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ज्ञान के आगमन पर बुद्धि (धी) गलित हो जाती है। क्या ज्ञान और बुद्धि विरोधी आयाम हैं? बुद्धत्व और बुद्


जहां बुद्धि शून्य हो जाती है वहाँ बुद्धत्व पैदा होता है। बुद्धि और बुद्धत्व विरोधी आयाम नहीं हैं। बुद्धि की सीडी से जहां तुम ऊपर पैर रखते हो वहा बुद्धत्व शुरू होता है। तो विरोधी मत समझ लेना, सहयोगी है। विरोधी तो तब बनते हैं जब तुम बुद्धि की सीढ़ी को जोर से पकड़ लो और तुम कहो सब मिल गया। तो फिर अड़चन हो गयी। तो जो आगे की सीढ़ी है उसका विरोध हो गया। बुद्धि के कारण विरोध नहीं होता है, बुद्धि को पकड़ लेने के कारण विरोध होता है।

तुम सीढ़ियां चढ़ रहे हो। तुमने नंबर एक की सीढ़ी पर पैर रखा और तुमने कहा कि बस, आ गया घर, अब आगे नहीं जाना। तो तुम्हारी नंबर एक की सीढ़ी नंबर दो की सीढ़ी के विरोध में हो गयी। थी तो नहीं विरोध में, थी तो पक्ष में, थी तो सहयोग में। पहली सीढ़ी बनी ही इसलिए थी कि तुम दूसरी सीढ़ी पर जाओ। लेकिन अब तुमने जो पकड़ बिठा ली, जो आसक्ति बना ली उससे अड़चन हो गयी। सीढ़ी विरोध में नहीं, तुम्हारी आसक्ति विरोध में हो सकती है।

बुद्धि जहां शांत होती, शून्य होती, जहां बुद्धि की रेखा समाप्त होती, वहीं से बुद्धत्व शुरू होता। बुद्धि बड़ी सीमित है, बुद्धत्व विराट है। बुद्धि तो ऐसी है जैसे कोई खिड़की पर खड़ा आकाश को देखे। तो आकाश पर भी खिड़की का चौखटा लग जाता है। आकाश पर कोई चौखटा नहीं है। लेकिन खिड़की के पीछे खड़े हो कर देखते हैं तो आकाश ऐसा लगता है, फ्रेम किया हुआ, चौखटे में जड़ा हुआ। फिर तुम खिड़की से छलांग लगा कर बाहर आ जाओ। खिड़की कहती थोड़े ही है कि रुको। खिड़की तो द्वार खोलती है। खिड़की तो बुलाती कि आओ बाहर; थोड़ा—सा आकाश दिखा दिया, अब भीतर किसलिए खड़े हो? यह थोड़ा—सा आकाश तो स्वाद के लिए था। यह थोड़ा—सा स्वाद दे दिया, अब भीतर किसलिए खड़े हो? तो खिडकी ने तो निमंत्रण दिया कि खिड़की को छोड़ो, बाहर आओ। अब बड़ा आकाश है। इतने में इतना रस पाया तो उतने में कितना न पाओगे।

तुम जब मुझे सुनते हो तो बुद्धि थोड़ा—सा खिड़की खोलती है। उस पर रुक मत जाना। सुन कर इतना रस पाया तो जान कर कितना न पाओगे। शब्द से इतना रस पाया तो निःशब्द से कितना न पाओगे! किसी को मिला, उसके पास बैठ कर मस्त हो गये तो खुद के भीतर जब खुलेगा द्वार तो कैसी मस्ती न आयेगी! मधुशाला पूरी की पूरी मिल जायेगी। मैं तो जैसे प्याली में ढाल—ढाल कर दे रहा हूं!

मुल्ला नसरुद्दीन ने एक मधुशाला खरीद ली—यह सोच कर कि क्या ऐसा बार—बार दूसरे की दूकान पर जा कर पीना! तीन पियक्कड़ों ने विचार किया कि यह तो बात ठीक नहीं, रोज पीते हैं आकर और नुकसान भी होता, और यह कमाई भी कर रहा है! तो हम खरीद ही क्यों न लें! तीनों ने अपनी संपत्ति इकट्ठी करके मधुशाला खरीद ली। और जिस दिन उन्होंने मधुशाला खरीदी उन्होंने तख्ती वगैरह निकाल दी दूकान पर से। और दूकान पर एक बड़ा बोर्ड लगा दिया कि दूकान सदा के लिए बंद है। और पियक्कड़ आये, उन्होंने कहा : यह मामला क्या है? तो मुल्ला ने खिड़की खोली और उसने कहा क्या समझा, तुम्हारे लिए खरीदी दूकान? अब हम तीनों मजा करेंगे। हो गया बहुत! अब यह दूकान बंद है। खरीदी ही इसलिए कि अब हम तीनों अंदर मजा करेंगे। अब कोई बेचना—बाचना नहीं है।

जब तुम्हारे भीतर मधुशाला के तुम पूरे मालिक हो जाओ। उसकी तुम आज कल्पना भी नहीं कर सकते। अभी तो एक किरण भी तुम्हारे भीतर उतर जाती है तो पुलकित कर जाती है। कभी मेरे तार से तुम्हारा तार मिल जाता है—— क्षण भर को ही मिलता—तुम डोल जाते। लेकिन जब तुम्हारी वीणा पूरी की पूरी प्रभु से मिल कर बजने लगेगी, तब की सोचो! हजारों गुना, हजार—हजार गुना, कल्पना करो।

तो बुद्धि तो थोड़ी सी झलक दे सकती है। वहां रुक मत जाना। बुद्धि निश्चित झलक देती है। विरोध तो तब पैदा होता है जब तुम रुक गये और पकड़ कर बैठ गये और तुमने कहा. आ गये! तो तुम—ऐसा समझो—मील का पत्थर पकड़ कर बैठ गये, जिस पर लिखा है : दिल्ली, और तीर बना आगे कि चलो आगे। तुम पकड़ कर बैठ गये कि यह रही दिल्ली; साफ तो लिखा है दिल्ली! और तीर देखा नहीं। या समझा है कि तीर किसी ने सजावट के लिए बनाया होगा। दिल्ली यह रही। बैठ गये लाल पत्थर को लग कर। ऐसे दिल्ली नहीं आती। दिल्ली दूर है। तीर पर ख्याल रखना। हर सीढ़ी पर तीर लगा है आगे के लिए। क्योंकि हर सीढ़ी आगे के लिए तैयार करती है। बुद्धि तुम्हें बुद्धि के पार जाने के लिए तैयार करती है।

दूसरी बात पूछी है कि हिंदुओं का जो प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है वह इसी बुद्धि (धी) के लिए प्रार्थना—सा लगता है।

अब इस संबंध में समझना होगा कि संस्कृत, अरबी जैसी पुरानी भाषाएं बड़ी काव्य— भाषाएं हैं। उनमें एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। वे गणित की भाषाएं नहीं हैं। इसलिए तो उनमें इतना काव्य है। गणित की भाषा में एक बात का एक ही अर्थ होता है। दो अर्थ हों तो भ्रम पैदा होता है। इसलिए गणित की भाषा तो बिलकुल चलती है सीमा बांधकर। एक शब्द का एक ही अर्थ होना चाहिए। संस्कृत, अरबी में तो एक—एक के अनेक अर्थ होते हैं।

अब ' धी' इसका एक अर्थ तो बुद्धि होता है. पहली सीढ़ी 1 और धी से ही बनता है ध्यान—वह दूसरा अर्थ, वह दूसरी सीढ़ी। अब यह बड़ी अजीब बात है। इतनी तरल है संस्कृत भाषा। बुद्धि में भी थोड़ी सी धी है; ध्यान में बहुत ज्यादा। ध्यान शब्द भी ' धी' से ही बनता है, धी का ही विस्तार है। इसलिए गायत्री मंत्र को तुम कैसा समझोगे, यह तुम पर निर्भर है., उसका अर्थ कैसा करोगे।

यह रहा गायत्री मंत्र

ओंम भू भुव: स्व: तत्सवितुर् देवस्य वरेण्यं भगो: धीमहि: या: न धिय प्र चोदयात्।

'वह परमात्मा सबका रक्षक है—ओंम! प्राणों से भी अधिक प्रिय है— भू:। दुखों को दूर करने वाला है—भुव:। और सुख रूप है—स्व:। सृष्टि का पैदा करनेवाला और चलानेवाला है, सर्वप्रेरक— तत्सवितुर्। और दिव्य गुणयुक्त परमात्मा के—देवस्य। उस प्रकाश, तेज, ज्योति, झलक, प्राकटच या अभिव्यक्ति का, जो हमें सर्वाधिक प्रिय है—वरेण्यं भगो। धीमहि: —हम ध्यान करें।’

अब इसका तुम दो अर्थ कर सकते हो : धीमहि: —कि हम उसका विचार करें। यह छोटा अर्थ हुआ, खिड़कीवाला आकाश। धीमहि: —हम उसका ध्यान करें : यह बड़ा अर्थ हुआ। खिड़की के बाहर पूरा आकाश।

मैं तुमसे कहूंगा पहले से शुरू करो, दूसरे पर जाओ। धीमहि: में दोनों हैं। धीमहि: तो एक लहर है। पहले शुरू होती है खिड़की के भीतर, क्योंकि तुम खिड़की के भीतर खड़े हो। इसलिए अगर तुम पंडितो से पूछोगे तो वे कहेंगे धीमहि: का अर्थ होता है विचार करें, चिंतन करें, सोचें। अगर तुम ध्यानी से पूछोगे तो वह कहेगा धीमहि:, अर्थ सीधा है : ध्यान करें। हम उसके साथ एकरूप हो जायें। अर्थात वह परमात्मा—यत्, ध्यान लगाने की हमारी क्षमताओं को तीव्रता से प्रेरित करे—न धिया: प्र चोदयात्।

अब यह तुम पर निर्भर है। इसका तुम फिर वही अर्थ कर सकते हो—न धिया: प्र चोदयात्—वह हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे। या तुम अर्थ कर सकते हो कि वह हमारी ध्यान की क्षमताओं को उकसाये। मैं तुमसे कहूंगा, दूसरे पर ध्यान रखना। पहला बड़ा संकीर्ण अर्थ है, पूरा अर्थ नहीं।

फिर ये जो वचन हैं गायत्री मंत्र जैसे, ये बड़े संगृहीत वचन हैं। इनके एक—एक शब्द में बड़े गहरे अर्थ भरे हैं। यह जो मैंने तुम्हें अर्थ किया यह शब्द के अनुसार। फिर इसका एक अर्थ होता है भाव के अनुसार। जो मस्तिष्क से सोचेगा, उसके लिए यह अर्थ कहा। जो हृदय से सोचेगा उसके लिए दूसरा अर्थ कहता हूं।

वह जो ज्ञान का पथिक है, उसके लिए यह अर्थ कहा। वह जो प्रेम का पथिक है, उसके लिए दूसरा अर्थ। वह भी इतना ही सच है। और यही तो संस्कृत की खूबी है। यही अरबी, लैटिन और ग्रीक की खूबी है। जैसे कि अर्थ बंधा हुआ नहीं है। ठोस नहीं, तरल है। सुनने वाले के साथ बदलेगा। सुनने वाले के अनुकूल हो जायेगा। जैसे तुम पानी ढालते, गिलास में डाला तो गिलास के रूप का हो गया। लोटे में ढाला तो लोटे के रूप का हो गया। फर्श पर फैला दिया तो फर्श जैसा फैल गया। जैसे कोई रूप नहीं है, अरूप है, निराकार है।

अब तुम भाव का अर्थ समझो.

'मां की गोद में बालक की तरह मैं उस प्रभु की गोद में बैठा हूं——। मुझे उसका असीम वात्सल्य प्राप्त है— भू। मैं पूर्ण निरापद हूं — भुव:। मेरे भीतर रिमझिम—रिमझिम सुख की वर्षा हो रही है। और मैं आनंद में गदगद हूं—स्व:। उसके रुचिर प्रकाश से, उसके नूर से मेरा रोम—रोम पुलकित है तथा सृष्टि के अनंत सौंदर्य से मैं परम मुग्ध हूं —तत्‍स् वितुर् देवस्य। उदय होता हुआ सूर्य, रंग—बिरंगे फूल, टिमटिमाते तारे, रिमझिम—रिमझिम वर्षा, कलकलनादिनी नदियां, ऊंचे पर्वत, हिमाच्छादित शिखर, झरझर करते झरने, घने जंगल, उमड़ते —घुमड़ते बादल, अनंत लहराता सागर—धीमहि:। ये सब उसका विस्तार है। हम इसके ध्यान में डूबे। यह सब परमात्मा है। उमड़ते —घुमड़ते बादल, झरने, फूल, पत्ते, पक्षी, पशु—सब तरफ वही झांक रहा है। इस सब तरफ झांकते परमात्मा के ध्यान में हम डूबे; भाव में हम डूबे। अपने जीवन की डोर मैंने उस प्रभु के हाथ में सौंप दी—या: न धिया प्र चोदयात्। अब मैं सब तुम्हारे हाथ में सौंपता हूं? प्रभु। तुम जहां मुझे ले चलो मैं चलूंगा।

भक्त ऐसा अर्थ करेगा।

और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इनमें कोई भी एक् अर्थ सच है और कोई दूसरा अर्थ गलत है। ये सभी अर्थ सच हैं। तुम्हारी सीडी पर, तुम जहां हो वैसा अर्थ कर लेना। लेकिन एक खयाल रखना, उससे ऊपर के अर्थ को भूल मत जाना, क्योंकि वहां जाना है, बढ़ना है, यात्रा करनी है।

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मैं कब तक भटकता रहूंगा? दिल की लगी पूरी होगी या नहीं?

जब तक मैं है, तब तक भटकना पड़े। जब तक हो, तब तक भटकन है। तुम्हीं हो भटकन। कोई और नहीं भटका रहा है। मिटो तो मिलन हो जाये। बने रहे, अटके रहोगे। गांठ यही तो खोलनी है। और ग्रंथि क्या है? निर्ग्रंथ होना है। यही तो ग्रंथि है, यही तो गांठ है कि मैं हूं। इस गांठ को जाने दो। इस गांठ के विसर्जन पर तुम अचानक पाओगे. जिसे तुम खोजते थे वह तुम्हारे भीतर सदा से विराजमान था।

खोज के कारण ही खोये बैठे थे। खोज के लिए दौड़ते थे, तो जो भीतर था, दिखाई न पड़ता था। दौड़ के कारण आंखें अंधी थीं, धुएं से भरी थीं। दौड़ के कारण दूर तो देखते थे, पास का दिखाई न पड़ता था। दौड़ के कारण बाहर तो दिखाई पड़ता था, लेकिन भीतर न दिखाई पड़ता था। भीतर के लिए तो जरा आंख बंद करके बैठना पड़े।

अष्टावक्र ने कहा है : आंख खुली रहे तो भीतर आंख बंद रहती है। आंख बंद हो जाये तो भीतर आंख खुल जाती है। ये बाहर की पलकें परदा बन जायें, तुम्हारी आंख बाहर से थोड़ी देर के लिए बंद हो जाये, तो भीतर जिसे तुम तलाशते हो, जिसकी प्यास है, वह मौजूद है। सरोवर दूर नहीं है।

कबीर ने कहा है. मुझे बड़ी हंसी आती है, मछली सागर में प्यासी! जिन्होंने भी जाना है वे हंसे हैं। तुम पर ही नहीं, अपने पर भी हंसे हैं; अपने अतीत पर हंसे हैं। क्योंकि अतीत में यही भूल उनसे भी हुई। कबीर की मछली भी पहले प्यासी रही है। आज हंसी आती है। जान कर हंसी आती है कि मैं कैसा पागल था, सागर में था और प्यासा था! सागर मै था और सागर को खोजता था!

लेकिन इसके पीछे कुछ कारण भी है। मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में बड़ी होती है; सागर से दूर जाने का कभी मौका नहीं मिलता, तो पता ही नहीं चलता कि सागर क्या है। फिर मछली तो कभी—कभी सागर से दूर भी चली जाती है। मछुए हैं, किनारे पर बैठे जाल फेंकते हैं, मछली को कभी खींच भी लेते हैं। कभी मछली भी छलांग मार कर रेत पर गिर जाती है, तट पर गिर जाती है, तड़पती है और अनुभव कर लेती है कि सागर कहां है, तृप्ति कहां है। वापिस सरक आती है, लौट कर गिर जाती है सागर में। लेकिन परमात्मा के बाहर तो कोई किनारा नहीं है। और परमात्मा के किनारे पर बैठे कोई मछुए नहीं हैं। परमात्मा के बाहर कुछ भी नहीं है। इसलिए तुम्हारी मछली परमात्मा के बाहर तो गिर नहीं सकती। गिर जाये तो पता चल जाये। गिर जाये तो पता चल. जाये कि कैसी हंसी की स्थिति है! कैसी हास्यजनक है कि जिससे हम घिरे थे, उसको खोजते थे। लेकिन बाहर तुम जा नहीं सकते। तो भीतर रह कर ही जानना पड़ेगा।

इसलिए तो इतनी देर लग जाती है, जन्म—जन्म की देर लग जाती है। क्योंकि दूर को समझना आसान है, बुद्ध भी समझ लेता है; पास को समझना कठिन है, बहुत बुद्धिमान चाहिए। तुमने सुना न, दूर के ढोल सुहावने होते हैं! जो पास है उसका पता ही नहीं चलता, उसका बोध ही मिट जाता है। उसका खयाल ही मिट जाता है। जो मिला ही है उसकी याद भी हम क्यों रखें! और जिसे हमने कभी खोया ही नहीं है उसकी याद भी कैसे आये? वह तो हमारा स्वभाव है। इसलिए इतनी देर लग जाती है। अगर परमात्मा कहीं दूर होता, गौरीशंकर पर बैठा होता, शिखर पर, तो हमने खोज लिया होता। हमारे हिलेरी और तेनसिंग वहां पहुंच गये होते। चांद पर होता, हम पहुंच जाते। नहीं, न चांद पर है, न गौरीशंकर पर है, न मंगल पर मिलेगा, न और तारों पर मिलेगा। दूर होता तो हम पहुंच ही जाते। दूर पर हमारी बड़ी पकड़ है। हम कितने उपाय करते हैं!

आदमी अपने भीतर जाने के इतने उपाय नहीं करता जितने चांद पर जाने के उपाय करता है। और ऐसा नहीं है कि बाद में करता है; बच्चा पैदा नहीं हुआ कि चांद की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है। चाँद पकड़ना है! बच्चे रोते हैं कि मां, चांद को पकड़ा दे। शुरू से ही हम दूर की यात्रा पर निकल जाते हैं। क्योंकि आंख हमारी जैसे ही खुली, जो दूर है वह दिखाई पड़ जाता है। और आंख बंद करने का तो हमें स्मरण ही नहीं है। जब आंख बंद करते हैं तो हम नींद में सो जाते हैं। आंख खुली तो दौड़— धूप, आपाधापी; आंख बंद तो सो गये। इन्हीं दो के बीच जीवन चल रहा है।

आंख कभी बंद करके जागे रहो तो ध्यान हो जाये। आंख तो बंद हो और जागरण न खोये, तो ध्यान हो जाये। ध्यान का और अर्थ क्या है! इतना ही अर्थ है कि थोडा—सा जागरण से ले लो और थोड़ा—सा नींद से ले लो—दोनो से मिल कर ध्यान बन जाता है। जागरण से जागरण ले लो और नींद से शांति ले लो, सन्नाटा ले लो, शून्यता ले लो; दोनों को मिला लो, पक गयी रोटी तुम्हारी। अब तुम तृप्त हो सकोगे।

पूछते हो, 'मैं कब तक भटकता रहूंगा?'

जब तक तुम्हारी मर्जी! भटकना चाहते हो तो कोई उपाय नहीं है। भटकने में मजा ले रहे हो, तब तो फिर कोई बात ही क्या उठानी? भटकने में मजा भी है थोड़ा। मजा है इस बात का।

तुमने खयाल किया? जैसे ही बच्चा थोड़ा बड़ा होता है, वह मां —बाप की बात को इंकार करने लगता है। वह कहता है नहीं, नहीं करेंगे। मां—बाप कहते हैं, सिगरेट मत पीयो; वह कहता है, पी कर रहेंगे, दिखा कर रहेंगे। मां—बाप कहते हैं, सिनेमा मत जाओ, वह जरूर जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन का एक बगीचा है। उसमें सेव और नासपातिया और अमरूद इतने लगते हैं कि वह बेच भी नहीं पाता। क्योंकि गांव में उतने खरीददार भी नहीं हैं। सड़ जाते हैं वृक्षों पर, या खुद मोहल्ले—पड़ोस में मुफ्त बांट देता है। एक दिन मैंने देखा कि पांच—सात बच्चे उसके बगीचे में घुस गये हैं और वह उनके पीछे गाली देता हुआ और बंदूक लिये दौड़ रहा है। मैंने कहा कि नसरुद्दीन, तुम वैसे ही इतने फलों का कुछ उपयोग नहीं कर पाते, न कोई खरीददार है, न तुम्हें जरूरत है बेचने की, तुम बांटते हो; इन बच्चों ने अगर दो—चार—दस फल तोड़ भी लिये तो ऐसी क्या परेशानी? बंदूक ले कर कहां दौड़े जा रहे हो? उसने कहा, अगर बंदूक ले कर न दौडूगा तो ये दुबारा फिर आएंगे ही नहीं। यह तो निमंत्रण है। बंदूक ले कर दौड़ता हूं; तुम कल देखना। आज पांच—सात हैं, कल चौदह—र्पद्रह होंगे। कल तो मैं हवाई फायर भी करूंगा। फिर ये पूरे स्कूल को ले आएंगे।

छोटा बच्चा भी, जहां नहीं जाना चाहिए, वहां जाने में आतुर हो जाता है; जो नहीं करना चाहिए उसे करने में उत्सुक हो जाता है।

भटकने में कुछ मजा है। समझो। भटकने में मजा है अहंकार का। भटकने पर ही पता चलता है कि मैं हूं; नहीं तो पता कैसे चले? अगर तुम हमेशा 'हा' कहो तो तुम्हें अपने अहंकार का पता कैसे चले? 'नहीं' कहने से अहंकार के चारों तरफ रेखा बनती है। तो जैसे—जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, वह नहीं कहने लगता है। वह कहता है नहीं, ये तो माता—पिता मुझे लील ही जाएंगे। ये कहें बैठो तो बैठ जाऊं, ये कहें खड़े हो तो खड़ा हो जाऊं—तो फिर मैं कहां हूं? तो फिर मैं कौन हूं? तो फिर मेरी परिभाषा क्या है? उसकी परिभाषा बनाता है वह इंकार करके। सिगरेट न पीओ, पिता कहता है; वह कहता है ठीक, इसीलिए पीता है। पी कर दिखा देता है दुनिया को कि मैं हूं मेरा होना है!

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हर बच्चे को अपने अहंकार की तलाश है। इसलिए ईसाइयों की पहली

कहानी है कि ईश्वर ने कहा कि ज्ञान के वृक्ष के फल मत खाना—अदम को। और अदम ने खाये। वह हर बच्चे की कहानी है। यह कहानी बड़ी सच है। यह हर अदम की कहानी है। यह आदमी मात्र की कहानी है। तुम अपनी तरफ गौर से देखो, तुमने वे ही फल चखे जो इंकार किये गये थे। जहां—जहां लगी थी तख्ती, ' भीतर आना मना है', वहां—वहां तुम गये। तुमने हर तरह की जोखिम उठायी और तुम गये। जाना ही पड़ा। क्योंकि बिना जोखिम उठाये तुम्हारा अहंकार कैसे निर्मित होता? अगर तुम 'ही' ही 'ही' कहते चले जाओ, अगर तुम आज्ञाकारी ही बने रहो, तो अहंकार कैसे निर्मित होगा?

अहंकार का मजा है। भटकने में मजा है। तुम ईश्वर से मिलना नहीं चाहते, क्योंकि मिलने का मतलब तो लीन हो जाना होगा। तुम डरते हो। तुम कहते जरूर हो, 'कब तक भटकता रहूंगा?' पूछते भी हो कि कोई रास्ता है? वह शायद इसीलिए पूछ रहे हो कि रास्ता अगर पक्का पता चल जाये तो उस रास्ते पर कभी न जाएं। कहीं ऐसा न हो कि भूले — भटके, हम तो सोच रहे हों भटक रहे हैं, और चले जा रहे हैं उसी की तरफ!

रवींद्रनाथ की एक कहानी है, गीत है, कि मैं खोजता था परमात्मा को जन्मों—जन्मों से, बहुत जगह—जगह खोजा, हर जगह खोजा और वह न मिला। ही, कभी—कभी उसकी झलक मिलती थी। बहुत दूर किसी तारे के किनारे से गुजरता हुआ दिखाई पड़ता उसका रथ, कभी सूरज की किरणों के रथ पर सवार, कभी चांद के पास, कभी तारों के पास, मगर सदा दूर, पास कभी नहीं। और जब तक मैं उस तारे के पास पहुंचता खोजता—खोजता, मुझे जन्मों लग जाते, जब तक मैं वहा पहुंचता तब तक वह वहां से जा चुका होता। फिर कहीं दूर। ऐसा खेल चलता रहा; ऐसी छिया—छी चलती रही।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि अंततः मैं जीता। मेरी विजय—यात्रा पूरी हुई। मैं उसके द्वार पर पहुंच गया जहां तख्ती लगी थी कि परमात्मा का भवन आ गया। सीढ़ियां चढ़ गया खुशी में। कुंडी हाथ में ले कर खटकाने ही जा रहा था कि एक विचार मन में उठा कि अगर वह मिल गया तो फिर क्या करोगे? अब तक तो खोज ही सहारा थी; खोज के सहारे ही जीते थे। वही एक मजा था, वही एक धुन थी। अगर मिल ही गया, फिर क्या करोगे? थोड़ा सोच लो। क्योंकि फिर करने को कुछ भी न बचेगा। अब तक करना यही तो था कि परमात्मा को खोजना था। फिर परमात्मा मिल गया तो अब क्या करोगे?

तो रवींद्रनाथ ने उस गीत में कहा है कि मैंने आहिस्ता से सांकल छोड़ दी कि कहीं आवाज न हो जाये। डर के कारण अपने जूते पैर से निकाल लिये कि कहीं सीढ़ियों पर पगध्वनि न हो जाये। और फिर मैं जो भागा हूं तो मैंने पीछे लौट कर नहीं देखा। और अब मुझे पता है कि उसका घर कहा है। बस वहां छोड़ कर सब जगह खोजता हूं।

तुम्हारे कर्ता होने का मजा समाप्त हो जायेगा जिस क्षण प्रभु से मिलन हुआ। क्योंकि प्रभु से मिलन का अर्थ है : महामृत्यु। इस शब्द को तुम खयाल में ले लो तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि क्यों भटके हुए हो। अगर भटकने में अहंकार है तो मिलने में मौत है। क्योंकि यह अहंकार जाएगा, समर्पण करना होगा। इसे रख देना होगा उसके चरणों में। धोखे न चलेंगे वहा कि कुछ फूल—पत्ते तोड़ लाये और चढ़ा दिये पैरों पर। नहीं, अपने को ही तोड़ कर चढ़ाना होगा। अपना ही फूल चढ़ाना होगा। यह अहंकार तुम्हारा फूल है। यह अस्मिता तुम्हारा फूल है। ऐसे बाजार से खरीदे गये फूल—पत्ते न चलेंगे। और दूसरों की बगिया से तोड़ लाये, ये न चलेंगे। तुम्हीं को चढ़ाना होगा अपने को।

कर्ता — भाव को चढ़ाना होगा; वही बनेगा नैवेद्य, अर्चन। अगर उतनी हिम्मत नहीं है तो फिर हम भटकते रहते हैं, और हम पूछते भी रहते हैं। इस पूछने में एक मजा भी है। मजा यह है कि खोज तो रहे हैं, अब और क्या करें?

'मैं कब तक भटकता रहूंगा', पूछते हो तुम।

एक क्षण भी ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है। जिस क्षण तुम चाहोगे कि अब तैयार हूं समर्पण को, उसी क्षण मिलन हो जाएगा। तल्लण मिलन हो जाएगा।

'दिल की लगी पूरी होगी या नहीं?'

दिल की लगी.! अब पूछने जैसा है : यह दिल क्या है? किस दिल की बात कर रहे हो? कहीं यह अहंकार की धड़कन को ही तो तुम दिल नहीं कह रहे हो? अगर अहंकार की धड़कन को दिल कह रहे हो, यह 'मैं' होने को दिल कह रहे हो, तो यह लगी पूरी कभी न होगी। क्योंकि यह दिल तो मिटेगा। यह धड़कन तो बंद होगी।

ही, एक और गहरी बात है। अहंकार के पीछे भी छिपा तुम्हारा अस्तित्व है। उसकी लगी पूरी होगी। मगर ये दोनों साथ—साथ नहीं हो सकतीं।

आदमी की आकांक्षा यही है कि अहंकार भी तृप्त हो जाए और परमात्मा से मिलन भी हो जाए। आदमी असंभव की माग कर रहा है। मिटना भी नहीं चाहता और मिटने से जो मजा मिलता है वह भी लेना चाहता है। खोना भी नहीं चाहता और खोने में जो अपूर्व अमृत की वर्षा होती है, उस सौभाग्य को भी पाना चाहता है। खाली भी नहीं होना चाहता, भरा रहना चाहता, और खालीपन में जो भराव आता है, उसकी भी मांग करता है। ऐसी दुविधा में आदमी है। इस दुविधा में पिसता है। दो पाटन के बीच में..! ये पाट तुम्हीं चला रहे हो दोनों। फिर पिस रहे हो। साफ—साफ समझ लो।

मेरे देखे, अगर तुम्हें अहंकार में रस अभी बाकी हो तो छोड़ो परमात्मा की बकवास; अहंकार को पूरा कर लो। नास्तिक हो जाने में बुराई नहीं है। आस्तिक हो जाने में बुराई नहीं है। यह डांवांडोल चित्त—दशा बड़ी विकृत है। और अधिक लोग मुझे ऐसे ही लगते हैं. एक पांव नास्तिक की नाव पर सवार, एक पांव आस्तिक की नाव पर सवार। दोनों में से कुछ भी नहीं खोना चाहते हैं। दोनों जहान बच जायें, ऐसी चेष्टा में पिस जाते हैं। कुछ भी नहीं मिलता, कुछ हाथ नहीं लगता। तुम्हारे भीतर तुम अभी तैयार नहीं हो। तैयार नहीं हो तो साफ—साफ कह दो।

एक छोटे स्कूल में पादरी ने पूछा बच्चों से—रविवार की धार्मिक शिक्षा दे रहा था—कि जो —जो स्वर्ग जाना चाहते हैं वे हाथ ऊपर उठा दें। सब बच्चों ने उठा दिये, एक बच्चे को छोड़ कर। उसने उससे पूछा : तुमने सुना नहीं? जो स्वर्ग जाना चाहते हैं हाथ ऊपर उठा दें। तुम क्या स्वर्ग जाना नहीं चाहते? उसने कहा, जाना तो मैं चाहता हूं लेकिन इस गिरोह के साथ नहीं। अगर यही स्वर्ग में भी जाने वाले हैं तो क्षमा। यही यहां सता रहे हैं, यही वहां सतायेंगे। इससे तो नर्क जाने को भी तैयार हूं।

तुम भी स्वर्ग जाना चाहते हो, लेकिन तुम्हारी शर्तें हैं। और तुम्हारी कुछ ऐसी शर्त है जो पूरी नहीं की जा सकती। तुम अहंकार को भी 'स्मगल' करना चाहते हो; उसको भी ले चलो अंदर, कहीं पोटली वगैरह में छिपा कर। क्योंकि इसके बिना मजा क्या होगा? प्राप्ति का सारा मजा अहंकार को मिलता है। और अहंकार ही—तुम कहते हो—छोड़ आओ बाहर, तो मजा कौन लेगा?

मेरे पास लोग आकर कहते हैं : आप कहते हैं, मिट जाओ; अगर मिटने पर शांति मिलेगी तो फिर सार ही क्या? उनकी बात भी मैं समझता हूं। वे कह रहे हैं यह कि हम शांत होने आये हैं; आप मिटना सिखाते हो। हम आये थे बीमारी मिटाने; आप कहते हैं मरीज को ही मिटा दो। मरीज ही मिट गया तो फिर सार क्या है?

लेकिन आध्यात्मिक जगत में बीमार ही बीमारी है। वहा बीमारी अलग नहीं है। तुम ही बीमारी हो। तो आदमी इस बात के लिए भी राजी है कि अगर दुख में भी रहना पड़े तो रहेंगे, मगर रहेंगे! इस जिद्द में तुम अटके हो। दिल की लगी तो पूरी हो सकती है, लेकिन किस दिल की बात कर रहे हो? हाथ से छूट सड़क पर गिरा

ये तुम्हारे जो हाथ हैं, ये परमात्मा तक पहुंचते—पहुंचते पिघल कर हवा हो जाएंगे। अगर इन्हीं हाथों सेर तुम परमात्मा को पाना चाहते हो तो परमात्मा नहीं मिलेगा। इन हाथों से तो वस्तुएं ही मिल सकती हैं; क्योंकि ये हाथ पदार्थ के बने हैं, मिट्टी, हवा, पानी के बने हैं। मिट्टी, हवा, पानी पर इनकी पकड़ है। अगर परमात्मा को पाना है तो चैतन्य के हाथ फैलाने होंगे। कुछ और हाथ। अगर इन्हीं आंखों से परमात्मा देखना चाहते हो तो ये आंखें तो अंधी हो जाएंगी। वह रोशनी बड़ी है; पथरा जाएंगी ये आंखें। ये तो चमड़े की बनी आंखें हैं, चमड़े को ही देख सकती हैं; उससे पार नहीं। अगर परमात्मा को देखना है तो कोई और आंख खोलनी होगी—कोई और आंख, जो चमड़े से नहीं बनी हैं। अगर इन्हीं पैरों से पहुंचना है परमात्मा तक तो छोड़ो, यह मंजिल पूरी होने वाली नहीं है। ये पैर तो जमीन पर चलने को बने हैं; जमीन से बने हैं। ये जमीन के ही हिस्से हैं, जमीन से पार नहीं जाते। कोई और पैर खोजने होंगे— ध्यान के। तन के नहीं, मन के नहीं, ध्यान के।

अभी तो तुमने जो भी जाना है इन हाथों से, वह ऐसा है जो आता है और चला जाता है।

स्वर्ण दिन आये क्या, लो गये!

सुख आ भी नहीं पाता और चला जाता है। मिट्टी की इस देह से तो जो भी पकड़ में आता है, वह क्षणभंगुर है।

स्वर्ण दिन आये क्या, लो गये!

इधर आये नहीं कि उधर गये नहीं। मेहमान टिकता कहा है? एक द्वार से आता, दूसरे द्वार से निकल जाता है।

लेकिन परमात्मा ऐसा मेहमान है जो आया तो आया; फिर जाता नहीं। तो उसके लिए कुछ नये द्वार बनाने पड़े। ये तुम्हारे द्वार जिनसे तुमने संसार के मेहमानों का स्वागत किया है, आते—जाते स्वागत और विदा दी है, ये द्वार काम न आएंगे। चैतन्य का कोई नया द्वार खोजना पड़े।

परमात्मा परम हरियाली है, शाश्वत हरियाली है। उस शाश्वत के स्वाद के लिए तुम्हें भी शाश्वत को जन्माना पड़ेगा। तुम थोडे परमात्मा जैसे होने लगो, तो ही परमात्मा को पा सकोगे। और परमात्मा जैसा होने का अर्थ है, तुम्हारा अहंकार— भाव विसर्जित हो, तुम्हारी सीमा टूटे, तुम्हारी परिधि बिखरे, तुम्हारा केंद्र मिटे। तुम ऐसे हो जाओ जैसे नहीं हो। तुम्हारे भीतर से 'नहीं' समाप्त हो जाये। तुम्हारे भीतर 'ही' का स्वर एकमात्र रह जाये।

आस्तिक का मैं यही अर्थ करता हूं। आस्तिक का मेरा यह अर्थ नहीं है कि जो ईश्वर को मानता है। क्योंकि करोडों लोग ईश्वर को मानते हैं, और मैंने उनमें कोई आस्तिकता नहीं देखी। मंदिर जाते, मस्जिद जाते, गुरुद्वारा जाते—और आस्तिकता से उनका कोई संबंध नहीं है। मैंने कुछ ऐसे नास्तिक भी देखे हैं जो आस्तिक हैं; जिन्होंने ईश्वर की बात ही कभी नहीं उठायी। फिर आस्तिक की परिभाषा ईश्वर से नहीं करनी चाहिए। मैं आस्तिक की परिभाषा करता हूं जिसने जीवन को 'ही' कह दिया, और 'ना' कहना बंद कर दिया। कहो तथाता, कहो साक्षी भाव, कहो स्वीकार, परम स्वीकार। जिसने जीवन को 'ही' कहना सीख लिया। उसका 'ना' जैसे—जैसे गिरता है, वैसे—वैसे अहंकार गिरता है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारे कहे गये नकारों का ढेर है। तुमने जहां—जहां 'ना' कहा है, वहीं—वहीं अहंकार की रेखा खिंची है।’नहीं' यानी नास्तिकता; 'ही' यानी आस्तिकता।

तुम जीवन को 'ही' कहो, बेशर्त 'ही' कहो। और तुम पाओगे, दिल की लगी पूरी होती है, निश्चित होती है। होने के ही लिए लगी है। नहीं तो लगती ही न।

यह जो प्यास तुम्हारे भीतर है परमात्मा को पाने की, यह होती ही न, अगर परमात्मा न होता। तुमने जीवन में कभी देखा, ऐसी किसी चीज की प्यास देखी, जो न हो? प्यास लगती है तो पानी है; प्यास के पहले पानी है। भूख लगती है तो भोजन है, भूख के पहले भोजन है। प्रेम उठता है तो प्रेयसी है, प्रेमी है; प्रेम के पहले मौजूद है। इस जगत में जो भी तुम्हारे भीतर है प्यास, उसको तृप्त करने का कहीं न कहीं उपाय है। अगर परमात्मा की प्यास है तो प्रमाण हो गया कि परमात्मा भी कहीं है। तुम्हारी प्यास प्रमाण है। तुम प्यास पर भरोसा करो। प्यास को 'ही' कहो। आस्था रखो। और प्यास में सब भांति अपने को डुबा दो—इस भांति, कि प्यास ही बचे और तुम न बचो। तुम गये नहीं कि परमात्मा आया नहीं। तुम्हारा जाना ही उसका आना है।


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