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क्या है संत कबीरदास के अनुसार साधना की शुरुआत और गहराई ?



06 FACTS;-

1-कबीर अनूठी बात कह रहे हैं...

मन रे जागत रहिये भाई।गाफिल होइ बसत मति खोवै। चोर मुसै घर जाई।षटचक्र की कनक कोठरी।बस्त भाव है सोई। ताला कुंजी कुलक के लागै।उघड़त बार न होई। पंच पहिरवा सोई गये हैं,बसतैं जागण लागी,जरा मरण व्यापै कछु नाही। गगन मंडल लै लागी।करत विचार मन ही मन उपजी। ना कहीं गया न आया।कहे कबीर संसा सब छूटा।राम रतन धन पाया।

2-मनुष्य चेतना के दो आयाम है... एक मूर्च्छा तथा दूसरी अमूर्च्छा। मूर्च्छा का अर्थ है कि सोये-सोये या बिना होश के जीना। अमूर्च्छा का अर्थ है, होशपूर्वक जीना ..जाग्रत, विवेकपूर्ण। मूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया बुझा है। अमूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया जला है।मूर्च्छा में रोशनी बाहर होती है। बाहर की रोशनी से ही व्यक्ति चलता है। जहां इंद्रियां ले जाती हैं, वहीं जाता है। इंद्रियों की कामना ही खुद की कामना बन जाती है। क्योंकि खुद का कोई पता ही नहीं। मन जो सुझा देता है, वही जीवन की शैली हो जाती है। क्योंकि अपने स्वरूप का तो कोई बोध नहीं। लोग जो समझा देते हैं, समाज जो बता देता है, वहीं व्यक्ति चल पड़ता है क्योंकि अस्तित्व में तो अपनी कोई जड़ें नहीं होती हैं। न ही अपना कोई भान होता है कि मैं कौन हूं। जीवन ऐसे होता है, जैसे नदी में लकड़ी का टुकड़ा बहता है। जहां लहरें ले जाती हैं, चला जाता है। जहां हवा के धक्के पहुंचा देते हैं, वहीं पहुंच जाता है। अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, निजता नहीं। जीवन एक भटकन है। 3-निश्चित ही ऐसी भटकन में कभी मंजिल नहीं आ सकती। मंजिल तो सुविचारित कदमों से पूरी करनी पड़ती है। भटकाव बहुत हो सकता है यात्रा नहीं हो सकती। यात्रा का अर्थ है कि तुम्हें पता हो तुम कौन हो; कहां हो! कहां जा रहे हो! क्यों जा रहे हो! होशपूर्वक ही यात्रा -तीर्थयात्रा हो सकती है। इसलिए ज्ञानियों ने होश को ही तीर्थ कहा है। अमूर्च्छित चित्त, जागा हुआ चित्त बिलकुल दूसरे ही ढंग से जीता है। उसके जीवन की व्यवस्था भिन्न होती है। वह दूसरों के कारण नहीं चलता, वह अपने कारण चलता है। वह सुनता सबकी है परन्तु मानता भीतर की है। वह गुलाम नहीं होता। भीतर की मुक्ति को ही जीवन में उतारता है। कितनी ही अड़चन हो, लेकिन उस मार्ग पर ही यात्रा करता है जो पहुंचायेगा। और कितनी ही सुविधा हो, उस मार्ग पर नहीं जाता, जो कहीं नहीं पहुंचायेगा।अगर मार्ग कहीं पहुंचाता ही न हो, तो उस मार्ग की सुविधा और सौंदर्य का क्या करिएगा? मार्ग कंटकाकीर्ण हो, राह लुटेरों से भरी हो, जंगली जानवरों का भय हो, लेकिन कहीं पहुंचाता हो, तो जाने योग्य है। 4-अमूर्च्छित व्यक्ति का जीवन भटकाव नहीं, एक सुनियोजित यात्रा है। लेकिन समाज उस नियोजन को नहीं दे सकता। समाज तो मूर्च्छित लोगों का समूह है। अगर तुमने समाज की सुनी, तो तुम अंधेरे में ही भटकते रहोगे। भीड़ तो बोधपूर्ण नहीं है।कभी-कभी कोई एकाध व्यक्ति अनेकों में बोध को उपलब्ध होता है। तो भीड़ तो बुद्धों की नहीं है।बुद्ध शब्द का अर्थ है--जो जाग गया ...जो होश से भर गया।अमूर्च्छित व्यक्ति अपने भीतर अपने जीवन की विधि खोजता है। अपने होश में अपने आचरण को खोजता है। अपने अंतःकरण के प्रकाश से चलता है।अंतःकरण का प्रकाश कितना ही थोड़ा हो , सदा पर्याप्त है।छोटे से छोटा दीया भी इतना तो दिखा ही देता है, कि एक कदम चल लो, फिर और एक कदम दिखाई पड़ जाता है। कदम-कदम करके हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।अमूर्च्छित व्यक्ति विद्रोही होता है। अमूर्च्छित व्यक्ति एक-एक क्षण, पल-पल एक ही बात को साधता है; और वह बात यह है, कि कुछ भी मुझसे ऐसा न हो जाए, जो मूर्च्छा को बढ़ाए। ध्यान रखना है कि एक-एक बूंद पानी की गिरती है, और चट्टानें टूट जाती हैं। एक-एक बूंद होश की गिरती है, और तुम्हारी जन्मों-जन्मों की मूर्च्छा की चट्टान की निद्रा की टूट जाती है। लेकिन एक-एक बूंद गिरनी चाहिए।तो प्रतिपल अमूर्च्छित व्यक्ति की चेष्टा यही होती है, कि हर क्षण का उपयोग एक ही संपदा को पाने में कर लिया जाए। वह यह, कि मेरे भीतर का विवेक प्रगाढ़ हो जागे। मूर्च्छित चित्त की तीन अवस्थाएं ;- 1-मूर्च्छित चित्त की तीन अवस्थाएं हैं, जिन्हें हम जानते हैं।मूर्च्छित व्यक्ति की पहली अवस्था है-जाग्रत ।दूसरी अवस्था है--स्वप्न और तीसरी अवस्था है--निद्रा। आत्मा तो उन्हीं के भीतर है, जो जागे हुए हैं। बाकी तो सिर्फ मिट्टी के शरीर हैं। उनके भीतर अभी आत्मा का कोई आविर्भाव नहीं हुआ है।एक, जिसे हम जाग्रत कहते हैं; जो कि शब्द उचित नहीं है। क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति का जागरण नाममात्र का जागरण है। सुबह सूरज उगता है, पशु-पक्षी जाग आते हैं, पौधे जाग आते हैं, तुम भी जाग जाते हो। क्या पशु पक्षी जाग्रत हैं; क्या पौधे जाग्रत हैं? तुम भी नहीं हो। सिर्फ शरीर का विश्राम पूरा हो गया, इसलिए तुम उठते हो, चलते हो, बैठते हो। ऐसा लगता है, जैसे जागे हो। लेकिन यह सिर्फ लगना है।जागकर भी तुम जो करते हो, वह खबर देता है कि तुम सोये हुए हो।तुमने अनेक बार तय किया है कि अब दोबारा क्रोध न करेंगे। हजार बार कसमें ली हैं ....पछताए हो।और फिर कोई एक अपमान कर देता है, या तुम्हें लगता है अपमान कर दिया ।एक क्षण की देरी भी नहीं होती, और आग उबल उठती है।

2-यह याददाश्त इतनी जल्दी कैसे खो जाती है?वास्तव में, होश होता, तो साथ रहती। बेहोशी में याददाश्त साथ कैसे रह सकती है ? क्षण में आग जल उठती है। फिर वही क्रोध खड़ा है।फिर तुम पछताओगे लेकिन न तुम्हारे पछतावे का कोई मूल्य है और न तुम्हारे क्रोध का कोई मूल्य है। तुम्हारा पछतावा भी झूठ है क्योंकि तुम कितनी बार पछता चुके।जब तक तुम जागे नहीं हो, तुम हो ही नहीं। तुम्हारा होना सिर्फ एक भ्रांति है..जिसकी कोई जड़ें नहीं है।न तुम पश्चात्ताप छोड़ सकते हो, न तुम क्रोध छोड़ सकते हो। करते जरूर हो।वास्तव में, वह भी होता है। तुम यंत्रवत होते तो छोड़ देते।उदाहरण के लिए बटन दबाते हो, तो कंप्यूटर चल जाता है। जिस काम को तुम करते हो, उसे तुम छोड़ सकते हो; यह नियम है। जिस काम को तुम करते ही नहीं, उसको तुम कैसे छोड़ोगे?किसी ने गाली दी, बटन दबा दी। किसी ने तारीफ की आप प्रसन्न हो गए! बटने हैं ....तुम नहीं हो।आत्मा है, यह केवल सिद्धांत है।आत्मवान होने का एक ही अर्थ होता है, कि तुम अपने मालिक हुए। अब तुम जो चाहो, वही होगा।अब तुम यंत्रवत नहीं हो ... मनुष्य हो। मनुष्य का अर्थ है कि अब तुम्हारे कृत्य भीतर से निकलेंगे ।बाहर की घटनाओं और परिस्थितियां से नहीं, अब तुम मूल्यवान हो।तो पहले ..तुम हो तो जाओ। 3-तुममें आत्मा ऐसे ही है, जैसे बीज में वृक्ष। हुआ न हुआ ..बराबर। वह केवल बीज की संभावना है कि अगर समुचित भूमि , समुचित खाद , समुचित सुरक्षा, जल, सूर्य की किरणें मिलें तो संभावना है कि बीज वृक्ष हो सकेगा। लेकिन बहुत सी शर्ते पूरी हों अन्यथा बीज -बीज की तरह ही मर जाएगा और वृक्ष न हो सकेगा।अधिकतम लोग शरीर की तरह ही जीते हैं और शरीर की तरह ही मर जाते हैं।उनका बीज ऐसे ही खो जाता है। अवसर आता है और जाता है।कभी-कभी किसी व्यक्ति में आत्मा होती है।आत्मवान होने का अर्थ है--होश, विवेक, जागृति। तुम्हारे कृत्य तुम्हारे भीतर से निकलने लगें। अभी तुम्हारे कर्म, कर्म नहीं हैं, प्रतिकर्म हैं। प्रतिकर्म यानी रिएक्शन। कोई कुछ करता है, उसकी प्रतिक्रिया में तुम्हारे भीतर कुछ होता है। अगर कोई प्रेम करता है, तो तुम प्रेम करते हो। और कोई घृणा करता है, तो तुम घृणा करते हो।शत्रु को भी प्रेम करो। यह कोई नीति की शिक्षा नहीं बल्कि धर्म का गहनतम सूत्र है।वास्तव में, मित्र को तो प्रेम करना प्रतिक्रिया है, वह तो सभी करते हैं। शत्रु को घृणा करना भी प्रतिक्रिया है। वह तो सभी करते हैं। जिसने शत्रु को प्रेम कर लिया, वह मालिक हो गया। उसने प्रतिक्रिया तोड़ दी। वह अपने कर्म का खुद मालिक हो गया।शत्रु तो पूरी चेष्टा कर रहा है, कि तुम उसे घृणा करो। लेकिन तुमने प्रेम का प्रवाह पैदा कर दिया। अगर तुम अपने शत्रु को प्रेम कर पाओ तो तत्क्षण तुम यंत्रवत्ता से मुक्त हो गए। तब तुम्हारे प्रतिकर्म खो गए। अब तुम कर्मवान हुए।और प्रतिकर्म बांधते हैं, कर्म नहीं बांधता।वास्तव में, प्रतिकर्मों से ही कर्मों की शृंखला बनती है। जब कोई व्यक्ति होशपूर्वक कर्म करता है तो उससे कोई बंधन पैदा नहीं होता।

4-जीवन में होशपूर्वक कर्म करने का अर्थ है, तुम्हारे शरीर का यंत्र जो करना चाहता हो वह नहीं; तुम्हारे भीतर का होश जो करना चाहता हो वही तुमने कभी किया है।कभी ऐसा हुआ है कि शरीर और मन कहता था, करो क्रोध। मन में तो गाली उठ आई थी, शरीर ने हाथ उठा लिया था।और तुम अछूते, अस्पर्शित भीतर खड़े रहे? तुम्हारी ज्योति पर छांव भी न पड़ी इसकी। और ज्योति कमल की तरह निष्कलुष बनी रही। पानी छुआ ही नहीं।अगर ऐसा तुमने कभी किया है, तो तुम्हें पता चलेगा कि अमूर्च्छा , जागृति , होश क्या है! उसी क्षण तुम परम-आनंद से भर जाओगे। तुम मुक्त हो गए। अब तुम्हें कोई चला नहीं सकता। अब तुम अपने मालिक..सम्राट हो गए।जब तक तुम यंत्र की तरह बंधे हो तब तक तुम एक भिखारी हो। तुम्हारा जागरण, नाम-मात्र का जागरण है। मूर्च्छा का पहला रूप है--जागरण--सुबह से सांझ तक जिसे तुम जानते हो, वह जागरण ऊपर-ऊपर है। भीतर तो निद्रा बहती रहती है। कभी आंखें बंद करके थोड़ी देर बैठ जाओ। तत्क्षण तुम सपना देखने लगोगे। आंख खुली थी, वृक्ष, लोग, बाजार दिखाई पड़ रहा था। आंख बंद की--सपना शुरू!ऊपर-ऊपर, सतह पर.. तुम जागे हुए लगते हो। भीतर सपना चल रहा है।आंख खुली थी, तुम बाहर उलझे थे, इसलिए खयाल नहीं था। सपना नींद का लक्षण है क्योंकि बिना नींद के सपना हो ही नहीं सकता।और अगर जागते-जागते भी तुम्हारे भीतर सपना चलता है तो उसका अर्थ है, तुम्हारे भीतर नींद ही चलती है।वे ऊपर-ऊपर तो रास्ते पर चल रहे हैं और भीतर दूसरे ही रास्ते हैं, जिन पर उनका मन चल रहा है। 5-तुम अपना ही निरीक्षण करो। तुम पाओगे, तुम जो भी करते हो, वह ऊपर-ऊपर है। भीतर कुछ और भी चल रहा है। भीतर सपना चल रहा है। भीतर नींद भरी है। ऊपर जरा सी पतली सतह है जागरण की। वह काम-चलाऊ है। उससे कोई आत्मा की उपलब्धि न होगी और न परमात्मा मिलेगा। वह जुगनू की चमक जैसी इतनी धीमी मंदी रोशनी है, कि उससे वह प्रगाढ़ अंधकार न टूटेगा, जो तुम्हारे जीवन के भीतरी तलों को घेरे हुए हैं। दूसरी अवस्था है ...तुम्हारे स्वप्न की। स्वप्न में तुम्हें वास्तविक मालूम होता है।तम रोज रात कोई सपना देखते हो ।सुबह हर दिन जागते हो और पाते हो कि सपना झूठ था।लेकिन फिर से सोओगे और सपना सच मालूम होगा।तुम्हारा होश ऐसा है कि तुम्हारे जीवन में कोई भी संग्रहीत नहीं होता । तुम्हारा ज्ञान ही निर्मित नहीं होता है।एक बच्चा एक बार भूल करे तो हम कहते हैं चलो, माफ कर दो। फिर दोबारा वही भूल करता है, तो हम कहते हैं चलो बच्चा है। लेकिन तीसरी दफे हम सोचने लगते हैं, कि अब कुछ करना पड़ेगा। लेकिन तुम तो करोड़ों बार वही भूल कर चुके।मनुष्य जान कर भी जानता नहीं है और सीख कर भी सीखता नहीं है।सपना बेहोशी का लक्षण है।असंगत घटनाएं भी सपने में सही मालूम पड़ती हैं।सपने में संदेह पैदा ही नहीं होता।और जिसने सपने में संदेह कर लिया,उसका सपना टूट जाता है। वह सपने के बाहर हो जाता है।सत्य के लिए श्रद्धा चाहिए और सपने के लिए संदेह चाहिए । सत्य उसे मिलता है, जो श्रद्धा करता है। सपना उसका छूटता है, जो संदेह करता है। सपने पर संदेह आते ही सपना टूट जाता है।तुम उलटा ही कर रहे हो। सत्य पर संदेह करते हो, सपने पर श्रद्धा करते हो। 6- मूर्च्छित व्यक्ति की दूसरी अवस्था है--स्वप्न और तीसरी अवस्था है--निद्रा।जागने में थोड़ी सी जागृति रहती मालूम पड़ती है। एक आभास, एक छाया, एक प्रतिध्वनि की तरह... लेकिन सपने में बिलकुल नहीं रह जाती। तो निद्रा में तो सपना भी नहीं रह जाता।तब तुम होते ही नहीं।निद्रा का अर्थ है, स्वप्न शून्य निद्रा। तुम्हारा होना बिलकुल ही विलुप्त हो जाता है। दीया बिलकुल ही बुझ जाता है।ये मूर्च्छित चित्त की-साधारण चित्त की अवस्थाएं हैं।अमूर्च्छित चित्त की कोई अवस्थाएं नहीं हैं क्योंकि अमूर्च्छित व्यक्ति सपना नहीं देखता। जिसको होश है उसे सपना कैसे सच मालूम होगा? जैसे प्रकाश के जलने पर अंधेरा खो जाता है, ऐसे ही होश के आने पर सपने खो जाते हैं। अमूर्च्छित व्यक्ति सपने से मुक्त हो जाता है और निद्रा से भी।इसका यह अर्थ नहीं, कि वह सोता नहीं।वह सोता है, लेकिन जागा हुआ सोता है। जैसे तुम जागे हुए भी सोते हो, वैसे वह सोया हुआ भी जागता है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि योगी उस समय भी जागता है, जब भोगी की रात है। जब भोगी सोता है, तब भी योगी जागता है। इसका यह अर्थ नहीं, कि श्री कृष्ण सोते नहीं थे। शरीर तो विश्राम करेगा, शरीर तो यंत्र है और शरीर के पुनर्जीवन के लिए विश्राम जरूरी है। बस, शरीर ही सोता है लेकिन भीतर का दीया जलता ही रहता है।अर्थात भीतर का पुरुष जागा रहता है।जागृत व्यक्ति की कोई अवस्थाएं नहीं हैं। जागृति ही उसकी अवस्था है। वह जागे में भी जागता है, सोने में भी जागता है। जागना उसका स्वभाव है। और इसलिए समस्त योग एक ही कुंजी में भरोसा करता है। और वह कुंजी है, जाग जाना। जिस दिन जागने की कुंजी तुम्हारे नींद के ताले पर लग जाती है, द्वार खुल जाता है।संत कबीर ने इन वचनों में उसी कुंजी की चर्चा है।

............................................................................................................................................................................. संत कबीर वचनों का विवेचन;- मन रे जागत रहिये भाई।गाफिल होइ बसत मति खोवै। चोर मुसै घर जाई।षटचक्र की कनक कोठरी।बस्त भाव है सोई। ताला कुंजी कुलक के लागै।उघड़त बार न होई। पंच पहिरवा सोई गये हैं,बसतैं जागण लागी,जरा मरण व्यापै कछु नाही। गगन मंडल लै लागी।करत विचार मन ही मन उपजी। ना कहीं गया न आया।कहे कबीर संसा सब छूटा।राम रतन धन पाया।

1-मन रे जागत रहिये भाई।

गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई। मनुष्य की नींद बड़ी गहरी है - निरंतर निरंतर अभ्यास करने से ही मिटेगी।यदि चेष्टा जारी रहे तो चट्टान कितनी ही छोटी हो, एक दिन बूंद-बूंद गिर कर यह चट्टान टूट जाएगी।मन रे जाग रहिये भाई -अर्थात असावधान होकर जीओगे, गाफिल होकर जीओगे, बेहोश , नशे में जीओगे तो वह जो भीतर तुम्हारे घर में बसता है, भीतर का मालिक है, उसका तुम्हें कभी पता न चलेगा।संस्कृत में, सांख्य और वैशेषिक शास्त्रों में आत्मा को पुरुष कहा है।पुरुष शब्द उसी घात से बनता है जिससे पुर बनता है। पुर यानी नगर और पुरुष यानी जो उस नगर के भीतर रहता है--निवासी। बसत अर्थात वह जो बसा है।गाफिल होइ बसत मति खोवै -अर्थात अगर बेहोश चले, तो वह जो भीतर बसा है, उसकी जो चमक है, जो आभा है वह खो जाएगी। उसकी मति धूमिल हो जाएगी। उसके ऊपर धूल जम जाएगी। दर्पण पर धूल जम जाती है, तो दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। ऐसे तुम्हारे भीतर जो बसा है, अगर नींद की पर्त ही पर्त तुम जमाते गए, तो उसकी मति, उसकी प्रतिभा, उसकी चमक खो जाएगी।चोर मुसै घर जाई -अर्थात जब भीतर का पुरुष, भीतर का दीया अंधेरे से ढंक जाए, गहन रात में खो जाए, भीतर की प्रतिभा सो जाए, जागी न हो, तो फिर चोर घर में घुसना शुरू हो जाता है।घर में कोई न भी हो और सिर्फ दीया जलता हो तो भी चोर डरते हैं।जिस दिन भीतर का दीया जलता है, उस दिन चोर प्रवेश नहीं करते।चोर अर्थात जो भी तुम्हें प्रतिक्रिया में ले जाते हैं, वे सभी चोर हैं।किसी ने गाली दी और तुम प्रभावित हो गए। चोर भीतर घुस गया। अब यह चोर तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा। गाली देनेवाला तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता था क्योकि बाहर था।लेकिन तुमने चोर को भीतर बुला लिया। तुम क्रोधित हो गए। अब नुकसान होगा।तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र भी नहीं है और तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई शत्रु भी नहीं है।चोर तुम्हारे कारण भीतर घुसता है, दूसरे के कारण नहीं।होशपूर्ण व्यक्ति वही लेता है, जो लेना है। तुम्हारे देने न देने का सवाल नहीं है ..वह मालिक हैं।देना किसी के हाथ में है,लेकिन लेने की मालकियत तो सदा से आपके हाथ में है। देने से ही तो काम पूरा नहीं हो जाता। वह अधूरी प्रक्रिया है। 2-षटचक्र की कनक कठोरी, बस्त भाव है सोई। कबीर कहते हैं--यह भीतर काअर्थात मनुष्य केअंतः स्थल का विश्लेषण है।योग छह चक्रों को मानता है; जिनके भीतर तुम्हारी चेतना छिपी है । ये छह षटचक्र तुम्हारे इस शरीर के हिस्से नहीं हैं बल्कि इस शरीर के भीतर जो छिपा है ;उस सूक्ष्म शरीर के हिस्से हैं। यह छह चक्र ऊर्जा के चक्र हैं। इन छह चक्रों के कारण ही तुम ऊर्जावान हो। तुम्हें जो जीवन में शक्ति मालूम पड़ती है--उठते हो, बैठते हो, चलते हो, काम करते हो, फिर थक जाते हो फिर शक्ति वापस लौट आती है ।अर्थात इन छह चक्रों के द्वारा तुम्हारे भीतर ऊर्जा पैदा हो रही है।जैसे पानी में विद्युत छिपी पड़ी है। लेकिन उसे निकालने के लिए यंत्र चाहिए जिनसे विद्युत बाहर आ जाए और उपयोग में आ जाए।तुम्हारी आत्मा प्रगाढ़ ऊर्जा है, अनंत ऊर्जा है। जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा.. स्वयं अनंत, अक्षय उसकी शक्ति है। लेकिन उस शक्ति को सक्रिय बनाने के लिए भीतर छह चक्र हैं। उन चक्रों के निरंतर घूमने से आत्मा की शक्ति शरीर तक प्रवाहित होती है। योग उन छह चक्रों को जगाने की चेष्टा करती है।जब वे छह चक्र ठीक-ठीक सक्रिय हो जाते हैं, तब जीवन में बड़ी ऊर्जा का आविर्भाव आता है। तब तुम बिना थके जीते हो। तब तुम्हारे भीतर का ऊर्जा की एक बाढ़ होती है .. तुम्हारी क्षमता अपार हो जाती है। फिर तुम प्रेम बांटो या ज्ञान ,सब बढ़ता है।जिस व्यक्ति के जीवन में थोड़ी सी भी जागृति आती है, वह बांटना शुरू करता है। वह जितना बांटता है, उतना बढ़ता है ;उतने ही नये स्रोत उपलब्ध होते हैं। जितना बांटता है, उतना ही पाता है । ब्रह्मांड में अनंत शक्ति ,अनंत ऊर्जा उपलब्ध है।और बड़ी जटिल बात यह है कि जितना तुम बचाते हो, उतना ही तुम्हारी षटचक्रों की प्रक्रिया कम हो जाती है।परमात्मा की ऊर्जा जीवंत है। लेकिन वह छह चक्रों के द्वारा जुड़ा है।और उस कोठरी के भीतर ही, उस अनंत संपदा के भीतर ही बसा हुआ है पुरुष...तुम्हारी आत्मा। ये छह चक्र सक्रिय होने चाहिए। जितने सक्रिय होंगे, उतना ही भीतर प्रवेश होगा। और ठीक अंतरतम में, ठीक मध्य बिंदु पर, तुम्हारे होने के ठीक केंद्र में परमात्मा छिपा है। वही है असली बसनेवाला। शरीर , मन घर है और मन से भी गहरा घर षटचक्र है।

3-ताला कुंजी फुलफ के लागै, उघड़ता बार न होई।

यदि तुम्हें सही कुंजी मिल जाए और ताले में लग जाए, तो कुंडलिनी जागृत हो जाती है। ऊर्जा जग जाती है। उन छहों चक्रों में एक ही ऊर्जा का प्रवाह हो जाता है। छह चक्रों को जोड़ने वाली ऊर्जा का नाम कुंडलिनी है। चक्र अलग-अलग चलते हैं, तो तुम संसार के काम के योग्य शक्ति पैदा कर पाते हो।जब छहों चक्र इकट्ठे एक सूत्र में आबद्ध हो जाते हैं, जैसे कि माला के मनके एक ही धागे में बंध जाते हैं। मनके अलग-अलग हैं, लेकिन माला नहीं।चक्र अलग-अलग हैं, और उनसे शक्ति पैदा होती है, लेकिन अभी माला नहीं है । जब छहों चक्र एक धारा में, एक लयबद्धता में जुड़ जाते हैं ।तब छहों एक साथ सक्रिय होते हैं और उन छहों के बीच एक संगीत निर्मित हो जाता है, एक माला बन जाती है, तो उसी का नाम कुंडलिनी है। और जिस दिन कुंडलिनी जग जाती है--उघड़ता बार न होई अर्थात फिर तुम्हारे परमात्मा स्वरूप के उघड़ने में क्षण भर की भी देर नहीं होती। 4-पंच पहिरवा सोई गए हैं, बसतैं जागण लागी। और जैसे ही तुम जागते हो, पांचों इंद्रियां सो जाती हैं। जब तक पांचों इंद्रियां जागती हैं, तब तब तुम सोए रहते हो। जैसे जैसे इंद्रियां सोती जाती है, शांत हो जाती हैं।तब वही ऊर्जा, जो इंद्रियों से प्रवाहित होकर बाहर जा रही थी, वही ऊर्जा अंतर्यात्रा पर निकल जाती है। उसी से तुम जागने लगते हो।वह जो भीतर बसा है, वह जाग गया। वे पांच पहरेदार सो गए। 5-जरा मरण व्यापै कछु नाही, गगन मंडल लै लागी। और अब न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म। क्योंकि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह कभी जन्मा नहीं, कभी मरा नहीं। मरना और जन्मना उसके बाहर की घटना है। तुम्हारा शरीर मरा है, जन्मा है, तुम्हारा मन, तुम्हारे रूप, नाम, अनंत अनंत बार बदले हैं। लेकिन वह जो भीतर छिपा है.. अविनाशी, वह सदा वही का वही रहा है। वह कभी बदला नहीं। न पैदा हुआ, न मरेगा। न वह बनाया गया है और न मिटेगा।और जिसने उसकी साक्षात अनुभूति कर ली, उसके लिए मृत्यु का भय मिट जाता है। और जीवन की अभीप्सा मिट जाती है।

6-गगन मंडल लै लागी। अब उसकी तो सारी ज्योति, लौ, लगन शून्य की तरफ लग जाती है। गगन यानी शून्य,आकाश, निराकार। ब्रह्म कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो। अब तो उसकी सारी ज्योति शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। तुम्हारी जीवन ज्योति सदा वस्तुओं की तरफ प्रवाहित होती रहती है। आकृति की तरफ, रूप की तरफ, धन की तरफ, शरीर की तरफ, मकान की तरफ, लेकिन सदा वस्तुओं की तरफ। इंद्रियां वस्तुओं की तरफ प्रवाहमान हैं। चेतना सदा निर्विकार, निराकार, शून्य की तरफ प्रवाहमान है। 7-करत विचार मन ही मन उपजी... संत कबीर जिसे विचार कहते हैं, वह तुम्हारा विचार नहीं है।तुम्हारे भीतर विचार तो बहुत हैं, लेकिन तुमने विचार कभी नहीं किया। इस भेद को ठीक से समझना है।थॉट्स -विचारों की तो तुम्हारे भीतर भीड़ है, लेकिन थिंकिंग--विचार की तुम्हारे भीतर बिलकुल संभावना नहीं। विचार तुम्हारे भीतर बहुत हैं, लेकिन तुम्हारा उसमें कौन सा विचार है? सब उधार हैं।तुम्हारा अपना कोई विचार नहीं है । जिसको तुम अपना भी कहते हो, वह भी गौर करोगे तो पाओगे किसी और से, कहीं से पा लिया है।सब दूसरों के विचारों का जोड़ है। संयोग नया होगा, लेकिन विचार पुराना है। उसमें कुछ भी नया नहीं है।मौलिक विचार तो तुम्हें तभी हो पाएगा, जब ध्यान लग जाए। ध्यान का अर्थ है जब विचारों की भीड़ चली जाए। इसलिए असली विचार की क्षमता तो तब आती है, जब विचारों की भीड़ विदा हो जाती है। जब भीतर मन का खुला आकाश रह जाता है, जिसमें एक भी बादल विचार का नहीं। तब विचार की क्षमता उपजती है। तब तुम विचार नहीं करते । तब तुम सोचते नहीं, तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब विचार दर्शन हो जाता है।संत कबीर उसी विचार की बात कर रहे हैं। कि ध्यान में ऐसे बैठे--शांत ..कोई विचार की भीड़ नहीं, शून्य में लगन लगी। ऐसे विचार के क्षण में--मन ही मन उपजी । भीतर यह भाव उठा ..अर्थात यह धारणा जन्मी। 8-...न कहीं गया न आया। अब तक न तो कहीं गया , और न ही कहीं आया। न कोई जन्म हुआ और न कोई मृत्यु हुई।इसलिए इस संसार को माया कहते हैं। माया का अर्थ है ..वस्तुतः जो जागते हैं, उन्हें दिखाई पड़ता है कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह भी सपना था। न कहीं गया, न आया। सदा से वहीं हूं, जहां था। शाश्वत, सनातन, नित्य! जरा भी अंतर नहीं पड़ा।तुम आते हो, जाते हो।लेकिन तुम्हारे भीतर जो है, वह न कहीं आया और न कहीं गया।वह तो वहीं के वहीं है।तुम चाहे कहीं भी जाओ ...शरीर ही जाएगा -आएगा। मन जाएगा-आएगा। तुम तो वहीं के वहीं रहोगे।उस परिचित, उप परम-चेतना का कोई आवागमन नहीं है। 9-कहे कबीर संसा सब छूटा......राम रतन धन पाया। और जैसे ही यह प्रतीति हुई, कि न कहीं गया न आया--उसी क्षण सब संशय छूट गए।उसी क्षण मिल गई वह संपदा, जो परमात्मा की है, ब्रह्म की है ।और जब तक राम रतन का धन न मिल जाए, तब तक जानना कि तुम मूर्च्छित हो। वही कसौटी है। अगर मूर्च्छित हो, तो तुम मिट्टी हो। अमूर्च्छित हो, तो तुम चिन्मय परमात्मा हो। तुम्हारे जीवन की मूर्च्छा ही टूट जाए तो कुछ और तोड़ना नहीं है।जो सोया, वह असाधु ;जो जागा, वह साधु।

....SHIVOHAM....


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