क्या है गायत्री महामंत्र का तत्त्वज्ञान ?PART-01
गायत्री मंत्र का तत्त्वज्ञान;-
07 FACTS;-
1-गायत्री मंत्र चौबीस अक्षरों का गायत्री महामंत्र भारतीय संस्कृति के वाङ्मय का नाभिक कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। यह संसार का सबसे छोटा एवं एक समग्र धर्मशास्त्र है। यदि कभी भारत जगद्गुरु- चक्रवर्ती रहा है तो उसके मूल में इसी की भूमिका रही है। गायत्री मंत्र का तत्त्वज्ञान कुछ ऐसी उत्कृष्टता अपने अन्दर समाए है कि उसे हृदयंगम कर जीवनचर्या में समाविष्ट कर लेने से जीवन परिष्कृत होता चला जाता है।
2-वेद, जो हमारे आदिग्रन्थ हैं, उनका सारतत्त्व गायत्री मंत्र की व्याख्या में पाया जा सकता है। गायत्री के विषय में भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है कि ‘छंदों में गायत्री में स्वयं हूँ’, जो विद्या-विभूति के रूप में गायत्री की व्याख्या करते हुए विभूति योग में प्रकट हुई है।
3-गायत्री के अक्षरों के विधिवत् उच्चारण से शरीर के भिन्न- भिन्न स्थानों में पाये जाने वाले सूक्ष्म चक्र, मातृका, ग्रन्थियाँ, पीठ, स्थान आदि जागृत होते हैं।जिस प्रकार टाइपराइटर मशीन पर उँगली रखते ही सामने रखे कागज पर वे ही अक्षर छप जाते हैं, उसी प्रकार मुख, कण्ठ और तालु में छुपी हुई अनेक ग्रन्थियों की चाबियाँ रहती हैं ।गायत्री अक्षरों का क्रम से संगठन ऐसा विज्ञानानुकूल है कि उन अक्षरों के उच्चारण से शरीर के उन गुप्त स्थानों पर दबाव पड़ता है और वे जागृत होकर मनुष्य की अनेक सुषुप्त शक्तियों को कार्यशाला बना देते हैं। 4-गायत्री मंत्र के भीतर अनेक प्रकार के ज्ञान- विज्ञान छुपे हुये हैं ।अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र- शस्त्र, बहुमूल्य धातुएँ बनाना, जीवन दात्री औषधियाँ, रसायन तैयार करना, वायुयान जैसे यंत्र बनना, शाप और वरदान देना, प्राण- विद्या, कुण्डलिनी चक्र, दश महाविद्या, महामातृका, अनेक प्रकार की योग सिद्धियाँ गायत्री- विज्ञान के अन्तर्गत पाई जाती है।उन विधाओं का अभ्यास करके हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार की सिद्धि- ऋद्धियाँ प्राप्त की थीं ।आज भी हम गायत्री साधना द्वारा उन सब विधाओं को प्राप्त करके अपने प्राचीन गौरव का पुनर्स्थापन कर सकते हैं। 5-''गायत्री सनातन अनादि काल का मंत्र है।पुराणों में बताया गया है कि'' सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री- मंत्र की प्राप्ति हुई थी । उसी मंत्र की साधना करके उनको सृष्टि रचने की शक्ति मिली थी ।गायत्री के जो चार चरण प्रसिद्ध हैं उन्हीं की व्याख्या स्वरूप ब्रह्माजी को चार वेद मिले हैं और उनके चार मुख हुये थे ।इसमें सन्देह नहीं कि जिसने गायत्री के मर्म को भली प्रकार जान लिया है उसने चारों वेदों को जान लिया ।। 6-गायत्री साधना करने से हमारे सूक्ष्म शरीर और अन्तःकरण पर जो मल विक्षेप के आवरण जमे होते हैं वे दूर होकर आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है ।आत्मा के शुद्ध स्वरूप द्वारा ही सब प्रकार की समृद्धियाँ और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं ।दर्पण की तरह आत्मा को शुद्ध बनाने से उसके सब प्रकार के मल दूर हो जाते हैं, और मनुष्य अन्तःकरण निर्मल, प्रकाशवान बनकर परमेश्वर की समस्त शक्तियों, समस्त गुणों, सर्व सामर्थ्यों, सब सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाता है।
7-गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं ।तत्त्वज्ञानियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियाँ तथा चौबीस सिद्धियाँ कहा जाता है ।देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि इसी उपासना के सहारे उच्च पदासीन हुए हैं ।सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं, जो गायत्री में न हो।उसकी उच्चस्तरीय साधनाएँ कठिन और विशिष्ट भी हैं, पर साथ ही सरल भी इतनी है कि उन्हें हर स्थिति में बड़ी सरलता और सुविधाओं के साथ सम्पन्न कर सकता है ।इसी से उसे सार्वजनीन और सार्वभौम माना गया ।नर- नारी, बाल- वृद्ध बिना किसी जाति व सम्प्रदाय भेद के उसकी आराधना प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं और अपनी श्रद्धा के अनुरूप लाभ उठा सकते हैं ।
गायत्री के 24अक्षर;-
06 FACTS;-
1-गायत्री बीज 'ॐकार' है ।। उसकी सत्ता तीनों लोक (भूर्भुवः स्वः) लोकों में व्याप्त है । साधक के लिए उसे 24 अक्षर सिद्धियों एवं उपलब्धियों से भरे- पूरे हैं । गायत्री महामंत्र में सम्पूर्ण जड़- चेतनात्मक जगत का ज्ञान बीज रूप से पाया जाता है ।मस्तिष्क के मूल में से जो मुख्य 24 ज्ञान तन्तु निकल कर मनुष्य के देह तथा मन का संचालन करते हैं उनका गायत्री 24 अक्षरों से सूक्ष्म सम्बन्ध है ।। 2-गायत्री के तत्त्वरूप 24 वर्ण में 24 प्रकार की आत्मतत्त्व- रूपता स्थित हैं ।चौबीस तत्त्व के बाहर और भीतर रहकर उसे अपने अन्तर में स्थित करने से मनुष्य ''अन्तर्यामी' ' बन जाता है ।सब ज्ञानों में से यह अन्तर्यामी- विज्ञान सर्वश्रेष्ठ है, जो गायत्री की साधना द्वारा ही प्राप्त होता है । 3-जो आत्मा के भीतर है और आत्मा के बाहर भी विद्यमान है, जो आत्मा के भीतर और बाहर रहकर उसका शासन करता है, वही वास्तविक आत्मा है, वही अमृत है, वही अन्तर्यामी है ।सर्वान्तर्यामी आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मांड का आयतन अर्थात् प्रतिष्ठा है, ऐसा निश्चय होने के पश्चात् ब्रह्मांड के 24 तत्त्वों का आकलन करना सम्भव हो जाता है । 4-अन्तर्यामी ब्रह्म का तत्त्वबोध कर लेना कोई साधारण काम नहीं है, क्योंकि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है।हिरण्य गर्भ जैसा सूक्ष्मतर अथवा अन्तर्यामी तत्त्व जानना हो तो उस सुख स्वरूप परमात्मा को योगाभ्यास द्वारा प्राप्त करना ही परम पुरुषार्थ है ।इसके लिए गायत्री के 24 अक्षरों से प्राप्त अति सूक्ष्म ज्ञान सर्वाधिक श्रेष्ठ है ।
5-सविता प्राण है और सावित्री अन्न ।जहाँ अन्न है वहाँ प्राण होगा और जहाँ प्राण है वहाँ अन्न ।प्राण जीवन, जीवट, संकल्प एवं प्रतिभा का प्रतीक है ।यह विशिष्टता पवित्र अन्न की प्रतिक्रिया है ।प्राणवान व्यक्ति पवित्र अन्न ही स्वीकार करते हैं एवं अन्न की पवित्रता को अपनाये रहने वाले प्राणवान बनते हैं ।सविता सूक्ष्म भी है और दूरवर्ती भी, उसका निकटतम प्रतीक यज्ञ है ।यज्ञ को सविता कहा गया है ।उसकी पूर्णता भी एकाकीपन में नहीं है ।सहधर्मिणी सहित यज्ञ ही समग्र एवं समर्थ माना गया है ।यज्ञपत्नी दक्षिणा है ।दक्षिणा को सावित्री कह सकते हैं ।।
गायत्री की 24 मातृकाएँ;-
03 FACTS;- 1-सामान्य दृष्टि से कलाएँ और मातृकाएँ अलग-अलग प्रतीत होती हैं, किन्तु तात्विक दृष्टि से देखने पर उन दोनों का अन्तर समाप्त हो जाता है । उन्हें श्रेष्ठता की सार्मथ्य कह सकते हैं और उनके नामों के अनुरूप उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले सत्परिणामों का अनुमान लगा सकते हैं।गायत्री के 24 अक्षरों को 24 दिव्य प्रकाश स्तम्भों का दिव्य तेज बताया गया है।
2-समुद्र में जहाजों का मार्गदर्शन करने के लिए जहाँ-तहाँ प्रकाश स्तम्भ खड़े रहते हैं । उनमें जलने वाले प्रकाश को देखकर नाविक अपने जलपोत को सही रास्ते से ले जाते हैं और वे चट्टानों से टकराने एवं कीचड़ आदि में धँसने से बच जाते हैं । इसी प्रकार गायत्री के 24 अक्षर 24 प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रजा की जीवन नौका को प्रगति एवं समृद्धि के मार्ग पर ठीक तरह चलते रहने की प्रेरणा करते हैं।आपत्तियों से बचाते हैं और अनिश्चितता को दूर करते हैं ।
3-गायत्री के चौबीस अक्षरों से संबंधित मातृकाएँ एवं कलाएँ इस प्रकार हैं -
(1) चन्द्रकेश्वरी (2) अजतवला (3) दुरितारि (4) कालिका
(5) महाकाली (6) श्यामा (7) शान्ता (8) ज्वाला (9) तारिका (10) अशोका
(11) श्रीवत्सा (12) चण्डी (13) विजया (14) अंकुशा (15) पन्नगा (16) विर्वाक्षी
(17) वेला ( 18) धारिणी ( 19) प्रिया
(20) नरदत्ता (21) गन्धारी (22) अम्बिका
(23) पद्मावती (24) सिद्धायिका
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गायत्री के 24 देवता;-
02 FACTS;-
1-गायत्री मंत्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है । इन २४ अक्षरों की शब्द शृंखला में बँधे हुए 24 देवता माने गये हैं-गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों को २४ देवताओं का शक्ति - बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है।प्रकारान्तर से इस महामंत्र को 24 देवताओं का एवं संघ, समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं।
2-इस परिवार के सदस्यों की गणना के विषय में शास्र बतलाते हैं... 1-अग्नि, 2-वायु, 3-सूर्य, 4-कुबेर, 5-यम, 6-वरुण, 7-बृहस्पति, 8-पर्जन्य, 9-इन्द्र, 10 -गन्धर्व, 11-प्रोष्ठ, 12 -मित्रावरूण,13 -त्वष्टा, 14 -वासव,
15 -मरूत, 16 -सोम, 17 -अंगिरा, 18 -विश्वेदेवा, 19 -अश्विनीकुमार, 20 -पूषा, 21 -रूद्र, 22 -विद्युत, 23 -ब्रह्म, 24-अदिति ।
गायत्री की 24 मस्तिष्कीय शक्ति;-
03 FACTS;-
1-गायत्री मंत्र का एक- एक अक्षर एक- एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है ।इन 24 अक्षरों की शब्द- शृंखला में बँधे हुए 24 देवता माने गये हैं ।गायत्री का एक- एक अक्षर साक्षात् देव स्वरूप है । इसलिए उसकी आराधना से उपासक का कल्याण ही होता है । गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों को 24 देवताओं का शक्ति बीज मंत्र माना गया है ।प्रत्येक अक्षर का एक देवता है । छन्द शास्त्र की दृष्टि से चौबीस अक्षरों के तीन विराम वाले पद्य को 'गायत्री' कहते हैं । साधना- विज्ञान की दृष्टि से गायत्री मंत्र का हर अक्षर बीज मंत्र है ।उन सभी का स्वतंत्र अस्तित्व है । उस अस्तित्व के गर्भ में एक विशिष्ट शक्ति- प्रवाह समाया हुआ है । 2-गुलदस्ते में कई प्रकार के फूल होते हैं ।उनके गुण, रूप, गन्ध आदि में भिन्नता होती है ।। उन सबको एक सूत्र में बाँधकर, एक पात्र में सजाकर रख दिया जाता है तो उसका समन्वित अस्तित्व एक विशिष्ट शोभा- सौन्दर्य का प्रतीक बन जाता है ।गायत्री मंत्र को एक ऐसा ही गुलदस्ता कहा जा सकता है, जिसमें 24 अक्षरों के अलग- अलग सामर्थ्य से भरे- पूरे प्रवाहों का समन्वय है ।औषधियों में कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ मिले होते हैं । उनके पृथक- पृथक गुण हैं, पर उनका समन्वय एक विशिष्ट गुण युक्त बन जाता है ।गायत्री को एक ऐसी औषधि कह सकते हैं, जिसमें बहुमूल्य शक्ति- तत्त्व घुले हैं ।गायत्री का हर घटक महत्त्वपूर्ण है, पर उनका समन्वय जब संयुक्त शक्ति के रूप में प्रकट होता है तो उस समन्वय की सामर्थ्य असीम हो जाती है ।
3-गायत्री के 24 अक्षरों में विद्यमान 24 देवता...
(1) अग्नि, (2) प्रजापति, (3) चन्द्रमा, (4) ईशान, (5) सावित्री, (6) आदित्य, (7) बृहस्पति, (8) मित्रावरुण, (9) भाग, (10) ईश्वर, (11) गणेश, (12) त्वष्टा, (13) पूषा, (14) इन्द्राणी, (15) वायु, (16) वामदेव, (17) मैत्रावरुण, (18) वैश्वदेव, (19) मातृक, (20) विष्णु, (21) वसुगण, (22) रुद्रगण, (23) कुबेर और (24) अश्विनीकुमार ।
गायत्री के 24 ऋषि;-
02 FACTS;-
1-गायत्री के 24 अक्षरों के द्रष्टा 24 ऋषि यह है- (1) वामदेव, (2) अत्रि, (3) वशिष्ठ, (4) शुक्र, ( 5) कण्व, (6) पाराशर, (7) विश्वामित्र, (8) कपिल, (9) शौनक, ( 10) याज्ञवल्क्य, ( 11) भारद्वाज, (12 ) जमदग्नि, (13 ) गौतम, ( 14) मुद्गल, (15 ) वेदव्यास,
(16) लोमश, (17) अगस्त्य, (18) कौशिक, (19 ) वत्स, ( 20) पुलस्त्य, ( 21 ) माण्डूक, ( 22) दुर्वासा, ( 23) नारद और (24 ) कश्यप ।
2-इन 24 ऋषियों को सामान्य जन- जीवन में जिन सत्प्रवृत्तियों के रूप में जाना जा सकता है, वे यह हैं-
(1) प्रज्ञा, (2) सृजन, (3) व्यवस्था, (4) नियंत्रण, (5) सद्ज्ञान, (6) उदारता, (7) आत्मीयता, (8) आस्तिकता, (9) श्रद्धा, (10) शुचिता, (11 ) संतोष, (12) सहृदयता, ( 13) सत्य, ( 14) पराक्रम, (15 ) सरसता, (16 ) स्वावलम्बन, (17 ) साहस, (18 ) ऐक्य, (19 ) संयम, (20 ) सहकारिता, (21 ) श्रमशीलता, (22 ) सादगी, (23 ) शील
( 24) समन्वय ।
गायत्री के 24 छन्द;-
05 FACTS;-
1-समस्त गायत्री साधना का स्वतंत्र विधान है ।साधना विधियों का किस परिस्थिति में क्या उपयोग हो सकता है, इसकी बहुमुखी निर्धारण प्रज्ञा को 'छन्द' कह सकते हैं ।छन्द रूप सांकेतिक भाषा है । गायत्री के समग्र विनियोग में सविता देवता, विश्वामित्र ऋषि एवं गायत्री छन्द का उल्लेख किया गया है।नारंगी ऊपर से एक दीखती है, पर छिलका उतारने पर उसके खण्ड स्वतंत्र इकाइयों के रूप में भी दृष्टिगोचर
होते हैं ।
2-गायत्री को नारंगी की उपमा दी जाय तो उसके अन्तराल में चौबीस अक्षरों के रूप में 24 खण्ड के दर्शन होते हैं ।जो विनियोग एक समय गायत्री मंत्र का होता है, वैसा ही प्रत्येक अक्षर का भी आवश्यक होता है ।चौबीस अक्षरों के लिए चौबीस विनियोग बनने पर उनके 24 देवता 24 ऋषि एवं 24 छन्द भी बन जाते हैं । 3-ऋषि सद्गुण हैं और देवता उनके प्रतिफल ।ऋषि को जड़ और देवता को वृक्ष कहा जा सकता है ।ऋषित्व और देवत्व के संयुक्त का परिणाम फल- सम्पदा के रूप में सामने आता है ।ऋषियों और देवताओं का परस्पर समन्वय है ।ऋषियों की साधना से विष्णु की तरह सुप्तावस्था में पड़ी रहने वाली देवसत्ता को जाग्रत होने का अवसर मिलता है ।देवताओं के अनुग्रह से ऋषियों को उच्चस्तरीय वरदान मिलते हैं ।वे सामर्थ्यवान बनते हैं और स्व पर कल्याण की महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं ।
4-संक्षेप में ऋषि गुण हैं, देवता प्रभाव, छन्द को विधाता कह सकते हैं । ऋषियों की कार्य पद्धति छन्द हैं ।मोटे रूप से इसे उनकी उपासना में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की उच्चारण विधि- स्वर संहिता कह सकते हैं । सामवेद में मंत्र विद्या के महत्त्वपूर्ण आधार उच्चारण विधान- स्वर संकेतों का विस्तारपूर्वक विधान, निर्धारण मिलता है ।साधना की विधियाँ वैदिकी भी हैं और तांत्रिकी भी ।व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उनके क्रम- उपक्रम में अन्तर भी पड़ता है ।किस स्तर का व्यक्ति किस प्रयोजनों के लिए, किस स्थिति में क्या साधना करे, इसका एक स्वतंत्र शास्त्र है ।
5-गायत्री के 24 अक्षरों में 24 छन्द सन्निहित हैं-
(1) गायत्री, (2) उष्णिक, (3) अनुष्टुप, (4) वृहती, (5) पंक्ति, (6) त्रिष्टुप, (7) जगती,(8) अतिजगती, (9) शक्वरी, (10 ) अतिशक्वरी, ( 11) धृति, (12 ) अतिधृति,( 13) विराट्,( 14) प्रस्तार पंक्ति, (15) कृति, (16) प्रकृति, (17 ) आकृति,( 18) विकृति, (19 ) संकृति, (20) अक्षर पंक्ति, (21) भूः, (22 ) भुवः, ( 23) स्वः और (24) ज्योतिष्मती ।
गायत्री की 24 कलाएँ;-
गायत्री के चौबीस अक्षरों से संबंधित कलाएँ एवं मातृकाएँ इस प्रकार हैं -
( 1) तापिनी ( 2) सफला ( 3) विश्वा ( 4) तुष्टा (5 ) वरदा (6 ) रेवती (7 ) सूक्ष्मा ( 8) ज्ञाना ( 9) भर्गा (11 ) गोमती (11 ) दर्विका (12 ) थरा (13 ) सिंहिका (14 ) ध्येया (15 ) मर्यादा (16 ) स्फुरा ( 17) बुद्धि ( 18) योगमाया (19 ) योगात्तरा (20 ) धरित्री (21 ) प्रभवा ( 22) कुला ( 23) दृष्या ( 24) ब्राह्मी ।
गायत्री की 24 शक्ति;-
देवी भागवत् के अनुसार गायत्री के 24 अक्षरों में 24 शक्तियाँ भरी
पड़ी हैं .... ( 1) वामदेवी ( 2) प्रिया ( 3) सत्या ( 4) विश्वा ( 5) भद्र विलासिनी (6 ) प्रभावती (7 ) शान्ता ( 8) कान्ता (9 ) दुर्गा (10) सरस्वती (11 ) विदु्रमा (12 ) विशालेशा (13 ) व्यापिनी ( 14) विमला ( 15) तमोपहारिणी ( 16) सूक्ष्मा ( 17) विश्वयोनि (18 ) जया ( 19) यशा (20 ) पद्मालया ( 21) परा ( 22) शोभा ( 23) भद्रा (24 ) त्रिपदा ।
गायत्री की 24 मुद्रायें';-
02 FACTS;-
1- मुद्रा- विज्ञान अपने आप में एक समग्र शक्ति है ।उसमें उँगलियों का ही नहीं शरीर के विभिन्न अवयवों का- श्वसन का तथा मन के विशिष्ट भाव- प्रवाहों का समावेश होता है । 24 मुद्रा साधनाओं को गायत्री के 24 अक्षरों के लिए किस प्रकार उपयोग किया जाना चाहिए, इसका निर्धारण अनुभवी मार्गदर्शक के परामर्श से ही हो सकता है ।मुद्राओं का उल्लेख 'घेरण्डसंहिता' में इस प्रकार है-
(1) महामुद्रा, (2) नभोमुद्रा, (3) उड्डीयान, (4) जालन्धर बन्ध, (5) मूलबन्ध, (6) महाबन्ध, (7) खेचरी, (8) विपरीत करणी, (9) योनिमुद्रा, (10) बज्रोली, ( 11) शक्ति चालनी, (12 ) ताड़ागी, (13 ) माण्डवी, (14 ) शांभवी, ( 15) अश्विनी, (16 ) पाशिनी, (17 ) काकी, (18 ) मातंगी, (19) भुजङ्गिनी, (20 ) पार्थिवी, (21 ) आम्भसी, (22 ) वैश्वानरी, (23 ) वायवी और ( 24) आकाशी ।।
2-यह 24 मुद्रा साधनाएँ योग साधकों को सिद्धियाँ प्रदान करने वाली हैं ।।
तंत्र प्रकरण में दोनों हाथों की उँगलियों को मिलाकर कुछ विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाई जाती हैं ।इन्हें मुद्राएँ कहते हैं ।मुद्राओं की संख्या 24 हैं ।प्रत्येक अक्षर की एक मुद्रा है ।अक्षरों के क्रम से मुद्रा निर्धारण निम्न प्रकार किया गया है ।इन्हें किसी अभ्यासी विज्ञजन से अथवा उपासना ग्रंथों में उपलब्ध चित्रों के माध्यम से जाना जा सकता है।गायत्री के अनुसार
24 मुद्राएँ इस प्रकार हैं-
(1) सुमुख, (2) सम्पुट, (3) वितत, (4) विस्तृत, (5) द्विमुख, (6) त्रिमुख, (7) चतुर्मुख, (8) पंचमुख, (9) षडमुख, (10 ) अधोमुख, (11 ) व्यापकाञ्जलि, ( 12) शकट, (13 ) यमपाश, ( 14 ) ग्रंथित, ( 15) सन्मुखोन्मुख, (16) प्रलम्ब, ( 17) मुष्टिक, (18) मत्स्य, (19) कूर्म, ( 20) बराहक, ( 21) सिंहाक्रान्त, ( 22) महाक्रान्त, (23 ) मुद्गर और (24 ) पल्लव ।। गायत्री के 24 अक्षरों के 24 देवताओं से सम्बन्धित 24 सिद्धियाँ;- 02 FACTS;- 1-गायत्री के 24 अक्षर, 24 तत्त्व हैं ।गायत्री, सविता, शिव, विष्णु, दक्षिणामूर्ति शम्भु ,शक्ति और काम बीज है ।गायत्री की 24 सिद्धियाँ है। प्राचीन काल के साधकों को उन चमत्कारी विशिष्टिताओं की उपलब्धि होती होगी ।
2-आज के सामान्य साधक सामान्य व्यक्तित्व के रहते हुए जो सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं, उन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है-
(1) प्रज्ञा, (2) वैभव, (3) सहयोग, (4) प्रतिभा, (5) ओजस्, (6) तेजस्, (7) वर्चस्, (8) कान्ति, ( 9) साहसिकता, ( 10) दिव्य दृष्टि, ( 11) पूर्वाभास, ( 12) विचार, संचार, (13) वरदान, ( 14 ) शाप, (15) शान्ति, ( 16) प्राण प्रयोग, ( 17) देहान्तर सम्पर्क, ( 18) प्राणाकर्षण, (19 ) ऐश्वर्य, (20 ) दूर श्रवण, ( 21) दूरदर्शन, (22 ) लोकान्तर सम्पर्क, (23 ) देव सम्पर्क और
( 24) कीर्ति
गायत्री का अर्थ चिन्तन;-
03 FACTS;-
1-गायत्री के नौ शब्द ही महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं। देवी भागवत् में गायत्री की तीन शक्तियों- ब्राह्मी वैष्णवी, शाम्भवी के रूप में निरूपित किया गया है और नारी- वर्ग की महाशक्तियों को चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत माहात्म्यों का वर्णन किया है। 2-महर्षि दत्तात्रेय ने ब्रह्माजी के परामर्श से चौबीस गुरुओं से अपनी ज्ञान- पिपासा को पूर्ण किया था। यह चौबीस गुरु प्रकारान्तर से गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं।
3-गायत्री मन्त्र के इस अर्थ पर मनन एवं चिन्तन करने से अन्तःकरण में उन तत्त्वों की वृद्धि होती है, जो मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाते हैं। यह भाव बड़े ही शक्तिदायक, उत्साहप्रद, सतोगुणी, उन्नायक एवं आत्मबल बढ़ाने वाले हैं। इन भावों का नित्यप्रति कुछ समय मनन करना चाहिए। ...ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ऊँ— ब्रह्म भू:— प्राणस्वरूप भुव:— दु:खनाशक
स्व:— सुख स्वरूप
तत्— उस सवितु:— तेजस्वी, प्रकाशवान् वरेण्यं— श्रेष्ठ भर्गो— पापनाशक देवस्य— दिव्य को, देने वाले को धीमहि— धारण करें
धियो— बुद्धि को
यो— जो
न:— हमारी, हम सब की
प्रचोदयात्— करे विस्तृत वर्णन;- 09 FACTS;- 1- गायत्री के अर्थ चिन्तन में दी हुई ये तीनों भावनाएँ क्रमश: ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग की प्रतीक हैं। इन्हीं तीन भावनाओं का विस्तार होकर योग के ज्ञान, भक्ति और कर्म यह तीन आधार बने हैं। गायत्री का अर्थ चिन्तन, बीज रूप से अपनी अन्तरात्मा को तीनों योगों की त्रिवेणी में स्नान कराने के समान है।‘‘भू: लोक, भुव: लोक, स्व: लोक- इन तीनों लोकों में ॐ परमात्मा समाया हुआ है। यह जितना भी विश्व ब्रह्माण्ड है, परमात्मा की साकार प्रतिमा है।कण- कण में भगवान् समाये हुए हैं। सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए मुझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिए एवं संसार की सुख- शान्ति तथा शोभा बढ़ाने में सहयोग देकर प्रभु की सच्ची पूजा करनी चाहिए।’’ 2-‘‘तत् - उस परमात्मा, सवितु:- तेजस्वी, वरेण्यं- श्रेष्ठ, भर्गो- पापरहित और देवस्य- दिव्य है, उसको अन्त:करण में धीमहि - करता हूँ। इन गुणों वाले भगवान् मेरे अन्त:करण में प्रविष्ट होकर मुझे भी तेजस्वी, श्रेष्ठ, पापरहित एवं दिव्य बनाते हैं।मैं प्रतिक्षण इन गुणों से युक्त होता जाता हूँ। इन दोनों की मात्रा मेरे मस्तिष्क तथा शरीर के कण- कण में बढ़ती है।मैं इन गुणों से ओत- प्रोत होता जाता हूँ।’’ 3- ‘‘यो - वह परमात्मा, न:- हमारी, धियो- बुद्धि को, प्रचोदयात्- सन्मार्ग में प्रेरित करे। हम सबकी, हमारे परिजनों की बुद्धि सन्मार्गगामी हो। संसार की सबसे बड़ी विभूति, सुखों की आदि माता सद्बुद्धि को पाकर हम इस जीवन में ही स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करें, मानव जन्म को सफल बनाएँ।’’ 4-उपर्युक्त तीनों चिन्तन- संकल्प धीरे- धीरे मनन करते जाना चाहिए। एक- एक शब्द पर कुछ क्षण रुकना चाहिए और उस शब्द का कल्पना चित्र मन में बनाना चाहिए।जब यह शब्द पढ़े जा रहे हों कि परमात्मा भू: भुव: स्व: तीनों लोकों में व्याप्त है, तब ऐसी कल्पना करनी चाहिए, जैसे हम पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग को भली प्रकार देख रहे हैं और उसमें गर्मी, प्रकाश, बिजली, शक्ति या प्राण की तरह परमात्मा सर्वत्र समाया हुआ है।यह विराट् ब्रह्माण्ड ईश्वर की जीवित- जाग्रत् साकार प्रतिमा है।
5-गीता में अर्जुन को जिस प्रकार भगवान् ने अपना विराट् रूप दिखाया है, वैसे ही विराट् पुरुष के दर्शन अपने कल्पना लोक में मानस चक्षुओं से करने चाहिए कि मैं इस विश्वपुरुष के पेट में बैठा हूँ। मेरे चारों ओर परमात्मा ही परमात्मा है। ऐसी महाशक्ति की उपस्थिति में कुविचारों और कुकर्मों को मैं किस प्रकार अङ्गीकार कर सकता हूँ।इस विश्वपुरुष का कण- कण मेरे लिए पूजनीय है। उसकी सेवा, सुरक्षा एवं शोभा बढ़ाने में प्रवृत्त रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है। 6-संकल्प के दूसरे भाग का चिन्तन करते हुए अपने हृदय को भगवान् का सिंहासन अनुभव करना चाहिए और तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ, निर्विकार, दिव्य गुणों वाले परमात्मा को विराजमान देखना चाहिए। भगवान् की झाँकी तीन रूप में की जा सकती है- (1) विराट् पुरुष के रूप में (2) राम, कृष्ण, विष्णु, गायत्री, सरस्वती आदि के रूप में (3) दीपक की ज्योति के रूप में। 7-यह अपनी भावना, इच्छा और रुचि के ऊपर है। परमात्मा का पुरुष रूप में, गायत्री का मातृ रूप में अपनी रुचि के अनुसार ध्यान किया जा सकता है। परमात्मा स्त्री भी है और पुरुष भी। गायत्री साधकों को माता गायत्री के रूप में ब्रह्म का ध्यान करना अधिक रुचता है। सुन्दर छवि का ध्यान करते हुए उसमें सूर्य के समान तेजस्विता, सर्वोपरि श्रेष्ठता, परम पवित्र निर्मलता और दिव्य सतोगुण की झाँकी करनी चाहिए। इस प्रकर गुण और रूप वाली ब्रह्मशक्ति को अपने हृदय में स्थायी रूप से बस जाने की, अपने रोम- रोम में रम जाने की भावना करनी चाहिए। 8-संकल्प के तीसरे भाग का चिन्तन करते हुए ऐसा अनुभव करना चाहिए कि वह गायत्री ब्रह्मशक्ति हमारे हृदय में निवास करने वाली भावना तथा मस्तिष्क में रहने वाले बुद्धि को पकडक़र सात्विकता के, धर्म- कर्त्तव्य के, सेवा के सत्पथ पर घसीटे लिए जा रही हैं। बुद्धि और भावना को इसी दिशा में चलाने का अभ्यास तथा प्रेम उत्पन्न कर रही है और वे दोनों बड़े आनन्द, उत्साह तथा सन्तोष का अनुभव करते हुए माता गायत्री के साथ- साथ चल रही हैं। 9-इस प्रकार चिन्तन करने से गायत्री मन्त्र का अर्थ भली प्रकार हृदयंगम हो जाता है और उसकी प्रत्येक भावना मन पर अपनी छाप जमा लेती है, जिससे यह परिणाम कुछ ही दिनों में दिखाई पडऩे लगता है कि मन कुविचारों और कुकर्मों की ओर से हट गया है और मनुष्योचित सद्विचारों और सत्कर्मों में उत्साहपूर्वक रस लेने लगा है। यह प्रवृत्ति आरम्भ में चाहे कितनी ही मन्द क्यों न हो, यह निश्चित है कि यदि वह बनी रहे, बुझने न पाए, तो निश्चय ही आत्मा दिन- दिन समुन्नत होती जाती है और जीवन का परम लक्ष्य समीप खिसकता चला आता है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
गायत्री के चौबीस बीज मंत्रों से युक्त 24 यंत्रों के नाम;-
गायत्री के चौबीस बीज मंत्रों से युक्त 24 यंत्रों के नाम इस प्रकार हैं..
1) ॐ गायत्री यंत्रम्, 2) ह्रीं ब्राह्मी यंत्रम्, 3) णं वैष्णवी यंत्रम्, 4) शं शाम्भवी यंत्रम्, 5) ओं विद्या यंत्रम्, 6) ळृं देवेश यंत्रम्, 7) स्त्रीं मातृ यंत्रम्, 8) ऋं ऋत् यंत्रम्, 9) उं निर्मला यंत्रम्, 10) यं निरंजना यंत्रम्, 11) गं ऋद्धि यंत्रम्, 12) क्षं सिद्धि यंत्रम्, 13) ज्ञं सावित्री यंत्रम्, 14 ) ऐं सरस्वती यंत्रम्, 15) श्रीं श्री यन्त्रम्, 16) क्लीं कालिका यंत्रम्, 17) लं भैरव यंत्रम्, 18) रं ऊर्जा यंत्रम्, 19 ) खं विभूति यंत्रम्, 20) हुं दुर्गा यंत्रम्, 21) अं अन्नपूर्णेश्वरी यंत्रम्, 22) हं योगिनी यंत्रम्,23) वं वरुण यंत्रम्
और 24 ) त्रीं त्रिधा यंत्रम् ।
गायत्री के 24 अक्षरों से सम्बन्धित 24 रंग, 24 शक्तियाँ तथा 24 तत्त्व;-
गायत्री यन्त्र जो कि विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक है,निम्न तत्त्वों से मिलकर बनता है ।श्री विद्यावर्ण तंत्र के अनुसार गायत्री महामंत्र में सन्निहित
शक्तियों का वर्णन इस प्रकार है--
क्र०) अक्षर (रंग) शक्ति- देवियाँ कॉस्मिक प्रिन्सिपल स्थूल- सूक्ष्म तत्त्व 1) तत् -- पीला (Yellow) -- प्रह्लादिनी -- पृथ्वी 2) स -- गुलाब (Pink) -- प्रभा -- जल 3) वि -- लाल (Red) -- नित्या -- अग्नि 4) तुर् -- नीला (Blue) -- विश्वभद्रा -- वायु 5) व -- सिन्दुरी (Fiery) -- विलासिनी -- आकाश 6) रे -- श्वेत (White) -- प्रभावती -- गन्ध 7) णि -- श्वेत (White) -- जया -- स्वाद 8) यम् -- श्वेत (White) -- शान्ता -- रूप 9) भ -- काला (Black) -- कान्ता -- स्पर्श 10) र्गो -- लाल (Red) -- दुर्गा -- शब्द 11) दे -- लाल (Red) -- कमलसरस्वती -- वाणी 12) व -- श्वेत (White) -- विश्वमाया -- हस्त 13) स्य -- सुनहरापीला (Golden Yellow) -- विशालेशा -- जननेन्द्रिय 14) धी -- श्वेत (White) -- ब्यापिनी -- गुदा 15) म -- गुलाबी (Pink) -- विमला -- पाद 16) हि -- श्वेत- शंख (Conch White) -- तमोपहारिणी -- कान 17) धि -- मोतिया (Cream) -- सूक्ष्मा -- मुख 18) यो -- लाल (Red) -- विश्वयोनि -- आँख 19) यो -- लाल (Red) -- जयावहा -- जिह्वा 20) नः -- स्वर्णिम (Color of rising sun) -- पद्मालया -- नाक 21) प्र -- नीलकमल(Color of blue lotus) -- परा -- मन 22) चो -- पीला (Yellow) -- शोभा -- अहं 23) द -- श्वेत (White) -- भद्ररूपा -- मन, बुद्धि, चित्त, अन्तःकरण 24) यात् -- श्वेत, लाल, काला (White, Red, Black) -- त्रिमूर्ति -- सत्, रज, तम् ।। गायत्री के चौबीस अक्षरों के 24 बीज;-
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