क्या है योग का अंतर्विज्ञान?क्या महत्व है,योग के तीन तत्वो का?PART -04
क्या योग विस्मरण को काटने की विधि है?-
05 FACTS;-
1-स्वभाव का अर्थ है, जो हमें मिला हुआ है; जो हमारा अस्तित्व है और जिसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते।धर्म और आत्मा तो हमारा स्वभाव ही है। उसे उपलब्ध नहींकरना है,
वह मिला ही हुआ है। लेकिन योग का अभ्यास अशुद्धि को काटने के लिए करना पड़ता है।ऐसा मनुष्य के इतिहास में एक भी व्यक्ति नहीं हुआ है जिसने कहा हो कि ''मैंने भीतर जाकर जान लिया है कि मनुष्य के भीतर परमात्मा नहीं है''।जो जानते हैं, वे कहते हैं कि हमारा स्वभाव स्वयं परमात्मा होना है और यह एक निरपवाद घोषणा..निरपवाद सत्य
है।जिन्होंने कहा है, परमात्मा नहीं है, वे कभी भीतर नहीं गए। और जो भीतर गए हैं, उन्होंने सदा यही कहा है कि परमात्मा है।
2-लोग परमात्मा को खोजते हैं लेकिन कभी खोज न पाएंगे, क्योंकि खोजा उसे जा सकता है जिसे खोया हो।हम अगर परमात्मा से अलग होते, तो कहीं न कहीं उसे खोज ही लेते, कहीं न कहीं मुठभेड़ हो ही जाती, कहीं न कहीं आमने-सामने पड़ ही जाते। लेकिन हम स्वयं ही परमात्मा हैं। इसलिए जो परमात्मा को खोजने निकला है, उसे अभी पता ही नहीं कि वह जिसे खोज रहा है, वह उसका स्वयं का ही होना है।जो खोजने से मिलता है .. वह है विस्मरण/फारगेटफुलनेस।
3-स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, लेकिन स्वभाव को भूला जा सकता है। विस्मरण किया जा सकता है। यद्यपि विस्मरण के समय में भी कुछ बदलाहट नहीं होगी; हम जो थे, वही होंगे। लेकिन फिर भी हम जो हैं, वह हम अपने को समझ नहीं पाएंगे।परमात्मा सिर्फ विस्मृत
है।योग की जरूरत है इस विस्मरण,भूल जाना/फारगेटफुलनेस को तोड़कर स्मरण को पुनर्स्थापित करने के लिए।इस प्रकार, योग का समस्त प्रयोग निगेटिव /नकारात्मक है।
वह किसी चीज को पाने के लिए नहीं, कोई चीज बीच में अटकाव बन गई है, उसे तोड़ने के लिए है। योग से कोई नई चीज निर्मित नहीं होगी; कोई नई उपलब्धि नहीं होगी;केवल जो सदा-सदा से मिला ही हुआ है, वही पुनर्स्मरण होगा।
4-उदाहरण के लिए,गौतम बुद्ध को जब ज्ञान हुआ,तो किसी ने उनसे पूछा कि 'आपने क्या
पाया' ?तो बुद्ध बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा कि ''ऐसा मत पूछो क्योंकि मैंने पाया.. कुछ भी नहीं''। तो उस आदमी ने कहा कि ''तो क्या इतनी मेहनत व्यर्थ गई?लोग कहते हैं कि आपको मिल गया.. तो क्या मिला है?'' बुद्ध ने कहा, ''अगर ठीक से कहूं, तो यही कह सकता हूं, मैंने कुछ खोया है, मैंने कुछ पाया नहीं''।
5-इस पर तो स्वभावतः पूछने वाला और भी चकित हुआ और उसने कहा, ''खोने के लिए इतनी मेहनत! तो फल क्या है? अभिप्राय क्या है? और अब आप क्यों उपदेश देते हैं?''बुद्ध ने
कहा, ''इसीलिए कि तुम भी कुछ खो सको। जो मैंने पाया है, अब मैं कह सकता हूं कि वह सदा ही मेरे भीतर था, सिर्फ मुझे पता नहीं था। इसलिए कैसे कहूं कि मैंने पाया..वह तो था ही। इतना ही कह सकता हूं कि वह जो मेरे भीतर था, उसको भी जानने में कुछ बाधाएं मेरे भीतर थीं, उन बाधाओं को मैंने खोया।स्वयं को, अज्ञान को मैंने खोया और ज्ञान पाया है, ऐसा भी मैं नहीं कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही।परमात्मा को मैंने पाया, ऐसा भी मैं न कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। मेरी विस्मृति गहरी थी और मेरे ''मैं'' की वजह से वह दिखाई नहीं पड़ता था।
विस्मरण होने के क्या कारण है?-
09 FACTS;-
1-अकारण तो विस्मरण नहीं हो सकता ; उसके होने के भी कारण है। तो स्मरण की प्रक्रिया समझने के लिए तीन बातें खयाल में लेंना आवश्यक है।विस्मरण का पहला बुनियादी
कारण तो यह है कि जो भी हम हैं, उसे बिना एक बार भूले,एक बार बिना करीब-करीब खोए, हमें कभी पता नहीं चलेगा। असल में पता चलने के लिए विरोधी घटना घटनी चाहिए।यही पता
चलने का नियम है।अगर आप कभी बीमार नहीं पड़े, तो कभी भी आपको यह पता नहीं चलेगा कि आप स्वस्थ हैं। बीमार पड़ेंगे, तो पता चलेगा कि अब स्वस्थ हो गए। लेकिन बीमारी के कंट्रास्ट के बिना, बीमारी के विरोध के बिना, आपको अपने स्वास्थ्य का कोई स्मरण नहीं हो
सकता है।अगर इस पृथ्वी पर अंधेरा न हो, तो प्रकाश का किसी को भी पता नहीं चलेगा। प्रकाश तोहोगा, लेकिन पता नहीं चलेगा। पता चलने के लिए विपरीत का होना जरूरी है। वह जो विपरीत है, वही पता चलवाता है।
2-अगर बुढ़ापा न हो, तो जवानी तो होगी, लेकिन पता नहीं चलेगा। अगर मौत न हो, तो जिंदगी तो होगी, लेकिन पता न चलेगा। जिंदगी का पता चलता है मौत के किनारे से। वह जो मौत की पृष्ठभूमि है, उस पर ही जीवन उभरकर दिखाई पड़ता है। अगर कभी मौत न हो, तो आपको जीवन का भी पता नहीं चलेगा। यह बहुत उलटी बात लगेगी, लेकिन ऐसा ही है।
स्कूल में शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है जबकि सफेद ब्लैकबोर्ड पर भी लिख सकता है।उसमे लिखावट तो बन जाएगी, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगी। काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया उभरकर दिखाई पड़ने लगती है।
3-जिंदगी के गहरे से गहरे नियमों में एक है कि उसी बात का पता चलता है जिसका विरोधी
मौजूद हो; अन्यथा पता नहीं चलता।अगर हमारे भीतर परमात्मा है,और सदा से है, तो भी उसका पता तभी चलेगा, जब एक बार विस्मरण हो। उसके बिना पता नहीं चल सकता।
इसलिए विस्मरण स्मरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। ईश्वर से बिछुड़ना, ईश्वर से मिलन का प्राथमिक अंग है। ईश्वर से दूर होना, उसके पास आने की यात्रा का पहला कदम है। केवल वे ही जान पाएंगे उसे, जो उससे दूर हुए हैं। जो उससे दूर नहीं हुए हैं, वे उसे कभी भी नहीं जान पाएंगे।
4-अगर आपको अपनी मां की गोद से कभी सिर हटाने का मौका न मिले, तो आपको मां की गोद का पता नहीं चलेगा, और सब पता चलता रहेगा। मां की गोद छूट जाती है, तब ही पता चलता है कि वह गोद थी। उसका अर्थ और अभिप्राय है।जीवन का यह सत्य स्वयं के
स्वभाव को भूलने के लिए भी लागू होता है। भूलना ही पड़ता है, तो ही हमें बोध होता है। बोध
के जन्म की यह अनिवार्य प्रक्रिया है।और भूलने का एक ही ढंग है, अगर स्वयं को भूलना हो, तो स्वयं को गलत समझना पड़ेगा,स्वयं को कुछ और समझना पड़ेगा, तभी भूल सकते हैं; नहीं तो भूल नहीं सकते। इसलिए चेतना अपने को शरीर समझ लेती है, पदार्थ समझ लेती है, मन समझ लेती है, विचार समझ लेती है, भाव समझ लेती है, वृत्ति-वासना समझ लेती है–सिर्फ आत्मा नहीं समझती। दूसरे के साथ तादात्म्य हो जाता है। यह भूलने का ढंग है।
5-योग इस भूलने के ढंग से विपरीत यात्रा है, पुनः घर की ओर वापसी। बहुत दूर निकल गए हैं... फिर वापस पुनर्यात्रा। निश्चित ही, पुनः उसी जगह पहुंचेंगे, जहां से चले थे। लेकिन आप वही नहीं होंगे। क्योंकि जब आप चले थे, तब आपको उस जगह का कोई भी पता नहीं था।अब जब आप पहुंचेंगे, तो आपको पूरा पता होगा। वहीं प्रभु के मंदिर में प्रवेश हो जाएगा, जहां से बाहर निकले थे। लेकिन जब दुबारा पहुंचेंगे, तो प्रभु के मिलन के आनंद /एक्सटैसी का, समाधि का, मिलन की वह जो अपूर्व घटना घटेगी, वह प्राणों में अमृत बरसा जाएगी।वहीं
पहुंचेंगे,लेकिन वही नहीं होंगे, क्योंकि बीच में विस्मरण घट चुका।और अब जब स्मरण आएगा, तो यह काले तख्ते पर सफेद रेखाओं की तरह उभरकर आएगा। पहली दफे, जो लिखा है, वह पढ़ा जा सकेगा ; जो स्वभाव है, वह प्रकट होगा ; जो छिपा है, वह उघड़ेगा;जो दबा है, वह अनावृत होगा। यह जीवन का अनिवार्य हिस्सा है।
6-कोई पूछे, ऐसा क्यों है? तो वह बच्चों का सवाल पूछ रहा है।वैज्ञानिक से पूछें कि पृथ्वी गोल क्यों है? वह कहेगा, है। हम तथ्य बता सकते हैं, क्यों नहीं बता सकते। पूछें कि सूरज में रोशनी क्यों है? वह कहेगा, है। या और अगर थोड़ी खोजबीन की, तो कहेगा, हीलियम गैस की वजह से है, इसकी वजह से है, उसकी वजह से है; कि उदजन का अणु-विस्फोट हो रहा है, इस वजह से है। लेकिन पूछें कि क्यों हो रहा है सूरज पर, जमीन पर क्यों नहीं हो रहा है? तो वैज्ञानिक कहेगा, इसको मत पूछें। ऐसा हो रहा है, वह हम कह सकते हैं। व्हाई मत पूछें, क्यों मत पूछें। हाउ, कैसे; कैसे हो रहा है, वह हम बता सकते हैं।धर्म भी विज्ञान है।वह भी यह
नहीं कहेगा, नहीं कह सकता है, कि 'क्यों'। इतना ही कह सकता है, कि कैसे!
7-योग शुद्ध विज्ञान है, सिद्धांत नहीं।भारत में तीन बड़े धर्म –जैन, हिंदू, बौद्ध। उनमें कितने ही झगड़े हों और उनमें कितने ही सैद्धांतिक विवाद हों, लेकिन योग के संबंध में उनमें कोई भी
विवाद नहीं उठा हैं। योग दार्शनिक सिद्धांत नहीं, मेटाफिजिक्स नहीं, योग तो एक प्रक्रिया है, एक प्रयोग /एक एक्सपेरिमेंट है। उसे कोई भी करे, अनुभव फलित होगा।इसलिए योग
एक अर्थ में समस्त धर्मों का सार है। भारत में तो तीन ही धर्म हैं परन्तु भारत के बाहर भी जो धर्म हैं –चाहे इस्लाम, और चाहे ईसाइयत, और चाहे यहूदी धर्म, चाहे पारसी धर्म– उनका भी योग से कभी भी कोई विरोध खड़ा नहीं होता है।
8-तो योग समस्त धर्मों की प्रक्रिया है। अगर भविष्य में कभी किसी दुनिया में किसी समय में धर्म का विज्ञान स्थापित होगा, तो उसकी आधारशिला योग बनने वाली है। क्योंकि योग सिर्फ
प्रक्रिया है।योग यह नहीं कहता कि परमात्मा क्या है। योग कहता है, परमात्मा को कैसे पाया जा सकता है। योग यह नहीं कहता कि आत्मा क्या है। योग कहता है, आत्मा को कैसे जाना जा सकता है।योग यह नहीं कहता कि किसने प्रकृति बनाई और नहीं बनाई। योग कहता है, अस्तित्व में उतरने की सीढ़ियां ये रहीं, उतरो और जानो। योग कहता है, हम न बताएंगे, तुम्हीं आंख खोलो और देख लो। आंख खोलने का ढंग हम बताए देते हैं।
9-योग बिलकुल शुद्ध , सीधा विज्ञान है। हां, फर्क है। साइंस आब्जेक्टिव है, पदार्थगत है। योग सब्जेक्टिव है, आत्मगत है। विज्ञान पदार्थ खोजता है ,और योग परमात्मा खोजता है।एक मनुष्य के शरीर में जितनी शक्ति का हम उपयोग करते हैं, इससे अनंत गुनी शक्ति को पैदा करने
की सुविधा और व्यवस्था है।यह पुनर्स्मरण, यह पुनर्वापसी की यात्रा योग कैसे करता है, उस संबंध में श्रीकृष्ण ने कहा, ''उसके ही सतत अभ्यास से परमात्मा में प्रतिष्ठा उपलब्ध होती है''।
क्या महत्व है,योग के तीन तत्वो का?-
02 FACT;-
1-योग की तीन प्रमुख शाखाएं हैं –कर्म, भक्ति और ज्ञान..फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं ।और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं। तीन तरह के लोग हैं ..
1-1- विचार/बुद्धि प्रधान ..Air Element
1-2-भाव प्रधान.. Water Element
1-3- कर्म प्रधान ..Fire Element
2-एक-एक आदमी का जो टाइप है, उस आदमी पर वह कुंजी लागू होती है।ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है।लेकिन अलग-अलग आदमी, अलग-अलग दरवाजों पर, अलग-अलग ताले डालकर खड़े हैं।इस प्रकार योग का पहला तत्व है, ऊर्जा। दूसरा तत्व है, ध्वनि और तीसरा तत्व है,दिशा ,ध्यान/अटेंशन...
1-पहला तत्व ..ऊर्जा;-
12 FACTS;-
1- एक हिस्सा तो शरीर है ऊर्जा का, जिसके योग ने सूत्र खोजे।पहले प्रयोग के लिए योगासन हैं, प्राणायाम हैं, मुद्राएं हैं। हमारे शरीर की बहुत क्षमताएं हैं, जिनका हम हिसाब नहीं लगा सकते। वे सारी की सारी क्षमताएं अनुपयुक्त, अनयूटिलाइज्ड रह जाती हैं। क्योंकि जीवन के काम के लिए उनकी कोई जरूरत ही नहीं है। जीवन के लिए जितनी जरूरत है, उतना शरीर
काम करता है।वैज्ञानिक कहते है कि दस प्रतिशत से ज्यादा हम अपने शरीर का उपयोग नहीं करते। नब्बे प्रतिशत शरीर की शक्तियां अनुपयोगी रहकर ही समाप्त हो जाती हैं। जीते हैं, जन्मते हैं, मर जाते हैं। वह नब्बे प्रतिशत शरीर जो कर सकता था, पड़ा रह जाता है।योग का
पहला काम तो यह है कि उन नब्बे प्रतिशत शक्तियों में से जो सोई पड़ी हैं, उन शक्तियों को जगाना, जिनके माध्यम से अंतर्यात्रा हो सके। क्योंकि बिना शक्ति /एनर्जी/ऊर्जा के कोई यात्रा नहीं हो सकती है।
2-अगर आप सोचते हैं कि हवाई जहाज किसी दिन बिना ऊर्जा के चल सकेंगे, तो आप गलत
सोचते हैं।हां, यह हो सकता है, हम सूक्ष्मतम ऊर्जा को खोजते चले जाएं। बैलगाड़ी चलती है, तो ऊर्जा से। पैदल आदमी चलता है, तो ऊर्जा से। सांस चलती है, तो ऊर्जा से। सब मूवमेंट,
सब गति ऊर्जा की, शक्ति की गति है।अगर आप सोचते हों कि परमात्मा तक बिना ऊर्जा के सहारे आप पहुंच जाएंगे, तो आप गलती में हैं। परमात्मा की यात्रा भी बड़ी गहन यात्रा है। उस यात्रा में भी आपके पास शक्ति चाहिए। और जिस शक्ति का आप उपयोग करते हैं साधारणतः, वह शक्ति आपके जीवन के दैनिक काम में चुक जाती है, उसमें से कुछ बचता नहीं है। और अगर थोड़ा-बहुत बचता है– –तो भी आपने उसको व्यर्थ फेंक देने के उपाय और व्यवस्था कर रखी है।आदमी करीब-करीब बैंक्रप्ट, दिवालिया जीता है। जो शक्ति उसे मिलती है, दैनंदिन कार्यों में चुक जाती है। और जो शक्ति छिपी पड़ी है, उसे वह कभी जगा नहीं पाता।
3-तो योग का पहला तो आधार है, छिपी हुई पोटेंशियल ऊर्जा को जगाना। सब तरह के उपाय योग ने खोजे हैं कि वह कैसे जगाई जाए। इसलिए प्राणायाम खोजा। प्राणायाम आपके भीतर सोई हुई शक्तियों कोचोट करने /हैमर करने की, एक विधि है। फिर योग ने आसन खोजे। आसन आपके शरीर में छिपे हुए जो ऊर्जा के स्रोत-क्षेत्र हैं, उन पर दबाव डालने की प्रक्रिया
है, ताकि उनमें छिपी हुई शक्ति सक्रिय हो जाए।आपने ट्रेन को चलते देखा है। साधारण-सी पानी और आग की और दोनों से बनी हुई भाप की शक्ति,उपयोग में आती है। लेकिन भाप के धक्के से इंजन का सिलेंडर धक्का खाकर चलना शुरू हो जाता है और ट्रेन चल पड़ती है। इतने बड़े वजन की ट्रेन सिर्फ पानी की भाप, स्टीम चलाती है।
4-आपके शरीर में भी बहुत-सी शक्तियां हैं, जिन शक्तियों को दबाकर सक्रिय किया जाए, तो आपके भीतर न मालूम कितने सिलेंडर चलने शुरू हो जाते हैं, जो कि अभी बिलकुल वैसे ही पड़े हैं। इन शक्तियों के बिंदुओं को, जहां शक्ति छिपी है, योग चक्र कहता है। प्रत्येक चक्र पर छिपी हुई शक्तियां हैं। और प्रत्येक चक्र को दबाने के, गतिमान करने के, डायनेमिक करने के
लिए आसन हैं, प्राणायाम की विधियां हैं।क्याआपने कभी खयाल किया है कि रात आप सिर के नीचे तकिया रखकर क्यों सो जाते हैं?लोग कहते हैं कि नींद नहीं आती है, इसलिए सो जाते हैं। आप तकिया रखकर न सोएं, तो नींद क्यों नहीं आती?
5-वास्तव में,जब आप तकिया नहीं रखते, तो शरीर के खून की गति सिर की तरफ ज्यादा होती है। क्योंकि सिर भी शरीर की सतह में, बल्कि शरीर से थोड़ा नीचे ढल जाता है। तो सारे शरीर का खून सिर की तरफ बहता है और जब खून सिर की तरफ बहता है, तो मस्तिष्क के जो तंतु हैं, वे खून की गति से सजग बने रहते हैं। फिर नींद नहीं आ सकती तो आप तकिया
रख लेते हैं।और जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है; तकिए बढ़ते चले जाते हैं–एक, दो, तीन ...क्योंकि उतना सिर ऊंचा चाहिए, ताकि खून जरा भी भीतर न जाए। नहीं तो मस्तिष्क की दिन भर इतनी चलने की आदत है कि जरा-सा खून का धक्का और सिलेंडर चालू हो जाएगा; आपका मस्तिष्क काम करना शुरू कर देगा।
6-तकिया रखने का और शीर्षासन का आधारभूत नियम एक ही है।उदाहरण के लिए ,योगी शीर्षासन लगाकर खड़ा होता है। उलटा काम कर रहा है वह। योगी जब शीर्षासन लगाकर खड़ा हो रहा है, तो वह इतना ही कर रहा है कि वह सारे शरीर के खून की गति को सिर की तरफ भेज रहा है।वैज्ञानिक कहते हैं कि सिर्फ एक चौथाई मस्तिष्क काम करता है, तीन चौथाई बंद पड़ा हुआ है... स्टैगनेंट, वह कभी कोई काम नहीं करता। खून की तीव्र चोट से वह जो नहीं काम करने वाला मस्तिष्क का हिस्सा है, सक्रिय किया जा सकता है।क्योंकि यह हिस्सा भी खून की चोट से ही सक्रिय होता है। खून का धक्का आपके मस्तिष्क के बंद सिलेंडर को गतिमान कर देता है।
7-मस्तिष्क के वे हिस्से सक्रिय हो जाएं, जो मौन चुपचाप पड़े हैं, तो आपकी समझ और आपके विवेक में आमूल अंतर आपड जाते हैं । आप नए ढंग से सोचना और नए ढंग से देखना शुरू कर देते हैं।एक नई दृष्टि/ एक नया द्वार,प्रत्यक्षीकरण के नए द्वार /डोर्स आफ न्यू परसेप्शन, आपके भीतर खुलने शुरू हो जाते हैं।इस तरह के शरीर में बहुत-से चक्र हैं।
इन प्रत्येक चक्र में छिपी हुई अपनी विशेष ऊर्जा है, जिसका विशेष उपयोग किया जा सकता है। योगासन उन सब चक्रों में सोई हुई शक्ति को जगाने का प्रयोग है।योग के द्वारा शरीर एक
बहुत जीवंत ऊर्जा /डायनेमिक फोर्स की जीती-जागती, साकार प्रतिमा बन जाता है। इस शक्ति के पंखों पर चढ़कर अंतर्यात्रा हो सकती है। अन्यथा अंतर्यात्रा अत्यंत कठिन है। वह प्रभु का जो स्मरण है, तभी हो सकता है।
8-तो योग का पहला विशेष अभ्यास है, शक्ति के सोए हुए स्रोतों को सजीव करना, जाग्रत
करना, पुनर्जीवित करना।कभी-कभी अचानक घटनाएं घटती हैं, तब लोगों को पता चलता है कि बहुत स्रोत हैं।उदाहरण के लिए , स्विटजरलैंड में एक आदमी एक ट्रेन से गिर पड़ा था। उसके कानों को बहुत जोर से चोट लगी। जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया, तो पाया गया कि दस मील के भीतर जो भी रेडियो स्टेशन हैं, उसके कान ने, उन रेडियो स्टेशंस को
पकड़ना शुरू कर दिया। बड़ी हैरानी हुई। लेकिन योग सदा से कहता है कि कान के पास ऐसी क्षमता छिपी पड़ी है, सिर्फ उसे सजग करने की बात है। यह भूल-चूक से हो गया, एक्सिडेंटल, कि आदमी ट्रेन से गिरा और उस केंद्र पर चोट लग गई और शक्ति सक्रिय हो गई। योग इसे व्यवस्थित रूप से सक्रिय करना जानता है।
9- इसी प्रकार स्वीडन में एक आदमी की आंख का कुछ आपरेशन किया गया, और अचानक उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने शुरू हो गए। आकाश में तारे तो दिन में भी होते हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से आपको दिखाई नहीं पड़ते। अगर आप एक गहरे अंधेरे कुएं में चले जाएं, तो दिन में भी आपको गहरे कुएं में से आकाश में थोड़े-से तारे दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन उस आदमी को तो सूरज की रोशनी में खड़े होकर
तारे दिखाई पड़ने लगे। योग कहता है कि आंख की क्षमता बहुत है। जितनी आप जानते हैं, उससे बहुत ज्यादा। लेकिन उसके सोए हुए शक्ति केंद्र हैं, उनको सजग करना जरूरी है। शरीर में ऐसे बहुत ऊर्जा-स्रोत हैं, और योग ने सबको सक्रिय करने की प्रक्रियाएं खोजी हैं। उनका ही सतत अभ्यास व्यक्ति को परमात्मा की दिशा में सक्रिय कर पाता है।
10-दूसरी बात, साधारणतः हम सोचते हैं, कि यह जो हमारा मन है, जैसा यह मन है, इसी मन को लेकर हम परमात्मा की तरफ चले जाएंगे, तो हम गलत सोचते हैं। इस मन को लेकर जाना असंभव है। इसी मन के कारण तो हम पदार्थ की तरफ आए हैं। यह मन हमारा पदार्थ से संबंध जोड़ने का इंतजाम है; यह परमात्मा से तोड़ने का कारण है; यह जोड़ने का कारण नहीं बन सकता है।आपको एक नए मन को पैदा करने की जरूरत है।और योग कहता है,
वैसा नया मन पैदा किया जा सकता है। और उस नए मन को पैदा करने की भी पूरी विधि योग ने खोजी है कि वह नया मन कैसे पैदा हो। शरीर की शक्ति जगाने के लिए आसन, प्राणायाम, मुद्राएं और इस तरह की सारी व्यवस्था है। हठयोग ने उस पर अपूर्व चेष्टा की है, और ऐसे राज खोज लिए हैं, जिनमें से बहुत-से राजों से अभी विज्ञान भी अपरिचित है।
11-जैसे विज्ञान समझता है कि खून की गति स्वेच्छा के बाहर/ नान-वालेंटरी है, आप कुछ कर नहीं सकते। लेकिन हठयोग बहुत हजारों साल से कह रहा है कि शरीर की कोई भी गति स्वेच्छा से चालित हो सकती है। खून भी हमारी इच्छा से चले और बंद हो सकता है। शरीर का बुढ़ापा, युवावस्था भी हमारी इच्छा के अनुकूल निर्धारित हो सकती है। शरीर की उम्र भी हम विशेष प्रक्रियाओं से लंबी और कम कर सकते हैं।उदाहरण के लिए ,इजिप्त में एक सूफी
योगी,अठारह सौ अस्सी में समाधिस्थ हुआ... जीवित। और चालीस साल बाद अठारह सौ बीस में उखाड़ा जाए, इसकी घोषणा करके समाधि /कब्र में चला गया।जो बूढ़े उसको दफनाने आए थे उस चालीस साल के विश्राम के लिए, उनमें से करीब-करीब सभी मर गए। जो जवान थे, उनमें से भी अनेक बूढ़े होकर मर चुके थे।जो उस भीड़ में छोटे बच्चे खड़े थे, वे ही बचे थे।12-उन्नीस सौ बीस तक करीब-करीब बात भूली जा चुकी थी। वह तो सरकारी दफ्तरों के कागजातों में बात थी और किसी के हाथ पड़ गई। किसी को भरोसा नहीं था कि वह आदमी अब उन्नीस सौ बीस में जिंदा मिलेगा । लेकिन कुतूहलवश कब्र खोदी गई और वह आदमी जिंदा था। और जो बड़ा आश्चर्य घटित हुआ कि इस चालीस साल में उसकी उम्र में कोई भी फेर-बदल नहीं हुआ था।अठारह सौ अस्सी में फाइलों के साथ,उसके जो चित्र छोड़े गए थे उससे तथा उसके चेहरे में चालीस साल का कोई भी फर्क नहीं था।और उस आदमी से पूछा गया कि ''तुमने क्या किया ''? उसने कहा कि मैं कुछ ज्यादा नहीं जानता हूं। सिर्फ प्राणायाम का ,श्वास पर काबू करने का एक छोटा-सा प्रयोग जानता हूं।उन्नीस सौ बीस में कब्र के बाहर आकर वह आदमी नौ महीने और जिंदा रहा। और नौ महीने में उतना फर्क पड़ गया, जितना चालीस साल में नहीं पड़ा था।
दूसरा तत्व ध्वनि;-
09 FACTS;-
1-तो एक तत्व तो ऊर्जा का है जिसके लिए योगासन हैं, प्राणायाम हैं, मुद्राएं हैं। दूसरा हिस्सा नया मन/ ए न्यू माइंड पैदा करने की प्रक्रियाएं हैं, जो योग ने खोजीं। दूसरे प्रयोग के लिए ध्वनि, शब्द और मंत्रों का प्रयोग है ... मंत्रयोग की पूरी लंबी व्यवस्था है।वास्तव में,हमें खयाल
में भी नहीं है कि हमारा चित्त जो है, वह ध्वनियों से चलता है।ओंकारनाथ ठाकुर , भारत के
एक बड़े संगीतज्ञ ...इटली में मुसोलिनी के मेहमान थे। मुसोलिनी ने भोजन पर निमंत्रित किया था ठाकुर को।मजाक में– भोजन करते वक्त मुसोलिनी ने कहा कि ''मैं सुनता हूं कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे, तो जंगली जानवर आ जाते; गउएं नाचने लगतीं; मोर पंख फैला देते। यह कुछ मुझे समझ में नहीं आता कि संगीत से यह कैसे हो सकता है!'' ओंकारनाथ ठाकुर ने कहा कि ''श्रीकृष्ण जैसी मेरी सामर्थ्य नहीं। संगीत के संबंध में उतनी मेरी समझ नहीं। सच तो यह है कि संगीत के संबंध में कृष्ण जैसी समझ पृथ्वी पर फिर दूसरे आदमी की नहीं रही है। लेकिन थोड़ा-बहुत क ख ग, जो मैं जानता हूं, वह मैं आपको करके दिखा दूं कि समझाऊं''! मुसोलिनी ने कहा, ''समझाने में तो कोई सार नहीं है। तुम कुछ करके ही दिखा दो''।
2-उस समय खाना ले रहे थे, तो कांटा-चम्मच हाथ में थे। सामने चीनी के बर्तन, प्यालियां थीं। ओंकारनाथ ठाकुर ने वे प्यालियां और बर्तन चम्मच-कांटे से बजाना शुरू कर दिया। पांच मिनट, सात मिनट और मुसोलिनी की आंख झप गई और जैसे वह नशे में आ गया। और उसका सिर टेबल से टकराने लगा। जोर से बजने लगे बर्तन और मुसोलिनी का सिर और जोर से टकराने लगा। और जोर से बजने लगे बर्तन! और फिर मुसोलिनी चिल्लाया कि रोको, क्योंकि मैं सिर को नहीं रोक पा रहा हूं! रोका, तो सिर लहूलुहान हो गया था।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मैंने जो वक्तव्य दिया था, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। जरूर कृष्ण की बांसुरी से जंगली जानवर आ गए होंगे। जब कि एक सभ्य आदमी का सिर सारी कोशिश करके भी नहीं रुक सकता है। और सिर्फ कांटे-चम्मच बर्तन पर बजाए जा रहे हैं, कोई बड़ा वाद्य नहीं!
3-चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। ध्वनि से हम जीते हैं।पश्चिम में,ध्वनिशास्त्र/साउंड
इलेक्ट्रानिक्स पर, बहुत काम शुरू हुआ है क्योंकि वहां पागलपन रोज बढ़ता जा रहा है।और अब साउंड इलेक्ट्रानिक्स के समझने वाले लोग कहते हैं कि उसके बढ़ने का कारण ट्रैफिक की ध्वनियां हैं। सड़क पर जो ध्वनियां हो रही हैं, हार्न बज रहे हैं, कारें निकल रही हैं, भोंपू बज रहे हैं, ट्रक निकल रहे हैं, हवाई जहाज उड़ रहे हैं, सुपरसोनिक उड़ रहे हैं, जंबो जेट उड़ रहे हैं, वे सब जो आवाजें पैदा कर रहे हैं, उन ध्वनियों को यह मन नहीं सह पा रहा है; विक्षिप्त हो रहा है।
4-अगर किन्हीं ध्वनियों को सुनकर आदमी पागल हो सकता है, तो क्या यह मानने में बहुत कठिनाई है कि किन्हीं और ध्वनियों को, विपरीत ध्वनियों को सुनकर मनुष्य का मन
समाधिस्थ,शांत हो जाए? मंत्रयोग उसकी चेष्टा है। और इस तरह की ध्वनियां मंत्रयोग ने खोजीं, जिन ध्वनियों का आंतरिक उच्चार, हृदयगत उच्चार, प्राणगत उच्चार ...मन को नई
शक्ल देना शुरू कर देता है।प्रत्येक ध्वनि का अपना पैटर्न है, अपना ढांचा है।उदाहरण के लिए, आप ऐसा कर सकते है कि एक पतले, झीने कागज पर रेत के दाने बिछा दें। फिर नीचे से जोर से कहें, ''राम'' और रेत के दाने हिलेंगे और कागज पर एक पैटर्न बन जाएगा। आप कितनी ही बार राम कहें, वही पैटर्न रेत के कणों पर बनेगा। कहें, ''अल्लाह'' दूसरा पैटर्न बनेगा। फिर कितनी ही बार अल्लाह कहें, उस कागज के ऊपर वही दूसरा पैटर्न दोहरेगा। फिर एकाध कोई 'गाली' देकर भी देखें, उसका भी अपना पैटर्न बनेगा।
5-एक महत्वपूर्ण बातयह है कि गंदी गाली का जो पैटर्न बनेगा वह बहुत कुरूप होगा। और राम का ,अल्लाह का जो पैटर्न बनेगा, बहुत समायोजित, संतुलित, सुंदर, अनुपात में होगा।
आप एक-एक शब्द को उस कागज के नीचे दोहराकर देखें कि उसका पैटर्न कैसा बनता है। जो पैटर्न रेत के दानों पर बन रहा है, वही आपके चित्त में भी बनता है।रेत के दाने तो कुछ भी नहीं– आपका चित्त तो सबसे ज्यादा संवेदनशील वस्तु है... इस पृथ्वी पर। छोटी-सी ध्वनि तरंग उसको रूप देती है। हम जो शब्द सुन रहे हैं, जो बातें सुन रहे हैं, जो गीत सुन रहे हैं, रास्ते पर आवाजें सुन रहे हैं, वे हमारे एक तरह के मन को निर्मित करते हैं।
6-योग कहता है, एक नए तरह का मन चाहिए पड़ेगा, अगर परमात्मा की तरफ जाना है। तो उन ध्वनियों का उपयोग करो, जिन ध्वनियों से परमात्मा की तरफ जाने वाला लयबद्ध मन निर्मित हो जाए। और इसीलिए एक शब्द को ही निरंतर दोहराने की प्रक्रियाएं ईजाद की गईं। उसका कारण है। ताकि उस शब्द से बनने वाला पैटर्न स्थिर हो जाए , मन पर बैठ जाए; मन उसको इंबाइब कर ले, पी ले; मन उसके साथ एकाकार हो जाए.. तो नया मन निर्मित होना
शुरू हो जाएगा।ध्वनिशास्त्र के द्वारा चित्त के रूपांतरण की बड़ी अदभुत कुंजियां खोज ली गई है।
7-चेतना उसी दिशा में बहती है, जिस तरफ चेतना को हम उन्मुख करते हैं। जहां उन्मुख करते हैं, वहीं चेतना बहती है। और जिस तरफ चेतना बहती है, तो उस तरफ बहती है और शेष तरफ बहना उसका बंद हो जाता है।लेकिन परमात्मा की तरफ कैसे बहे,किस दिशा में
खोजें,कहां ध्यान ले जाएं .. क्योंकि परमात्मा की कोई दिशा नहीं है।वह सब दिशाओं में व्याप्त है–दिशाहीन, दिशातीत। इस जगत में और कुछ भी खोजना हो, तो दिशा है लेकिन परमात्मा की नहीं।
8-तो योग ने,ऐसी ध्वनियां पैदा की हैं जो दिशाहीन हैं। जैसे ओम, यह दिशाहीन ध्वनि है। अगर आप ओम का पाठ करें, तो यह ध्वनि सर्कुलर है। इसलिए ओम का जो प्रतीक बनाया है, वह भी सर्कुलर है, वर्तुलाकार है। अगर आप भीतर ओम की ध्वनि करें, तो आपको ऐसा अनुभव होगा, जैसे मंदिर के ऊपर गुंबज होती है गोल। वह जो मंदिर के ऊपर अर्ध गोलाकार छप्पर है,वह गोल गुंबज ओम की ध्वनि से जुड़कर बनाई गई है। जब आप भीतर जोर से ओम का पाठ करेंगे, तो आपको अपने सिर और चारों तरफ एक वर्तुलाकार स्थिति का बोध होगा.. दिशाहीन। यह ओम कहीं से आता हुआ नहीं मालूम पड़ेगा। सब कहीं से आता हुआ और सब कहीं जाता हुआ मालूम पड़ेगा।
9-यह एक अदभुत ध्वनि है, जो योग ने खोजी है। इस ध्वनि के मुकाबले जगत में कोई दूसरी ध्वनि नहीं खोजी जा सकी।इसलिए इसे मूल ध्वनि, बीज ध्वनि कहते है।इस वर्तुलाकार
स्थिति में आप परमात्मा की तरफ उन्मुख होंगे, अन्यथा आप उन्मुख न हो सकेंगे। कोई न कोई चीज आपको खींचती रहेगी अपनी तरफ; कोई न कोई दिशा आपको पुकारती रहेगी। दिशामुक्त होंगे, तो भीतर की तरफ यात्रा शुरू होगी।और जिस प्रकार वायुरहित स्थान में
स्थित दीपक चलायमान नहीं होता है, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के.. जीते हुए चित्त की कही गई है।
3-तीसरा तत्व दिशा ;-
11 FACTS;-
1-जैसे वायुरहित स्थान में दीए की ज्योति अकंप, निष्कंप, जरा भी कंपित न हो, ऐसे ही योगी
का चित्त, चेतना स्थिर हो जाती है। परन्तु , जब तक किसी दिशा में ध्यान जाएगा, तब तक चेतना की लौ कंपित होगी। राह पर एक कार का हार्न बजता है, चेतना कंपित होगी। सब ध्वनियां चेतना को कंपित करेंगी।तो निष्कंप चेतना तब हो पाएगी जब इन समस्त ध्वनियों के
पार हम अपने भीतर कोई मंदिर खोज पाएं, जहां ये कोई ध्वनियां प्रवेश न करें। हम अपने भीतर ऊर्जा का एक ऐसा वर्तुल बना पाएं, जहां चेतना अकंप ठहर जाए, जैसे वायुरहित स्थान में दीया ठहर जाए। चित्त के लिए ध्वनि ही वायु है।
2-तो जब भीतर ध्वनि का एक विशेष आयोजन करना पड़े, तभी लौ ठहर पाएगी। योग उसका अभ्यास है और निश्चित ही ऐसी संभावनाएं आपको भी उपलब्ध हो सकती हैं।कोई विशेषता नहीं है कि किसी विशेष को ही उपलब्ध हों। जो भी उस दिशा में सतत श्रम करे, उसे उपलब्ध हो जाएं तो चित्त मंडलाकार अपने भीतर ही बंद हो जाता है।बौद्धों ने उसे मंडल
कहा है.. ऐसा मंडल बन जाता है कि आप अपने भीतर ही घूमते हैं, न बाहर से कुछ आता है; न आप बाहर जाते है। न आपकी चेतना बाहर जाती है, न बाहर से कोई ध्वनि त्तरंग आपके भीतर प्रवेश करती है। इस मंडल में ठहरी हुई चेतना वायुरहित स्थान में दीए की लौ जैसी हो जाती है। इतनी अकंप चेतना ही प्रभु में प्रतिष्ठा पाती है, क्योंकि ''निष्कंप होना ही '' प्रभु में प्रतिष्ठित हो जाना है।
3-कंपना ही संसार में जाना है। निष्कंप हो जाना, प्रभु में पहुंच जाना है।कंपे, कंपित हुए, तो संसार में गए।वास्तव में, संसार एक कंपन, अनंत कंपन का समूह है। जैसे वृक्ष का हवा में एक पत्ता कंप रहा हो .. बाएं हवा आती है, बाएं कंप जाता है ;दाएं आती है, दाएं कंप जाता है। पत्ता हिलता-डुलता, कंपता रहता है; कभी स्थिर नहीं हो पाता। ठीक ऐसे ही वासना में, वृत्ति में, विचार में, सब में चित्त कंपित होता रहता है...डोलता रहता है।इस डोलते हुए चित्त को
अवसर नहीं है कि यह उस जगह को जान सके, जहां यह है। इस डोलती हुई लौ को पता भी नहीं चलेगा कि किस दीए के तेल से, किस स्रोत से इसे रोशनी मिल रही है, प्राण मिल रहे हैं। यह ज्योति तो हवा के झोंकों में हवा को ही जान पाएगी ,उस स्रोत को न जान पाएगी। उस स्रोत को जानने के लिए ठहर जाना,स्थिर हो जाना, रुक जाना जरूरी है।
4-परन्तु यह रुक जाना कैसे फलित हो?वास्तव में,कभी-कभी बहुत कठिन दिखाई पड़ने वाली बातें,बहुत छोटे-से प्रयोगों से हल हो जाती हैं। कठिन तभी तक दिखाई पड़ती हैं, जब तक हम कुछ करते नहीं हैं और सिर्फ सोचते चले जाते हैं। जब हम कुछ करते हैं तो उसी क्षण,
सरल हो जाती हैं ।उदाहरण के लिए एक सम्राट ने अपना भवन बनाने के लिए एक पहाड़ी के कोने को चुना। लेकिन उस पहाड़ी को हटाना बड़ा भारी प्रश्न था। और सम्राट चाहता था कि भूमि समतल हो जाए।बहुत इंजीनियरों से कहा, लाखों रुपए देने की बात कही परन्तु उन्होंने कहा कि उसे काट-काटकर हटाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है;बहुत खर्च है और कई लाख खर्च होंगे, तो यह पत्थर हटेगा।
5-एक दिन पास से गुजरनेवाले एक किसान ने कहा कि हम सस्ते में जमीन सपाट कर सकते हैं। इंजीनियर हंसे, सम्राट हंसा, कहा कि क्यों पागलपन में पड़ता है.. लेकिन उसने
कर दिया। उस किसान ने कुछ ही हजार रुपयों में वह पत्थर सपाट कर दिया। लेकिन उसने सोचा कम, और किया कुछ ज्यादा। उसने पत्थर को काट-काटकर फेंकने का खयाल ही नहीं लाया। उसने तो पत्थर के चारों तरफ गङ्ढा खोदना शुरू करवाया और उस पत्थर को गङ्ढे में नीचे गिरा दिया, ऊपर से मिट्टी डलवा दी। जमीन सपाट हो गई।
6-सम्राट जब देखने आया, तो उसने कहा, ''वह पत्थर कहां गया.. उसको तो हटाना बहुत हीं मुश्किल था''! उस किसान ने कहा कि आप सदा उसको दूर हटाने की भाषा में सोचते थे,
हमने उसको और गहराई में पहुंचा दिया।तो उसके नाम पर सम्राट ने एक स्मरण का पत्थर लगवाया कि बड़े इंजीनियर जिसे महीनों सोचते रहे और हल न कर पाए, एक छोटे-से ग्रामीण
किसान ने उसे हल कर दिया।कई बार बड़े बुद्धिमान जिसे हल नहीं कर पाते, छोटे-से प्रयोगकर्ता उसे हल कर लेते हैं। और योग के संबंध में तो बिलकुल ऐसा ही मामला है।
7-आप अगर सोच-सोचकर हल करना चाहें, तो जिंदगी में कोई प्रश्न हल नहीं होगा। अगर आप सोचते हों कि विचार कर-करके शांत होंगे, तो आप और अशांत हो जाएंगे;
क्योंकि विचार करना एक अशांति से ज्यादा नहीं है।इसलिए जो लोग शांत होना चाहते हैं, वे उन लोगों से भी ज्यादा अशांत हो जाते हैं, जो शांत होने की फिक्र नहीं करते। उनकी अशांति दोहरी हो जाती है।एक तो अशांति होती ही है और एक अशांति और पकड़ लेती है कि शांत
कैसे हों! लेकिन कोई बहुत छोटी-सी प्रक्रिया /मेथड चित्त को ऐसे शांत कर जाता है, जैसे वह कभी अशांत ही न था।
8-उदाहरण के लिए ,एक पत्ता काटो, तो चार आ जाते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की जा रही है। जब तक जड़ न काटी जाए, तब तक वृक्ष के पत्ते काटने से वृक्ष का अंत नहीं होता।
हम सब एक-एक विचार से लड़ते रहते हैं। कोई कहता है कि मुझे क्रोध बहुत आता है, तो मेरा क्रोध कैसे ठीक हो जाए?तो कोई कहता है, बस लोभ ठीक हो जाए। वह समझता है कि क्रोध कोई अलग चीज है लोभ से , लोभ कोई अलग चीज है मान से , मान कोई अलग चीज है काम से। ये सब अलग -अलग चीजें नहीं हैं, सब पत्ते हैं। और एक को काटिएगा, तो चार निकल आएंगे।
9-योग कहता है, जड़ को काटिए, पत्तों को मत काटिए। जड़ कट गई, तो पूरा वृक्ष गिर
जाएगा।उस आदमी का क्रोध नहीं गिर सकता , जिसका काम बाकी है। उस आदमी का क्रोध,लोभ ,अहंकार नहीं गिर सकता, जिसका काम बाकी है। और मजा यह है कि चार में से कोई एक भी बच जाए, तो बाकी तीन अनिवार्य रूप से मौजूद रहेंगे। वे जा नहीं सकते।हां, यह
हो सकता है कि आपमें एक की मात्रा थोड़ी ज्यादा हो और दूसरे की थोड़ी कम। लेकिन अगर चारों का हिसाब जोड़ा जाए, तो सब आदमियों में बराबर मात्रा मिलेगी ।
10-एक आदमी में थोड़ा क्रोध ज्यादा होता है, थोड़ा लोभ कम होता है, लेकिन दोनों का जोड़ बराबर होता है। इन चारों का जोड़ सब आदमियों में बराबर है। लेकिन जोड़ कोई करता नहीं। एक- कहता है, क्रोध से किस तरह छूट जाऊं.. लोभ की तो मुझे झंझट नहीं है; क्रोध ही की झंझट है। उसे पता नहीं है कि अगर क्रोध काट दिया जाए, तो क्रोध की जितनी मात्रा हैं, कहीं और जुड़ जाएंगी। क्रोध अकेला नहीं कट सकता । चारों साथ रहते हैं, या चारों साथ जाते
हैं।योग कहता है, ऊपर से मत लड़ो.. जड़ पकड़ो।
11-लेकिन न तो क्रोध जड़ है, न लोभ जड़ है, न काम जड़ है, न अहंकार जड़ है ..तो जड़
कहां है?योग कहता है, जड़ आपके मन के सिस्टम /व्यवस्था में है। ऐसे मन में लोभ, क्रोध ,काम, अहंकार होगा ही। यह मन का स्वभाव है,इसलिये इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो।यदि इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र की जगह नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा।
इस मन को कैसे बदले ?-
07 FACTS;-
1- योग ने तीन तरह के लोगों के लिए,तीन प्रकार के राज कहे क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग जो विचार प्रधान हैं जिनके भीतर, बुद्धि प्रधान है...Air Element , उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे भाव प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे कर्म प्रधान है,
उनके लिए अलग राज कहा।अब जो विचार से ही जीता है, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका कसूर नहीं है, क्योंकि वह सोचेगा, विचार करेगा। विचार करेगा, तो सोचेगा कि क्या होगा.. क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां विचार में प्रश्न उठते हैं, वहां भाव में कभी प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव निष्प्रश्न हैं ,स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है। भाव राजी हो जाता है, लेकिन विचार संघर्ष करता है। तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़ेगा और योग ने उसके लिए रास्ता खोजा।
2-ज्ञानयोग का अर्थ है, उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है। ज्ञेय को छोड़ो, आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो; और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो ज्ञान की क्षमता है,
नोइंग फैकल्टी है.. उसी में रमो।उदाहरण के लिए, एक फूल है और आप... तथा दोनों के बीच दौड़ती ज्ञान की धारा है। ज्ञानयोग कहता है, फूल को भी भूल जाओ, स्वयं को भी भूल जाओ, यह जो दोनों के बीच में ज्ञान की धारा बह रही है, इसी में ठहर जाओ, इसी में खड़े हो जाओ
3-भाव वाले आदमी.. Water Element को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं , क्योंकि भाव वाला आदमी समझ से नहीं ..भावना से जीता है। भाव वाले आदमी से कहो कि आनंदमग्न होकर , प्रभु-समर्पित होकर नाचो। वह नाचने लगेगा। वह यह नहीं पूछेगा, नाचने से क्या होगा और नाचने से सब हो जाएगा।क्योंकि नाचने में वह क्षण आता
है, कि नाचने वाला भी मिट जाता है, नाचने का खयाल भी मिट जाता है, नृत्य ही रह जाता है। परमात्मा भी भूल जाता है, जिसके लिए नाच रहे हैं; जो नाचता है , वह भी भूल जाता है; सिर्फ नाचना ही रह जाता है– जस्ट डांसिंग।और जस्ट नोइंग की तरह घटना घट जाती है।जैसे सिर्फ
जानना रह जाता है, तो द्वार खुल जाता है। सिर्फ नृत्य रह जाता है, तो भी द्वार खुल जाता है।
4-मीरा अगर गाएगी, तो गाने में श्रीकृष्ण भी खो जाएंगे, मीरा भी खो जाएगी, गीत ही रह जाएगा। ध्यान रहे, जब मीरा गाती है, 'मेरे तो गिरधर गोपाल', तो न तो गोपाल रह जाते, न मेरा कोई रह जाता। मेरे तो गिरधर गोपाल, यह गीत ही रह जाता है। गिरधर भी भूल जाते हैं, गायक भी भूल जाता है; मीरा भी खो जाती है, श्रीकृष्ण भी खो जाते हैं; बस, गीत रह जाता है। सिर्फ गीत जहां रह जाता है, वहां वही घटना घट जाती है ।लेकिन महावीर गीत को
पसंद नहीं कर पाएंगे। महावीर कहेंगे, केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग, सिर्फ ज्ञान रह जाए, बस। वहीं द्वार खुलेगा। वह महावीर का टाइप है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करेंगे! गीत रह जाए.. ज्ञान बड़ा रूखा-सूखा है। ज्ञान का करेंगे भी क्या!
5-मीरा को ज्ञान तो रेगिस्तान जैसा मालूम पड़ेगा ,रूखा-सूखा, जहां कभी कोई वर्षा नहीं होती। वह रेगिस्तान से अच्छी तरह परिचित भी थी ,और गीत तो बड़ी हरियाली से भरा है ... प्राणों के कोने-कोने तक गीत स्नान करा जाता है। मीरा कहेगी, ज्ञान का क्या करिएगा? गीत काफी है।लेकिन और लोग भी हैं,जिनको न गीत में कोई अर्थ होगाऔर न ज्ञान में
कोई अर्थ होगा। जिनका अर्थ और जिनके जीवन का अभिप्राय तो कर्म से खुलेगा अथार्त..Fire Element।
6-एक कर्मठ आदमी कर्म की समाधि में प्रवेश करता है। वह जो मिलने का क्षण है, कर्मठ व्यक्ति को कर्म से ही मिलता है।उदाहरण के लिए,'अर्जुन ' ....जब तलवारें चमकेंगी और जब कर्म का पूर्ण क्षण होगा, जब अर्जुन भी नहीं बचेगा, दुश्मन भी नहीं बचेगा, सिर्फ कर्म रह जाएगा। तलवार मैं चला रहा हूं, ऐसा नहीं रहेगा; तलवार चल रही है, ऐसे क्षण की स्थिति आ जाएगी, तब अर्जुन जैसे आदमी को समाधि का अनुभव होगा।
7-ये तीन खास प्रकार के लोग हैं। और योग ने इन तीनों पर, (वैसे फिर इन तीनों के बहुत विभाजन हैं) बहुत-सी विधियां खोजी हैं।इन तीन विधियों के द्वारा साधारणतः कोई भी
व्यक्ति चेतना को उस स्थिर स्थान में ले आ सकता है।केवल ज्ञान रह जाए; केवल भाव रह जाए ;केवल कर्म रह जाए । तीन की जगह एक बचे, दो कोने मिट जाएं। द्रष्टा मिट जाए, दृश्य मिट जाए, दर्शन रह जाए। ज्ञाता मिट जाए, ज्ञेय मिट जाए, ज्ञान रह जाए... तीन की जगह एक रह जाए।बीच का रह जाए, दोनों छोर मिट जाएं, तो व्यक्ति की चेतना स्थिर हो जाती है, ऐसी
जैसे कि जहां न वायु बहती हो,न पवन बहता हो...वहां दीए की ज्योति स्थिर हो जाती है।उस दीए की ज्योति के स्थिर होने को ही, श्रीकृष्ण कहते हैं, कि योगी भी ऐसा ही ठहर जाता है।
....SHIVOHAM....