ध्यान में घटित होने वाले दिव्य अनुभवों की प्रमाणिकता कैसे जांची जाए?क्या 'बोध'मन के पार है ?
- Chida nanda
- Jul 11, 2019
- 24 min read

ध्यान में घटित होने वाले दिव्य अनुभवों की प्रमाणिकता;-
18 FACTS;-
1-यदि तुम साक्षी हो जाते हो, तो अहंकार विलीन हो जाता है। जब अहंकार विलीन हो जाता है, तब तुम वाहन/ एक मार्ग बन जाते हो । तुम एक बांस की पोंगरी बन जाते हो और बांसुरी श्रीकृष्ण के,गौतम बुद्ध के,महृषि पतंजलि के अधरों पर रखी जा सकती है।वह बांसुरी वही रहती है लेकिन जब यह बुद्ध के होठों पर होती है तब बुद्ध प्रवाहित हो रहे होते हैं।इसलिए
यह समझना मुश्किल है क्योंकि तुम तैयार नहीं हो कि यह होने दो। तुम भीतर इतने विद्यमान हो कि तुम किसी और को वहां होने ही नहीं देते।
2-महृषि पतंजलि व्यक्ति नहीं ,एक उपस्थिति हैं। यदि तुम मौजूद नहीं होते हो, तो उनकी उपस्थिति कार्य कर सकती है।यदि तुम उनसे पूछो, तो वे
ये नहीं कहेंगे कि ये सूत्र उनके द्वारा रचे गये हैं। वे कहेंगे, ''ये बहुत प्राचीन हैं ...सनातन। लाखों ऋषियों ने यह देखा है और मैं तो केवल एक वाहन हूं, अनुपस्थित हूं और वे ऋषि बोल रहे हैं। यदि तुम श्रीकृष्ण से पूछो, वे कहेंगे, 'मैं नहीं बोल रहा हूं। ये अत्यंत प्राचीन संदेश हैं । ये सदा से ऐसे रहे हैं।’' और यदि तुम जीसस से पूछो,तो वे भी ये कहेंगे, ''मैं तो हूं ही नहीं''।
3-वास्तव में, कोई भी..जो अनुपस्थित हो जाता है,वो अहंकारशून्य हो जाता है, वाहन की भांति कार्य करने लगता है ..एक मार्ग की तरह ..वह सब जो सत्य /अस्तित्व में छिपा हुआ है और जो प्रवाहित हो सकता है। और यह सब ...तुम केवल तभी समझ पाओगे जब तुम अनुपस्थित हो जाओ, चाहे कुछ क्षणों के लिए ही..।
4-यदि तुम्हारा अहंकार वहां हैं, तो वह तुममें प्रवाहित नहीं हो सकता है। यह केवल एक बौद्धिक संप्रेषण नहीं; कुछ ऐसा है जो अधिक गहरा है।
यदि तुम एक क्षण के लिए भी अहंकार शून्य हो जाते हो, तब घनिष्ठ संपर्क अनुभव होगा, तब कुछ अज्ञात तुममें प्रवेश कर चुका होगा और उस क्षण में तुम समझ पाओगे। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता समझने का या जानने का नहीं है।
5- यदि तुम नहीं हो अथार्त जब मेजबान बिलकुल चला जाता है, तभी मेहमान मेजबान बनता है;और केवल तभी यह संभव होता है।मेजबान वहां नहीं होता है, तो मेहमान पूर्णतया उसकी जगह ले लेता है,और मेजबान बन जाता है। यदि तुम न रहो, तब तुम महृषि पतंजलि, श्रीकृष्ण ,क्राइस्टआदि बन सकते हो;उसमें कोई कठिनाई नहीं है।लेकिन यदि तुम वहां हो, तब यह बहुत कठिन है। तब जो कुछ तुम कहते हो ...भ्रांतिपूर्ण होगा।
6-यदि कोई पतंजलि पर चर्चा कर रहा और स्वयं अनुपस्थित है तो पतंजलि को आने दे रहा हूं। इसलिए यह कोई व्याख्या या टीका-टिप्पणी नहीं है। व्याख्या का अर्थ होता है कि पतंजलि कुछ पृथक हैं, मैं कुछ पृथक हूं और मैं पतंजलि पर चर्चा कर रहा हूं। तब यह विकृत ही होगा क्योंकि पतंजलि पर कोई टीका कैसे कर सकता है और जो कोई.. कुछ भी कहता है; वह उसका अर्थ -निर्णय होगा। वह पतंजलि का अपना नहीं हो सकता और वह शुभ नहीं है /ध्वंसात्मक है। इसलिए व्याख्या नहीं.. केवल होने दो और यह होने देना तब संभव होता है जब तुम न रहो ।
7-यदि हम ध्यान में श्रीराम की झलकियां देखते है या कल्पना करते हैं कि हम श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रहे हैं तो ध्यान रखें कि यह केवल कल्पना है।लेकिन यदि हम ग्रहणशील हैं तो हम भी बुद्ध ,जीसस या श्रीकृष्ण से संपर्क बना सकते हैं।ऐसी ध्यानमग्न अवस्थाएं या यह मिलन जिनमें क्राइस्ट
या बुद्ध वास्तव में वहां होते हैं,कल्पना नहीं है।लेकिन पहली बात तो यह है कि सौ में से, निन्यानबे घटनाएं तो कल्पना द्वारा होंगी। तुम कल्पना कर लेते हो इसीलिए श्रीकृष्ण ईसाई को कभी दिखाई नहीं पड़ते और मोहम्मद कभी हिंदू को नहीं दिखाई पड़ते।
8-मोहम्मद और जीसस तो बहुत दूर है;एक जैन के सामने श्रीराम के दर्शन की झलकियां भी कभी प्रकट नहीं होतीं। हिंदू के सामने महावीर कभी प्रकट नहीं होते क्योंकि महावीर की तुम्हारे पास कोई कल्पना नहीं है।
यदि तुम जन्म से हिंदू हो, तो तुम श्रीराम और श्रीकृष्ण की अवधारणा पर पले हो। यदि तुम जन्म से ईसाई हो, तब तुम्हारा कम्प्यूटर, तुम्हारा मन जीसस की धारणा या उनकी प्रतिमा के साथ पला है। जब कभी तुम ध्यान करना शुरू करते हो,तो वह पोषित प्रतिमा मन में चली आती हैया मन में प्रक्षेपित हो जाती है।
9-जीसस ईसाई व्यक्ति को दिखते हैं, लेकिन यहूदियों को कभी दिखाई नहीं देते जबकि वे यहूदी थे। जीसस यहूदियों के संबंधी थे ;उनकी धमनियों में यहूदी खून था। लेकिन वे यहूदियों को दिखाई नहीं देते, क्योंकि उन्होंने उनमें कभी विश्वास नहीं किया।उनकी कल्पनाओं में वे कभी बीज की तरह नहीं पड़े।उन्होंने, उन्हें अस्वीकृत कर दिया था.. तो बीज वहां नहीं है।
इसलिए जो कुछ घटित होता है, निन्यानबे संभावनाएं ऐसी हैं कि वह केवल तुम्हारा पोषित ज्ञान, धारणाएं और प्रतिमाएं होती होंगी और तुम्हारे मन के सामने झलक जाती हैं।
10-जब तुम ध्यान करने लगते हो, तो तुम इतने संवेदनशील हो जाते हो कि तुम स्वयं अपनी कल्पनाओं के शिकार हो सकते हो। और तुम्हारी कल्पनाएं बहुत वास्तविक लगेंगी। और इसे जांचने का कोई रास्ता नहीं है कि वे वास्तविक होती हैं या अवास्तविक।केवल एक प्रतिशत मामलों
में यह काल्पनिक न होगा, लेकिन पता कैसे चले?
11-वास्तव में,उन एक प्रतिशत मामलों में वहां किसी धारणा की कोई छबि होगी ही नहीं। तुम यह अनुभव नहीं करोगे कि जीसस सूली पर चढ़े हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं; तुम नहीं अनुभव करोगे कि श्रीकृष्ण तुम्हारे सामने खड़े हैं या तुम उनके सामने नाच रहे हो। तुम उनकी उपस्थिति को अनुभव करोगे, लेकिन कोई प्रतिमा न होगी..इसे ध्यान में रखना।
12-तुम एक दिव्य उपस्थिति का अवतरण अनुभव करोगे। तुम किसी अज्ञात द्वारा भर जाओगे, लेकिन वह बिना किसी आकार का है। वहां नृत्य करते हुए श्रीकृष्ण न होंगे; सूली पर चढ़े हुए जीसस न होंगे और न ही सिद्धासन में बैठे हुए बुद्ध होंगे ।वहां तो केवल एक जीवंत उपस्थिति होगी..तुममें लहराती हुई ..भीतर और बाहर। तुम उससे अभिभूत हो जाओगे,उसकी अथाह जलराशि में उतर जाओगे।
13-वास्तव में,जीसस तुममें नहीं होंगे, तुम जीसस में होओगे..यह होगा अंतर। श्रीकृष्ण प्रतिमा की तरह तुम्हारे मन में न होंगे, तुम श्रीकृष्ण में होओगे। लेकिन श्रीकृष्ण निराकार होंगे। वह एक अनुभव होगा, कल्पनात्मक धारणा नहीं।लेकिन तब उन्हें श्रीकृष्ण ,जीसस क्यों कहा
जाये..वहां कोई आकृति तो होगी नहीं।वास्तव में, ये तो केवल भाषा,विज्ञान के प्रतीक हैं।
14-तुम इस शब्द श्रीकृष्ण', के साथ घुल-मिल गये हो, इसलिए जब वह उपस्थिति तुममें भर जाती है तो तुम उसका एक आंदोलित हिस्सा बन जाते हो ,उस महासागर की एक बूंद बन जाते हो...तो इसे व्यक्त कैसे कर
सकते हो।शायद हमारे लिए सबसे सुंदर शब्द होगा 'श्रीकृष्ण', 'बुद्ध' या 'जीसस' । ये शब्द मन में पलते रहे हैं इसलिए तुम कुछ निश्चित शब्द चुन लेते हो उस उपस्थिति को बताने के लिए।
15-लेकिन वह उपस्थिति मात्र छाया नहीं है या स्वप्न नहीं है। वह कोई मनोछबि नहीं है। तुम 'श्रीकृष्ण', 'बुद्ध' या 'जीसस' का उपयोग कर सकते हो या जो भी नाम तुम्हें अच्छा और प्रीतिकर लगे ..यह तुम पर निर्भर है। वह शब्द, नाम और रूप तुम्हारे मन से आयेगा, लेकिन वह अनुभव स्वयं अरूप है ,वह कल्पना नहीं है।
16-यदि तुम दिव्य उपस्थिति को अनुभव करते हो तो फिर नाम नगण्य है। नाम तो हर एक के लिए अलग होंगे ही क्योंकि नाम शिक्षा द्वारा, सभ्यता द्वारा आते हैं, नाम जाति से आते हैं, जिससे तुम संबंधित होते हो। लेकिन अनुभव किसी सभ्यता से ,समाज से संबंध नहीं रखता।अनुभव तुम्हारे मन रूपी कम्प्यूटर से संबंधित नहीं है। वह तुम्हारा अपना ही है।इसलिए खयाल
रहे,यदि तुम दृश्य देखते हो, तो वे कल्पनाएं हैं।
17-लेकिन यदि तुम उपस्थिति को अनुभव करने लगते हो...आकारहीन, अस्तित्वगत अनुभूतियां; स्वयं को उनमें लपेट देते हो, उनमें घुल जाते हो, विलीन हो जाते हो...तो तुम वास्तव में संपर्क पा लेते हो।तुम उस उपस्थिति
को 'श्रीकृष्ण', 'बुद्ध' या 'जीसस' कह सकते...यह तुम पर निर्भर करता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जीसस बुद्ध हैं और बुद्ध क्राइस्ट हैं.. वे जो मन के ,व्यक्तित्व के भी पार चले गये हैं।वे आकार व स्वप्न के भी पार चले गये हैं। यदि जीसस और बुद्ध एक साथ खड़े हो जायें, तो वहां दो शरीर होंगे, लेकिन दो मौजूदगिया नहीं; केवल मौजूदगी ही..।
18-यह ऐसा है जैसे कि तुम दो लैम्प एक कमरे में रख दो। वे मात्र दो शरीर हैं, लेकिन प्रकाश एक है। तुम निर्धारित नहीं कर सकते कि यह प्रकाश इस लैम्प का है और वह प्रकाश उस लैम्प का है। प्रकाश मिल गये है। लैम्पों का भौतिक भाग अलग बना रहा है लेकिन अभौतिक भाग एक हो गया है।
यदि बुद्ध और जीसस समीप आ जायें या वे एक साथ खड़े हो जायें, तो तुम दो अलग लैम्प देखोगे, लेकिन उनके प्रकाश मिल ही चुके हैं।वे सब जिन्हें सत्य का बोध हुआ है, एक हो गये हैं। उनके नाम उनके अनुयायियों के लिए अलग हैं, लेकिन उनके लिए अब कोई नाम नहीं रहे हैं।
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क्या 'बोध' मन के पार है ?-
25 FACTS;-
1-मनुष्य के लिए केवल दो विकल्प हैं ध्यान या पागलपन अथार्त ध्यानऔर मन। यदि तुम्हारा होना मन तक ही सीमित रहता है, तो तुम पागल ही
रहोगे।पृथ्वी के लाखों लोग ध्यान में तो नहीं पहुंचे,लेकिन पागलपन में पहुंच चुके है। जो पागल पागलखानों में हैं : और जो बाहर वाले पागल हैं .. उनमें कोई गुणात्मक नहीं ,बल्कि केवल मात्रा का ही अंतर है। हो सकता है कि हम थोड़े कम पागल हो, वे ज्यादा पागल होंगे।लेकिन पागलपन का अर्थ बहुत सारी चीजों से है।पहला है कि तुम केंद्रित नहीं हो। और यदि तुम केंद्रित नहीं हो तो तुम्हारे भीतर बहुत से स्वर होंगे ।
2-तुम अनेक हो,तो तुम भीड़ हो।यदि घर में कोई मालिक नहीं है तो घर का हर नौकर मालिक होने का दावा करता है। वहां अस्तव्यस्तता, द्वंद्व ,अनवरत संघर्ष और निरंतर गृहयुद्ध रहता है। यदि यह गृहयुद्ध नहीं चल रहा होता, तो तुम ध्यान में उतरते। लेकिन यह दिन -रात ..चौबीसों घंटे चलता रहता है।कुछ क्षणों तक, जो कुछ भी तुम्हारे मन में चलता हो उसे ठीक-ठीक लिख देना तो तुम स्वयं अनुभव करोगे कि यह विक्षिप्तता है।
3-उदाहरण के लिए ,एक बंद कमरे में बैठ जाओ और जो कुछ तुम्हारे मन में आये उसे जोर से बोलने लगो। उसे रिकॉर्ड कर लो ,ताकि तुम उसे सुन सको। केवल पंद्रह मिनट की बातचीत-और तुम अनुभव करोगे कि जैसे तुम किसी पागल आदमी को सुन रहे हो।यही है तुम्हारा मन- निरर्थक, असंगत, असम्बद्ध टुकड़े मन में तैरने लगते हैं।
तो अंतर यही है कि हम शायद निन्यानबे प्रतिशत पागल हो और दूसरा कोई व्यक्ति सीमा पार कर चुका हो,अथार्त सौ प्रतिशत के भी पार चला गया हो।
4-तो जो सौ प्रतिशत के पार चले गये हैं उन्हें हम पागलखाने में डाल देते हैं। लेकिन हमें पागलखाने में नहीं रखा जा सकता क्योंकि यहां इतने
ज्यादा पागलखाने नहीं हैं।एक छोटी सी बोधकथा है कि किसी का एक मित्र पागल हो गया, इसलिए उसे पागलखाने में डाल दिया गया। तब प्रेम और करुणावश वह उसे देखने, मिलने गया।पागलखाने के बाग में एक पेड़ के
नीचे वह बैठा हुआ था, बगीचा एक बहुत बड़ी दीवार से घिरा हुआ था। वह अपने दोस्त के पास एक बेंच पर बैठ गया और उससे पूछने लगा, 'क्या तुमने कभी इस बारे में सोचा है कि तुम यहां क्यों हो?' वह पागल आदमी हंस दिया। वह बोला, 'मैं यहां हूं क्योंकि मैं बाहर के उस बड़े पागलखाने को छोड़ देना चाहता था। मैं यहां शांति से हूं। इस पागलखाने में, जिसे तुम पागलखाना कहते हो, कोई पागल नहीं है।’
5-वास्तव में,पागल आदमी नहीं सोच सकते कि वे पागल हैं। यह पागलपन का एक बुनियादी लक्षण है। यदि तुम पागल हो, तो तुम नहीं सोच सकते कि तुम पागल हो। यदि तुम सोच सको और समझ पाओ कि तुम पागल हो,तो तुम थोडे स्वस्थचित्त हो और तुम्हारे लिए कोई संभावना है।पागलपन अपनी समग्रता में घटित नहीं हुआ है। तो यही है विरोधाभास... कि जो वास्तव में स्वस्थचित्त हैं वे जानते हैं कि वे पागल हैं, और वे जो पूरी तरह पागल हैं,वे नहीं सोच सकते कि वे पागल हैं।
6-यदि तुम कभी नहीं सोचते कि तुम पागल हो;तो यह पागलपन का ही हिस्सा है। जो केंद्रित नहीं हैं ;वह स्वस्थचित्त नहीं हो सकता । तुम्हारी स्वस्थचित्तता केवल सतही है, आयोजित है। मात्र सतह पर ही तुम स्वस्थ लगते हो, और इसलिए तुम्हें अपने आस-पास के संसार को निरंतर धोखा देना पड़ता है। तुम्हें बहुत कुछ रोकना/छुपाना पड़ता है।तुम सोचोगे कुछ, लेकिन कहोगे कुछ और ही। तुम ढोंग रच रहे हो और इसी आडम्बर के कारण तुम्हारे आस-पास न्यूनतम सतही मानसिक स्वास्थ्य तो हो सकता है, लेकिन भीतर तुम उबल रहे हो।
7-कई बार विस्फोट होते हैं। क्रोध में तुम फूट पडते हो और वह पागलपन जिसे तुम छिपाये रहे, बाहर आ जाता है। यह तुम्हारी सारी व्यवस्थाएं तोड़ देता है। इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि क्रोध अस्थायी पागलपन है। तुम फिर से संतुलन पा लोगे; तुम फिर अपनी वास्तविकता छिपा लोगे; तुम फिर अपना बाहरी हिस्सा संवार लोगे। तुम फिर स्वस्थचित्त हो जाओगे। और तब तुम कहोगे, ''यह गलत था। अपने न चाहने के बावजूद भी मैंने ऐसा किया। मेरा ऐसा इरादा न था। इसलिए मुझे माफ करो।’'
8-लेकिन वास्तव में,तुम्हारा वैसा इरादा था। वह ज्यादा असली था। क्षमा केवल एक ढोंग है। तुम फिर अपना बाहरी रंग ,स्वप्न,अपना मुखौटा ठीक
बना रहे हो।एक स्वस्थचित्त व्यक्ति का कोई मुखौटा नहीं होता। उसका चेहरा मौलिक होता है। जो कुछ भी वह है, वह है। लेकिन एक पागल आदमी को लगातार अपने चेहरे बदलने पड़ते हैं। हर घड़ी उसे अलग स्थिति के लिए, भिन्न संबंधों के लिए भिन्न मुखौटा इस्तेमाल करना पड़ता है। जरा अपने बदलते हुए चेहरे को देखना..।
9-जब तुम अपने नौकर से बातें करते हो, तो तुम पर अलग मुखौटा लगा होता है। और जब तुम अपने किसी अधिकारी से बातें करते हो, तो तुम्हारा मुखौटा बिलकुल ही अलग होता है।यह हो सकता है कि तुम्हारा नौकर तुम्हारी दायीं ओर खड़ा हुआ है और तुम्हारा मालिक तुम्हारी बायीं ओर। तब एक साथ तुम्हारे दो चेहरे होते हैं। बायीं ओर कोई एक चेहरा होता है और दायीं ओर तुम्हारा कोई अलग चेहरा होता है। क्योंकि तुम नौकर को वही चेहरा नहीं दिखी सकते... तुम्हें जरूरत नहीं हैं।वहां तुम बॉस हो तो
तुम्हारे चेहरे का एक पहलू मालिक होगा।लेकिन तुम वह चेहरा अपने बॉस को नहीं दिखा सकते क्योंकि तुम उसके नौकर हो, तो तुम्हारा दूसरा पहलू चाटुकारी वृत्ति दर्शायेगा।
10-निरंतर यही होता जा रहा है। तुम ध्यान से नहीं देख रहे हो और इसीलिए तुम्हें इसका बोध नहीं है। यदि तुम ध्यान से देखो, तो तुम्हें बोध होगा कि तुम पागल हो। तुम्हारे पास कोई एक चेहरा नहीं है। मौलिक चेहरा खो चुका है। और ध्यान का अर्थ है कि मौलिक चेहरे को फिर से पा
लेना। तुम्हारा वह चेहरा, जो पैदा होने से पहले था। वह चेहरा, जो तुम्हारा होगा जब तुम मर जाते हो।’ जन्म और मृत्यु के बीच तुम्हारे पास झूठे चेहरे होते हैं। तुम लगातार धोखा दिये चले जाते हो। और केवल दूसरों को ही नहीं, जब तुम दर्पण के सामने खड़े होते हो तो तुम स्वयं को भी धोखा देते हो। तुम दर्पण में अपना वास्तविक चेहरा कभी नहीं देखते। तुम्हारे पास इतनी हिम्मत नहीं कि अपने ही सामने हो पाओ। तुम इसे बनाते हो,इसमें रस लेते हो, लेकिन यह एक रंगा हुआ मुखौटा है।
11-वास्तव में,हम केवल दूसरों को धोखा नहीं दे रहे, हम अपने को भी धोखा दे रहे हैं। वस्तुत: यदि हमने स्वयं को ही धोखा नहीं दिया है तो दूसरों को धोखा नहीं दे सकते हैं।यदि तुम अपने झूठ में विश्वास नहीं करते,तो कोई दूसरा भी धोखे में आने वाला नहीं है।और यह सारा उपद्रव, जिसे
तुमअपना जीवन कहते हो, कहीं नहीं ले जाता है। यह एक पागल मामला है।तुम अत्यधिक परिश्रम करते हो, तुम चलते और दौड़ते हो..सारी जिंदगी तुम संघर्ष करते हो और कभी भी नहीं पहुंचते।
12-तुम नहीं जानते तुम कहां से आ रहे हो ,किधर बढ़ रहे हो, कहां जा रहे हो। यदि तुम सड़क पर किसी आदमी से मिलो और तुम उससे पूछो, 'तुम कहां से आ रहे हो श्रीमान?' और वह कहे, 'मैं नहीं जानता।’ और तब तुम उससे पूछो, 'कहां जा रहे हो?' और वह फिर कहता है, 'मैं नहीं जानता।’ लेकिन तब भी वह कहता है, 'मुझे रोको मत, मैं जल्दी में हूं।’ तो तुम उसके बारे में क्या सोचोगे? तुम सोचोगे कि वह पागल है।यदि तुम
जानते नहीं कि तुम कहां से आ रहे हो और तुम कहां जा रहे हो तो फिर जल्दी क्या है? लेकिन हर व्यक्ति की यही स्थिति है और हर व्यक्ति सड़क पर है।
13-जीवन एक सड़क है और तुम हमेशा इसके बीच में होते हो। तुम नहीं जानते कि तुम कहां से आ रहे हो; तुम नहीं जानते कि तुम जा कहां रहे हो। तुम्हें स्रोत का कोई ज्ञान नहीं है; तुम्हें लक्ष्य का कोई बोध नहीं है। तो भी तुम हर कोशिश कर रहे हो, बहुत जल्दी में हो ..'कहीं नहीं' पहुंचने के
लिए...किस प्रकार की स्वस्थचित्तता है यह? और इस सारे संघर्ष में से सुख की झलकियां तक तुम तक नहीं आतीं। तुम बस आशा करते हो कि किसी दिन, कहीं -कल, परसों या मृत्यु के उपरांत किसी परलोक में सुख तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। यह एक तरकीब है स्थगित करने की, ताकि तुम अभी बहुत दुख अनुभव न करो।
14-तुम्हारे पास आनंद की झलकियां तक नहीं हैं।तुम अनवरत दुख में हो, और वह दुख किसी दूसरे के द्वारा निर्मित किया हुआ नहीं है। तुम स्वयं लगातार अपना दुख निर्मित करते हो। किस प्रकार की स्वस्थचित्तता है
यह? स्वस्थचित्तता यह होगी कि तुम जागरूक हो जाओगे कि तुम केंद्रित नहीं हो। तो पहली बात यह है कि 'केंद्रीभूत हो जाना है'। तुम्हें अपने भीतर एक केंद्र पाना है, जहां से तुम अपना जीवन आगे ले जा सको, जहां से तुम अपने जीवन को अनुशासित कर सको। अपने भीतर एक मालिक पाना है जिससे तुम निर्देश पा सको; जिससे तुम आगे बढ़ सको।
15-तो पहली बात है, भीतर एकजुट और संगठित हो जाना और फिर दूसरी चीज होगी, अपने लिए दुख का निर्माण न करना। उस सबको गिरा दो जो दुख का निर्माण करता है ..वे सारे उद्देश्य, इच्छाएं और आशाएं।
लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम तो बस दुख को ही निर्मित किये जाते हो। लेकिन तुम समझते नहीं हो कि तुम्हीं इसका निर्माण कर रहे हो। जो कुछ भी तुम करते हो, उससे भीतर तुम कोई बीज बो रहे होते हो। फिर पीछे वृक्ष आयेंगे। जो कुछ भी तुमने बोया है, उसी की फसल काटनी होगी। और जब भी तुम कोई फसल काटते हो, दुख वहां होता है, लेकिन तुम कभी विचार नहीं करते कि बीज तुम्हारे द्वारा ही बोये गये थे।
16-जब भी तुम्हें दुख होता है, तो तुम सोचते हो यह कहीं और से आ रहा है। तुम सोचते हो यह कोई दुर्घटना है या कि कुछ दुष्ट शक्तियां तुम्हारे
विरुद्ध काम कर रहीं हैं।तुमने शैतान को निर्मित किया है।लेकिन शैतान केवल एक तर्कसंगत बहाना है।वास्तव में,तुम शैतान हो और तुम्हीं अपना दुख बनाते हो। लेकिन जब भी तुम व्यथित होते, तुम इसका दोष शैतान पर ही मढ़ देते हो कि वह शैतान कुछ कर रहा है। तो तुम अपने मूर्खतापूर्ण
जीवन शैली के प्रति कभी जागरूक नहीं होते हो।या तो तुम इसे भाग्य कहते हो, या तुम कहते हो कि विधाता का खेल है। लेकिन तुम इस बुनियादी तथ्य को टालते जाते हो कि जो कुछ भी तुम्हें होता है, तुम्हीं उसके एकमात्र कारण हो, और कुछ भी आकस्मिक नहीं है।
17-हर चीज का कारण होता है और तुम हो वह कारण।उदाहरण के
तौर पर, तुम प्रेम में पड़ जाते हो। प्रेम तुम्हें एक अनुभूति देता है कि आनंद कहीं पास ही है। तुम पहली बार अनुभव करते हो कि केवल एक व्यक्ति द्वारा तुम्हारा स्वागत करने से, तुम्हारी प्रतीक्षा करने, तुम्हें प्रेम करने, तुम्हारा ध्यान रखने से तुम खिलना आरंभ कर देते हो। लेकिन ऐसा केवल आरंभ में होता है, और फिर तुरंत तुम्हारा अपना गलत ढांचा कार्य करने लगता है। तुम फौरन प्रिय के मालिक हो जाना चाहते हो।
18-लेकिन मालिक होना घातक है। जिस क्षण तुम प्रेमी पर कब्जा जमाते हो, तुम प्रेम को मार चुके होते हो। तब तुम दुख उठाते हो ,रोते और चीखते हो और फिर तुम सोचते हो कि तुम्हारा प्रेमी गलत है, कि किस्मत गलत है, कि भाग्य की तुम पर कृपा नहीं है। लेकिन तुम नहीं जानते कि तुमने आधिपत्य द्वारा, कब्जा जमाकर प्रेम को विषाक्त कर दिया है।लेकिन
हर प्रेमी यही कर रहा है। और हर प्रेमी इसके कारण दुख भोगता है। प्रेम, जो तुम्हें गहनतम वरदान दे सकता है, वह गहनतम दुख बन जाता है। इसलिए सारी संस्कृतियों ने, विशेषकर पुराने समय के भारत ने, प्रेम की इस घटना को पूरी तरह नष्ट कर दिया ताकि प्रेम में पड़ने की कोई संभावना ही न रहे, क्योंकि प्रेम दुख की ओर ले जाता है।
19-ऐसा माना गया कि संभावना की भी गुंजाइश न होने देना बेहतर है। इससे पहले कि उन्हें प्रेम हो जाये,छोटे बच्चों का विवाह कर दिया जाये।वे कभी नहीं जान पायेंगे कि प्रेम क्या है, और तब वे दुखी न होंगे।लेकिन प्रेम
कभी दुख का निर्माण नहीं करता है। यह तुम हो, जो इसमें विष घोल देते हो। प्रेम सदा आनंद है ,उत्सव है। प्रेम तुम्हें प्रकृति द्वारा मिला गहनतम आनंदोल्लास है। लेकिन तुम इसे नष्ट कर देते हो। ताकि कहीं दुख में न पड़ जाओ। भारत में और दूसरे पुरातन देशों में, प्रेम की संभावना पूरी तरह से समाप्त कर दी गयी थी। तब तुम दुख में न पड़ोगे, केवल एक सामान्य जीवन होगा वहां...कोई दुख नहीं, कोई प्रसन्नता नहीं, बस किसी तरह जीवन को खींचे जाना है ।अतीत में,यही कुछ अर्थ रहा है विवाह का..।
20-अब प्रेम को पुनः जीवित करने के लिए प्रयत्न चल रहा है, पर उसमें से बहुत दुख चला आ रहा है।कुछ मनोवैज्ञानिक सुझाव दे ही चुके हैं कि बाल -विवाह को वापस लाना होगा क्योंकि प्रेम इतना अधिक दुख पैदा कर रहा है। लेकिन प्रेम दुख की रचना नहीं कर सकता। यह तुम हो, तुम्हारे पागलपन का ढांचा है, जो दुख को रचता है। और केवल प्रेम में ही नहीं, हर कहीं। हर कहीं तुम अपना मन जरूर ले जाओगे।उदाहरण के लिए,
बहुत से लोग जब ध्यान करना आरंभ करते हैं तो शुरू में आकस्मिक झलकियां कौंधती हैं, लेकिन जब एक बार उन्होंने निश्चित झलकियां /अनुभवों को जान लिया, तो फिर हर चीज रुक जाती है।
21-तब वे रोते चीखते हैं और पूछते हैं, ''क्या हो रहा है? कुछ घटित हो रहा था, लेकिन अब हर चीज रुक गयी है। हम अपनी पूरी कोशिश लगा रहे हैं, लेकिन अब कुछ भी घटित नहीं होता है!''वास्तव में, पहली बार वैसा
हुआ क्योंकि तुम अपेक्षा नहीं कर रहे थे। अब तुम आशा कर रहे हो, जिससे कि सारी स्थिति बदल गयी है।’ जब पहली बार तुम्हें निर्भार होने की अनुभूति हुई थी, किसी अज्ञात द्वारा पूरित होने की अनुभूति, अपने मुर्दा जीवन से दूर हो जाने की अनुभूति, भाव -विभोर क्षणों की वह अनुभूति, तब तुम उसकी अपेक्षा नहीं कर रहे थे। तुमने ऐसे क्षणों को कभी जाना न था। वे पहली बार तुममें उतर रहे थे। तुम बेखबर थे,अपेक्षाशून्य ... लेकिन अब
तुम स्थिति बदल रहे हो।
22-अब हर रोज तुम ध्यान करने बैठते हो, और किसी चीज की आशा करते रहते हो। अब तुम हो.. चालाक, होशियार, हिसाब लगाने वाले। जब पहली बार तुम्हें कोई झलक मिली थी, तब तुम निर्दोष थे एक बच्चे की भांति। तुम ध्यान के साथ खेल रहे थे, लेकिन वहा कोई अपेक्षा न थी। और तब घटना घट गयी थी। और वह फिर घटेगी, लेकिन तब तुम्हें फिर निर्दोष
होना होगा।अब तुम्हारा मन तुम्हारे लिए दुख ला रहा है। और यदि तुम यही आग्रह किये चले जाते हो कि बारंबार वही अनुभव मिलना चाहिए, तो तुम इसे हमेशा के लिए गंवा दोगे।यदि तुम पूरी तरह से इससे असंबंधित हो जाओ , कि कहीं अतीत में ऐसी घटना हुई थी, तो फिर से वह संभावना तुम्हारे लिए प्रकट हो पायेगी।
23- जो कुछ भी तुम्हारे हाथ में आता है, तुम फौरन उसे नष्ट कर देते हो और यही है पागलपन।वास्तव में ,जीवन बहुत से उपहार देता है जो बिन मांगे मिलते हैं।लेकिन तुम हर देन को नष्ट कर देते हो और वरदान लगातार फैलता जाता है; वह विकसित हो सकता है, क्योंकि जिंदगी तुम्हें कभी कोई मुर्दा चीज नहीं देती है। यदि तुम्हें प्रेम दिया गया है,तो वह अज्ञात आयामों तक विकसित हो सकता है।लेकिन पहले ही क्षण से तुम उसे नष्ट कर देते
हो।यदि ध्यान तुममें घटित हो गया है, तो उसे भूल जाओ और केवल उस दिव्यता के प्रति धन्यवाद /कृतज्ञ अनुभव करो। और हमें अच्छी तरह से याद रखना है कि हमारे पास उस पर दावा करने की क्षमता नहीं है; हमें उसे पाने का किसी भी तरह से अधिकार नहीं दिया गया है।वह एक देन है ,भगवत्ता का एक प्रवाह है।
24-उपलब्धि को भूलो; उसकी अपेक्षा मत बनाओ, उसकी मांग मत करो। अगले दिन वह फिर आयेगा..कहीं ज्यादा गहरे, ऊंचे,विराट रूप में।
संभावनाओं का कहीं कोई अंत नहीं है..वह असीम है।सारा ब्रह्मांड तुम्हारे लिए आनंदमग्न हो जायेगा।लेकिन तुम्हारे मन को मिटना ही होगा।तुम्हारा मन एक पागलपन है।जब तक तुम मन का अतिक्रमण नहीं करते, तब तक तुम पागलपन का अतिक्रमण नहीं कर सकते। अधिक से अधिक तुम समाज के काम चलाऊ उपयोगी सदस्य हो सकते हो और यह सारा समाज
तुम जैसा ही है।हर कोई पागल है, इसीलिए पागलपन सामान्य स्थिति है।
होश में आओ और मत सोचो कि दूसरे पागल हैं।गहराई से अनुभव करो कि तुम पागल हो और इसके लिए तत्क्षण कुछ करना ही है।यह एक संकटकालीन स्थिति है।
25-इसे स्थगित मत करो क्योंकि एक ऐसी घड़ी आ सकती है जब तुम कुछ नहीं कर सकते। शायद तुम इतने पागल हो जाओ कि तुम कुछ भी करने
के योग्य न रहो। अभी तक तुम सीमा में हो। कुछ किया जा सकता है; कुछ प्रयास किये जा सकते है; ढांचा बदला जा सकता है। लेकिन एक घड़ी आ सकती है जब तुम कुछ कर नहीं सकते; जब तुम पूरी तरह से टूट-फूट जाते हो और जब तुमने होश भी गंवा दिया होता है।यदि तुम अनुभव
करते हो कि तुम पागल हो, तो यह बहुत आशापूर्ण लक्षण है। यह संकेत है कि तुम अपनी वास्तविकता के प्रति सचेत हो।कम से कम इतनी स्वस्थचित्तता तो है कि तुम स्थिति समझ सकते हो और तब तुम वास्तव में स्वस्थचित्त हो सकते हो।
क्या आध्यात्मिक साधक को अपने सपनों पर विचार करना चाहिए?-
12 FACTS;- 1-जब भक्त मूर्ति के सामने तल्लीन हो कर खड़ा हो जाता है और आवाज सुनता है। सूफी फकीर कहते हैं. परमात्मा बोला। परमात्मा नहीं बोलता है। लेकिन एक अर्थ में परमात्मा ही बोलता है। तुम्हारे भीतर की अंतरतम गहराई परमात्मा ही है।तुम्हें पता उसी मात्रा में चलता है, जिस मात्रा में तुम शांत होते हो।तुम मूर्ति के सामने एकटक बंधे रह गये। तुम्हारे चित्त से और सारे विचार दूर हो गये, तुम उसी में मंत्रमुग्ध डूबे रहे, डूबे रहे, डूबे रहे, तब तुम्हारे भीतर तुम्हारे ही गहरे अचेतन से कुछ आवाज उठनी शुरू हो गयी। लेकिन वह लगेगी बाहर से आ रही है। 2-मूर्तिया सभी बहाने हैं। उनके बहाने तुम अपने ही अचेतन में डुबकी लगाते हो। मूर्ति को सतत देखते -देखते, तुम्हारा जो साधारण चेतन मन है, वह शांत हो जाता है और तुम्हारे अचेतन से खबरें आनी शुरू हो जाती हैं। स्वभावत: वे खबरें तुम्हें ऐसी लगती हैं जैसे कहीं और से आयी हैं। क्योंकि तुम इन गहराइयों से परिचित ही नहीं हो कि ये तुम्हारी हैं। तुम्हारा ही अंतःकरण बोला है। तुम ही बोले हो। मगर ऐसी जगह से बोले हो जिस जगह से तुमने अब तक अपना कोई परिचय नहीं बनाया। 3-तुम्हारे भीतर ही बहुत से प्रदेश अछूते पड़े हैं जिन तक तुम कभी नहीं गये। तुमने अपने पूरे भवन को कभी जांचा—परखा नहीं; पोर्च में ही डेरा डाले पड़े हो। सोचते हो यही भवन है। भीतर द्वार पर द्वार खुलते हैं। गहराइयों पर गहराइयां हैं। तलघरों पर तलघरे हैं। यह तुम्हारे ही भीतर सेआयी आवाज है। यह मूर्ति ,यह कीर्तन और भजन और प्रार्थना तो बहाना है। यह तो सिर्फ इस बात के लिए सहारा है कि तुम्हारा सक्रिय मन निष्किय हो जाये। क्योंकि तुम्हारे सक्रिय मन के कारण तुम्हारी गहराई की आवाज आती भी है तो भी तुम तक पहुंच नहीं पाती क्योंकि तुम इतने शोरगुल से भरे हो! 4-वह धीमी सी आती हुई आवाज तुम्हारे तूतीखाने में खो जाती है क्योंकि वहां नगाड़े बज रहे हैं।तुम्हारे भीतर विचारों की तरंगें चल रही हैं, तुम इतने व्यस्त हो।कभी अचानक तुम शांत हो कर बैठो तो दीवाल पर लगी घड़ी की टिक टिक सुनाई पड़ने लगती है, अपने हृदय की धड़कन सुनाई पड़ने लगती है। श्वास का आना -जाना दिखाई पड़ने लगता है,सूई भी गिर जाये तो सुनाई पड़ती है। सांप भी बगिया में कहीं सरक जाये , तो सरसराहट मालूम हो जाती है।हवा का जरा सा झोंका पत्तियों को कंपा जाये तो उसका कंपन भी तुम्हें बोध में आ जाता है। लेकिन जब तुम व्यस्त हो, चिंता से घिरे हो, विचारों के बादलों में दबे हो, तब पहाड़ भी बिखर जायें, आकाश में बिजलियों का गर्जन होता रहे, तो भी तुम्हें पता नहीं चलता। 5-तुम्हारे सपने भी एकदम भ्रम नहीं होते हैं। तुम्हारे सपने में भी तुम्हीं बोलते हो। इसलिए तो मनोवैज्ञानिक सपनों की बड़ी छानबीन करता है। वह तुम्हारे जागरण की चिंता नहीं करता; वह तुमसे पूछता है, सपने क्या देख रहे हो तुम? क्योंकि जागरण में तुम इतने बेईमान हो गये हो, तुम्हारे जागरण का कोई भरोसा ही नहीं है। तुम दूसरे को ही धोखा देते हो, धोखा वहां थोड़े ही रुक गया है, धोखा तुम अपने को दे रहे हो।चोर भी ऐसा मान कर चलता है कि वह चोरी भी कर रहा है तो किसी भले कारण से कर रहा है; शायद संपत्ति का समान वितरण करने की कोशिश कर रहा है, समाजवादी है। आदमी अपने बुरे से बुरे काम के लिए अच्छे से अच्छा कारण खोजने में कुशल है। 6-हिटलर ने लाखों लोग मार डाले, लेकिन हिटलर भीतर से बड़ा साधुपुरुष था। साधुपुरुष, यानी अपने को मना लिया था कि मैं साधुपुरुष हूं। और मनाने के सब उपाय भी उसके पास थे। तुम जरा सोच लेना, उसके उपाय क्या थे? हिटलर सिगरेट नहीं पीता था, यह तो साधुपुरुष का लक्षण है। मांस नहीं खाता था। अब और क्या चाहिए? पक्का जैन, शाकाहारी, ब्राह्मणों से भी बड़ा ब्राह्मण।नियम से ब्रह्ममुहूर्त में उठता था। कभी देर तक नहीं सोता था। तो अब और क्या चाहिए .. लाइसेंस मिल गया कि मारो ।अब साधु हो गया। 7-और मार भी इसलिए रहा है कि सारी दुनिया का हित करना है। उसने समझा लिया अपने को कि जब तक यहूदी हैं, दुनिया में बुराई रहेगी, और यहूदियों के मिटते ही बुराई समाप्त हो जायेगी। यहूदी पाप हैं; संसार की छाती पर कोढ़ का दाग हैं, इनको साफ कर देना है। दूसरों को भी समझा लिया, अपने को भी समझा लिया।तो तुम्हें यह लगेगा कि क्या बेवकूफी की बात है। लेकिन तुम भी ऐसा ही अपने को समझा लेते हो। हिंदू सोचते हैं, जब तक मुसलमान हैं तब तक दुनिया बुरी रहेगी। मुसलमान सोचते हैं, जब तक ये हिंदू हैं तब तक दुनिया बुरी रहेगी। दोनों ने अपने को समझा लिया है। 8-आदमी जो समझाना चाहे समझा लेता है। आदमी जो करना चाहे कर लेता है और अच्छे बहाने खोज लेता है। जहर के ऊपर शक्कर चढ़ा लेता है; फिर गटकना आसान हो जाता है। फिर जहर की गोली भी गटक जाओ, मीठी लगती है। कम से कम थोड़ी देर तो लगती है; फिर पीछे जो परिणाम होगा, होगा।मनोवैज्ञानिक कहते हैं, तुम्हारे जागरण पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता है; तुम्हारी नींद में उतरना पड़ेगा। क्योंकि वहां तुम्हारा नियंत्रण शिथिल हो जाता है, वहां तुम्हारे दोहराये गए झूठों का प्रभाव कम जो अतृप्त वासना है, वही स्वप्न बनती है। स्वप्न भी तुम्हारा ही है। तुमने जो दबा रखा है, वह सपने में उभर कर आ जाता है। सपने की भी बड़ी सचाई है। झूठा सपना भी एकदम झूठा नहीं है, क्योंकि तुम्हारे संबंध में कुछ संकेत देता है। 9-अब हो सकता है कि तुम बाहर के जीवन में तुम बहुत सादगी से रहते हो, और सपने में सम्राट हो जाते हो। तो सपने पर जरा विचार करना। तुम्हारी सादगी धोखा है। तुम बाहर के जीवन में बड़े अहिंसक हो, पानी छान कर पीते हो; रात भोजन नहीं करते। मांसाहार नहीं करते और रात सपने में उठा कर किसी की गर्दन काट देते हो। तो सपने पर ध्यान रखना। वह सपना ज्यादा सच कह रहा है कि असलियत यह है, वह जो तुमने ऊपर से ओढ़ लिया है, वह बहुत काम का नहीं है। 10-तुम्हारे सपने तुम्हारी सचाइयां हैं।वह जो तुम्हारे मन में सब सरकता रहता है, वह सपनों में रूप लेता है, आकृति ग्रहण करता है। अपने सपनों पर थोड़ा विचार करना। आध्यात्मिक साधक को अपने सपनों पर बहुत विचार करना चाहिए।सपने की डायरी बड़ी कीमती है। रोज सुबह उठ कर अपना सपना लिखे।क्या अर्थ है ,धीरे -धीरे अर्थ साफ होगा। अर्थ साफ अगर न हो, तो उसका इतना ही अर्थ है कि तुमने अपने को इस भांति झुठला लिया है कि अब तुम्हें अपने सपने का अर्थ भी साफ नहीं दिखाई पड़ता। तुम्हारी आंखें इतनी विकृत हो गयी हैं। मगर लिखते जाना। धीरे-धीरे सफाई होगी। धीरे -धीरे बिंब और उभरकर आएंगे। 11-और अगर तुम सपनों को धीरे -धीरे समझने लगो तो तुम्हारा अपने व्यक्तित्व के संबंध में बोध गहन हो जाएगा।सपने को समझते -समझते एक ऐसी स्थिति आ सकती है कि तुम सपने में भी थोड़ा सा होश रख सको कि यह सपना चल रहा है। जिस दिन यह होश आ जाता है कि यह सपना चल रहा है, उसी दिन सपने बंद हो जाते हैं। और सपने का बंद हो जाना बड़ी क्राति है'।सपने जिसके बंद हो गये, उसकी बुद्धि गल गयी। फिर रात जिसके सपने बंद हो जाते हैं, उसके दिन में विचार बंद हो जाते हैं। जड़ें कट गयीं। दिन के विचार तो पत्तों जैसे हैं; रात के सपने जड़ों जैसे हैं। जब सपने और विचार दोनों खो जाते हैं, तब जो है वही सत्य है।जिस स्वप्न ने अपने को स्वप्न कह दिया है, वह सपना बड़ा संदेश ले कर आया है। उससे तुम्हें कुछ मार्गनिर्देश मिला है। अब तुम रोज इसको ध्यान ही बना लो। रोज -रोज गहराई बढ़ेगी ,नये तल खुलेंगे। 12-कभी -कभी ऐसा होता है कि आकस्मिक रूप से ध्यान की कोई विधि हाथ लग जाती है। और जो विधि आकस्मिक रूप से तुम्हारे हाथ लग जाती है, वह ज्यादा कारगर है। क्योंकि उससे तुम्हारे स्वभाव का ज्यादा तालमेल है। वह तुमने ही खोज ली है। जो विधि कोई बाहर से देता है वह तालमेल पड़े न पड़े; लेकिन जो विधि तुम्हारे भीतर से आ गयी है वह विधि तो निश्चित ही तालमेल रखती है।तुम्हें जो घटता है,तो एक कुंजी हाथ लगती है। इसका उपयोग करो। हो सकता है, यही तुम्हारी आत्म -उपलब्धि का मार्ग बनने को हो।
क्या साक्षी भाव द्वारा मन विलीन हो जाता है?-
07 FACTS;-
1-साक्षी द्वारा मस्तिष्क की कोशिकाओं की रेकार्डिग्ज, विचार प्रक्रिया के
स्रोत कभी समाप्त नहीं होते लेकिन साक्षी होने से तादात्म्य टूट जाता है। 'बोध' पाने के बाद बुद्ध चालीस वर्ष तक अपने शरीर में रहे। शरीर समाप्त नहीं हुआ। चालीस वर्ष तक वे लगातार लोगों को समझाते रहे कि उन्हें क्या घटित हुआ था और वही उन्हे कैसे घटित हो सकेगा। वे इसी मन का उपयोग कर रहे थे, यह मन समाप्त नहीं हो गया था। और जब बारह वर्ष बाद वे अपने शहर में वापस आये, तो उन्होंने अपने पिता ,पत्नी ,बेटे को पहचान लिया। वहां मन,स्मृति थी वरना पहचान असंभव हो गयी होती।
2-मन वास्तव में समाप्त नहीं हो जाता केवल इसके साथ बना तुम्हारा तादात्म्य टूट जाता है। अब तुम जानते हो कि वह मन है यह 'मैं' हूं। पुल टूट चुका है ;अब मन मालिक नहीं है। यह तो बस एक उपकरण हो गया है और अपने सही स्थान पर जा पड़ा है। जब कभी तुम्हें इसकी जरूरत हो, तुम इसका उपयोग कर सकते हो। यह तो पंखे की तरह है; जब इसका उपयोग करना चाहते हो,तो तुम इसे चला देते हो, और तब पंखा चलने लगता है। अभी तुम पंखे का उपयोग नहीं कर रहे हो इसलिए यह गैर -क्रियात्मक है। लेकिन यह वहां है, इसका होना समाप्त नहीं हुआ है। किसी क्षण तुम इसका उपयोग कर सकते हो।
3-साक्षीभाव द्वारा केवल तादात्म्य विलीन हो जाता है, मन नहीं। लेकिन जब तादात्म्य विलीन हो जाता है,तब तुम बिलकुल ही नयी सत्ता हो। पहली बार तुम अपनी वास्तविक सत्ता को जान लेते हो, कि तुम कौन हो। अब मन तुम्हारे आस-पास घिरी एक यंत्र रचना का हिस्सा भर होता है।यह तो ऐसा
है जैसे तुम पाइलट बन हवाई जहाज चलाते हो। तुम बहुत से यंत्रों का इस्तेमाल करते हो, तुम्हारी आंखें कई यंत्रों के साथ कार्य करती हैं। वे लगातार इस और उस चीज का होश रखती हैं। लेकिन तुम यंत्र नहीं हो ।
यह मन, यह शरीर और शरीर-मन के कई कार्य,तुम्हारे चारों ओर हैं । यही संरचना है जिसमें तुम दो ढंग से हो सकते हो। एक तरीका है कि स्वयं को भूल जाओ और अनुभव करो कि तुम मैकेनिज्म हो। यह बंधन है, दुख है और यही है ..जगत, संसार।
4-क्रियाशील होने का दूसरा तरीका यह है कि -सचेत हो जाओ कि तुम पृथक हो, भिन्न हो। तब तुम यंत्र -रचना का उपयोग किये चले जा सकते हो,तो भी यह पृथक ही है। तब तुम वह नहीं हो। और यदि यांत्रिक बनावट में कुछ गलत हो जाता है, तो तुम इसे ठीक करने की कोशिश कर सकते
हो, लेकिन घबराओगे नहीं।एक बुद्ध का मरना और तुम्हारा मरना दो अलग घटनाएं हैं। जब बुद्ध मरते हैं, तो वे जानते हैं कि केवल यंत्र -रचना मर रही है।इसका उपयोग हो चुका है और अब इसकी और जरूरत नहीं रही। बोझ हट गया है; वे मुक्त हो रहे हैं।लेकिन जब तुम मरते हो तो वह बिलकुल अलग होता है। तुम दुखी होते हो, चीखते हो, क्योंकि तुम अनुभव करते हो कि 'तुम' मर रहे हो, यंत्र रचना नहीं। वह 'तुम्हारी' मृत्यु है और तब वह गहन पीड़ा बन जाती है।
5-केवल साक्षी भाव द्वारा मनऔर मस्तिष्क की कोशिकाएं समाप्त न होंगी। बल्कि वे अधिक जीवंत हो जायेंगी क्योंकि उनमें द्वंद्व कम होगा और ऊर्जा ज्यादा होगी।तुम ज्यादा सही ढंग से उनका उपयोग कर पाओगे ;लेकिन उनके द्वारा बोझिल नहीं होओगे।वे कुछ करने के लिए तुम्हें विवश नहीं करेंगी और तुम मालिक हो जाओगे।लेकिन केवल साक्षीभाव
द्वारा यह कैसे घटित हो सकता है? वह बंधन घटित हुआ है साक्षी न होने से क्योंकि तुम जागरूक नहीं हो। तो बंधन छूट जायेगा, यदि तुम जागरूक हो जाओ...।
6-बंधन केवल अचेतनता है। किसी और चीज की जरूरत नहीं है सिवाय इसके कि जो कुछ भी तुम करो ;उसमें और सजग हो जाओ।जिस घड़ी तुम सजग होते हो, तो सोचना समाप्त हो जाता है। सजगता के साथ तुम सोच नहीं सकते क्योंकि पूरी ऊर्जा सचेत हो जाती है और तब विचार के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। यदि तुम एक क्षण के लिए भी सजग हो जाते हो, तो तुम केवल सुनते हो।इन शब्दो के साथ मिश्रित होने के लिए कोई बाधा नहीं रहती।क्योंकि तुम्हारे अपने शब्द नहीं रहे और तुम्हें अर्थ लगाने की जरूरत न रही ...प्रभाव सीधा है।
7-यदि तुम सजगता से इन शब्दो को पढ़ सकते हो, तब अर्थ पूर्ण हो सकता है। यह सजगता ही तुम्हारी चेतना को एक शिखर तक ले जायेगी।अतीत विलीन हो जायेगा, भविष्य मिट जायेगा और तुम कहीं और न होओगे। तुम होओगे केवल अभी और यहीं और मौन के उसी क्षण में जब सोचना नहीं रहा, तुम अपने स्रोत के साथ गहरा संपर्क पा जाओगे।और वह स्रोत है.. 'आनंद' जो दिव्य है। इसलिए करना केवल यही है कि हर बात सजगता के साथ करनी है।
...SHIVOHAM...