व्यक्ति जो कार्य करता है क्या वह परमात्मा ही द्वारा नहीं होता है ?
जन्म के साथ ही भूख होती है ,नीदं होती है प्यास होती है लेकिन क्या प्रभु की प्यास भी होती है?
इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। प्यास तो प्रभु की भी जन्म के साथ ही होती है, लेकिन पहचानने में बड़ा समय लग जाता है। जैसे उदाहरण के लिए बच्चे सभी सेक्स के साथ पैदा होते हैं, लेकिन पहचानने में चौदह साल लग जाते हैं। काम की, सेक्स की भूख तो जन्म के साथ ही होती है, लेकिन चौदह—पंद्रह साल लग जाते हैं उसकी पहचान आने में। और पहचान आने में चौदह—पंद्रह साल क्यों लग जाते हैं? प्यास तो भीतर होती है, लेकिन शरीर तैयार नहीं होता। चौदह साल में शरीर तैयार होता है, तब प्यास जग पाती है। अन्यथा सोई पड़ी रहती है।
परमात्मा की प्यास भी जन्म के साथ ही होती है, लेकिन शरीर तैयार नहीं हो पाता। और जब भी शरीर तैयार हो जाता है तब तत्काल जग जाती है। तो कुंडलिनी शरीर की तैयारी है। लेकिन आप कहेंगे कि यह अपने आप क्यों नहीं होता?
कभी—कभी अपने आप होता है। लेकिन—इसे समझ लें— मनुष्य के विकास में कुछ चीजें पहले व्यक्तियों को होती हैं, फिर समूह को होती हैं। जैसे उदाहरण के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि पूरे वेद को पढ़ जाएं, ऋग्वेद को पूरा देख जाएं, तो ऐसा नहीं लगता कि ऋग्वेद में सुगंध का कोई बोध है। ऋग्वेद के समय के जितने शास्त्र हैं सारी दुनिया में, उनमें कहीं भी सुगंध का कोई भाव नहीं है। फूलों की बात है, लेकिन सुगंध की बात नहीं है। तो जो जानते हैं, वे कहते हैं कि ऋग्वेद के समय तक आदमी की सुगंध की जो प्यास है वह जाग नहीं पाई थी। फिर कुछ लोगों को जागी।
अभी भी सुगंध मनुष्यों में बहुत कम लोगों को ही अर्थ रखती है, बहुत कम लोगों को। अभी सारे लोगों में सुगंध की इंद्रिय पूरी तरह जाग नहीं पाई है। और जितनी विकसित कौंमें हैं, उतनी ज्यादा जाग गई है, जितनी अविकसित कौमें हैं, उतनी कम जागी है। कुछ तो कबीले अभी भी दुनिया में ऐसे हैं जिनके पास सुगंध के लिए कोई शब्द नहीं है। पहले कुछ लोगों को सुगंध का भाव जागा, फिर वह धीरे— धीरे गति की और वह कलेक्टिव माइंड, सामूहिक मन का हिस्सा बना।
और भी बहुत सी चीजें धीरे— धीरे जागी हैं, जो कभी नहीं थीं, एक दिन था कि नहीं थीं। रंग का बोध भी बहुत हैरान करनेवाला है। अरस्तू ने अपनी किताबों में तीन रंगों की बात की है। अरस्तू के जमाने तक यूनान में लोगों को तीन रंगों का ही बोध होता था। बाकी रंगों का कोई बोध नहीं होता था। फिर धीरे— धीरे बाकी रंग दिखाई पड़ने शुरू हुए। और अभी भी जितने रंग हमें दिखाई पड़ते हैं, उतने ही रंग हैं, ऐसा मत समझ लेना। रंग और भी हैं, लेकिन अभी बोध नहीं जगा। इसलिए कभी एल एस डी, या मेस्कलीन, या भांग, या गांजा के प्रभाव में बहुत से और रंग दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, जो हमने कभी भी नहीं देखे हैं। और रंग हैं अनंत। उन रंगों का बोध भी धीरे— धीरे जाग रहा है।
अभी भी बहुत लोग हैं जो कलर ब्लाइंड हैं। यहां अगर हजार मित्र आए हों, तो कम से कम पचास आदमी ऐसे निकल आएंगे जो किसी रंग के प्रति अंधे हैं। उनको खुद पता नहीं होगा। उनको खयाल भी नहीं होगा। कुछ लोगों को हरे और पीले रंग में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता। साधारण लोगों को नहीं, कभी—कभी बड़े असाधारण लोगों को, बर्नार्ड शॉ को खुद कोई फर्क पता नहीं चलता था हरे और पीले रंग में। और साठ साल की उम्र तक पता नहीं चला कि उसको पता नहीं चलता है। वह तो पता चला साठवीं वर्षगांठ पर किसी ने एक सूट भेंट किया। वह हरे रंग का था। सिर्फ टाई देना भूल गया था, जिसने भेंट किया था। तो बर्नार्ड शॉ बाजार टाई खरीदने गया। वह पीले रंग की टाई खरीदने लगा। तो उस दुकानदार ने कहा कि अच्छा न मालूम पड़ेगा इस हरे रंग में यह पीला। उसने कहा कि क्या कह रहे हैं? बिलकुल दोनों एक से हैं। उस दुकानदार ने कहा, एक से! आप मजाक तो नहीं कर रहे? क्योंकि बर्नार्ड शॉ आमतौर से मजाक करता था। सर, आप मजाक तो नहीं कर रहे? इन दोनों को एक रंग कह रहे हैं आप! यह पीला है, यह हरा है। उसने कहा, दोनों हरे हैं। पीला यानी? तब बर्नार्ड शॉ ने आंख की जांच करवाई तो पता चला पीला रंग उसे दिखाई नहीं पड़ता; पीले रंग के प्रति वह अंधा है।
एक जमाना था कि पीला रंग किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। पीला रंग मनुष्य की चेतना में नया रंग है। तो बहुत से रंग नये आए हैं मनुष्य की चेतना में। संगीत सभी को अर्थपूर्ण नहीं है, कुछ को अर्थपूर्ण है। उसकी बारीकियों में कुछ लोगों को बड़ी गहराइयां हैं। कुछ के लिए सिर्फ सिर पीटना है। अभी उनके लिए स्वर का बोध गहरा नहीं हुआ है। अभी मनुष्य—जाति के लिए संगीत सामूहिक अनुभव नहीं बना। और परमात्मा तो बहुत ही दूर, आखिरी, अतींद्रिय अनुभव है। इसलिए बहुत थोड़े से लोग जाग पाते हैं। लेकिन सबके भीतर जागने की क्षमता जन्म के साथ है।
लेकिन जब भी हमारे बीच कोई एक आदमी जाग जाता है, तो उसके जागने के कारण भी हममें बहुतों की प्यास जो सोई हो वह जागना शुरू हो जाती है। जब कभी कोई एक कृष्ण हमारे बीच उठ आता है, तो उसे देखकर भी, उसकी मौजूदगी में भी हमारे भीतर जो सोया है वह जागना शुरू हो जाता है।
हम सबके भीतर है जन्म के साथ ही वह प्यास भी, वह भूख भी, लेकिन वह जाग नहीं पाती। बहुत कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यही है.......सबसे बडा कारण तो यही है कि जो बड़ी भीड़ है हमारे चारों तरफ, उस भीड़ में वह प्यास कहीं भी नहीं है। और अगर किसी व्यक्ति में उठती भी है तो वह उसे दबा लेता है, क्योंकि वह उसे पागलपन मालूम होती है। चारों तरफ जहां सारे लोग धन की प्यास से भरे हों, यश की प्यास से भरे हों, वहां धर्म की प्यास पागलपन मालूम पड़ती है। और चारों तरफ के लोग संदिग्ध हो जाते हैं कि कुछ दिमाग तो नहीं खराब हो रहा है! आदमी अपने को दबा देता है। उठ नहीं पाती, जग नहीं पाती सब तरफ से दमन हो जाता है। और जो हमने दुनिया बनाई है, उस दुनिया में हमने परमात्मा को जगह नहीं छोड़ी, क्योंकि जैसा मैंने कहा बड़ा खतरनाक है परमात्मा को जगह छोड़ना, हमने वह जगह नहीं छोड़ी है।
पत्नी डरती है कि कहीं पति के जीवन में परमात्मा न आ जाए। क्योंकि परमात्मा के आने से पत्नी तिरोहित भी हो सकती है। पति डरता है, कहीं पत्नी के जीवन में परमात्मा न आ जाए। क्योंकि अगर परमात्मा आ गया तो पति परमात्मा का क्या होगा? यह सब्स्टियूट परमात्मा कहां जाएगा? इसकी जगह कहां होगी?
हमने जो दुनिया बनाई है, उसमें परमात्मा को जगह नहीं रखी है। और परमात्मा वहां डिस्टरबिंग साबित होगा। वह अगर वहां आता है तो वहां गड़बड़ होगी। गड़बड़ सुनिश्चित है। वहां कुछ न कुछ अस्तव्यस्त होगा। वहां नींद टूटेगी, कहीं कुछ होगा कहीं कुछ चीजें बदलनी पड़ेगी। हम ठीक वही तो नहीं रह जाएंगे जो हम थे। तो इसलिए हमने उसे घर के बाहर छोड़ा है। लेकिन कहीं वह जग ही न जाए उसकी प्यास, इसलिए हमने झूठे परमात्मा अपने घरों में बना लिए—कि अगर किसी को जगे भी, तो यह रहे भगवान। एक पत्थर की मूर्ति खड़ी है, उसकी पूजा करो। ताकि असली भगवान की तरफ प्यास न चली जाए। तो सब्स्टियूट गॉड्स हमने पैदा किए हुए हैं। यह आदमी की सबसे बड़ी कनिंगनेस, सबसे बड़ी चालाकी, सबसे बड़ा षड्यंत्र है। परमात्मा के खिलाफ जो बड़े से बड़ा षड्यंत्र है, वह आदमी के बनाए हुए परमात्मा हैं।
इनकी वजह से जो प्यास उसकी खोज में जाती, वह उसकी खोज में न जाकर मंदिरों और मस्जिदों के आसपास भटकने लगती है, जहां कुछ भी नहीं है। और जब वहां कुछ भी नहीं मिलता तो आदमी को लगता है कि इससे तो अपना वह घर ही बेहतर; इस मंदिर और मस्जिद में क्या रखा हुआ है! तो मंदिर—मस्जिद हो आता है, घर लौट आता है। उसे पता नहीं कि मंदिर— मस्जिद बहुत धोखे की ईजाद हैं।
मैंने तो सुना है कि एक दिन शैतान ने लौटकर अपनी पत्नी को कहा कि अब मैं बिलकुल बेकार हो गया हूं अब मुझे कोई काम ही न रहा। उसकी पत्नी बहुत हैरान हुई, जैसे कि पत्निया हैरान होती हैं अगर कोई बेकार हो जाए। उसकी पत्नी ने कहा, आप और बेकार! लेकिन आप कैसे बेकार हो गए? आपका काम तो शाश्वत है! लोगों को बिगाड़ने का काम तो सदा चलेगा; यह बंद तो होनेवाला नहीं। यह कैसे बंद हो गया? आप कैसे बेकार हो गए? उस शैतान ने कहा, मैं बेकार बड़ी मुश्किल से हो गया, बड़े अजीब ढंग से हो गया। अब मेरा जो काम था वह मंदिर और मस्जिद, पंडित और पुजारी कर देते हैं; मेरी कोई जरूरत नहीं है। आखिर भगवान से ही लोगों को भटकाता था। अब भगवान की तरफ कोई जाता ही नहीं! बीच में मंदिर खड़े हैं, वहीं भटक जाता है। हम तक कोई आता ही नहीं मौका कि हम भगवान से भटकाएं।
परमात्मा की प्यास तो है। और बचपन से ही हम परमात्मा के संबंध में कुछ सिखाना शुरू कर देते हैं, उससे नुकसान होता है; जानने के पहले यह भ्रम पैदा होता है कि जान लिया। हर आदमी परमात्मा को जानता है! प्यास पैदा ही नहीं हो पाती और हम पानी पिला देते हैं। उससे ऊब पैदा हो जाती है और घबड़ाहट पैदा हो जाती है। परमात्मा अरुचिकर हो जाता है हमारी शिक्षाओं के कारण; कोई रुचि नहीं रह जाती। और इतना ठूंस देते हैं, दिमाग को ऐसा स्टफ कर देते हैं—गीता, कुरान, बाइबिल से, महात्माओं से, साधुओं—संतों से, वाणियों से इस बुरी तरह सिर भर देते हैं कि मन यह होता है कि कब इससे छुटकारा हो। तो परमात्मा तक जाने का सवाल नहीं उठता।
हमने जो व्यवस्था की है वह ईश्वर—विरोधी है, इसलिए प्यास बड़ी मुश्किल हो गई। और अगर कभी उठती है तो आदमी फौरन पागल मालूम होने लगता है। तत्काल पता चलता है कि यह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि वह हम सबसे भिन्न हो जाता है। वह और ढंग से जीने लगता है; वह और ढंग से श्वास लेने लगता है; सब उसका तौर—तरीका बदल जाता है। वह हमारे बीच का आदमी नहीं रह जाता, वह स्ट्रेजर हो जाता है, वह अजनबी हो जाता है।
हमने जो दुनिया बनाई है, वह ईश्वर—विरोधी है। बड़ा पक्का षड्यंत्र है। और अभी तक हम सफल ही रहे हैं। अभी तक हम सफल ही हुए चले जा रहे हैं। हम ईश्वर को बिलकुल बाहर कर दिए हैं। उसकी ही दुनिया से हमने उसे बिलकुल बाहर किया हुआ है। और हमने एक जाल बनाया है जिसके भीतर उसके घुसने के लिए हमने कोई दरवाजा नहीं छोड़ा है। तो प्यास कैसे जगे? लेकिन, प्यास भला न जगे, प्यास का भला पता न चले, लेकिन तड़पन भीतर और गहरी घूमती रहती है जिंदगी भर। यश मिल जाता है, फिर भी लगता है कुछ खाली रह गया; धन मिल जाता है और लगता है कि कुछ अनमिला रह गया; प्रेम मिल जाता है और लगता है कि कुछ छूट गया जो नहीं मिला, नहीं पाया जा सका।
वह क्या है जो हर बार छूट गया मालूम पड़ता है?
एक दिशाहीन प्यास:-
वह हमारे भीतर की एक प्यास है, जिसको हमने पूरा होने से, बढ़ने से, जगने से सब तरह से रोका है। वह प्यास जगह— जगह खड़ी हो जाती है, हमारे हर रास्ते पर प्रश्नचिह्न बन जाती है। और वह कहती है इतना धन पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं; इतना यश पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं, सब पा लिया, लेकिन खाली हो तुम। वह प्यास जगह—जगह से हमें कोंचती है, कुरेदती है, जगह—जगह से छेदती है। लेकिन हम उसको झुठलाकर फिर अपने काम में और जोर से लग जाते हैं, ताकि यह आवाज सुनाई न पड़े। इसलिए धन कमानेवाला और जोर से कमाने लगता है, और जोर से कमाने लगता है। यश की दौडवाला और तेजी से दौड़ने लगता है। वह अपने कान बंद कर लेता है कि सुनाई न पड़े कि कुछ भी नहीं मिला।
हमारा सारा का सारा इंतजाम प्यास को जगने से रोकता है। अन्यथा..... .एक दिन जरूर पृथ्वी पर ऐसा होगा कि जैसे बच्चे भूख और प्यास लेकर, और सेक्स और यौन लेकर पैदा होते हैं, ऐसे ही वे डिवाइन थर्स्ट, परमात्मा की प्यास लेकर भी पैदा होते हुए मालूम पड़ेंगे। वह दुनिया कभी बन सकती है, बनाने जैसी है। कौन बनाए उसे?
बहुत प्यासे लोग जो परमात्मा को खोजते हैं, उस दुनिया को बना सकते हैं। लेकिन जैसा अब तक है, उस सारे षड्यंत्र को तोड़ देने की जरूरत है, तब ऐसा हो सकता है।
प्यास तो है। लेकिन आदमी कृत्रिम उपाय कर ले सकता है। अब चीन में हजारों साल तक स्त्रियों के पैर में लोहे का जूता पहनाया जाता था, कि पैर छोटा रहे। छोटा पैर सौंदर्य का चिह्न था। जितना छोटा पैर हो, उतने बड़े घर की लड़की थी। तो स्त्रियां चल ही नहीं सकती थीं, पैर इतने छोटे रह जाते थे। शरीर तो बड़े हो जाते, पैर छोटे रह जाते। वे चल ही न पातीं। जो स्त्री बिलकुल न चल पाती, वह उतने शाही खानदान की स्त्री! क्योंकि गरीब की स्त्री तो अफोर्ड नहीं कर सकती थी, उसको तो पैर बड़े ही रखना पड़ता था, उसको तो चलना पड़ता था, काम करना पड़ता था। सिर्फ शाही स्त्रियां चलने से बच सकती थीं। तो कंधों पर हाथ का सहारा लेकर चलती थीं। अपंग हो जाती थीं, लेकिन समझा जाता था कि सौंदर्य है। अपंग होना था वह।
आज चीन की कोई लड़की तैयार न होगी, कहेगी पागल थे वे लोग। लेकिन हजारों साल तक यह चला। जब कोई चीज चलती है तो पता नहीं चलता। जब हजारों लोग, इकट्ठी भीड़ करती है तो पता नहीं चलता। जब सारी भीड़ पैरों में जूते पहना रही हो लोहे के, तो सारी लड़कियां पहनती थीं। जो नहीं पहनती, उसको लोग कहते कि तू पागल है। उसे अच्छा, सुंदर पति न मिलता, संपन्न परिवार न मिलता, वह दीन और दरिद्र समझी जाती। और जहां भी उसका पैर दिख जाता वहीं गंवार समझी जाती— अशिक्षित, असंस्कृत। क्योंकि तेरा पैर इतना बड़ा! पैर सिर्फ बड़े गंवार के ही चीन में होते थे, सुसंस्कृत का पैर तो छोटा होता था।
तो हजारों साल तक इस खयाल ने वहां की स्त्रियों को पंगु बनाए रखा। खयाल भी नहीं आया कि हम यह क्या पागलपन कर रहे हैं! लेकिन वह चला। जब टूटा तब पता चला कि यह तो पागलपन था।
ऐसे ही सारी मनुष्यता का मस्तिष्क पंगु बनाया गया है, ईश्वर की दृष्टि से। ईश्वर की तरफ जाने की जो प्यास है, उसे सब तरफ से काट दिया जाता है; उसको पनपने के मौके नहीं दिए जाते। और अगर कभी उठती भी हो, तो झूठे सब्स्टियूट खड़े कर दिए जाते हैं और बता दिया जाता है— परमात्मा चाहिए? चले जाओ मंदिर में! परमात्मा चाहिए? पढ़ लो गीता, पढ़ो कुरान, पढ़ो वेद— मिल जाएगा।
वहां कुछ भी नहीं मिलता, शब्द मिलते हैं। मंदिर में पत्थर मिलते हैं। तब आदमी सोचता है कि कुछ भी नहीं है, तो शायद अपनी प्यास ही झूठी रही होगी। और फिर प्यास ऐसी चीज है कि आई और गई। जब तक आप मंदिर गए तब तक प्यास चली गई। जब तक आपने गीता पढ़ी तब तक प्यास चली गई। फिर धीरे— धीरे प्यास कुंठित हो जाती है। और जब किसी प्यास को तृप्त होने का मौका न मिले तो वह मर जाती है। वह धीरे— धीरे मर जाती है।
अगर आप तीन दिन भूखे रहें, तो बहुत जोर से भूख लगेगी पहले दिन; दूसरे दिन और जोर से लगेगी, तीसरे दिन और जोर से लगेगी, चौथे दिन कम हो जाएगी, पांचवें दिन और कम हो जाएगी, छठवें दिन और कम हो जाएगी; पंद्रह दिन के बाद भूख लगनी बंद हो जाएगी। महीने भर भूखे रह जाएं, फिर पता ही नहीं चलेगा कि भूख क्या है। कमजोर होते चले जाएंगे, क्षीण होते चले जाएंगे, रोज वजन कम होता चला जाएगा, अपना मांस पचा जाएंगे, लेकिन भूख लगनी बंद हो जाएगी; क्योंकि अगर महीने भर तक भूख को मौका न दिया बढ़ने का, तो मर जाएगी।
मैंने सुना है, काफ्का ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। उसने एक कहानी लिखी है कि एक बड़ा सर्कस है, और उस बड़े सर्कस में बहुत तरह के लोग हैं, और बहुत तरह के खेल तमाशे हैं। उस सर्कसवाले ने एक फास्ट करनेवाले को, उपवास करनेवाले को भी इकट्ठा कर लिया है। वह उपवास करने का प्रदर्शन करता है। उसका भी एक झोपड़ा है। सर्कस में और बहुत चीजों को लोग देखने आते हैं— जंगली जानवरों को देखते हैं, अजीब—अजीब जानवर हैं। इस अजीब आदमी को भी देखते हैं। यह महीनों बिना खाने के रह जाता है। वह तीन—तीन महीने तक बिना खाने के रहकर उसने दिखलाया है। निश्चित ही, उसको भी लोग देखने आते हैं। लेकिन कितनी बार देखने आएं? एक गांव में सर्कस छह—सात महीने रुका। महीने—पंद्रह दिन लोग उसको देखने आए। फिर ठीक है, अब भूखा रहता है तो रहता है। कब तक लोग देखने आएंगे?
सर्कस है, साधु—संन्यासी हैं, इसलिए इनको गांव बदलते रहना चाहिए। एक ही गांव में ज्यादा दिन रहे तो बहुत मुश्किल हो। वे कितने दिन तक लोग आएंगे? इसलिए दों—तीन दिन में गांव बदल लेने से ठीक रहता है। दूसरे गांव में फिर लोग आ जाते हैं। दूसरे गांव में फिर लोग आ जाते हैं।
उस गांव में सर्कस ज्यादा दिन रुक गया। लोग उसको देखने आना बंद कर दिए। उसकी झोपड़ी की फिकर ही भूल गए। वह इतना कमजोर हो गया था कि मैनेजर को जाकर खबर भी नहीं कर पाया, उठ भी नहीं सकता था, पड़ा रहा, पड़ा रहा, पड़ा रहा—बड़ा सर्कस था, लोग भूल ही गए। चार महीने, पांच महीने हो गए, तब अचानक एक दिन पता चला कि भई, उस आदमी का क्या हुआ जो उपवास किया करता था?
तो मैनेजर भागा कि वह आदमी मर न गया हो। उसका तो पता ही नहीं है! जाकर देखा तो वह जिस घास की गठरी में पड़ा रहता था वहां घास ही घास था, आदमी तो था नहीं। आवाज दी! उसकी तो आवाज नहीं निकलती थी। घास को अलग किया तो वह बिलकुल हड्डी—हड्डी रह गया था। आंखें उसकी जरूर थीं।
मैनेजर ने पूछा कि भई, हम भूल ही गए, क्षमा करो! लेकिन तुम कैसे पागल हो, अगर लोग नहीं आते थे, तो तुम्हें खाना लेना शुरू कर देना चाहिए था! उसने कहा कि लेकिन अब खाना लेने की आदत ही छूट गई है; भूख ही नहीं लगती। अब मैं कोई खेल नहीं कर रहा हूं अब तो खेल करने में फंस गया हूं। कोई खेल नहीं कर रहा, लेकिन अब भूख ही नहीं है। अब मैं जानता ही नहीं कि भूख क्या है। भूख कैसी चीज है वह मेरे भीतर होती ही नहीं।
क्या हो गया इस आदमी को? लंबी भूख व्यवस्था से की जाए तो भूख मर जाती है। परमात्मा की भूख को हम जगने नहीं देते। क्योंकि परमात्मा से ज्यादा डिस्टरबिग फैक्टर कुछ और नहीं हो सकता है। इसलिए हमने इंतजाम किया हुआ है। हम बड़ी व्यवस्था से, प्लान से रोके हुए हैं सब तरफ से कि वह कहीं से भीतर न आ जाए। अन्यथा हर आदमी प्यास लेकर पैदा होता है। और अगर उसे जगाने की सुविधा दी जाए, तो धन की प्यास, यश की प्यास तिरोहित हो जाएं, वही प्यास रह जाए।
आत्मिक प्यास से क्रांति:-
और भी एक कारण है कि या तो परमात्मा की प्यास रहे और या फिर दूसरी प्यासे रहें, सब साथ नहीं रह सकतीं। इसलिए इन प्यासों को— धन की, यश की, काम की—इन प्यासों को बचाने के लिए परमात्मा की प्यास को रोकना पड़ा है। अगर उसकी प्यास जगेगी, तो वह सभी को तिरोहित कर लेगी, अपने में समाहित कर लेगी। वह अकेली ही रह जाएगी।
परमात्मा बहुत ईर्ष्यालु है। वह जब आता है तो बस अकेला ही रह जाता है, फिर वह किसी को टिकने नहीं देता वहां। जब वह आपको अपना मंदिर बनाएगा तो वहां छोटे—मोटे देवी—देवता और न टिकेंगे, कि कई रखे हुए हैं हनुमान जी भी वहीं विराजमान हैं, और देवी—देवता भी विराजमान हैं, ऐसा परमात्मा न टिकने देगा। जब वह आएगा तो सब देवी—देवताओं को बाहर कर देगा। वह अकेला ही विराजमान हो जाता है। बहुत ईर्ष्यालु है।
कर्ता होने का भ्रम:-
व्यक्ति जो कार्य करता है? वह परमात्मा ही द्वारा नहीं होता है क्या?
यह सवाल ठीक पूछा है कि व्यक्ति जो कार्य करता है, वह परमात्मा ही द्वारा नहीं होता है क्या?
जब तक करता है, तब तक नहीं होता। जब तक व्यक्ति को लगता है—मैं कर रहा हूं तब तक नहीं होता। जिस दिन व्यक्ति को लगता है—मैं हूं ही नहीं, हो रहा है—उस दिन परमात्मा का हो जाता है। जब तक डूइंग का खयाल है कि कर रहा हूं तब तक नहीं। जिस दिन हैपनिंग हो जाती है—कि हो रहा है। हवाओं से पूछें कि बह रही हो? हवाएं कहेंगी, नहीं, बहाई जा रही हैं। वृक्षों से पूछो, बड़े हो रहे हो? वे कहेंगे, नहीं, बड़े किए जा रहे हैं। सागर की लहरों से पूछो, तुम्हीं तट से टकरा रही हो? वे कहेंगी, नहीं, बस टकराना हो रहा है। तब तो परमात्मा का हो गया। आदमी कहता है, मैं कर रहा हूं! बस वहीं से द्वार अलग हो जाता है; वहीं से आदमी का अहंकार घेर लेता है; वहीं से आदमी अपने को अलग मानकर खड़ा हो जाता है।
जिस दिन आदमी को भी पता चलता है कि जैसे हवाएं बह रही हैं, और जैसे सागर की लहरें चल रही हैं, और वृक्ष बड़े हो रहे हैं, और फूल खिल रहे हैं, और आकाश में तारे चल रहे हैं, ऐसा ही मैं चलाया जा रहा हूं; कोई है जो मेरे भीतर चलता है, और कोई है जो मेरे भीतर बोलता है; मैं अलग से कुछ भी नहीं हूं; बस उस दिन परमात्मा ही है।
कर्ता होने का हमारा भ्रम है। वही भ्रम हमें दुख देता है, वही भ्रम दीवाल बन जाता है। जिस दिन हम कर्ता नहीं हैं, उस दिन कोई भ्रम शेष नहीं रह जाता; उस दिन वही रह जाता है।
अभी भी वही है। ऐसा नहीं है कि आप कर्ता हैं तो आप कर्ता हो गए हैं। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। जब आप समझ रहे हैं कि मैं कर्ता हूं तो सिर्फ आपको भ्रम है। अभी भी वही है। लेकिन आपको उसका कोई पता नहीं है। हालत बिलकुल ऐसी है जैसे आप रात सो जाएं आज नारगोल में और रात सपना देखें कि कलकत्ता पहुंच गए हैं। कलकत्ता पहुंच नहीं गए हैं, कितना ही सपना देखें, हैं नारगोल में ही, लेकिन सपने में कलकत्ता पहुंच गए हैं। और अब आप कलकत्ते में पूछ रहे हैं कि मुझे नारगोल वापस जाना है, अब मैं कौन सी ट्रेन पकडूं? अब मैं हवाई जहाज से जाऊं, कि रेलगाड़ी से जाऊं, कि पैदल चला जाऊं? मैं कैसे पहुंच पाऊंगा? रास्ता कहां है? मार्ग कहां है? कौन मुझे पहुंचाएगा? गाइड कौन है? नक्शे देख रहे हैं, पता लगा रहे हैं। और तभी आपकी नींद टूट गई है। और नींद टूटकर आपको पता लगता है कि मैं कहीं गया नहीं, मैं वहीं था। फिर आप नक्शे वगैरह नहीं खोजते। फिर आप गाइड नहीं खोजते। फिर अगर कोई आपसे कहे भी कि क्या इरादा है, कलकत्ते से वापस न लौटिएगा? तो आप हंसते हैं, आप कहते हैं, कभी गया ही नहीं; कलकत्ता कभी गया नहीं, सिर्फ जाने का खयाल हुआ था।
आदमी जब अपने को कर्ता समझ रहा है तब भी कर्ता है नहीं, तब भी खयाल ही है, सपना ही है कि मैं कर रहा हूं। सब हो रहा है। यह सपना ही टूट जाए, तो जिसे ज्ञान कहें, जिसे जागरण कहें, वह घटित हो जाए। और जब हम ऐसा कहते हैं कि वह मुझसे करवा रहा है, तब भी भ्रम जारी है, क्योंकि तब भी मैं फासला मान रहा हूं—मैं मान रहा हूं कि मैं भी हूं वह भी है; वह करवाने वाला है, मैं करनेवाला हूं। नहीं, जब आपको सच में ही आप जागेंगे, तो आप ऐसा नहीं कहेंगे कि ही, मैं अभी—अभी कलकत्ते से लौट आया हूं। ऐसा नहीं कहेंगे, आप कहेंगे, मैं गया ही नहीं था। जिस दिन आप इस नींद से जागेंगे जो कर्ता होने की है, अहंता की, ईगो की नींद है, उस दिन आप ऐसा नहीं कहेंगे कि वह करवा रहा है और मैं करनेवाला हूं। उस दिन आप कहेंगे. वही है, मैं हूं कहां! मैं कभी था ही नहीं; एक स्वप्न देखा था जो टूट गया है।
और स्वप्न हम जीवन—जीवन तक देख सकते हैं; अनंत जन्मों तक देख सकते हैं। स्वप्न के देखने का कोई अंत नहीं है। कितने ही स्वप्न देख सकते हैं। और स्वप्नों का बड़े से बड़ा मजा तो यह है कि जब आप स्वप्न देखते हैं तब वह बिलकुल सत्य मालूम होता है। आपने बहुत बार सपने देखे हैं। रोज रात देखते हैं। और रोज सुबह जानते हैं कि सपना था, झूठा था। फिर आज रात देखेंगे जब, तब खयाल न आएगा कि सपना है, झूठा है। तब फिर जंचेगा कि बिलकुल ठीक है। फिर सुबह कल जागकर कहेंगे कि झूठा था। कितनी कमजोर है स्मृति! सुबह उठकर कहते हैं, सब सपने झूठे थे! रात फिर सपने देखते हैं। और सपने में वे फिर सच हो जाते हैं। वह सारा बोध जो सुबह हुआ था, फिर खो गया। निश्चित ही वह कोई गहरा बोध न था, ऊपर—ऊपर हुआ था। गहरे में फिर वही भांति चल रही है।
ऐसे ऊपर—ऊपर हमें बोध हो जाते हैं। कोई किताब पढ़ लेता है, और उसमें पढ़ लेता है कि सब परमात्मा करवा रहा है। तो एक क्षण को ऊपर से एक बोध हो जाता है कि मैं करनेवाला नहीं हूं परमात्मा करवा रहा है। लेकिन अभी भी वह कहता है—मैं करनेवाला नहीं, परमात्मा करवा रहा है। लेकिन वह मैं अभी जारी है। वह अभी कह रहा है कि मैं करनेवाला नहीं। वह एक क्षण में खो जाएगा। एक जोर से धक्का दे दें उसे, और वह क्रोध से भर जाएगा और कहेगा कि जानते नहीं मैं कौन हूं? वह भूल जाएगा कि अभी वह कह रहा था कि मैं करनेवाला नहीं, मैं नहीं हूं मैं कोई नहीं हूं परमात्मा ही है। एक जोर से धक्का दे दें, सब भूल जाएगा; एक क्षण में सब खो जाएगा। वह कहेगा, मुझे धक्का दिया, जानते नहीं मैं कौन हूं? वह परमात्मा वगैरह एकदम विदा हो जाएगा! मैं वापस लौट आएगा।
मैंने सुना है, एक संन्यासी हिमालय रहा तीस वर्षों तक। शांति में था, स्वात में था। भूल गया, अहंकार न रहा। अहंकार के लिए दूसरे का होना जरूरी है। क्योंकि वह दि अदर अगर न हो तो अहंकार खड़ा कहां करो? तो दूसरे का होना जरूरी है। दूसरे की आंख में जब अकड़ से झांको, तब वह खड़ा होता है। अब दूसरा ही न हो तो किस की अकड़ से झांकोगे? कहां कहो कि मैं हूं! क्योंकि तू चाहिए। मैं को खड़ा करने के लिए एक और झूठ चाहिए, वह तू है। उसके बिना वह खड़ा नहीं होता। झूठ के लिए एक सिस्टम चाहिए पड़ती है बहुत से खो की, तब एक झूठ खड़ा होता है। सत्य अकेला खड़ा हो जाता है, झूठ कभी अकेला खड़ा नहीं होता। झूठ के लिए और शो की बल्लियां लगानी पड़ती हैं। मैं का झूठ खड़ा करना हो तो तू वह, वे, इन सबके झूठ खड़े करने पडते हैं, तब मैं बीच में खड़ा हो पाता है।
वह आदमी अकेला था जंगल में, पहाड़ पर था, कोई तू न था, कोई वह न था, कोई वे न थे, कोई हम न था, भूल गया मैं। तीस साल लंबा वक्त था, शांत हो गया। नीचे से लोग आने लगे। फिर लोगों ने प्रार्थना की कि एक मेला भर रहा है, पहाड़ ऊंचा है, बहुत लोग यहां तक न आ सकेंगे, और प्रार्थना हम करते हैं कि आप नीचे चलकर दर्शन दे दें।
सोचा कि अब तो मेरा मैं रहा नहीं, अब चलने में हर्ज क्या है!
ऐसा बहुत बार मन धोखा देता है। अब तो मेरा मैं न रहा, अब चलने में हर्ज क्या है! आ गया। नीचे बहुत भीड़ थी, लाखों लोगों का मेला था। अपरिचित लोग थे, उसे कोई जानता न था। तीस साल पहले वह आदमी गया था। उसको लोग भूल भी चुके थे। जब वह भीड़ में चला, किसी का जूता उसके पैर पर पड़ गया। जूता पैर पर पड़ा, उसने उसकी गरदन पकड़ ली और कहा कि जानता नहीं मैं कौन हूं? वे तीस साल एकदम खो गए, जैसे एक सपना विदा हो गया। वे तीस साल—वह पहाड़, वह शांति, वह शून्यता, वह मैं का न होना, वह परमात्मा होना—सब विदा हो गया। एक सेकेंड में, वह था ही नहीं कभी, ऐसा विदा हो गया। गरदन पर हाथ कस गए और कहा कि जानता नहीं मैं कौन हूं?
तब अचानक उसे खयाल आया कि यह मैं क्या कह रहा हूं! मैं तो भूल गया था कि मैं हूं। यह वापस कैसे लौट आया? तब उसने लोगों से क्षमा मांगी, और उसने कहा कि अब मुझे जाने दो। लोगों ने कहा, कहां जा रहे हैं? उसने कहा, अब पहाड़ न जाऊंगा, अब मैदान की तरफ जा रहा हूं। उन्होंने कहा, लेकिन यह क्या हो गया? उसने कहा कि जो तीस साल पहाड़ के एकांत में मुझे पता न चला, वह एक आदमी के संपर्क में पता चल गया। अब मैं मैदान की तरफ जा रहा हूं वहीं रहूंगा; वहीं पहचानूंगा कि मैं है या नहीं है। सपना हो गया तीस साल; समझता था सब खो गया; सब वहीं के वहीं है, कहीं कुछ खोया नहीं है।
तो भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। लेकिन भ्रांतियों से काम नहीं चल सकता है।
अब हम ध्यान के लिए बैठें, क्योंकि कल से तो फर्क हो जाएगा। कल से सुबह सिर्फ ध्यान करेंगे और रात सिर्फ चर्चा करेंगे। लेकिन आज तो आज के हिसाब से। थोड़े— थोड़े फासले पर हो जाएं, लेकिन बहुत फासले पर न जाएं; क्योंकि मैंने सुबह अनुभव किया कि जो लोग बहुत दूर चले गए, वह जो यहां एक साइकिक एटमॉसफिअर होता है, उसके फायदे से वंचित रह गए। इसलिए बहुत दूर न जाएं। फासले पर हो जाएं, लेकिन बहुत दूर न जाएं, बीच में बहुत जगह न छोड़े। अन्यथा यहां जो एक वातावरण निर्मित होता है, आप उसके बाहर पड़ जाते हैं और उसका फायदा नहीं उठा पाते। तो बहुत दूर से पास आ जाएं। बस फासला इतना कर लें। जिनको लेटना हो वे अपनी जगह बना लें, लेट जाएं; जिनको बैठना हो वे बैठें; लेकिन बहुत दूर भी न जाएं। और बातचीत बिलकुल न करें।
बातचीत जरा भी न करें। बिना बातचीत के जो काम हो सके, उसमें बातचीत क्यों करें!
क्या बात है?
पत्थर मारा गया है।
पत्थर था वह? चलो कोई बात नहीं, सम्हालकर रखो, किसी ने प्रेम से फेंका होगा।
हां, जो लोग इधर पीछे कुछ लोग बात कर रहे हैं, वे बात न करें, या तो बैठते हों तो चुपचाप बैठ जाएं या फिर चले जाएं। कोई भी दर्शक की हैसियत से न बैठे। और दर्शक की हैसियत से ही बैठे तो कम से कम चुप बैठे। किसी को किसी के द्वारा बाधा न हो। और कोई मित्र, मालूम होता है, पत्थर फेंकते हैं। दों—तीन पत्थर फेंके हैं। तो पत्थर फेंकने हों तो मेरी तरफ फेंकने चाहिए, बाकी किसी की तरफ नहीं फेंकने चाहिए।