बुद्धत्व के अंतिम चरण में क्या मौन अनिवार्य घटना है,
अंतिम में तो नहीं, अंतिम से एक चरण पूर्व मौन अनिवार्य है। अंतिम में तो फिर बोलना होगा। बुद्ध बोले, चालीस साल। हो, एक चरण पूर्व, मंदिर में प्रवेश के एक चरण पूर्व, एक सीढ़ी पहले मौन अनिवार्य है। जो मौन हुआ, वही मंदिर में प्रविष्ट होता है।
लेकिन जो मंदिर में प्रविष्ट हो गया, उसे फिर दौड़—दौड़ गांव—गाव, नगर—नगर, हृदय—हृदय को जाकर दस्तक देनी पड़ती है कि मैं जाग गया, तुम भी जाग सकते हो। फिर उसे बोलना पड़ता, कहना पड़ता। जैसे मौन अनिवार्य है मंदिर में प्रवेश के पूर्व, वैसे ही जब मौन में उपलब्ध हो गयी आत्मा, मौन में जान लिया स्वयं को, तो अभिव्यक्ति भी अनिवार्य है।
सभी जान को पहुंचे व्यक्ति मौन को उपलब्ध होकर ही पहुंचते हैं। लेकिन सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति नहीं करते। इससे दुनिया की बड़ी हानि होती है। अगर सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, जो उन्होंने जाना है, उसे कहने की चेष्टा करें—यह जानते हुए भी कि कहना बहुत मुश्किल है, और कह भी दो तो समझने को कौन तैयार है, समझना और भी मुश्किल है। यह जानते हुए की दीवालों से चर्चा करने के लिए जो बुद्धपुरुष आए, उनकी करुणा महान है। यह जानते हुए कि जो जाना है उसे कहना मुश्किल, फिर किसी तरह बांध—बूंधकर कह भी दो, सम्हाल—सम्हूलकर किसी तरह कह भी दो, तो जो सुन रहा है,उसका समझना मुश्किल। फिर भी सौ से कहो तो शायद कभी कोई एक समझ लेता है, सौ बार कहो तो शायद कभी कोई एक बार समझ लेता है, इसलिए कहे जाओ।
इसलिए बुद्ध बयालीस साल तक सतत बोलते रहे। सुबह, दोपहर, सांझ। सारा बौद्ध वचनों का संकलन किया जाता है तो भरोसा नहीं आता कि एक आदमी इतना बोला होगा! लेकिन यह घटना घटी मौन से। मौन से ही यह परम मुखरता घटी। पहले तो शून्य घटता है, शून्य में अनुभव होता है, फिर अनुभव शब्द बनकर।rबखरना चाहता है, बंटना चाहता है। जो बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति देता है, वही सदगुरु हो जाता है।
बहुत से लोग अर्हत हो जाते हैं। उन्होंने पा लिया सत्य को, फिर गुपचुप मारकर बैठ जाते हैं, चुप हो जाते हैं। कबीर ने कहा न—हीरा पायो गाठ गठियायो, वाको बार —बार क्यूं खोले। अब हीरा मिल गया, जल्दी से गांठ बांधकर चुप्पी साधकर बैठ गए, अब उसको बार—बार क्या खोलना है! ठीक है, यह बात भी ठीक है, किसी को ऐसा लगता है तो वह ऐसा करेगा।
लेकिन बुद्धपुरुष उसे बार—बार खोलते हैं—सुबह खोलते, दोपहर खोलते, सांझ खोलते, जो आया उसी को खोलकर बताते, हीरा पायो, उसको गांठ नहीं गठिया लेते, कहते हैं कि देख भई, यह हीरा मिल गया, तुझे भी मिल सकता है। हालांकि यह हीरा ऐसा है कि कोई किसी को दे नहीं सकता, नहीं तो बुद्धपुरुष इसको दे भी दें। यह हीरा ऐसा है कि इसका हस्तांतरण नहीं हो सकता। यह अगर बुद्धपुरुष दे भी दें तो तुम्हारे हाथ में जाकर कोयला हो जाएगा।
तुम्हें पता है? कोयला और हीरा एक ही तरह के रासायनिक द्रव्यों से बनते हैं। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक भेद नहीं है। कोयला ही लाखों साल तक जमीन के दबाव के नीचे पड़ा—पड़ा हीरा हो जाता है—कोयला ही। आज नहीं कल वैज्ञानिक विधि खोज लेंगे कोयले पर इतना दबाव डालने की कि जो बात लाखों 'गल में घटती है, वह क्षणभर में दबाव के भीतर हो जाए, तो कोयला हीरा हो जाएगा। और अगर हीरे पर से जो लाखों साल में दबाव पड़ा है, उसे निकालने का कोई उपाय हो, तो तत्क्षण हीरा कोयला हो जाएगा। तो कोयला और हीरा अलग—अलग नहीं हैं।
बुद्धपुरुषों ने जन्मों—जन्मों में जो खोजा है, जो दबाव डाला है कोयले पर, उसके कारण वह हीरा हो गया है। वह हीरा उनके हाथ में ही हीरा है। जैसे ही तुम्हारे हाथ मैं गया, दबाव निकल जाता है—तुम्हारा तो कोई दबाव है नहीं—वह कोयला हो जाता है। इसलिए इस हीरे को दिया तो जा नहीं सकता, लेकिन दिखाया तो जा सकता प्तै, तुम्हें बताया तो जा सकता है कि ऐसा होता है, यह है, देख लो, यह तुम्हारे भीतर '' औ। हो सकता है! एक दिन मेरे भीतर भी नहीं था, मै भी कोयले को ही ढोता रहा, लेकिन फिर यह अपूर्व घटना घटी, यह चमत्कार हुआ, यह तुम्हारे भीतर भी हो सकता है। जैसे मेरे भीतर हुआ, वह विधि मैं तुमसे कह देता हूं।
तो सदगुरु तो उस गांठ को खोलता रहेगा। कबीर ने दूसरे अर्थ में कहा है। उन्होंने कहा है साधक के लिए, शुरू—शुरू में ऐसा नहीं करना चाहिए। कबीर का मतलब यह है कि जब शुरू—शुरू में ध्यान लगना शुरू हो, तो जल्दी—जल्दी। खोल—खोलकर गांठ मत दिखाना, नहीं तो उड़ जाए पक्षी। शुरू—शुरू में मत करना जल्दी बताने की। होता है मन बताने का, कि कह दें किसी को कि ऐसा हुआ।
तुमने कभी खयाल किया ' जो लोग ध्यान कर रहे हैं ठीक से, उनको कई बार अनुभव में आएगा, खूब रस आ रहा था ध्यान में और तुमने किसी से कहा और फिर दूसरे दिन रस नहीं आता—पक्षी उड़ गया। कहने में ही भूल हो गयी। तुमने कहकर जो मजा ले लिया, उससे अहंकार थोड़ा मजबूत हो गया। तुमने किसी को कहा कि ध्यान में गजब का अनुभव हुआ, कि कुंडलिनी जगी, कि रोशनी उठी, कि तीसरी आख खुलती हुई मालूम पड़ी!
तुम जब कह रहे थे, तब तुम्हें खयाल भी नहीं था, तुम तो सिर्फ आंदोलित थे, आनंदित थे। तुमने कह दिया, पत्नी को कह दिया, पति को कह दिया,मित्र को कह दिया, सोचा भी नहीं था, लेकिन कहते—कहते तुम्हारे भीतर अहंकार निर्मित हो गया। तुम्हें एक अकड़ आ गयी कि देखो, एक हम एक तुम! कहां पड़े कूड़े——कचरे में! अभी तक संसार में ही उलझे हो! ऐसा तुमने कहा भी न हो ऊपर से, लेकिन ऐसी एक लहर भीतर दौड़ गयी कि अभी तक पड़े हो गंदगी में! एक हम देखो, एक तुम! जरा हमारी तरफ देखो! एक पवित्रता का भाव आ गया कि हम कुछ संत हो गए।
बस, उसी भाव में गड़बड़ हो गयी। दूसरे दिन ध्यान करने बैठोगे, न कुंडलिनी जगती, न रोशनी आती है, न तीसरी आख का कोई पता चलता है, तुम बड़े हैरान होते हो कि बात क्या हो गयी! बहुत कोशिश करते हो, चेष्टा करते हो और छूट—छूट जाती है बात। कबीर ने उनके लिए कहा है—हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार—बार क्यूं खोले।
लेकिन जब हीरा पक गया—हीरा पक गया इसका अर्थ होता है, जब अहंकार के पैदा होने की कोई संभावना ही न रही। कि अब सारी दुनिया आ जाए और इस हीरे को देख ले तो भी तुम्हारे भीतर कोई अस्मिता निर्मित नहीं होती; क्योंकि तुम जानते हो कि यह हीरा सबके भीतर पड़ा है, यह कोई विशिष्टता की बात नहीं है। बुद्ध ने कहा है, जिस दिन मैं शान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हो गया। यह बड़ी अनूठी बात कही है। इसे मैं अपने अनुभव —से गवाही भी देता हूं कि यह बात सच है। यह मैं भी तुमसे कहता हूं कि जिस दिन मैंने जाना, उस दिन मैंने यह भी जान लिया कि सब जान चुके। क्योंकि जिस दिन पाया जाता है, उस दिन पता चलता है, सबके भीतर यह हीरा पड़ा है। तुम्हें पता न हो, यह दूसरी बात, लेकिन हीरा तो पड़ा ही है। तुम्हें न दिखता हो, मुझे तो दिखता है। जिसे अपना हीरा दिख गया, उसे सबके भीतर के हीरे दिखायी पड़ गए। जिसकी आंखें रोशनी देखने में समर्थ हो गयीं,उसकी आंखें सबकी रोशनी देखने में समर्थ हो गयीं।
बुद्ध का यह वचन महत्वपूर्ण है कि जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा जगत ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उस दिन के बाद कोई अज्ञानी है ही नहीं। तो फिर बुद्ध समझाते क्या हैं? बुद्ध को कोई पूछता है कि अगर ऐसा है कि आप अब जानते हैं कि सभी ज्ञानी हो गए, तो आप समझाते क्या हैं? तो बुद्ध कहते है, यही समझाता हूं कि लोग अपने को अज्ञानी माने बैठे हैं, मैं उनको यही समझाता हूं कि अज्ञानी तुम नहीं हो, तानी हो। मुझे कुछ समझाने को नहीं बचा है, मेरे लिए तौ बात साफ हो गयी कि सब जानी हैं। मगर वे जो ज्ञानी हैं, वे अपने को अज्ञानी पाने बैठे हैं। उनकी मान्यता तोड़नी है।
लेकिन जब परम अवस्था घटती है, तब भी कुछ लोग गांठ बांधे रहे जाते हैं। उनसे भी कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए सारे धर्मों ने दो भेद किए हैं। जैनों ने भेद किया है, एक को वे कहते हैं—केवली जिन। जिसने जान लिया, जिनत्व को उपलब्ध हो गया, समाधि को परिपूर्ण पा लिया, लेकिन चुप्पी साधकर रह गया, फिर कुछ बोला नही। उसको कहते हैं—केवली जिन। वह केवलत्व को उपलब्ध हो गया, बस, गया शून्य में, महाशून्य में चला गया।
दूसरे को कहते हैं—तीर्थंकर। तीर्थंकर का अर्थ है, जो खुद पाया और फिर दूसरी के लिए घाट बनाने लगा कि यहां से तुम भी उतरो। तीर्थ यानी घाट। यह 'भवसागर, इस पर घाट बनाने लगा। और कहा कि यहां से तुम भी अपनी नाव छोड़ो। हम तो पहुंच गए बिना घाट के—लेकिन बिना घाट के नाव छोड़ना सदा खतरनाक होता है—हम तो बिना घाट के भी तर गए किसी तरह, लेकिन अब तुम्हारे लिए सीढ़ियां डालकर, ठीक से पाटकर घाट बना देते हैं, अब तुम अपनी नाव को यहां से ले जाओ। तो इसको कहते हैं तीर्थंकर, जो दूसरों के लिए घाट बनाता।
बौद्धों ने भी दो शब्द उपयोग किए हैं। एक को कहते—अर्हत। अर्हत का अर्थ होता है, जिसने पा लिया, जिसके सारे शत्रु समाप्त हो गए—अरिहंत, या अर्हत। अपने शत्रुओं को जीत चुका और फिर चुप्पी मारकर बैठ गया।
दूसरे को कहते हैं—बोधिसत्व। जो ज्ञान को पा लिया और अब बांटने निकल पड़ा। अब वह कहता है, जो मिला है वह बांट भी दूं। अपनी बात तो पूरी हो गयी, जो जानना था जान लिया, लेकिन बहुत है अभी जिनको इसका कुछ पता नहीं है, उनको जगाने चल पड़ा।
दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं, जब शुरू—शुरू में ध्यान की किरण उतरे तो कबीर की सुनना; वह साधक के लिए बात है। और जब किरण उतर जाए, सूरज ऊग जाए, फिर कबीर की बात मत सुनना; फिर तो जहा कोई मिल जाए, माने चाहे न माने, चाहे देखे चाहे न देखे, तुम पट से अपनी गांठ खोलकर उसको हीरा तो दिखा ही देना! वह चाहे इंकार करे, चाहे वह लाख चिल्लाए कि क्षमा करो, मुझे नहीं देखना, ?rक मैं फिर देखूंगा, अभी मेरा समय नहीं है, अभी मैं बाजार जा रहा हूं मेरी पत्नी बीमार है, तुम कहना कि कोई फिकर नहीं, मगर देख तो लो, फिर मिलना हो न मिलना हो! मगर तुम्हें याद रह जाएगी कि हीरा होता है, हीरा घटता है। और मुझ जैसे साधारण आदमी को घट गया, तुम्हें भी घट सकता है।
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भगवान बुद्ध ने कहा : जैसे चंद्रमा नक्षत्र—पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही धीर, प्राज्ञ, बहुश्रुत, शीलवान, व्रतसंपन्न, आर्य तथा बुद्धिमान पुरुष का अनुगमन करना चाहिए। और उनका ही यह प्रसिद्ध वचन भी है : आत्म दीपो भव। क्या दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी नहीं हैं?
दो शब्द समझो—अनुगमन और अनुकरण।
अनुकरण के लिए नही कह रहे हैं बुद्ध, अनुगमन के लिए कह रहे हैं। अनुकरण का अर्थ होता है, जैसे बुद्धू उठते हैं, वैसे तुम उठो, जैसे बुद्ध बैठते हैं,वैसे तुम बैठो जो बुद्ध खाते हैं, वह तुम खाओ जो बुद्ध पीते हैं, वह तुम पीओ यह अनुकरण। यह थोथा। इससे तुम बुद्ध जैसे दिखायी पड़ने लगोगे, लेकिन रहोगे बुद्ध के बुद्ध। नाटक हो जाएगा, हाथ सार न आएगा।
बुद्ध जैसे कपड़े पहन लो, बुद्ध जैसे चलने लगो, इसमें कोई बड़ी अड़चन तो नहीं है। थोड़ा सा अभ्यास चाहिए, ठीक बुद्ध जैसे बोलने लगो, बुद्ध जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, तुम भी करो, यह सब किया जा सकता है। यही लोग करते रहे सदियों से। यह अनुकरण, यह नकल। तुम कार्बन कापी हो गए। अप्प दीपो भव तुम न हो सके। तुम अपने दीए खुद न बन सके। तुमने बुद्ध के दीए का एक चित्र बना लिया, चित्र को छाती से लगाकर चलने लगे।
दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती, खयाल रखना। अंधेरा जब पड़ेगा तब तड़फोगे, क्योंकि वह दीए का चित्र रोशनी नहीं करेगा। अनुकरण थोथा है, ऊपर—ऊपर है। सतही है।
अनुसरण बड़ी और बात है। अनुसरण का अर्थ है, बुद्ध को गौर से देखो, बुद्ध के भीतर गहरे झांको, बुद्ध को खिड़की बना लो, उनके भीतर गहरे झांको,जहां उनका दीया जल रहा है, वह कैसे जला है? दीए का चित्र मत बनाओ, वह दीया कैसे जला है बुद्ध के भीतर? ऊपर—ऊपर की बातों को मत दोहराओ। कैसे बुद्ध चलते हैं, क्या फर्क पड़ता है।
ऐसा अक्सर होता है, यहां हो जाता है। मेरे पास जो लोग काफी दिन रहते हैं, वे ठीक वैसे ही उठने—बैठने—चलने लगेंगे। वे सोचते हैं कि कोई बहुत भारी बात हो रही है। कभी—कभी जानकर भी करते हैं, कभी—कभी अनजाने भी होता है। ऐसा भी नहीं कि वे जानकर ही करते हों, बहुत दिन पास रहेंगे तो संक्रामक हो जाते हैं। बात पकड़ ली ऊपर—ऊपर से, चलने लगे, उठने लगे, उसी ढंग से बात करने लगे जैसा मैं बोलता हूं—बोलते समय जैसा मेरा हाथ कुछ इशारे करता है, तो वे भी इशारे करने लगे। वे सोचते हैं कि यह तो बात हो गयी!
हाथ में कुछ भी नहीं है, हाथ के इशारे में कुछ भी नहीं है। इसको तुम सीख लो, तो भी कुछ न होगा। कहीं भीतर, जहा से यह इशारा आ रहा है, उस स्रोत को पकड़ो। अनुसरण का अर्थ है, बुद्ध का बुद्धत्व जहां से पैदा हो रहा है, जहां से ये किरणें आ रही हैं, उस मूलस्रोत में तुम भी उतरो। कैसे बुद्ध को यह दशा उत्पन्न हुई है, कैसे! उस उपचार से तुम भी गुजरो। वही समाधि, वही ध्यान। ऊपर का आचरण नहीं, अंतस बुद्ध का तुम्हारे भीतर भी निर्मित हो।
यही मैने तुमसे कहा कि मेरे शब्दों से प्रभावित मत होओ, मुझसे। और जब मैं कह रहा हूं? मुझसे, तो खयाल रखना, अनुकरण करने को नहीं कह रहा हूं, अनुसरण। समझो क्या हुआ है, तो तुम्हें कैसे होगा? फिर एक—एक कदम उस दिशा में उठाओ। तुम्हारे भीतर का दीया जल जाए, ठीक जैसा बुद्ध के भीतर जला है, तो अनुसरण। और तुमने एक तस्वीर बना ली कागज पर और तस्वीर छाती से लगाकर रख ली, तो अनुकरण।
विरोध दोनों बातों में नहीं है। जब बुद्ध कहते हैं, अनुगमन करो, और कहते छैं, आत्म दीपो भव, अपने दीए खुद हो जाओ, तो इनमें कोई विरोध नहीं है। यही तो मार्ग है आत्मदीप को जलाने का कि किसी जले हुए दीप की जीवन—व्यवस्था को समझ लो, उसकी जीवन—शैली को समझ लो। कैसे उसका दीया जला है, कैसे दो पत्थरों को टकराकर उसने अग्नि पैदा की है, कैसे भीतर के तेल को जन्माया है, कैसे ज्योति जलायी है, कैसी बाती बनायी है, उसको ठीक से समझ लो उसकी प्रक्रिया को, उसके वितान को पूरा समझ लो। वह विज्ञान तुम्हारे पकड़ में आ जाए, वह सूत्र तुम्हारे पकड़ में आ जाए, तो अनुसरण।
उस सूत्र की तो तुम चिंता ही न करो. यहां हो जाता है, अभी रामप्रिया को हो गया है—एक इटालियन साधिका है। भली है, सीधी है, जानकर भी नहीं हुआ है, अजाने हो गया है, अचेतन में हो गया है। अब वह कहती है कि जो मैं खाता हूं वही वह खाएगी। अगर मैं कमरे में रहता हूं दिनभर तो वह भी कमरे से बाहर नहीं निकलती अब।
मैंने उसे बुलाकर कहा कि पागल, ऐसे न होगा। ऐसे तू पागल हो जाएगी। क्योंकि तू कमरे में तो बैठी रहेगी, लेकिन तेरा मन थोड़े ही इससे बदल जाएगा। तेरा मन तो घूमेगा, वह पागलपन जो थोड़ा बाहर निकलकर निकल जाता था वह निकल न पाएगा, तू पगला जाएगी—वह पगला रही है, मगर सुनती नहीं। वह सोचती है कि जैसा मैं करता हूं र ठीक वही उसे करना है। वही भोजन लेना है, उसी वक्त सोना है, उसी वक्त उठना है, उतनी ही देर कमरे में रहना है, न किसी से मिलना है न जुलना है, वह पागल हो जाएगी। उसे खींचने की कोशिश में लगा हूं कि वह बाहर निकले, क्योंकि इससे कुछ भी सार नहीं है।
यह हुआ अनुकरण। यह अनुसरण न हुआ। भीतर जाओ—कमरे में जाने से न होगा, भीतर जाने से होगा। जरूर एक दिन तुम्हारे भोजन में भी अंतर आएगा, क्योंकि जब तुम्हारी चित्तदशा बदलेगी तो तुम वही भोजन न कर सकोगे जो तुम कल तक करते रहे थे। कल तक अगर तुम मुर्गियां फटकारते रहे,तो नहीं फटकार सकोगे उतनी आसानी से, मुश्किल हो जाएगा। शराब पीते रहे, तो पीना मुश्किल हो जाएगी। यह बात सच है। तुम्हारा भोजन भी बदलेगा। लेकिन भोजन बदलने से तुम्हारी चेतना न बदलेगी। चेतना बदलने से भोजन बदलेगा। और जिस दिन तुम शात हो जाओ, फिर तुम्हारी मर्जी, कमरे में बैठना तो, बाहर बैठना तो, जहां बैठोगे अकेले ही रहोगे, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे एकांत को फिर कोई भी न छीन सकेगा। लेकिन कमरे में बैठने से एकांत पैदा न हो जाएगा। उलटे मत चलो। उलटे चलना आसान मालूम पड़ता है, इसलिए अधिक लोग उलटे चलने लगते हैं।
महावीर को ज्ञान हुआ, उनका दीया जला, उनका सूरज ऊगा, तो स्वभावत: लोगों को लगा कि हमको कैसे हो यह? कैसे हम ऐसा करें? महावीर नग्न खड़े थे तो वे भी नग्न खड़े हो गए। उन्होंने सोचा कि नग्नपन से होता है, दिगंबर हो गए।
अब कोई नंगे होने से थोड़े ही महावीर का ज्ञान होता है! हा, महावीर का ज्ञान अगर हो जाए, फिर तुम्हारी मर्जी, तुम्हें नंगा होना पसंद पड़े तो नंगा हो जाना। क्योंकि बहुत महावीर हुए हैं इस जगत में सभी नंगे नहीं हुए। उसी समय बुद्ध मौजूद थे, वे नंगे नहीं हुए। यह तो तुम्हारी मौज है। यह तो फिर तुम्हारी सुविधा—असुविधा की बात है, फिर तुम जानना।
लेकिन नग्न होने से तुम्हें शान उत्पन्न हो जाएगा, यह तो बड़ी ओछी बात हो गयी। शान इतना सस्ता तो नहीं है कि तुम नग्न खड़े हो गए तो ज्ञान उत्पन्न हो जाए! तो कितने नागा—साधु घूमते हैं मुल्क में! कुंभ के मेले में तुम जाकर उनके दर्शन कर लेते हो, उनमें तुम्हें महावीर जैसा कुछ भी न दिखायी पड़ेगा। लंपट सब तरह के। उनके जीवन में कोई ज्योति नहीं। तुम उनके चेहरों पर किसी तरह की शांति , आनंद का भाव न पाओगे। क्रोध, हिंसा, सब पाओगे। उन नागाओं के जो आश्रम हैं, वे अखाड़े कहलाते हैं। अखाड़े! यह कोई पहलवानी कर रहे हो! मारपीट में कुशल हैं वे। दंगा—फसाद में कुशल हैं। हर छोटी—मोटी बात पर जान देने और लेने को तैयार हैं!
नग्न होने से तो कुछ न होगा। इसीलिए तो कबीर ने कहा है कि अगर नग्न रहने से होता तो सभी पशु—पक्षी कभी के जिनत्व को उपलब्ध हो जाते। पशु—पक्षी तो नंगे ही घूम रहे हैं। उन्होंने तो कपड़े पहले ही से नहीं पहने हैं। नहीं, तो कपड़े के छोड़ने से कुछ नही हो जाएगा।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हू—कि हो जाए तो शायद तुम्हारे कपड़े छूट जाएं, वह अलग बात है। वह तो फिर तुम्हारी घटना से क्या ठीक—ठीक तालमेल खाएगा, वह फिर होता रहेगा।
महावीर शाकाहारी, तो लोगों ने सोचा, हम भी शाकाहारी हो जाएं, तो हमारा भी बोध ऐसे ही हो जाएगा। तो जैनी आज ढाई हजार साल से शाकाहारी हैं। ढाई हजार साल के शाकाहार में भी क्या हुआ है? कुछ भी नहीं हुआ। एक जैन में और एक अजैन में क्या फर्क है? वैसा ही क्रोध उठता, वैसी ही वासना उठती, वैसी ही ईर्ष्या, वैसी ही हिंसा, वैसी ही घृणा, क्या हुआ है? ऊपर की बातें पकड़ना सुगम हो जाता है। यह बिलकुल आसान है कि पानी छानकर पी लो,रात भोजन मत करो, इसमें क्या अड़चन है।
जरूर, महावीर रात भोजन नहीं करते थे, क्योंकि भीतर जो रोशनी उनके पैदा हुई थी, उस रोशनी में उन्हें यह उचित नहीं मालूम पड़ा कि रात भोजन किया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि पानी बिना छानकर पीया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि शाक—सब्जी के अतिरिक्त और कुछ भोजन किया जाए। उस चैतन्य दशा को तुम भी पाओ, फिर ये सारी चीजें तुम्हारे भीतर हो जाएं तो शुभ। लेकिन उलटे मत चलो। बाहर से भीतर नहीं, भीतर से बाहर। बाहर को बदलकर भीतर को नहीं बदला जा सकता, लेकिन भीतर का केंद्र बदल जाए तो परिधि अपने आप बदल जाती है।