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साधक और उपासक में क्या अंतर है?

साधक और उपासक में क्या अंतर है?

15 FACTS;-

1-साधक में कुछ खोना नहीं है , पाना है और उपासक में सिवाय खोने के कुछ भी नहीं है।उपासना का मतलब होता हैः उसके पास बैठना और जितना द्वैत होगा उतनी दूरी रहेगी। उतनी उपासना कम होगी। जितना अभेद होगा उतने ही उसके निकट हम बैठ पाएंगे। उपवास का भी वही अर्थ होता है, उसके निकट रहना। उसका मतलब भी भूखे मरना नहीं

होता।और अगर उसकी निकटता में थोड़ी भी दूरी रही तो दूरी है। तो उसके निकट तो हम वही होकर ही हो सकते हैं। कितनी भी निकटता रही, तो भी दूरी रही। निकटता भी दूरी का ही नाम है। या कम दूरी का नाम ज्यादा दूरी का नाम। तो ठीक निकट तो हम तभी हो सकते हैं जब हम वही हो जाएं।

2-श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में साधना जैसा कुछ भी नहीं है। साधना में जो मौलिक तत्व है, वह प्रयास है, इफर्ट है। बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती। दूसरा जो अनिवार्य तत्व है, वह अस्मिता है, अहंकार है। बिना 'मैं' के साधना नहीं हो सकती। करेगा कौन? कर्ता के बिना साधना कैसे होगी, कोई करेगा तभी होगी। जिनके लिए कोई परमात्मा नहीं है, आत्मा ही है, 'साधना' शब्द उनका है। आत्मा साधेगी और पाएगी।

3-उपासना शब्द बिल्कुल उलटे लोगों का है। आमतौर से हम दोनों को एक साथ चलाए जाते हैं। उपासना शब्द उनका है, जो कहते हैं कि आत्मा नहीं, परमात्मा है। सिर्फ उसके पास जाना, पास बैठना—उप-आसन, निकट होते जाना, निकट होते जाना। और निकट होने का अर्थ है, खुद मिटते जाना, और कोई अर्थ नहीं है। हम उससे उतने ही दूर हैं, जितना परम सत्य से हमारी दूरी है।जितना हमारा मैं है, ईगो है, हमारी आत्मा है, उतने ही हम दूर हैं। जितने हम खोते हैं और विगलित होते हैं, पिघलते हैं और बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं। जिस दिन हम बिलकुल नहीं रह जाते, उस दिन उपासना पूरी हो जाती है और हम परमात्मा हो जाते हैं। जैसे बर्फ पानी बन रहा हो, बस उपासना ऐसी है कि बर्फ पिघल रहा है, पिघल रहा है...

4-साधक साधना करेगा तो और सख्त होता चला जाएगा। क्योंकि साधना का मतलब होगा कि 'बर्फ अपने को बचाए' कि बर्फ अपने को सख्त करे; कि बर्फ और क्रिस्टलाइज्ड हो जाए ; कि बर्फ और आत्मवान बने ; कि बर्फ अपने को बचाए और खोए न।साधना का अर्थ अंततः आत्मा हो सकता है।

उपासना का अर्थ अंततः परमात्मा है। इसलिए जो लोग साधना से जाएंगे, उनकी आखिरी मंजिल आत्मा पर रुक जाएगी। उसके आगे की बात वे न कर सकेंगे। वे कहेंगे, अंततः हमने अपने को पा लिया। उपासक कहेगा, अंततः हमने अपने को खो दिया। ये दोनों बातें बड़ी उलटी हैं।उपासक बर्फ की तरह पिघलेगा और पानी की तरह खो जाएगा। साधक तो मजबूत होता चला जाएगा।

5-इसलिए श्रीकृष्ण के जीवन में साधना का कोई तत्व ,कोई अर्थ नहीं है। अर्थ तो उपासना का है। उपासना की यात्रा ही उलटी हैं। उपासना का मतलब ही यह है कि हमने अपने को पा लिया, यही भूल है। हम हैं, यही गलती है। टू बी इज़ दि ओनली बांडेज। होना ही एकमात्र बंधन है। न होना ही एकमात्र मुक्ति है। साधक जब कहेगा तो वह कहेगा, मै मुक्त होना चाहता हूं। उपासक जब कहेगा तो वह कहेगा, मैं 'मैं' से मुक्त होना चाहता हूं। साधक कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं। मैं मोक्ष पाना चाहता हूं । लेकिन 'मैं' मौजूद रहेगा। उपासक कहेगा, 'मै' से मुक्त होना है। 'मैं' से मुक्ति पानी है। उपासक के मोक्ष का अर्थ है, 'ना-मैं' की स्थिति। साधक के मोक्ष का मतलब है, 'मैं' की परम स्थिति। इसलिए श्रीकृष्ण की भाषा में साधना के लिए कोई जगह नहीं है; उपासना के लिए जगह है।

6-अब यह उपासना क्या है, इसे समझें।पहली बात... उपासना साधना नहीं है, और उपासक हममें से बहुत कम लोग होना चाहेंगे, यह भी ख्याल में ले लें। साधक हममें से सब होना चाहेंगे। क्योंकि साधक में कुछ खोना नहीं है, पाना है। और उपासक में सिवाय खोने के कुछ भी नहीं है, पाना कुछ भी नहीं है।बस, खोना ही पाना है। इसलिए कृष्ण को मानने वाले भी साधक हो जाते हैं। क्योंकि वह भीतर जो अहंकार है, वह साधना की भाषा बुलवाता है।वह कहता है, उपासना बड़ी कठिन बात है, इससे ज्यादा कठिन कोई बात नहीं है -पिघलो, मिटो, खो जाओ।

7-वह तो एक है , हम जितना साक्षीभाव में जाएंगे, उतना ही जो द्वैत है उसको छोड़ते हैं।और जिस दिन यह पूरा हो जाएगा उस दिन साक्षीभाव भी

विलीन हो जाएगा।क्योंकि साक्षीभाव में भी द्वैत की अंतिम सीमा बाकी है। जैसे ही दृश्य से मुक्त हो गए, द्रष्टा भी गया। फिर तो वही रह गया। न वहां कोई दृश्य है, न वहां कोई द्रष्टा है। और यही उपासना का वास्तविक अर्थ होगा।

8-ध्यान उपासना ऐसी घटना है। जब हम प्रक्रिया की बात में पड़ते हैं, तो निश्चित ही चलते-चलते होगा, लेकिन चलते-चलते से नहीं होगा, चलते-चलते की जो असफलता है, जो विफलता है कि चलते हैं और मंजिल नहीं मिलती है। और किसी दिन आप थक कर बैठ जाएंगे और कह देंगे, अब नहीं चलता है, न कोई रास्ता है, न कोई मंजिल है, और न मैं हूं, और कुछ नहीं होने वाला है। जिस दिन इतनी हेल्पलेस, असहाय अवस्था होगी, उस दिन हो जाता है। उस दिन जो होता है, उस दिन जो होता है वह आपके चलने का परिणाम नहीं है।

9-यह मान्यता है कि आत्मा सहज है।अब इसके मान लेने से बड़ी कठिनाई खड़ी होगी, यह अनुभव ही बन सकता है कि आत्मा सहज है या नहीं, यह मान्यता नहीं बन सकती। और जिस दिन अनुभव बनेगी, उस दिन हमें दिखाई पड़ेगा कि इसे हम कभी भी मान्यता बना कर पा नहीं सकते थे। यह हम पर उतरी हुई घटना होगी।

10-उदाहरण के लिए एक जर्मन विचारक, झेन फकीर के पास धनुर्विद्या सीख रहा था। और उस फकीर का कहना था कि धनुर्विद्या के माध्यम से मैं तुझे ध्यान के इशारे करवा दूंगा। क्योंकि झेन फकीर कहता है कि ''जो सहज है उसका डायरेक्ट इंडिकेशन नहीं हो सकता। इसलिए मैं सीधा ध्यान नहीं करवा सकता ।तू कुछ और कर, इस करने में किसी दिन न करने का कोई क्षण होगा तो वह मैं तुझे इशारा करूंगा कि ध्यान ऐसा है''।तो यह व्यक्ति निष्ठा से धनुर्विद्या सीखने लगा कि डेढ़ साल में इसके सब सत-प्रतिशत निशाने अचूक लगने लगे।

11-तब इसने अपने गुरु से कहा कि निशाने अचूक लगने लगे हैं, अब मुझे

कुछ दे दो।तो उसके गुरु ने कहाः निशाने तो अचूक लगने लगे, लेकिन वह क्षण अभी नहीं आ रहा जिस पर मैं इशारा करूं कि ध्यान कैसा होता है।

तो उसने कहाः वह क्षण कब आएगा, अब निशाने तो सब पूरे लगने लगे। मैं तो सोचता था धनुर्विद्या सीख लूंगा, तो ध्यान की तरफ इशारा हो जाएगा। तो उसके गुरु ने कहा कि नहीं, वह मौका ही नहीं आ रहा। तू अभी भी तीर चलाता है, अभी भी तुझसे तीर चल नहीं रहा है। अभी भी एफर्ट है। अभी भी तू साधता है, निशाना लगाता है। अभी भी तेरा चित्त तीर के चलाते वक्त खिंचता है। मैं उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा हूं किसी दिन तुझसे तीर चलता हो, तू चला न रहा हो, सहज चल रहा हो, तेरे मन में कोई खिंचाव न हो, तो मैं तुझे इशारा करूं कि ध्यान कुछ ऐसा होता है।

12-डेढ़ साल और बीत गया और वह रोज कहने लगा कि निशाना मेरा बिलकुल ठीक लग रहा है और सब ठीक है, अब कोई भूल-चूक भी नहीं रह गई, अब वह इशारा कब होगा? उसके गुरु ने कहा कि तू बात ही नहीं समझ पा रहा है, निशाना लगाने से हमारा प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन यह है कि तू तीर ऐसे चला सके ...जैसे आकाश में चील तैरती है पंखों को छोड़ कर,फिर तैरती नहीं, कोई प्रयास नहीं करती, बस छोड़ देती है। मैं ऐसे किसी क्षण की तलाश में हूं।

13-तीन साल बीत गए, वह थक गया। और जर्मन दिमाग जो एफर्ट के अतिरिक्त कुछ सोच नहीं सकता और नो-एफर्ट की बात जिसके पकड़ के बाहर है। आखिर उसने कहाः मुझे क्षमा करें, मैं वापस लौट जाऊं, क्योंकि मेरे बस के बाहर है। और मुझे यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ता है। क्योंकि जब मैं तीर चलाऊंगा तो मैं चलाऊंगा ही, बिना चलाए मेरा तीर चलेगा कैसे? और जब मैं निशाना लगाऊंगा तो लगाऊंगा ही। और डूअर तो मौजूद रहेगा, करने वाला मौजूद रहेगा। तो कल मैं वापस जाता हूं, क्षमा करें, आप एक सर्टिफिकेट तो लिख देंगे न कि मैं तीर चलाना सीख गया।

14-उसके गुरु ने कहा मैं न लिख सकूंगा, क्योंकि अभी तुझसे तीर नहीं चला है। अभी तू चलाए ही चला जा रहा है, अभी सिर्फ अभ्यास ही है। तो अभी मैं तुझको तीरंदाज नहीं कह सकता। तीरंदाज तो वह है जो तीर न चलाए और तीर चल जाए। तब तो वह और हैरान हो गया, दूसरे दिन सुबह वह विदा लेने गया, तो वह गुरु दूसरों को सिखा रहा था। वह कुर्सी पर बैठ गया और देखता रहा। आज पहली दफा वह सीखने नहीं आया था, जाने की तैयारी मैं था, विदा लेने आया था। इसलिए बैठा था रिलैक्स।

15-उसने गुरु को कमान उठाते देखा, उसने तीर चलाते देखा। आज पहली दफा वह करने के खयाल में नहीं था। और उसे दिखाई पड़ा कि फर्क गहरा है। वह आदमी कमान उठा नहीं रहा है, कमान जैसे उठ रही है। वह आदमी तीर चला नहीं रहा है, तीर जैसे चल रहा है। जैसे चलाने वाला और चलने वाले में कोई फासला नहीं है, वह एक ही घटना है। डूअर नहीं है पीछे, सिर्फ हैपनिंग ही रह गई है। वह उठा वहां से, उसने गुरु के हाथ से कमान लिया, तीर लिया और चलाया। और उसके गुरु ने कहा कि सर्टिफिकेट मैं तेरे लिए दे दूंगा। आज तू नहीं है और तीर चला है।

....SHVOHAM....

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