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चेतना क्या है?शरीर में कुछ सूक्ष्म शरीर जैसा है भी या नहीं?

मन, प्राण, आत्मा और शरीर का आपस में क्या सम्बन्ध है?

07 FACTS;- 1-हमारे अस्तित्व के तीन प्रमुख तल है| शरीर, मन और आत्मा| तीन प्रमुख शक्तियां – प्राण शक्ति, मन शक्ति, आत्मा शक्ति|योग में इन तीनो शक्तियों के मेल को चित्त शक्ति कहा जाता है, चित्त शक्ति के निरोध को ही योग कहा जाता है|शरीर एक धुरी है, इस धुरी के आसपास आत्मा, मन और प्राण घूमते रहते हैं| शरीर में ही आत्मा का निवास होता है|मन, आत्मा और शरीर के अनुभवों,विचारों,भावनाओं व स्मृतियों का समुच्चय है| जिसके अंदर कल्पना, विचार, मनन शक्ति होती है|

2-मनुष्य का मन बेहद शक्तिशाली है, मन से भी शक्तिशाली है प्राण, प्राण ही काल है, प्राण हर जगह व्याप्त है, हमारे शरीर में भी प्राण ही व्याप्त है| यही प्राण हमारी जिंदगी का वाहक है| शरीर से जब प्राण निकल जाता है तो शरीर नष्ट हो जाता है, प्राण पर अधिकार कर लिया जाए तो मनुष्य लंबे समय तक जवान बना रहता है, जिसने प्राण पर पूरी तरह अधिकार कर लिया तो समझिए उसने काल पर अधिकार कर लिया, ऐसा व्यक्ति लंबे समय तक मृत्यु पर भी विजय रख सकता है|प्राण शरीर को चलाने वाली दैवीय शक्ति है|प्राण-ऊर्जा है जो शरीर को चलाएमान रखती है|मन अपनी गति से बढ़ता रहता है, प्राण शरीर को प्रभावित करता है लेकिन सीधे तौर पर मन को नहीं| आत्मा- शरीर, मन और प्राण तीनों से ही प्रभावित भी रहती है और अप्रभावित भी|

3-इसी तरह प्राण तत्व, मन तत्व और आत्म तत्व मिलकर अध्यात्म तत्व का निर्माण करते हैं, यानि चित्त तत्व ही अध्यात्म तत्व है|जब तक हमारे शरीर के अंदर यह चित्त शक्ति है तब तक हम जीव हैं, और जैसे ही यह चित्त शक्ति हमारे शरीर से बाहर गई वैसे ही हम निर्जीव हो जाते हैं|चित्त को ही चेतना कहा गया है

4-रदर फोर्ड ने जब सबसे पहले अणु के परिवार को तोड़ा तो एक बहुत अद्भुत अनुभव प्रकाश में आया और वह यह था कि सबसे कम मात्रा वाला परमाणु भी ठीक ऐसे ही है, जैसे महासूर्या का सौर-जगत्‌। एक परमाणु में, सबसे छोटे परमाणु में, एक तो केन्द्र हाता है और उस केन्द्र के आसपास चक्कर लगाने वाला इलेक्ट्रॉन उस केन्द्र का चक्कर लगाता हैं इस चक्कर की गति ठीक वैसे ही है जैसे सूरज के आसपास पृथ्वी और मंगल और बृहस्पति ग्रह चक्कर लगाते हैं। इस छोटे-से परमाणु की गति वही है। और उस केन्द्र पर जो ऊर्जा छिपी है, वह वैसी ही ऊर्जा है, जैसी सूर्य की ऊर्जा है।

5-जैसे एक बहुत छोटे रूप में सौर परिवार इस परमाणु के भीतर बैठा है। फर्क सिर्फ मात्रा का है, गुण का कोई भी फर्क नहीं हैं। तो वैज्ञानिक कहते हैं, 'द मैक्रोकाज्म इज द माइक्रोकाज्म ;जो योग का पुराना सूत्र है, कि अण्ड में ब्रह्माण्ड है।' वह जो विराट् जगत्‌ है, वह बिल्कुल क्षुद्र माइक्रोकाज्म में मौजूद हैं वह जो कॉसमॉस, वही ब्रह्ममाण्ड है, वह छोटे छोटे अण्ड में इतना छोटा है कि उसे देखना भी सम्भव नहीं है। अनुमान ही किया जाता है कि वह है।

6-पदार्थ का अस्तित्व है तीन आयाम में, थ्री डायमेंशनलः लंबाई, चैड़ाई, ऊंचाई। किसी भी पदार्थ में तीन दिशाएं हैं यानी पदार्थ का अस्तित्व इन तीन दिशाओं में फैला हुआ है। अगर आदमी में हम पदार्थ को नापने जाएं तो लंबाई मिलेगी, चैड़ाई मिलेगी और ऊंचाई मिलेगी।लेकिन आदमी की आत्मा लंबाई, चैड़ाई और ऊंचाई की पकड़ में नहीं आती।

7-पदार्थ के तीन आयाम हैं,और आत्मा का चौथा आयाम / फोर्थ डायमेंशन है। लंबाई, चैड़ाई ,ऊंचाई ये तो तीन दिशाएं हैं जिनमें सभी वस्तुएं आ जाती हैं। लेकिन आत्मा की एक और दिशा है जो वस्तुओं में नहीं है, है ''चेतना''। चेतना की दिशा है..समय/टाइम । 'समय' अस्तित्व का चौथा आयाम है।

चेतना क्या है?-

05 FACTS;- 1-वस्तु तो तीन आयाम में हो सकती है , लेकिन चेतना कभी भी तीन आयाम में नहीं होती, वह चौथे आयाम में होती है। जैसे अगर हम चेतना को अलग कर लें तो दुनिया में सब कुछ होगा, सिर्फ समय/टाइम नहीं होगा। समझ लें कि इस पहाड़ पर कोई चेतना नहीं हैं तो पत्थर होंगे, पहाड़ होगा, चांद निकलेगा, सूरज निकलेगा, दिन डूबेगा, उगेगा, लेकिन समय जैसी कोई चीज नहीं होगी। क्योंकि समय का बोध ही चेतना है। 2-चेतना के बिना समय जैसी कोई चीज नहीं है। कांशसनेस जो है, उसके बिना समय नहीं है। और अगर समय न हो तो चेतना भी नहीं हो सकती। इसलिए वस्तु का अस्तित्व तो है लंबाई, चैड़ाई, ऊंचाई में और चेतना का अस्तित्व है काल में, समय की धारा में।

3-आइंस्टीन ने तो बहुत अदभुत काम किया है ।उसने ये चारों आयाम जोड़ कर अस्तित्व की परिभाषा कर दी है। सदा से स्पेस और टाइम , काल और क्षेत्र ..दो अलग चीजें समझी जाती रही हैं । समय अलग है, क्षेत्र अलग है। आइंस्टीन ने कहा, ये अलग चीजें नहीं हैं, ये दोनों इकट्ठी हैं और एक ही चीज के हिस्से हैं।

4-तो उसने एक नया शब्द बनायाः स्पेसियोटाइम। टाइम और स्पेस को दोनों को जोड़ दिया। ये अलग चीजें नहीं हैं। क्योंकि किसी भी चीज के अस्तित्व में, तीन चीजें तो हमें ऊपर से दिखाई पड़ती है; तो उसे हम लंबाई, चैड़ाई, ऊंचाई में नाप-जोख सकते हैं, लेकिन अस्तित्व होगा ही नहीं।

5-हम बता सकते हें कि कौन सी चीज कहां है, किस तरह है, लेकिन अगर हम यह बता सकें कि कब है, अगर हम समय भी न बता सकें तो उस वस्तु का हमें कोई पता नहीं चलेगा। तो आइंस्टीन ने तो समय को, अस्तित्व की अनिवार्यता मान लिया।देखना, सुनना, अनुभव करना, विचार करना, निर्णय करना आदि सभी कार्य चेतनाशक्ति के कारण होते हैं। चेतना के अभाव में यह जड़ शरीर कुछ भी नहीं कर सकता।

चेतना की सात अवस्थाएँ;-

03 FACTS;-

यह चेतनशक्ति सात अवस्थाओं में रहती है- 1-जीवात्मा;-

(1-जागृति, 2-सुसुप्ति, 3-स्वप्न) 1-1-आत्मा;-

(4-तुरीय), 1-2-शुद्धात्मा;-

(5-तुरीयातीत),विशुद्धात्मा(6-भगवत चेतना),दिव्यात्मा(7-ब्राह्मी चेतना) 2-वेद अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं। 3-जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ब्राह्मी चेतना।

चेतना की सात अवस्थाओ का वर्णन;-

07 FACTS;- 1. जागृति ---- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।जिसमें शरीर, चेतन मन, आत्मा और प्राण क्रियाशील होते हैं| चेतन के अतिरिक्त मन के अन्य भाग सुप्त रहते हैं, चेतन मन के साथ इंद्रिया जुड़ी हुई हैं विषय जुड़े हैं|जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता। यह एक प्रकार का स्वप्न-लोक ही है। जब हम अतीत की किसी यद् में खोए हुए रहते हैं, तो हम स्मृति-लोक में होते हैं। यह भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है।तो, ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न------ स्वप्न की चेतना एक घाल-मेली चेतना है।स्वप्न- जिसमें मन का एक भाग (चेतन मन) सो जाता है और अवचेतन जागृत हो जाता है| यहां शरीर सो रहा होता है और इन्द्रियाँ अर्ध जागृत होती हैं|जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था, थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से। अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है।

3. सुषुप्ति----- चेतना की निष्क्रिय अवस्था

02 POINTS;- 1-चेतना की यह अवस्था हमारी इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। इस अवस्था में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को रोक कर विश्राम में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना।यह वह अवस्था होती है जिसमें विचारने,सोचने,देखने,सुनने,स्पर्श,स्वाद लेने की क्षमता सुप्त हो जाती हैं, यानी चेतन मन भी और अवचेतन भी, उस वक्त ना हमें कोई भान होता है ना दिमाग में कोई चित्र होता है, ना कोई आभास होता है, यहां सिर्फ आत्मा जागृत रहती है, मन के अचेतन, भगवत व ब्रह्म चेतन स्वरुप जागृत रहते हैं|

2-जागृति के बाद जैसे ही हम सुप्त अवस्था में पहुंचते हैं तो हमें पता नहीं होता कि हमारे साथ क्या-क्या हो रहा है, सुप्त अवस्था में हमें समय का पता नहीं होता,सुप्त अवस्था के बाद सामान्यतः जागृत अवस्था आती है, लेकिन यदि सुप्त अवस्था स्थाई बन जाए, फिर जागृति की संभावना खत्म हो जाती है, और व्यक्ति मृत हो जाता है| यदि व्यक्ति न जागे न मृत हो और एक अन्य अवस्था में पहुंचा है, उस अवस्था को समाधि की अवस्था कहते हैं|सामान्य मनुष्य यदि सोते ही रह जाए तो मृत्यु की दशा में पहुंच जाएंगे, यानी उस वक्त उनकी आत्मा शरीर को छोड़कर बाहर हो जाएगी, और किसी अन्य जगत में प्रवेश कर जाएगी|

4. तुरीय----- तुरीय का अर्थ होता है "चौथी"

02 POINTS;- 1-चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं।यदि व्यक्ति सुप्त अवस्था में इंद्रियों और मन से मुक्त हो जाए तो सिर्फ आत्मसत्ता रह जाएगी और शरीर व आत्मा के बीच अन्य कोई नहीं रह जाएगा| इस अवस्था को तुरीय अवस्था कहते हैं| जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति अवस्था में आत्मा को विश्व से संपर्क बनाने के लिए मन और इंद्रियों की सहायता लेनी पड़ती है, लेकिन योग मार्ग से जब व्यक्ति तुरीय अवस्था में पहुंच जाता है, तो आत्मा, मन व इंद्रियों से मुक्त होकर सीधे विश्व के साथ संपर्क स्थापित कर लेती है| आत्मा के सिग्नल विश्व तक विश्व के सिग्नल आत्मा तक डायरेक्ट पहुंचने लगते हैं|

2-इसका कोई गुण नहीं होने के कारण इसका कोई नाम नहीं है। यह निर्गुण है, निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक यात्रा।

5. तुरीयातीत--------चेतना की पाँचवी अवस्था : तुरीय के बाद वाली

03 POINTS;- 1-यह अवस्था जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म इसी अवस्था में संभव हो पाता है।

2-अभी तक आत्मा ने जो भी कुछ देखा था वह मन और इंद्रियों के माध्यम से मिला था, यह ज्ञान, दृश्य,श्रव्य शुद्ध नहीं थे क्योंकि यह किसी माध्यम के जरिए आत्मा तक पहुंछे थे| जब माध्यम खत्म हो जाता है तो आत्मा को जो भी कुछ मिलता है वह विशुद्ध होता है| इसी को आत्मज्ञान की अवस्था कहते हैं, जहां ज्ञान पूर्ण रूप से सत्य शुद्ध और प्रमाणिक होता है| दोष और दुर्गुणों से मुक्त होता है|

3-योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था ''योग में स्थित हो कर कर्म करो''! इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों? अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि "कर्म तो होगा परन्तु संस्कार नहीं बनेगा।" इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना------- बस मैं और तुम वाली चेतना। चेतना की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है। भक्त को सारा संसार भगवन-मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने कहा था "जित देखौं तित श्याम-मई है"। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।

7. ब्राह्मी-चेतना------- एकत्व की चेतना चेतना की इस अवस्था में भक्त और भगवन का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का लोप हो जाता है। इसी अवस्था में साधक कहता है "अहम् ब्रह्मास्मि" मैं ही ब्रह्म हूँ।

चेतना के इस विकास-क्रम के सन्दर्भ में कबीर साहब ने कहा-

लाली मेरे लाल की जित देखों तित लाल लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल

शरीर में कुछ सूक्ष्म शरीर जैसा क्या है ?

12 FACTS;-

1-आत्‍मा तो वस्‍तुत: एक ही है। लेकिन शरीर दो प्रकार के है। एक शरीर जिसे हम स्‍थूल शरीर कहते है, जो हमें दिखाई देता है। एक शरीर जो सूक्ष्‍म शरीर है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्‍यु होती है, तो स्‍थूल शरीर तो गिर जाता है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर/subtle/सटल बॉडी है, वह नहीं मरती है। आत्‍मा दो शरीरों के भीतर वास कर रही है। एक सूक्ष्‍म और दूसरा स्‍थूल। मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर जो मिट्टी पानी से बना हुआ , जो हड्डी मांस मज्‍जा की देह है ..यह गिर जाती है। फिर अत्‍यंत सूक्ष्‍म विचारों का,सूक्ष्‍म तंतुओं का, सूक्ष्‍म वयब्रेशंस का शरीर शेष रह जाता है, ।

2-वह तंतुओं से घिरा हुआ शरीर आत्‍मा के साथ फिर से यात्रा शुरू करता है। और नया जन्‍म फिर नए स्‍थूल शरीर में प्रवेश करता है। तब एक मां के पेट में नई आत्‍मा का प्रवेश होता है, तो उसका अर्थ है सूक्ष्‍म शरीर का प्रवेश। मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है -सूक्ष्‍म शरीर नहीं। लेकिन परम मृत्‍यु के समय -जिसे हम मोक्ष कहते है -उस परम मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर के साथ ही सूक्ष्‍म शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्‍मा का कोई जन्‍म नहीं होता। फिर वह आत्‍मा विराट में लीन हो जाती है। वह जो विराट में लीनता है, वह एक ही है। जैसे एक बूंद सागर में गिर जाती है।

3-तीन बातें समझ लेनी जरूरी है। आत्‍मा का तत्‍व एक है। उस आत्‍मा के तत्‍व के संबंध में दो तरह के शरीर सक्रिय होते है। एक सूक्ष्‍म शरीर, और एक स्‍थूल शरीर। स्‍थूल शरीर से हम परिचित है, सूक्ष्‍म से योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते हैं, वे उससे परिचित होते है जो आत्‍मा है। सामान्‍य आंखें देख पाती है इस शरीर को। योग-दृष्‍टि, ध्‍यान देख पाता है सूक्ष्‍म शरीर को। लेकिन ध्‍यानातीत, बियांड योग, सूक्ष्‍म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है।

4-साधारण मनुष्‍य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्‍म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्‍मा का अनुभव है। परमात्‍मा एक है, सूक्ष्‍म शरीर अनंत हैं, स्‍थूल शरीर अनंत हैं। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वही नए स्‍थूल शरीर ग्रहण करता है। विद्युत तो एक है ; वह ऊर्जा, वह शक्‍ति, वह एनर्जी एक है। लेकिन दो अलग बल्‍ब से वह प्रकट हुई है। बल्‍ब का शरीर अलग-अलग है, उसकी आत्‍मा एक है।

5-हमारा अनुभव स्‍थूल देह तक ही रूक जाता है। यह जो स्‍थूल देह तक रूक गया अनुभव है, यहीं मनुष्‍य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्‍म शरीर पर भी रूक सकते हैं। जो लोग सूक्ष्‍म शरीर पर रूक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्‍माएं अनंत हैं। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर के भी आगे चले जाते है, वे कहेंगे कि परमात्‍मा एक है। आत्‍मा एक,

ब्रह्म एक है।इन दोनों बातों में कोई विरोधाभास नहीं है। जो आत्‍मा के प्रवेश के लिए कहा, उसका अर्थ है वह आत्‍मा जिसका अभी सूक्ष्‍म शरीर गिरा नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्‍मा परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध हो जाती है, उसका जन्‍म-मरण बंद हो जाता है। आत्‍मा का तो कोई जन्‍म-मरण है ही नहीं। वह न तो कभी जन्‍मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वह भी समाप्‍त हो जाने पर कोई जन्‍म-मरण नहीं रह जाता। क्‍योंकि सूक्ष्‍म शरीर ही कारण बनता है नए जन्‍मों का।

6-सूक्ष्‍म शरीर का अर्थ है, हमारे विचार, हमारी कामनाएँ, हमारी वासनाएं, हमारी इच्‍छाएं, हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, इन सबका जो संग्रहीभूत जो इंटिग्रेटेड सीड है, इन सबका जो बीज है, वह हमारा सूक्ष्‍म शरीर है। वही हमें आगे की यात्रा करता है। लेकिन जिस मनुष्‍य के सारे विचार नष्‍ट हो गए, जिस मनुष्‍य की सारी वासनाएं क्षीण हो गई, जिस मनुष्‍य की सारी इच्‍छाएं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्‍छा शेष न रही, उस मनुष्‍य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्‍म की कोई वजह नहीं रह जाती।

7-एक ही रास्ता है कि जीते-जी शरीर और शरीर की चेतना अलग हो सके। मरने पर तो होती ही है। लेकिन फिर, फिर कोई, फिर कुछ हमारे पास जानने का उपाय नहीं रह जाता। हमारे पास तो एक ही उपाय है कि उसके पीछे केंद्र हैं। और कोई व्यक्ति भावुक…शरीर के बाहर होने को अनुभव कर सके। यह जो अनुभव है, बहुत लोगों को कभी आकस्मिक रूप से हो जाता है–किसी गहरी बीमारी में, कभी कोई गहरी चोट लगने पर, कभी कोई एक्सीडेंट में, कभी कोई बहुत गहरे आघात में, कई बार अनायास यह घटना घट जाती है। प्रयास से भी घट सकती है। और रास्ते भी हैं उस प्रयोग को कर लेने के।

8-लेकिन इससे इतना ही सिद्ध होता है कि इस शरीर के भीतर ठीक इस शरीर जैसा सूक्ष्म शरीर भी है। इससे आत्मा अभी सिद्ध नहीं होती। यह जो दूसरा निकल जाता है, यह भी एक शरीर ही है। और ठीक इस शरीर जैसा ही, लेकिन अत्यंत सूक्ष्म कणों से निर्मित–ईथरिक। उस शरीर के बाहर भी निकलने का उपाय है, और तब जो अनुभव होता है वह अशरीरी अनुभव है, वह आत्मा का अनुभव है। तो यह ईथरिक बाॅडी का अनुभव तो एक्सीडेंटल

भी हो जाता है।कभी-कभी रात सोने में भी हो जाता है। और कुछ स्वप्न तो निश्चित ही ईथरिक बाॅडी की यात्रा/ईथरिक जर्नी के होते हैं ।बाॅडी बाहर ही चली गई होती है। ये सबके सब आकस्मिक भी हो सकते हैं, या थोड़े से प्रयास से हो सकते हैं।

9-इसमें कोई बड़े प्रयास की नहीं सिर्फ उन बिंदुओं को जानने की जरूरत है जहां से यह बाॅडी और ईथरिक बाॅडी जुड़ी हुई है।इस बाॅडी और उस बाॅडी के बीच जहां कांटेक्ट हो रहा है, उन्हीं बिंदुओं का नाम चक्र है। इसलिए चक्र इस बाॅडी के हिस्से नहीं हैं। सिर्फ कांटेक्ट

फील्ड हैं।यह जो इस बाॅडी और उस बाॅडी के बीच सेंटर का कांटेक्ट है, उनको ही योग चक्र कहता है। और उन सेंटर्स को जोड़ने वाली जो जिसे फील्ड कहना चाहिए, उस फील्ड को कुंडलिनी कहता है। सामान्य मनुष्य के भीतर ये दोनों बाॅडियां कई स्थानों पर एक-दूसरे को छू रही हैं। यह समझिए कि पांच पाॅइंट पर ये दोनों बाॅडी छू रही हैं। ये जो पाॅइंट हैं, ये कहीं शरीर को काटने से पता नहीं चल सकते हैं। क्योंकि सिर्फ कांटेक्ट फील्डस हैं।वहां कोई चीज

नहीं है ।

10- ये जो चार या पांच या सात जो कांटेक्ट फील्ड हैं, ये सब अगर आपस में जुड़ जाएं, यानी इनको जोड़ने वाली जो मैग्नेटिक फोर्स है, वह आपस में भी जुड़ जाए, तो कुंडलिनी का अनुभव हो जाता है। कुंडलिनी के अनुभव का कुल मतलब यह है, कि यह जो अलग-अलग कांटेक्ट हो रहा है, इनके कांटेक्ट होती पांचों - सातों जगह में जो शक्ति इकट्ठी हो गई है, वह जुड़ जाए। और इन पांचों के कांटेक्ट को या सातों के कांटेक्ट को जोड़ने के और अलग करने के मेथड्स भी हैं। तो इन उपायों के द्वारा बहुत आसानी से दोनों शरीर अलग हो सकते हैं। अलग होते ही, इतना तो तय हो जाता है कि इस शरीर के मरने से ही सब कुछ नहीं मर जाता है।

11-हां, कभी - कभी यह खतरा है और कई बार ऐसा हो सकता है कि इस कोशिश में इनको वापस न जोड़ा जा सके। लेकिन आमतौर से, ऐसा खतरा नहीं है। कुछ कारणों में यह हालत हो सकती है कि अगर बाॅडी ऐसी हालत में हो, कि उसके कुछ हिस्से अगर बिलकुल खराब हो गए हों या अब काम न कर सकते हों, और कांटेक्ट के हटते ही वे डिसइंटीग्रेट होने शुरू हो जाएं तो वापस जुड़ना मुश्किल हो जाएगा। और इसीलिए हठयोग ने शरीर पर इतना जोर दिया।इसीलिए शरीर को इतना साधने की चेष्टा की गई, कि दूसरे शरीर के अलग हो जाने पर शरीर के अस्तव्यस्त होने का कोई डर न हो। तो वापस जुड़ जाने में अड़चन नहीं है।

और जो इस शरीर से उस शरीर को बहुत जान कर अलग करता है, उसे तो बहुत कठिनाई

नहीं है। क्योंकि वह जिस माध्यम से अलग होता है, उसी के विपरीत माध्यम से जुड़ जाता है।

12-ध्‍यान से भी जब व्‍यक्‍ति ऊपर उठ जाता है। तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्‍मा का अनुभव है।हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही

है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना के झांकने में दो उपकरणों का, दो वैहिकल का प्रयोग किया गया है। एक सूक्ष्‍म उपकरण है, सूक्ष्‍म देह:दूसरा उपकरण है,

स्‍थूल देह।हमारा अनुभव स्‍थूल देह तक ही रूक जाता है। यह जो स्‍थूल देह तक रूक गया अनुभव है, यहीं मनुष्‍य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्‍म शरीर पर भी रूक सकते है। जो लोग सूक्ष्‍म शरीर पर रूक जाते है। वे ऐसा कहेंगें की आत्‍माएं अनंत है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर के भी आगे चले जाते है। वे कहेंगे की परमात्‍मा एक है..आत्‍मा ,ब्रह्म एक है।

...SHIVOHAM..

और ध्यान के गहरे प्रयोगों में कभी-कभी आकस्मिक रूप से किसी को भी हो सकता है।

....SHIVOHAM....

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