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भगवान शिव के पंचमुख स्वरूप का क्या रहस्य है ?


भगवान शिव ;-

06 FACTS;-

1-चार मुख के ब्रह्माजी, पंचमुख महादेव, षट्मुख कार्तिकेय, हाथी की सूंड़ वाले श्री गणेशजी, पूंछ वाले हनुमानजी—यह सब इसलिए है... ताकि लोग इस महत्व का भली भांति अवगाहन कर अपना जीवन लक्ष्य सरलतापूर्वक साध सकें।शिव के आध्यात्मिक रहस्यों का ज्ञान करना अभीष्ट है। भगवान् शंकर के स्वरूप में जो विचित्रतायें हैं वह किसी मनुष्य की देह में सम्भव नहीं इसलिए उनकी सत्यता संदिग्ध मानी जाती है।

2-शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है।यह सारा विश्व ही भगवान है।शिव की लिंग स्वरूप, गोल पिंडी बताता है कि वह विश्व- ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता, विश्व माता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं।उनकी सृष्टि साकार होते हुए भी ,उसका आधार आत्मा ही है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

3-शिव ने मूल रूप से 84000 मुद्राओं की पहचान की, जिन्हें मानव शरीर धारण कर सकता है और उन्हें 84 योगासनों में ढाला। उसके बाद उन्होंने उसे अधिक तरल अभिव्यक्तियां

प्रदान कीं। उनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं के समान है और उनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक, तलवार वज्र, अग्नि, नाह्राज, घन्टा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव ही भक्तों के ह्रदय में विराजते हैं।दुनिया के सबसे मशहूर प्रयोगशालाओं में से एक स्विटजरलैंड के सर्न लेबोरेटरी के प्रवेश द्वार पर नटराज की एक मूर्ति लगी है। क्योंकि उन्हें महसूस हुआ कि मानव संस्कृति में इससे बढ़कर कुछ नहीं है, जो उनके काम से इतना मिलता-जुलता या करीब हो।

4-अगर योग को एक चेतन प्रणाली के साथ किया जाता है, तो इसे आसन कहा जाता है। अगर उसे काव्यात्मक गरिमा के साथ किया जाता है, तो इसे शास्त्रीय नृत्य कहते हैं।शिव के सबसे महत्वपूर्ण रूपों में से एक है – नटेश, यानी सभी कलाओं के जन्मदाता। मानव शरीर जो चीजें कर सकता है, और उन चीजों को करने पर जो कुछ होता है, उन्होंने उस प्रक्रिया की खोज की। फिर उन्होंने उन्मत होकर बेफिक्री में नृत्य किया। दूसरे लोगों ने उसका एक अंश ग्रहण किया और उसे एक प्रणाली के रूप में अपनाने की कोशिश की।शिव ने आपके अस्तित्व के विज्ञान को समझाया। मगर तकनीक कई तरीके से विकसित हुई है।

5-यहां संगीत और नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं थे। वे भी आध्यात्मिक प्रक्रियाएं थीं।मनोरंजन जीवन का नजरिया नहीं था। उठना-बैठना, खाना, सब कुछ एक साधना या चेतना के उच्च स्तर तक पहुंचने का एक साधन था।भारतीय कलाएं बहुत सावधानी से विकसित की गई कलाएं हैं जो इंसानी सिस्टम के मेकैनिक्स की समझ पर और उसे अपनी चरम संभावना तक विकसित करने के विज्ञान की समझ पर आधारित हैं।

6-अगर आप भारतीय शास्त्रीय नृत्य की मुद्राओं को ठीक से करें, तो वे आपको ध्यान की तरफ ले जाती हैं।इसी तरह, अगर आप भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभ्यास करने वाले किसी व्यक्ति को देखें, तो उनमें साधु-संतों जैसे गुण आ जाते हैं क्योंकि ध्वनियों को एक खास तरह से व्यवस्थित करने का एक खास असर पड़ता है। अगर आप ध्वनि पैटर्न को ठीक से इस्तेमाल करते हैं, तो वह आपके और आपके आस-पास के माहौल पर जबर्दस्त असर डालता है क्योंकि भौतिक अस्तित्व मुख्य रूप से स्पंदनों या ध्वनियों का एक जटिल मिश्रण है।

भगवान शिव के पंचमुख स्वरूप ;-

05 POINTS;-

1-शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं-सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह-मेरे ये पांच कृत्य (कार्य) मेरे पांचों मुखों द्वारा धारित हैं ।महादेव ने ब्रह्मा और विष्णु को धीरे-धीरे उच्चारण करके अपने पांच मुखों से अपने पंचों मुखों का रहस्य बताया।वे ब्रह्माजी से

कहते हैं कि...

'' मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उसके विषय में बता रहा हूँ।मेरे पांच कृत्य हैं... सृष्टि, पालन,संहार, तिरोभाव और अनुग्रह – ये मेरे जगत-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध हैं।

1-2-संसार की रचना का जो आरम्भ है, उसी को सर्ग या सृष्टी कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिररूप से रहना ही उसकी स्थिति है। उसका विनाश ही संहार है। प्राणों के उत्क्रमण को तिरोभाव कहते हैं इन सबसे छुटकारा मिल जाना मेरा अनुग्रह है। इस प्रकार सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं। पांचवां कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है। वह सदा मुझ में ही अचल भाव से स्थिर रहता है। मेरे भक्त जन इन पंचों कृत्यों को पंचभूतों में देखते हैं।

1-3-सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से सबकी वृद्धि और जीवन-रक्षा होती है। आग सबको भस्म कर देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। विद्वान पुरूष को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये। इन पंचों कृत्यों वहन करने के लिये ही मेरे पांच मुख हैं। चार दिशाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है।

1-4-तुमने और विष्णु ने मेरी तपस्या करके मुझसे सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। इस प्रकार मेरी विभूति रूप ने मुझसे संहार और तिरोभावरूपी कृत्य प्राप्त किये हैं। परन्तु मेरा अनुग्रह नामक कृत्य मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं प्राप्त कर सकता। रूद्र को मैंने अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेश, कृत्य, वाहन, आसन आदि में मेरे ही समान हैं। पूर्वकाल में मैंने अपने स्वरूप भूत मन्त्र का उपदेश किया था, जो ओंकार के नाम से प्रसिद्ध है। वह परम मंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही स्मरण होता है।

1-5-मेरे उत्तरपूर्वी मुख से अकार का, पश्चिम के मुख से उकार का, दक्षिण के मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद प्रकट हुआ है। इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ।इन सभी अवयवों से युक्त होकर वह प्रणव

‘ऊँ ‘नामक एक अक्षर हो गया। यह सम्पूर्ण नाम-रूपात्मक जगत, वेद, स्त्री- पुरूष वर्ग, दोनों कुल इस प्रणव मन्त्र से व्याप्त हैं। यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है। वह अकारादि क्रम से और मकरादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया। इसी से पंचाक्षर मन्त्र ‘ऊँ’ नम: शिवाय’की उत्पत्ति हुई। जो मेरे सकल स्वरूप का बोधक है।उसी से त्रिपदा गायत्री

का प्राकट्य हुआ।उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए। उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले।इस प्रणव पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्दी होती है। इसके द्वारा भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं''।

पंचमुखी शिव;-

02 FACTS;-

1-पांच मुखों के कारण शिव कहलाते हैं 'पंचानन' और 'पंचवक्त्र'।शिव ने जीवन उत्पन्न किया; इसलिए कहलाएं पंचमुखी ।श्रृष्टि के आरंभ में जब कुछ नहीं था...तब प्रथम देव शिव ने ही श्रृष्टि की रचना के लिए पंच मुख धारण किएं। त्रिनेत्रधारी शिव के पांच मुख से ही पांच तत्वों जल, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । इसलिए श्री शिव के ये पांच मुख पंचतत्व माने गए हैं।भगवान शिव के पांच मुख-सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान हुए और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए ।

2-भगवान शिव के पांच मुख चारों दिशाओं में और पांचवा मध्य में है ।भगवान शिव की पांच विशिष्ट मूर्तियां (मुख) विभिन्न कल्पों में लिए गए उनके अवतार हैं।जगत के कल्याण की कामना से भगवान सदाशिव के विभिन्न कल्पों में अनेक अवतार हुए जिनमें उनके सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान अवतार प्रमुख हैं । ये ही भगवान शिव की पांच विशिष्ट मूर्तियां (मुख) हैं । अपने पांच मुख रूपी विशिष्ट मूर्तियों का रहस्य बताते हुए भगवान शिव माता अन्नपूर्णा से कहते हैं-'ब्रह्मा मेरे अनुपम भक्त हैं।उनकी भक्ति के कारण मैं प्रत्येक कल्प में दर्शन देकर उनकी समस्या का समाधान किया करता हूँ ।'

ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात – ये भगवान शिव की पांच मूर्तियाँ हैं।यही उनके पांच मुख कहे जाते हैं।''

पंचमुखी शिव का वर्णन ;-

05 FACTS;-

1-सद्योजात;-

भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात है।यह मुख बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार हैं।पश्चिम मुख सद्योजात श्वेत वर्ण का,तथा पृथ्वी तत्व का स्वामी हैं।उनकी प्रथम मूर्ति क्रीडामूर्ति है और तपस्या की अधिष्टात्री है।श्वेतलोहित नामक उन्नीसवें कल्प में ब्रह्मा सृष्टि रचना के ज्ञान के लिए परब्रह्म का ध्यान कर रहे थे ।तब भगवान शंकर ने उन्हें अपने पहले अवतार 'सद्योजात रूप' में दर्शन दिए।इसमें वे एक श्वेत और लोहित वर्ण वाले शिखाधारी कुमार के रूप में प्रकट हुए और 'सद्योजात मन्त्र' देकर ब्रह्माजी को सृष्टि रचना के योग्य बनाया ।

2-वामदेव;-

उत्तर दिशा का मुख वामदेव है । वामदेव अर्थात् विकारों का नाश करने वाला ।उत्तर मुख वामदेव कृष्ण वर्ण का तथा जल तत्व का स्वामी हैं।यह दूसरी मूर्ति तपस्या की अधिष्टात्री है।रक्त नामक बीसवें कल्प में रक्तवर्ण ब्रह्मा पुत्र की कामना से परमेश्वर का ध्यान कर रहे थे । उसी समय उनसे एक पुत्र प्रकट हुआ जिसने लाल रंग के वस्त्र-आभूषण धारण किये थे । यह भगवान शंकर का 'वामदेव रूप' था और दूसरा अवतार था जो ब्रह्माजी के जीव-सुलभ अज्ञान को हटाने के लिए तथा सृष्टि रचना की शक्ति देने के लिए था ।

3-अघोर;-

दक्षिण मुख अघोर है। अघोर को शिव का पर्याय माना गया है।अघोर का अर्थ है , ” जो घोर ना हो ” ।अघोर शब्द को घोर का नकार माना गया है , अघोर का अभाव घोर है ।तीसरी मूर्ति लोकसंहार की अधिष्टात्री है।दक्षिण मुख अघोर नील वर्ण का तथाअग्नि तत्व का स्वामी हैं।शिव' नामक कल्प में भगवान शिव का 'अघोर' नामक चौथा अवतार हुआ। ब्रह्मा जब सृष्टि रचना के लिए चिन्तित हुए, तब भगवान ने उन्हें 'अघोर रूप' में दर्शन दिए। भगवान शिव का अघोर रूप महाभयंकर है जिसमें वे कृष्ण-पिंगल वर्ण वाले, काला वस्त्र, काली पगड़ी, काला यज्ञोपवीत और काला मुकुट धारण किये हैं तथा मस्तक पर चंदन भी काले रंग का है। भगवान शंकर ने ब्रह्माजी को 'अघोर मन्त्र' दिया जिससे वे सृष्टि रचना में समर्थ हुए ।

4-तत्पुरुष ;-

भगवान शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष है । तत्पुरुष का अर्थ है.. अपने आत्मा में स्थित रहना ।तत्पुरुष पीत वर्ण का तथा वायु तत्व का स्वामी हैं।यह चौथी मूर्ति अहंकार की अधिष्टात्री है।भगवान शिव का 'तत्पुरुष' नामक तीसरा अवतार पीतवासा नाम के इक्कीसवें कल्प में हुआ । इसमें ब्रह्मा पीले वस्त्र, पीली माला, पीला चंदन धारण कर जब सृष्टि रचना के लिए व्यग्र होने लगे तब भगवान शंकर ने उन्हें 'तत्पुरुष रूप' में दर्शन देकर इस गायत्री-मन्त्र का उपदेश किया-'तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रयोदयात् ।'इस मन्त्र के अद्भुत प्रभाव से ब्रह्मा सृष्टि की रचना में समर्थ हुए ।

5- ईशान;-

ऊर्ध्व मुख का नाम ईशान है । ईशान का अर्थ है स्वामी ।ईशान दुग्ध जैसे रंग का तथा आकाश तत्व का स्वामी हैं।विश्वरूप नामक कल्प में भगवान शिव का 'ईशान' नामक पांचवा अवतार हुआ ।पांचवी मूर्ति ज्ञान प्रधान होने के कारण सम्पूर्ण संसार को आच्छन्न रखती है। ब्रह्माजी पुत्र की कामना से मन-ही-मन शिवजी का ध्यान कर रहे थे, उसी समय सिंहनाद करती हुईं सरस्वती सहित भगवान 'ईशान' प्रकट हुए जिनका स्फटिक के समान उज्ज्वल वर्ण था । भगवान ईशान ने सरस्वती सहित ब्रह्माजी को सन्मार्ग का उपदेश देकर कृतार्थ किया ।

NOTE;-

भगवान शिव के इन पंचमुख के अवतार कथा प्रसंग मनुष्य के अंदर शिव-भक्ति जाग्रत करने के साथ उसकी समस्त मनोकामनाओं को पूरी कर परम गति देने वाला है ।

शिव स्वरूप का रहस्य;-

07 FACTS;-

1-शिव स्वरूप का रहस्य या महत्व अनायास नहीं है।केवल कर्मकांड भी नहीं है बल्कि इनके राज गहरे हैं। शिव पूरक हैं;शिवत्व पूर्णता है।इनके व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के जीवन में खास महत्व हैं।शिव के प्रचलित स्वरूप को ही देखें तो उनके हर अंग,आभूषणऔर मुद्रा का महत्व है।जैसे - जैसे आप इसे समझते हैं आप शिवमय होते जाते हैं।शिवत्व आपमें उतरता जाता है और आप सरस हो जाते हैं।

2-केवल शिव ही हैं जिनकी आराधना के साथ अमर होने का वरदान जुड़ा हुआ है।वैसे तो शिव इतने व्यापक हैं कि उनके लेशमात्र का वर्णन करने की योग्यता किसी में नहीं है ।शिव की वेश-भूषा हैं .... सिर पर गंगा और चंद्रमा, माथे पर तीसरी खुली हुई आंख,कंठ और हाथों में सर्प,कंधे पर जनेउ,कमर में वाघम्बर,बाघम्बर का आसन,पद्मासन में भैरवी मुद्रा,त्रिशूल और डमरू।साथ में माता पार्वती और उनका वाहन नंदी।यह शिव की वाह्य छवि है जिसे हम देखते हैं।अगर हमें शिव को निरूपित करना हो तो हम कुछ ऐसी ही छवि बनाएंगे। सिर के जिस स्थान पर गंगा को दर्शाया जाता है भारतीय शरीर शास्त्र (तंत्र)में उसे सहस्रार चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है।

3-जब बच्चा पैदा होता है तो सिर के मध्य भाग में एक स्थान बहुत कोमल होता है।बहुत दिनों तक उस स्थान पर होने वाले स्पंदन को प्रकट रूप में देखा जा सकता है।जैसे जैसे हमारी कोमलता नष्ट होने लगती है धीरे-धीरे वह स्थान भी कठोर हो जाता है।वह स्थान तंत्र में सहस्रार के रूप में परिभाषित है।सहस्रार का सामान्य अर्थ समझना हो तो उसे सहस्रदल कमल कह सकते है।वह अमरता का स्रोत है।सिर के उस हिस्से की बनावट ऐसी है जैसी कमल की पंखुड़ियां।कमल पैदा होता है पानी में। जल का पवित्रतम रूप हैं गंगा और गंगा का उद्गम क्षेत्र है शिव की जटा।इसका मतलब यह हुआ कि गंगा को वहां स्थापित करने के पीछे कारण हैं।हम प्रतीक रूप में गंगा को देखकर यह समझ लें कि वह स्थान अमरता का केन्द्र है।उस केन्द्र तक पहुंचना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

4-इसके लिए शिव ही साधना की अनेक विधियां बताते हैं जो विभिन्नशास्त्रों में वर्णित हैं।सामान्य जीवन में गंगा का क्या महत्व है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।उससे थोड़ा नीचे चंद्रमा स्थापित हैं।शिव के शरीर में जिस स्थान पर चंद्रमा का दर्शन होता है तंत्र में उस स्थान को बिन्दु विसर्ग कहते हैं।भौतिक शरीर में यह स्थान बुद्धि का केन्द्र है।चंद्रमा का स्वभाव शीतल है।बुद्धि शीतल हो,शांत हो...चंद्रमा इसी बात का संकेत हैं।कंठ और भुजाओं पर सर्प की माला।संभवत: शिव की भारतीय मानस में स्थापना का ही परिणाम है कि सांप का सामान्य जीवन में बड़ा आदर है।सांपों का इतना आदर दुनिया के शायद ही किसी देश में हो।सांप पर्यावास के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण जीव होता है।संभवत: सांप ही एकमात्र ऐसा जीव होता है जो अपनी पूरा कायाकल्प कर लेता है।

5-कंठ में जो चक्र स्थापित है उसका नाम है विशुद्धि।विशुद्धि चक्र शरीर में कई तरह के रसों का उत्पादन करता है जो पाचक रसों के रूप में जाने जाते हैं।अगर इन पाचक रसों में व्यवधान आ जाए तो व्यक्ति में कई तरह के रोग घर कर जाते हैं।तंत्र के साधक ऐसा कहते हैं कि जब विशुद्धि चक्र जागृत हो जाता है तो व्यक्ति में विष को पचा लेने की क्षमता अपने-आप आ जाती है।वह रसों का स्वामी हो जाता है।सांप को प्रतीक रूप में चुनने का एक और अर्थ है।शरीर के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति का स्थान होता है।उस स्थान को मूलाधार चक्र कहते हैं।मूलाधार चक्र जागृत होने पर वह शक्ति उर्ध्वगामी होती है और शरीर के सारे चक्रों का भेदन करती हुई सहस्रार में जाकर विस्फोट करती है।

6-इस सुसुप्त शक्ति का जो आकार है वह कुंडली मारकर बैठे हुए सर्प जैसी है।इड़ा और पिंगड़ा नाड़ियां सुषुम्ना को लपेटे हुए उपर की तरफ चलती हैं।इसलिए सांप को शिव के गले में प्रतीक रूप में रखने के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण है।इसी तरह शिव के माथे पर एक अधखुली आंख के दर्शन होते हैं।उसे त्रिनेत्र कहते हैं।शिव का यह त्रिनेत्र तंत्र में आज्ञा चक्र के रूप में परिभाषित है।आज्ञा चक्र सभी चक्रों का नियंत्रण करता है।उच्चतर साधनाओं के लिए त्रिनेत्र का खुलना जरूरी है।क्योंकि साधना के दौरान यह शरीर एक अनंत उर्जा का स्रोत बनता चला जाता है।

7-इस उर्जा का समायोजन त्रिनेत्र के खुलने पर ही हो सकता है।अन्यथा कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि कोई व्यक्ति साधना के दौरान अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है।त्रिनेत्र अथवा आज्ञा चक्र के खुलने पर हम एक नये ब्रह्माण्ड में पहुंच जाते हैं।इन दो आंखों से हम जो जगत देख पाते हैं त्रिनेत्र उसके परे के जगत से हमारा साक्षात्कार करवाता है।शिव के भाल पर त्रिनेत्र दर्शाने का संभवत: यही अर्थ है।क्योंकि जिन्हें तंत्र में चक्रों के रूप में परिभाषित किया गया है उनका कोई आकार तो है नहीं।वह उर्जा केन्द्र है।शिव में उन उर्जा केन्द्रों को उनके व्यवहार के अनुकूल दर्शाया गया है।आज्ञा चक्र का जो व्यवहार है उसको त्रिनेत्र के रूप इसीलिए दिखाया गया है।

शिव के 108 नाम ;-

1-शिव - कल्याण स्वरूप 2-महेश्वर - माया के अधीश्वर 3-शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले 4-पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले 5-शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले 6-वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले 7-विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले 8-कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले 9-नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले 10-शंकर - सबका कल्याण करने वाले 11-शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले 12-खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले 13-विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी 14-शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले 15-अंबिकानाथ - भगवति के पति 16-श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले 17-भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले 18-भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले 19-शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले 20-त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी 21-शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले 22-शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय 23-उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले 24-कपाली - कपाल धारण करने वाले 25-कामारी - कामदेव के शत्रु 26-अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले 27-गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले 28-ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले 29-कालकाल - काल के भी काल 30-कृपानिधि - करूणा की खान 31-भीम - भयंकर रूप वाले 32-परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले 33-मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले 34-जटाधर - जटा रखने वाले 35-कैलाशवासी - कैलाश के निवासी 36-कवची - कवच धारण करने वाले 37-कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले 38-त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले 39-वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले 40-बैल की सवारी वाले 41-भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले 42-सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले 43-स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले 44-त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले 45-अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है 46-सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले 47-परमात्मा - सबका अपना आपा 48-सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले 49-हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले 50-यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले 51-सोम - उमा के सहित रूप वाले 52-पंचवक्त्र - पांच मुख वाले 53-सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले 54-विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर 55-वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले 56-गणनाथ - गणों के स्वामी 57-प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले 58-हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले 59-दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले 60-गिरीश - पहाड़ों के मालिक 61-गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले 62-अनघ - पापरहित 63-भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले 64-भर्ग - पापों को भूंज देने वाले 65-गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले 66-गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी 67-कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले 68-पुराराति - पुरों का नाश करने वाले 69-भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न 70-प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति 71-मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले 72-सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले 73-जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले 74-जगद्गुरू - जगत् के गुरू 75-व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले 76-महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता 77-चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले 78-रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले 79-भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी 80-स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले 81-अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले 82-दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले 83-अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले 84-अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले 85-सात्त्विक - सत्व गुण वाले 86-शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले 87-शाश्वत - नित्य रहने वाले 88-खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले 89-अज - जन्म रहित 90-पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले 91-मृड - सुखस्वरूप वाले 92-पशुपति - पशुओं के मालिक 93-देव - स्वयं प्रकाश रूप 94-महादेव - देवों के भी देव 95-अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले 96-हरि - विष्णुस्वरूप 97-पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले 98-अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले 99-दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले 100-हर - पापों व तापों को हरने वाले 101-भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले 102-अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले 103-सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले 104-सहस्रपाद - अनंत पैर वाले 105-अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले 106-अनंत - देशकाल,वस्तुरूपी परिछेद से रहित 107-तारक - सबको तारने वाला 108-परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

न (मेरी) मृत्यु है, न इसकी कोई शंका है,न मेरे लिए कोई जातिभेद है, न (मेरे) कोई पिता है,न ही माता है,न (मेरा) जन्म है | न (मेरा) भाई है,न दोस्त है न ही कोई गुरु या शिष्य है, मैं कल्याणकारी,चिदानंद रूप शिव हूँ| शिव हूँ केवल शिव हूँ शिव हूँ, केवल शिव,कल्याणकारी शिव हूँ,केवल शिव!!

मैं विकारों से रहित, विकल्पों से रहित,निराकार,परम एश्वर्य युक्त,सर्वदा यत्किंच सभी में सर्वत्र, समान रूप में ब्याप्त हूँ, मैं इच्छा रहित,सर्व संपन्न,जन्म -मुक्ति से परे,सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ केवल,शिव न मृत्यु,न संदेह,न तो जाति-भेद (खंडित) हूँ,न पिता न माता, न जन्म न बन्धु,न मित्र न गुरु न शिष्य ही हूँ; मैं तो केवल सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ,केवल शिव !!

....SHIVOHAM....


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