क्या है बीज मंत्र ?क्या है विनियोग ,कर न्यास आदि?
ओ३म् (ॐ);-
03 FACTS;-
1-"परब्रह्म" का शाब्दिक अर्थ है 'सर्वोच्च ब्रह्म' - वह ब्रह्म जो सभी वर्णनों और संकल्पनाओं से भी परे है। अद्वैत वेदान्त का निर्गुण ब्रह्म भी परब्रह्म है। वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में भी क्रमशः विष्णु तथा शिव को परब्रह्म माना गया है।समस्त जगत ब्रह्म के अंतर्गत माना गया है ।वेद, शास्त्र मंत्र, तन्त्र, आधुनिक विज्ञान, ज्योतिष आदि किसी भी माध्यम से उसकी परिभाषा नहीं हो सकती! वह गुणातीत, भावातीत, माया, प्रक्रति और ब्रह्म से परे और परम है।वह एक ही है दो या अनेक नहीं है।ब्रह्म से भी परे एक सत्ता है जिसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। वेदों में उसे नेति -नेति (ऐसा भी नहीं -ऐसा भी नही) कहा है। वह सनातन है, सर्वव्यापक है, सत्य है, परम है। वह समस्त जीव निर्जीव समस्त अस्तित्व का एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है। वह वाणी और बुद्धि का विषय नहीं है उपनिषदों ने कहा है कि समस्त जगत ब्रह्म पर टिका हे और ब्रह्म परब्रह्म पर टिका है।ओंकार परब्रह्म है।हम जिस ब्रह्माण्ड में रहते है उसमे ओ३म् (ॐ) सर्वव्यापी है अर्थात सभी जगह व्याप्त है |ओ३म् (ॐ) के बिना इस संसार कि कल्पना भी नहीं की जा सकती है |
3-ओ३म् किसी भी एक देव का नाम या संकेत नहीं है, अपितु हर धर्म को मानने वालों ने इसे अपने तरीके से प्रचलित किया है | जैसे ब्रह्मा-वाद में विश्वास रखने वाले इसे ब्रह्मा, विष्णु के सम्प्रदाय वाले वैष्णवजन इसे विष्णु तथा शैव या रुद्रानुगामी इसे शिव का प्रतीक मानते है और इसी तरीके से इसको प्रचलित करते है | परन्तु वास्तव में ओ३म् तीनों देवो का मिश्रित तत्त्व
है| ओ३म् (ॐ) शब्द में "अ" ब्रह्मा का पर्याय है, और इसके उच्चारण द्वारा हृदय में उसके त्याग का भाव होता है। "उ" विष्णु का पर्याय है, इसके उच्चारण द्वारा त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का पर्याय है और इसके उच्चारण द्वारा त्याग तालुमध्य में होता है। इन तीनो देवों (त्रिदेवों) के संगम से यह ओ३म् (ॐ) बना है |
10 बीज मंत्र;- 1-“ऐं”;- “ऐं” सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों में सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
2-“ह्रीं” ;-
“ह्रीं” भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
3-“क्लीं”;-
“क्लीं” काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
4-श्रीं”;-
“श्रीं” लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
5-हं (हनुमद् बीज);-
इसमें ह्-हनुमान, अ- संकटमोचन एवं बिंदु- दुखहरण है। इसका अर्थ है- संकटमोचन हनुमान मेरे दुख दूर करें। बजरंग बली की आराधना के लिए इससे बेहतर मंत्र नहीं है।
6--"ह्रौं";-
"ह्रौं" शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।इस बीज में ह्- शिव, औ- सदाशिव एवं बिंदु- दुखहरण है। इस बीज का अर्थ है- भगवान शिव मेरे दुख दूर करें।
7-"गं"
"गं" गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
8-श्रौं"
"श्रौं" नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
9-“क्रीं”
“क्रीं” काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
10-“दं”
“दं” विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
नमः ,स्वाहा, स्वधा, वषट, वौषट, हुम् ,फट ... इन शब्दों का क्या मतलब होता है और मंत्रो के अंत में ऐसे शब्द के उच्चार क्यों किये जाते है ?-
03 FACTS;- 1-कुछ मंत्रो के अंत में नमः आता है तो किसी के अंत में स्वाहा ,स्वधा ,वषट ,वौषट फट् आदि ।इन शब्दों का क्या मतलब होता है और मंत्रो के अंत में ऐसे शब्द के उच्चार क्यों किये जाते है ? 2-वास्तव में इस संसार में जो भी मन्त्र है, शब्द हैं उसमें जो मातृका शक्ति है, अक्षर शक्ति है ओर उन शब्दों से जो अर्थ या ज्ञानबोध होता है वो सब महामाया जगदम्बा का ही वैभव है।मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और “त्र ” का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से ! 3-लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है !पुरुष मन्त्रों के अंत में “हूं फट ” स्त्री मंत्रो के अंत में “स्वाहा ” ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में “नमः ” लगता है ! मंत्र साधना का योग से घनिष्ठ सम्बन्ध है… 07 विशिष्ट बीज मंत्र;- 1-नमः ;- नमः का मतलब होता है नमस्कार करना । वंदन करना । जैसे ॐ नमः शिवाय का मतलब " हे शिव, में आपको वंदन करता हूं / प्रणाम करता हूं ।" 2-स्वाहा ;- यदि किसी मंत्र के अंत मे स्वाहा आता हो तो स्वाहा का मतलब किसीको सलाम करना, रिसपेक्ट देना, प्रशंसा करना और शरण में जाना ऐसा होता है। जैसे ॐ ह्रीं सूर्याय स्वाहा ।अगर हवन करते वक्त स्वाहा बोला जाय तो मतलब अग्नि स्वरूप देवताओं के लिए अग्नि में कुछ अर्पण करना । 3-स्वधा ;- स्वधा का मतलब कुछ ना कुछ पितृओ को अर्पण करना । पितृओ की इच्छा या वासना तृप्त करने हेतु तर्पण मंत्रों से पितृओ को जल अर्पण करना या श्राध्द में पिंड देना । स्वधा शब्द का प्रयोग सिर्फ पितृओ के लिए किया जाता है । स्वधा का मतलब आप स्वीकार करें । 4-वषट;- वषट का मतलब वश मे हो जाओ। काबु मे आ जाओ । कंट्रोल में रहो । जब हम कोई साधना करते हैं तो कुछ मंत्रों के अंत मे वषट आता है । 5-हुम् ;- हुम् एक ध्वनि है जिसको mantra के अंत मे बोलने से हमारे आसपास एक कवच बन जाता है।हुम् का मतलब हमारी रक्षा हो।जब हम तांत्रिक प्रयोग या मंत्र करते है तो हमारी खुद की रक्षा करना भी जरूरी हो जाता है । 6-वौषट;- वौषट का मतलब भी वश करना ही होता है पर उसका संबंध दृष्टि के साथ है। किसी भी साधना में जब कोई goal या सिद्धि प्राप्त करनी हो तो वौषट शब्द का प्रयोग होता है। जैसे की मैं अपनी आंखों से ये देख पाऊं या मेरी दृष्टि में वो प्राप्त हो । 7-फट् ;- फट् शब्द का मतलब है बाण छोड़ना । किसी ध्येय को प्राप्त करने या किसी इन्सान को नज़र मे रख के कोई मंत्र पढ़ा जाता हो तो अंत मे फट् बोला जाता है ।फट् बोलने से वो मंत्र सीधा वो इन्सान या वस्तु की तरफ जाता है ।अंत मे अगर ' हुम् फट् ' बोला जाय तो उसका मतलब है .... मैं अपनी रक्षा करते हुए उसकी तरफ ये मंत्र छोड़ता हूं । जैसे " ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुम् फट ।" NOTE;-
जिसके अंत मे वषट और फट जैसे शब्द आते हो ऐसे मंत्र सावधानी पूर्वक करने चाहिए क्योंकि किसी का नुकसान करने वाले मंत्रो का रिएक्शन भी हो सकता है ।ध्यान रहे मंत्र में जहाँ पर फट् शब्द आता है वहा फट् बोलने के साथ-साथ 2 उँगलियों से दूसरे हाथ की हथेली पर ताली बजानी है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
विनियोग/ऋष्यादिन्यास;— 04 FACTS;- 1-ऋष्यादिन्यास में मन्त्र के ऋषि, छन्दस्, देवता, बीज, शक्ति, तथा कीलक नामक छह अंग होते है।इनमे से प्रत्येक के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुये क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् तथा फट् पदों के साथ सिर, मुख, ह्रदय, गुदा, चरण तथा नाभि में न्यास किया जाता है।जैसे , 2-उदाहरण के लिए भगवती दुर्गा के महामन्त्र "ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः" के ऋषि नारद, छन्द गायत्री, देवता दुर्गा, बीज दुं तथा शक्ति ह्रीं है। इस मन्त्र की साधना में ऋष्यादिन्यास निम्न प्रकार से किये जाने का विधान है--नारदाय ऋषये नमः (सिर में ),गायत्री छन्दसे नमः (मुख में ),दुर्गा देवतायै नमः (ह्रदय में ),दुं बीजाय नमः (गुह्यांग में ),ह्रीँ शक्तये नमः (चरणों में ), 3-जब इन शब्द का उच्चारण करते हैं तब इनका अर्थ या भावभूमि होती हैं ।उदाहरण के लिए.... 3-1-ऋषि --इसका उच्चारण करते समय सिर के उपरी के भाग में इनकी अवस्था मानी जाती हैं। 3-2-छंद ------- गर्दन में 3-3-देवता ----- ह्रदय में 3-4-कीलक ---- नाभि स्थान पर 3-5-बीजं ------ कामिन्द्रिय स्थान पर 3-6-शक्ति --- पैरों में (निचले हिस्से पर) 3-7-उत्कीलन--- हांथो में 4-ऋषि, छन्द,देवता का विन्यास किए विना,जो मन्त्र-जप किया जाता है,उसका फल तुच्छ यानी न्यून हो जाता है। अतः साधना का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए न्यास द्वारा इनसे तादात्म्य स्थापित करना परमावश्यक है। हम पाते हैं कि प्रायः मन्त्र या स्तोत्र के विनियोग में ही इन बातों की चर्चा रहती है,यानी जिस मन्त्र का हम जप करने जा रहे हैं, अथवा स्तोत्र-पाठ करने जा रहे हैं,उसके ऋषि,छन्द और देवता कौन हैं- यह जानना-करना आवश्यक है। कहीं-कहीं और भी कुछ चर्चा जुड़ी रहती है,यथा- बीज,शक्ति,कीलक,और अभीष्ट फल। यानी कहीं मात्र तीन की,तो कहीं कुल सात बातों की चर्चा रहती है।
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1-कर न्यास;-
न्यास कई प्रकार के होते हैं परंतु मुख्यतः तीन प्रकार के न्यास बहुत जरुरी बताये गये हैं।कर न्यास अर्थात् हमारे हाथ का न्यास। हाथ कर्मों का प्रतीक है। हमें हाथों से शुभ कर्म करने चाहिए जिनसे सभी का कल्याण हो। कर न्यास में हाथों की अंगुलियां, अंगूठे और हथेली को दैवीय शक्ति से अभिमंत्रित करते हैं।वस्तुतः करन्यास और अंगन्यास दोनों इसके ही प्रभेद हैं। पहले दोनों हाथों की अंगुलियों का क्रमशः आपस में मन्त्र-पूरित-स्पर्श करते हैं। यथा—अंगूठा,तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा। तत्पश्चात करतल और करपृष्ठ का स्पर्श किया जाता है।
2-प्रायः लोग यहां भ्रमित होते हैं कि ये स्पर्श कैसे हो,यानी दोनों हाथ अलग-अलग कार्य करें या कि एकत्र?वास्तव में, अलग-अलग का कोई औचित्य नहीं है। सबका स्पर्श तो अंगूठे से कर लेंगे,किन्तु अंगूठे का स्पर्श कौन करेगा। वस्तुतः यह प्रश्न इस कारण उठता है क्योंकि अंगुलियों का रहस्य हमें ज्ञात नहीं होता। ज्ञातव्य है पांच अंगुलियां क्रमशः— अंगूठा>अग्नि,तर्जनी >वायु,,मध्यमा>आकाश,अनामिका >पृथ्वी और कनिष्ठा> जल तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
3-इन पांचों का ही ऋण-धन क्रम से दाहिना-बायां,और ऊपर-नीचे(उर्ध्वांग-निम्नांग) हाथ-पैर के प्रशाखाओं के रुप में(सहयोग से) पंचतत्त्वों का नियन्त्रण होता है,और ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति—मानव-शरीर(पिण्ड) की सार्थकता सिद्ध होती है। ऋण-धन के आपस में वैधिक-मिलन से ही ऊर्जा प्रवाहित होती है। और यही तो करना है-न्यास में— ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का पिण्डीय ऊर्जा में अवतरण का प्रयास। ध्यातव्य है कि दायें हाथ के अँगूठे का स-मन्त्र बायें हाथ के अंगूठे से स्पर्श अनुभव-पूर्ण होना चाहिए। स्विच के नेगेटिव-पोजेटिव प्वॉयन्ट को जोड़े और बत्ती न जले ...इसका मतलब है कि तार जोड़ने में कोई त्रुटि रह गयी है,यानी कि ठीक से जोड़ें।
4-और आगे, इसी भांति क्रमशः शेष चार अंगुलियों का,और फिर करतल और करपृष्ठों का एकत्र रुप में यही करन्यास कहलाया।उच्चारण और स्पर्श पूर्णतः अनुभूति पूर्ण हो,तभी न्यास सार्थक होता है।बिलकुल प्रारम्भ में सिर्फ अंगादि का स्पर्शानुभव ही पर्याप्त है,यानी अ-मन्त्र। बाद में इस क्रिया को स-मन्त्र करने का अभ्यास करे। करन्यास प्रायः सभी देवोपासना में समान ही है । उपासना का प्रधान अंग होते हुए भी,नये अभ्यासियों को इसे स्वतन्त्र रुप से भी करने का अभ्यास करना चाहिए, ताकि साधना काल में अनुभूति और गहन हो सके।
कर न्यास करने का सही तरीका क्या हैं?-
05 FACTS;-
1-करन्यास की प्रक्रिया को समझने से पहले हमें यह समझना होगा की हम भारतीय किस तरीके से नमस्कार करते हैं । इसमें हमारे दोनों हाँथ की हथेली आपस में जुडी रहती हैं।साथ -साथ दोनों हांथो की हर अंगुली ,ठीक अपने कमांक की दूसरे हाँथ की अंगुली से जुडी होती हैं। ठीक इसी तरह से यह न्यास की प्रक्रिया भी.... 2-यहाँ पर हमें जो प्रक्रिया करना हैं वह कम से धीरे धीरे एक पूर्ण नमस्कार तक जाना हैं। तात्पर्य ये हैं कि जव् आप पहली लाइन के मन्त्र का उच्चारण करेंगे तब केवल दोनों हांथो के अंगूठे को आपस में जोड़ देंगे और जब तर्जनीभ्याम वाली लाइन का उच्चारण होगा तब दोनों हांथो की तर्जनी अंगुली को आपस में जोड़ ले।
3-यहाँ पर ध्यान रखे कि अभी भी दोनों अंगूठे के अंतिम सिरे आपस में जुड़े ही रहेंगे , इसके बाद मध्यमाभ्यां वाली लाइन के दौरान हम दोनों हांथो की मध्यमा अंगुली को जोड़ दे। पर यहाँ भी पहले जुडी हुए अंगुली ..अभी भी जुडी ही रहेंगी. .. इसी तरह से आगे की लाइन के बारे में क्रमशः करते जाये ।और अंत में करतल कर वाली लाइन के समय एक हाँथ की हथेली की पृष्ठ भाग को दूसरे हाँथ से स्पर्श करे।और फिर दूसरे हाँथ के लिए भी यही प्रक्रिया करे।
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2-अंग न्यास;-
04 FACTS;-
1-अंग न्यास से तात्पर्य है हमारा शरीर। अंग न्यास में नेत्र, सिर, नासिका, हाथ, हृदय, उदर, जांघ, पैर आदि अंगों में शक्तियां मानकर उनका आव्हान कर स्थापित किया जाता है।यह सभी शक्तियां हमारे कर्मो और विचारों को धर्म संगत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।साथ ही हमारी सोच सकारात्मक बनती है।अगले चरण में पुनः हृदयादि अंगों का क्रमशः स्पर्श किया जाता है- तत्मन्त्रों के मानसिक उच्चारण पूर्वक।
2-किन्तु अंगन्यास में काफी भेद है ..छः से लेकर चौवन तक के क्रम मिलते हैं।अलग-अलग मन्त्रों, देवों,साधना-पद्धतियों में अंगादिन्यास का स्थान-वैभिन्य विविध रुप में व्यवहृत होता है। किन्तु इन सब भेदों-प्रभेदों से अलग हट कर सर्वमान्य या प्रारम्भिक हृदयादि न्यास का क्रम यही है—
3-षडङ्गन्यास...ऊँ…हृदयाय नमः,ऊँ…शिरसे स्वाहा, ऊँ…शिखायै वषट्, ऊँ…कवचाय हुँ, ऊँ…नेत्रत्रयाय वौषट्(कहीं नेत्राभ्यां भी मिलता है), ऊँ… अस्त्राय फट्। इस सम्बन्ध में ज्ञानार्णवतन्त्रम् में कहा गया है ..अंगन्यास में विहित मन्त्र-पाद के साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुँ, वौषट् और फट् का प्रयोग किया जाना चाहिए।मन्त्र को शक्तिशाली बनानेवाली अन्तिम ध्वनियें में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को स्वधा को नपुंसक लिंग माना है।कहीं-कहीं विशिष्ट निर्देश भी होते हैं कि करन्यास में भी अंगन्यास की तरह ही उक्त षट् पदों का प्रयोग किया जाय।षडङ्गन्यास के करने में इष्ट-मन्त्र-बीज को ही छः दीर्घस्वरों से युक्त करके,तत्तद् अंगों में प्रतिष्ठा करने की भावना की जाती है। अंगन्यास करने का सही तरीका क्या हैं? अंग न्यास ... सीधे हाँथ के अंगूठे ओर अनामिका अंगुली को आपस में जोड़ ले। सम्बंधित मंत्र का उच्चारण करते जाये , शरीर के जिन-जिन भागों का नाम लिया जा रहा हैं उन्हें स्पर्श करते हुए यह भावना रखे की... वे भाग अधिक शक्तिशाली और पवित्र होते जा रहे हैं। .
NOTE;-
हम तीन बार ताली क्यों बजाते है?वास्तव में , हम हमेशा से बहुत शक्तियों से घिरे रहते हैं और जो हमेशा से हमारे द्वारा किये जाने वाले मंत्र जप को हमसे छीनते जाते हैं , तो तीन बार सीधे हाँथ की हथेली को सिर के चारो ओर चक्कर लगाये / सिर के चारो तरफ वृत्ताकार में घुमाये ,इसके पहले यह देख ले की किस नासिका द्वारा हमारा स्वर चल रहा हैं , यदि सीधे हाँथ की ओर वाला स्वर चल रहा हैं तब ताली बजाते समय उलटे हाँथ को नीचे रख कर सीधे हाँथ से ताली बजाये . औरओर यदि नासिका स्वर उलटे हाथ (LEFT)की ओर का चल रहा हैं तो सीधे(RIGHT) हाँथ की हथेली को नीचे रख कर उलटे (Left) हाँथ से ताली उस पर बजाये ) इस तरीके से करने पर हमारा मन्त्र जप सुरक्षित रहा हैं ,सभी साधको को इस तथ्य पर ध्यान देना ही चाहिए...
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WHO IS BRAHMAN/AUM?-
03 FACTS;-
1-"Om is the name of Brahman,He who created this cosmos with its three gunas (qualities of nature: positive, negative and quiescent) who brought all things to form and who is universal."
2-The creative principle of the universe is called Brahman in Sanskrit. Brahman is a metaphor for all of creation: its laws, its inherent intelligence, and its consciously manifested potencies which operate as sages, saints, rishis, devas, celestials, and divine beings of all kinds of nature, temperament and description.
3-AUM is the Sanskrit name given in the Upanishads to that which is the sum and substance of all the manifested and unmanifested realms.Brahman is that which is neither created nor destroyed but transcends the creation, lifeand destruction of the universe.Brahma creates, operates in the form of this universe.
ॐ/;- Om is a prefix to many mantras. It represents the energy at the Ajna chakra at the brow center, where the feminine and masculine currents become joined and consciousness becomes unitary and wholistic. MEANING OF IMPORTANT BEEJMANTRAS;-
33 BEEJ;- 1-SHRIM [shreem]: feminine; Lakshmi; seed sound for abundance 2- EIM [I'm]: feminine; Saraswati; seed sound for success in spiritual, artistic and scientific endeavors, music and education;- 3-HRIM [hreem]: androgynous; seed sound for clarity and seeing through the illusions of reality 4-KLIM;- Fulfillment of wishes. 5-SOUH;-known as para bija. This is also known as hṛdayabīja or amṛtabīja. Progress and prosperity in all spheres. Sauḥ is formed out of the combination of sa स + au औ+ ḥ = sauḥ सौः The Scripture proceeds to say that “He, who knows this mantra in its essence, becomes competent for initiation, leading to liberation without any sacrificial rites.the one who elucidates the proper meaning of this beeja is known as Shiva Himself. This beeja is the Cosmic pulsation of the Lord. ..” 6-Successful completion of actions(sampannakaran)..... NAMAHA 7-Destruction of harmful energy, for instance curinga disease and doing good to others, appeasing thedeity of the mantra with offerings;-SVAHA 8- Controlling someone else’s mind(vashikaran)A spiritual emotion of destroying the enemy......VASHAT 9- Hatred (Dvesh)Anger and courage, to frighten one’s enemy.... HUM 10- Attraction (akarshan)To create conflicts or opposition among enemies,to acquire power and wealth....VOUSHAT 11- A spiritual emotion of attacking the enemy, to drive the enemy away;-PHAT
12-''ह्रौं";-
04 POINTS;- 1-''ह्रौं" शिव बीज है। यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तर मुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य १००८ बार जप करने से आश्चर्य जनक परिवर्तन होता है। 2-Mṛtyuṅjaya bīja, the seed of rejuvenation is actually the jīva bīja (seed of life which brings all living beings) is जुं (juṁ). It is formed from the starting syllable of the word जीव (jīva) which is ज (ja).This bīja was taught
originally by Lord Śhiva to Bṛhaspati, due to which Bṛhaspati became the preceptor of the gods and due to which he was able to save Indra from definite destruction at the hands of Lord Śiva. Pleased with his dedication and well-meaning disposition, Lord Śiva blessed Bṛhaspati to be known as जीव (jīva) by which he shall signify the very existence of life and by whose presence, the god of death Yama will have to turn away. This power of Bṛhaspati has been explained in the Mahā Nārāyaṇa Upaniṣad.
3-In the Kāla-Chakra Bṛhaspati becomes Śrī Jīva and sits in the southern direction, which is the path of Yama, thereby blocking death from happening. So long as Śrī Jīva sits in his southern direction, the being shall live. Thus, the mṛtyuṅjaya bīja जुं (juṁ) simply means Jīva Upadeśa.
4-The Bīja mantra was obtained by Kahola-ṛṣi; the mantra is in Gāyatrī chandas; the mantra devatā (deity) is Sri Mṛtyuṅjaya (form of Shiva). This mantra is to be used for meditation and at all times for protection from all evils. Bīja means seed and unless this seed is panted properly in the heart how can you expect the tree of bhakti to Lord Śiva to grow? It is imperative that meditation be done with this bīja mantra.
13-ॐ जुं सः॥ om juṁ saḥ
Meditate with this mantra repeating it very quietly in the mind. Bring the mind to focus on the feet and recite the monosyllable ॐ (om). Then the bīja जुं (juṁ) has to be placed in the heart chakra. Finally the sahasrara chara on top of the head is brought into metal focus with the seed syllable सः (saḥ).
14-"खं" - एक बीज मंत्र है "खं" .....जिसके सवा लाख जाप से हार्ट-अटैक कभी नही होता है | हाई बी.पी., लो बी.पी. कभी नही होता कोलस्टौल को भी कंट्रोल किया जा सकता है | 54 माला जप करें, तो लीवर ठीक हो जाता है | 108 माला जप करें तो शनि, राहू, केतू ग्रहों का प्रभाव चला जाता है | 15-कं - ब्रह्म परमात्मा का शब्द है 'कं' ,ब्रह्म वाचक | वास्तव में, ब्रह्म परमात्मा के 3 विशेष मंत्र हैं ''ॐ, खं और कं'' | 15-कां -पेट सम्बन्धी कोई भी विकार और विशेष रूप से आँतों की सूजन में लाभकारी | 16-गुं-मलाशय और मूत्र सम्बन्धी रोगों में उपयोगी | 17-शं -वाणी दोष , स्वप्न दोष , महिलाओं में गर्भाशय सम्बन्धी विकार और हार्निया आदि रोगों में उपयोगी है | 18-घं -काम वासना को नियंत्रित करने वाला और मारण-मोहन और उच्चाटन आदि के दुष्प्रभाव के कारण जनित रोग विकार को शांत करने में सहायक है | 19-ढं - मानसिक शांति देने में सहायक तथा आभिचारिक कृत्यों जैसे मारण- मोहन-स्तम्भन आदि प्रयोगों से उत्पन्न हुए विकारों में उपयोगी है | 20-पं -फेफड़ों के रोग जैसे टी वी , अस्थमा , श्वास रोग आदि के लिए गुणकारी है | 21-बं -शुगर , वामन , कफ विकार , जोड़ों के दर्द एवं सभी वात रोगों में आदि में सहायक है| 22-यं -बच्चों के चंचल मन को एकाग्र करने में अंत्यंत सहायक | 23-रं -उदर विकार , शरीर में पित्त जनित रोग , ज्वर आदि में उपयोगी है| 24-लं -महिलाओं के अनियमित मासिक धर्म , उनके अनेक गुप्त रोग तथा विशेष रूप से आलस्य को दूर करने में उपयोगी है| 25-मं -महिलाओं में स्तन सम्बन्धी विकारों में सहायक है । 26-धं -तनाव से मुक्ति के लिए , मानसिक संताप दूर करने में उपयोगी है। 27-ऐं -वात नाशक , रक्त चाप , रक्त में कोलेस्ट्रोल , मूर्छा आदि असाध्य रोगों तथा पित्त रोगों में सहायक है | 28-द्वां -कान के समस्त रोगों में सहायक है | 29-ह्रीं -कफ विकार जनित रोगों में सहायक है | 30-शुं -आँतों के विकार तथा पेट सम्बन्धी अनेक रोगों में सहायक है | 31-हुं -यह बीज एक प्रबल एंटीबायोटिक सिद्ध होता है | गाल-ब्लैडर , अपच , लिकोरिया आदि रोगों में उपयोगी है| 32-अं -पथरी , बच्चों के कमजोर मसाने , पेट की जलन , मानसिक शान्तिआदि में सहायक इस बीज का सतत जाप करने से शरीर में शक्ति का संचार उत्पन्न होता है। 33-बं- ये शिवजी की पूजा में बं बीज मंत्र लगता है |लेकिन बं...उच्चारण करने से वायु प्रकोप दूर हो जाता है | गठिया ठीक हो जाता है | बं....शब्द,से गैस ट्रबल और 72 वात जनित रोग ठीक हो सकते हैं। ....SHIVOHAM....