थी, उसका पाप तुम्हारी आत्मा पर गहरा है! तुमसे कुछ लेना—देना नहीं। जो तुमने भूल नहीं की,उसकी जिम्मेवारी तुम पर नहीं हो सकती।

यह धारणा ही बुनियादी रूप से गलत। फिर इस गलत धारणा को ठीक करने के लिए दूसरी गलत धारणा पैदा करनी पड़ी कि जब पाप दूसरे का किया आदमी भोग रहा है, तो फिर पुण्य भी दूसरे का ही किया आदमी भोगेगा।

तो सारा मजा कि कथा अदम से शुरू हुई, जीसस पर समाप्त हो गयी, हमें कुछ लेना—देना नहीं, हम सिर्फ दर्शक हैं। पाप अदम ने किया, जीसस ने क्षमा मांग ली। अदम ने आज्ञा तोड़ी थी, जीसस ने आज्ञा पूरी कर दी। अदम स्वर्ग के बाहर निकाल दिया गया था, जीसस जुलूस के साथ शोभा—यात्रा में स्वर्ग में वापस प्रविष्ट हो गए। और हम? अदम और जीसस को छोड़कर बाकी जो लोग हैं, ये? ये सिर्फ दर्शक हैं! किसी का पाप ढोते हैं, किसी का पुण्य ढोने लगते हैं! लेकिन इसका तो —अर्थ हुआ कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा नहीं है।

इसलिए मैं साल्वेशन को मोक्ष की सबसे निम्नतम धारणा कहता हूं, क्योंकि इसमें दूसरे पर भरोसा है। मोक्ष से थोड़े ऊपर जाता है हिंदुओं का बैकुंठ। थोड़े ऊपर जाता है। बहुत ऊपर नहीं जाता।

बैकुंठ का अर्थ होता है, परमात्मा के प्रसाद से। कोई मनुष्य नहीं है माध्यम, लेकिन अभी भी दूसरा महत्वपूर्ण है, परमात्मा का प्रसाद! परमात्मा चाहेगा तो उठा लेगा, उसकी अनुकंपा होगी तो उठा लेगा। और फिर सदा परमात्मा के साथ बैकुंठ में रहेंगे, मजा भोगेंगे, सुख ही सुख होगा, स्वर्ग होगा, अप्सराएँ होंगी,कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे बैठकर सारी—सारी वासनाओं को तृप्त करेंगे।

यह साल्वेशन से थोड़े ऊपर जाता। कम से कम किसी मसीहा को तो बीच में नहीं लिया है। कम से कम आदमपुत्र को तो बीच में नहीं लिया है, सीधा ईश्वर है। चलो, इतना ही बहुत। यह थोड़ी ऊपर जाती धारणा। और, उसकी अनुकंपा से होगा। तो उसकी अनुकंपा अर्जित करनी होगी। उसकी अनुकंपा अर्जित करने के लिए हृदय को स्वच्छ करना होगा, प्रार्थनापूर्ण करना होगा, निर्मल करना होगा, यह भक्तों की धारणा है।

लेकिन बैकुंठ में भी परमात्मा रहेगा, हम रहेंगे, अलग—अलग। दो रहेंगे। और जहा दो हैं, वहां तक अभी बात बहुत ऊपर नहीं गयी। क्योंकि जहां बात बहुत ऊपर जाएगी वहां तो एक बचना चाहिए। जहां तक द्वंद्व है, द्वैतु है, वहां तक मन का सब विकार है। क्योंकि मन ही चीजों को दो में तोड़ता है। जहा मन ही न रहा, वहा दो कैसे रहेंगे?

इसलिए तीसरी धारणा है मोक्ष की। वेदांत, जैन—इनकी धारणा और ऊंची जाती है। मोक्ष का अर्थ है, दो न रहे, एक ही बचा। हिंदू उस एक को कहते,ब्रह्म। व्यक्ति की आत्मा, मनुष्य की आत्मा उसमें समा गयी, ब्रह्म में। हम खो गए। बूंद सागर में गिर गयी और सागर हो गयी। ब्रह्म बचा, ब्रह्ममात्र। यह हिंदुओं की धारणा, वेदांत की।

जैनों की धारणा कि सागर बूंद में समा गया। परमात्मा हममें लीन हो गया। हम बचे, मैं बचा, आत्मा बची। हिंदुओं से जैनों की धारणा ऊपर जाती है। क्योंकि मैं समा गया, मैं खो गया, परमात्मा बचा, तो इसका अर्थ यह हुआ कि फिर मैं था ही नहीं, परमात्मा ही था। खो तो वही सकता है जो रहा ही न हो। मिट तो वही सकता है जो कभी रहा ही न हो, सिर्फ भास होता था जिसका। तो मनुष्य की गरिमा को चोट पहुंचती है। महावीर ने मनुष्य की गरिमा को चोट नहीं पहुंचने दी। उन्होंने कहा, मनुष्य की गरिमा को चोट जो धर्म पहुंचा दे, वह मनुष्य को गुलाम बना देगा। मनुष्य की गरिमा अपरिसीम है, आखिरी है। तो आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। लीन नहीं होती परमात्मा में, परमात्मा बन जाती है। जैसे बूंद में सागर उतरता।

बूंद का सागर में उतरना तो साधारण सी बात है, समझ में आ जाता है। लेकिन बूंद में सागर का उतरना बड़ी असाधारण घटना है। तो सिर्फ आत्मा बचती है मोक्ष में, शुद्ध आत्मा बचती है, निर्मल ज्योति बचती है चेतना की, कोई दूसरा नहीं। फिर निर्वाण है। निर्वाण बौद्धों की धारणा है। वह सबसे ऊपर की धारणा है। फिर उसके पार कोई धारणा कभी नहीं गयी है। निर्वाण का अर्थ है, न तो परमात्मा बचता है, न मैं बचता, कोई भी नहीं बचता—शून्य बचता है। क्योंकि बौद्ध कहते हैं, अगर परमात्मा बचा और मैं न बचा, तो दो तो न रहे, एक रहा। अगर मैं बचा, परमात्मा न बचा, तो भी दो न रहे, एक रहा। लेकिन जब तक एक है तब तक दूसरा भी किसी न किसी भाति मौजूद रहेगा। क्योंकि एक का कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। जब दो खो गए, तो एक भी खो जाना चाहिए; एक का क्या अर्थ है!

अगर हम कहते हैं—एक, तो तत्क्षण दो का खयाल आता है। एक कहते ही दो का खयाल आता है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि कोई एक कहे और तुम्हें दो का खयालय आए? इसीलिए तो वेदांतियों ने एक अनूठा ढंग खोजा—वे ऐसा नहीं कहते कि परमात्मा एक है, वे कहते 'हैं, परमात्मा अद्वैत है, दो नहीं। सीधी बात को कि एक है, सीधा नहीं कहते, क्योंकि एक कहने से तो दो का खयाल आता है, तत्क्षण खयाल आता है। एक का तो कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। सोचो, अगर एक ही है, तो उसको एक भी कैसे कहोगे! दो होने चाहिए तो ही एक में कोई अर्थ हो सकता है।

तो हिंदू कहते हैं, दो नहीं है। लेकिन बौद्ध कहते हैं, चाहे तुम एक कहो, चाहे तुप दो नहीं कहो, ये कितनी ही चालाक तरकीबें निकालो, कितनी ही होशियारी करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर एक है, तो दो बचते हैं। अगर तुम कहो दो नहीं, तो भी एक की ही धारणा रह जाती। और उस निराकार दशा में न एक है, न दो है —वह संख्यातीत, संख्या के बाहर।

तो संख्यातीत तो एक ही चीज है, शून्य। शून्य मात्र संख्या के बाहर है। शून्य एक है कि दो, कि तीन, कि चार, कि पांच? शून्य तो सिर्फ शून्य है। न एक, न दो, न चार, न पांच। इसलिए शून्य के जो अर्थ लगाने हों लग जाते हैं। एक पर रख दो शून्य तो नौ के बराबर हो जाता है। दो पर रख दो शून्य तो अठारह के बराबर हो जाता है। तीन पर रख दो शून्य, सत्ताईस के बराबर हो गया! शून्य में कुछ है ही नहीं, शून्य तो बस शून्य है; शून्य तो दर्पण जैसा है—जो सामने ले आओ, उसी को झलका देता है। लाल रंग आया, दर्पण लाल हो गया। पीला रंग आया, दर्पण पीला हो गया। आदमी दिखा, दर्पण में आदमी दिखने लगा। आदमी गया, कोई न रहा, दर्पण खाली हो गया। शून्य तो दर्पण है।

तो बुद्ध ने निर्वाण शब्द चुना। बुद्ध के एक—एक शब्द बहुमूल्य हैं। उन्होंने जो श्रेष्ठतम हो सकता है, अंतिम हो सकता है, उस पर जैसी उनकी पकड़ है वैसी किसी की भी पकड़ नहीं है।

तो निर्वाण आखिरी धारणा है। कोई नहीं बचता। इससे तुम डरोगे भी। इसीलिए। निर्वाण से बहुत लोग प्रभावित नहीं होते—कोई नहीं बचता! तो फिर सार क्या? तुम बचना तो चाहते हो। तुम यह चाहते हो कि आनंद तो हो, जरूर हो, लेकिन मैं भी तो रहूं नहीं तो फिर आनंद होने का भी क्या सार है! और बुद्ध कहते हैं, तुम जब तक हो तब तक दुख रहेगा। तुम दुख। यह मैं की धारणा ही दुख है। जहां तुम नहीं रहे, वहीं आनंद है।

अब यह थोड़ा कठिन हो जाता है। हो ही जाएगा, उतनी ऊंचाई पर जब बातें पहुंचती हैं तो कठिन हो जाती हैं। तर्कातीत हो जाती हैं। बुद्धि की पकड़ में नहीं आती। बुद्धि के हाथ से फिसल—फिसल जाती हैं।

ये चारों शब्द अलग—अलग है, लेकिन मैंने कहा, व्यावहारिक अर्थों में। पारमार्थिक अर्थों में अलग—अलग नहीं हैं। चाहे कोई साल्वेशन के मार्ग से जाए,चाहे कोई बैकुंठ के मार्ग से जाए, चाहे कोई मोक्ष के, चाहे कोई निर्वाण के, अंतत: निर्वाण में ही पहुंच जाएगा। क्योंकि जो आखिर तक नहीं ले जाते, उनके आगे तुम्हें मंजिल बनी रहेगी, तुम्हें लगेगा, अभी मंजिल बाकी है, थोड़ा और चलना जरूरी है। निर्वाण के आगे कुछ शेष नहीं रह जाता। शून्य के आगे क्या शेष है?

इसलिए ध्यान में तो निर्वाण रखना, ही, चलने की तो अपनी—अपनी मजबूरी है। अगर तुम्हें निर्वाण अभी पकड़ में ही न आता हो तो साल्वेशन से चलो, कोई हर्जा नहीं। वहीं से सोचो। कुछ तो किया। संसार से थोड़े तो हटे। एक कदम सही, थोड़ा धर्म का विचार तो जन्मा, थोड़ी धर्म की लहर तो उठी। चलो, वहीं से सही। यही सोचकर चलो कि क्राइस्ट मुक्ति देंगे, चलो, मुक्ति का भाव तो उठा। मुक्त होना चाहिए, यह प्यास तो उठी।

फिर यह प्यास धीरे—धीरे बढ़ेगी, तो तुम्हें लगेगा कि साल्वेशन की धारणा काम नहीं करती। तब शायद बैकुंठ की धारणा तुम्हारे पकड़ में आ जाए। तो फिर बैकुंठ की धारणा से चलना। एक दिन तुम्हें यह समझ में आएगा कि बैकुंठ भी ठीक, लेकिन यह भी संसार का ही विस्तार मालूम होता है थोड़ा सूक्ष्म,लेकिन है संसार का ही विस्तार। वही सुख, थोड़ी बड़ी मात्रा में। वही स्त्रियां, थोड़ी ज्यादा सुंदर। वही वासनाएं, लेकिन कल्पवृक्ष के कारण पूरी होने लगीं अब। पहले मेहनत करके पूरी होती थीं, अब मुफ्त में पूरी होने लगीं, लेकिन बात वही की वही है। तो फिर तुम सोचोगे मोक्ष की बात कि अब तो सब छोड़कर ध्यान में डूब जाएं।

फिर एक घड़ी आएगी जब तुम पाओगे—जब ध्यान के आखिरी शिखर पर पहुंचोगे तब तुम पाओगे—सब तो गया, यह मैं का जो भाव बच गया, यही काटे की तरह चुभ रहा है अब। उस दिन तुम यह कांटा भी छोड़ दोगे और निर्वाण घटित हो जाएगा।

इसलिए तुम जहा हो वहीं से चल पड़ो, कोई चिंता नहीं। पहुंचना तो निर्वाण है। निर्वाण तक नहीं पहुंचे तो पहुंचे ही नहीं। तो ध्यान में तो निर्वाण रखना,लेकिन अगर वह मंजिल बहुत दूर की मालूम पड़े और उतने दूर का शिखर तुम्हें दिखायी ही न पड़े, तो फिर जो तुम्हें दिखायी पड़े अभी उसको व्यावहारिक लक्ष्य बना लेना। जो पास की पहाड़ी हो उस पर चढ़ना शुरू कर देना। लेकिन खयाल में रहे कि एक दिन गौरीशंकर पर चढ़ना है, उससे कम में राजी नहीं होना है।


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