ज्ञान तो सिर्फ एक ही है, ''स्वयं का ज्ञान'' बाकी सब परिचय है?
- Chida nanda
- Jul 12, 2019
- 16 min read
Updated: Dec 17, 2021
क्या अर्थ है ''स्वयं ज्ञान'' का?-
17 FACTS;-
1-भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते है ''हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञरहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा''?इस सूत्र में
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि जिनका जीवन यज्ञरूप है अथार्त वासनारहित, अहंकारशून्य, है;ऐसे पुरुष परात्पर ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, अमृत को , आनंद को उपलब्ध होते हैं। लेकिन जिनका जीवन यज्ञ नहीं है, ऐसे पुरुष तो इस पृथ्वी पर ही आनंद को उपलब्ध नहीं होते,तो परलोक की बात करनी तो व्यर्थ है।
2-तो पहली बात,जीवन के यज्ञ बन जाने का क्या अर्थ है... वास्तव में, जब तक जीवन स्वयं के अहंकार और वासनाओं के आस-पास घूमता है, तब तक जीवन यज्ञ नहीं होता।जैसे ही व्यक्ति वासनाओं को क्षीण करता है तो स्वयं के आस-पास नहीं, परमात्मा के आस-पास परिभ्रमण करने लगता है…।उदाहरण के लिए हम हजारों बार मंदिर में गए होंगे और वेदी के आस-पास परिक्रमा लगाकर घर लौट आए होंगे।लेकिन उसके अर्थ को हम नहीं जानते।

3-मंदिर में परमात्मा की वेदी के आस-पास जो परिक्रमा है, वह प्रतीक है उस पुरुष का, जिसका अपना अहंकार नहीं रहा, जो अब परमात्मा के आस-पास ही जीवन में परिभ्रमण करता है/चारों ओर घूमता है।क्योंकि अब अपना कोई केंद्र नहीं रहा, जिस पर वह घूम सके तो परमात्मा का उपग्रह बन जाता है। परमात्मा केंद्र में हो जाता है,और हम हो जाते है परिधि
पर;उसके आस-पास ही घूमते हैं।जैसे ही कोई व्यक्ति वासना और अहंकार से शून्य होता है, उसका जीवन यज्ञ हो जाता है।
4-दूसरी बात, श्रीकृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष ज्ञानरूपी अमृत को उपलब्ध होता है।वास्तव में,
इस जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है।अज्ञान ही अज्ञानरूपी विष,
अज्ञानरूपी मृत्यु है; इग्नोरेंस इज़ डेथ।इसका अर्थ है कि अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है।वास्तव में, मृत्यु कहीं है ही नहीं। हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है।मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंभव घटना है, जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी भी नहीं। लेकिन रोज यह मृत्यु हमें मालूम पड़ती है, क्योंकि हम जानते नहीं हैं। हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता, वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है।और जिस दिन हम जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है। अमृत ही, अमृतत्व शेष रह जाता है, इम्मारटेलिटी ही शेष रह जाती है।
5-अगर कोई पूछे कि , आपने किसी आदमी को मरते देखा है तो आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा है। पर सत्य ये है कि आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहीं देखा। मरने की प्रक्रिया आज तक नहीं देखी गई। जो हम देखते हैं, वह केवल जीवन के विदा हो जाने की
प्रक्रिया है, मरने की नहीं।हमने बटन दबाई , बिजली का बल्ब बुझ गया। जो नहीं जानता, वह कहेगा, बिजली मर गई। जो जानता है, वह कहेगा, बिजली अभिव्यक्त थी, अब अप्रकट हो गई। प्रकट थी, अप्रकट हो गई; मर नहीं गई। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। फिर बटन दबाएंगे, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी।
6-जीवन समाप्त नहीं होता, केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन विदाई हमें मृत्यु मालूम पड़ती है। क्योंकि हमने कभी अपने भीतर शरीर से अलग किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं किया है। हमारा अनुभव यही है कि मैं शरीर हूं, इसलिए जब शरीर समाप्त होगा, जलाने के योग्य हो जाएगा, तब स्वभावतः निष्कर्ष होगा कि मर गए।शरीर से अलग जिसने अपने
भीतर किसी तत्व को नहीं जाना, वह अज्ञानी है। अज्ञानी का मतलब यह नहीं कि जिसे यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं है,कोई सर्टिफिकेट नहीं है। सच तो यह है कि विश्वविद्यालय ने जितने सर्टिफिकेट दिए, अज्ञान उतना बढ़ा है, कम नहीं हुआ।
7-कारण यह है कि विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट को लोग ज्ञान समझने लगे। इसलिए असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। अज्ञानी आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता है; तो वह ज्ञान की खोज करता है। तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है;तो वह
मान लेता है कि मैं ज्ञानी हूं। ज्ञान तो सिर्फ एक है, स्वयं का ज्ञान। बाकी सब सूचनाएं हैं,परिचय
है, इनफर्मेशनस हैं, ज्ञान नहीं।बर्ट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, ज्ञान और परिचय.. नॉलेज और अक़्वान्टेन्स –। ज्ञान तो सिर्फ एक ही चीज का हो सकता है, जो मैं हूं; बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं है।
8-अपने से पृथक जिसे भी मैं जानता हूं, वह सिर्फ एक्वेनटेंस, परिचय है। जान तो सिर्फ अपने को सकता हूं; क्योंकि अपने से जो भिन्न है, उसके भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं। परिचय ही कर सकता हूं, ऊपर-ऊपर से जान सकता हूं, भीतर तो नहीं जा सकता। भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं, जहां मैं हूं।यह बहुत आश्चर्य की बात
है,कि अपना परिचय नहीं होता और दूसरे का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, और अपना ज्ञान होता है। अपना परिचय नहीं होता; क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं है। दूसरे का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं है।
9-लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं क्योंकि हम दूसरे का ज्ञान ले लेते हैं और अपना परिचय कर लेते हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं, जो कि हो नहीं सकता। और हम दूसरे के ज्ञान को ज्ञान समझ लेते हैं, जो कि हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है और अज्ञान में मृत्यु है।
तब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं.. मरते नहीं।इसलिए गौतम बुद्ध ने ''निर्वाण'' शब्द का उपयोग किया है। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझना। बस, दीया बुझ जाता है; कोई मरता नहीं।
10-ज्योति दिखाई पड़ती थी, अब नहीं दिखाई पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती है। फिर प्रकट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह प्रकट-अप्रकट होने का क्रम अनंत चल सकता है। जब तक कि ज्योति पहचान न ले कि प्रकट में भी मैं वही हूं, अप्रकट में भी मैं वही हूं; न मैं प्रकट होती हूं, न मैं अप्रकट होती हूं, सिर्फ रूप प्रकट होता है और अप्रकट होता है। वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्व है, वह न प्रकट में प्रकट होता है, न अप्रकट में अप्रकट होता है; न जीवन में जीवित होता है, न मृत्यु में मरता है। तब अमृत का अनुभव है।
11-हम दूसरों को बुझते देखकर, हिसाब लगा लेते हैं कि सब मरते हैं, तो मैं भी मरूंगा।मरने वाले उत्तर नहीं देते ;इसलिए मान लेते हैं कि 'हां' में उत्तर देता होगा।मरे हुए आदमी से पूछो, मर गए? अगर वह उत्तर दे, तो समझना मरा नहीं; और अगर मौन रह जाए, तो हम समझ
लेते हैं कि मर गया!लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं है। नहीं बोल पा रहा है, इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है।उदाहरण के लिए,दक्षिण के ब्रह्मयोगी, एक साधु ने
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और कलकत्ता तथा रंगून यूनिवर्सिटी में मरने के प्रयोग करके दिखाए थे।
12-वे दस मिनट के लिए मर जाते थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में दस डाक्टर मौजूद थे, जिन्होंने सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर गया है; क्योंकि चिकित्सा-शास्त्र के पास,मृत्यु के जो भी लक्षण हैं, पूरे हो गए। श्वास नहीं; बोल नहीं सकता; खून में गति नहीं रही; ताप गिर गया; नाड़ी बंद हो गई; हृदय की धड़कन नहीं है। सब सूक्ष्मतम यंत्रों ने कह दिया कि आदमी मर गया। उन दस ने लिखा, दस्तखत किए, क्योंकि ब्रह्मयोगी कहकर गए थे कि दस्तखत करके , डेथ सर्टिफिकेट दे देना कि मैं मर गया।फिर दस मिनट बाद सब वापस लौट आया।श्वास फिर
चली; धड़कन फिर हुई; खून फिर बहा; उस आदमी ने आंख भी खोलीं; वह बोलने भी लगा; उठकर बैठ गया। उसने कहा, अब आपके सर्टिफिकेट के संबंध में मैं क्या मानूं?
13- उनमें से एक डाक्टर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन से फिर मैं किसी को भी मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं दे सका । क्योंकि उस दिन जो मैंने देखा, उससे साफ हो गया कि मृत्यु के लक्षण सिर्फ विदा होने के लक्षण हैं। और चूंकि आदमी लौटना नहीं जानता है, इसलिए हमारे सर्टिफिकेट सही हैं, वरना सब गलत हो जाएं।जब ब्रह्मयोगी से चिकित्सक पूछते कि
''हुआ क्या, किया क्या''? तो वह कहते, मैं सिर्फ सिकोड़ लेता हूं अपने जीवन को। जैसे कि सूरज अपनी किरणों को सिकोड़ ले; जैसे कि फूल अपनी पंखुड़ियों को बंद कर ले; जैसे पक्षी अपने पंखों को सिकोड़कर और अपने घोंसले में बैठ जाए–ऐसे मैं जीवन को भीतर सिकोड़ लेता हूं ; वहां जहां तुम्हारे यंत्र नहीं पकड़ पाते। होता तो मैं हूं ही, इसीलिए वापस लौट आता हूं। फिर पंखों को खोल देता हूं, फिर जीवन के आकाश में उड़ आता हूं -घोंसले के बाहर।
14-हम सबके भीतर वह गुह्य स्थान है, जहां आत्मा सिकुड़ जाए, तो फिर यंत्र पता नहीं लगा पाते, इंद्रियां पता नहीं लगा पातीं। असल में यंत्र इंद्रियों के एक्सटेंशन से ज्यादा नहीं हैं। यंत्र हमारी ही इंद्रियों का विस्तार हैं। आंख है; तो हमने दूरबीन बनाई;वह आंख का विस्तार है, आंख को बढ़ा देती है /मैग्नीफाई कर देती है। कान है; तो हमने टेलीफोन बनाया;
वह कान का विस्तार है।सारे यंत्र हमारी इंद्रियों के विस्तार हैं। अब तक एक भी यंत्र नहीं बना, जो हमारी इंद्रियों से अन्य हो, विस्तार न हो।सूक्ष्म हो, इंद्रिय की पकड़ के बाहर हो, तो
यंत्र पकड़ लेता है। लेकिन जो अतींद्रिय है, सूक्ष्म नहीं–अतींद्रिय अथार्त इंद्रियों के पार, पैरासाइकिक–तो उसको फिर यंत्र भी नहीं पकड़ पाता।
15-जीवन-ऊर्जा पैरासाइकिक है, अतींद्रिय है, इसलिए कोई यंत्र उसकी गवाही नहीं दे सकता। इस जीवन-ऊर्जा को जानने का एक ही उपाय है; वह इंद्रियों के द्वारा नहीं, इंद्रियों के पीछे सरककर; इंद्रियों के माध्यम से नहीं, इंद्रियों के माध्यम को छोड़कर प्राप्त होती है। ज्ञानी इंद्रियों के माध्यम को छोड़कर स्वयं को जानता है। और एक क्षण भी स्वयं की यह झलक मिल जाए , तो वह अमृत उपलब्ध हो जाता है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं; वह सत्व दिखाई पड़
जाता है, जिसका कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं।इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा, ज्ञानी ज्ञानरूपी
अमृतत्व को उपलब्ध हो जाते हैं।अल्केमिस्ट कहते हैं कि हम वह तत्व खोज रहे हैं , जिससे आदमी अमर हो जाए। लेकिन वे कभी न खोज पाएंगे। आदमी अमर है ही; किसी चीज से अमर करने की जरूरत नहीं है। चेतना अमर ही है।
16-और ऐसा नहीं है कि पदार्थ मरता है और चेतना अमर है। पदार्थ भी अमर है;और चेतना भी अमर है। पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं है। जो जीवित हो, वह मर सकता है।लेकिन जो जीवित ही नहीं, उसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं। आत्मा इसलिए अमर है कि वह जीवित है, जो जीवित है, वह मर कैसे सकता है अथार्त जीवन की कोई मृत्यु नहीं हो
सकती,और मृत्यु का कोई जीवन नहीं हो सकता।पदार्थ को अपने होने का पता नहीं है; पदार्थ का सिर्फ अस्तित्व है, जीवन नहीं।लेकिन आत्मा का जीवन भी है और अस्तित्व भी और उसे अपने होने का भी पता है। बस यह होने का पता उसे जीवन बना देता है।
17- हम आत्मा तो हैं, हमें अपने होने का भी पता है, हम जीवित भी हैं; लेकिन हम क्या हैं, इसका हमें कोई भी पता नहीं है।अथार्त होने का पता है, लेकिन क्या हैं, इसका कोई पता नहीं
है।होने का पता हो और यह पता न हो कि क्या हैं, तो अज्ञान की स्थिति है।लेकिन होने का पता हो और यह भी पता हो कि क्या हैं, तो ज्ञान की स्थिति है। अज्ञानी में उतनी ही आत्मा है, जितनी ज्ञानी में; रत्तीभर कम नहीं है। लेकिन अज्ञानी अपने प्रति बेहोश है और ज्ञानी अपने
प्रति होश से भरा हुआ है।ऐसे व्यक्ति जो ज्ञान-अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में परम परात्पर ब्रह्म को पाते हैं।
क्या अर्थ हैं कि 'ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता है'?-
18 FACTS;-
1-आमतौर से हमें यही खयाल है कि परलोक का अर्थ मरने के बाद है। लेकिन जब आत्मा मरती ही नहीं, तो मरने के बाद परलोक का अर्थ ठीक नहीं है। परलोक इस लोक के साथ, यहीं और अभी मौजूद है, जस्ट बाई दि कार्नर। परलोक कहीं मरने के बाद और नहीं है। परलोक यहीं और अभी मौजूद है। पर हमें उसका कोई पता नहीं है। जिसे अपना पता नहीं, उसे परलोक का पता नहीं हो सकता; क्योंकि परलोक में जाने का द्वार स्वयं का अस्तित्व है, स्वयं का ही होना है।
2-जिसे अपना पता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की देहली पर, बीच में खड़ा हो जाता है। इस तरफ झांकता है तो लोक, उस तरफ झांकता है तो परलोक। बाहर सिर करता है तो लोक, भीतर सिर करता है तो परलोक। परलोक अभी और यहीं है।ब्रह्म कहीं दूर नहीं,
आपके बिलकुल पड़ोस में, आपके पड़ोसी से भी ज्यादा पड़ोस में है। आपके बगल में जो आदमी बैठा है , उसमें और आपमें भी फासला है। लेकिन उससे भी पास ब्रह्म है।आपमें और उसमें फासला भी नहीं है।
3-तो ध्यान रखें, लोक और परलोक का विभाजन समय में नहीं है, स्थान में है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लें। लोक और परलोक का विभाजन टाइम डिवीजन नहीं है कि कल मरूंगा, दस साल बाद मरूंगा, घंटेभर बाद मरूंगा ;समय, घंटा बीत जाएगा, तब मैं मरूंगा। फिर उस मरने के बाद जो होगा, वह परलोक होगा।हमने अब तक परलोक को लौकिक/
टेंपोरल समझा है,और टाइम में भी बांटा है। परलोक भी , स्पेस में बंटा है, टाइम में नहीं। अभी-यहीं, लोक भी मौजूद है और परलोक भी मौजूद है। पदार्थ भी मौजूद है और परमात्मा भी मौजूद है।फासला समय का नहीं, फासला सिर्फ स्थान का है।और स्थान का भी फासला
हमारी दृष्टि का फासला है, अटेंशन का फासला है।
4-अगर हम बाहर की तरफ ध्यान दे रहे हैं, तो परलोक खो जाता है। अगर हम परलोक की तरफ ध्यान दें, तो लोक खो जाता है।जब रात में,आप सो जाते हैं, तब लोक खो जाता है;
और परलोक शुरू नहीं होता। रात जब आप सोते हैं, तब आपको याद नहीं रहता है कि आपका एक बेटा है,एक पत्नी है ,बैंक बैलेंस इतना , कि आप कर्जदार हैं ,कि लेनदार हैं।जब आप सोते हैं, तो लोक एकदम खो जाता है ; परलोक शुरू नहीं होता! निद्रा मूर्च्छा है, लोक और परलोक के बीच में है।ध्यान भी लोक और परलोक के बीच में है। लोक खोता है, और परलोक शुरू हो जाता है।
5- उदाहरण के लिए यदि एक आदमी आंख बंद करके,अपने मकान के दरवाजे की देहली पर बैठ जाएगा तो न घर दिखाई पड़ेगा, न बाहर दिखाई पड़ेगा।यदि वह बाहर की तरफ देखेगा, तो भीतर का दिखाई न पड़ेगा। फिर जब वह भीतर की तरफ मुड़कर खड़ा हो जाएगा,तो भीतर का दिखाई पड़ेगा,लेकिन बाहर का नहीं ।तो लोक की, ऐसी तीन स्थितियां
हुईं।जब हम बाहर देखते हैं, तो कांशसनेस/चेतना बाहर की तरफ जाती हुई है ;तो लोक हैं।जब चेतना भीतर की तरफ जाती हुई हैं, तो परलोक हैं। जब निद्रा, चेतना किसी तरफ जाती हुई नहीं है...सो गई है तो परलोक यहीं है, अभी है।
6-जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि परलोक में ऐसा पुरुष आनंद को उपलब्ध होता है, तो इसका मतलब है कि जिस व्यक्ति ने आत्मा की अमरता को जाना,ब्रह्म को जाना, वह आनंद को उपलब्ध होगा..मरने के बाद नहीं ,अभी यहीं हो जाएगा।लेकिन जो व्यक्ति इस अमृत को
नहीं जानता, वह उस परलोक में/ भीतर के लोक में/उस पार के लोक में... कैसे आनंद को उपलब्ध होगा? वह तो बाहर के लोक/संसार में भी दुख पाता है और भीतर भी दुख
पाता है। जिसको यह खयाल है कि मृत्यु है, वह बाहर कभी सुख नहीं पा सकता। मृत्यु का खयाल बाहर के सब सुखों को विषाक्त कर जाता है, पायजनस कर जाता है। बाहर अगर थोड़ा-बहुत, सुख लेना है तो मृत्यु को बिलकुल भूलना पड़ता है। इसलिए हम मृत्यु को भुलाने की कोशिश करते हैं।
7-लेकिन स्मृति का नियम है, जिसे भी हम भुलाते हैं, उसकी और याद आती है।जिसे भी भुलाने की कोशिश करें... उसकी और भी याद आएगी।किसी को प्रेम किया और अब स्मृति दुख देती है; तो भुलाने की कोशिश करें, और याद आएगी।क्योंकि भुलाने की कोशिश में भी तो याद करना पड़ता है और याद गहन होती चली जाती है।मृत्यु को हम सब भुलाने की
कोशिश किए हुए हैं, इसलिए मरघट हम शहर / गांव के बाहर बनाते हैं।नियमानुसार; बीच में बनाना चाहिए, क्योंकि मृत्यु जीवन का केंद्रीय तथ्य है।मौत प्रतिक्षण घटित हो सकती है।
जो घटना प्रतिक्षण घटित हो सकती है, उसको शहर / गांव के बाहर रखना ठीक नहीं है।
8-जब द्वार से अर्थी निकलती है , तो लोग घर का दरवाजा बंद करके बच्चों को भीतर कर लेते हैं क्योंकि मौत न याद आ जाए और जिसे मौत याद आ गई, उसके जीवन में संन्यास
को ज्यादा देर नहीं है। जो मौत को भुला ले, वही संसार में हो सकता है। जिसको मौत स्मरण आ जाए, उसका संसार संन्यास बनने लगता है।इसलिए मौत को, हजार ढंग से छिपाते हैं।
आदमी मरा नहीं कि ले जाने की इतनी जल्दी पड़ती है, जिसका हिसाब नहीं ।थोड़ी देर रहने दें..लोगों को देख लेने दें; स्मरण कर लेने दें कि यही घटना उनकी भी घटने वाली है।
लेकिन नहीं; बड़ी जल्दी मचती है। घर के लोग रोने-धोने में, पास-पड़ोस के लोग विदा करने में एकदम तीव्रता करते हैं।जिस आदमी को वर्षों चाहा और प्रेम किया, उसको विदा करने की इतनी शीघ्रता क्या है?
9-वास्तव में,शीघ्रता का आंतरिक कारण मनोवैज्ञानिक है।मरे हुए की मौजूदगी हमें अपने मरे होने की खबर लाती है। जल्दी ले जाओ, आग लगाओ या जमीन में गड़ाओ, मिटाओ, निशान हटाओ। जीवन के पर्दे पर कहीं मृत्यु का निशान न रह जाए; उसे अलग कर दो।और आश्चर्य
की बात यह है कि जन्म के बाद अगर कोई चीज निश्चित है, प्रेडिक्टेबल है, किसी चीज की भविष्यवाणी की जा सकती है, तो वह मृत्यु है। बाकी किसी चीज की भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। भविष्यवाणी का मतलब यह नहीं कि तारीख और दिन बताया जा सकता है .. बस मृत्यु होगी, इतना तय है। बाकी सब चीजें हों या न हों,विवाह हो भी सकता है और नहीं, भी,स्वास्थ्य रहे भी, न भी रहे, बीमारी आए भी, न भी आए, धन मिले भी, न भी मिले;लेकिन मृत्यु के बाबत ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हो भी, न भी हो।
10-जो घटना इतनी निश्चित है ,उसे हम बाहर रखते हैं और कई चीजों से भुलाते हैं। कैसे-कैसे भुलाने का उपाय करते हैं ..अर्थी पर फूल ढांक देते हैं। फूलों के नीचे सड़ा हुआ शरीर है, फूल से ढांक देते हैं, ताकि मरता हुआ शरीर दिखाई न पड़े केवल फूल दिखाई पड़ें।
जिस आदमी ने जिंदगी भर राम का नाम नहीं लिया, और जिन्होंने कभी राम का नाम नहीं लिया, वे भी उसकी अर्थी के साथ राम नाम सत्य है, कहते हुए जाते हैं ताकि मौत से अटेंशन हट जाए। अगर कुछ न कहते हुए चुपचाप लोग अर्थी के साथ जाएं, तो अर्थी को भूलना मुश्किल हो जाए। कुछ कहते हुए जाते हैं;तो अर्थी को भूलना आसान हो जाता है।राम की आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं। हालांकि राम उन्हीं को मिलता है, जो मौत को पार करते है, आमना-सामना करते है; उनको नहीं, जो राम की आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं!
11-हम मृत्यु भुलाते हैं , जानते नहीं। जो भुलाता है, उसे याद आती चली जाती है। जो जानता है, उसके लिए समाप्त हो जाती है, होती ही नहीं। यह जो जिंदगी में हमारा भुलावा चल रहा है, इससे हम कभी भूल नहीं पाते। हर जगह उसकी खबर मिल जाती है।सुबह फूल खिलता है,
और सांझ मुर्झा जाता है, और कह जाता कि मौत है। प्रेम घड़ी भर खिलता है और सूख जाता है, और खबर दे जाता है कि मौत है। जवानी आती है और चली जाती है, और खबर दे जाती है, कि मौत है। हरे पत्ते लगते है और पतझड़ में झड़ जाते है, और खबर दे जाते है, कि मौत है। सुबह सूरज उगता है और सांझ डूबने लगता है, और खबर दे जाता है,कि मौत है।
जिसको जिंदगी में अभी तक अमृत का पता नहीं चला, उसका सब विषाक्त हो जाता है, सब पायजंड हो जाता है। कोई सुख नहीं हो सकता। जब तक मृत्यु की कालिमा पीछे खड़ी है, सब सुख अंधेरे हो जाते हैं।
12-सच तो यह है कि सुख के क्षण में मृत्यु की कालिमा और गहन होकर दिखाई पड़ती है। दुख के क्षण में उतनी गहन नहीं होती; लेकिन सुख के क्षण में बहुत गहन हो जाती है।
अगर कृष्णमूर्ति को सुनें,तो उसी भाषण में जब वे मृत्यु/डेथ पर बोलना शुरू करेंगे,तो प्रेम/लव पर जरूर बोलेंगे और अगर लव पर बोलना शुरू करेंगे, तो डेथ पर जरूरत बोलेंगे।कृष्णमूर्ति को साफ पता है कि जहां भी प्रेम है; जहां प्रेम की, सुख की झलक आई, वहां तत्काल पता लगता है कि जिसे हम प्रेम कर रहे हैं, वह भी मरेगा;और जो प्रेम कर रहा है, वह भी मर जाएगा;तथा बीच में जो प्रेम बह रहा है, वह भी मर जाएगा।प्रेम के सघन क्षण में
मृत्यु बहुत प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ती है। प्रेम सुख लाता है, पीछे से मृत्यु का स्मरण ले आता है। जहां-जहां सुख है, वहां-वहां मौत पीछे खड़ी हो जाती है। इसलिए तो सुख क्षणभंगुर है। हम ले भी नहीं पाते, और मौत उसे हड़प जाती है।
13-दूसरी बात कि जिसको भीतर के अमृत का पता नहीं, वह परलोक में तो आनंद पा ही नहीं सकता, इस लोक में भी सिर्फ दुख पाता है। जो परलोक में आनंद पाता है, वह इस लोक में भी आनंद पाता है...ये जुड़े हुए हैं। ध्यान रखें, जिसे भीतर आनंद नहीं मिला,उसकी सारी
दृष्टि बदल जाती है।उसे वसंत में भी मृत्यु नजर आती है, पतझड़ दिखाई पड़ता है। उसे बच्चे में भी बुढ़ापे की दृष्टि, बच्चे के पीछे भी बूढ़े का जीर्ण-जर्जर शरीर दिखाई पड़ता है। उसे जवानी की तरंगों में भी मौत का गिर जाना और मिट जाना दिखाई पड़ता है। उसे सुख के क्षण में भी पीछे खड़े दुख की प्रतीति होती है। जिसे अभी पता है कि मृत्यु है, अज्ञान में सब सुख दुख हो जाते हैं।
14-ज्ञान में सब दुख भी सुख हो जाते हैं। फिर उस तरह के व्यक्ति को पतझड़ में भी आने वाले वसंत की पदचाप सुनाई पड़ती है। वृक्ष से सूखे गिरते पत्ते में भी नए पत्ते के अंकुरित होने की ध्वनि का बोध होता है। सांझ डूबते हुए सूरज में भी सुबह के उगने वाले सूरज की तैयारी का पता चलता है। विदा होते बूढ़े में भी पैदा होने वाले बच्चों के जन्म की खबर मिलती है। मृत्यु का द्वार भी उसे जन्म का द्वार बन जाता है।अंधेरा भी उसे प्रकाश की पूर्व भूमिका मालूम पड़ती है। सुबह अंधेरा जब गहन हो जाता है, तब भी वह जानता है, आने वाली भोर निकट है। अंधेरा उसे भोर का स्मरण; मृत्यु उसे जन्म का स्मरण; दुख भी उसे सुख को लाता हुआ मालूम पड़ता है। दृष्टि बदल जाती है; तो सब उलटा हो जाता है।
15-अज्ञान में सुख भी दुख बन जाता है और ज्ञान में दुख भी सुख बन जाता है।अज्ञान में जन्म भी मृत्यु की ही खबर है। ज्ञान में मृत्यु भी जन्म की ही सूचना है। अज्ञान में वरदान भी अभिशाप ही होंगे; वरदान नहीं हो सकते। ज्ञान में वरदान तो वरदान होते ही हैं, अभिशाप भी
वरदान हो जाते हैं।लेकिन अज्ञान बड़ा स्वाभाविक है, आकस्मिक नहीं है।जब बुद्ध जैसे व्यक्ति ने भी संन्यास लिया और बारह वर्ष के बाद ज्ञान के सूर्य को जगाकर वापस घर लौटे, तब भी पिता को दिखाई नहीं पड़ा कि बेटे का जीवन रूपांतरित हुआ है ;लाखों लोगों की जिंदगी में बुद्ध से रोशनी पहुंची है। दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ पीछे खड़े हैं। उनके पीत वस्त्रों में उनके भीतर का प्रकाश झलकता है।
16-लेकिन पिता ने गांव के दरवाजे पर यही कहा कि ''मैं तुझे अभी भी माफ कर सकता हूं; पिता हूं। वापस लौट आ। यह भूल छोड़। बहुत हो चुका। यह नासमझी बंद कर। मुझ बूढ़े को इस बुढ़ापे में, मृत्यु के निकट होने में दुख मत दे!'' पिता को नहीं दिखाई पड़ सका कि वे
किससे कह रहे हैं। बुद्ध हंसने लगे। बुद्ध ने कहा, ''गौर से तो देखें! बारह वर्ष पहले जो घर से गया था, वही वापस नहीं लौटा है। वह तो कभी का जा चुका। यह कोई और है। जरा गौर से तो देखें!''
17-लेकिन पिता ने कहा, ''तू मुझे सिखाएगा? मैं तुझे जानता नहीं? मेरा खून बहता है तेरी नसों में। मैं तुझे जितना जानता हूं, उतना कौन तुझे जान सकता है?बुद्ध ने कहा, आप अपने
को ही जान लें तो काफी है। मुझे जानने के भ्रम में मत पड़ें। क्योंकि दूसरे को जानने के भ्रम में वही पड़ता है, जो स्वयं को नहीं जानता है।पिता की तो आग ही भड़क गई। क्रोध भारी हो
गया और कहा, 'यह मैंने सोचा भी न था कि तू अपने ही पिता से इस तरह की बातें बोलेगा'!
बुद्ध जैसा बेटा भी घर में हो, तो पिता के लिए अभिशाप मालूम पड़ता है!
18-अज्ञान सब वरदानों को अभिशाप कर लेता है, सब फूलों को कांटा बना लेता है। ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता है। दृष्टि बदली कि सब बदल जाता है।जिसे परलोक में
आनंद है, अंतःलोक में आनंद है, उसे बाहर के जगत में दुख की कोई रेखा भी शेष नहीं रह जाती। और जिसे बाहर के लोक में दुख है, उसे भीतर के लोक का कोई पता ही नहीं होता है, आनंद की तो बात ही मुश्किल है।इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञानरूपी
अमृत को पाकर आनंद की वर्षा हो जाती है। अज्ञानरूपी विष में जीते हुए सिवाए दुखों के गहन सागर, अतल सागर के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता है।
.....SHIVOHAM....