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क्या 'सार' हैं''योगसूत्रो '' का ?- PART-02


योगसूत्र;-

1-''अब योग का अनुशासन''।

2-''योग मन की समाप्ति है।''

3-''तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है।''

4-''अन्य अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्‍म्‍य हो जाता है''।

1-''अब योग का अनुशासन।''(अथ योगानुशासनम् ।)

30 FACTS;-

1-पहला सूत्र है:'अब योग का अनुशासन।’ एक -एक शब्द को ठीक से समझना है, क्योंकि पतंजलि एक भी अनावश्यक शब्द का प्रयोग नहीं करते।’ पहले 'अब' शब्द को समझने का प्रयत्न करें। यह 'अब' मन की उसी अवस्था की ओर संकेत करता है, जिसकी बात की जा चुकी है।

2-''यदि तुम्हारा मोहभंग हुआ है, यदि तुम आशारहित हुए हो, यदि तुमने सब इच्छाओं की व्यर्थता को पूरी तरह जान लिया है; यदि तुमने देखा है कि तुम्हारा जीवन अर्थहीन है, और जो कुछ भी अब तक तुम कर रहे थे वह सब बिलकुल निर्जीव होकर गिर गया है; यदि भविष्य में कुछ भी नहीं बचा है; यदि तुम समग्र स्‍वप्‍न से निराशा में डूब गये हो अथार्त तीव्र व्यथा ; अगर तुम इस तीव्र व्यथा में हो, नहीं जानते कि क्या करना है, कहां जाना है, किसकी सहायता खोजनी है; बस पागलपन या आत्महत्या या मृत्यु की कगार पर खड़े हो, यदि तुम्हारे पूरे जीवन का ढांचा अचानक व्यर्थ हो गया है—और यदि ऐसा क्षण आ गया है तो पतंजलि कहते हैं— ' अब योग का अनुशासन।’'' केवल अब, तुम योग के विज्ञान को, योग के अनुशासन को समझ सकते हो।

3-यदि ऐसा क्षण नहीं आया तो तुम योग का अध्ययन किये चले जा सकते हो, तुम एक बड़े विद्वान बन सकते हो लेकिन तुम योगी नहीं बनोगे। तुम इस पर शोध लिख सकते हो, भाषण भी दे सकते हो, लेकिन तुम योगी न बनोगे। वह क्षण अभी तुम्हारे लिए नहीं आया है। बौद्धिक तौर पर तुम इसमें रुचि ले सकते हो, मन के द्वारा तुम योग से संबंधित हो सकते हो लेकिन योग कुछ नहीं है, अगर यह अनुशासन नहीं है।

3-योग कोई शास्त्र नहीं है; योग अनुशासन है। यह कुछ ऐसा है जिसे तुम्हें करना है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है, यह दार्शनिक चिंतन भी नहीं है। यह इन सबसे कहीं गहरा है। यह तो सवाल

है जीवन और मरण का।यदि वह क्षण आ गया है जबकि तुम महसूस करते हो कि सारी दिशाएं अस्त -व्यस्त हो गयी हैं, सारी राहें खो गयी है, भविष्य अंधियारा है और हर इच्छा कडुआ गयी है और हर इच्छा द्वारा तुमने केवल निराशा ही पायी है, यदि आशाओं और सपनों की ओर सारी गतियां समाप्त हो चुकी हैं— ' अब योग का अनुशासन।’

4-और यह 'अब' आया ही नहीं होगा तो योग के विषय में कितना ही बताया जाये लेकिन तुम

नहीं समझ सकते हो।अगर तुमसे पूछा जाये कि क्या तुम वास्तव में असंतुष्ट हो ..तो हर कोई कह देगा 'हां', लेकिन वह असंतुष्टि वास्तविक नहीं है। तुम 'इससे उससे ' किसी भी बात से असंतुष्ट हो सकते हो लेकिन तुम पूरी तरह असंतुष्ट नहीं हो। तुम अब भी आशा किये जा रहे हो। तुम असंतुष्ट भी तो अतीत की किन्हीं आशाओं के कारण हो, लेकिन भविष्य के लिए तो तुम अब तक आशा किये जा रहे हो। तुम्हारी असंतुष्टि संपूर्ण नहीं है। तुम अब भी कहीं कोई संतोष, कहीं कोई संतुष्टि पा लेने को ललक रहे हो।

5-कई बार तुम निराशा अनुभव करते हो लेकिन वह निराशा सच्ची नहीं है क्योंकि कुछ आशाएं पूरी नहीं हुईं, कुछ आशाएं विफल हो गयी हैं। किंतु आशा गिरी नहीं हैं। तुम अब भी आशा करोगे। तुम किसी विशेष आशा के प्रति ही असंतुष्ट हो लेकिन तुम आशा मात्र से असंतुष्ट नहीं हो। यदि तुम आशा मात्र से निराश हो गये हो तो वह क्षण आ गया है ..जब तुम योग में प्रविष्ट हो सकते हो। और यह प्रवेश किसी मानसिक और वैचारिक घटना में प्रविष्ट होने जैसा नहीं होगा। यह प्रवेश होगा ''एक अनुशासन में प्रवेश''।

6- अनुशासन का अर्थ है अपने भीतर एक व्यवस्था निर्मित करना।जैसे कि तुम हो, पूरी तरह अव्यवस्थित।वास्तव में,तुम एक नहीं हो, तुम भीड़ हो। जब तुम कहते हो 'मैं', तो कोई मैं होता नहीं। तुम्हारे भीतर अनेक 'मैं' अनेक अहं हैं। सुबह कोई एक 'मैं' है, दोपहर कोई और 'मैं' है और शाम कोई तीसरा ही 'मैं' होता है। लेकिन इस गड़बड़ी के प्रति तुम कभी सचेत भी नहीं होते। क्योंकि सचेत होगा भी कौन? कोई अंतस केंद्र ही नहीं है, जिसे इसका बोध हो पाये।

7-'योग अनुशासन है' इसका अर्थ है कि योग तुम्हारे भीतर एक क्रिस्टलाइज्‍ड सेंटर का, एकजुट केंद्र का निर्माण करना चाहता है। तुम तो जो हो, एक भीड़ हो। और भीड़ के बहुत से गुण होते हैं। एक तो यह कि भीड़ पर कोई विश्वास नहीं कर सकता।वास्तव में, आदमी वादा नहीं कर सकता।उदाहरण के लिए, लोग कहते हैं, ' अब मैं व्रत लूंगा', 'अब मैं यह करने की प्रतिज्ञा करता हूं? इससे पहले कि तुम कोई प्रतिज्ञा लो, दो बार फिर सोच लो। क्या तुम्हें पूरा आश्वासन है कि जिसने वादा किया है वह अगले क्षण बना भी रहेगा?

8- तुम कल से सुबह जल्दी चार बजे उठने का निर्णय लेते हो। और चार बजे तुम्हारे भीतर कोई कहता है, 'झंझट मत लो। बाहर इतनी सर्दी पड़ रही है! और ऐसी जल्दी भी क्या है? मैं यह कल भी कर सकता हूं।’ और तुम फिर सो जाते हो।जब सुबह उठते हो तो पछताते हो।

सोचते हो कि यह अच्छा नहीं हुआ; तुम्हें जल्दी ही उठ जाना चाहिए था।तुम फिर निर्णय लेते

हो कि कल तुम चार बजे ही उठोगे। लेकिन कल भी यही कुछ होने वाला है क्योंकि जिसने प्रतिज्ञा की वह सुबह चार बजे वहां होता नहीं, कोई दूसरा ही उसकी जगह आ बैठता है।

यह चक्र चल रहा है, हर घडी कोई और ही प्रधान बन जाता है।

9- वास्तव में, मनुष्य का प्रमुख अभिलक्षण यही है कि वह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। तुम वचन पूरा नहीं कर सकते। वचनबद्ध हुए चले जाते हो, और तुम अच्छी तरह जानते हो कि वचनों को पूरा नहीं कर पाओगे। क्योंकि तुम एक नहीं हो, तुम एक अव्यवस्था हो, एक अराजकता हो। इसलिए पतंजलि कहते है, 'अब योग का अनुशासन।’ यदि तुम्हारा जीवन एक परम दुःख बन चुका है, यदि अनुभव करते हो कि तुम जो भी करते हो उससे नर्क ही बनता है, तब वह क्षण आ गया है। यह क्षण तुम्हारी हस्ती के, तुम्हारे अस्तित्व के आयाम को बदल सकता है।

10-अभी तक तो तुम एक अव्यवस्था, एक भीड़ की तरह जिये। योग का मतलब है कि अब तुम्हें लयबद्धता बनना होगा, तुम्हें 'एक' बनना होगा। एक जुट होने की आवश्यकता है, केंद्रीकरण की आवश्यकता है। और जब तक तुम केंद्र नहीं पा लेते, जो कुछ भी तुम करते हो वह व्यर्थ है। जीवन और समय का बेकार होना है। पहली आवश्यकता है केंद्रबिंदु। और जिसके पास यह केंद्र है वही व्यक्ति आनंदित हो सकता है। हर व्यक्ति आनंद की मांग करता है। लेकिन तुम मांग नहीं कर सकते। इसे तो तुम्हें अर्जित करना होगा। अंतस की आनंद अवस्था के लिए सब लालायित रहते हैं, लेकिन केवल केंद्रस्थ व्यक्ति ही आनंदित हो सकता है। भीड़ तो कैसे आनंद मय हो सकती है। भीड़ का तो कोई व्यक्तित्व नहीं है। वहां कोई आत्मा नहीं, इसलिए आनंदमय होगा भी तो 'कौन'..।

11-आनन्द का अर्थ है, एक परम मौन। और ऐसा मौन तभी संभव है जब भीतर लयबद्धता हो, जब सारे बेमेल टुकड़ो का मेल हो जाये, वे एक बन जायें जब भीड़ न रहे बल्कि केवल एक ही हो। जब भीतर घर में कोई न हो और तुम अकेले हो, तब तुम आनन्द से भर जाओगे। पर अभी तो हर एक तुम्हारे घर में है। तुम वहाँ हो नहीं, केवल मेहमान ही वहाँ है। मेंजबान तो सदा ही अनुपस्थित है। और केवल मेजबान आनन्द मय हो सकता है। इस केंद्रीयकरण की प्रक्रिया को ही पतंजलि ने 'अनुशासन' /'डिसिप्लिन' कहा है ।

12-उदाहरण के लिए,एक बार एक आदमी बुद्ध के पास आया। वह आदमी अवश्य कोई समाज—सुधारक रहा होगा, कोई क्रांतिकारी। उसने बुद्ध से कहा, 'संसार बहुत दुःख में है; आपकी इस बात से मैं सहमत हूं।’ बुद्ध ने यह कभी कहा ही नहीं कि संसार दुख में है। बुद्ध ने कहा, 'तुम दुःख हो, संसार नहीं। जीवन दुःख है, संसार नहीं। मन दुःख है, संसार नही।’ लेकिन क्रांतिकारी ने कहा, 'संसार बडी तकलीफ में है। मैं आपसे सहमत हूं। अब मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूं? बड़ी गहरी करुणा है मुझ में और मैं मानवता की सेवा करना चाहता हू।’

13-सेवा करना जरूर उसका आदर्श रहा होगा। बुद्ध ने उसकी तरफ देखा और वे मौन ही रहे। बुद्ध के शिष्य आनन्द ने कहा, यह आदमी सच्चा जान पड़ता है। इसे राह दिखाइए। आप चुप क्यों हैं? तब बुद्ध ने उस क्रांतिकारी से कहा, ''तुम संसार की सेवा करना चाहते हो, लेकिन तुम हो कहा? मैं तुम्हारे भीतर किसी को नही देख रहा। मैं देखता हूं और वहाँ कोई नहीं है।

तुम्हारा कोई केन्द्र नहीं। और जब तक तुम्हारे भीतर एक ठोस केन्द्र नहीं बनता तब तक तुम जो भी करोगे उससे और अनिष्ट होगा।

13-1-तुम्हारे सारे समाज—सुधारक, क्रांतिकारी, तुम्हारे नेता, वे सब अनिष्टकारी और उपद्रव मचाने वाले हैं। दुनिया बेहतर होती यदि नेता न होते। लेकिन वे आदत से मजबूर हैं। वे यही महसूस करते हैं कि उन्हें कुछ करना चाहिए क्योंकि संसार बड़े दुख में है। और स्वयं भीतर केंद्रस्थ हुए नहीं, अत: जो भी वे करते हैं, उससे दुख की मात्रा बढ़ती ही है। केवल करुणा और केवल सेवा सहायक न हो सकेगी। आत्म-केंद्रित व्यक्ति से उठी करुणा की बात ही और है। भीड़ से उठी करुणा हानिकारक है, उपद्रव मचाने वाली है; वह तो जहर है।''

14-अनुशासन का मतलब है.. होने की क्षमता, जानने की क्षमता, सीखने की क्षमता। हमें ये तीनों बातें समझ लेनी चाहिए।’होने की क्षमता।’ पतंजलि कहते हैं, यदि तुम अपना शरीर हिलाये बिना मौन रह कर कुछ घंटे बैठ सकते हो, तब तुम्हारे भीतर होने की क्षमता बढ़ रही है। तुम हिलते क्यों हो गुर कुछ पल भी तुम बिना हिले—डुले नहीं बैठ सकते। तुम्हारा शरीर सतत चंचल है। कहीं तुम्हें खुजलाहट होती है, टांगें सुन्न होने लगती हैं,बहुत कुछ होना शुरू हो जाता है। ये सब हिलने के बहाने हैं।

15-तुम मालिक नहीं हो। शरीर से नहीं कह सकते कि ' अब एक घंटे तक मैं नहीं हिलूंगा।’ शरीर तो तत्काल विद्रोह कर देगा। उसी पल तुम्हें वह मजबूर करेगा हिलने के लिए, कुछ करने के लिए। और वह तुम्हें कारण भी देगा कि 'तुम्हें हिलना ही है क्योंकि एक कीड़ा काट रहा है, वगैरह -वगैरह।’ तुम उस कीड़े को जब देखने जाओ तो हो सकता है उसे ढूंढ भी न पाओ।

16-तुम आत्मस्थ नहीं हो। तुम एक सतत कंपित ज्वरग्रस्त हलचल हो। पतंजलि के बताये आसन किसी शारीरिक प्रशिक्षण से खास संबंधित नहीं है, बल्कि वे एक आंतरिक प्रशिक्षण से संबंधित हैं कि बस, होना; कि बिना कुछ किये, बिना किसी गति के, बिना किसी हलचल के बस, ठहर जाओ। यह ठहरना अंतस के केंद्रीयकरण में सहायक होगा।यदि तुम एक ही

आसन में ठहर सकते हो तो शरीर गुलाम, सेवक बन जायेगा फिर वह तुम्हारा अनुगमन करेगा। शरीर जितना अधिक तुम्हारा अनुगमन करेगा, उतना ही अधिक शक्तिपूर्ण और विराट बनेगा तुम्हारे भीतर का अस्तित्व।

17- वास्तव में, यदि तुम्हारे शरीर में गति नहीं होती तो तुम्हारा मन भी गतिमय नहीं हो सकता। क्योंकि शरीर और मन कोई अलग -अलग चीजें नहीं हैं। वे एक ही घटना के दो छोर हैं। तुम शरीर और मन नहीं हो,तुम हो शरीर -मन। तुम्हारा व्यक्तित्व मनोशरीर है, साइकोसोमैटिक है, एक साथ शरीर और मन दोनों है। मन शरीर का सबसे सूक्ष्म हिस्सा है और तुम इससे विपरीत भी कह सकते हो : शरीर सबसे स्थूल हिस्सा है मन का।इसलिए

जो कुछ शरीर में घटित होता है वही मन में घटित होता है। और इसके विपरीत जो कुछ मन में घटित होता है वही शरीर में घटित होता है।

18-यदि शरीर में कोई गति नहीं हो रही और तुम एक ही आसन में स्थिर रह सकते हो, यदि तुम शरीर को खामोश रहने के लिए कह सकते हो तो मन भी खामोश बना रहेगा। वास्तव में मन गतिमय बनता है तो शरीर में भी गति लाने की कोशिश करता है। क्योंकि शरीर में गति आयेगी तो फिर मन भी आसानी से गति कर सकता है। गतिहीन शरीर के साथ मन गतिमय नहीं हो सकता। मन को गतिमान शरीर का सहयोग चाहिए।

19-यदि शरीर अगतिमान है और मन भी अगतिमान है, तब तुम केंद्र में, अंतस में केंद्रस्थ हो। स्थिर आसन केवल शारीरिक प्रशिक्षण नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति का निर्माण करना हुआ जिसमें कि केंद्रस्थता घटित हो सकती है; जिसमें कि तुम अनुशासित हो सकते हो। जब तुम बस हो, जब तुम केंद्रस्थ हो गये हो, जब तुम जान गये कि मात्र होने का क्या अर्थ है, तब तुम सीख सकते हो क्योंकि तभी विनम्र बनोगे। तब तुम समर्पित हो सकते हो। तब कोई नकली अहंकार तुमसे चिपका न रहेगा क्योंकि एक बार जब स्वयं में केंद्रित हो जाते हो तब जान लेते हो कि सारे अहंकार झूठे हैं। तब तुम झुक सकते हो। और तब एक शिष्य का जन्म होता है।

20-शिष्य होना एक बड़ी उपलब्धि है। अनुशासन के द्वारा ही तुम शिष्य बनते हो। अंतस में केंद्रस्थ होकर ही तुम विनम्र बनोगे। तुम ग्रहणशील बनोगे,तुम खाली हो पाओगे और तब वह दिव्य सत्ता अपने को तुममें उड़ेल सकती है। तुम्हारी रिक्तता में, तुम्हारे मौन में ही वह प्रवेश कर सकती है, तुम तक पहुंच सकती है। शिष्य का अर्थ है, जो अंतस में केंद्रित है, जो

विनम्र, ग्रहणशील और खुला है; जो तैयार है, सचेत है; प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है। योग में दिव्य सत्ता/गुरु अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तुम उस व्यक्ति के, जो कि आत्मस्थ है, उसके गहन सान्निध्य में होते हो... तभी तुम्हारे केंद्रीभूत होने की घटना घटेगी और यही है सत्संग का अर्थ।

21- सत्संग का अर्थ है सत्य का गहरा सान्निध्य , सत्य के पास होना। बस, अंतस सत्ता के निकट बने रहना ,खुले हुए,ग्रहणशील और प्रतीक्षारत। और यदि तुम्हारी प्रतीक्षा गहरी और सघन हो जाती है तब एक गहन आत्म -मिलन घटित होगा।यदि तुम अनुशासित व्यक्ति हो तो तुम्हारी अंतस सत्ता सत्संग में हो सकती है। तब तुम्हारा सिर व्यस्त रहता है और हृदय खुला रहता है। तब एक गहरे तल पर मिलन घटित होता है और वही मिलन सत्संग है।

22-प्रत्येक व्यक्ति के आस-पास एक अपना क्षेत्र होता है। और जब कोई तुम्हारे उस क्षेत्र में प्रवेश करता है, तुम भयभीत हो जाते हो। हर व्यक्ति के पास बचाव के लिए बनाया फासला है। उदाहरण के लिए,तुम अकेले अपने कमरे में बैठे हो और एक अजनबी कमरे में दाखिल होता है। तब जरा ध्यान देना कि तुम सचमुच डर जाते हो। एक सीमाबिन्‍दु है; यदि वह व्यक्ति उस बिन्दु तक पहुंच जाये या उसके पार पहुंच जाये तो तुम आशंकित , भयभीत हो जाओगे।अचानक एक कंपन महसूस करने लगोगे। वह आदमी एक खास सीमाबिन्‍दु तक ही आ सकता है।

23-वास्तव में,तुम एक भीड़ हो। भीड़ किसी भी क्षण बिखर सकती है। तुम्हारे पास ऐसा कुछ नहीं है, जो कुछ भी घटित होने पर चट्टान की तरह ही मजबूती से बना रहे। तुम जी रहे हो बिना किसी ठोस आधार के, बिना किसी नींव के ,ताश के घर की तरह। तो निश्रित ही हमेशा भय में जीयोगे। कोई तेज हवा, या हवा का हल्का झोंका तक तुम्हें नष्ट कर सकता है। इसलिए तुम्हें स्वयं का बचाव करना होता है।और इसी लगातार बचाव के कारण तुम प्रेम नहीं कर सकते, भरोसा नहीं कर सकते, मैत्री नहीं कर सकते। तुम्हारे बहुत से मित्र हो सकते हैं लेकिन मैत्री नहीं है क्योंकि मित्रता समीपता की मांग करती है।

24-'समीपता' का अर्थ है कि अब तुम्हारा कोई अपना क्षेत्र न बचा ; कि अब तुम कोमल और असुरक्षित हो। इसका अर्थ है कि अब चाहे कुछ भी हो जाये, तुम किसी तरह की सुरक्षा

की बात सोच ही नहीं रहे।'योगी 'का अर्थ है एक ऐसा खोजी, अन्वेषक, जो भीड़ नहीं है; जो केंद्रीभूत होने की, एकजुट होने की कोशिश कर रहा है, जो कम से कम व्यक्ति बनने के लिए, अपनी सत्ता को महसूस करने के लिए, अपना मालिक स्वयं बनने के लिए मेहनत कर रहा है; गहनता से प्रयास कर रहा है। तुम तो बस ऐसे हो कि, जैसे एक गुलाम ..कितनी ही इच्छाओं के। कितने ही मालिक हैं और तुम तो बस अनेक दिशाओं में खींचे जा रहे हो।

25-'योग चिकित्सा' विज्ञान नहीं है।आज बहुत से मनोवैज्ञानिक रोगोपचारों का चलन है और बहुत से मनोवैज्ञानिक समझते हैं कि योग भी चिकित्सा है जबकि ऐसा नहीं है। योग अनुशासन है, साधना है।चिकित्सा की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब तुम बीमार होते हो । लेकिन अनुशासन की आवश्यकता तो स्वस्थ होने पर भी है। वास्तव में अनुशासन तो सहायक ही तभी होता है.. जब तुम स्वस्थ होते हो।

26-रोगियों के लिए योग नहीं है। यह उनके लिए है जो चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से पूरी तरह स्वस्थ , सहज ,सामान्य हैं। जो सिजोफ्रेनिक (एक प्रकार का पागलपन ) नहीं हैं, न्यूराटिक (विक्षिप्त) नहीं हैं ;वे सहज, सामान्य , स्वस्थ लोग हैं जिन्हें कोई रोग नहीं। फिर भी वे जान गये हैं कि जिसे सामान्य कहा जाता है वह व्यर्थ है; जिसे स्वास्थ्य कहा जाता है वह भी बेकार है। कुछ और चाहिए, कुछ ज्यादा विशाल चाहिए, कुछ ज्यादा स्वस्थ,ज्यादा पावन और ज्यादा समग्र चाहिए।

27-चिकित्साएं योग तक आने के लिए,तुम्हारी सहायता कर सकती है; लेकिन योग चिकित्सा विज्ञान नहीं है। योग स्वास्थ्य की एक अलग और ऊंची दशा के लिए है, एक भिन्न प्रकार की समग्रता और सत्ता के लिए है। कोई चिकित्सा तुम्हें सहज बना सकती है तो इसी लिहाज से कि तुम समाज के अनुकूल हो जाओ, लेकिन समाज तो स्वयं बीमार है, अस्वस्थ है।

28-इसलिए कई बार यही होता भी है कि एक बीमार समाज में स्वस्थ व्यक्ति को बीमार

समझ लिया जाता है।जीसस को बीमार समझा गया और हर प्रयत्न किया गया उन्हें अनुकूल बनाने के लिए। और जब यह जान लिया गया कि उनके बदले जाने की कोई भी आशा नहीं तो

उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया।समाज स्वयं बीमार है क्योंकि समाज केवल तुम्हारा सामूहिक स्‍वप्‍न है। यदि किसी समाज के सारे लोग ही बीमार हैं, तो समाज बीमार है और उसके हर सदस्य को रुग्ण समाज के साथ समझौता करना होता है। योग किसी भी स्‍वप्‍न में यह कोशिश नहीं करता कि समाज के साथ तुम्हारा सामंजस्थ किया जाये।

29-यदि तुम समन्वय या सामंजस्य की भाषा में ही योग की व्याख्या करना चाहते हो, तो यह समन्वय समाज के साथ नहीं है।योग समन्वय है ...अस्तित्व के साथ, दिव्य

सत्ता के साथ।यह हो सकता है कि एक श्रेष्ठ योगी तुम्हें पागल मालूम पड़े। ऐसा लग सकता है कि इंद्रियां उसके वश में नहीं, दिमाग फिर गया है उसका; क्योंकि अब वह किसी अधिक विराट, किसी अधिक ऊंचे मस्तिष्क का स्पर्श पा रहा है। वह जुड़ गया है चीजों की किसी ऊंची व्यवस्था के साथ। वह जुड़ा है उस व्यापक और वैश्विक मनस के साथ। हमेशा इसी भांति हुआ है। बुद्ध, जीसस, श्रीकृष्ण हमेशा ही कुछ अनियमित से या वे हम जैसे नहीं लगते; वे अनजाने, बाहरी व्यक्ति जान पड़ते है।

30-इसीलिए हम उन्हें अवतार कहते हैं..बाहरी व्यक्ति.. जैसे कि वे किसी अन्य स्थान से आये हों, वे हमारे इस संसार से संबंधित न हों। वे ऊंचे है,अच्छे है बहुत, पावन भी हैं लेकिन वे हमारे बीच के व्यक्ति नहीं। वे कहीं और से आते हैं, वे हमारे अस्तित्व के अनविार्य अंग नहीं। यह भावना अटल हो गयी है कि वे कहीं बाहर के व्यक्ति है; पर वे 'बाहरी' व्यक्ति नहीं है। वे वास्तविक अंतरंगी है क्योंकि उन्होंने अस्तित्व के अंतरतम सार का स्पर्श किया है, उसके सबसे आन्तरिक मर्म...शिवत्व से जुड़े है। लेकिन हमें बाहरी व्यक्ति ही लगते है।यदि तुम्हारे

मन ने पूरी तरह समझ लिया है कि जो कुछ तुम अब तक कर रहे थे वह बिलकुल निरर्थक था; कि वह बुरे से बुरा दुख स्‍वप्‍न था या अच्छे से अच्छा सपना था, तब अनुशासन का मार्ग तुम्हारे सामने खुल जाता है। वह मार्ग और उसकीसकी मूलभूत परिभाषा क्या है...

2-''योग मन की समाप्ति है''।(योगश्रित्तवृत्तिनिरोध:।)

15 FACTS;-

1-'योग मन की समाप्ति है' यही योग की परिभाषा है... सबसे सही परिभाषा। योग को बहुत ढंग से परिभाषित किया गया है। बहुत सी परिभाषाएं है इसकी। कुछ कहते हैं कि योग दिव्य सत्ता के साथ मन का मिलन है, इसीलिए इसे 'योग' कहा जाता है, क्योंकि योग का मतलब है मिलना, दो का जुड़ना। और कई कहते है कि योग का अर्थ है अहंकार का गिर जाना। अहंकार ही बीच में बाधा है और जिस क्षण तुमने अहंकार को गिरा दिया, तुम दिव्य सत्ता से जुड़ जाते हो। तुम जुड़े ही हुए थे लेकिन इस अहंकार के कारण ही लगता रहा कि तुम जुड़े हुए नहीं हो। बहुत व्याख्याएं हैं, लेकिन महर्षि पतंजलि की परिभाषा सबसे ज्यादा वैज्ञानिक है। वे कहते है, 'योग मन का अवसान है, समाप्ति है।’ योग अ -मन होने की अवस्था है।

2-यह शब्द 'मन' इन सबको अपने में समेटता है ...तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी इच्छाएं तुम्हारी आशाएं तुम्हारे तत्वज्ञान, तुम्हारे धर्म, तुम्हारे शास्त्र.. ये सब मन के अन्तर्गत हैं। जो कुछ भी तुम सोचते हो वह मन है। जो भी जाना गया है, जो भी जाना जा सकता है, जो ज्ञेय है; वह सब मन के अन्तर्गत है। मन की समाप्ति का अर्थ है जो जाना है, उसकी समाप्ति; जो जानना है उसकी समाप्ति। यह एक छलांग है अज्ञात में। जब मन न रहा, तब तुम अज्ञात हो। योग अज्ञेय, ज्ञानातीत में एक छलांग है।

3-मन क्या है.. क्या कर रहा है.. आम तौर पर हम यही सोच लेते हैं कि मन जो है, सिर में पड़ी कोई भौतिक चीज है। परन्तु जिसने भी मन के भीतर को जाना है ;वो इसे नहीं स्वीकारेगा।पतंजलि इसे नहीं स्वीकारते। आधुनिक विज्ञान भी इसे नहीं स्वीकारता। मन कोई भौतिक तत्व नहींहै, जो पड़ा है सिर में..। मन एक वृत्ति है, क्रियाशीलता है। उदाहरण के

लिए, चलना कोई वास्तविक तत्व नहीं है ; एक क्रिया मात्र है। मैं चल सकता हूं और मैं चलना रोक भी सकता हूं ।चलना कोई ठोस, भौतिक चीज नहीं है ।इसलिए जब तुम बैठे हुए हो तो कोई नहीं पूछ सकता कि तुमने अपनी गति कहां रख दी?

4-मन भी एक क्रिया है, लेकिन इस शब्द 'मन' की वजह से लगता है कि वह भीतर कोई ठोस चीज है। इस मन को, इस माइंड को 'माइंडिंग' कहना ही बेहतर होगा .. । माइंड का मतलब माइंडिंग अथार्त सोचना। यह एक सक्रियता है।उदाहरण के लिए बोधिधर्म चीन गया और

चीन का सम्राट उसके पास मिलने के लिए आया। सम्राट ने उससे कहा, 'मेरा मन बहुत बेचैन है, बहुत अशांत है। आप महान संत हैं और मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे बतायें कि मैं क्या करूं जिससे मेरा मन शांत हो जाये?'

5-बोधिधर्म ने कहा, 'कुछ भी मत करो। पहले अपना मन मेरे पास ले आओ।’ सम्राट कुछ समझ नहीं सका। उसने कहा, 'आप कहना क्या चाहते हैं?'बोधिधर्म ने कहा, 'सुबह चार बजे आना जब यहां कोई नहीं होता। अकेले आना और ध्यान रखना, अपने मन को साथ लेते

आना।’वह सम्राट सारी रात सो नहीं सका। बहुत बार उसने वहां जाने का विचार ही रद्द कर दिया। वह स्वयं से कहता, 'यह आदमी पागल जान पड़ता है। यह कहने से उसका आखिर मतलब क्या है कि भूलना नहीं, मन को साथ लेकर आना!'

6-लेकिन वह व्यक्ति इतना मोहक, इतना चमत्कारिक था कि सम्राट उस नियोजित भेंट को रद्द न कर सका। जैसे कि कोई चुम्बक उसे अपनी तरफ खींच रहा था। चार बजे वह बिस्तर से उठ बैठा और कहने लगा, 'चाहे जो हो, मुझे जाना ही है। इस व्यक्ति के पास कुछ होगा। उसकी आंखें कहती हैं कि उसके पास कुछ है। थोड़ा सा पगला जरूर लगता है पर फिर भी मुझे जाना चाहिए और देखना है कि क्या हो सकता है।’इस प्रकार वह वहां पहुंचा।बोधिधर्म

अपने मोटे सोंटे (डंडे) को लिये बैठे हुए थे। उन्होंने कहा, 'आ गये तुम? कहां है तुम्हारा मन? उसे अपने साथ लाये हो या नहीं?'

7-सम्राट ने कहा, ' आप क्या फिजूल बात कहते हैं। अब मैं यहां हूं तो मेरा मन भी यहीं है और वह कोई ऐसी चीज है भी नहीं जिसे कहीं भूल से रख आ सकता हूं। वह मुझमें ही है।’

बोधिधर्म ने कहा, ' अच्छा, तो ठीक! सो पहली बात का तो निर्णय हुआ, कि मन तुममें ही है।’ सम्राट ने कहा, 'हां, ठीक, मन मुझमें ही है।’ बोधिधर्म ने कहा, 'तो अब आंखें बद कर लो और खोजो जरा कि मन कहां है। और तुम उसे ढूंढ लो कि वह कहां है तो फिर उसी क्षण मुझे बता देना। मैं उसकी अवस्था शांत बना दूंगा।’

8-सम्राट ने आंखें बंद कर लीं और कोशिश करता ही गया देखने की, और देखने की। जितना ही भीतर झांकता गया उतना ही होश आता गया कि वहां कोई मन नहीं; मन एक क्रिया मात्र है। वह कोई चीज नहीं कि जिसे ठीक-ठीक इंगित किया जा सके। लेकिन जिस क्षण उसने जाना कि. मन कोई वस्तु नहीं,उसी क्षण उसे अपनी खोज का बेतुकापन भी खुलकर प्रकट हो गया। यदि मन कुछ है ही नहीं तो फिर इसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यदि यह क्रिया है तो फिर उस क्रिया को क्रियान्वित मत करो, बस, हो गयी बात। यदि यह गति की भांति, चाल की भांति है... तो मत चलो।

9-उसने अपनी आंखें खोलीं। वह बोधिधर्म के सामने झुक गया और बोला, 'ढूंढ निकालने को मन जैसा कुछ है ही नहीं।’ बोधिधर्म ने कहा, 'मैंने तब उसे शांत बना दिया है। और जब भी तुम महसूस करो कि तुम अशांत हो, बस जरा भीतर झांक लेना और देख लेना कि वह बेचैनी कहां है।’ यह अवलोकन ही मनविरोधी है, एंटीमाइंड है। क्योंकि यह 'देखना सोचना 'नहीं है। यदि तुम पूरी उत्कटता से झांको तो तुम्हारी सारी ऊर्जा एक दृष्टि बन जाती है, और वही ऊर्जा गति और सोच-विचार भी बन सकती है।

10-यह महर्षि पतंजलि की परिभाषा है कि जब मन सक्रिय न हो, तब तुम योग में हुए। जब मन मौजूद हो तो तुम योग में नहीं हो। तो तुम सारे के सारे आसन लगाये जाओ, मुद्राएं बनाये जाओ ,जाप करते जाओ ...लेकिन यदि मन कार्य करता ही रहे, यदि तुम सोचते ही रहो

तो तुम योग में नहीं उतरे।योग अ-मन होने की अवस्था है। यदि तुम कोई आसन लगाये बिना भी अ-मन बने रह सको तब तुम एक सम्पूर्ण योगी हुए। बिना किसी आसन किये, बहुतों के साथ ऐसा घटित हुआ है। और ऐसा उन बहुतों के साथ घटित नहीं हुआ जो योगासनों को साधे जा रहे हैं जन्मों-जन्मों से।

11-सबसे बुनियादी बात जो समझने की है वह यह कि जब सोचने-विचारने की क्रिया वहां नहीं होती, तब वहां तुम होते हो। जब मन की सक्रियता वहां नहीं होती, जब विचार तिरोहित हो जाते हैं, जो कि बादलों की भांति हैं; और जब वे तिरोहित हो जाते हैं तो तुम्हारा अस्तित्व जो आकाश की भांति है, वह ढका हुआ नहीं रहता। वह स्व-सत्ता तो हमेशा ही वहां है, केवल आच्छादित रहता है बादलों से... ढका रहता है विचारों से।

12-ध्यान का अर्थ होता है अ-मन। और इसलिए सारे प्रशिक्षणों का सार है कि मन की क्रियाओं को कैसे रोका जाये, अ-मन कैसे हुआ जाये, बिना विचार के होना कैसे फलित हो।

यदि तुम कोशिश करो, तो यह प्रयास मन से ही आता हुआ मालूम पड़ता है।तुम एक आसन लगाकर बैठ सकते हो और कोई जाप कर सकते हो, मंत्र पढ़ सकते हो या तुम कुछ भी न सोचते हुए मौन बैठने का प्रयत्न कर सकते हो। लेकिन कुछ न सोचने का प्रयत्न करना भी सोचना बन जाता है। तुम स्वयं से कहते चले जाते हो, 'मुझे कुछ नहीं सोचना है; कुछ न सोचो; सोचना बन्द करो।’ लेकिन यह सब सोचना ही हैं।

13-वास्तव में,जब पतंजलि कहते हैं ''अ -मन की बात, 'मन की समाप्ति' की बात,'' तो उनका मतलब है पूरी समाप्ति। वे कभी भी जाप करने की स्वीकृति नहीं देंगे। वे कहेंगे, जप करना मन की समाप्ति नहीं है। तुम मन को तो इस्तेमाल कर ही रहे हो, वे कहेंगे, बस, रुक जाओ। लेकिन तुम पूछोगे, 'कैसे?' 'कैसे रुक जायें?' मन तो चलता ही रहता है। यदि तुम बैठ भी जाओ, तो भी मन सतत चलता है। यदि तुम कुछ न करो, तो भी मन अपनी गति करता ही जाता है।

14-पतंजलि कहते हैं, बस, तुम देखो। मन को चलने दो, मन को करने दो, जो वह कर रहा है। तुम बस देखो; कोई बाधा मत डालो। मात्र साक्षी बन जाओ,दर्शक बन जाओ, असंबंधित। जैसे मन तुम्हारा है ही नहीं, जैसे तुम्हारा उससे कुछ लेना -देना नहीं है, कोई नाता ही नहीं उससे। बस, देखो,और बहने दो मन को। वह बह रहा है तो अतीत के संवेग के कारण, क्यौंकि तुमने हमेशा इसकी मदद की है बहने में। इसकी क्रियाशीलता ने अपनी एक गति बना ली है इसलिए यह बह रहा है। इसे बिलकुल सहयोग न दो।केवल देखो, और मन को बहने दो।

15-बहुत-बहुत जन्मों से, हो सकता है लाखों जन्मों से; तुमने इसे सहयोग दिया है, सहायता दी है, तुमने अपनी ऊर्जा दी है इसे। नदी कुछ समय तक बहेगी लेकिन यदि तुम सहयोग न दो, यदि तुम असंबंधित से बने रहो ... जिसे बुद्ध ने कहा है 'उपेक्षा' बिना किसी संबद्धता के देखना; बस देखना; किसी भी स्‍वप्‍न में कुछ न करना। ऐसे में मन कुछ देर बहेगा और फिर स्वयं ही थम जायेगा। जब संवेग चुक जाता है, जब ऊर्जा बह चुकी होती है, तब मन रुक जायेगा। और जब मन रुक जाता है, तब तुम योग में उतरते हो। तुमने अनुशासन पा लिया है। यही परिभाषा है ... 'मन की समाप्ति योग है।’

3-''तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है''।(तदास्तु: स्वस्‍वपेऽवस्थानम्।)

03 FACTS;-

1-जब 'मन का होना' समाप्त होता है, साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है। जब तुम केवल देख सको बिना मन के साथ तादात्‍म्‍य बनाये, बिना निर्णय किये, बिना प्रशंसा या आलोचना किये, बिना चुनाव किये ..बस, केवल देखते रहो जबकि मन बह रहा हो, तो ऐसा क्षण आ जाता है जब स्वयं ही मन रुक जाता है, थम जाता है।जब मन नहीं है, तब तुम अपने साक्षी

में प्रतिष्ठित हो जाते हो। तब तुम साक्षी बन गये -केवल देखने वाले, एक द्रष्टा। तब तुम कर्ता न रहे, विचारक न रहे। तब बस, 'तुम हो'... शुद्धतम अस्तित्व। तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो गया।

2-साक्षी के अतिरिक्त और दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तुम्हारा तादात्‍म्‍य बना रहता है। तुम विचारों के प्रवाह के साथ एक हो जाते हो; एक हो जाते हो बादलों के साथ : कई बार सफेद बादलों के साथ, कई बार वर्षा से भरे बादलों के साथ, तो कई बार वर्षारिक्त खाली बादलों के साथ। लेकिन कुछ भी हो, तुम किसी विचार के साथ, किसी बादल के साथ एक हो ही जाते हो। और इस तरह तुम आकाश की शुद्धता गंवा देते हो, खो देते हो अंतरिक्ष की शुद्धता। तुम जैसे बादलों में घिर जाते हो। और बादलों का यह घेराव घटित होता है क्योंकि तुम तादात्‍म्‍य जोड़ लेते हो, तुम विचारों के साथ एक हो जाते हो।

3-उदाहरण के लिए,तुम्हे खयाल आता है कि तुम भूखे हो और विचार मन में कौंध जाता है। विचार इतना भर है कि भूख है, कि पेट को भूख लगी है। उसी क्षण तुम तादात्‍म्य स्थापित कर लेते हो।तुम कह देते हो, 'मुझे भूख लगी है।’ यही तादात्‍म्‍य है।बुद्ध भी भूख महसूस

करते हैं, पतंजलि भी भूख महसूस करते हैं, लेकिन पतंजलि कभी नहीं कहेंगे 'मुझे भूख लगी है।’ वे कहेंगे कि ''शरीर भूखा है ..मेरा पेट भूख महसूस कर रहा है।मैं इस विचार का साक्षी बना हूं जो पेट द्वारा दिमाग तक कौंध गया, कि 'मुझे भूख लगी है'''।पतंजलि तो उसके साक्षीमात्र बने रहेंगे। लेकिन तुम तादात्‍म्‍य बना लेते हो, विचार के साथ एक हो जाते हो।

'तब साक्षी स्वयं में स्थापित होता है।’

4-''अन्य अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्‍म्‍य हो जाता है''।(’वृत्तिसास्‍वषमितरत्र।)

02 FACTS;-

1-यही परिभाषा है : 'योग मन की समाप्ति है।’ जब मन थमता है, समाप्त होता है, तुम अपनी साक्षी सत्ता में अवस्‍थ’त होते हो। इस अवस्था के अतिरिक्त बाकी सभी अवस्थाओं में तादात्‍म्य बना ही रहता है। ये तादात्‍म्‍य ही संसार बनाते रहते हैं.. वे ही हैं संसार। यदि तुम इन तादात्‍म्य में हो, तब तुम संसार में हो, दुख में हो। और यदि तुम इन तादात्‍म्यों के परे हो गये, तब तुम मुक्त हुए। तब तुम सिद्ध हो गये, तुमने निर्वाण पा लिया। तुम इस दुख-भरे संसार के पार चले गये और आनंद के जगत में प्रविष्ट हुए।

2-और वह जगत अभी और यहां है। बिलकुल अभी, इसी क्षण। तुम्हें इसके लिए एक पल भी प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। मन के साक्षी भर बन जाओ और तुम उस जगत में प्रविष्ट कर जाओगे। मन के साथ तादात्‍म्‍य जोड़ लो, तो उसे खो दोगे। यही है बुनियादी

परिभाषा।साधक को अ-मन की अवस्था उपलब्ध करनी है। यही लक्ष्य है।

...SHIVOHAM....


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