top of page

Recent Posts

Archive

Tags

शक्तिपात का क्या अर्थ है?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Nov 4, 2023
  • 20 min read

Updated: Nov 5, 2023


शक्तिपात का अर्थ ;-

06 FACTS;-

1-शक्तिपात का अर्थ है ...परमात्मा की शक्ति आप में उतर गई ।शक्तिपात और ग्रेस दोनों में थोड़ा फर्क है और दोनों में थोड़ी समानता भी है।वास्तव में, दोनों के क्षेत्र एक दूसरे पर प्रवेश कर जाते हैं। शक्तिपात परमात्मा की ही शक्ति है लेकिन शक्तिपात में कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है। अंततः तो वह भी परमात्मा है। लेकिन प्रारंभिक रूप से कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है।जैसे आकाश में बिजली कौंधी; घर में भी बिजली जल रही है; वे दोनों एक ही चीज हैं। लेकिन घर में जो बिजली जल रही है, वह एक माध्यम से प्रवेश करती है ...नियोजित है।वर्षा में जो बिजली कौंध रही है वह भी परमात्मा की है। लेकिन इसमें बीच में व्यक्ति नहीं है। अगर दुनिया में व्यक्ति न हो तो आकाश की बिजली तो कौंधती रहेगी, लेकिन घर की बिजली बुझ जाएगी।शक्तिपात घर की बिजली जैसा है, जिसमें व्यक्ति माध्यम है; और प्रसाद/ग्रेस आकाश की बिजली जैसा है, जिसमें व्यक्ति माध्यम नहीं है।तो जिस व्यक्ति को ऐसी शक्ति उपलब्ध हुई है, जो परमात्मा से किसी अर्थों में संयुक्त हुआ है, वह तुम्हारे लिए माध्यम बन सकता है; क्योंकि वह ज्यादा अच्छा वाहन है। उस शक्ति के लिए वह व्यक्ति परिचित है, उसके रास्ते परिचित हैं। वह शक्ति उस व्यक्ति से बहुत शीघ्रता से प्रवेश कर सकती है। तुम बिलकुल अपरिचित हो।

2-तो घर की बिजली में बैठकर तुम पढ़ सकते हो, आकाश की बिजली के नीचे बैठकर पढ़ नहीं सकते। घर की बिजली एक नियंत्रण में है, आकाश की बिजली किसी नियंत्रण में नहीं है।तो कभी अगर किसी व्यक्ति के ऊपर आकस्मिक प्रसाद की स्थिति बन जाए, अनायास ऐसे संयोग इकट्ठे हो जाएं कि उसके ऊपर शक्तिपात हो जाए, तो बहुत संभावना है वह व्यक्ति पागल हो जाए, विक्षिप्त हो जाए ।क्योंकि वह शक्ति इतनी बड़ी हो और उसकी पात्रता से सब अस्तव्यस्त हो जाए।अथार्त ग्रेस भी दुर्घटना बन सकती है। अनजान, अपरिचित सुखद अनुभव भी दुखद हो जाते हैं। जो व्यक्ति वर्षों तक अंधेरे में रहा हो, उसके सामने अचानक सूरज आ जाए, तो उसे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ेगा।अंधेरे में तो वह थोड़ा देखने का आदी हो गया था; रोशनी में तो उसकी आंख ही बंद हो जाएगी।तो कभी ऐसा हो जाता है ...भीतर ऐसी स्थितियां बन सकती हैं कि अनायास तुम पर विराट शक्ति का आगमन हो जाए। लेकिन उससे तुम्हें नुकसान भी पहुंच सकते हैं, क्योंकि तुम तो तैयार नहीं हो।

3-जो शक्तिपात की स्थिति है, उसमें दुर्घटना की संभावना बहुत कम है क्योंकि कोई व्यक्ति माध्यम है। और संकीर्ण माध्यम से एक तो शक्ति का मार्ग बहुत संकरा हो जाता है, फिर वह व्यक्ति नियंत्रण भी कर सकता है, वह तुम तक उतना ही पहुंचने दे सकता है, जितना तुम झेल सको। लेकिन ध्यान रहे कि फिर भी वह व्यक्ति स्वयं शक्ति का मालिक नहीं है, सिर्फ वाहक है। इसलिए कोई कहता हो मैंने शक्तिपात किया, तो वह गलत कहता है।वह ऐसे ही होगा, जैसे बल्व कहने लगे कि मैं प्रकाश दे रहा हूं। हालांकि बल्व इतने दिन से रोज—रोज प्रकाश देता है, यह भ्रांति हो सकती है कि प्रकाश मैं दे रहा हूं। बल्व से प्रकाश प्रकट तो हो रहा है, लेकिन बल्व से प्रकाश पैदा नहीं हो रहा; वह उदगम का स्रोत नहीं है, अभिव्यक्ति का माध्यम है। तो जो कोई दावा करता हो कि मैं शक्तिपात करता हूं वह वह बल्व की भ्रांति में पड़ गया है।शक्तिपात तो सदा परमात्मा का ही है। लेकिन कोई व्यक्ति माध्यम बने तो उसको शक्तिपात कहेंगे, कोई व्यक्ति माध्यम न हो, तो यह आकस्मिक हो सकता है ।

4-लेकिन किसी व्यक्ति ने बड़ी अनंत प्रतीक्षा की हो, और किसी व्यक्ति ने अनंत धैर्य से ध्यान किया हो, तो भी प्रसाद के रूप में शक्तिपात हो जाएगा। तब कोई माध्यम भी नहीं होगा, लेकिन तब दुर्घटना नहीं होगी। क्योंकि उसकी अनंत प्रतीक्षा, उसका अनंत धैर्य, उसकी अनंत लगन, उसका अनंत संकल्प, उसमें अनंतता को झेलने की सामर्थ्य पैदा करता है। तो दुर्घटना नहीं होगी।इसलिए दोनों तरह से घटना घटती है। लेकिन तब उसे शक्तिपात मालूम नहीं पड़ेगा, उसको प्रसाद ही मालूम पड़ेगा; क्योंकि कोई माध्यम नहीं है।जहां तक हो सके कोई व्यक्ति बीच में माध्यम न बने। लेकिन कई स्थितियों में ,कई लोगों के लिए असंभव है। तो बजाय इसके कि वे अनंत काल तक भटकते रहें, किसी व्यक्ति को माध्यम भी बनाया जा सकता है। लेकिन वही व्यक्ति माध्यम बन सकता है जो व्यक्ति न रह गया हो। तब खतरा बहुत कम हो जाता है। वही व्यक्ति माध्यम बन सकता है जिसमें अब कोई अस्मिता, कोई ईगो शेष न रह गई हो।तब खतरा न के बराबर हो जाता है क्योकि ऐसा व्यक्ति माध्यम भी बन जाएगा और फिर भी गुरु नहीं बनेगा; क्योंकि गुरु बननेवाला तो अब कोई नहीं रहा।

5-इस फर्क को ठीक से समझना है । जब कोई व्यक्ति गुरु बनता है तो तुम्हारे संबंध में बनता है, और जब माध्यम बनता है तब परमात्मा के संबंध में बनता है; फिर तुमसे कुछ लेना -देना नहीं रह जाता। और परमात्मा के संबंध में कोई भी स्थिति बने, वहां अहंकार नहीं टिक सकता। लेकिन तुम्हारे संबंध में कोई भी स्थिति बने, तो अहंकार टिक जाएगा। तो जिसको ठीक गुरु कहें वह वही है जो गुरु नहीं बनता है। सदगुरु की परिभाषा अगर करनी हो तो यही है सदगुरु की परिभाषा कि जो गुरु नहीं बनता है। इसका मतलब हुआ कि समस्त गुरु बननेवाले लोग गुरु नहीं होने की योग्यता रखते हैं। गुरु बनने के दावे से बड़ी अयोग्यता और कोई नहीं है क्योंकि तुम्हारे संबंध में वह एक अहंकार की स्थिति ले रहा है और खतरनाक हो जाएगा।अगर अनायास कोई व्यक्ति शून्य हो गया है, अहंकार विलीन हो गया है, और वाहन बन गया है तो उसके निकट भी शक्तिपात की घटना घट सकती है। लेकिन तब उसमें दुर्घटना की कोई संभावना नहीं रहती। जब इतनी शर्तें पूरी हो जाएं कि व्यक्ति न हो, अहंकार न हो, तो फिर शक्तिपात ग्रेस के बहुत करीब पहुंच गया। और अगर उस व्यक्ति को कोई पता ही नहीं हो, तब फिर वह बहुत ही करीब पहुंच गया।तो अब यह व्यक्ति ,जो तुम्हें व्यक्ति की तरह दिखाई पड़ रहा है, अब यह परमात्मा के साथ एकाकार ही हो गया। अब वह बिलकुल साधन मात्र है। और ऐसी स्थिति में अगर यह व्यक्ति मैं की भाषा भी बोले, तो उसका मतलब होता है परमात्मा। लेकिन हमें बड़ी कठिनाई होती है.. ..इसलिए श्री कृष्ण अर्जुन से कह सकते हैं -मामेक शरणं ब्रज। मेरी शरण में आ जा तू।लेकिन अब यह कोई अहंकार की भाषा नहीं है।

6-लेकिन हम तो अहंकार की भाषा ही समझते हैं। इसलिए हम समझेंगे कि श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं मेरी शरण में आ जा। तब भूल हो जाएगी। इसलिए हमारे प्रत्येक शब्द को देखने के दो मार्ग हैं : एक हमारी तरफ से, जहां से सदा भ्रांति होगी; और एक परमात्मा की तरफ से, जहां कोई भ्रांति का सवाल नहीं है।तो यहां ऐसी स्थिति में शक्तिपात और प्रसाद में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। और जितना फर्क हो उतना ही शक्तिपात से बचना चाहिए और जिस दिन शक्तिपात भी प्रसाद के करीब आ जाए ..इतने करीब आ जाए कि फर्क न कर सको कि दोनों में क्या फर्क है ..उस दिन समझ लेना कि बात ठीक हो गई।घर की बिजली जिस दिन आकाश की बिजली की तरह स्वच्छंद, सहज और विराट शक्ति का हिस्सा हो जाए, और जिस दिन घर का बल्व दावा करना छोड़ दे कि मैं हूं शक्ति का स्रोत, उस दिन समझना कि अब शक्तिपात भी हो तो वह प्रसाद ही है।

आपके भीतर सोई हुई ऊर्जा जब विराट की ऊर्जा से मिलती है तब क्या एक्सप्लोजन/ विस्फोट होता है?-

10 FACTS;-

1-वास्तव में, विस्फोट सदा दो शक्तियों का मिलन है। एक्सप्लोजन जो है, वह एक शक्ति से कभी नहीं होता। माचिस है, और माचिस की काड़ी भी ..वह अनंत जन्मों तक एक इंच /आधा इंच के फासले पर रखी रहे, तो आग पैदा नहीं होगी। उस विस्फोट के लिए उन दोनों की रगड़ जरूरी है, तो आग पैदा होगी।जो विस्फोट है, वह दो शक्तियों के मिलने पर पैदा हुई संभावना है।तो व्यक्ति के भीतर जो सोई हुई शक्ति है , वह उठे और उस बिंदु तक आ जाए। सहस्रार वह बिंदु है जिसके पहले मिलन बहुत असंभव है। जैसे कि तुम्हारे दरवाजे बंद हैं और सूरज की रोशनी तुम्हारे दरवाजे पर आकर रुक गई है। तुम अपने घर से भीतर से बाहर की तरफ आओ, दरवाजे तक आकर भी खड़े हो जाओ, तो भी तुम्हारा सूरज की रोशनी से मिलन न होगा।दरवाजा खुले और मिलन हो जाएगा।हमारा अंतिम चरम बिंदु है कुंडलिनी का, सहस्रार। वह हमारा द्वार है, जहां ग्रेस सदा ही खड़ी हुई है, जिस द्वार पर परमात्मा निरंतर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन तुम ही अपने द्वार पर नहीं हो, तुम ही अपने द्वार से बहुत भीतर कहीं और हो। तो तुम्हें अपने द्वार तक आना है, वहां मिलन हो जाएगा और वह मिलन विस्फोट होगा।

2-उसे विस्फोट इसलिए कह रहे हैं कि उस मिलन में तुम तत्काल विलीन हो जाओगे। माचिस तो बचेगी, काड़ी नहीं बचेगी। काड़ी तो जलकर राख हो जाएगी, निराकार में विलीन हो जाएगी। तो उस घटना में द्वार तक आने के पहले, तुम जैसे थे, वैसे तुम नहीं बचोगे। तुम्हारा सब खो जाएगा। जो द्वार पर खड़ा था वही बचेगा, तुम उसी के हिस्से हो जाओगे।यह घटना तुमसे अकेले नहीं हो सकती। इस विस्फोट के लिए उस विराट शक्ति के पास तुम्हारा जाना जरूरी है। उस शक्ति के पास जाने के लिए, तुम्हारी शक्ति जहां सोई है वहां से उसे उठकर वहां तक जाना पड़ेगा जहां वह शक्ति तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तो कुंडलिनी की जो यात्रा है, वह तुम्हारे सोए हुए केंद्र से उस स्थान , उस सीमांत तक है, जहां तुम समाप्त होते हो।

3-जो व्यक्ति शक्तिपात में वाहन का काम करे, तो वह व्यक्ति तो तुम्हें बांधना न चाहेगा; क्योंकि अगर वह बांधना चाहता हो तो वह पात्र ही नहीं है कि वह वाहन बन सके। लेकिन तुम बंध सकते हो कि मैं अब आपको न छोडूंगा, आपने मेरे ऊपर इतना उपकार किया। उस समय बहुत सजग होने की जरूरत है कि साधक, जिस पर शक्तिपात हो, वह अपने को बंधन से बचा सके।बंधन आध्यात्मिक यात्रा में भारी पड़ जाते हैं। अनुग्रह बंधन नहीं है, बल्कि अनुग्रह का भाव परम स्वतंत्रता का भाव है। लेकिन हम कोशिश करते हैं बंधने की क्योंकि हमारे भीतर भय है। और हम सोचते हैं अकेले नहीं खड़े रह पाएंगे .. किसी से बंध जाएं।उदाहरण के लिए अंधेरी गली में से व्यक्ति निकलता है तो खुद ही जोर—जोर से गाना गाने लगता है; क्योंकि अपनी ही आवाज जोर से सुनकर भी भय कम होता हैऔर अगर डूबते को तिनका भी मिल जाए, तो वह आंख बंद करके उसको भी पकड़ लेता है। हालांकि इस तिनके से डूबने से नहीं बचता, सिर्फ डूबनेवाले के साथ तिनका भी डूब जाता है। लेकिन भय में हमारा चित्त पकड़ लेना चाहता है।पकड़कर हम सुरक्षित होना चाहते हैं और साधक को सुरक्षा से बचना चाहिए।

4-साधक के लिए सुरक्षा सबसे बड़ा मोहजाल है और असुरक्षा वरदान है; क्योंकि जितनी असुरक्षा है, उतना ही साधक की आत्मा को फैलने, बलवान होने, अभय होने का मौका है; जितनी सुरक्षा है, उतना साधक के निर्बल होने की व्यवस्था है; वह उतना निर्बल हो जाएगा।सहारा लेना एक बात है, सहारा लिए ही चले जाना बिलकुल दूसरी बात है। सहारा दिया ही इसलिए गया है कि तुम बेसहारे हो सको; अब तुम्हें सहारे की जरूरत न रहे।एक माँ अपने बेटे को चलना सिखाती है तो बेटे का हाथ पकड़ती है; बेटा नहीं पकड़ता।लेकिन थोड़े दिन बाद जब बेटा थोड़ा चलना सीख जाता है, तो माँ तो हाथ छोड़ देती है, लेकिन बेटा पकड़ लेता है।वह चलना सीख गया है, लेकिन फिर भी हाथ नहीं छोड़ रहा है।अगर माँ हाथ पकड़े हो तो समझना कि अभी चलना सिखाया जा रहा है, अभी छोड़ने में खतरा है। और माँ तो चाहेगी ही यह कि कितनी जल्दी हाथ छूट जाए; क्योंकि इसीलिए तो सिखा रही है। और अगर कोई माँ इस मोह से भर जाए कि उसे मजा आने लगे कि बेटा उसका हाथ पकड़े ही रहे, तो वह माँ दुश्मन हो गयी। बहुत गुरु हो जाते हैं लेकिन वे चूक गए । जिस बात के लिए उन्होंने सहारा दिया था, वही खत्म हो गई। उन्होंने Cripple पैदा कर दिए जो अब उनकी बैसाखी लेकर चलेंगे। हालांकि उनको अहंकार की तृप्ति मिलती है। लेकिन जिस गुरु को अहंकार की तृप्ति मिल रही हो, वह तो गुरु ही नहीं है।

5-लेकिन बेटा हाथ पकड़े रह सकता है कि कहीं गिर न जाऊं!तो गुरु का काम है कि उसके हाथ को झिड्के और कहे कि अब तुम चलो। और कोई फिकर नहीं, दों—चार बार गिरो तो ठीक है, उठ आना। आखिर उठने के लिए गिरना जरूरी है। और, गिरने का डर मिटाने के लिए भी कुछ बार गिरना जरूरी है कि अब नहीं गिरेंगे। हमारे मन में यह हो सकता है कि किसी का सहारा पकड़ लें, तो फिर बाइंडिंग पैदा हो जाती है। वह पैदा नहीं करना है। किसी साधक को ध्यान लेकर चलना है कि वह कोई सुरक्षा की तलाश में नहीं है; वह सत्य की खोज में है, सुरक्षा की खोज में नहीं है। और अगर सत्य की खोज करनी है तो सुरक्षा का खयाल छोड़ना पड़ेगा। नहीं तो असत्य बहुत बार बड़ी सुरक्षा देता है और जल्दी से दे देता है। तो फिर सुरक्षा का खोजी असत्य को पकड़ लेता है।Convenience/सुविधा का खोजी सत्य तक नहीं पहुंचता, क्योंकि लंबी यात्रा है। फिर वह यहीं असत्य को गढ़ लेता है और यहीं बैठे हुए पा लेता है और बात समाप्त हो जाती है।

6-इसलिए किसी भी तरह का बंधन…… और गुरु का बंधन तो बहुत ही खतरनाक है, क्योंकि वह आध्यात्मिक बंधन है। और आध्यात्मिक बंधन शब्द ही Contradictory है क्योंकि आध्यात्मिक स्वतंत्रता तो अर्थ रखती है, आध्यात्मिक गुलामी का कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन इस दुनिया में आध्यात्मिक रूप से जितने लोग गुलाम हैं, उतने लोग और किसी रूप से गुलाम नहीं हैं। उसका कारण है; क्योंकि जिस चौथे शरीर के विकास से आध्यात्मिक स्वतंत्रता की संभावना पैदा होगी, वह चौथा शरीर नहीं है। उसके कारण हैं—वें तीसरे शरीर तक विकसित हैं। तीसरा शरीर है केवल बुद्धि और तर्क का विचार करते करते यह थकती है और विश्राम करती है। और कोई भी चीज जब थककर विश्राम करती है तो उलटी हो जाती है। इसलिए आश्रमों में आपको हाईकोर्ट के जजेज़ वहां निश्चित मिलेंगे। वे थक गए हैं, वे बुद्धि से परेशान हो गए हैं, वे इससे छुटकारा चाहते हैं। वे कोई भी अबुद्धिपूर्ण, इररेशनल, किसी भी चीज में विश्वास करके आंख बंद करके बैठ जाते हैं। वे कहते हैं सोच लिया बहुत, विवाद कर लिया बहुत, तर्क कर लिया बहुत, कुछ नहीं मिला; अब इसको हम छोड़ते हैं। तो वे किसी को भी पकड़ लेते हैं। और उनको देखकर, पीछे जो बुद्धिहीन वर्ग है, वह कहता है जब इतने बुद्धिमान लोग हैं, तो फिर हमको भी पकड़ लेना चाहिए।

7- इसलिए चौथे शरीर का किसी व्यक्तित्व में थोड़ा सा भी विकास हुआ हो, तो बडे से बड़ा बुद्धिमान उसके चरणों को पकड़कर बैठ जाएगा; क्योंकि उसके पास कुछ है, जिसके मामले में यह बिलकुल निर्धन है। तो चूंकि चौथा शरीर विकसित नहीं है, इसलिए बाइंडिंग पैदा होती है। ऐसा मन होता है कि किसी को पकड़ लो; जिसका विकसित है, उसको पकड़ लो। लेकिन उसको पकड़ने से विकसित नहीं हो जाएगा; उसको समझने से विकसित हो सकता है। और पकड़ना समझने से बचने का उपाय है—कि समझने की क्या जरूरत है? हम आपके ही चरण पकड़े रहते हैं! तो जब आप वैतरणी पार होओगे, हम भी हो जाएंगे।समझने में कष्ट है। समझने में अपने को बदलना पड़ेगा। समझना एक प्रयास, एक साधना है ,एक क्रांति है। समझने में एक रूपांतरण होगा, सब पुराना बदलेगा ; नया करना पड़ेगा।लेकिन हम इतनी झंझट नहीं करते ;जो जानता है, हम उसको पकड़ लेते हैं; हम उसके पीछे चले जाते हैं । लेकिन इस जगत में सत्य तक कोई किसी के पीछे नहीं जा सकता, वहां अकेले ही पहुंचना पड़ता है। वह रास्ता ही निर्जन है ,अकेले का है। इसलिए किसी तरह का बंधन वहां बाधा है।

8- अगर भयभीत व्यक्ति किसी से बंधना चाहता है , तो कुछ भयभीत व्यक्ति बांधना भी चाहते हैं ; उनको उससे भी अभय हो जाता है। जिस व्यक्ति को लगता है, मेरे साथ हजार अनुयायी हैं, तो उसको लगता है कि मैं ज्ञानी हो गया, नहीं तो हजार अनुयायी कैसे होते! गुरु बनना कई बार तो सिर्फ इसी मानसिक हीनता के कारण होता है कि मेरे दस हजार शिष्य हैं ..बीस हजार! तो गुरु लगे हैं शिष्य बढ़ाने में क्योंकि जितना यह विस्तार फैलता है, वे आश्वस्त होते हैं कि मैं जानता हूं नहीं तो हजार व्यक्ति मुझे क्यों मानते!अगर ये हजार शिष्य खो जाएं, तो उनको लगेगा कि इसका मतलब मैं नहीं जानता।बड़े मानसिक खेल चलते हैं।दोनों तरफ से उन मानसिक खेलों से सावधान होने की जरूरत है क्योंकि शिष्य भी बांध सकता है, और जो शिष्य आज किसी से बंधेगा , वह कल किसी को बांधेगा, क्योंकि यह सब श्रृंखलाबद्ध काम है। वह आज शिष्य बनेगा तो कल गुरु भी बनेगा। क्योंकि शिष्य कब तक बना रहेगा! अभी एक को पकड़ेगा, तो कल फिर किसी को खुद को भी पकड़ाएगा।

9-मगर उसका बहुत गहरे में कारण वह चौथे शरीर का विकसित न होना है। उसको विकसित करने की चिंता हो तो फिर बंधन नहीं होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम अमानवीय हो जाओगे, कि तुम्हारा मनुष्यों से कोई संबंध न रह जाएगा; बल्कि इसका मतलब ही उलटा है। असल में, जहां बंधन है, वहां संबंध होता ही नहीं क्योंकि गुलामी में कैसा संबंध? प्रेम मुक्त करता है और जहां बंधन है, वहां सब कष्ट हो जाता है। ऊपर से चेहरे और रह जाते हैं, भीतर सब गंदगी हो जाती है। वह चाहे गुरु -शिष्य का हो, चाहे पिता -बेटे का हो, चाहे पति -पत्नी का हो, और चाहे दो मित्रों का हो।असल में, कोई बंधन नहीं है, तो संबंध के लिए सरलता मिल जाती है। इसलिए तुम एक अजनबी से जितने भले ढंग से पेश आते हो, उतना परिचित से नहीं आते। वहां कोई भी तो बंधन नहीं है, तो सिर्फ संबंध ही हो सकता है। लेकिन परिचित के साथ तुम उतने भले ढंग से कभी पेश नहीं आते, क्योंकि वहां तो बंधन है।संबंध सब मधुर हैं लेकिन बंधन मधुर नहीं हो सकता। और संबंध का मतलब ही है कि वह मुक्त करता है।

10-झेन फकीरों की एक बात बड़ी कीमती है कि अगर किसी भी झेन फकीर के पास कोई सीखने आएगा, तो जब वह सीख चुका होगा, तब वह उससे कहेगा कि अब मेरे विरोधी के पास चले जाओ, अब कुछ दिन वहां सीखो। क्योंकि एक पहलू तुमने जाना, अब तुम दूसरे पहलू को समझो। और फिर साधक अलग -अलग आश्रमों में वर्षों घूमता रहेगा। उनके पास जाकर बैठेगा जो उसके गुरु के विरोधी हैं; उनके चरणों में बैठेगा और उनसे भी सीखेगा। क्योंकि उसका गुरु कहेगा कि हो सकता है वह ठीक हो; तुम उधर भी जाकर सारी बात समझ लो। और कौन ठीक है, इसका क्या पता? हो सकता है, हम दोनों से मिलकर जो बनता हो, वही ठीक हो; या यह भी हो सकता है कि हम दोनों को काटकर जो बचता हो, वही ठीक हो।लेकिन जो गुरु इस भांति भेज देगा, अगर कल तुम्हें उसकी सब बातें भी गलत मालूम पड़े, तब भी वह व्यक्ति गलत मालूम नहीं पड़ेगा।क्योंकि उस आदमी ने ही तो भेजा था तुम्हें। अभी हालतें ऐसी हैं कि सब रोक रहे हैं। एक गुरु रोकता है, किसी दूसरे की बात मत सुन लेना! शास्त्रों में लिखता है कि दूसरे के मंदिर में मत चले जाना! चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना, मगर दूसरे के मंदिर में शरण भी मत लेना; कहीं ऐसा न हो कि वहां कोई चीज कान में पड़ जाए! तो भला ऐसे व्यक्ति की सब बातें भी सही हों, तब भी यह व्यक्ति तो गलत ही है। और इसके प्रति अनुग्रह कभी नहीं हो सकता, क्योंकि इसने तुम्हें गुलाम बनाया, कुचल डाला और मार डाला है। यह अगर खयाल में आ जाए तो बंधन का कोई सवाल नहीं है।

क्या केवल शक्तिपात के माध्यम से कुंडलिनी सहस्रार तक विकसित हो सकती है?

08 FACTS;-

1-वास्तव में, इस जगत में, इस जीवन में कोई भी घटना इतनी सरल नहीं है जिसको तुम एक ही तरफ से देखो और समझ लो।

जहां शक्तिपात से कुछ घटना घटती है, वहां शक्तिपात से ही घटती है, इस भ्रांति में नहीं पडऩे की जरूरत है। वहां वह दूसरा व्यक्ति भी किसी बहुत आंतरिक तैयारी के एक छोर पर पहुंच गया है, जहां जरा सी चोट सहयोगी हो जाती है।यह चोट नहीं लगती तो शायद थोड़ी देर लग सकती थी।उदाहरण के लिए जो घटना रामकृष्ण के पास अगर विवेकानंद को घटी, उसमें अगर अकेले रामकृष्ण ही जिम्मेवार हैं, तो फिर और किसी को भी घट जाती, बहुत लोग उनके करीब गए। सैकड़ों उनके शिष्य हैं। तो और किसी को नहीं घट गई है और अगर विवेकानंद ही अकेले जिम्मेवार थे , तो वे रामकृष्ण के पहले और बहुत लोगों के पास गए थे, उनके पास वह नहीं घटी थी। तो विवेकानंद की अपनी एक तैयारी थी, रामकृष्ण की अपनी एक सामथ्र्य थी, यह तैयारी और यह सामर्थ्र्य किसी बिन्दु पर अगर मिल जाएं, तो टाइम गैप कम हो सकता है और समझने की बात यह है कि टाइम बड़ी ही बड़ी मायिक घटना है, इसलिए उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है।स्वप्न का जो समय है, उसकी यात्रा बहुत अलग है।विवेकानंद को शक्तिपात से अथार्त रामकृष्‍ण की सहायता से एक झलक मिली। जो झलक शायद उनको अपने ही पैरों पर कभी मिलती, तो वक्त लग जाता; लेकिन वह झलक दूसरे से मिली थी।

2-तो विवेकानंद को उन्होंने झलक तो दिखा दी, लेकिन तत्काल विवेकानंद से कहा कि अब चाबी मैं अपने हाथ,रखे लेता हूं; अब मरने के तीन दिन पहले लौटा दूंगा। अब विवेकानंद बहुत चिल्लाने लगे कि आप यह क्या कर रहे हैं! अब जो मुझे मिला है, छीनिए मत! रामकृष्ण ने कहा, लेकिन अभी तुझे और दूसरा काम करना है; अगर यह तू इसमें डूबा, तो गया। तो अभी मैं तेरी चाबी रखे लेता हूं इतनी तू कृपा कर। और मरने के तीन दिन पहले तुझे लौटा दूंगा। और अब मरने के तीन दिन पहले तक तुझे समाधि उपलब्ध न हो, क्योंकि तुझे कुछ और काम करना है जो समाधि के पहले ही तू कर पाएगा।रामकृष्ण की कुछ कठिनाइयां थीं जिनके लिए उन्हें विवेकानंद का उपयोग करना पड़ा। रामकृष्ण अशिक्षित थे, परन्तु उनको गहरा अनुभव हुआ था, लेकिन अभिव्यक्ति उनके पास नहीं थी।तो रामकृष्ण को एक कठिनाई थी। गौतम बुद्ध को ऐसी कठिनाई नहीं थी। गौतम बुद्ध के व्यक्तित्व में रामकृष्ण और विवेकानंद एक साथ मौजूद थे।तो गौतम बुद्ध जो जानते थे, वह कह भी सकते थे; रामकृष्ण जो जानते थे, वह कह नहीं सकते थे। कहने के लिए उन्हें एक व्यक्ति चाहिए था जो उनका मुंह बन जाए।और जरूरी था कि वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी व्यक्ति को साधन बनाएं, वाहन बनाएं। नहीं तो रामकृष्ण का आपको पता ही न चलता। और रामकृष्ण को जो मिला था, यह उनकी करुणा का हिस्सा ही है कि वह किसी व्यक्ति के द्वारा आप तक पहुंचा दें।

3-और इसका भी कारण यही था कि रामकृष्ण को पता नहीं था कि समाधि के बाद भी लोगों ने यह काम किया है। लेकिन रामकृष्ण को पता हो भी नहीं सकता था, क्योंकि वे समाधि के बाद कुछ भी नहीं कर पाए थे। स्वभावत: हम अपनी ही अनुभूति से चलते हैं। रामकृष्ण की अनुभूति के बाद रामकृष्ण कुछ भी नहीं कह पाते थे, बोल नहीं पाते थे। बोलना तो बहुत मुश्किल था, वे तो इतने.. .कोई कह देता राम और वे बेहोश हो जाते।उनके लिए तो राम शब्द भी सुनाई पड़ जाए तो मुश्किल मामला था—उनको याद आ गई उसी जगत की। किसी ने कह दिया अल्लाह, तो वे गए। मस्जिद दिखाई पड़ गई, तो वे वहीं खड़े होकर बेहोश हो गए। कहीं भजन -कीर्तन हो रहा है, वे चले जा रहे हैं अपने रास्ते से ..वे गए, वहीं सड़क पर गिर गए। उनकी कठिनाई यह हो गई थी : कहीं से भी जरा सी स्मृति आ जाए उनको उस रस की, कि वे गए। तो अब उनको तो बहुत कठिनाई थी। और उनका अनुभव उनके लिहाज से ठीक ही था कि विवेकानंद को अगर यह अनुभूति हो गई तो फिर क्या होगा! तो उन्होंने विवेकानंद से कहा कि तुझे तो मैं कुछ, एक बड़ा काम है, वह तू कर ले, उसके बाद...

4-इसलिए विवेकानंद की पूरी जिंदगी समाधि रहित बीती, और इसलिए बहुत तकलीफ में बीती।लेकिन तकलीफ सपने की है; एक व्यक्ति सोया है और बड़ी तकलीफ का सपना देख रहा है। मरने के तीन दिन पहले चाबी वापस मिल गई, लेकिन मरने तक बहुत पीड़ा थी। मरने के पांच -सात दिन पहले तक भी जो पत्र उन्होंने लिखे, वे बहुत दुख के है कि मेरा क्या होगा, मैं तड़प रहा हूं। और तड़प और भी बढ़ गई, क्योंकि जो देख लिया है एक दफा, उसकी दुबारा झलक नहीं मिली।अभी आपको उतनी तड़प नहीं है , क्योंकि कुछ पता ही नहीं है कि क्या हो सकता है।उसकी एक झलक मिल जाए.....। तो विवेकानंद से एक काम लिया गया है जो रामकृष्ण के लिए जरूरी था। जो उनके व्यक्तित्व में नहीं था वह दूसरे व्यक्ति से लेना पड़ा। ऐसा बहुत बार हो जाता है, कुछ बात जो एक व्यक्ति से संभव नहीं हो पाए , उसके लिए दो -चार व्यक्ति भी खोजने पड़ते हैं। इसलिए जहां तक बने शक्तिपात से बचना। और शक्तिपात भी वही उपयोगी है जो प्रसाद जैसा हो ..जिसकी कोई कंडीशनिंग न हो।

5- विवेकानंद निरंतर कहते थे कि जो भी मैं कह रहा हूं वह मेरा नहीं है। और अमेरिका में जब उन्हें बहुत सम्मान मिला, तो उन्होंने कहा कि मुझे बड़ा दुख हो रहा है और मुझे बड़ी मुश्किल पड़ती है, क्योंकि जो सम्मान मुझे दिया जा रहा है वह उस एक और दूसरे ही आदमी को मिलना चाहिए था जिसका आपको पता ही नहीं। और जब उन्हें कोई महापुरुष कहता, तो वे कहते कि जिस महापुरुष के पास मैं बैठकर आया हूं मैं उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं।लेकिन रामकृष्ण अगर अमेरिका में जाते, तो उनकी कोई नहीं सुनता; वे बिलकुल पागल सिद्ध होते। वे पागल थे।अभी हम फर्क नहीं कर पाए कि एक पागलपन सांसारिक पागलपन है, और एक और पागलपन डिवाइन भी है। तो अमेरिका में दोनों पागल एक साथ एक से पागलखाने में बंद कर दिए जाते हैं; दोनों की एक चिकित्सा हो जाती है। रामकृष्ण की चिकित्सा हो जाती, विवेकानंद को सम्मान मिला। क्योंकि विवेकानंद जो कह रहे हैं, वह कहने की बात है, वे खुद कोई दीवाने नहीं हैं; वे एक संदेशवाहक हैं। वे अच्छी तरह पढ़कर सुना सकते हैं।

वे कहने में कुशल हैं, लेकिन फिर भी वह विवेकानंद का अपना नहीं है।इसलिए विवेकानंद को खुद भी पता है कि वे जो कह रहे हैं, वह उनका अपना अनुभव नहीं है।

6-इसलिए ज्ञानी थोड़ा बहुत डरता है। उसके मन में पचास बातें होती हैं कि यह कहूं ऐसा कहूं ..वैसा कहूं गलत न हो जाए। जिसको कुछ पता नहीं है वह बेधड़क जो उसे कहना है, कह देता है; क्योंकि उसे कोई कठिनाई नहीं होती।गौतम बुद्ध जैसे ज्ञानी को तो बड़ी कठिनाई थी। तो वे तो बहुत सी बातों का जवाब ही नहीं देते थे। वे कहते थे कि मैं जवाब ही नहीं दूंगा, क्योंकि कहने में बड़ी कठिनाई है। कुछ लोग तो कहते, इससे तो हमारे गांव में अच्छे आदमी हैं, वे ज्यादा ज्ञानी हैं क्योंकि वे जवाब तो देते हैं।गौतम बुद्ध से किसी ने पूछा कि आपके पास ये दस हजार भिक्षु हैं, चालीस साल से आप लोगों को समझा रहे हैं, इनमें से कितने लोग आपकी स्थिति को उपलब्ध हुए?गौतम बुद्ध ने कहा, बहुत लोग हैं इनमें। तो उसने कहा, आप जैसा कोई पता तो नहीं चलता हमें।गौतम बुद्ध ने कहा, फर्क इतना ही है कि मैं कह सकता हूं वे कह नहीं सकते, और कोई फर्क नहीं है। मैं भी न कहूं तो तुम मुझको भी नहीं पहचान सकोगे, बुद्ध ने कहा, क्योंकि तुम बोलना पहचानते हो, तुम जानना थोड़े ही पहचानते हो। यह संयोग की बात है कि मैं बोल भी सकता हूं जानता भी हूं।आप अपनी पूरी ताकत अकेला समझकर लगाएं कि मैं अकेला हूं। हां, सहायता बहुत तरह से मिल जाएगी, लेकिन वह बिलकुल दूसरी बात है।

7-तुम अपनी आत्मा को कभी अपने शरीर की ऊंचाई पर खड़े होकर भी देख लेते हो। शरीर की भी कोई अनुभुति अगर बहुत गहरी हो तो तुम्हें आत्मा की झलक मिलती है। जैसे अगर शरीर में, तुम परिपूर्ण स्वस्थ हो, और तुम्हारा शरीर स्वास्थ्य से लबालब भरा है, तो तुम शरीर की एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचते हो जहां से तुम्हें आत्मा की झलक दिखाई पड़ेगी। और तब तुम अनुभव कर पाओगे कि नहीं, मैं शरीर नहीं हूं मैं कुछ और भी हूं। लेकिन तुम आत्मा को जान नहीं लिए। लेकिन शरीर की एक ऊंचाई पर चढ़ गए।मन की भी ऊंचाइयां हैं।प्रेमियों को भी आत्मा की झलक मिली है।प्रेम के क्षण में भी तुम एक ऐसे शिखर पर चढ़ जाओगे जहां से तुम्हें आत्मा की झलक मिल सकेगी। लेकिन बहुत दूर की झलक, बिलकुल दूसरे छोर से।उदाहरण के लिए

जब एक चित्रकार चित्र को बनाता है तो वह उसी अनुभूति को पहुंच जाता है कि अगर भगवान ने कभी दुनिया बनाई होगी तो पहुंचा होगा ।लेकिन मन की उस ऊंचाई पर वह एक क्षण को क्रिएटर है;उसको आत्मा की एक झलक मिलती है । इसलिए कई बार वह उसे पर्याप्त समझ लेता है। वह भूल हो जाती है।

8-आत्मा की एक झलक कभी संगीत में मिल सकती है , काव्य में , प्रकृति के सौंदर्य में और बहुत जगह से मिल सकती है। लेकिन सब दूर की चोटियां समाधि में डूबकर मिलती है। बाहर से तो बहुत शिखर हैं जिन पर चढ़कर तुम झांक सकते हो।

तो यह जो विवेकानंद की अनुभुति है , यह भी मन के ही तल की है; क्योंकि दूसरा तुम्हारे मन तक आंदोलन कर सकता है।

पर वह सब संभावना मन की है , इसलिए वह प्राथमिक अनुभूति है..आत्मा की पूरी अनुभूति नहीं है।और प्राथमिक अनुभूति शरीर पर भी हो सकती है, मन पर भी हो सकती है।आत्मा की पूरी अनुभूति होगी तो वहां से लौटना नहीं है, वहां से कोई तुम्हारी चाबी नहीं रख सकता । और वहां से फिर कोई वश नहीं है। इसलिए वहां अगर किसी को काम लेना हो तो उसके पहले ही उसे रोक लेना पड़ता है। उसे उस तक नहीं जाने देना पड़ता है, नहीं तो फिर कठिनाई हो जाएगी।ऐसा भी हो सकता है कि रामकृष्ण जानते रहे हों कि विवेकानंद को साधना की लंबी यात्रा बिना सफलता के करनी है जिसमें उन्हें बहुत दुख भी होगा। इसलिए उन्होंने दुख दूर करने के लिए पहले ही विवेकानंद को समाधि की एक झलक बता दी।

क्या शक्तिपात के नाम पर आध्यात्मिक शोषण संभव है?

02 FACTS;-

1-वास्तव में , जहां भी दावा है, वहां शोषण होगा। और जहां कोई कहता है, मैं कुछ दूंगा, वह लेगा भी कुछ। क्योंकि देना जो है, वह बिना लेने के नहीं हो सकता। जहां कोई कहेगा, मैं कुछ देता हूं वह तुमसे वापस भी कुछ लेगा। कॉइन कोई भी हो—वह धन के रूप में ले, आदर के रूप में ले, श्रद्धा के रूप में ले ..किसी भी रूप में ले, वह लेगा जरूर।तो जहां दावा है कि मैं शक्तिपात करूंगा, मैं ज्ञान दिलवा दूंगा, मैं समाधि में पहुंचा दूंगा, मैं ऐसा करूंगा, मैं वैसा करूंगा ..वहां सावधान हो जाना। क्योंकि उस जगत का व्यक्ति दावेदार नहीं होता। उस जगत के व्यक्ति से अगर तुम कहोगे भी जाकर कि आपकी वजह से मुझ पर शक्तिपात हो गया, तो वह कहेगा, तुम किसी भूल में पड़ गए; मुझे तो पता ही नहीं, मेरी वजह से कैसे हो सकता है! उस परमात्मा की वजह से ही हुआ होगा। वहां तो तुम धन्यवाद देने जाओगे तो भी स्वीकृति नहीं होगी कि मेरी वजह से हुआ है। वह तो कहेगा, तुम्हारी अपनी ही वजह से हो गया होगा।

2-तो जहां तुम्हें दावा दिखे साधक को ..वहीं सम्हल जाना। जहां कोई कहे कि ऐसा मैं कर दूंगा, ऐसा हो जाएगा, वहां वह तुम्हारी मांग को जगा रहा है; वह तुम्हारी अपेक्षा को उकसा रहा है। और जब तुम वासनाग्रस्त हो जाओगे, कहोगे कि दो ..तब वह तुमसे मांगना शुरू कर देगा। इसलिए जहां कोई गुरु बनने को बैठा हो, उस रास्ते से मत निकलना; क्योंकि वहां उलझ जाने का डर है। इसलिए साधक बस वह दावे से बचे तो सबसे बच जाएगा। तुम्हें जो तैयारी करनी है, वह तुम्हारे भीतर तुम्हें करनी है। और जिस दिन तुम तैयार होओगे, उस दिन वह घटना घट जाएगी; उस दिन किसी भी माध्यम से घट जाएगी। माध्यम गौण है।इसलिए अपनी पात्रता , अपनी योग्यता खोजनी है, अपने को उस योग्य बनाना है कि मैं किसी दिन प्रसाद को ग्रहण करने योग्य बन सकूं। फिर तुम्हें चिंता नहीं लेनी है, क्योकि वह तुम्हारी चिंता नहीं है।इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं तू कर्म कर और फल परमात्मा पर छोड़ दे; उसकी तुझे फिकर नहीं करनी है।तूने उसकी फिकर की तो कर्म में बाधा पड़ती है।जिस दिन हमारी क्षमता पूरी होगी ..ऐसे ही, जैसे जिस दिन बीज की क्षमता फूटने की पूरी होती है, उस दिन सब तत्काल उपलब्ध हो जाता है।


...SHIVOHAM...


Recent Posts

See All
Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page