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SHORT QUESTIONS -06


कामना का अर्थ*

कामना का अर्थ है, दौड़। जहां मैं खड़ा हूं, वहां नहीं है आनंद। जहां कोई और खड़ा है, वहां है आनंद। वहां मुझे पहुंचना है। और मजे की बात यह है कि जहां कोई और खड़ा है, और जहां मुझे आनंद मालूम पड़ता है, वह भी कहीं और पहुंचना चाहता है! वह भी वहां होने को राजी नहीं है। उसे भी वहां आनंद नहीं है। उसे भी कहीं और आनंद है।

कामना का अर्थ है, आनंद कहीं और है, समव्हेयर एल्स। उस जगह को छोड़कर जहां आप खड़े हैं, और कहीं भी हो सकता है आनंद। उस जगह नहीं है, जहां आप हैं। जो आप हैं, वहां आनंद नहीं है। कहीं भी हो सकता है पृथ्वी पर; पृथ्वी के बाहर, चांदत्तारों पर; लेकिन वहां नहीं है, जिस जगह को आप घेरते हैं। जिस होने की स्थिति में आप हैं, वह जगह आनंदरिक्त है--कामना का अर्थ है।

कामना से मुक्ति का अर्थ है, कहीं हो या न हो आनंद, जहां आप हैं, वहां पूरा है; जो आप हैं, वहां पूरा है। संतृप्ति की पराकाष्ठा कामना से मुक्ति है। इंचभर भी कहीं और जाने का मन नहीं है, तो कामना से मुक्त हो जाएंगे।

कामना के बीज, कामना के अंकुर, कामना के तूफान क्यों उठते हैं? क्या इसलिए कि सच में ही आनंद कहीं और है? या इसलिए कि जहां आप खड़े हैं, उस जगह से अपरिचित हैं?

अज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना इसलिए उठती है कि सुख कहीं और है। और अगर वहां तक जाना है, तो बिना कामना के मार्ग से जाइएगा कैसे? ज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना के अंधड़ इसलिए उठते हैं कि जहां आप हैं, जो आप हैं, उसका आपको कोई पता ही नहीं है।

काश, आपको पता चल जाए कि आप क्या हैं, तो कामना ऐसे ही तिरोहित हो जाती है, जैसे सुबह सूरज के उगने पर ओस-कण तिरोहित हो जाते हैं।

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असत्य को असत्य की तरह देख लेना मोक्ष है

एक युवक भिक्षु नागार्जुन के पास आया और उसने कहा कि मुझे मुक्त होना है। और उसने कहा कि जीवन लगा देने की मेरी तैयारी है। मैं मरने को तैयार हूं, लेकिन मुक्ति मुझे चाहिए। कोई भी कीमत हो, चुकाने को राजी हूं।

अपनी तरफ से तो वह बड़ी समझदारी की बातें कह रहा था।

चिन्मय ने भी यही पूछा है आगे प्रश्न में:

उसने भी यही कहा होगा नागार्जुन को कि मरने की तैयारी है; अब तुम्हारे हाथ में सब बात है। मुझसे न कह सकोगे कि मैंने कुछ कमी की प्रयास में। मैं सब करने को तैयार हूं। अपनी तरफ से वह ईमानदार था। उसकी ईमानदारी पर शक भी क्या करें! मरने को तैयार था--और क्या आदमी से मांग सकते हो? लेकिन ईमानदारी कितनी ही हो, भ्रांत थी।

नागार्जुन ने कहा, ठहर। एक छोटा सा प्रयोग कर। फिर, अभी इतनी जल्दी नहीं है मरने-मारने की। यह भाषा ही नासमझी की है। यहां मरना-मारना कैसा? तू एक तीन दिन छोटा सा प्रयोग कर, फिर देखेंगे। और उससे कहा कि तू चला जा सामने की गुफा में, अंदर बैठ जा, और एक ही बात पर चित्त को एकाग्र कर कि तू एक भैंस हो गया है। भैंस सामने खड़ी थी, इसलिए नागार्जुन को खयाल आ गया कि 'तू एक भैंस हो गया है।' यह सामने भैंस खड़ी है।

उस युवक ने कहा जरा चिंतित होकर कि इससे मुक्ति का क्या संबंध? नागार्जुन ने कहा, वह हम तीन दिन बाद सोचेंगे। बस तू तीन दिन बिना खाए-पीए, बिना सोए, एक ही बात सोचता रह कि तू भैंस हो गया है। तीन दिन बाद मैं हाजिर हो जाऊंगा तेरे पास। अगर तू इसमें सफल हो गया, तो मुक्ति बिलकुल आसान है। फिर मरने की कोई जरूरत नहीं।

उस युवक ने सब दांव पर लगा दिया। वह तीन दिन न भोजन किया, न सोया। तीन दिन अहर्निश उसने एक ही बात सोची कि मैं भैंस हूं। अब तीन दिन अगर कोई सोचता रहे भैंस है--वह भैंस हो गया! हो गया, नहीं कि हो गया; उसे प्रतीत होने लगा कि हो गया। एक प्रतीति पैदा हुई। एक भ्रमजाल खड़ा हुआ।

जब तीसरे दिन सुबह उसने आंख खोलकर देखा तो वह घबड़ाया--वह भैंस हो गया था! और भी घबड़ाया, क्योंकि अब बाहर कैसे निकलेगा! गुफा का द्वार छोटा था। आए तब तो आदमी थे; अब भैंस थे, उसके बड़े सींग थे। उसने कोशिश भी की तो सींग अटक गए। चिल्लाना चाहा तो आवाज तो न निकली, भैंस का स्वर निकला। जब स्वर निकला तो नागार्जुन भागा हुआ पहुंचा। देखा, युवक है। कहीं कोई सींग नहीं हैं। मगर सींग अटक रहे हैं। कहीं कोई सींग नहीं हैं। वह आदमी जैसा आदमी है। जैसा आया था वैसा ही है। लेकिन तीन दिन का आत्मसम्मोहन, तीन दिन का सतत सुझाव! तीन बार भी सुझाव दो तो परिणाम हो जाते हैं, तीन दिन में तो करोड़ों बार उसने सुझाव दिए होंगे। फिर बिना खाए, बिना सोए!

जब तुम तीन दिन तक नहीं सोते तो तुम्हारी सपना देखने की शक्ति इकट्ठी हो जाती है। तीन दिन तक सपना ही नहीं देखा! जैसे भूख इकट्ठी होती है तीन दिन तक खाना न खाने से, ऐसा तीन दिन तक सपना न देखने से सपना देखने की शक्ति इकट्ठी हो जाती है। वह तीन दिन की सपना देखने की शक्ति, तीन दिन की भूख...!

भूख में भी जितना शरीर कमजोर हो जाता है, उतना मन मजबूत हो जाता है। भूख से शरीर तो कमजोर होता है, मन मजबूत होता है। इसलिए तो बहुत से धर्म उपवास करने लगे और बहुत से धर्मों ने रात्रि-जागरण किया। अगर रातभर जागते रहो तो परमात्मा जल्दी दिखायी पड़ता है। सपना इकट्ठा हो जाता है।

अभी इस पर तो वैज्ञानिक शोध भी हुई है। और वैज्ञानिक भी इस बात पर राजी हो गए हैं कि अगर तुम बहुत दिन तक सपना न देखो तो हैलूसिनेशन्स पैदा होने लगते हैं। फिर तुम जागते में सपना देखने लगोगे। आंख खुली रहेगी और सपना देखोगे। सपना एक जरूरत है। सपना तुम्हारे मन का निकास है, रेचन है।

तीन दिन तक जागता रहा। सपने की शक्ति इकट्ठी हो गयी। तीन दिन भूखा रहा, शरीर कमजोर हो गया।

यह तुमने कभी खयाल किया! बुखार में जब शरीर कमजोर हो जाए तो तुम ऐसी कल्पनाएं देखने लगते हो जो तुम स्वस्थ हालत में कभी न देखोगे। खाट उड़ी जा रही है! तुम जानते हो कि कहीं उड़ी नहीं जा रही। अपनी खाट पर लेटे हो, मगर शक होने लगता है। क्या, हो क्या गया है तुम्हें? शरीर कमजोर है।

जब शरीर स्वस्थ होता है तो मन पर नियंत्रण रखता है। जब शरीर कमजोर हो जाता है तो मन बिलकुल मुक्त हो जाता है। और मन तो सपना देखने की शक्ति का ही नाम है। तो बीमारी में लोगों को भूत-प्रेत दिखायी पड़ने लगते हैं। स्त्रियों को ज्यादा दिखायी पड़ते हैं पुरुषों की बजाय। बच्चों को ज्यादा दिखायी पड़ते हैं प्रौढ़ों की बजाय। जहां-जहां मन कोमल है और शरीर से ज्यादा मजबूत है, वहीं-वहीं सपना आसान हो जाता है।

तीन दिन का उपवास, तीन दिन की अनिद्रा, और फिर तीन दिन सतत एक ही मंत्र--यही तो मंत्रयोग है। तुम बैठे अगर राम-राम, राम-राम कहते रहो कई दिनों तक, पागल हो ही जाओगे। एक सीमा है झेलने की। वह तीन दिन तक कहता रहा: मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं। हो गया। मंत्रशक्ति काम कर गयी। लोग मुझसे पूछते हैं मंत्रशक्ति? उनको मैं यह कहानी कह देता हूं। यह मंत्रशक्ति है।

नागार्जुन द्वार पर खड़ा हंसने लगा। वह युवक बहुत शघमदा भी हुआ और उसने कहा, लेकिन आप हंसें, यह बात जंचती नहीं। तुम्हारे ही बताए उपाय को मानकर मैं फंस गया हूं। अब मुझे निकालो। सींग बड़े हैं, द्वार से निकलते नहीं बनता। और मैं भूखा भी हूं। नींद भी सता रही है।

नागार्जुन उसके पास गया, उसे जोर से हिलाया। हिलाया तो थोड़ा वह तंद्रा से जागा। जागा तो उसने देखा, सींग भी नदारद हैं, भैंस भी कहीं नहीं है। वह भी हंसने लगा। नागार्जुन ने कहा: बस यही मुक्ति का सूत्र है। संसार तेरा बनाया हुआ है, कल्पित है।

संसार को छोड़ना नहीं है, जागकर देखना है। इसलिए जिन्होंने तुमसे कहा कि संसार छोड़ो, उन्होंने तुम्हें मोक्ष में उलझा दिया। मैं तुम्हें संसार छोड़ने को इसीलिए नहीं कह रहा हूं। छोड़ने की बात ही भ्रांत है। जो है ही नहीं उसे छोड़ोगे कैसे? छोड़ोगे तो भूल में पड़ोगे। जो नहीं है उसे देख लेना, जान लेना कि वह नहीं है, मुक्त हो जाना है।

इसलिए बुद्ध ने कहा: असत्य को असत्य की तरह देख लेना मोक्ष है। असार को असार की तरह देख लेना मोक्ष है। सारा राज देख लेने में है।

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बहिर्मुखी व्यक्ति और अंतर्मुखी व्यक्ति*

एकांत दो प्रकार का हो सकता है, क्योंकि मनुष्य-जाति दो भागों में बंटी है। एक, जिसको कार्ल गुस्ताव जुंग ने बहिर्मुखी व्यक्ति कहा है, ऐक्स्ट्रोवर्ट और एक, जिसको अंतर्मुखी व्यक्ति कहा है, इंट्रोवर्ट।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जिनके लिए आंख खोलकर देखना सहज है; जो अगर परमात्मा के सौंदर्य को देखना चाहेंगे तो इन वृक्षों की हरियाली में दिखाई पड़ेगा, चांदत्तारों में दिखाई पड़ेगा, आकाश में मंडराते शुभ्र बादलों में दिखाई पड़ेगा, सूरज की किरणों में, सागर की लहरों में, हिमालय के उत्तुंग हिमाच्छादित शिखरों में, मनुष्यों की आंखों में, बच्चों की किलकिलाहट में।

बहिर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा खुली आंख से दिखेगा। अंतर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा बंद आंख से दिखेगा, अपने भीतर। वहां भी रोशनी है। वहां भी कुछ कम चांदत्तारे नहीं हैं। कबीर ने कहा है हजार-हजार सूरज। भीतर भी हैं! इतने ही चांदत्तारे, जितने बाहर हैं। इतनी ही हरियाली, जितनी बाहर है। इतना ही विराट भीतर भी मौजूद है, जितना बाहर है।

बाहर और भीतर संतुलित हैं, समान अनुपात में हैं। भूलकर यह मत सोचना कि तुम्हारी छोटी-सी देह, इसमें इतना विराट कैसे समाएगा; यह विराट तो बहुत बड़ा है, बाहर विराट है, भीतर तो छोटा होगा! भूलकर ऐसा मत सोचना। तुमने अभी भीतर जाना नहीं। भीतर भी इतना ही विराट है--भीतर, और भीतर, और भीतर! उसका भी कोई अंत नहीं है। जैसे बाहर चलते जाओ, चलते जाओ, कभी सीमा न आएगी विश्व की--ऐसे ही भीतर डूबते जाओ, डूबते जाओ, डूबते जाओ, कभी सीमा नहीं आती अपनी भी। यह जगत्‌ सभी दिशाओं में अनंत है। इसलिए हम परमात्मा को अनंत कहते हैं; असीम कहते हैं, अनादि कहते हैं । सभी दिशाओं में!

महावीर ने ठीक शब्द उपयोग किया है। महावीर ने अस्तित्व को "अनंतानंत' कहा है। अकेले महावीर ने--और सब ने अनंत कहा है। लेकिन महावीर ने कहा, अनंतता भी अनंत प्रकार की है; एक प्रकार की नहीं है; एक ही दिशा में नहीं है; एक ही आयाम में नहीं है--बहुत आयाम में अनंत है, अनंतानंत! इधर भी अनंत है, उधर भी अनंत है! नीचे की तरफ जाओ तो भी अनंत है, ऊपर की तरफ जाओ तो भी अनंत! भीतर जाओ, बाहर जाओ--जहां जाओ वहां अनंत है। यह अनंता एकांगी नहीं है, बहु रूपों में है। अनंत प्रकार से अनंत है--यह मतलब हुआ अनंतानंत का।

तो तुम्हारे भीतर भी उतना ही विराट बैठा है। अब या तो आंख खोलो--और देखो; या आंख बंद करो--और देखो! देखना तो दोनों हालत में पड़ेगा। द्रष्टा तो बनना ही पड़ेगा। चेतना तो पड़ेगा ही। चैतन्य को जगाना तो पड़ेगा। सोए-सोए काम न चलेगा।

बहुत लोग हैं जो आंख खोलकर सोए हुए हैं। और बहुत लोग हैं जो आंख बंद करके सो जाते हैं। सो जाने से काम न चलेगा; फिर तो आंख बंद है कि खुली है, बराबर है; तुम तो हो ही नहीं, देखनेवाला तो है ही नहीं--तो न बाहर देखोगे न भीतर देखोगे। यह आंख बीच में है। पलक खुल जाए तो बाहर का विराट; पलक झप जाए तो भीतर का विराट।

बहिर्मुखी का अर्थ है, जिसे परमात्मा बाहर से आएगा। अंतर्मुखी का अर्थ जिसे परमात्मा भीतर से आएगा। अंतर्मुखी ध्यानी होगा; बहिर्मुखी, भक्त। इसलिए अंतर्मुखी परमात्मा की बात ही नहीं करेगा। परमात्मा की कोई बात ही नहीं; परमात्मा तो "पर' हो गया। अंतर्मुखी तो आत्मा की बात करेगा। इसलिए महावीर ने, बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की। वे परम अंतर्मुखी व्यक्ति हैं। और मीरां, चैतन्य, इन्होंने परमात्मा की बात की। ये परम बहिर्मुखी व्यक्ति हैं। अनुभव तो एक का ही है क्योंकि बाहर और भीतर जो है वह दो नहीं है; वह एक ही है। मगर तुम कहां पहुंचोगे? बाहर से पहुंचोगे या भीतर से, इससे फर्क पड़ जाता है।

इधर से कान पकड़ोगे या उधर से, इतना ही फर्क है। कान तो वही हाथ में आएगा। आता तो परमात्मा ही हाथ में है। जब भी कुछ हाथ में आता है, परमात्मा ही हाथ में आता है। और तो कुछ है ही नहीं हाथ में आने को। जिस हाथ में आता है वह हाथ भी परमात्मा है। परमात्मा ही परमात्मा के हाथ में आता है।

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सम्यक श्रवण को उपलब्ध होने का उपाय क्या है?*

उपाय है: तन्मयता से सुनना। उपाय है, ऐसे सुनना जैसे एक—एक शब्द पर जीवन और मृत्यु निर्भर है। उपाय है, ऐसे सुनना जैसे पूरा शरीर कान बन गया; और कोई अंग न रहे। ऐसे सुनना, जैसे यह आखिरी क्षण है; इसके बाद कोई क्षण न होगा; अगले क्षण मौत आने को है। ऐसी सावधानी से सुनना कि अगर अगले क्षण मौत भी आ जाए, तो पछताना न पड़े।

सम्यक श्रवण को सीखने का अर्थ है, सुनते समय सोचना नहीं, विचारक नहीं। क्योंकि तुम अगर विचार रहे हो, तो सुनेगा कौन? और मन की यह आदत है।

मैं बोल रहा हूं और तुम सोच रहे हो कि ये ठीक कहते हैं कि गलत कहते हैं! तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे तर्क में बात पटती, नहीं पटती! तुम सोच रहे हो कि तुम्हारे संप्रदाय से मेल खाती, नहीं खाती! तुम सोच रहे हो कि तुमने जिसे गुरु माना, वह भी यही कहता, नहीं कहता!

तुम मुझे सुन रहे हो, वह ऊपर—ऊपर रह गया, भीतर तो तुम सोच में लग गए।

मैं देखता हूं अगर तुमसे मेल खाती है, तुम्हारा सिर हिलता है कि ठीक। इसलिए नहीं कि मैं ठीक कह रहा हूं। अगर उतना तुम सुन लो, तो तुम श्वेतकेतु हो जाओ। जब तुम सिर हिलाते हो, तो मैं जानता हूं तुम्हारे संप्रदाय से मेल खा रही है बात; तुम्हारे शास्त्र के अनुकूल पड़ रही है; तुम्हारे सिद्धात से विरोध नहीं है।

जब मैं देखता हूं कि तुम्हारा सिर इनकार में हिल रहा है, तो मैं जानता हूं कि तुम्हारे पक्ष में नहीं पड़ रही है बात। तुम अब तक जैसा मानते रहे हो, उससे भिन्न है, या विपरीत है।

और जब मैं देखता हूं कि तुम दिग्विमूढ़ बैठे हो, तब तुम तय नहीं कर पा रहे कि पक्ष में होना कि विपक्ष में होना। बात तुम्हारी समझ में ही नहीं पड़ रही कि तुम निर्णय ले सको।

इन तीनों से बचना। इस बात की फिक्र मत करना सुनते समय कि तुम्हारे पक्ष में है या नहीं। क्योंकि अगर तुम्हारा पक्ष सत्य है, तब तो सुनने की जरूरत ही नहीं। तब तो मेरे पास आने का कोई प्रयोजन ही नहीं। तुम जानते ही हो। तुमने पा ही लिया है। यात्रा पूरी हो गई।

अगर तुमने नहीं पाया है, अगर अभी भी यात्रा जारी है और खोज जारी है, और तुम्हें लगता है अभाव, खटकता है अभाव, खोजना है, पाना है, पहुंचना है। तो फिर तुमने जो अब तक सोचा है, उसे किनारे रख देना; उसको बीच में मत लाना। अन्यथा वह तुम्हें सुनने ही न देगा। और तुम जो सुनोगे, उसको भी रंग से भर देगा, अपने ही रंग से भर देगा। तुम वही सुन लोगे, जो तुम सुनने आए थे। और तुम उन—उन बातों को सुनने से चूक जाओगे, जो तुमसे मेल न खाती थीं। तुम्हारा मन चुनाव कर लेगा।

तुम मन को सुनने मत देना। मन को कहना, तू चुप। पहले मैं सुन लूं। अगर सुनने से हो गया, ठीक। अगर न हुआ, तो फिर तेरा उपयोग करेंगे, फिर मनन करेंगे। लेकिन पहले मुझे परिपूर्ण भाव से सुन लेने दे।

और मजे की बात यह है, जिन्होंने परिपूर्ण भाव से सुन लिया, उन्हें मनन करने की जरूरत नहीं रह जाती।

मनन की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि सुनते समय भी तुम सोचे जा रहे हो। एक धुआं तुम्हें घेरे हुए है विचारों का। बचपन से तुमने हर चीज के संबंध में धारणा बना ली है। वह धारणा तुम्हें पकड़े हुए है।

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हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है*गीता दर्शन

कोई भी कृत्य करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। विचार भी करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। अगर आप घंटेभर बैठकर किसी की हत्या का विचार कर रहे हैं, माना कि अपने कोई हत्या नहीं की, घंटेभर बाद विचार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन घंटेभर तक हत्या के विचार ने आपको पतित किया, आप नीचे गिरे। आपकी चेतना नीचे उतरी। और आपके लिए हत्या करना अब ज्यादा आसान होगा, जितना घंटेभर के पहले था। आपकी हत्या करने की संभावना विकसित हो गई। अगर आप मन में किसी पर क्रोध कर रहे हैं, नहीं किया क्रोध तो भी, तो भी आपके अशांत होने के बीज आपने बो दिए, जो कभी भी अंकुरित हो सकते हैं।

हमारी कठिनाई यही है कि मनुष्य की चेतना में जो बीज हम आज बोते हैं, कभी-कभी हम भूल ही जाते हैं कि हमने ये बीज बोए थे। जब उनके फल आते हैं, तो इतना फासला मालूम पड़ता है दोनों स्थितियों में कि हम कभी जोड़ नहीं पाते कि फल और बीज का कोई जोड़ है।

जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है। हो सकता है, कितनी ही देर हो गई हो किसान को अनाज डाले, छः महीने बाद आया हो अंकुर, सालभर बाद आया हो अंकुर, लेकिन अंकुर बिना बीज के नहीं आता है।

हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं। जितनी अशांति बढ़ती जाती है, उतना ही ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है; क्योंकि ब्रह्म से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं। शांति ब्रह्म और स्वयं के बीच सेतु है। जैसे ही कोई शांत हुआ, वैसे ही ब्रह्म के साथ एक हुआ। जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया।

अशांत चित्त संसार से संबंधित हो सकता है। शांत चित्त संसार से संबंधित नहीं हो पाता। अशांत चित्त परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाता। शांत चित्त परमात्मा में विराजमान हो जाता है।

भय में जीना;-

यह भय कि कल चीजें बदल जाएंगीं … कोई मर जाएगा, तुम्हारा दिवाला निकल जाएगा, तुम्हारी नौकरी छिन जाएगी। हजारों चीजें ऐसी हैं जो बदल सकती हैं। तुम ज्यादा से ज्यादा भयों के नीचे दब जाते हो। और उनमें से कोई भी असली कारण नहीं है। क्योंकि कल भी तुम इन्हीं भयों से भरे थे, व्यर्थ ही। चीजें बदल गई हों लेकिन तुम अभी भी जिंदा हो। मनुष्य के पास बहुत बड़ी क्षमता है किसी भी स्थिति से तालमेल करने की।

कहते हैं, केवल मनुष्य और तिलचट्टे में तालमेल करने की अपरिसीम क्षमता है। इसीलिए जहां आदमी मिलेगा वहां तिलचट्टा मिलेगा। और जहां तिलचट्टा मिलेगा वहां आदमी मिलेगा। वे एक साथ होते हैं, उनमें समानता है। सुदूर क्षेत्रों में जैसे कि उत्तर धृव या दक्षिण धृव … जब मनुष्य इन स्थानों में गया, उसे अचानक पता चला कि वह अपने साथ तिलचट्टे लाया है। और वे पूरी तरह से स्वस्थ और जीवित थे और प्रजनन कर रहे थे।

अगर तुम पृथ्वी पर नजर डालो तो देखोगे कि मनुष्य हजार तरह की विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में, मौसमों में, राजनैतिक और सामाजिक स्थितियों में, धार्मिक वातावरणों में जीता है; लेकिन वह जी लेता है। और वह सदियों से जीता चला आया है, चीजें बदल जाती हैं, लेकिन वह स्वयं को समायोजित करता चला जाता है।

डरने की कोई जरूरत नहीं है। यह दुनिया भी डूब जाए तो क्या? उसके साथ तुम भी समाप्त हो जाओगे। क्या तुम सोचते हो कि तुम एक द्वीप पर खड़े रहोगे और दुनिया विनष्ट हो जाएगी सिर्फ तुम्हें छोड़कर? फिक्र मत करो, कम से कम तुम्हारे साथ कुछ तिलचट्टे तो होंगे ही।

अगर दुनिया खत्म हो जाए तो समस्या क्या है? मुझसे यह कई बार पूछा गया है । लेकिन समस्या क्या है? अगर वह खत्म होती है तो होती है। उसमें कोई समस्या नहीं है क्योंकि हम यहां नहीं रहेंगे, हम उसके साथ समाप्त हो जाएंगे और चिंता करने के लिए भी कोई नहीं रहेगा। यह वस्तुत: भय से सबसे बड़ी मुक्ति होगी।

दुनिया का अंत होने का मतलब है हर समस्या का अंत , तुम्हारे पेट की हर गांठ का अंत। मुझे कोई समस्या नहीं दिखाई देती, लेकिन मैं जानता हूं कि हर कोई भयभीत है।

लेकिन सवाल वही है: यह भय मन का हिस्सा है। मन डरपोक है, और डरपोक होना स्वाभाविक है क्योंकि उसमें कोई सार तत्व नहीं है, वह खाली और शून्य है, और वह हर बात से डरता है। और मूलत: वह इससे डरता है कि एक दिन तुम जाग सकते हो। वह सचमुच दुनिया का अंत होगा! दुनिया का अंत इस अर्थ में कि तुम्हारा जाग जाना, तुम्हारा ध्यान की स्थिति को उपलब्ध हो जाना, वहां मन को विदा होना पड़ता है, वह असली भय है। यह भय लोगों को ध्यान से दूर रखता है, उन्हें मेरे जैसे लोगों का दुश्मन बनाता है जो ध्यान का स्वाद फैला रहे हैं, जो होश और साक्षीभाव का उपाय बता रहे हैं। लोग मेरे खिलाफ हो जाते हैं, वह अकारण नहीं, उनका भय जायज़ है।

उन्हें इसका होश न हो, लेकिन उनका मन सचमुच भयभीत है उस बात के करीब आने से जो ज्यादा सजगता पैदा कर सकती है। वह मन के अंत की शुरुआत होगी। वह मन की मृत्यु होगी। लेकिन तुम्हें कोई भय नहीं है, मन का अंत तुम्हारा पुनर्जन्म होगा, तुम्हारा वास्तव में जीने का प्रारंभ। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए, तुम्हें मन की मृत्यु में खुशी मनाना चाहिए क्योंकि उससे बड़ी स्वतंत्रता नहीं है। अन्य कोई बात तुम्हें आकाश में उड़ने की स्वतंत्रता नहीं देगी, अन्य कोई बात पूरा आकाश तुम्हारा नहीं करेगी।

मन एक कारागृह है।

सजगता है कारागृह से बाहर जाना या इसका बोध होना कि वह कभी कारागृह में था ही नहीं, वह सिर्फ सोच रहा था कि वह कारागृह में था। फिर पूरा भय नदारद हो जाता है।

जीवन में बड़ी से बड़ी खोज , सबसे कीमती खजाना है सजगता। उसके बगैर तुम अंधकार में ही रहोगे, भयों से भरपूर, और तुम कभी स्वतंत्रता का स्वाद नहीं ले पाओगे। और वह हमेशा तुम्हारी क्षमता रही है , किसी भी क्षण तुम उस पर हक जमा सकते थे लेकिन तुमने कभी नहीं जमाया।

क्या महत्व है तीर्थ का?-

यह जो काबा का पत्‍थर है, यह जमीन का पत्‍थर नहीं है। तो सीधा व्‍याख्‍या तो यह है कि यह उल्‍का पात में गिरा होगा। लेकिन जो और गहरे जानते है। उनका मानना है, वह उल्‍कापात में गिरा पत्‍थर नहीं है। जैसे हम आज जाकर चाँद पर जमीन के चिन्‍ह छोड़ आए है..कल अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए तो यह पृथ्‍वी सूनी हो जाए, पर चाँद पर जो हम चिन्‍ह छोड़ आए है, हमारे अंतरिक्ष यात्री चाँद पर जो वस्तुएँ छोड़ आए है वे वहीं बनी रहेंगी, सुरक्षित रहेंगी। उन्‍हें बनाया भी इस ढंग से गया है कि लाखों वर्षो तक सुरक्षित रह सकें।

अगर कभी कोई चाँद पर कोई भी जीवन विकसित हुआ, या किसी और ग्रह से चाँद पर पहुंचा, और वह चीजें मिलेंगी, तो उनके लिए भी कठिनाई होगी कि वे कहां से आयी है? उनके लिए भी कठिनाई होगी। काबा का जो पत्‍थर है वह सिर्फ उल्‍कापात में गिरा हुआ पत्‍थर नहीं है। वह पत्‍थर पृथ्‍वी पर किन्‍हीं और ग्रहों के यात्रियों द्वारा छोड़ा गया पत्‍थर है। और उस पत्‍थर के माध्‍यम से उस ग्रह के यात्रियों से संबंध स्‍थापित किए जा सकते थे। लेकिन पीछे सिर्फ उसकी पूजा रह गयी। उसका पूरा विज्ञान खो गया; क्‍योंकि उससे संबंध के सब सूत्र खो गए।

वह अगर किसी ग्रह पर गिर जाए तो उस ग्रह के यात्री भी क्‍या करेंगें? अगर उनके पास इतनी वैज्ञानिक उपलब्‍धि हो कि उसके रेडियो को ठीक कर सकें,तो हमसे संबंध स्‍थापित हो सकता है। अन्‍यथा उसको तोड़-फोड़ करके वह उनके पास अगर कोई म्यूजियम होगा तो उसमें रख लेंगे और किसी तरह की व्‍याख्‍या करेंगे कि वह क्‍या है। और रेडियो तक उनका विकास हुआ हो तो वह भयभीत हो सकते है उससे डर सकते है। अभिभूत हो सकते है, आशर्चय चकित हो सकते है। पूजा कर सकते है।

काबा का पत्‍थर उन छोटे से उपकरणों में से एक है जो कभी दूसरे अंतरिक्ष के यात्रियों ने छोड़ा और जिनसे कभी संबंध स्थापित हो सकते थे। ये में उदाहरण के लिए कह रहा हूं आपको, क्‍योंकि तीर्थ हमारी ऐसी व्‍यवस्‍थाएं है। जिससे हम अंतरिक्ष के जीवन से संबंध स्‍थापित नहीं करते बल्‍कि इस पृथ्‍वी पर ही जो चेतनाएं विकसित होकर विदा हो गयीं, उनसे पुन:-पुन: संबंध स्‍थापित कर सकते है।

और इस संभावनाओं को बढ़ाने को बढ़ाने के लिए जैसे कि सम्‍मेत शिखर पर बहुत गहरा प्रयोग हुआ,बाईस तीर्थंकर का सम्‍मेत शिखर पर जाकर समाधि लेना, गहरा प्रयोग था। वह इस चेष्‍टा में था कि उस स्‍थल पर इतनी सघनता हो जाए कि संबंध स्‍थापित करने आसान हो जाएं। उस स्‍थान से इतनी चेतनाएं यात्रा करें दूसरे लोक में, कि उस स्‍थान और दूसरे लोक के बीच सुनिश्चित मार्ग बन जाएं। वह सुनिश्चित मार्ग रहा है।

और जैसे जमीन पर सब जगह एक सी वर्षा नहीं होती, घनी वर्षा के स्‍थल है, विरल वर्षा के स्‍थल है। रेगिस्‍तान है जहां कोई वर्षा नहीं होती, और ऐसे स्‍थान है जहां पाँच सौ इंच वर्षा होती है। ऐसी जगह है जहां ठंडा है सब और बर्फ के सिवाए कुछ भी नहीं है, और ऐसे स्‍थान है जहां सब गर्म हे। और बर्फ भी नहीं बन सकती।

ठीक वैसे ही पृथ्‍वी पर चेतना की डैंसिटी और नान-डेंसिटी के स्‍थल है। और उनको बनाने की कोशिश की गई हे। उनको निर्मित करने की कोशिश कि गई हे। क्‍योंकि वह अपने आप निर्मित नहीं होंगे,वह मनुष्‍य की चेतना से निर्मित होंगे। जैसे सम्‍मेत शिखर पर बाईस तीर्थ करों का यात्रा करके, समाधि में प्रवेश करना, और उसी एक जगह से शरीर को छोड़ना, उस जगह पर इतनी घनी चेतना को प्रयोग है कि वह जगह चार्ज ड हो जाएगी विशेष अर्थों में। और वहां कोई भी बैठे उस जगह पर और उन विशेष मंत्रों का प्रयोग करे जिन मंत्रों को उन बाईस लोगों ने किया है तो तत्‍काल उसकी चेतना शरीर को छोड़कर यात्रा करनी शुरू कर देगी। वह प्रक्रिया वैसी ही विज्ञान की है जैसी कि और विज्ञान की सारी प्रक्रियाएं है।

तीर्थ है, वहां जाएगा कोई, वह मुक्त होकर लौटेगा। तो स्मृति से मुक्त होगा, स्मृति ही तो बंधन है। वह स्वप्न जो आपने देखा, आपका पीछा कर रहा है। असली सवाल वही है, और निश्‍चित ही उससे छुटकारा हो सकता है, लेकिन उस छुटकारे में दो बातें जरूरी हैं। बड़ी बात तो यह जरूरी है कि आपकी ऐसी निष्ठा हो कि मुक्ति हो जाएगी। और आपकी निष्ठा कैसे होगी? आपकी निष्ठा तभी होगी जब आपको ऐसा खयाल हो कि लाखों वर्ष से ऐसा वहां होता रहा है। और कोई उपाय नहीं है।

इसलिए कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन हैं-जैसे काशी, वह सनातन है। सच बात यह है, पृथ्वी पर कोई ऐसा समय नहीं रहा जब काशी तीर्थ नहीं थी। वह एक अर्थ में सनातन है, बिलकुल सनातन है। यह आदमी का पुराने से पुराना तीर्थ है। उसका मूल्य बढ़ जाता है, क्योंकि उतनी बड़ी धारा, सजेशन है। वहां कितने लोग मुक्त हुए, वहां कितने लोग शांत हुए हैं, वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड गए-वह एक लंबी धारा है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है, वह सरल चित्त में जाकर निष्ठा बन जाएगी। वह निष्ठा बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता है। वह निष्ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता, आपका कोआपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोआपरेशन तभी देते हैं कि जब तीर्थ की एक धारा हो, एक इतिहास हो।

हिदू कहते हैं, काशी इस जमीन का हिस्सा नहीं है, डस पृथ्वी का हिस्सा नहीं है, वह अलग ही टुक्का है। वह शिव की नगरी अलग ही है, वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़ेंगे, काशी बनी रहेगी। इसलिए कई दफा हैरानी होती है, व्यक्ति तो खो जाते हैं—बुद्ध काशी आए, जैनों के तीर्थंकर काशी में पैदा हुए, खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर बसे, खो गए। काशी ने तीर्थंकर देखे, अवतार देखे, संत देखे, सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा, लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को, उन सारे लोगों के पुण्य को, उन सारे लोगों की जीवन धारा को, उनकी सब सुगंध को आत्मसात कर लेती है और बनी रहती है।

यह जो स्थिति है, यह निश्‍चित ही पृथ्वी से अलग हो जाती है-मेटाफरीकली। यह इसका अपना एक शाश्वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्यक्तित्व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गुजरे, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। वह सब कहानी हो गयी, वह सब स्वप्न हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है, वह फिर से पार्श्वनाथ को गुजरते हुए देख सकता है। वह फिर से देखेगा तुलसीदास को, वह फिर से देखेगा कबीर को।

अगर कोई निष्ठा से इस काशी के निकट जाए, तो यह काशी साधारण नगरी न रह जाएगी लंदन या बम्बई जैसी। एक असाधारण चिन्मय रूप ले लेगी, और इसकी चिन्मयता बड़ी शाश्वत है, बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते हैं, सभ्यताएं बनती और बिगड़ती हैं, आती हैं और चली जाती हैं, और यह अपनी एक अंत: धारा को संजोए हुए चलती है। इसके रास्ते पर खड़ा होना, इसके घाट पर सान करना, इसमें बैठकर ध्यान करने के प्रयोजन हैं। आप भी हिस्सा हो गए हैं एक अंत: धारा के।

यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लूंगा, खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में—उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में उसका सहारा लिया जा सकता है। सहारे के लिए वह सारा आयोजन है।

बहुत—सी बातें हैं तीर्थ के साथ, जो समझ में नहीं आ सकेंगी, पर घटित होती हैं। जिनको बुद्धि साफ—साफ नहीं दिखा पाएगी, जिनका गणित नहीं बनाया जा सकेगा, लेकिन घटित होती हैं।

जैसे कि आप कहीं भी जाकर एकांत में बैठकर साधना करें तो बहुत कम संभावना है कि आपको अपने आस—पास किन्हीं आत्माओं की उपस्थिति का अनुभव हो लेकिन तीर्थ में करें तो बहुत जोर से होगा। कहीं भी करें वह अनुभव नहीं होगा, लेकिन तीर्थ में आपको प्रेजेंस मालूम पड़ेगी— थोड़ी बहुत नहीं, बहुत गहन। कभी इतनी गहन हो जाती है कि आप स्वयं मालूम पड़ेंगे कि कम है, और दूसरे की प्रेजेंस ज्यादा है।


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