top of page

Recent Posts

Archive

Tags

क्या है संत कबीरदास के अनुसार साधना की शुरुआत और गहराई... स्वयं जाने ?PART-01


संत कबीरदास के अनुसार साधना की शुरुआत ;-

17 दोहे (Advice/सलाह);-

1-कामी क्रोधी लालची , इनते भक्ति ना होय । भक्ति करै कोई सूरमा , जादि बरन कुल खोय ।

अर्थ:- विषय वासना में लिप्त रहने वाले, क्रोधी स्वभाव वाले तथा लालची प्रवृति के प्राणियों से भक्ति नहीं होती । धन संग्रह करना, दान पूण्य न करना ये तत्व भक्ति से दूर ले जाते है । भक्ति वही कर सकता है जो अपने कुल , परिवार जाति तथा अहंकार का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास से कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है । हर किसी के लिए संभव नहीं है ।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

2-रहना नहिं देस बिराना है।यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पड़े गलि जाना है।

यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥

यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है। कहत कबीर सुनो भै साधु , सतगुरू नाम ठिकाना हैं l

3-परारब्ध पहिले बना , पीछे बना शरीर । कबीर अचम्भा है यही , मन नहिं बांधे धीर ।

अर्थ:- कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना । यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है ।

4-जंत्र मंत्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय । सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय ।।

अर्थ:- जंत्र मंत्र का आडम्बर सब झूठ है, इसके चक्कर में पडकर अपना जीवन व्यर्थ न गँवाये । गूढ ज्ञान के बिना कौवा कदापि हंस नहीं बन सकता ।अर्थात दुर्गुण से परिपूर्ण आज्ञानी लोग कभी ज्ञानवान नहीं बन सकते ।

5-माला फेरत युग गया, मिटा ना मन का फेर । कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।

अर्थ:- हाथ में माला लेकर फेरते हुए युग व्यतीत हो गया फिर भी मन की चंचलता और संसारिक विषय रुपी मोह भंग नहीं हुआ । कबीर दास जी संसारिक प्राणियों को चेतावनी देते हुए कहते है- हे अज्ञानियों हाथ में जो माला लेकर फिरा रहे हो, उसे फेंक कर सर्वप्रथम अपने हृदय की शुध्द करो और एकाग्र चित्त होकार प्रभु का ध्यान करो ।

6-दस द्वारे का पींजरा, तामे पंछी मौन । रहे को अचरज भयै, गये अचम्भा कौन ।।

अर्थ:-

03 POINTS;- 1-इस दस द्वारों शरीर में जो प्राण रुपी वायु है जिसके रहने से शरीर चलता फिरता है बातचीत करता है, आहार विहार करता है तथा संसार की सभी सुखों का उपभोग करता है। वह प्राणरूपी वायु शरीर के दस द्वारों में से किसी भी द्वार से निकल सकता है । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।

2-शास्त्रों के अनुसार देह के नौ द्वार मानें गये हैं जो कि मृत्यु के समय शरीर के अन्दर रहनेवाले जीव के निर्गमन के लिए प्राकृतिक रूप से खुले रहते हैं। इनमें से सात द्वार दोनों आँखें, दोनों कान, नाक के दोनों नथुने और मुँह सिर में स्थित रहते हैं जिनसे पुण्यात्मा या सामान्य स्तर की पुण्यात्माओं के जीव निर्गमन करते हैं। मूत्रेन्द्रिय और उपस्थि(मलोत्सर्जन की इन्द्रिय) नीचे के द्वार हैं जिनसे पापियों के जीव निकलते हैं। इनसे भिन्न ब्रह्मरन्ध्र का द्वार है जो प्राकृतिक रूप से बन्द रहता है और योगसाधना (विशेष रूप से प्राणायाम व ध्यान) द्वारा खोला जाता है। यदि जीव इस द्वार से होकर शरीरत्याग करता है तो वह मुक्त हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। इसी द्वार को दसवाँ द्वार कहा गया है।

3-दशम द्वार से निष्क्रमण की दशा में सामान्य निष्क्रमण की दशा की अपेक्षा शरीर के अत्यधिक सूक्ष्म अंश का निर्गमन होता है। सुषुम्णा के अन्दर वज्रनाडी है। वज्रनाडी के अन्दर चित्रनाडी है और चित्रनाडी के अन्दर ब्रह्मनाडी है। ब्रह्मनाडी के निचले सिरे पर मूलाधार चक्र है और ऊपर सबसे अन्त में ब्रह्मरन्ध्र का द्वार है। इसी ब्रह्मनाडी के रास्ते से जाकर जीव ब्रह्मरन्ध्र के द्वार से निकल पाता है। यह कहा जा सकता है कि जब सुषुम्णा तक को आधुनिक यन्त्रों तक से देखा नहीं जा सकता तो ब्रह्मनाडी और उसके अन्दर विचरण करनेवाले जीव की सूक्ष्मता की कल्पना ही की जा सकती है।

7-पांचतत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । दिन चार के कारने , फिर फिर रोके ठाम ।।

अर्थ:- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नी और आकाश तत्व से मिलकर बने ढाँचे को ‘मनुष्य’ नाम रख दिया । चार दिन के क्षणिक सुख विलास में लिप्त होकर जीव ने अपने मोक्ष का द्वार बन्द कर लिया ।

8-भाला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि । मनवा तो चहु दिश फिरै, यह तो सुमिर न नांहि ।।

अर्थ:- हाथ में माला फिर रही है और मुंह के बीच में जीभ फिर रही है तथा चंचल मन स्वच्छन्द रूप से चारों दिशाओ में घूम रहा है। फिर यह सुमिरन कहॅा हुआ ।यह तो सुमिरन करने का दिखावा है ।जब तक मन शान्त और एकाग्र नहीं होता तब तक सुमिरन संभव नहीं है ।

9-जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ। जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ ॥

अर्थ:-

जो गहरे पानी में डूब कर खोजेगा उसे ही मोती मिलेगा। जो डूबने से डर जायेगा ;वह किनारे बैठा रह जायेगा। आत्म ज्ञान प्राप्ति के लिये गहन साधना करनी पड़ती है।

10-ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय । औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय ॥

अर्थ:-

हमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए, जिससे दूसरों को शीतलता का अनुभव हो और साथ ही हमारा मन भी प्रसन्न हो उठे।मधुर वाणी औषधि के सामान होती है, जबकि कटु वाणी तीर के समान कानों से प्रवेश होकर संपूर्ण शरीर को पीड़ा देती है। मधुर वाणी से समाज में एक – दूसरे के प्रति प्रेम की भावना का संचार होता है। जबकि कटु वचनों से सामाजिक प्राणी एक – दूसरे के विरोधी बन जाते है।

11-दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय । बिना जीव की स्वाँस से, लोह भसम ह्वै जाय ॥

अर्थ:-

दुर्बल को कभी नहीं सताओ अन्यथा उसकी ‘हाय’ तुम्हें लग जायेगी । मरे हुए चमडे की धौकनी से लोहा भी भस्म ही जाता है । अर्थात- दुर्बल को कभी शक्तिहीन मत समझो ।

12-पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ;-

बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

13-आबत गारी ऐक है, उलटत होय अनेक कहै कबीर नहि उलटिये वाही ऐक का ऐक।

अर्थ:-

कोई एक गाली देता है तो उलटकर उसे भी गाली देने पर वह अनेक हो जाता है।यदि उलट कर पुनः गाली नहीं दिया जाये तो वह एक का एक ही रह जाता है।

14-जो तोको कांटा बुबये ताको बो तू फूल तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल।

अर्थ:-

जो तुम्हारे लिये काॅंटा बोये तुम उसके लिये फूल बोओ। तुम्हारा फूल तुम्हें फूल के रुप में मिल जायेगा ।परंतु उसका काॅंटा उसे तीन गुणा अधिक काॅंटा के रुप में मिलेगा। अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे का तीन गुणा बुरा फल मिलता है।

15-तीन ताप में ताप है , ताका अनंत उपाय । ताप आतम महाबली , संत बिना नहिं जाय ।। दैहिक , दैविक और भौतिक... ये तीन ताप संसार में माने गये हैं । इन तापों से बचने के लिए लोग अनेकों उपाय करते है ।तीनों ताप में दुख है पर उनके उपाय हैं। परंतु आत्मा के ताप-अथार्त ज्ञान की प्राप्ति ,प्रभु से बिना साक्षात्कार संत की संगति के संभव नहीं है।

16-कस्तूरी कुंडल बसे , मृग ढूंढे बन माहिं ।

ऐसे घट घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ।।

अर्थ:-

अति सुगन्धित कस्तूरी मृग के नाभि में होती है , जब घास चरने के लिए मृग अपनी सिर नीचे करता है तो कस्तूरी के सुगन्ध उसे मिलती है और उसे ढूंढने के लिए वह जंगल में इधर उधर दौड़ता फिरता है ।जबकि कस्तूरी तो उसकी नाभि में है जिसका ज्ञान उसे नहीं है ।उसी प्रकार अविनाशी भगवान तुम्हारे अपने ह्रदय में ;इस संसार के कण कण में विद्यमान है; किन्तु सांसरिक प्राणी उन्हें देख नहीं पाते ।

17-''भलो भयो हर बीसरो ; सिर से टली बलाय।

जैसे थे, वैसे भये ;अब कुछ कहो ना जाए।।

जब मैं था तब हरि‍ नाय, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।

प्रेम गली अति सांकरी, ता मे द्वै ना समाए।।''

अर्थ:-

यह कबीर का बेहद ही खूबसूरत दोहा है। यह ईश्वर, भगवान, हरि के लिए लिखा गया है लेकिन सामान्य जीवन में हम जिस किसी से भी प्यार करते हैं , किसी का प्यार पाना चाहते हैं , उस पर भी उतना भी सही बैठता है।इसमें मैं से मतलब अहंकार

से है। जब तक इंसान में 'मैं' होता है तब तक प्रेम नही हो सकता। प्रेम सिर्फ़ और सिर्फ़ समर्पण से ही सम्भव हो पाता है और समर्पण के लिए अहंकार छोड़ना होता है।

ता में दो ना समाय…… मैं और प्रेम ….. अहंकार और प्रेम …. ये दोनो एक साथ नहीं हो सकते ।

अगर प्रेम गली में प्रवेश करना चाहते हो तो “मैं” को बाहर रख कर जाना होगा ।तभी प्रेम को पा सकोगे …. सम्पूर्ण प्रेम को ।

प्रेम गली में “मैं” और “तू” नही … अपना अस्तित्व समाप्त कर सिर्फ़ “तू” ही “तू“ होना चाहिए। तभी प्यार मिलता है और तब ही हरी भी मिलते हैं।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

संत कबीरदास के अनुसार साधना की गहराई;-

09 दोहे (Advice/सलाह)

1-धीरे-धीरे रे मना, धीरज से सब होय । माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ॥

अर्थ;-

अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा, आज पेड़ लागाओगे तो कल फल नहीं आयेगा। इसी तरह धीरज जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है। मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है।

2-अष्ट सिद्धि नव निद्धि लौं , सबही मोह की खान । त्याग मोह की वासना , कहैं कबीर सुजान ।।

अर्थ;- कबीर दास जी कहते हैं कि संसार की अष्ट सिद्धियां और नौं निधिया माया मोह का भंडार है, इस मोह रूपी वासना का त्याग करना ही उत्तम है क्योंकि ये कल्याण साधन के मार्ग की बाधा है ।

3-नैनन की कारी कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।

पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय ॥

अर्थ;-

अपने प्रभु के लिए नेत्रों की कोठरी बनाकर पुतली रुपी पलंग बिछा दिया और पलकों की चिक दालकर अपने स्वामी को प्रसन्न कर लिया अर्थात् नयनों में प्रभु को बसाकर अपनी भक्ति अर्पित कर दी ।

4-जपा मरे अजपा मरे ,अनहद हू मर जाये। सुरत समानी शब्द में ,ताहि काल नही खाए।

अर्थ;-

03 POINTS;-

1-कबीर कहते है कि ब्रह्मरन्ध्र पर नीचे के 5 कमलो के 5 जप मंत्र निष्प्रभावी हो जाते है, और अजपा जाप( ,जिसे साँसो की माला पे जपा जाता है, उसे अजपा जाप कहते है ) ब्रह्म एवम् परब्रह्म के लोक पार करते ही निष्प्रभावी हो जाते है| इसके बाद महासुन्न में अनहद धुन भी बंद हो जाती है, इस महासुन्न को सारनाम(सारशब्द) से पार करते है| यहाँ से आगे मकर तार की डोरी प्रारंभ होती है जिसे सारशब्द से पार करके सतलोक मे प्रवेश करते है| यहाँ काल से पूर्णतया मुक्ति मिल जाती है|

2-सुमिरण करते करते हम उसमे इतने लीन हो जायेंगे। फिर अचानक से अहसास होगा की सुमिरण का तो पता नही। अजपा जाप शुरू हो गया।यानी अब बिना कोशिश के सुमिरण अपने आप चलने लगा।। दिन रात हमेशा अपने आप हो रहा है।फिर हम जपने वाले नही रह जाते। फिर हम सुनने वाले बन जाते है। 3-फिर कुछ और गहराई में जाते है तो सुमिरण 'धुन' यानी साउंड में बदल जाता है। अब न हम जाप कर रहे है ,न जाप सुन रहे है। वो पीछे रह गया।अब तो सिर्फ ध्वनि होती है.. 'झनकार धुन[' ;जिसको अनहद नाद कहते है।धीरे धीरे गहराई में जब उतरते है तो सब तरह की ध्वनिसिर्फ एक साउंड में बदल जाती है।इस स्टेज पर जाप भी मर गया यानी सुमिरण पीछे रह गया।अजपा यानी तरह तरह की ध्वनियां भी गयी।। अब वो अवस्था आई; जहां सच्चा शब्द यानी कुल मालिक सामने प्रकट हुआ।और मेरी सूरत उस शब्द रूपी मालिक में समा गयी।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

5-छिनहिं चढै छिन उतरै , सों तो प्रेम न होय । अघट प्रेमपिंजर बसै , प्रेम कहावै सोय ।।

अर्थ;- वह प्रेम जो क्षण भर में चढ़ जाता है और दुसरे क्षण उतर जाता है वह कदापि सच्चा प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि सच्चे प्रेम का रंग तो इतना पक्का होता है कि एक बार चढ़ गया तो उतरता ही नहीं अर्थात प्रेम वह है जिसमें तन मन रम जाये ।

6-लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल । लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

अर्थ;-

03 POINTS;-

1-''मुझे हर जगह ईश्वरीय ज्योति दिखती है-अंदर, बाहर, हर जगह।लगातार ऐसी दैवी ज्योति देखते देखते, मैं भी ईश्वरीय हो गई हूँ |प्रभु का रंग कुछ ऐसा था कि चारो ओर ज्ञान स्वरूप लाली छाई हुई थी। मैंने सोचा मैं भी जाकर देखता हूँ और उनके समक्ष जाते ही वही रंग मेरा भी हो गया''। 2-जब तक मैं का भाव है, तभी तक तू भी है। मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।जब तक शिष्य हैं तभी तक गुरु भी हैं।वह प्रकाश तुम्हारा नहीं है; वह प्रकाश परमात्मा का है। जहां मैं नहीं, जहां तू नहीं, वहां जो शेष रह जाता है; उस शून्य का, उस सन्नाटे का-उसी का नाम परमात्मा है।

3-जैसे ही तुम शांत हो गए, इतनी भी अस्मिता न रही इतना भी अहंकार न रहा कि मैं हूं, मैं शिष्य हूं, मैं धार्मिक हूं, कि संन्यासी हूं, कि सत्य का खोजी हूं,अन्वेषी हूं-ऐसा कोई भाव ही न रहा; एक निर्भावदशा हो गई- तब अपूर्व प्रकाश का अनुभव होगा।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

7-" जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कह्यौ गयानी ।"

03 POINTS;-

अर्थ :-

1-जिस प्रकार सागर में मिट्टी का घड़ा डुबोने पर उसके अन्दर - बाहर पानी ही पानी होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है , इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है , पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त हो जाते हैं I

2-ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , चेतना - युक्त हैं तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार - प्रकार ही हैं I इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगाI जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी; सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी I

3-जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता हैI इस तरह देखें तो बाहर और भीतर पानी ही रहता है अथार्त पानी की ही सत्ता हैIजब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है ...अलगाव नहीं रहताI आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैंI आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान हैI अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है I जब देह विलीन होती है तो वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है ..उसी में समा जाती है ..एकाकार हो जाती हैI

8-जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं । प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं ॥

अर्थ;-

जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ, जब अहंकार (अहम) समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले | जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ, तब अहंकार स्वत: ही नष्ट हो गया |ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ |प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता, प्रेम की संकरी (पतली) गली में केवल एक ही समा सकता है - अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है |

9-चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह।।

अर्थ;-

संत रहीम जी कहते है कि जिन्हें कुछ नहीं चाहिए वह राजाओं के राजा हैं। क्योंकि उन्हें न तो किसी चीज की चाह है, न ही चिन्ता और मन तो बिल्कुल बेपरवाह है। सरल शब्दों में समझाना चाहते है,कि ऐसा मनुष्य जिन्हें कुछ नहीं चाहिए वह अपने आप में ही राजा है|

10-संत तुलसीदास जी कहते है -

1-निर्मल मन जन सो मोहि भावा , मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।

2-धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परिखिअहिं चारी॥

3-सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥ ईश्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥

सो मायाबस भयउ गोसाईं।बँध्यो कीर मरकट की नाईं।।

4-सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥

भावार्थ:-'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत्‌ कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥1॥

...SHIVOHAM....


Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page