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चैतन्‍य के तीन रूप


उपनिषद सूत्र:-

''उत्‍पत्‍ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं।

मिट्टी से बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी की तरह, सोने से बनी हुई वस्तुओं में सोने की तरह,और सूत से बनी हुई वस्तुओं में सूत की तरह,समस्त सृष्टि में पूर्ण और व्यापक बना हुआ जो चैतन्य है, वह अनंत कहलाता है।

जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है, अपरिमित आनंद का समुद्र है,

और शेष रहे सुख का स्वरूप है,वह आनंद कहलाता है।''

स परम सत्ता को, उस ब्रह्म को, उस अविनाशी को ऋषि ने ज्ञान कहा है। लेकिन जिस ज्ञान को हम जानते हैं, उस ज्ञान से उसका कोई भी संबंध नहीं है। हम किसे ज्ञान कहते हैं उसे ठीक से समझ लें, तो ऋषि किसे ज्ञान कहता है उसे समझना आसान हो जाएगा।

हमारा ज्ञान--पहली बात तो यह है--सदा किसी ज्ञेय का होता है; अकेला ज्ञान हमें कभी नहीं होता। हम सदा किसी वस्तु के संबंध में ज्ञान को उपलब्ध होते हैं; अकेला ज्ञान कभी नहीं होता। वृक्ष को जानते हैं, मनुष्य को जानते हैं, राह पर पड़े पत्थर को जानते हैं, आकाश के सूर्य को जानते हैं; लेकिन जब भी जानते हैं तो कुछ जानते हैं, जानना शुद्ध कभी नहीं जानते।

और जब भी हम कुछ जानते हैं तो उसे ऋषियों ने अशुद्ध ज्ञान कहा है; क्योंकि वह जो कुछ है, वह महत्वपूर्ण होता है, ज्ञान महत्वपूर्ण नहीं होता। आकाश में सूर्य को देखते हैं, सूर्य को जानते हैं, तो सूर्य महत्वपूर्ण होता है, जानना महत्वपूर्ण नहीं होता।

हमारा यह जो ज्ञान है, अगर सारे विषय हम से छीन लिए जाएं तो तत्काल खो जाएगा; क्योंकि विषय के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह ज्ञान हम पर निर्भर नही है, विषय पर निर्भर है। अगर सारे विषय अलग कर लिए जाएं और चारों तरफ शून्य हो तो हमारा ज्ञान खो जाएगा; क्योंकि हमने ऐसा कोई ज्ञान तो जाना ही नहीं है जो अपने में ही ठहरा हुआ हो; हमारा सारा ज्ञान वस्तुओं में ठहरा हुआ है-- ऑब्जेक्टसमें।

तो यह बिलकुल सीधा सा.. सीधा सा, स्पष्ट सा विचार है कि अगर सारे पदार्थ अलग कर लिए जाएं तो हमारा ज्ञान भी खो जाएगा। यह तो बड़े मजे की बात है. इसका अर्थ हुआ कि ज्ञान हममें निर्भर नहीं है, जो पदार्थ हम जानते थे उसमें निर्भर था। यह है हमारा ज्ञान।

जब ब्रह्म को ज्ञान कहता है ऋषि तो ऐसे ज्ञान से प्रयोजन नहीं है; क्योंकि जो ज्ञान पर-निर्भर हो, उसको ऋषियों ने अज्ञान कहा है। जो ज्ञान दूसरे पर निर्भर है, अगर ज्ञान के लिए भी मैं स्वतंत्र और मालिक नहीं हूं तो फिर और किस चीज के लिए स्वतंत्रता और मालकियत हो सकती है?

यह ज्ञान हमारे और -सारे अनुभवों के साथ जुड़ा हुआ है। हमारे सारे अनुभव इस ज्ञान जैसे ही हैं। कोई प्रेम करने को न हो तो क्या आप उस समय प्रेम के क्षण में हो सकते हैं? कोई प्रेमी न हो, तो क्या आप प्रेम कर सकते हैं? शायद आप सोचेंगे, कर सकते हैं; लेकिन आपको खयाल होना चाहिए, तब भी आप तभी कर सकेंगे जब चित्त में आप पहले प्रेमी की कल्पना कर लें, नहीं तो नहीं कर सकेंगे। वह कल्पना सहारा बनेगी फिर भी। आप अकेले होकर प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं। तो ऐसा प्रेम भी क्या आपका स्वभाव होगा? ऐसा प्रेम भी दूसरे पर निर्भर हो गया।

इसलिए प्रेमी जिस बुरी तरह गुलाम हो जाते हैं इस जमीन पर और कोई गुलाम नहीं होता -हालांकि प्रेम से मिलनी चाहिए मालकियत, प्रेम से हो जाना चाहिए व्यक्ति परम स्वतंत्र, क्योंकि प्रेम तो बड़ी संपदा है। लेकिन उस संपदा को हम जानते ही नहीं। हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह प्रेम सदा दूसरे पर निर्भर होता है। वह इतना निर्भर हो जाता है दूसरे पर कि प्रेम गुलामी बन जाती है। और प्रेम स्वतंत्रता है। तो हमारा प्रेम, और जिस प्रेम को स्वतंत्रता कहते हैं जीसस या बुद्ध, उसमें कोई संबंध नहीं है।

फूल को देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है, सूरज को डूबते देखते हैं तो हमें सौंदर्य का बोध होता है; लेकिन हमने क्या कभी ऐसा सौंदर्य जाना है जो किसी वस्तु पर निर्भर न हो--सीधा, शुद्ध सौंदर्य हो? नहीं, हमने ऐसा कोई सौंदर्य नहीं जाना। हमारी सब अनुभूतियां पर-निर्भर हैं, और इन्हीं अनुभूतियों का हम जोड़ हैं।

तो हमारा कोई होना भी है, हमारा कोई व्यक्तित्व भी है, या हम केवल जोड़ हैं?... जोड़ अनुभवों के जो दूसरों पर निर्भर हैं। अगर फूल न खिलें तो हमारा सौंदर्य खो जाए, अगर वस्तुएं न, हों तो हमारा ज्ञान खो जाए, अगर प्रेम-पात्र न हो तो हमारा प्रेम खो जाए।

हममें जो भी है वह दूसरे से मिला है, हम बिलकुल उधार हैं। और इसीलिए हमें जीवन भर दूसरों की तरफ मोहताज होकर खड़ा रहना पड़ता है, क्योंकि डर लगा रहता है पूरे समय कि अगर दूसरे ने हाथ खींच लिया तो हम खिसके और गए!

जब आपका प्रेमी मरता है, तो जो आपको पीड़ा होती है वह प्रेमी के मरने की नहीं है, वह आपके प्रेम के मर जाने की है, क्योंकि बिना प्रेमी के आप कोई प्रेम तो जानते नहीं। जब आपसे धन छिनता है तो धन के छिनने की पीड़ा नहीं है, धन के छिनने के साथ ही आपका धनी होना छिन जाता है। अगर एक पंडित से उसकी किताब छीन लो तो किताब ही नहीं छिनती, पंडित का ज्ञान ही छिन जाता है। इसलिए पंडित अपनी किताब को अपने से भी ऊपर मान कर चलता है; अपने सिर पर रख कर चलता है। किताब के चरणों में सिर रखता है। किताब को पैर लग जाए तो घबडा जाता है। किताब पर इतना निर्भर है ज्ञान? तो यह ज्ञान ही नहीं है।

तो पहली बात तो यह कि हमारे सारे अनुभव उधार हैं.. हम ही उधार हैं। एक-एक अनुभव को हम खींच लें तो हम ऐसे ही समाप्त हो जाएंगे जैसे किसी मशीन से एक-एक पुर्जा अलग करते जाएं, थोड़ी देर में मशीन नदारद हो जाएगी। मशीन थी ही नहीं, सिर्फ जोड़ थी।

और जो व्यक्ति सिर्फ जोड़ है उसे उस आत्मा का कोई अनुभव नहीं होगा जो कि परम स्वतंत्र है।

तो जिस ज्ञान को ऋषि कहते हैं : ब्रह्म ज्ञान है, उस ज्ञान को हम समझें कि वह ज्ञान क्या है। तो पहली तो बात उस ज्ञान की यह है कि वह गेय पर निर्भर नहीं है, वह किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है।

जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर होता है तो ज्ञान एक संबंध होता है। और जब ज्ञान ज्ञेय पर निर्भर नहीं होता तो ज्ञान एक अवस्था होता है। अवस्था और संबंध का फर्क समझ लेना।

मैंने कहा कि मैं आपको प्रेम करता हूं। अगर आप नहीं हैं तो मेरा प्रेम खो जाएगा, क्योंकि मेरा प्रेम एक संबंध है, जिसमें दो का जुड़ना जरूरी है; दो हों तो बीच में प्रेम का संबंध जुड़ जाएगा; एक हट जहर तो संबंध तत्काल गिर जाएगा। हम नदी के एक किनारे पर थोड़े ही पुल खड़ाकर सकते हैं! दूसरा किनारा चाहिए। पुल केवल बीच का संबंध है।

लेकिन बुद्ध बैठे हैं एकांत में एक वृक्ष के तले, नहीं है कोई चारों तरफ--इस समय भी उनका प्रेम उतना ही है जब पास से हजारों लोग गुजरते हों। इस प्रेम में रत्ती भर भी भेद नहीं है। यह प्रेम संबंध नहीं है, यह बुद्ध की अवस्था है। यह प्रेमी से बंधा नहीं है, यह बुद्ध का स्वभाव है। यह प्रेम निर्जन में भी वैसा ही बरसता रहेगा जैसे अनजान-अपरिचित रास्ते पर, जहां कोई राही भी न गुजरता हो, कोई फूल खिले और उसकी सुगंध बरसती रहे। इसलिए नहीं कि कोई सुगंध लेने वाला गुजरेगा तब फूल की सुगंध घेरेगी। जैसे अंधेरे में एक दीया जले, कोई देखने वाला न हो और दीया जलता रहे, क्योंकि दीये के जलने का देखने वाले से कोई संबंध नहीं है, दीये का जलना उसका स्वभाव है।

हम पृथ्वी पर नहीं थे तब भी सूरज ऐसे ही चमकता था, और हम पृथ्वी पर नहीं होंगे तब भी ऐसा ही चमकता रहेगा, सूरज के उगने में हमारे देखने का कोई संबंध नहीं है, सूरज का चमकना उसका स्वभाव है।

बुद्ध जैसा व्यक्ति भी प्रेम से भरा है.. वही सच में प्रेम से भरा है, क्योंकि उसके प्रेम को छीना नहीं जा सकता; वह अकेला भी उतना ही प्रेमपूर्ण है। यह प्रेम सेतु नहीं है, संबंध नहीं है, यह प्रेम चित्त की अवस्था है; यह चैतन्य की अवस्था है।

जब ब्रह्म को कहा ज्ञान, या परम आत्मा को कहा ज्ञान तो उसका अर्थ है कि ज्ञान स्वभाव है; वह कोई संबंध नहीं है। इसलिए ऋषि कहता है:

''उत्पत्ति और विनाश से रहित नित्य चैतन्य को ज्ञान कहते हैं। ''

संबंध तो उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है, सिर्फ स्वभाव उत्पन्न नहीं होता और विनष्ट नहीं होता।

मैं आपको प्रेम करता हूं कल नहीं करता था, आज करता हूं। जन्मा प्रेम। और बड़ा पागलपन तब पैदा होता है जब हम किसी जन्मी हुई चीज को शाश्वत बनाना चाहते हैं। तब पागलपन हो जाता है। जन्मी चीज तो मरेगी ही.. जिस दिन जन्मी उसी दिन जान लेना था कि मरेगी। जिस दिन हम जन्म के बैंड-बाजे बजाते हैं, उसी दिन अरथी उठने की तैयारी हो जाती है। समय का फासला थोड़ा लगेगा। फूल खिल रहा है.. तभी उसके गिरने की शुरुआत हो गई; झड्ने की शुरुआत हो गई।

जन्म के साथ तो मृत्यु बंधी है; जन्म है एक छोर, मृत्यु है दूसरा छोर। तो जो प्रेम जन्मता है वह मरेगा भी; और जिसकी उत्पत्ति होगी उसका विनाश भी हो जाएगा। जो ज्ञान पैदा होता है... और जान पैदा होता है। आख खोली, सामने फूल खिला हुआ दिखाई पड़ा--ज्ञान हुआ कि फूल है, सुंदर है, सुगंधित है--यह जन्म हुआ। यह ज्ञान भी मरेगा। यह फूल भी मरेगा, यह ज्ञान भी मरेगा।

ब्रह्म तो ऐसा ज्ञान होगा, जो न जन्मता है और न मरता है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह ज्ञान किसी वस्तु के संदर्भ में नहीं होगा, वह ज्ञान स्वभाव ही होगा; वह सदा से ही होगा।

झेन फकीर अपने साधकों को कहते हैं कि अपने ओरिजिनल फेस, अपने मौलिक चेहरे की खोज करो। जब तुम जन्मे नहीं थे तब तुम्हारा चेहरा कैसा था, और जब तुम मर जाओगे तब तुम्हारा चेहरा कैसा होगा? इस पर ध्यान करवाते हैं।

बड़ा कठिन है! क्या सोचिएगा? क्या ध्यान करिएगा? ध्यान करवाते हैं इसीलिए ताकि इसको सोचते-सोचते सोचना-विचारना बंद हो जाए; क्योंकि जो चीज नहीं सोची जा सकती, अगर उस पर सोचेंगे तो एक घड़ी आ जाएगी जब सोचना बंद हो जाएगा।

झेन फकीर कहते हैं, एक हाथ की ताली कैसे बजेगी, इस पर ध्यान करो। एक हाथ की ताली तो बज नहीं सकती; पर वे कहते हैं, इसी पर ध्यान करो। अगर साधक कहता है, यह तो बज ही नहीं सकती, तो वे कहते हैं, तुम इसकी फिकर छोड़ो कि बज सकती है कि नहीं बज सकती है, तुम पहले कोशिश करो, हम कहते हैं कि बज सकती है। तुम पहले कोशिश करो, ध्यान करो.. महीनों। इस बिलकुल फिजूल सी बात पर ध्यान करवाते हैं कि एक हाथ की ताली बज सकती है.. कैसे बजेगी? नहीं का तो सवाल ही नहीं है।

साधक लौट-लौट कर आता है और कहता है कि चौबीस घंटे हो गए.. नहीं बज सकती। गुरु कहता है : इसकी तुम फिकर ही मत करो कि नहीं बज सकती; मैं पूछता हूं :

कैसे बज सकती है? तुम जाओ और ध्यान करो।

महीनों बीत जाते हैं... सिर चकराने लगता है, बुद्धि घूमने लगती है, विचार काम नहीं आते, सब ठप्प हो जाता है भीतर--सोचते... सोचते... सोचते... और यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ने लगता है--एक घड़ी आती है कि इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस दिशा में सोचना असंभव है। और सोचना एक क्षण को भी बंद अगर हो जाता है तो वह साधक भागा हुआ आता है और वह कहता है : ताली बज गई; क्योंकि जैसे ही विचार बंद होता है वैसे ही स्वभाव का दर्शन हो जाता है।

खोजो अपना चेहरा जो जन्म के पहले था। वह नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि जन्म के पहले कोई चेहरा ही नहीं था। जन्म ही तो चेहरे को जन्म देता है। और मृत्यु के बाद कोई चेहरा नहीं होगा, क्योंकि मृत्यु चेहरे को छीन लेती है। सोचो! सोचते... सोचते... सोचते घडी आती है कि सोचना टूट जाता है, श्रृंखला बंद हो जाती है; और तब जो दिखाई पड़ता है वही मौलिक चेहरा है; वही ओरिजिनल फेस है--वह स्वभाव, वह स्वरूप जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा।

'जो उत्पत्ति को नहीं, विनाश को नहीं उपलब्ध होता, उस नित्य चैतन्य को ज्ञान कहा है।'

तो यहां ज्ञान का संबंध चैतन्य से है, जानने से नहीं; क्योंकि जानी तो सदा कोई चीज जाती है। यहां ज्ञान से हम अर्थ लें चैतन्य का, बुद्धत्व का।

'ज्ञान' शब्द तो हमारा विकृत हो गया है, क्योंकि हम उसे सदा किसी और चीज के जानने से बांधते हैं। अगर आपके बाबत कोई कहे कि बहुत बड़े ज्ञानी हैं तो कोई फौरन पूछेगा. किस बात के? अगर आप कहें, नहीं किसी बात के नहीं हैं, बस इतनी हैं। तो कोई भरोसा नहीं करेगा कि यह क्या मतलब हुआ? क्या जानते हैं? चिकित्साशास्त्र के ज्ञानी हैं कि अर्थशास्त्र के ज्ञानी हैं कि दर्शनशास्त्र के ज्ञानी हैं कि धर्मशास्त्र के ज्ञानी हैं? आप कहें कि नहीं, वे बस ज्ञानी हैं, तो बात बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ेगी, क्योंकि ज्ञान सदा हम किसी चीज का बांधते हैं; किसी से जोडते हैं ज्ञान को।

इस ज्ञान से ब्रह्म को दी गई परिभाषा वाले ज्ञान का संबंध नहीं है। वह ज्ञान है उत्पत्ति- विनाश से रहित नित्य चैतन्य। ' चैतन्य ' ठीक शब्द है उस ज्ञान के लिए... अवेयरनेस, या उससे भी बेहतर होगा. अलर्टनेस; क्योंकि अवेयरनेस में भी ऐसा लगता है किसी चीज के बाबत हम बंधे हुए हैं। अलर्टनेस... सिर्फ बोधमात्र। दीया जल रहा है, कोई चीज प्रकाशित नहीं हो रही है; सिर्फ दीया जल रहा है-- आस-पास कुछ भी नहीं है जिस पर प्रकाश पड़े। प्रकाशित कुछ भी नहीं हो रहा, बस प्रकाश है। उदाहरण के लिए कह रहा हूँ ताकि खयाल में आ जाए कि उस ज्ञान का क्या अर्थ है।

'' मिट्टी से बनी हुई वस्तुओं में मिट्टी की तरह, सोने से बनी हुई वस्तुओं में सोने की तरह और सूत से बनी हुई वस्तुओं में सूत की तरह समस्त सृष्टि में पूर्ण और व्यापक बना हुआ जो चैतन्य है, वह अनंत कहलाता है। ''

और यह जो चैतन्य है, यह व्यक्ति की सीमा में आबद्ध नहीं है। हम यहां बैठे हैं इतने लोग; हमारा इतना भिन्न- भिन्न होना हमारे शरीरों के कारण है, हमारे चैतन्य के कारण नहीं। एक कमरे में हम हजार दीये जला दें तो हजार दीयों में जो फर्क होगा वह मिट्टी के दीये, तेल, बाती के कारण होगा--लेकिन कमरे का जो प्रकाश है वह तो एक होगा। हजार दीये हमने जलाए एक कमरे में--हर दीया अलग है, क्योंकि मिट्टी का ढंग, आकार अलग है; हर दीये का तेल अलग है, हर दीये की बाती अलग है, लेकिन क्या कमरे में आप फर्क कर पाएंगे कि कौन से दीये का प्रकाश कौन सा है? प्रकाश तो एक होगा, व्यापक होगा-- दीये अलग, प्रकाश एक होगा।

हमारा भी जो भेद है वह दीयों का भेद है। शरीर की माटी अलग, आकृति अलग, शरीर में पडा हुआ ईंधन अलग, शरीर की बाती अलग, लेकिन वह जो चैतन्य है, वह जो प्रकाश है हम सबके भीतर वह एक है। जितने हम भीतर जाएंगे उतने हम ऐक्य को उपलब्ध होते चले जाते हैं और जितने हम बाहर आएंगे उतनी अनेकता को उपलब्ध होते चले जाते हैं।

तो ऋषि कहता है ' सोने में सोने की तरह, मिट्टी में मिट्टी की तरह है, लेकिन जो समाया है वह एक ही है। ' अब तो वैज्ञानिक भी इस बात के लिए राजी होंगे। आज से पचास साल पहले राजी नहीं होते थे, क्योंकि विज्ञान कहता था, एक चीज दूसरी में नहीं बदली जा सकती। और जो ऐसा मानते थे, बदली जा सकती है, वे सिर्फ नासमझ समझे जाते थे। पश्चिम में उस तरह के लोग कहे जाते थे : अल्केमिस्ट। पूरब में भी उस तरह के खोजी थे जिनको हम पारस- पत्थर के खोजी कहते थे। वे एक ऐसे पत्थर की तलाश मे लगे थे वे लोग... कि लोहे को छू दो तो सोना हो जाए। अल्केमिस्ट भी इस खोज में लगे थे कि कोई ऐसा राज मिल जाए कि कम कीमती धातुएं बहुमूल्य धातुओं में बदली जा सकें।

लेकिन विज्ञान पिछले दो सौ साल से कह रहा है कि यह सब पागलपन है, यह हो नहीं सकता। मिट्टी कैसे सोना हो सकती है? कोई उपाय नहीं दिखता। और जो भी इस तरह की बातें करते हैं, वे या तो नासमझ हैं, या चालाक हैं, और लोगों को धोखा देते हैं।

अगर वे लोहे को सोना भी बनाते हैं तो उसमें कोई तरकीब है। लोहा तो सोना बन नहीं सकता; वह किसी तरह का धोखा और चकमा है।

यहां तक घटनाएं घटीं कि वास्तविक प्रमाण उपलब्ध हो गए, लेकिन फिर भी भरोसे योग्य नहीं समझे जा सके। जर्मनी के एक बहुत बड़े विचारक और वैज्ञानिक, जो कि वर्षों से इस खोज में लगा था कि अल्केमी सरासर झूठ मालूम होती है, एक दिन सुबह बैठा है अपने द्वार पर--हेजन होफ उसका नाम है--और एक आदमी आया और उसने कहा कि मैंने सुना है कि तुम अल्केमी में विश्वास नहीं करते, लेकिन मैं यहीं इसी वक्त लोहे को सोना बना सकता हूं। हेजन होफ ने कहा कि.. मजेदार आदमी मालम पड़ते हो, लेकिन लोहा सोना नहीं बन सकता। या तो दिमाग तुम्हारा खराब है, क्योंकि मैं वर्षों से अध्ययन कर रहा हूं यह असंभव है।

उस आदमी ने कहा अगर मैं बनाऊंगा तो शायद तुम्हें भरोसा न हो। उसने एक छोटी सी डिब्बी खोली और कहा, इसमें जो चीज रखी है, इसके जरा से स्पर्श से लोहा सोना हो जाएगा।

हेजन होफ ने भरोसा ही नहीं किया कि यह आदमी बिलकुल पागल है। लोहा कैसे सोना.. और वह वर्षों से अध्ययन कर रहा है अल्केमी का। फिर भी उसने हाथ फिरा कर उस चीज को देखा, और अपने नाखून में थोड़ा सा खरोंच लिया। और उस आदमी से कहा कि तुम कल आ जाओ, मैं पूरा प्रयोग का इंतजाम करके रखूंगा ताकि कोई धोखा धड़ी न हो सके। और मैं लोहा बुला कर रखूँगा और सोने के पारखियों को बुला कर रखूंगा ताकि कल जांच हो जाए।

वह आदमी कल नहीं आया, लेकिन हेजन होफ हैरान हुआ और जिंदगी भर रोया, क्योंकि नाखून से उसने लोहे को छुआ और वह सोना हो गया। वह जितनी थोड़ी सी उसने खरोंच ले ली थी, वह आदमी दुबारा तो नहीं आया। लेकिन वह जो थोड़ा सा खरोंच लिया था, उससे लोहा सोना हो गया।

हेजन होफ ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मैं जन्मों-जन्मों तक अब उसकी राह देखूंगा उस आदमी की.. लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई। अगर धोखा भी है तो अदभुत है। और अब तो धोखे का कोई उपाय भी नहीं है, क्योंकि वह खरोंच मेरे ही पास थी। और मैंने अपना ही लोहा सोना किया और शुद्धतम सोना बन गया है। सारी परीक्षाएं हो गईं। और लोग हेजन होफ पर शक करने लगे कि यह बेईमानी कर रहा है। इसकी कोई मानने को तैयार नहीं, क्योंकि अब यह भी क्या सिद्ध करे? और यह बोला कि मैं भी नहीं मान सकता हूं घटना हो गई है। लेकिन अब मेरी भी कोई मानने को तैयार नहीं है। और लोगों ने लिखा कि हेजन होफ अल्केमी का अध्ययन करते-करते दिखता है पागल हो गया। इसने अपने को ही धोखा दे लिया है। आदमी ईमानदार है, सिसिंयर है, इस पर शक नहीं करना चाहिए। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि यह खुद ही धोखे में पड गया पढ़ते-पढ़ते दिमाग इसका विभ्रम हो गया। इतना शुद्धतम सोना!

लेकिन इधर बीस वर्षों में विज्ञान इस नतीजे पर पहुंच गया है कि इसमें कोई मौलिक कठिनाई नहीं है। अल्केमिस्ट जो खोजते थे, शायद ठीक ही खोजते थे। पारस-पत्थर की तलाश करने वाले शायद ठीक ही खोजते थे, क्योंकि अब विज्ञान का निर्णय यह है कि प्रत्येक वस्तु एक ही तरह के परमाणुओं से बनी हुई है.. सिर्फ परमाणुओं की मात्रा का भेद है। किसी में सौ--अनुमान कर लें--मात्रा है, तो किसी में एक सौ एक। परमाणु वही हैं-- मौलिक परमाणु जिससे वस्तुएं बनी हैं--इलेक्ट्रांस एक ही हैं।

तो अगर हम किसी भी तरह से एक सौ एक परमाणु वाली वस्तु में से एक परमाणु अलग कर दें, तो सौ परमाणु वाली वस्तु में वह रूपांतरित हो जाएगी।

सोने और लोहे में जो फर्क है, वह स्वभाव का नहीं है; सोने और लोहे में जो फर्क है वह मात्रा का है। अगर लोहे से हम कुछ परमाणु अलग कर लें तो लोहा तत्काल सोना हो जाएगा। या हम सोने में कुछ परमाणु जोड़ दें तो सोना तत्काल लोहा हो जाएगा।

विज्ञान अपनी तलाश से पदार्थ की उस गहराई में पहुंचा है जहां उसका अनुभव है कि पदार्थ का स्वभाव एक है, रूप अलग हैं। वह जो स्वभाव है उसे वह कहता है, वह विद्युत है; वह एक सी है सभी पदार्थों में। हालांकि विज्ञान अभी ऐसी विधि नहीं खोज पाया, जिससे लोहे को हम सोना बनाएं तो वह सस्ता पड़े। वह वास्तविक सोने से बहुत महंगा पड़ेगा, क्योंकि वह परमाणुओं को अलग करना बहुत महंगी प्रक्रिया है--अभी। लेकिन आज नहीं कल, हम कोई सस्ती प्रक्रिया खोज लेंगे, वह दूसरी बात है; उससे कोई संबंध नहीं है। और नहीं भी सस्ती खोज सकेंगे तो एक बात तय है कि लोहा सोना बन सकता है।

कोई भी वस्तु किसी दूसरी वस्तु में परिवर्तित हो सकती है; दूसरी वस्तु में ही नहीं, वस्तु ऊर्जा में परिवर्तित हो सकती है। वही एटामिक एनर्जी का रहस है.. वस्तु को शक्ति में परिवर्तित करना; तो अणु विस्फोट हो जाता है। और एक छोटा सा अणु जब विस्फोट होता है, तो विराट ऊर्जा पैदा होती है।

उपनिषद के ऋषि सदा से यह कहते रहे हैं कि व्यक्ति के भीतर भी जो चैतन्य का अणु है, वह अलग-अलग नहीं है, वह एक ही है--ऊपर के रूप अलग हैं, भीतर जो चेतना है वह एक है।

तो जैसे ही हम भीतर अपने में जाते हैं.. हम अपने के बाहर जाते हैं.. जैसे ही जितने भीतर हम प्रवेश करते हैं, उतने ही हम मिटते जाते हैं और विराट होता चला जाता है। ठीक अपने ही केंद्र पर अपनी मौत हो जाती है। ठीक अपने ही भीतर प्रवेश करना अपनी ही मृत्यु में समा जाना है; क्योंकि हम तो खो जाएंगे.. व्यक्ति की, दीये की तरह हम खो जाएंगे, प्रकाश की तरह हम रह जाएंगे।

वह प्रकाश असीम है।

'वह सोने में सोने की तरह है, मिट्टी में मिट्टी की तरह है, सूत में सूत ही तरह है; और समस्त सृष्टि में व्यापक जो बना है, उसी चैतन्य को हम अनंत कहते हैं।'

अनंत इसलिए कि सीमाओं में वह है जरूर, लेकिन सीमित नहीं है; सोने में है जरूर, लेकिन सोने पर समाप्त नहीं है; आपमें है जरूर, लेकिन आप पर समाप्त नहीं है--फैलता चला जाता है, फैलता चला जाता है; वह फैला ही हुआ है। वह व्यापक है।

हम ऐसा समझें कि हम एक विराट सागर में मछलियों की भांति हैं। मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही समाप्त हो जाती है; सागर के जल सेही निर्मित होती है, सागर के जल में ही विसर्जित हो जाती है। लेकिन जब मछली होती है तो बिलकुल व्यक्ति होती है; फिर सागर में ही खो जाती है... और सागर से ही निर्मित होती है--सागर ही है। या मछली को थोड़ा समझना कठिन मालूम पड़े, तो ऐसा समझें कि सागर में बर्फ की एक चट्टान तैर रही है। बिलकुल अलग मालूम होती है। सिर उठाए रहती है। पानी से सब तरह से अलग मालूम होती है--ठोस है, सब है, लेकिन फिर भी सागर है... और जैसे ही पिघलेगी, लीन हो जाएगी।

इस पिघलने की प्रक्रिया को ही हम अहंकार का छोड़ना कहते रहे हैं। जैसे-जैसे हम पिघलते हैं, अहंकार बिखरता है, विराट सागर में एक हो जाते हैं।

चट्टान बर्फ की कितना ही अपने को भिन्न समझे, भिन्न नहीं है। हमारी भिन्नता हमारा अज्ञान है; और हमारा ज्ञान हमारी अभिन्नता की घोषणा हो जाता है।

इस अनंत, व्यापक को ब्रह्म कहा है। ' ब्रह्म' शब्द बहुत कीमती है; इसका अर्थ होता है, केवल परम विस्तार; ब्रह्म का अर्थ होता है. परम विस्तार। ' विस्तार' और ' ब्रह्म' एक ही शब्द से बने हैं। ब्रह्म का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला गया है; जो फैलता ही चला गया है; जो फैला हुआ है; जिसके फैलाव की कोई सीमा नहीं है।

ब्रह्म जैसा कोई शब्द दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं है। ब्रह्म का अनुवाद नहीं हो सकता। ईश्वर, गॉड, ब्रह्म से कोई मतलब नहीं रखते।.. कोई मतलब नहीं रखते! इसलिए शंकर ने तो यहां तक कहने की हिम्मत की है कि ईश्वर भी माया का हिस्सा है-- ईश्वर भी। क्योंकि उसकी भी आकृति और रूप है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश.. सबकी आकृतियां और रूप हैं; वे भी माया के हिस्से हैं। जहां आकृति है, जहां रूप है, वहां माया है। उनके भी पार जो अरूप है, वह ब्रह्म है; वह सिर्फ विस्तार का नाम है-- अनंत विस्तार का... जो सबमें फैला हुआ है और कहीं रुकता ही नहीं, फैलता ही चला जाता है... इसलिए अनंत।

''जो सुखमय चैतन्य-स्वरूप है, अपरिमित आनंद है, शेष रहे सुख का स्वरूप है, इसलिए उसे आनंद कहते हैं। '' इसे समझना होगा।

'जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है ' जब भी हमें सुख का अनुभव होता है तब हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि मैं सुख हूं ऐसा अनुभव होता है कि मैं हूं कुछ जिस पर सुख आया। सुख एक घटना होती है, स्वभाव नहीं, क्योंकि जो स्वभाव है उसे हम खो नहीं सकते लेकिन सुख तो खो जाता है। आज सुख है सुबह, सांझ दुख हो जाता है।

सुख आता है, दुख आता है--मेरे ऊपर आते हैं; मेरे ऊपर घटित होते हैं और विदा हो जाते हैं। वे घटनाएं हैं। तो जब ब्रह्म को सुख-स्वरूप कहा तो उसका अर्थ है कि ब्रह्म के लिए सुख घटना नही है, स्वभाव है; वह सुख में ही है... या सुख ही है। सुख जब स्वभाव होता है तब हम उसे आनंद कहते हैं।

और आनंद जब केवल एक घटना होती है तब हम उसे सुख कहते हैं। घटना का अर्थ है : विजातीय, फॉरेन। वह हमसे बाहर से होती है, बाहर ही होती है, हमारे घर के बाहर ही घटती है। हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते--चाहे हम अपने को कितना ही समझें कि एकात्म हैं; हम कभी उससे एकात्म नहीं हो सकते।

डायोजनीज एक यूनानी फकीर नग्न घूमता था। किसी ने डायोजनीज से पूछा कि तुमने कपड़े क्यों छोड़ दिए? डायोजनीज ने कहा कि मैंने पकड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन पकड़ नहीं पाया इसलिए छोड़ दिए। बहुत कोशिश की कि कपड़ों को पकड़ लूं और कपड़ा हो जाऊं--नहीं हो पाया। फिर मैंने सोचा कि जो चीज मैं हो ही नहीं सकता, बाहर की ही घटना रह जाती है, उसे छोड़ ही दूं। नग्नता मेरा स्वभाव है, डायोजनीज ने कहा, और कपड़े ऊपर से थे--ऊपर भले कपड़े थे लेकिन भीतर मैं नग्न ही था।

कपड़ों के भीतर सभी नंगे हैं; कोई उपाय नहीं। तो कपड़े भला दूसरे की आख को धोखा दे जाते हों कि आप नग्न नहीं हैं लेकिन आपको तो धोखा नहीं दे पाते। लेकिन हमें भी दे देते हैं, यही खूबी है। आदमी कपड़ों के भीतर खुद को भी ऐसा समझता है कि अब मैं नग्न नहीं हूं। लेकिन कपड़े बाह्य घटना है।

तो डायोजनीज कहता है कि पकड़ने की बहुत कोशिश की, आखिर में पाया कि पकड़ ही नहीं पाता हूं वे छूटे ही रह जाते हैं, बाहर ही रह जाते हैं। कोई उपाय अपना बना लेने का नहीं है। तो जो अपना हो ही नहीं सकता उसको अपना मानने की भी क्या जरूरत है? इसलिए छोड़ दिए हैं।

डायोजनीज पड़ा है एक रास्ते के किनारे और सिकंदर हिंदुस्तान आ रहा है। तो डायोजनीज से मिलता है और डायोजनीज से कहता है बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो, बड़े आनंदित मालूम पड़ते हो, लेकिन तुम्हारे पास कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं, जिसके कारण तुम आनंदित हो।

क्योंकि सिकंदर सोच ही नहीं सकता कि अकारण कोई आनंदित हो सकता है। अकारण कैसे आनंदित होइएगा? हालांकि ऋषि कहते हैं, जिस दिन अकारण आनंद है, उसी दिन आनंद है। लेकिन हमारा तर्क कहता है, कुछ है तो नहीं तुम्हारे पास--कोई पत्नी नहीं, कोई बच्चा नहीं, कोई धन नहीं, कोई महल नहीं, कोई सुख-सुविधा नहीं--नंगे पड़े हो रेत पर सड़क के किनारे; बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो! कारण क्या है?

तो डायोजनीज ने कहा. जब तक कारण से मैं प्रसन्न होता रहा तब तक प्रसन्न नहीं हो पाया। फिर मैंने सोचा कि कारण छोड़ कर देखूं. सब छोड़ कर देखूं; और उस प्रसन्नता को खोजूं जो अकारण हो; क्योंकि फिर वह मुझसे छीनी न जा सकेगी।

जिस चीज का कारण है वह छीना जा सकता है, क्योंकि कारण छीना जा सकता है। एक स्त्री है, उसके कारण मैं सुखी हूं स्त्री कल मर सकती है.. मरेगी; छीनी जा सकती है.. न मरे, न जाए कहीं, तो भी मेरे लिए खो जा सकती है; संबंध ही टूट जा सकता है। सुख खो जाएगा। धन आज है, कल नहीं होगा, सुख खो जाएगा। और हो भी तो भी खो जाएगा, क्योंकि जो सदा होता है उसमें सुख नहीं रह जाता।

जहां कारण है वहां सुख छिन जाएगा। कारण से पैदा हुआ सुख क्षणभंगुर होगा। लेकिन अकारण कोई सुख हो सकता है? उसी अकारण सुख को हम आनंद कहते हैं।

अकारण आनंद का अर्थ यह हुआ कि आनंद बाहर से नहीं आता, भीतर से आता है। सकारण आनंद का अर्थ हुआ कि आनंद बाहर से आता है। इसलिए बाहर निर्भर रहना पड़ता है, मोहताज रहना पड़ता है। कोई भी छीन सकता है। कोई भी छीन सकता है; कभी भी छीन सकता है। बाहर पर मेरी क्या मालकियत?

लेकिन एक और आयाम भी है : आनंद भीतर से बाहर जाता है। धारा बदल जाती है पूरी। कृष्ण की प्रेयसी का नाम है, राधा। वह धारा का उलटा है। यह बहुत मजे की बात है इस नाम के साथ, क्योंकि कृष्‍ण के जीवन में कहीं भी राधा का कोई उल्लेख नहीं है--कोई उल्लेख ही नहीं है.. शब्द का भी नहीं। किसी प्राचीन शास्त्र में राधा उल्लखित नहीं है;

राधा का कोई प्रसंग ही नहीं है। बहुत बाद में... बहुत बाद में-- अभी- अभी कहना चाहिए--मध्य-युग में राधा का जन्म हुआ; यह राधा जुड़ना शुरू हुआ।

ऐसा जरूर उल्लेख है कृष्ण के जीवन में कि कोई एक सखी है, लेकिन अनाम। अनाम सखी का उल्लेख है। उसका कोई नाम नहीं है। जान कर ही नाम नहीं है; क्योंकि नाम-रूप के बाहर ही वह सखी हो सकती है। उसके रूप की भी कोई चर्चा नहीं है; उसका कैसा चेहरा-मोहरा है, कुछ भी नहीं--नाम भी नहीं, चेहरा-मोहरा भी नहीं। उसको ही बाद में मध्य-युग के संतों ने राधा कहा। और राधा जान कर कहा, क्योंकि वह धारा का उलटा रूप है।

एक आनंद की धारा है जो बाहर से भीतर की तरफ आती है; वह धारा है। और जब आनंद भीतर से बाहर की तरफ जाता है तब वह राधा हो जाता है। और कृष्ण ऐसी ही राधा को प्रेम कर सकते हैं, जो भीतर से बाहर की तरफ जाती हुई... बाहर से भीतर की तरफ आती हुई का कृष्ण से कोई संबंध नहीं हो सकता। तो यह तो... आनंद जब भीतर से बाहर की तरफ जाने लगे, राधा बन जाए, तब आप ऐसी सखी को उपलब्ध हुए जिसे खोने की अब जरूरत नहीं पड़ेगी; जिसे नहीं खोजा जा सकता है।

'' सुखमय चैतन्य स्वरूप है उसका। अपरिमित आनंद का सागर है वह। और शेष रहे सुख का स्वरूप है। ''

जब सब छूट जाए--सब, जिससे सुख मिलता था, जब सब छूट जाए और फिर भी सुख शेष रह जाए, वही सुख उसका स्वरूप है। ऐसे स्वरूप को 'आनंद ' कहा है।

हम तो आनंद को जानते ही नहीं, हमें आनंद का कोई पता ही नहीं है, क्योंकि आनंद का तो पता ही तब चलेगा जब धारा राधा हो जाए; जब एक बिलकुल नया आयाम हमारे भीतर प्रकट हो।

तो डायोजनीज कहता है कि मैं आनंदित हूं क्योंकि मैं आनंद हूं; मैं इसलिए आनंदित नहीं हूं कि मेरा कोई कारण है। सिकंदर का भी मन ईर्ष्या से भर जाता है। और यही इस दुनिया में परम घटना है... जब कभी किसी एक भिखारी को देख कर और सम्राट का मन ईर्ष्या से भर जाता है। और सिकंदर भी कहता है कि अगर दुबारा मुझे जन्म मिले तो मैं सिकंदर नहीं, डायोजनीज होना चाहूंगा; इसी आनंद की तो मुझे भी तलाश है। तो डायौजनीज कहता है, तलाश है? तलाश से कभी न पा सकोगे। रुको; यहां जगह काफी है; तुम भी मेरे पड़ोस में विश्राम करो; हम बिना कहीं गए इसे पा लिए हैं-- यहीं; तुम कहां भागे चले जाते हो? और जगह यहां काफी है; तुम भी लेट जाओ।

सिकंदर ने कहा : अभी तो बहुत मुश्किल है; अभी तो मैं एक विजय-यात्रा पर निकला हूं। तो डायोजनीज ने कहा कि विजय-यात्रा पर जो निकला है उसे अभी मुश्किल नहीं है, सदा ही मुश्किल होगा; क्योंकि विजय की यात्रा दुख की खोज है। अगर जीतना ही है तो अपने को जीत लो, दूसरे को जीतने में अपनी हार है; दूसरे को जीतते जाने में आदमी भीतर हारता ही चला जाता है। आखिर में सिवाय पराजय के कुछ हाथ नहीं लगता है। दूसरे को छोड़ो, क्योंकि दूसरे के साथ आतरिक हार ही घटित होती है; अपने को ही जीत लो, अपने को ही जान लो।

सिकंदर ने कहा : लौटते में तुम्हारे पास थोड़ी देर फिर रुला। डायौजनीज ने कहा कि तुम शायद ही लौट सको; क्योंकि अभी इस क्षण को खो रहे हो--इस क्षण को जो कि निश्चित अभी है मौजूद; उस क्षण का विचार कर रहे हो जो अभी मौजूद नहीं!

और भाग्य की बात, सिकंदर वापस नहीं लौट सका; यह विजय-यात्रा में बीच में ही उसकी मृत्यु हो गई भारत से लौटते वक्त।

कोई विजय-यात्रा कभी पूरी नहीं होती, मौत बीच में ही हो जाती है। बहुत हम विजय-यात्राएं कर चुके अनेक- अनेक जन्मों में.. हर बार विजय-यात्रा अधूरी रह जाती है, मौत आ जाती है, फिर हम विजय-यात्रा को पूरा करने निकल जाते हैं, वही कभी पूरी नहीं होती, मौत बार-बार आ जाती है।

एक ही विजय पूरी हो सकती है, और एक ही आनंद उपलब्ध हो सकता है... और वह वह आनंद है जो हमें बाहर से नही मिल सकता--न मिलता है, न कभी मिला है, लेकिन भीतर इसी क्षण उपलब्ध है।

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पाप और पण्य का भेद क्या है? और जब तक मन पाप से भरा है तब तक श्रद्धा, भक्ति, भाव कैसे होगा?

जब तक मन पाप से भरा है, तो प्रार्थना कैसे होगी! यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई चिकित्सक कहे कि जब तक तुम बीमार हो, जब तक मैं औषधि कैसे दूंगा! पहले तुम ठीक हो जाओ, स्वस्थ हो जाओ, फिर औषधि ले लेना। लेकिन जब ठीक हो जाओ, तो औषधि की जरूरत क्या होगी? अगर पाप छोड़ने पर प्रार्थना करने का आपने तय किया है, तो आपको कभी प्रार्थना करने का मौका नहीं आएगा। जब तक पाप है, आप प्रार्थना न करोगे। और जब पाप ही न रह जाएगा, तो प्रार्थना किसलिए करोगे? फिर प्रार्थना का अर्थ क्या है?

प्रार्थना औषधि है। इसलिए पापी रहकर ही प्रार्थना करनी पड़ेगी। और दूसरी बात कि पाप हट कैसे जाएगा? बिना प्रार्थना के हट न पाएगा। और बिना प्रार्थना के जो पाप को हटाते हैं, उनका पुण्य उनके अहंकार का आभूषण बन जाता है। और अहंकार से बड़ा पाप नहीं है।

प्रार्थनापूर्वक जो पाप से मुक्त होता है, वही मुक्त होता है। बिना प्रार्थना के पाप से मुक्त होने की बहुत लोग कोशिश करते हैं। कि प्रार्थना की क्या जरूरत? हम अपने को खुद ही पवित्र कर लेंगे। किसी परमात्मा के सहारे की कोई जरूरत नहीं है। हम खुद ही अपने को ठीक कर लेंगे। चोरी है, तो चोरी छोड़ देंगे। बेईमानी है, तो बेईमानी छोड़ देंगे, ईमानदार हो जाएंगे।

लेकिन ध्यान रहे, कभी—कभी पापी भी परमात्मा को पहुंच जाते हैं, इस तरह के पुण्यात्मा कभी नहीं पहुंच पाते। क्योंकि जो कहता है कि मैं बेईमानी छोड़ दूंगा, वह बेईमानी छोड़ भी सकता है, लेकिन उसकी ईमानदारी के भीतर भी जो अहंकार होगा, वही उसका पाप हो जाएगा।

विनम्रता, ऐसी विनम्रता जो पुण्य का भी गर्व नहीं करती, प्रार्थना के बिना नहीं आएगी।

और फिर आप अगर सच में ही इतने अलग होते जगत से, तो आप खुद ही अपना रूपांतरण कर लेते। आप इस जगत के एक हिस्से हैं। यह पूरा जगत आपसे जुड़ा है। यहां जो भी हो रहा है, उसमें आप सम्मिलित हैं। आप अलग— थलग नहीं हैं कि आप अपने को पुण्यात्मा कर लेंगे। इस समग्र अस्तित्व का सहारा मांगना पड़ेगा।

आदमी बहुत कमजोर भी है, असहाय भी है। वह जो भी करता है, वह सब असफल हो जाता है। अपने को अलग मानकर आदमी जो भी करता है, वह सब टूट जाता है। जब तक इस पूरे के साथ अपने को एक मानकर आदमी चलना शुरू नहीं करता, तब तक जीवन में कोई महत घटना नहीं घटती।

प्रार्थना का इतना ही अर्थ है। प्रार्थना का अर्थ है कि मैं अकेला नहीं हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि अकेला होकर मैं बिलकुल असहाय हूं। प्रार्थना का अर्थ है कि इस पूरे अस्तित्व का सहारा न मिले, तो मुझ से कुछ भी न हो सकेगा। प्रार्थना इस हेल्पलेसनेस, इस असहाय अवस्था का बोध है। और प्रार्थना पुकार है अस्तित्व के प्रति कि तेरा सहारा चाहिए, तेरा हाथ चाहिए, तेरे बिना इस रास्ते पर चलना मुश्किल है।

तो प्रार्थनापूर्ण व्यक्ति में जब पुण्य आता है, तो वह पुण्य का भी धन्यवाद परमात्मा को देता है, अपने को नहीं। प्रार्थनाहीन व्यक्ति अगर पुण्य भी कर ले, तो अपनी ही पीठ ठोकने की कोशिश करता है; वह भी पाप हो जाता है। इसलिए कई बार तो ऐसा होता है कि निरहंकारी पापी भी परमात्मा के पास जल्दी पहुंच जाता है बजाय अहंकारी पुण्यात्मा के।

सुना है मैंने कि एक साधु, एक फकीर मरा। उसने जीवन में कोई पाप नहीं किया था। इंच—इंच सम्हालकर चला था। जरा—सी भी भूल—चूक न हुई थी। वह बिलकुल निश्चित था कि स्वर्ग के द्वार पर परमात्मा मेरा स्वागत करने को तैयार होगा। निश्चितता स्वाभाविक थी। फिर जिंदगीभर कष्ट झेला था उसने। और पुरस्कार की माग थी। स्वभावत: अकड़ भी थी। जब वह स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचा, तो सिर झुकाकर प्रवेश करने का मन न था। बैंड—बाजे से स्वागत होगा, यही कहीं गहरे में धारणा थी।

लेकिन दरवाजे पर जो दूत मिला, दरवाजा तो बंद था और उस दूत ने कहा कि तुम एक अजीब आदमी हो। तुम पहले ही आदमी हो जो बिना पाप किए यहां आ गए हो। अब हम बड़ी मुश्किल में हैं। क्योंकि यहां के जो नियम हैं, उनमें तुम कहीं भी नहीं बैठते। किताब में लिखा है—स्वर्ग के दरवाजे के नियम की किताब में—कि जो पाप किया हो बहुत, उसे नरक भेज दो; जो पाप कर के प्रायश्चित्त किया हो, उसे स्वर्ग भेज दो। तुमने पाप ही नहीं किया। तुम्हें नरक भेजें, तो मुश्किल है। क्योंकि जिसने पाप नहीं किया, उसे नरक कैसे भेजें! और तुमने पाप किया ही नहीं, इसलिए प्रायश्चित्त का कोई सवाल ही नहीं है। तुम्हें स्वर्ग कैसे भेजें! दरवाजे बंद हैं दोनों—स्वर्ग का भी, नरक का भी। और तुम्हारे साथ हम क्या करें, लीगल झंझट खड़ी हो गई है।

तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, तुम जमीन पर लौट जाओ, बारह घंटे का हम तुम्हें वक्त देते हैं; हमें झंझट में मत डालो। सदा का चला हुआ नियम है, उसको तोड़ो मत। बारह घंटे के लिए लौट जाओ, और छोटा—मोटा सही, एक पाप करके आ जाओ। फिर प्रायश्चित्त कर लेना। स्वर्ग का दरवाजा तुम्हारा स्वागत कर रहा है। फिर तुम इतने अकड़े हुए हो कि नरक जाने योग्य हो, लेकिन पाप तुमने किया नहीं! और स्वर्ग में तो वही प्रवेश करता है, जो विनम्र है, और विनम्र तुम जरा भी नहीं हो। एक छोटा पाप कर आओ। थोड़ी विनम्रता भी आ जाएगी। थोड़ा झुकना भी सीख जाओगे। और तुमने एक भी पाप नहीं किया, तो तुमने मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवा दिया।

वह फकीर बहुत घबड़ाया। उसने कहा, क्या कहते हैं! मनुष्य जीवन व्यर्थ गंवा दिया? तो उस देवदूत ने कहा कि थोड़ा—सा पाप कर ले तो मनुष्य विनम्र होता है, झुकता है, अस्मिता टूटती है। और थोड़ा—सा पाप मानवीय है, ह्मूमन है। तुम इनह्मूमन मालूम होते हो, बिलकुल अमानवीय मालूम पड़ते हो। तुम लौट जाओ।

फकीर लौटा। रात उसे देवदूत जमीन पर छोड़ गए। बड़ी मुश्किल खड़ी हुई। उसने कभी कोई पाप न किया था। बारह घंटे का कुल समय था। सूझ में ही न आता था उसको कि कौन—सा पाप करूं! फिर यह भी था कि छोटा ही हो, ज्यादा न हो जाए। और अनुभव न होने से पाप का, बड़ी अड़चन थी। बहुत सोचा—विचारा, कुछ सोच—समझ में नहीं आया कि क्या करूं। फिर भी सोचा कि गांव की तरफ चलूं।

जैसे ही गांव में प्रवेश करता था, एक बिलकुल काली—कलूटी बदशक्ल स्त्री ने इशारा किया झोपड़े के पास। घबड़ाया। स्त्रियों से सदा दूर रहा था। पर सोचा कि यही पाप सही। कोई तो पाप करना ही है। और फिर स्त्री इतनी बदशक्ल है कि पाप भी छोटा ही होगा। चला गया। स्त्री तो बड़ी आनंदित हुई।

रात उस स्त्री के पास रहा, उसे प्रेम किया। और सुबह भगवान को धन्यवाद देता हुआ कि चलो, एक पाप हो गया, अब प्रायश्चित्त कर लूंगा और स्वर्ग में प्रवेश हो जाएगा। जैसे ही झोपड़े से विदा होने लगा, वह स्त्री उसके पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा कि फकीर, मुझे कभी किसी ने चाहा नहीं, किसी ने कभी प्रेम नहीं किया। तुम पहले आदमी हो जिसने मुझे इतने प्रेम और इतनी चाहत से देखा। इतने प्रेम से मुझे स्पर्श किया और अपने पास लिया। एक ही प्रार्थना है कि इस पुण्य का भगवान तुम्हें खूब पुरस्कार दे।

फकीर की छाती बैठ गई। इस पुण्य का भगवान तुम्हें पुरस्कार दे! फकीर ने घड़ी देखी कि मुसीबत हो गई, घंटाभर ही बचा है! ये ग्‍यारह घंटे खराब हो गए!

आगे का मुझे पता नहीं है कि उसने घंटेभर में क्या किया। स्वर्ग वह पहुंच पाया कि नहीं पहुंच पाया! लेकिन मुश्किल है कि वह कोई पाप कर पाया हो। उसका कारण है। इस कहानी से कई बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

पहली बात तो, इतना आसान नहीं है तय करना कि क्या पाप है और क्या पुण्य है, जितना आसान हम सोचते हैं। हम तो कृत्यों पर लेबल लगा देते हैं कि यह पाप है और यह पूण्‍य है। कोई कृत्य न पाप है, न पुण्य है। बहुत कुछ करने वाले पर और करने रकी स्थिति पर निर्भर करता है।

निश्चित ही फिर से सोचिए, हंसिए मत इस कहानी में। जिस स्त्री को कभी किसी ने प्रेम न किया हो, उसको किसी का प्रेम करना अगर पुण्य जैसा मालूम पड़ा हो, तो कुछ भूल है? और अगर परमात्मा भी इसको पुण्य माने, तो क्या आप कहेंगे कि गलती हुई?

वह फकीर भी बाद में चिंता में पड़ गया कि पुण्य क्या है? पाप क्या है? अगर दूसरे को इतना सुख मिला हो, तो पाप कहां है? अगर दूसरा इतना आनंदित हुआ हो कि उसके जीवन का फूल पहली दफा खिला हो, तो पाप कहां है?

पाप कृत्य में नहीं है। कृत्य का क्या परिणाम होता है! उसमें भी परिणामों का कोई अंत नहीं है। आपने कृत्य आज किया है, परिणाम हजारों साल तक होते रहेंगे उस कृत्य के। क्योंकि परिणामों की श्रृंखला है।

अगर सारे परिणाम कृत्य में समाविष्ट किए जाएं, तो तय करना बहुत मुश्किल है कि क्या है पाप, क्या है पुण्य। कई बार आप पुण्य करते हैं और पाप हो जाता है। आप पुण्य ही करना चाहते थे और पाप हो जाता है। किस कृत्य को क्या नाम दें! कृत्य सवाल नहीं है।

दूसरी बात इस कहानी से खयाल में ले लेनी जरूरी है कि वह फकीर तो पाप करना चाहता था जान—बूझकर, फिर भी पाप नहीं हो पाया। यह बहुत गहन है।

पश्चिम का एक बहुत बड़ा विचारक था पी डी. आस्पेंस्की। उसके शिष्य बेनेट ने लिखा है कि जब पहली दफा उसने हमें शिक्षा देनी शुरू की, तो उसकी शिक्षाओं में एक खास बात थी, जान—बूझकर पाप करना। और हम सब लोग बैठे थे और उसने कहा कि घंटेभर का समय देता हूं तुम जान—बूझकर कोई ऐसा काम करो, जिसको तुम समझते हो कि वह एकदम बुरा है और करने योग्य नहीं है।

बेनेट ने लिखा है कि घंटेभर हम बैठकर सोचते रहे। बहुत उपाय किया कि किसी को गाली दे दें, धक्का मार दें, चांटा लगा दें। लेकिन कुछ भी न हुआ। और घंटा खाली निकल गया और आस्पेंस्की हंसने लगा और उसने कहा कि तुम्हें पता होना चाहिए, पाप को जान—बूझकर किया ही नहीं जा सकता। यू कैन नाट डू ईविल कांशसली। वह जो बुराई है, उसको सचेतन रूप से करने का उपाय ही नहीं है। बुराई का गुण ही है अचेतन होना।

इसलिए फकीर मुश्किल में पड़ गया। वह कोशिश करके पाप करने निकला था।

आप कोशिश करके पाप करने नहीं निकलते हैं; पाप हो जाता है। आपको कोशिश नहीं करनी पड़ती। कोशिश तो आप करते हैं कि न करूं, फिर भी हो जाता है। पाप होता है—कोशिश से नहीं, होशपूर्वक नहीं—पाप होता है बेहोशी में, मूर्च्छा में।

इसलिए पाप का एक मौलिक लक्षण है, मूर्च्छित कृत्य। जो कृत्य मूर्च्‍छा में होता है। वह पाप है। और जा कृत्‍य होशपूर्वक हो सकता है, वही पुण्‍य है। इसको हम ऐसा भी समझ सकते है कि जिस काम को करने के लिए मूर्च्छा अनिवार्य हो, उसको आप समझना कि पाप है। और जिस काम को करने के लिए होश अनिवार्य हो, जो होश के बिना हो ही न सके, होश में ही हो सके, समझना कि पुण्य है। बुद्ध का शिष्य आनंद, कुछ साधु यात्रा पर जा रहे हैं, तो उनकी तरफ से बुद्ध से पूछने खड़ा हुआ कि ये साधु यात्रा पर जाते हैं उपदेश करने। इनकी कुछ उलझनें हैं। एक उलझन का आप जवाब दे दें, बाकी तो मैंने इन्हें समझा दिया है।

तो बुद्ध ने पूछा, क्या उलझन है? तो आनंद ने कहा कि ये फकीर पूछते है—ये सब भिक्षु पूछते है—कि अगर स्त्री के पास रहने का कोई अवसर आ जाए, तो रुकना कि नहीं रुकना? तो बुद्ध ने कहा, मत रुकना। स्त्री से दूर रहना। तो आनंद ने पूछा, और कहीं ऐसी मजबूरी ही हो जाए कि रुकना ही पड़े, तो क्या करना? तो बुद्ध ने कहा, स्त्री की तरफ देखना मत। आंख नीची रखना।

यही बात पुरुष के लिए लागू हो जाएगी। इससे कोई फर्क नहीं पडता। स्त्री की तरफ देखना ही मत, आंख नीची रखना।

पर आनंद ने कहा कि ऐसा कोई अवसर आ जाए कि आंख उठानी ही पड़े और स्त्री को देखना ही पड़े? तो बुद्ध ने कहा, स्पर्श मत करना।

पर आनंद भी जिद्दी था और इसलिए बुद्ध से बहुत—सी बातें निकलवा पाया। उसने कहा, यह भी मान लिया। पर कभी ऐसा अवसर आ जाए—बीमारी, कोई दुर्घटना—कि स्त्री को छूना ही पड़े, तो उस हालत में क्या करना? तो बुद्ध ने कहा, अब आखिरी बात कहे देता हूं होश रखना छूते वक्त। और बाकी सब बातें फिजूल हैं। अगर होश रखा जा सके, तो बाकी सब बातें फिजूल हैं। बाकी उनके लिए हैं, जो होश न रख सकते हों।

जिस कृत्य को भी होशपूर्वक किया जा सके, वह पाप नहीं रह जाता। और अगर पाप होगा, तो किया ही न जा सकेगा। मूर्च्छा जरूरी है। इसलिए मैं पाप की व्याख्या करता हूं मूर्च्छित कृत्य। पुण्य की व्याख्या करता हूं होशपूर्ण कृत्य।

लेकिन आप पुण्य भी करते हैं, तो मूर्च्छा में करते हैं। फिर समझ लेना कि वह पुण्य नहीं है। चार लोग आ जाते हैं और आपको काफी फुसलाते हैं, फुलाते हैं, कि आप जैसा दानी कोई भी नहीं है जगत में; एक मंदिर बनवा दें। नाम रह जाएगा। वे आपकी मूर्च्छा को उकसा रहे हैं। वे आपके अहंकार को तेल दे रहे हैं। वे आपके अहंकार पर मक्खन लगा रहे हैं। आप फूले जा रहे हैं भीतर कि मेरे जैसा कोई पुण्यात्मा नहीं है जगत में! मूर्च्छा पकड़ रही है। इस मूर्च्छा में आप चेक वगैरह मत दे देना। वह पाप होगा। भला उससे मंदिर बने, लेकिन वह पाप होगा। क्योंकि मूर्च्छा में कोई पुण्य नहीं हो सकता।

और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आप चोरी भी करने जाएं, तो होशपूर्वक करने जाना। तो पहली तो बात यह कि आप चोरी नहीं कर पाएंगे। जैसे ही होश से भरेंगे, हाथ वापस खिंच आएगा। किसी की हत्या भी करने जाएं, तो मैं नहीं कहता कि हत्या मत करना। मैं इतना ही कहता हूं कि होशपूर्वक करना। होश होगा, हत्या नहीं हो सकेगी। हत्या हो जाए, तो समझ लेना कि आप बेहोश हो गए थे। और आप बेहोश हो जाएंगे, तो ही हो सकती है। इस जगत में कुछ भी बुरा करना हो, तो बेहोशी चाहिए, नींद चाहिए। जैसे आप नहीं कर रहे हैं, कोई शराब के नशे में आपसे करवाए ले रहा है।

ऐसा हुआ कि अकबर निकलता था एक रास्ते से और एक नंगा फकीर सड़क के किनारे खड़ा होकर अकबर को गालियां देने लगा। अकबर ने बहुत संतुलन रखा। बहुत बुद्धिमान आदमी था। लेकिन अपने सिपाहियों को कहा कि इसको पकड़कर कल सुबह मेरे सामने हाजिर करो।

दूसरे दिन सुबह उस फकीर को हाजिर किया गया। वह आकर अकबर के चरणों में सिर झुकाकर खड़ा हो गया। अकबर ने कहा कि कल तुमने गालियां दीं, उसका तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। क्या प्रयोजन था? उस फकीर ने कहा कि आप जिससे उत्तर मांग रहे हैं, उसने गालियां नहीं दीं। जिसने दीं, वह शराब पीए हुए था। रातभर में मेरा नशा उतर गया। इसलिए आप मुझसे जवाब मांगकर अन्याय कर रहे हैं। जिसने गालियां दी थीं, वह अब मौजूद नहीं है। और मैं जो मौजूद हूं उस वक्त मौजूद नहीं था।

अकबर ने अपने आत्म—संस्मरणों में यह घटना लिखवाई है। और उसने कहा है कि मुझे उस दिन खयाल आया कि निश्चित ही, जो मूर्च्छा में किया गया हो, उसके लिए व्यक्ति को जिम्मेवार क्या ठहराना!

आप जो भी कर रहे हैं.। इसलिए आपको भी लगता है, कभी क्रोध में आप गाली दे देते हैं, किसी को मार देते हैं, बाद में आपको लगता है कि मैं तो नहीं करना चाहता था! सोचा भी नहीं था कि करूं, अब पछताता भी हूं और खयाल आता है कि कैसे हो गया!

आप होश में नहीं थे। निश्चित ही, आपने कोई शराब बाहर से नहीं पी थी। लेकिन भीतर भी शराब के झरने हैं। और बाहर से ही शराब पीना जरूरी नहीं है।

अगर आप शरीर—शास्त्री से पूछें, तो वह बता देगा कि आपके शरीर में ग्रथिया हैं, जहां से नशा, मादक द्रव्य छूटते हैं। जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपका खून तेज चलता है और खून में जहर छूट जाते हैं। उन जहर की वजह से आप मूर्च्‍छित हो जाते हैं। उस मूर्च्छा में आप कुछ कर बैठते हैं, वह आपका किया हुआ कृत्य नहीं है। वह मूर्च्छा है, बेहोशी है।

इस जगत में कोई भी बुराई बिना बेहोशी के नहीं होती। और इस जगत में कोई भी भलाई बिना होश के नहीं होती। इसलिए एक ही भलाई है, होश से भरे हुए जीना, और एक ही बुराई है, बेहोशी में होना।

और इस बात की प्रतीक्षा मत करें कि जब पुण्य से भर जाएंगे पूरे, तब प्रार्थना करेंगे। जैसे हैं, जहां हैं, वहीं प्रार्थना शुरू कर दें। आपकी प्रार्थना भी आपका होश बनेगी। आपकी प्रार्थना भी आपको जगाएगी। आपकी प्रार्थना भी आपकी बेहोशी और मूर्च्छा को तोड़ेगी। और आपकी प्रार्थना का अंतिम परिणाम होगा कि आप एक सचेतन व्यक्ति हो जाएंगे। यह जो सचेतन, जागा हुआ बोध मनुष्य के भीतर है, वही उसे पाप से छुटाता है।

पापों को काटने के लिए पुण्यों की जरूरत नहीं है। पापों को काटने के लिए होश की जरूरत है। और जहां होश है, वहां पाप होने बंद हो जाते हैं। और जहां होश है, वहां पुण्य फलित होने लगते हैं। पुण्य ऐसे ही फलित होने लगते हैं, जैसे सूरज के उगने पर फूल खिल जाते हैं। ऐसे ही होश के जगने पर पुण्य होने शुरू हो जाते हैं। पुण्य करने नहीं पड़ते। आपकी छाया की तरह आपके पीछे चलने लगते हैं। वे आपकी सुगंध हो जाते हैं। वे हो जाते हैं, तब आपको पता लगता है। जब दूसरे आपसे कहते हैं, तब आपको पता लगता है।

लेकिन आदमी बेईमान है, आत्मवंचक है। और आदमी हजार तरकीबें निकाल लेता है अपने को समझाने की, कि मैं तो पापी हूं; मुझसे क्या प्रार्थना होगी! यह आपकी होशियारी है। यह आप यह कह रहे हैं कि अभी क्या प्रार्थना करनी! प्रार्थना आपको करनी नहीं है। करना आपको पाप ही है। लेकिन आप यह भी अपने मन में नहीं मानना चाहते कि मैं प्रार्थना नहीं करना चाहता हूं। आप कहते हैं, मैं ठहरा पापी; मुझसे क्या प्रार्थना होगी? तो किससे प्रार्थना होगी?

आपसे ही प्रार्थना होगी। और पाप प्रार्थना में बाधा नहीं है। यह ऐसा ही है, जैसे आपके घर में अंधेरा हो, और आप कहें कि अंधेरा बहुत है, दीया कैसे जलाए! और अंधेरा इतना ज्यादा है कि दीया जलेगा कैसे! और अंधेरा हजारों साल पुराना है, दीए को बुझाकर रख देगा! नाहक मेहनत क्या करनी। जब अंधेरा नहीं होगा, तब दीया जला लेंगे।

अंधेरा आपके दीए के जलने को रोक नहीं सकता। अंधेरे की ताकत क्या है? पाप से कमजोर दुनिया में कोई चीज नहीं है। पाप की ताकत क्या है? अंधेरा कमजोर है। अंधेरा है ही कहां? दीया जलते ही तिरोहित हो जाएगा। और चाहे हजारों वर्ष पुराना हो, तो भी एक क्षण टिक न सकेगा। और छोटा—सा दीया मिटा देगा। और दीए से अंधेरा यह नहीं कह सकेगा कि मैं हजारों साल से यहां रह रहा हूं और तू अभी अतिथि की तरह आया' और मुझ मेजबान को हटाए दे रहा है! मैं नहीं हटता। नहीं, अंधेरा खड़ा होकर जवाब भी न दे सकेगा। अंधेरा पाया ही नहीं जाएगा।

प्रार्थना के लिए पाप बाधा नहीं है। नहीं तो वाल्मीकि जैसा पापी, राम में ऐसा नहीं डूब सकता था। कि अंगुलिमाल जैसा पापी, बुद्ध में ऐसा लीन नहीं हो सकता था।

पाप बाधा नहीं है। और जब प्रार्थना कोई करता है, तो पाप वैसे ही हट जाता है, जैसे दीया जलता है और अंधेरा हट जाता है। और जले हुए दीए में पाप नहीं होता। जले हुए दीए के साथ जो होता है, उसी का नाम पुण्य है।

तो प्रार्थना को रोकें मत। कल पर टालें मत। स्थतीत मत करें। प्रार्थना को शुरू होने दें।

और क्या फर्क पड़ता है! जब बच्चा पहली दफा चलता है, तो गिरता ही है। अगर कोई भी बच्चा यह तय कर ले कि मैं चलूंगा तभी जब ग़ीरूंगा नहीं, तो चलेगा ही नहीं कभी। और जब पहली दफा कोई तैरना सीखता है, तो दों—चार दफे मुंह में पानी भी भर जाता है और डुबकी भी लग जाती है। लेकिन कोई अगर यह तय कर ले कि तैरूंगा तभी जब पूरी तरह सीख लूंगा, फिर वह कभी तैरेगा नहीं। तैरने के लिए भी बिना सीखे पानी में उतरना जरूरी है। और बच्चा चल पाता है। गिरता है, घुटने टूट जाते हैं। घसिटता है। बार—बार खड़ा होता है, फिर बैठ जाता है। एक दिन चलने लगता है। प्रार्थना भी ऐसे ही शुरू होगी क ख ग से। आप कभी पूरी प्रार्थना पहले दिन नहीं कर पाएंगे। आप पहले ही दिन कोई चैतन्य और मीरा नहीं हो जाने वाले हैं। लेकिन होने की कोई जरूरत भी नहीं है।

और संतों का काम इतना ही है, जो मा—बाप का काम है। बच्चा चलता है, तो मा—बाप उसके उस भूल भरे चलने पर भी इतने प्रसन्न होते हैं! फिर जब वह ठीक चलने लगेगा, तो कोई प्रसन्न नहीं होगा। आपको पता है! जब पहली दफा बच्चा खड़ा हो जाता है डगमगाता, तो घरभर में खुशी और उत्सव छा जाता है। ऐसी क्या बड़ी घटना हो रही है? दुनिया चल रही है! ये और एक सज्जन खडे हो गए, तो कौन—सा फर्क पड़ा जा रहा है? लेकिन उसका यह खड़ा होना, उसका यह साहस, उसका जमीन पर से झुके होने से खड़ा हो जाना, अपने पैरों पर यह भरोसा, मां—बाप खुश हो जाते हैं; बैंड—बाजे बजाते हैं। घर में गीत; फूल सजाते हैं। बच्चा उनका खड़ा हो गया!

जब पहली दफा बच्चा आवाज निकाल देता है, बेतुकी, बेमतलब की, कोई अर्थ नहीं होता, उसमें से मा—बाप अर्थ निकालते हैं कि वह मामा कह रहा है, पापा कह रहा है। वह कुछ नहीं कह रहा है! वह केवल पहली दफा टटोल रहा है। कुछ नहीं कह रहा है। लेकिन बड़ी खुशी छा जाती है। फिर वह भाषा भी अच्छी बोलने लगेगा, बड़ा विद्वान भी हो जाएगा, तब भी यह खुशी नहीं होगी।

संतों का, गुरुओं का इतना काम है कि जब पहली दफा कोई तुतलाने लगे प्रार्थना, तो उसको सहारा दें। पहली दफा जब कोई प्रार्थना के जगत में कदम रखे, तो उसको आसरा दें। इसको उत्सव की घडी बना लें। तो जो आज डांवाडोल है, कल थिर हो जाएगा। जो आज तुतला रहा है, कल ठीक से बोलने लगेगा। आज जो केवल आवाज है, कल गीत—संगीत भी बन सकती है। वे संभावनाएं हैं।

लेकिन पहला कदम बिलकुल जरूरी है। पहले कदम में ही जो चूक करता है...। और चूक एक ही है पहले कदम की। गिरना चूक नहीं है। गलत कदम का उठ जाना चूक नहीं है। गलत उठेगा ही; गिरना होगा ही। चूक एक ही है, स्थगित करना। कि पहला कैसे उठाऊं; कहीं गलती न हो जाए! तो जो रुक जाता है पहले को उठाने से, वही एकमात्र चूक है। बाकी कोई चूक नहीं है।

भूलें करना बुरा नहीं है। भूल करने के डर से रुक जाना बुरा है। भूल को दोहराना बुरा है, एक ही भूल को बार—बार करना नासमझी है। लेकिन पहली दफा ही भूल न हो, ऐसा जो परफेक्शनिस्ट हो, ऐसा जो पूर्णतावादी हो, वह इस दुनिया में मूढ़ की हालत में ही मरेगा। वह कुछ भी सीख नहीं पाएगा।

भूल करें, दिल खोलकर करें। एक ही भूल दुबारा भर न करें।

हर भूल से सीखें और पार निकल जाएं और नई भूल करने की हिम्मत रखें। संसार में भूलें करने से नहीं डरते, तो परमात्मा में भूलें करने से क्या डरना है! और जब संसार भी भूलों को क्षमा कर देता और आप सफल हो जाते हैं, तो परमात्मा भी क्षमा कर ही देगा। क्षमा किया ही हुआ है। और जब पहली दफा कोई तुतलाता है प्रार्थना, तो सारा अस्तित्व खुश होता है, प्रसन्न होता है।

कहा है हमने कि जब बुद्ध को पहली दफा ज्ञान हुआ, तो जिन वृक्षों पर फूल नहीं खिलने थे, खिल गए। झूठी लगती है बात। कहा है हमने कि महावीर जब रास्ते पर चलते थे, तो अगर कोई काटा पड़ा हो, तो महावीर को देखकर उलटा हो जाता था। झूठी लगती है बात। कांटे को क्या मतलब होगा? और बेमौसम फूल खिलते हैं कहीं? कि बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो सारी दिशाएं सुगंध से भर गईं। भरोसा नहीं आता।

लेकिन अभी रूस में एक प्रयोग हुआ है और रूस के वैज्ञानिक पुश्किन ने घोषणा की है कि पौधे भी आपकी खुशी से प्रभावित होते हैं और खुश होते हैं; और आपके दुख से दुखी होते हैं, पीड़ित होते हैं।

पुश्किन की खोज मूल्यवान है और पुश्किन ने पौधों को सम्मोहित करने का, हिम्नोटाइज करने का प्रयोग किया है। और पुश्किन ने यह भी प्रयोग किया है कि पास में एक गुलाब का पौधा रखा है और एक व्यक्ति को पास में ही बेहोश किया, सम्मोहित किया। जब सम्मोहित होकर कोई बेहोश हो जाता है, फिर उससे जो भी कहा जाए, वह आज्ञा मानता है। पुश्किन ने उस बेहोश आदमी से कहा कि तू आनंद से भर गया है। तेरा चित्त प्रफुल्लित है और सुख की धारा बह रही है।

वह आदमी डोलने लगा आनंद में। उस आदमी के मस्तिष्क में इलेक्ट्रोड लगाए गए, जो यंत्र पर खबर दे रहे हैं कि उसमें आनंद की लहरें उठ रही हैं; उसका मस्तिष्क नई तरंगों से भर गया है। उसके साथ ही उसी तरह के इलेक्ट्रोड —गुलाब के पौधे पर भी लगाए गए हैं। जैसे ही यह आदमी आनंदित होकर भीतर प्रफुल्लित हो गया और यंत्र ने खबर दी कि वह आनंद से भर रहा है, जिस तरह का ग्राफ उसके मस्तिष्क की तरंगों का बना, ठीक उसी तरह का ग्राफ गुलाब के पौधे से भी बना। और पुश्किन ने लिखा है, गुलाब के पौधे के भीतर भी वैसी ही आनंद की तरंगें फैलने लगीं।

और जब उस आदमी को कहा गया कि तू दुख से परेशान है, तेरी पत्नी की मृत्यु हो गई है, कि तेरे घर में आग लग गई है और तेरा हृदय बैठा जा रहा है; वह दुखी हो गया। उसके हृदय की पंखुड़ियां बंद हो गईं। तरंगों में खबर आने लगी कि वह दुख से भरा हुआ है। ठीक गुलाब के पौधे से भी तरंगें आने लगी कि वह। बहुत दुखी है। उसकी पंखुड़ियां मुरझा गई हैं और बंद हो गई हैं।

आप आनंदित हैं, तो आपके पास रखा हुआ गुलाब का पौधा। भी आंदोलित होता है। तो फिर झूठ नहीं लगता, कुछ आश्चर्य नहीं है कि बुद्ध का भीतर का कमल खिला हो, तो बेमौसम फूल भी आ। गए हों। क्योंकि साधारण आदमी के खुश होने से अगर फूल खुश होते हैं, तो बुद्ध तो कभी—कभी करोड़ वर्ष में कोई बुद्ध होता है। उस वक्त अगर बेमौसम फूल ले आते हों पौधे, तो कुछ आश्चर्य नहीं लगता।

पुश्किन की बात से तो ऐसा लगता है, फूल जरूर खिले होंगे। बुद्ध के पास के पौधे इतने आनंदित हो गए होंगे—ऐसा तो कभी होता है, करोड़ वर्षों में—तों अगर बेमौसम भी थोडे से फूल खिला दिए हों, स्वाभाविक लगता है।

जब आप पहली दफा तुतलाते हैं प्रार्थना, तो यह सारा अस्तित्व खुश होता है। इस अस्तित्व की खुशी ही प्रभु का प्रसाद है।

तो डरें मत। हिम्मत करें। गिरेंगे ही न, फिर उठ सकते हैं। नौ बार जो गिरता है, दसवीं बार उसके गिरने की संभावना समाप्त हो जाती है।

अब हम सूत्र को लें।

किंतु उन सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में क्लेश अर्थात विशेष परिश्रम है। क्योंकि देह— अभिमानियों में अव्यक्त विषयक गति दुखपूर्वक प्राप्त की जाती है। अर्थात जब तक शरीर में अभिमान है, तब तक शुद्ध सच्चिदानंदघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति—योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं, उनका मैं शीघ्र ही उद्धार करता हूं।

इस सूत्र में दो बातें कही गई हैं। एक, कि वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार, निर्गुण, शून्य की उपासना करते हैं। वे भी मुझ तक ही पहुंच जाते हैं, कृष्ण कहते हैं। वे भी परम सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन उनका मार्ग कठिन है। उनका मार्ग दुर्गम है। और उनके मार्ग पर क्लेश है, पीड़ा है, कष्ट है। क्या क्लेश है उनके मार्ग पर?

जो निराकार की तरफ चलता है, उसे कुछ अनिवार्य कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। पहली तो यह कि वह अकेला है यात्रा पर। कोई उसका संगी—साथी नहीं। और आपको पता है, कभी आप अंधेरी गली से गुजरते हैं, तो खुद ही गीत गुनगुनाने लगते हैं, सीटी बजाने लगते हैं। कोई है नहीं वहां। अकेले में डर लगता है। लेकिन अपनी ही सीटी सुनकर डर कम हो जाता है। अपनी ही सीटी, अपना ही गीत!

उस अशांत के पथ पर जहां कि गहन अंधेरा है, क्योंकि कोई संगी—साथी नहीं है, और इस जगत का कोई प्रकाश काम नहीं आता है; निराकार का यात्री अकेले जाता है। कोई परमात्मा, कोई परमात्मा की धारणा का सहारा नहीं है। तो पहली तो कठिनाई यह है कि अकेले की यात्रा है।

भरोसा भी हो कि परमात्मा है, तो दो हैं आप। अकेले नहीं हैं। एक ईसाई फकीर औरत हुई। वह एक चर्च बनाना चाहती थी। कुल दो पैसे थे उसके पास। और गांव में जाकर उसने कहा कि घबड़ाओ मत, संपत्ति कुछ मेरे पास है, कुछ और आ जाएगी। और जहां संपत्ति है, वहां और संपत्ति आ जाती है। दो पैसे मेरे पास हैं। चर्च हम बना लेंगे।

गांव के लोग बहुत हंसे कि तू पागल हो गई है! दो पैसे से कहीं चर्च बना है! तू अकेली एक फकीर औरत और दो पैसे। बस! इससे हो जाएगा? चर्च बन जाएगा?

उस स्त्री ने कहा कि नहीं, एक और मेरे साथ है। एक मैं हूं, मैं फकीर औरत हूं। और ये दो पैसे हैं। ये भी काफी कम हैं। लेकिन परमात्मा भी मेरे साथ है। तीनों का जोड़ काफी से ज्यादा है। मगर तुम्हें वह तीसरा दिखाई नहीं पड़ता। मुझे वह दिखाई पड़ता है, इसलिए दो पैसे की भी फिक्र नहीं है। और मैं भी फकीर औरत हूं, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। हम तीनों मिलकर जरूरत से ज्यादा हैं।

वह जो भक्त का रास्ता है, उस पर परमात्मा साथ है। भक्त कितना ही कमजोर हो, परमात्मा से जुड़कर बहुत ज्यादा है। सारी कमजोरी खो जाती है।

निराकार का पथिक अकेला है, किसी का उसे साथ नहीं है। कठिनाई होगी। अकेले होने से बड़ी और कठिनाई भी क्या है! जिंदगी में कभी आप अकेले हुए हैं? अकेला होने का आपको पता है? जरा देर अकेले छूट जाते हैं, तो जल्दी से अखबार पढ़ने लगते हैं, रेडियो खोल लेते हैं, किताब उठा लेते हैं। कुछ न कुछ करने लगते हैं, ताकि अकेलापन पता न चले। हमारे जीवन का सारा जाल—परिवार, पति—पत्नी, मित्र, क्लब, होटल, समूह, संघ, मंदिर, चर्च—अकेले होने से बचने की तरकीबें हैं। अकेले होने से घबड़ाहट होती है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई थी, तो उसकी लाश के पास बैठकर रो रहा था। नसरुद्दीन का मित्र भी था एक, फरीद। वह उससे भी ज्यादा छाती पीटकर रो रहा था। नसरुद्दीन को बड़ा अखर रहा था। पत्नी मेरी, और ये सज्जन इस तरह रो रहे हैं कि किसी को शक हो सकता है कि इनकी पत्नी मरी हो। नसरुद्दीन भी काफी ताकत लगा रहा था, लेकिन मित्र भी गजब का था, नसरुद्दीन से हमेशा आगे!

भीड़ बढ़ गई थी। कई अजनबी लोग भी इकट्ठे हो गए थे। और नसरुद्दीन को बड़ी बेचैनी हो रही थी। पत्नी के मरने की इतनी नहीं, जितना यह आदमी बाजी मारे लिए जा रहा है! आखिर नसरुद्दीन से नहीं रहा गया, उसने कहा कि ठहर भी फरीद! इतना दुख मत मना, ज्यादा मत घबड़ा। मैं फिर दुबारा शादी कर लूंगा।

लोग बहुत चकित हुए। किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन, अभी पत्नी मरे देर नहीं हुई। लाश घर में रखी है, अभी लाश गरम है। और तुम कह रहे हो, दूसरी शादी कर लोगे! तो नसरुद्दीन ने कहा, कोई शादी करने के लिए तो शादी की नहीं थी। अकेले होने की तकलीफ है। उसके मरते ही मैं फिर अकेला हो गया। और इतना अकेला तब भी नहीं था, जब पहली दफा शादी की थी। अब और ज्यादा अकेला हो गया, क्योंकि साथ का अनुभव हो गया।

रास्ते पर जा रहे हैं। अंधेरे में एक कार निकल जाती है, कार के प्रकाश में आंखें चौंधिया जाती हैं। जब कार चली जाती है, अंधेरा और ज्यादा हो जाता है। पहले इतना नहीं था। पहले कुछ दिखाई भी पड़ता था, अब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

नसरुद्दीन ने कहा कि इस पत्नी की वजह से ही तो अब और जल्दी दूसरी पत्नी की जरूरत है। यह खाली कर गई, बहुत अकेले हो गए।

आपकी पत्नी जब मर जाती है या पति जब मर जाता है, तो जो पीड़ा होती है, वह उसके मरने की कम है, अगर ठीक से खोज करेंगे, तो अकेले हो जाने की ज्यादा है। शायद नसरुद्दीन बहुत नासमझ है, इसलिए तत्काल उसने सच्ची बात कह दी। आप छ: महीने बाद कहेंगे। और अगर जरा मंद बुद्धि हुए, छ: साल बाद कहेंगे। यह दूसरी बात है। लेकिन बात उसने ठीक ही कह दी। अकेले होने की पीड़ा है। किसी को भी हाथ में हाथ लेकर भरोसा आ जाता है कि अकेले नहीं हैं।

तो निराकार का रास्ता तो बिलकुल अकेला है। न पत्नी साथी होगी, न मित्र साथी होगा, न पति। निराकार की जो ठीक साधना है, उसमें तो गुरु भी साथी नहीं होगा। उसमें गुरु भी कह देगा कि मैं सिर्फ रास्ता बताता हूं चलना तुझे है। मैं तेरे साथ नहीं आ सकता हूं। निराकार की आत्यंतिक साधना में तो गुरु कहेगा, तू मुझे छोड़, तभी तेरी यात्रा शुरू होगी। कहेगा कि मुझे पकड़ मत, कहेगा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि अकेले होने की ही साधना है। गुरु का होना भी बाधा है।

इसलिए यह सूत्र कहता है, कृष्ण कहते हैं, अति कठिन है। पहली बात कि अकेला हो जाना होगा। दूसरी बात, अगर परमात्मा की तरफ समर्पण न हो, तो उस अकेलेपन में अहंकार के उठने की बहुत गुंजाइश है। बहुत ऐसा हो सकता है कि मैं हूं। यह मैं की अकड़ बहुत तीव्र हो सकती है, क्योंकि इसको मिटाने के लिए कोई भी नहीं है।

निराकार और मेरा अहंकार, अगर कहीं ये दोनों मिल जाएं तो खतरा है, बड़े से बड़ा खतरा है। क्योंकि अगर मैं कहूं कि मैं ब्रह्म हूं तो इसमें दोनों संभावनाएं हैं। इसका एक मतलब तो यह होता है कि अब मैं नहीं रहा, ब्रह्म ही है; तब तो ठीक है। और अगर इसका यह मतलब हो कि मैं ही हूं अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है, तो बड़ा खतरा है।

इस्लाम ने इस तरह की बात को बिलकुल बंद ही करवा दिया, ताकि कोई खतरा न हो। तो जब अल—हिल्लाज ने कहा कि अहं ब्रह्मास्मि—अनलहक—मैं ही हूं ब्रह्म, तो इस्लाम ने हत्या कर दी। हत्या करनी उचित नहीं है। लेकिन अभी मैं एक फकीर, सूफी फकीर की टिप्पणी पढ़ रहा था अल—हिल्लाज की हत्या पर। तो उसने कहा कि यह बात ठीक नहीं है कि अल—हिल्लाज की हत्या की गई। लेकिन एक लिहाज से ठीक है। क्योंकि अल—हिल्लाज की हत्या करने से क्या मिटता है! अल—हिल्लाज तो पा चुका था, इसलिए हत्या करने से कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस हत्या करने से दूसरे लोग, जो कि अपने अहंकार को मजबूत कर लेते अनलहक कहकर, उनके लिए रुकावट हो गई।

यह बात भी मुझे ठीक मालूम पड़ी। अल—हिल्लाज की हत्या से कुछ मिटता ही नहीं, क्योंकि अल—हिल्लाज उसको पा चुका, जो अमृत है। इसलिए उसको मारने में कोई हर्जा नहीं। अगर उसको न मारा जाए, तो न मालूम कितने नासमझ लोग चिल्लाने लगेंगे। उनके अहंकार का खतरा हो सकता है। तो इस्लाम ने वह दरवाजा बंद कर दिया।

भारत वह दरवाजा बद नहीं किया। क्‍योंकि भारत की आकांक्षा यह रही कि कोई भी दरवाजा बंद न हो, चाहे एक दरवाजे से हजारों वर्ष में एक भी आदमी क्यों न निकलता हो। लेकिन दरवाजा खुला रहना चाहिए। एक आदमी को भी बाधा नहीं होनी चाहिए।

निराकार के मार्ग से हजारों साल में एकाध आदमी निकलता है। लेकिन दरवाजा खुला रखा जाता है। क्योंकि वह जो निराकार के मार्ग से निकलता है, वह भक्ति के मार्ग से निकल ही न सकेगा। उसका कोई उपाय ही नहीं है। वह उसी मार्ग से निकल सकेगा। बुद्ध को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। महावीर को भक्ति के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता। कोई उपाय नहीं है! वह उनका स्वभाव नहीं है।

मीरा को निराकार के मार्ग से नहीं निकाला जा सकता, वह उसका स्वभाव नहीं है। सब मार्ग खुले और साफ होने चाहिए। पर मार्ग कठिन है, क्योंकि अहंकार के उठने का डर है। देह—अभिमान मजबूत हो सकता है। खतरा है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, पहुंच तो जाते हैं मुझ तक ही वे लोग भी, जो निराकार से चलते हैं। लेकिन वह स्थिति कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्ति—योग से निरंतर चिंतन करते भजते हैं, उनका मैं शीघ्र उद्धार करता हूं।

भक्त के लिए एक सुविधा है। वह पहले चरण पर ही मिट सकता है। यह उसकी सुविधा है। ज्ञानी की असुविधा है, आखिरी चरण पर मिट सकता है; बीच की यात्रा में रहेगा। वह रहना मजबूत भी हो सकता है। और ऐसा भी हो सकता है, वह इतना मजबूत हो जाए कि आखिरी चरण उठाने का मन ही न रहे, और अहंकार में ही ठहरकर रह जाए।

लेकिन भक्त को एक सुविधा है, वह पहले चरण पर ही मिट सकता है। सुविधा ही नहीं है, पहले चरण पर उसे मिटना ही होगा, क्योंकि वह साधना की शुरुआत ही वही है। रोग को साथ ले जाना नहीं है। ज्ञानी का रोग साथ चल सकता है आखिरी तक। आखिर में छूटेगा, क्योंकि मिलन के पहले तो रोग मिटना ही चाहिए, नहीं तो मिलन नहीं होगा। लेकिन भक्त के पथ पर वह पहले, प्रवेश पर ही बाहर रखवा दिया जाता है, छुड़वा दिया जाता है।

भक्त अपने कर्मों को समर्पण कर देता है। वह कहता है, अब मैं नहीं कर रहा हूं; तू ही कर रहा है। वह बुरे— भले का भी भाव छोड़ देता है। वह कहता है, जो प्रभु की मर्जी। अब मेरी कोई मर्जी नहीं है। अब तू जो मुझसे करवाए, मैं करता रहूंगा। तेरा उपकरण हो गया। तू सुख में रखे तो सुखी, और तू दुख में रखे तो दुखी। न तो मैं सुख की आकांक्षा करूंगा, और न दुख न मिले, ऐसी वासना रखूंगा। अब मैं सब भांति तेरे ऊपर छोड़ता हूं। यह जो समर्पण है, इस समर्पण के साथ ही अहंकार गलना शुरू हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, उनका मैं जल्दी ही उद्धार कर लेता हूं क्योंकि वे पहले चरण में ही अपने को छोड़ देते हैं।

ज्ञानी का उद्धार भी होगा, लेकिन वह आखिरी चरण में होगा। घटना अंत में वही हो जाएगी। लेकिन कोई अपनी यात्रा के पहले ही बोझ को रख देता है, कोई अपनी यात्रा की समाप्ति पर बोझ को छोड़ता है। और जहां बोझ छूट जाता है अस्मिता का, अहंकार का, वहीं उद्धार शुरू हो जाता है।

कृष्ण जब कहते हैं, मैं उद्धार करता हूं तो आप ऐसा मत समझें कि कोई बैठा हुआ है, जो आपका उद्धार करेगा। कृष्ण का मतलब है, नियम। कृष्ण का मतलब है, शाश्वत धर्म, शाश्वत नियम। जैसे ही आप अपने को छोड़ देते हैं, वह नियम काम करना शुरू कर देता है।

पानी है; नीचे की तरफ बहता है। फिर उसको गरम करें आग से; भाप बन जाता है। भाप बनते ही ऊपर की तरफ उठने लगता है। एक नियम तो ग्रेविटेशन का है कि पानी नीचे की तरफ बहता है। न्यूटन ने खोजी यह बात कि जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है, इसलिए सब चीजें नीचे की तरफ गिरती हैं। लेकिन एक और नियम भी है जो ग्रेविटेशन के विपरीत है। जिसको योगियों ने लेविटेशन कहा है। नीचे की तरफ खींचने में तो कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है, लेकिन ऊपर की तरफ भी एक खिंचाव है, जिसको एक बहुत कीमती महिला सिमोन वेल ने ग्रेस कहा है। ग्रेस और ग्रेविटेशन। नीचे की तरफ कशिश, ऊपर की तरफ 'प्रभु—प्रसाद, ग्रेस।

नियम है। जब आप गिर पड़ते हैं जमीन पर, केले के छिलके पर पैर फिसल जाता है, तो आप यह मत सोचना कि कोई भगवान बैठा है, जो आपकी टाग तोड़ता है। कि खटाक से, आपने गड़बड़ की, केले के छिलके पर फिसले, उसने उठाया हथौड़ा और फ्रैक्चर कर दिया! कोई बैठा हुआ नहीं है कि आपका फ्रैक्यर करे। किस—किस का फ्रैक्यर करने का हिसाब रखना पड़े। नियम है। आपने भूल की, नियम के अनुसार आपका पैर टूट गया। कोई तोड़ता नहीं है पैर। पैर टूट जाता है, नियम के विपरीत पड़ने से टूट जाता है।

ठीक ऐसे ही ग्रेस है। जैसे ही आपका अहंकार हटा, आप ऊपर की तरफ खींच लिए जाते हैं। कोई खींचता नहीं है। कोई ऐसा बैठा नहीं है कि आपके गले में फांसी लगाकर और ऊपर खींचेगा।

उद्धार का मतलब ऐसा मत समझना कि कोई आपको उठाएगा और खींचेगा। कोई नहीं उठा रहा है, कोई उठाने की जरूरत नहीं है। जैसे ही बोझ हलका हुआ, आप ऊपर उठ जाते हैं।

जैसे आप एक कार्क की गेंद ले लें; और उसके चारों तरफ मिट्टी लपेटकर उसे पानी में डाल दें। वह जमीन में बैठ जाएगी नदी की, क्योंकि वह मिट्टी जो चारों तरफ लगी है, उस कार्क को भी डुबा लेगी। लेकिन जैसे—जैसे मिट्टी पिघलने लगेगी और पानी में बहने लगेगी, कार्क उठने लगेगा ऊपर की तरफ। कोई उठा नहीं रहा है। मिट्टी बिलकुल बह जाएगी पिघलकर, हटकर; कार्क जमीन से ऊपर उठ आएगा। पानी की सतह पर तैरने लगेगा। किसी ने उठाया नहीं है। नियम! कार्क जैसे ही बोझिल नहीं रहा, उठ जाता है।

उद्धार का अर्थ है कि आप जैसे ही अपने को छोड़ देते हैं, उठ जाते हैं, खींच लिए जाते हैं।

कृष्ण कहते है, मैं उसको, जो सगुण रूप से, साकार को, एक परमात्मा की धारणा को, उसके चरणों में अपने को समर्पित करता है, अनन्य भाव से निरंतर, सतत उसका स्मरण करता है, वही उसकी धुन, वही उसका स्वर श्वास—श्वास में समा जाता है; रोएं—रोएं में उसी की पुलक हो जाती है, उठता, बैठता, सोता, सब भांति उसी को याद करता है, उसके ही प्रेम में लीन रहने लगता है, ऐसी जो तल्लीनता बन जाती है, उसका मैं शीघ्र ही उद्धार कर लेता हूं।

शीघ्र इसलिए कि वह पहले चरण पर ही बोझ से हट जाता है। ज्ञानी का भी उद्धार होता है, लेकिन आखिरी चरण पर।

तो जिन्हें यात्रा—पथ में अपने को बचा रखना हो और अंत में ही छोड़ना हो, वे निराकार की तरफ जा सकते हैं। जिनको पहले ही चरण पर सब छोड़ देना हो, भक्ति उनके लिए है। निश्चित ही, जो पहले चरण पर छोड़ता है, पहले चरण पर ही मिलन शुरू हो जाता है। जितनी देर आप अपने को खींचते हैं, उतनी ही देर होती है। जितने जल्दी अपने को छोड़ देते हैं, उतने ही जल्दी घटना घट जाती है। यह आत्मिक उत्थान आपके अहंकार के बोझ से ही रुका है। यह खयाल कि मैं हूं इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और जब तक मैं हूं तब तक परमात्मा नहीं हो सकता। और जब मैं मिट जाऊं, तभी वह हो सकता है।

जीसस ने कहा है, जो अपने को मिटाएंगे, केवल वे ही बचेंगे। जो अपने को बचाएंगे, वे व्यर्थ ही अपने को मिटा रहे हैं।

हम अपने को बचा रहे हैं। कुछ है भी नहीं बचाने योग्य, फिर भी बचा रहे हैं!

कुछ ही दिन पहले एक युवक मेरे पास आया था—अमेरिका से लंबी यात्रा करके, न मालूम किन—किन आश्रमों, किन—किन साधना—स्थलों पर भटककर। मुझसे कहने लगा, गुरु की तलाश है। लेकिन अब तक गुरु मिला नहीं। मैंने उससे पूछा, किस भांति गुरु की तलाश करोगे? क्या उपाय है तुम्हारे पास? कैसे तुम जाचोगे? क्या है कसौटी? क्या है तराजू? कोई निकष है, जिससे तुम कसोगे कि कौन गुरु है? तुम्हें पता है कि गुरु का क्या अर्थ है? क्या लक्षण है?

उसने कहा, नहीं; यह तो मुझे कुछ पता नहीं है। तो फिर, मैंने कहा, तुम भटकते रहो पूरी जमीन पर। गुरु कैसे मिलेगा? क्योंकि गुरु से मिलना हो, तो तुम्हें अपने को छोड़ना पड़ेगा। तुमने कहीं किसी के पास कभी अपने को छोड़ा? उसने कहा कि कहीं छोडूं अपने को और कोई नुकसान हो जाए! और आदमी गलत हो, और सच्चा न हो, और धोखेबाज हो। और गुरु तो हो, लेकिन मिथ्या हो, बनावटी हो, और कुछ नुकसान हो जाए!

तो मैंने उससे पूछा, तेरे पास खोने को क्या है, यह पहले तू मुझे बता दे! नुकसान क्या होगा? तेरे पास कुछ खोने को है जो कोई तुझसे छीन लेगा? तेरी हालत ऐसी है कि नंगा आदमी नहाता नहीं, क्योंकि वह सोचता है, नहाऊंगा, तो कपड़े कहां सुखाऊंगा! कि जिसके पास कुछ भी नहीं है, रातभर पहरा देता है कि कहीं चोरी न हो जाए! तू बचा क्या रहा है? तेरे पास है क्या? और जब तेरे पास कुछ है ही नहीं, तो क्या हानि तुझे पहुंचाई जा सकती है? क्या तुझसे छीना जा सकता है? तो तू हिम्मत कर और अपने को बचाना छोड़। क्योंकि जिस दिन तू अपने को बचाना छोड़ेगा, उसी दिन गुरु से मिलने की संभावना शुरू होती है। उसी दिन से तू योग्य बनना शुरू हुआ।

और फिर अगर गलत गुरु भी मिल जाएगा, तो डर क्या है? जो अपने को छोड़ता है पूरी तरह, उससे गलत गुरु भी डरता है। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई अपने को ठीक से छोड़ दे गलत गुरु के पास भी, तो गलत गुरु के लिए भी ठीक होने का रास्ता खुल सकता है। क्योंकि गुरु तो केवल बहाना है। जब कोई अपने को पूरी तरह छोड़ता है, तो वह गुरु को परमात्मा मानकर ही छोड़ता है। और किसी का इतनी सरलता से, इतनी पूर्णता से किसी को परमात्मा मान लेना, अगर वह आदमी गलत हो—अगर सही हो, तब तो इसका रूपांतरण होगा ही—अगर वह गलत हो, तो उसका भी रूपांतरण होगा।

और छोड़ तो रहा है परमात्मा के लिए। वह गुरु तो प्रतीक है। उसके पीछे जो छिपा हुआ है परमात्मा, उसके लिए छोड़ा जा रहा है। लेकिन हम डरे हुए हैं कि कहीं कुछ खो न जाए! जिनके पास कुछ भी नहीं है!

कार्ल मार्क्स ने सारी दुनिया के मजदूरों से कहा है कि सारी दुनिया के सर्वहारा मजदूरो, इकट्ठे हो जाओ, क्योंकि तुम्हारे पास सिवाय हथकड़ियां खोने को कुछ भी नहीं है। यूनाइट आल दि प्रोलिटेरियस, बिकाज यू हैव नथिंग टु क्त, एक्सेप्ट योर चेन्स। सिवाय जंजीरों के खोने को है भी क्या! तो डरते किसलिए हो?

पता नहीं, यह बात कहां तक सच है, क्योंकि ऐसा गरीब आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके पास कुछ न हो। गरीब के पास भी कुछ होता है; कम होता है। भिखमंगे के पास भी कुछ होता है, कम होता है। बिलकुल ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसके पास कुछ भी न हो। सांसारिक अर्थों में तो कुछ न कुछ होता है। लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में यह बात बिलकुल सही है कि आपके पास कुछ भी नहीं है; आप सर्वहारा हो। फिर भी डरे हुए हो कि कहीं कुछ चूक न जाए। परमात्मा के पास भी सम्हलकर जाते हो कि कहीं कुछ छिन न जाए!

जो इतना डरा है, भक्ति का मार्ग उस के लिए नहीं है। भक्ति के मार्ग पर तो ट्रस्ट, भरोसा, उसका भरोसा, कि ठीक है। वह मिटाएगा, तो इसमें ही कुछ लाभ होगा। कि वह छीनेगा, तो इसमें कुछ बात होगी, रहस्य होगा। कि वह नुकसान करेगा, तो उस नुकसान से जरूर कुछ लाभ होने वाला होगा। इस भांति जो अपने को छोड़ने को तैयार है, तो उद्धार इसी क्षण हो सकता है।

भक्त के लिए एक क्षण भी रुकने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के लिए जन्मों—जन्मों तक भी रुकना पड़ सकता है, क्योंकि अपनी ही चेष्टा से लगा है। भक्त तो अभी एवेलेबल हो जाता है, इसी वक्त—अगर वह छोड़ दे। और तत्काल नियम काम करना शुरू कर देता है। कृष्ण उसे खींच लेते हैं।

कृष्ण शब्द बड़ा प्यारा है। इसका मतलब होता है अट्रैक्यान, इसका मतलब होता है मैग्नेट। कृष्ण का मतलब होता है, जो खींचता है, आकृष्ट करता है।

कृष्ण एक नियम हैं। अगर आप अपने को छोडने को तैयार हैं, तो नियम आपको खींच लेता है। आप जगत के आत्यंतिक चुंबक के निकट पहुंच जाते हैं। आप खींच लिए जाते हैं—दुख से, पीडा से, अंधकार से। लेकिन स्वयं को गंवाने की हिम्मत चाहिए। स्वयं को मिटाने का साहस चाहिए। स्वयं को गला देने की तैयारी चाहिए।


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