जीवन में तीन Element (Air ,Fire ,Water Element)की क्या उपयोगिता है? तीन प्रकार की श्रद्धा का क्या
जीवन में तीन Element (Air ,Fire ,Water Element) की उपयोगिता ;-
25 FACTS;-
1-भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा, ''सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। उसमें सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षस को तथा अन्य जो तामस पुरुष हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं''।
2-इस सूत्र में श्रीकृष्ण साधक के लिए बड़ी महत्वपूर्ण बातें कह रहे हैं। एक तो यह जानना जरूरी है कि तुम्हारा अंतःकरण कैसी दशा में है। ऐसा मत सोचना कि जो लोग तामसिक हैं, वे बिलकुल तामसिक हैं। शुद्ध तामसिक व्यक्ति हो ही नहीं सकता। क्योंकि इन तीन के जोड़ के बिना कोई भी नहीं
हो सकता।इसलिए जब हम कहते हैं तामसी, तो हमारा मतलब होता है कि तामसी ज्यादा, राजसी कम, सात्विक कम। तमस का अनुपात ज्यादा है, इतना ही अर्थ होता है।
3-कोई व्यक्ति पूर्ण तामसी नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो टूट जाएगा। होने के लिए तीन ही आवश्यक हैं। इसलिए कोई व्यक्ति अगर तामसी होता
है, तो समझो सत्तर परसेंट तामसी है, उनतीस परसेंट राजसी, एक परसेंट सात्विक। पर एक परसेंट सात्विक भी होना जरूरी है। नहीं तो, जैसे तीन पैर की तिपाई में से एक पैर निकाल लो, तिपाई फौरन गिर जाए; ऐसा व्यक्ति जी नहीं सकता, जिसका एक पैर गिर गया हो।
4-तुम त्रिकोण की तरह हो, वे तीनों गुण चाहिए; मात्रा कम-ज्यादा हो सकती है। यह हो सकता है कि पाइथागोरस त्रिकोण हो।भारत के प्राचीन ग्रंथ बौधायन शुल्बसूत्र में यह प्रमेय दिया हुआ है। काफी प्रमाण है कि बेबीलोन के गणितज्ञ भी इस सिद्धांत को जानते थे। इसे 'बौधायन-पाइथागोरस प्रमेय' भी कहते हैं।पायथागॉरियन ट्रिपल सीक्वेंस में तामसिक वृत्ति का व्यक्ति गहन तमस से भरा होता है, लेकिन दूसरे तत्व भी मौजूद होते हैं अथार्त तीन से कम में न चलेगा।
5-यह पहली बात हैं कि वास्तव में कोई पूर्ण तामसी नहीं है, कोई पूर्ण राजसी नहीं है, कोई पूर्ण सात्विक नहीं है। शुद्धतम व्यक्ति में भी, गौतम बुद्ध में भी, जब तक उनकी देह नहीं छूट जाती,Water Element रहेगा। अनुपात कम हो सकता है पर रहेगा। जब तक शरीर है, तब तक तीनों
रहेंगे।इसलिए गौतम बुद्ध ने निर्वाण की दो अवस्थाएं कही हैं। पहला निर्वाण, जब समाधि उपलब्ध होती है, लेकिन शरीर बचता है। वह पूर्ण निर्वाण नहीं है। व्यक्ति जीवनमुक्त हो गया , जंजीरें टूट गईं, लेकिन कारागृह मौजूद है।कैदी न रहा,इसकी स्वतंत्रता बहुत बढ़ गई।
6-यह करीब-करीब ऐसा है, जैसा कि कारागृह के बाहर के लोग हैं; लेकिन एप्रॉक्सिमेट। जरा सी बात तो अभी अटकी है, अभी शरीर से बंधा है। इसको हम जीवनमुक्त कहते हैं, क्योंकि यह निन्यानबे प्रतिशत मुक्त है। कुछ बचा नहीं, सब हो गया है। सिर्फ शरीर के गिरने की बात है।
इसलिए गौतम बुद्ध ने कहा, जब शरीर गिर जाता है, तब महासमाधि लगती है।तब जीवनमुक्त मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है, तब मुक्तत्व उसका स्वभाव हो जाता है। अब दीवाल भी गिर गई, अब कारागृह न रहा; जंजीरें भी टूट गईं।
7-तुम्हारा अंतःकरण तमस से भरा हो, तो तुम्हारी श्रद्धा सात्विक नहीं हो सकती।क्योंकि श्रद्धा तो तुममें उगती है, तुम्हारे अंतःकरण की भूमि में ही वह बीज टूटता है, तुम्हारी भूमि ही उसे रसदान देती है, पुष्टि देती है, वह
पौधा तुम्हारा है। तो तुम्हारा अंतःकरण जैसा है, वैसी ही तुम्हारी श्रद्धा होगी।अपने अंतःकरण की ठीक-ठीक पहचान ..तुम्हारी श्रद्धा की पहचान बन
जाएगी।रजस से भरे व्यक्ति में भी तमस होता है, सत्य होता है।और तीनों सभी में होते हैं, इससे ही क्रांति की संभावना है। नहीं तो मुश्किल हो जाए। अगर कोई व्यक्ति पूरा सौ प्रतिशत, तामसी हो, तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता, कोई उपाय न रहा।
8-वह तो करीब -करीब लाश की तरह पड़ा रहेगा, कोमा में रहेगा, बेहोश रहेगा, क्योंकि होश के लिए भी थोड़ा रजस चाहिए।फिर कोई क्रांति की
संभावना न रह जाएगी।दूसरे तत्व मौजूद हैं,तो उनसे ही क्रांति का द्वार खुला है, उन्हीं के सहारे एक से दूसरे में जाया जा सकता है। जैसे तुम अंधेरे कमरे में बैठे हो, लेकिन एक छोटी किरण अंधकार में उतर रही है। वही द्वार है। तुम चाहो तो उसी किरण के सहारे सूरज तक पहुंच जाओगे, चाहे वह दस करोड़ मील दूर हो।उसी किरण का मार्ग तुम्हे सूरज के स्रोत तक पहुंचा देगा। वह गहन अंधकार पीछे छूट सकता है, यात्रा संभव है। इसलिए तीनों तत्व सभी में हैं।
9-दूसरी बात है कि तीनों तत्वों का अनुपात भी सदा स्थिर नहीं रहता। रात तमस बढ़ जाता है, दिन में रजस बढ़ जाता, संध्याकाल में सत्य बढ़ जाता है। इसलिए हिंदुओं ने संध्याकाल को प्रार्थना का क्षण समझा।
सुबह, जब रात जा चुकी और सूरज अभी नहीं उगा, वही ब्रह्ममुहूर्त है। उसको ब्रह्ममुहूर्त कहने का कारण भीतर की गुण व्यवस्था से है। रात जा चुकी, पृथ्वी जाग गई, पक्षी बोलने लगे, वृक्ष उठ आए, लोग नींद के बाहर आने लगे, सारी पृथ्वी पर तमस का जाल सिकुड़ने लगा।
10-संध्या का अर्थ है, बीच का काल, मध्य की घड़ी।सूरज क्षितिज के करीब है , जल्दी ही उसका किरण -जाल फैल जाएगा, जल्दी ही रजस पैदा होगा। सूरज के उगते ही काम -धाम की दुनिया शुरू होगी।अभी सूरज नहीं उगा, अभी रजस उगने को है।अभी रात गई, तमस जा चुका, मध्य की
छोटी सी घड़ी है, वह संध्या है।उस मध्य की घड़ी में सत्व का प्रमाण ज्यादा होता है। वह दोनों के बीच की घड़ी है। इसलिए उस क्षण को ध्यान में लगाना चाहिए। क्योंकि अगर ध्यान सत्व से निर्मित हो, तो दूरगामी होगा। उस सत्व को अगर तुम ध्यान बनाओ, तो धीरे -धीरे तुममें सत्व बढ़ता जाएगा।
11-ऐसे ही सांझ को सूरज डूब गया, रजस का व्यापार बंद होने लगा, दुकान, द्वार दरवाजे बंद होने लगे। रात आने को है, उसकी पहली पगध्वनिया सुनाई पड़ने लगीं।मध्य का छोटा सा काल है, वह संध्या है। दुनिया के सभी धर्मों ने मध्य के काल चुने हैं। क्योंकि उस मध्य के काल में, जब दो तत्वों के बीच की थोड़ी सी संधि होती है, तो सत्य का क्षण
महत्वपूर्ण होता है।हो सकता है तुम्हारे भीतर पचास प्रतिशत या साठ प्रतिशत तमस हो, तीस या चालीस प्रतिशत रजस हो, एक प्रतिशत सत्व हो, तो उस मध्यकाल में वह एक प्रतिशत प्रमुख होता है। और उसका अगर तुम उपयोग कर लो, तो ब्रह्ममुहूर्त का तुमने उपयोग कर लिया।
12-इसलिए हिंदुओं के लिए तो प्रार्थना शब्द संध्या का पर्यायवाची हो गया। वे जब प्रार्थना करते हैं, तो वे कहते हैं, संध्या कर रहे हैं।इस्लाम में भी
नियम है, सूरज उगने के समय, सूरज डूबने के समय, सूरज जब मध्य आकाश में हो, तब ऐसी सूरज की पांच घड़ियां उन्होंने चुनी हैं। लेकिन दो घड़ियां भी मौजूद हैं, सुबह और सांझ।उन घड़ियों में सत्व तेज होता है।
रात्रि तमस तेज हो जाता है, दिन रजस तेज हो जाता है।तो तुम्हारे भीतर
चौबीस घंटे अनुपात एक सा नहीं रहता।
13-इसलिए तो भिखारी सुबह -सुबह तुमसे भीख मांगने आते हैं।उस वक्त सत्व की थोड़ी सी छाया होती है; तुम शायद दे सको। भिखारी दिन भर के बाद भीख मांगने नहीं आते। क्योंकि वे जानते हैं, रजस से थका आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है, नाराज होता है। भिखारी को देखकर ही गुस्से में भर
जाएगा; देने की जगह छीनने का मन होगा।सुबह सुबह तुम उठे हो और एक भिखारी द्वार पर आ गया है, इनकार करना जरा मुश्किल होता है। तुम्हीं हो, सांझ को भी तुम्हीं रहोगे, दोपहर भी तुम्हीं रहोगे। लेकिन सुबह जरा इनकार अटकता है,भीतर से कोई कहता है, कुछ दे दो। सत्व प्रगाढ़ है।
14-जो आदमी समझदार है, वह अपनी जीवन -विधि को इस तरह से बनाएगा कि वह इन गुणों का ठीक-ठीक उपयोग कर ले। अगर तुम्हें कोई शुभ कार्य करना हो, तो संध्याकाल चुनना; तो तुम्हारी गति ज्यादा हो सकेगी। अगर कोई अशुभ कार्य चुनना हो, तो मध्य-रात्रि चुनना, तो तुम्हारी गति ज्यादा हो सकेगी। हत्यारे, चोर, सब मध्य-रात्रि चुनते हैं।सुबह भोर के
क्षण में तो चोर को भी चोरी करना मुश्किल हो जाएगा, उसकी जीवन-धारा भिन्न होगी। भरी दोपहर में दुनिया की सब दफ्तर और दुकानें खुलती हैं ; वह रजस का व्यापार है। बाजार धूम में होता है, जब सूरज आकाश में होता है। फिर सब क्षीण हो जाता है।
15-रात्रि लोग क्लबघरों में इकट्ठे होते हैं, शराब पीने, नाचने।तमस प्रगाढ़
है। सुबह जिसको तुमने भोर में प्रार्थना करते देखा, उसी आदमी को तुम दोपहर में बाजार में लोगों को लूटते देखोगे और रात में उसी आदमी को तुम शराब पीते पाओगे। तुम बड़े हैरान होओगे कि क्या यह वही आदमी
है?तुम सोचोगे, इसकी प्रार्थना झूठी है।यह दुकान पर जो तिलक -चंदन लगाकर बैठता है, वह सब बकवास है। जब इसने तिलक-चंदन लगाया था, तब तिलक-चंदन का भाव रहा होगा, क्योंकि तिलक -चंदन तो चमड़ी पर लगा है।मगर भीतर के तमस, रजस, सत्य का रूपांतरण हो गया।
16-तुम भरोसा नहीं कर पाते, क्योंकि तुम्हें पता नहीं है, आदमी एक नहीं है, तीन है। हर आदमी के भीतर कम से कम तीन आदमी हैं।अगर तुम
ठीक से अपने जीवन का निरीक्षण करो, तो तुम बहुत-सी बातें समझ पाओगे। प्रत्येक समझपूर्वक जीने वाले आदमी को अपने जीवन का निरंतर निरीक्षण करते रहना चाहिए और देखना चाहिए, किन क्षणों में शुभ प्रगाढ़ होता है। उन क्षणों का शुभ के लिए उपयोग करो।और उन क्षणों को जितना बढ़ा सको, बढ़ाओ। तुम्हारी भोर जितनी बड़ी हो जाए, उतना अच्छा। तुम्हारी संध्या जितनी लंबी हो जाए उतना अच्छा। और जो तुमने शुभ क्षण में पाया है, उसकी सुवास को दूसरे क्षणों में भी खींचने की कोशिश करो। तो ही रूपांतरण होगा; नहीं तो रूपांतरण न होगा।
17-फिर ऐसा नहीं हैं कि दिन के चौबीस घंटे में ही यह बदलाहट होती हैं। वास्तव में,बच्चे में सत्व का अनुपात ज्यादा होता है, क्योंकि वह जीवन की भोर है। जवान में रज का अनुपात ज्यादा होता है, क्योंकि वह जीवन की आपा-धापी, बाजार है। बूढ़े में रजस और सत्य दोनों क्षीण हो जाते हैं, तमस बढ़ जाता है; क्योंकि वह मौत का आगमन है। मौत यानी पूर्ण तमस में गिर
जाना।जीसस ने कहा है, जो बच्चों की तरह भोले-भाले होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
18-बच्चा निर्दोष होता है, लेकिन संत नहीं। सभी बच्चे निर्दोष होते हैं, वह स्वाभाविक है ,कोई गुण नहीं है। क्योंकि बच्चों का सब संतत्व खो जाएगा ,जब चौदह वर्ष के होंगे, कामवासना जगेगी, रजस पैदा होगा। सब भूल जाएंगे, सब निर्दोषता बच्चों की खो जाएगी।सभी बच्चे जब पैदा होते हैं,
तो सुंदर मालूम होते हैं। कोई बच्चा कुरूप नहीं होता। और सभी लोग बड़े होते -होते कुरूप हो जाते हैं ..शायद ही कोई आदमी सुंदर बचता है।
क्योंकि बच्चे सत्व को उपलब्ध होते हैं। अभी आ रहे हैं सीधे परमात्मा के घर से। अभी वह सुवास उनके शरीर को घेरे है .. भोर का क्षण है, ब्रह्ममुहूर्त।
19-बच्चे यानी ब्रह्ममुहूर्त। अभी प्रार्थना गंज रही है; अभी मंदिर की घंटियां बज रही हैं; अभी तिलक ताजा है, अभी हाथों में लगे चंदन में गंध है; अभी -अभी आते हैं मूल स्रोत से ...परन्तु खो जाएंगे कल।
और जब कोई आदमी बच्चे जैसा हो जाता है, तो इस जगत में अनूठी
घटना, अपूर्व सौंदर्य घटती है। ऐसे के आदमी के सौंदर्य की तुम कोई तुलना नहीं कर सकते, कोई जवान आदमी इतना सुंदर नहीं हो सकता। क्योंकि जवानी में बड़ा तनाव है, बेचैनी है, दौड़ है, उपद्रव है, आपा - धापी है।बुढ़ापे में सब शांत हो गया।आंधी जा चुकी; तूफान विदा हो गया। तूफान के पीछे के क्षण हैं, जब सब शांत हो जाता है और एक सन्नाटा घेर लेता है।
20-अगर बूढ़े आदमी ने बचपन को फिर से पुनरुज्जीवित कर लिया, तो वह संत हो जाता है। नहीं तो वह महान तामसी हो जाता है।उनका जीवन करीब-करीब मुरदे जैसा हो जाता है। चिड़चिड़े, नाराज, हर चीज उनके लिए की जाए, कुछ करने को तैयार नहीं! हर चीज की अपेक्षा और हर चीज से शिकायत। कोई चीज तृप्त नहीं करती। सारा जगत असार मालूम पड़ता है; व्यर्थ मालूम पड़ता है। और आकांक्षा मरती नहीं, महत्वाकांक्षा जगी रहती है।
21-तो जीवन में भी घड़ियां बदलती हैं, जब अनुपात बदल जाता है। और जीवन का ही सवाल नहीं है। अनुपात रोज भी बदल जाता है। परिस्थिति भी
अनुपात को बदल देती है।तुम दोपहर बड़ी दौड़ में थे। अचानक एक शुभ -संवाद किसी ने दे दिया, तत्क्षण तुम्हारी दौड़ ठिठक गई; तुम प्रसन्न हो गए, तुम्हारे भीतर की मात्रा बदल गई। तुम भोर में बड़े सात्विक थे और किसी ने खबर दी कि कोई मर गया, उदासी छा गई, तमस ने घेर लिया।
तो प्रति क्षण परिस्थिति भी बदलती है। लेकिन जो व्यक्ति अपने अनुपात को न तो परिस्थिति से प्रभावित होने देता है, न समय की धारा से प्रभावित होने देता है, न जीवन की अवस्थाओं से प्रभावित होने देता है, वही व्यक्ति साधक है।
22-इसलिए साधना बड़ी कठिन मालूम पड़ती है।जब भरी दोपहरी में ऐसा होता है, जैसे ब्रह्ममुहूर्त में कोई हो, जब बुढ़ापे में ऐसा होता है, जैसे बचपन में कोई हो, तब साधना का सूत्र शुरू होता है।पहले ठीक से निरीक्षण करो। फिर निरीक्षण को ठीक से सोचकर अपने जीवन की गति को बदलो।और गति इस भांति बदलनी है कि अति न हो जाए।तीनों की मात्रा समान
हो जाए।एक तिहाई हो तमस, वह जरूरी है।इसलिए चौबीस घंटे में आठ घंटे सोना जरूरी है, वह एक तिहाई तमस है।उससे कम सोओगे, नुकसान होगा, उससे ज्यादा सोओगे, नुकसान होगा।
23-आठ घंटा सोना जरूरी है।आठ घंटा जीवन की दौड़ धूप जरूरी है। रजस.. महत्वाकांक्षा का विस्तार है..भागो-दौड़ो।उसको भी अनुभव करो। क्योंकि गैर अनुभव के गुजर गए, तो पार न होओगे।आठ घंटा व्यापार, व्यवसाय, दौड़-धूप।आठ घंटा सत्व-प्रार्थना, पूजा, ध्यान।ऐसा एक
तिहाई जीवन को बांट दो।अगर तुम्हारा सारा समय एक तिहाई की मात्रा में बंट जाए, तुम धीरे-धीरे पाओगे, यह अनुपात स्थिर हो जाता है। तब न यह रात में बदलता है, न दिन में; न जवानी में बदलता है, न बुढ़ापे में।
इस स्थिरता का नाम ही सत्व की उपलब्धि है। क्योंकि जब तीनों समान होते हैं, तब तुम्हारे भीतर एक संगीत बजने लगता है ..अनजाना, जिसे तुमने पहले कभी नहीं सुना।
24-इसलिए हिमालय भागना, तो एक कोशिश है चौबीस घंटे सत्व में जीने की। वह भी अतिशय है। इसलिए संन्यासी को भी घर में रहना। आठ घंटा संन्यासी, आठ घंटा दुकानदार और आठ घंटा निद्रा में पडे हैं, न संन्यासी, न दुकानदार। विश्राम भी तो चाहिए, संन्यास से भी, दुकान से भी! चौबीस घंटे संन्यासी बनने की कोशिश में तो ... संन्यासी अथार्त उन्होंने कोशिश की कि तिपाई के दो पैर तोड़ दें और एक ही पैर पर खड़े हो जाएं; तो लंगड़ा गए। और भारत का संन्यास बुरी तरह लंगड़ा गया और धूल धूसरित होकर गिरा ।संन्यासी संतुलित न रहा...गरिमा नहीं पैदा हुई।
और तुम तोड़ नहीं सकते दूसरे दो पैर, क्योंकि जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं।
25-हम भाग नहीं सकते, जीवन के नियम के विपरीत नहीं चल सकते। जीवन के नियम का उपयोग करो। समझदार वह है, जो जीवन के नियम का उपयोग करके जीवन के पार उठ जाता है।नासमझ वह है, जो जीवन के नियम को तोड़ने की कोशिश करके बाहर होना चाहता है। वह और
उलझ जाता है।संन्यास एक कला है ..संतुलन की।यदि कोई पीछे के द्वार से प्रवेश कर गया तो संन्यासी बाहर से दिखाएगा, उसकी धन में कोई उत्सुकता नहीं है, और भीतर से धन जोड़ेगा। बाहर से दिखाएगा, उसकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है, लेकिन विस्तार में मन लगा रहेगा। बाहर से दिखाएगा कि मेरे जीवन में कोई तमस नहीं है, लेकिन भीतर भयंकर तमस घिरा रहेगा।
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तीन प्रकार की श्रद्धा का क्या अर्थ है?-
19 FACTS;-
1-सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही
है।तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो। अगर तुम्हारी श्रद्धा Water Element/आलस्य की है, तो तुम्हारा जीवन आलस्य की कहानी होगा। अगर तुम्हारी श्रद्धा Fire Element/रजस की है, महत्वाकांक्षा की, दौड़ की है, तुम्हारा जीवन एक दौड़-भाग होगा। अगर तुम्हारी श्रद्धा Air Element/सत्व की है, शांति की है, शून्य की है, शुभ की है, तो तुम्हारे जीवन में एक सुवास होगी, जो स्वर्ग की है, जो इस पृथ्वी की नहीं है। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो।
2-अपनी श्रद्धा को ठीक से पहचान लो, क्योंकि न पहचानने से बड़ी जटिलता बढ़ती है।यदि तुम्हारा अंतःकरण आलसी है और आकांक्षा करते हो उन सुखों को पाने की, जो राजसी को मिलते हैं।तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम हो।यदि तुम्हारा अंतःकरण राजसी है; दौड़ -धूप में पड़ा है और चाहता है कि वह शांति मिल जाए, जो सात्विक को मिलती है ;तो यह नहीं हो सकता।
3-अपनी श्रद्धा को ठीक से पहचानो और अपनी श्रद्धा से भिन्न मत मांगो। अगर भिन्न मांगना है, तो अपनी श्रद्धा को रूपांतरित करो। अन्यथा तुम बड़ी उलझन में पड़ जाओगे ; एक पहेली हो जाओगे।और सभी लोग
पहेली हो गए हैं। लोग ऐसा सुख चाहते हैं, जो राजसी को मिलता है; और ऐसी शांति चाहते हैं, जो सात्विक को मिलती है; और ऐसा विश्राम चाहते हैं, जिसको आलसी भोगता है। बड़ी मुश्किल है; वे सभी एक साथ चाहते हैं और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता।
4-सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, दिव्यता को पूजते हैं।जो सात्विक है, उसके मन की पूजा स्वभावत: ही सत्व की तरफ होती है, क्योंकि तुम जो हो, और तुम जो होना चाहते हो, उसी का तुम्हारे मन में आदर होता है। अगर राजनेता आता है और तुम उसके स्वागत के लिए स्टेशन पर पहुंच जाते हो, तो भलें ही तुम राजनीति में न हो, लेकिन उसके स्वागत की खबर बताती है कि तुम राजसी हो। तुम्हारी श्रद्धा ही है,कि फिल्म अभिनेता आया है, उसके पास भीड़ लगा लेते हो ।तुम्हारी श्रद्धा ही है,कि संन्यासी आया, और तुम उसके दर्शन को पहुंच जाते हो।तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हें संचारित करती है।
5-दिव्यता का अर्थ है, जिनके जीवन में तीनों की एकता का संगीत बजने लगा। अभी वे एक को उपलब्ध नहीं हुए हैं; अभी यात्रा बाकी है, लेकिन बड़ा पड़ाव आ गया,त्रिगुण का सांख्य सध गया। उनके जीवन में स्वर्ग का संगीत बजने लगा।यह तो केवल प्रतीक हैं कि स्वर्ग में देवता रहते हैं।ऐसा स्वर्ग कहीं नहीं है।देवता तो यहीं जमीन पर तुम्हारे आस पास रहते हैं। लेकिन तुम्हारी सत्य की श्रद्धा होगी, तो दिखाई पड़ेंगे। सत्व की श्रद्धा न होगी, तो दिखाई न पड़ेंगे। क्योंकि श्रद्धा आँख है।
6-सत्व की आँख होगी, तो बहुत कुछ दिखाई पड़ेगा। नहीं होगी, तो नहीं दिखाई पड़ेगा। अगर पति सात्विक हो जाए और पत्नी की आँख सत्व की न
हो, तो उसे कुछ और दिखाई पड़ेगा।पत्नियां कहती हैं कि अभी तो बाल -बच्चे बड़े हो रहे हैं। और अभी तो काम -धंधा शुरू ही हुआ है। और अगर वे ध्यान में उलझ गए, तो क्या होगा?पति में अगर सत्व पैदा हो रहा है,
तो पत्नी को दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उसकी श्रद्धा अभी रजस की है। वह पति के ध्यान की कुर्बानी के लिए राजी है, अपने थोड़े से गहनों की कुर्बानी के लिए राजी नहीं है।
7-वह कहती है, अभी तो मकान बहुत छोटा है, थोड़ा मकान तो बड़ा हो जाने दो। अभी बैंक में बैलेंस है ही क्या! बुढ़ापे में क्या होगा? अगर कल
पति को कुछ हो जाए, तो हम क्या करेंगे?न तो पति की आत्मा से कोई मतलब है, न पति के जीवन से कोई मतलब है। अगर पति को कुछ हो जाए, इसकी चिंता है। तो बैंक में बैलेंस होना चाहिए, चाहे पति रहे, चाहे जाए। श्रद्धा रजस की है।तो पति ध्यान करने बैठे,तो पत्नियां बाधा डालती हैं।
8-इसी प्रकार अगर पत्नी में सत्व की श्रद्धा पैदा हो जाए , तो पति बेचैन हो जाता है।एक उपद्रव खड़ा हो जाता है। अब पत्नी को ज्यादा रस नहीं है .. वह ध्यान में लगी रहती है! हम कहां जाएं? अभी तो मैं जवान हूं ;ये तो बुढ़ापे की बातें हैं। पचास साल के बाद ध्यान सीखती , तो ठीक था।
ध्यान जैसी घटना घट रही हो, उसमें भी सौभाग्य नहीं मालूम पड़ता। पत्नी शांत हो रही है, इसमें भी पीड़ा लगती है।
9-कुछ पत्नियां कहती हैं कि पति अब क्रोध नहीं करते, इससे हमें हैरानी होती है। वे पहले क्रोध करते थे, तो ठीक था। अब ऐसा लगता है कि उन्हें उपेक्षा हो गई है। अक्रोध में उपेक्षा दिखती है। अक्रोध में एक घटना नहीं दिखती कि इस आदमी के जीवन में एक आनंद है। अक्रोध में दिखता है कि इस आदमी को अब रस नहीं रहा; इसलिए हम गाली भी दें, तो यह सुन लेता है। क्योंकि इसको कोई मतलब ही नहीं है। उपेक्षा से भर गया है यह आदमी।
10-और लोग उपेक्षा पसंद नहीं करते, चाहे गाली दो, वे उसके लिए भी राजी हैं, कम से कम इतना रस तो रखते हो कि गाली देते हो। उपेक्षा बहुत काटती है। तटस्थ ,उदासीन हो गए तो पत्नी घबडाती है कि यह तो हाथ के बाहर चला आदमी। ऐसे उदास होते होते एक दिन घर से भाग जाएगा; फिर हम क्या करेंगे? वह चाहती है कि पति नाराज हो, लड़े, मारे -पीटे, तो भी चलेगा,लेकिन ध्यान न करे।सत्य की श्रद्धा हो, तो ही सत्व दिखाई पड़ता है।देवता का अर्थ है, जिनके जीवन में संतुलन आ गया, जो अब करीब -करीब मुक्ति के किनारे खड़े हैं।
11-स्वर्ग वह सीमा है, जहां से आदमी मोक्ष में छलांग मार ले। थोड़े अटके हैं, अटकाव यह है कि उनको अभी संगीत से ही रस पैदा हो गया है; यह
सोने की जंजीर है, बड़ी प्यारी लगती है।इसलिए हम देवताओं को मुक्त पुरुष नहीं कहते।और जब कोई बुद्ध पुरुष पैदा होते हैं, तो हमारे' पास कथाएं हैं कि देवता उन्हें सुनने आते हैं कि हमें मुक्ति का मार्ग दें।उनको आना पड़ेगा, क्योंकि अब वे सत्व के सुख से बंध गए हैं।स्वर्ग भी बंधन है
।बड़ा प्यारा बंधन है, बड़ी मिठास है उसमें, लेकिन है...कांटा। कितनी ही मीठी पीड़ा देता हो, उसे भी निकाल देना होगा।जिनकी सत्य की श्रद्धा
है,वे देवों को पूजते हैं।वे जहां भी दिव्यता को पाएंगे,वहां उनका सिर झुक जाएगा।
12-जिनकी राजस श्रद्धा है, वे यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं। राक्षस का अर्थ है, जिसके जीवन में सत्व और तम दोनों दब गए, बस रजस प्रगाढ़ हो गया।
रावण सफल से सफल राजनीतिज्ञ था..स्वर्ण की लंका बसा दी थी।
यह रावण राक्षस है। इससे यह मत समझना कि राक्षस मनुष्यों की कोई जाति है।वास्तव में,राक्षस गुण है, वह राजनीतिज्ञ का नाम है; पद -लोलुप का नाम है।वे उनको पूजते हैं, जिनके पास शक्ति है,पद है, या जिनके
पास धन है।कुबेर का अर्थ है, जिसके पास सारे जगत में सब से बड़ा धन है ।स्वर्ग के देवताओं का जो खजांची है.. कुबेर, वह यक्ष है।तो या तो धन की पूजा है या पद की पूजा है।लेकिन दोनों ही पूजा के पीछे शक्ति की पूजा है।13-राजस शक्ति की मांग करता है ।अगर ऐसा व्यक्ति देवी-देवताओं की भी पूजा करता है, तो भी शक्ति के लिए ही करता है। वह कहता है कि ऐसी शक्ति दो कि सब को पराजित कर दूं! मैं पराजित न हो पाऊं, अपराजेय हो जाऊं!फिर तीसरा वर्ग है तमस से भरे लोगों का। उनकी आकांक्षा इतनी ही है कि उनका आलस्य अखंडित रहे। कोई उन्हें जगाए न; उनकी आकांक्षाएं कोई और पूरा कर दे; वे पड़े रहें।वे अपनी मूर्च्छा में सोए रहें, वे शराब पीए रहें, वे नींद में डूबे रहें, वे प्रमाद में रहें; कोई और पूरा कर दे उनकी जरूरतों को।और तामस पुरुष प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।
14-तो भूत-प्रेत से अर्थ है, ऐसे लोग जो खुद भी तमस-प्रधान हैं। ऐसी आत्माएं जो खुद भी तमस -प्रधान हैं ;वे इनकी पूर्ति करती रहती हैं। इस तरह के लोग एक एजेंट है, वे हीं भूत-प्रेत है। तुम्हें तुम्हें धन की ओर लगाने वाला, जुआ खिलाने वाला ,लाटरी में दाव लगाने की उत्सुकता पैदा करवाने वाला, टिकट बेचने वाला भी होता है। वे तुम्हारे आलस्य को बढ़ाते हैं। वे कहते हैं, हम सब कर देंगे; तुम मजे से सोए रहो, तुम जरा-सा इतना सहारा दे दो, सब ठीक हो जाएगा। कल का किसको भरोसा है? और जो आज कल के लिए टाल रहा है, वह कल भी कल के लिए टालेगा। उसकी कल पर टालने की आदत हो जाएगी।
15-तीन तरह की आत्माएं हैं, क्योंकि तीन तरह के गुण हैं।ठीक वैसी ही व्यवस्था आत्माओं की भी है।प्रेत को तुम राजी कर सकते हो।हममें से
बहुत से लोग प्रेत को ही राजी करने को उत्सुक हैं। कोई तुम्हें ताबीज दे दे, जिससे बीमारी ठीक हो जाए; कोई तुम्हें भभूत दे दे, जिससे खजाना मिल जाए। तुम्हारी आकांक्षा ऐसी है, तुम्हें कुछ न करना पड़े, तुम ऐसे आलस्य में पड़े रहो, खजाने तुम्हारी तरफ आते जाएं। प्रेत उत्सुक कर लेते हैं ऐसे लोगों को। वे जीवित भी हैं, शरीर में भी हैं, और शरीर के बाहर भी हैं।
16-तुम साधु के पास जा रहे हो कि उसके पास जाने से धन की वर्षा हो जाएगी। तुम क्या मांगते हो,तुम्हारी आकांक्षा क्या है..किसलिए आशीर्वाद
चाहते हो ;वह तुम्हारे अंतःकरण की श्रद्धा से उपजता है।तुम्हारी श्रद्धा ही
तुम्हें ले जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ऐसे तीन तरह के लोग हैं। तुम जरा
अपनी खोज करना,कि तुम किस तरह के हो।तुम किसी जादूगर को खोज रहे हो, मदारी को खोज रहे हो कि संत को खोज रहे हो कि हाथ से राख गिर गई और हाथ बिलकुल खाली था;लोग चमत्कार चाहते हैं,क्योंकि
उनकी वासना चमत्कार से ही तृप्त हो सकती है।आज जरा सी राख दी, कल देखना अमृत दे देगा। आकांक्षा बढ़ती चली जाती है।
17-तुम जब तक मांगते हो, तब तक तुम संत के पास न आ सकोगे।
देवों की पूजा वे लोग करते हैं, जो धन्यवाद देने आते हैं; जो अहोभाव प्रकट करने आते हैं; जो कहते हैं, वैसे ही इतना मिला है कि उसका धन्यवाद देने आए हैं। संतों के निकट वे ही लोग पहुंच पाते हैं, जो सिर्फ अहोभाव प्रकट करने आते हैं। नहीं तो तुम राजसी या तामसी पुरुषों के पास पहुंचोगे।
तुम कहां जाते हो, ठीक से पहचानना।तुम अकारण कहीं नहीं जाते हो। तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हें कहीं ले जाती है।
18-भीतर को ठीक से पहचानो, क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा ही तुम्हारा जीवन है।
जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है। और अगर तुमने ठीक से भीतर को पहचाना, तो तुम जल्दी ही यह समझ जाओगे कि तृप्ति किसी एक से नहीं हो सकती। उन तीनों का संयोग चाहिए। और तीनों के संयोग में ही तृप्ति फलती है, एक की प्रतीति शुरू होती है। और तीनों का संयोग धीरे -धीरे -धीरे तुम्हें उस एक की तरफ ले जाता है, जो गुणातीत है।
19-वास्तव में,पाना तो उसे ही है, जो त्रिगुण के बाहर है। उस एक की ही खोज करनी है। त्रिगुण/तीनों Element के व्यक्तियों से संतुलन बना लो तो शिवत्व तक पहुंच जाओगे।त्रिगुण का सांख्य सिद्ध कर लो। त्रिभुज के तीनों पैरों को तुम एक ही अनुपात का , एक ही बल का बना लो, और तुम पाओगे कि त्रिकोण रूपी तिपाई सध गई। तिपाई सध गई, कि सब सध गया। अब तुम तिपाई पर पैर रख सकते हो और एक की तरफ.. शिवत्व की यात्रा शुरू हो सकती है।
....SHIVOHAM....