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क्या है महृषि पतंजलि केआसन और प्राणायाम के योगसूत्र ?


योगसूत्र;-

1-''स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है''।

2-''प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है''।

3-''जब आसन सिद्ध हो जाता है, तब द्वंदों से उत्‍पन्‍न

अशांति की समाप्‍ति होती है''।

4-''आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम।

यह सिद्धि होती है श्‍वास और प्रश्‍वास पर कुंभक करने से,

या अचानक श्‍वास को रोकने से''।

5-उपरोक्‍त प्राणायामों की अवधि आवृति देश,काल और

संख्‍या के अनुसार ज्‍यादा लंबी और सूक्ष्‍म होती है।

6-प्राणायाम का चौथा प्रकार आंतरिक होता है और

वह प्रथम तीन के पार जाता है।

योगसूत्रों का महत्व;-

06 FACTS;-

1-हर कोई थक जाता है जीवन के एक ही ढांचे से -वही उबाऊ दिनचर्या, वही रोज का थकान भरा चक्कर, फिर और फिर वही बात, एक पुनरुक्ति -लेकिन तुम जीवन से ही नहीं थके होते।बहुत बार तुमने भी सोचा है कि खतम करें इस अंतहीन बकवास को। किसलिए चला रहें है इसे? लेकिन यदि मृत्यु अचानक तुम्हारे सामने आ जाए तो तुम तैयार न होओगे।ऐसी घड़ियां होती है जब तुम मर जाना चाहते हो। लेकिन मरना एक कला है, इसे सीखना पड़ता है। और जीवन से थकने का अर्थ सच में ही यह नहीं होता कि गहरे में जीवन के प्रति तुम्हारी लालसा मिट चुकी हो। तुम शायद थक गए हो किसी एक ढंग के जीवन से, लेकिन तुम जीवन मात्र से नहीं थके हो।

2-केवल योगी ही मरने के लिए तैयार हो सकता है, क्योंकि केवल योगी ही जानता है कि मृत्यु को स्वेच्छा से स्वीकार करने से अनंत जीवन का द्वार खुल जाता है ; कि मृत्यु एक द्वार है; वह अंत नहीं है। असल में वह शुरुआत है।मृत्यु के द्वार से सनातन जीवन, शाश्वत जीवन प्रवेश करता है।उसके पार खुलता है ब्रह्माण्ड का अनंत विस्तार। असल में उसके पार तुम पहली बार सच में प्रामाणिक रूप से जीवंत होते हो। न केवल तुम्हारा शारीरिक हृदय धड़कता है, बल्कि तुम ही धड़कते हो। न केवल तुम बाहरी चीजों का सुख लेते हो, तुम भीतर के आनंद में भी डुबकी लगाते हो।

3-प्रत्येक व्यक्ति मरता है, लेकिन तब मृत्यु तुम्हारा चुनाव नहीं होती।तब तो मृत्यु तुम पर जबरदस्ती थोपी गई होती है ,तुम्हारी मर्जी नहीं होती है : तुम प्रतिरोध करते हो, चीखते -चिल्लाते हो, रोते हो; तुम थोड़ी देर और रुके रहना चाहते हो ...इस धरती पर, इस शरीर में। तुम भयभीत होते हो। तुम अंधेरे के सिवाय, अंत के सिवाय और कुछ नहीं देख पाते। प्रत्येक व्यक्ति बिना मर्जी के मरता है, लेकिन तब मृत्यु द्वार नहीं होती है। तब तो तुम भयभीत होकर आंखें बंद कर लेते हो।

4-जो लोग योग के मार्ग पर हैं, उनके लिए मृत्यु एक स्वैच्छिक घटना है, वे सहर्ष स्वीकार करते हैं उसे। वे आत्मघाती ,जीवन -विरोधी नहीं हैं; वे विराट जीवन के पक्ष में हैं। वे विराट जीवन के लिए अपने क्षुद्र जीवन को छोड़ते हैं। वे अपना अहंकार छोड़ते हैं ...ज्यादा बड़ी आत्मा के लिए। वे अपनी आत्मा भी छोड़ देते हैं परमात्मा के लिए। वे सीमित को छोड़ते हैं असीमित के लिए। और यही तो विकास है कि जो तुम्हारे पास है उसे छोड़ते जाना; उसके लिए... जो कि संभव ही तभी होता है जब तुम खाली होते हो, तुम्हारे पास कुछ नहीं होता है।

5-महृषि पतंजलि की सारी कला यही है कि कैसे उस अवस्था को उपलब्ध हो जाओ... जहां तुम स्वेच्छापूर्वक मर सको, प्रसन्नतापूर्वक, बिना किसी प्रतिरोध के समर्पण कर सको। ये सूत्र तैयारी हैं, तैयारी हैं मरने के लिए और तैयारी हैं विराट जीवन के लिए।शरीर एक वाद्य -यंत्र की भाति है..एक वीणा है। उसके तार ठीक कसे होने चाहिए; केवल तभी उससे अदभुत संगीत पैदा होगा। यदि वाद्य -यंत्र ही ठीक स्थिति और ठीक व्यवस्था में नहीं है, तो कैसे तुम कल्पना कर सकते हो कि उससे मधुर संगीत उठेगा ...केवल शोरगुल ही होगा।

6-महृषि पतंजलि के योग की बहुत गलत व्याख्या हुई है ;वे कोई व्यायाम नहीं सिखा रहे हैं, लेकिन योग ऐसा मालूम पड़ता है जैसे वह शरीर का व्यायाम मात्र हो।वे तुम्हें शरीर को तोड़ना -मरोड़ना नहीं ; शरीर का सौंदर्य सिखा रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि एक सुंदर शरीर में ही एक सुंदर मन हो सकता है; और केवल सुंदर मन में ही सुंदर आत्मा संभव है; और केवल सुंदर आत्मा में ही परमात्मा उतर सकता है। एक एक कदम सौंदर्य में गहरे उतरना होता है। शरीर के सौंदर्य, शरीर के प्रसाद को ही वे आसन कहते हैं।वे तुम्हें अपने शरीर को सताना नहीं सिखा रहे हैं। वे शरीर के जरा भी विरुद्ध नहीं हैं। वे जानते हैं कि शरीर ही बुनियाद है । यदि तुम शरीर को प्रशिक्षित नहीं करते, तो और ऊंचा प्रशिक्षण संभव न होगा।

योगसूत्र;-

1-'स्थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है।’-

10 FACTS;-

1-बहुत लोगों के लिए जमीन पर बैठना, पद्यासन में बैठना कठिन है, उनके शरीर इसके लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। तो इस बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पतंजलि कोई भी आसन तुम पर जबरदस्ती थोपना नहीं चाहते। यदि तुम पतंजलि की व्याख्या पर ध्यान दो कि आसन क्या है, तो तुम समझ जाओगे कि उसे स्थिर और आरामदेह होना चाहिए।कभी उन आसनों के लिए कोशिश मत करना जो सुखद नहीं हैं।

2-यदि तुम कुर्सी में स्थिर और आराम से बैठ सकते हो, तो बिलकुल ठीक है। पद्यासन में बैठने का प्रयत्न जरूरी नहीं है और व्यर्थ ही शरीर को इसके लिए सताने की जरूरत नहीं है।बहुत व्यक्ति पद्यासन में बैठने की कोशिश करे तो उसके शरीर को अभ्यास करने में छह महीने लगते हैं; और वह परेशान हो जाते है।आसन ऐसा होना चाहिए कि तुम अपने शरीर को

भूल सको। आरामदेह होने का मतलब है ...जब तुम अपने शरीर को भूल जाते हो, तब तुम आराम में होते हो। जब तुम्हें बार -बार शरीर की याद आती है, तब तुम आराम में नहीं हो।

3-तो चाहे तुम कुर्सी पर बैठो या चाहे जमीन पर ; सवाल उसका नहीं है। आराम में रहो, क्योंकि यदि तुम शारीरिक रूप से आराम में नहीं हो, तो तुम दूसरी धन्यताओं की आकांक्षा नहीं कर सकते जो ज्यादा गहरी पर्तों से संबंधित हैं; यदि पहली पर्त चूक जाती है, तो दूसरी सब पर्तें बंद रहती हैं। यदि तुम सच में ही प्रसन्न और आनंदित होना चाहते हो, तो एकदम प्रथम से ही आनंदित होना प्रारंभ करना। जो व्यक्ति भीतर के आनंद की तलाश में है उसके लिए शरीर का आराम एक मूलभूत आवश्यकता है।

4-और जब भी आसन सुखद होता है तो वह स्थिर होगा ही।यदि आसन आरामदेह न हो तो तुम बेचैनी अनुभव करते हो ,हिलते -डुलते रहते हो। यदि आसन सचमुच आरामदेह है, अशांत होने की ,बेचैन होने की और बार -बार हिलने -डुलने की जरूरत ही नहीं है।प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर अनूठी आत्मा है।तुम्हारे अंगूठे की छाप तक अनूठी है, बेजोड़ है। तुम संसार भर में कोई दूसरा आदमी नहीं खोज सकते जिसके अंगूठे का निशान बिलकुल तुम्हारे जैसा हो।

5-और जो आसन तुम्हारे लिए आरामदेह है, हो सकता है कि वह दूसरे के लिए आरामदेह न हो। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। जो चीज तुम्हारे लिए सुखद हो सकती है शायद वह दूसरे के लिए सुखद न हो।और न केवल आज

;तुम पूरे पिछले इतिहास में ऐसा व्यक्ति नहीं खोज सकते जिसके अंगूठे का निशान तुम्हारे जैसा हो। और जो जानते हैं, वे कहते हैं, भविष्य में भी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसके अंगूठे का निशान तुम्हारे जैसा हो। अंगूठे का निशान कोई खास बात नहीं है, कोई महत्व नहीं है उसका, लेकिन फिर भी वह बेजोड़ है। इससे पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक अनूठी आत्मा है। यदि तुम्हारे अंगूठे का निशान भी दूसरे से इतना अलग है, तो तुम्हारा शरीर, तुम्हारा पूरा शरीर जरूर ही अलग होगा।

6-आसन सीखने के लिए किसी शिक्षक के पास जाने की जरूरत नहीं; सुख

की तुम्हारी अपनी अनुभूति ही शिक्षक है। तो अपना आसन ढूंढ लेना, अपना योग पहचान लेना।और कभी बंधे -बंधाए नियमों का अनुसरण मत करना, क्योंकि नियम औसत के लिए बने होते हैं।औसत व्यक्ति कहीं होता नहीं।’ औसत' संसार की सबसे झूठी बात है। कोई व्यक्ति औसत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है; कोई औसत नहीं है। औसत गणित की दुनिया की बात है -वह सत्य ,वास्तविक नहीं है।सारे नियम औसत के लिए बने होते

हैं।वे अच्छे हैं किसी विशेष बात को समझने के लिए,लेकिन उनका

अनुसरण बिलकुल मत करना, अन्यथा तुम बेचैनी अनुभव करोगे।

7-जो व्यक्ति औसत का अनुसरण करने की कोशिश करता है वह चूकेगा।

औसत एक गणितीय घटना है, और गणित कहीं अस्तित्व नहीं रखता समग्र अस्तित्व में। वह केवल मनुष्य -मन की ईजाद है। यदि तुम अस्तित्व में गणित को खोजने की कोशिश करो तो तुम उसे कहीं नहीं पाओगे। इसीलिए गणित एकमात्र पूर्ण विज्ञान है, क्योंकि वह नितांत असत्य है। केवल असत्य के साथ ही तुम परिपूर्ण हो सकते हो। वास्तविकता तुम्हारे नियमों की, निर्धारित व्यवस्थाओं की फिक्र नहीं करती। वास्तविकता अपने ढंग से चलती है। गणित एक पूर्ण विज्ञान है, क्योंकि वह बौद्धिक है, मनुष्य निर्मित है। यदि मनुष्य खो जाए पृथ्वी से, तो गणित सबसे पहले खो जाएगा। बाकी दूसरी चीजें तो बनी रह सकती हैं, लेकिन गणित नहीं बच सकता।

8-सारे नियम और अनुशासन औसत के लिए हैं; और औसत कोई है नहीं। और औसत कोई हो भी नहीं सकता। व्यक्ति को अपना रास्ता खोजना होता है। औसत को समझने के लिए उसका उपयोग कर लेना और भूल जाना उसके विषय में। उससे थोड़ा इशारा मिल सकता है, लेकिन सुनिश्चित

समझ नहीं मिल सकती।महृषि पतंजलि जैसे व्यक्ति कभी नियम नहीं देते; वे केवल इशारे देते हैं, संकेत देते हैं।संस्कृत का मूल पाठ कहता है ..स्थिर सुखम् आसनम्—कहीं कोई 'चाहिए' नहीं है। तुम्हें संकेत का अर्थ अपने अंतस में खोलना पड़ता है। तुम्हें अनुभव करना है उसे, समझना है और प्रयोग करना है उसे, तब तुम नियम तक पहुंचोगे। लेकिन वह नियम केवल तुम्हारे लिए होगा -किसी और के लिए नहीं।जिस क्षण तुम 'चाहिए' बीच में ले आते हो, चीजें कठिन हो जाती हैं।

9-यदि लोग इस बात पर ध्यान रख सकें, तो यह संसार बहुत ही सुंदर संसार होगा ;कोई किसी को कुछ करने के लिए मजबूर नहीं कर रहा होगा; कोई किसी दूसरे को अनुशासित करने की कोशिश नहीं कर रहा होगा। क्योंकि तुम्हारा अनुशासन तुम्हारे लिए ठीक रहा होगा, वह किसी दूसरे के लिए जहर हो सकता है। जरूरी नहीं है कि तुम्हारी औषधि सबके लिए औषधि हो। उसे दूसरों को मत देना। लेकिन मूढ़ व्यक्ति सदा नियमों

द्वारा जीते हैं।मूढ़ मन नकल करता रहता है। मूढ़ मत बनो। इन सूत्रों को इशारों की तरह समझो। उन्हेंअपनी समझ का हिस्सा बनने दो , लेकिन उनकी नकल करने की कोशिश मत करो। उन्हें अपने भीतर गहरे उतरने दो ताकि वे तुम्हारी समझ बन जाएं; और फिर तुम खोज लेना अपना मार्ग। गहरी शिक्षा हमेशा परोक्ष होती है।

10-प्रत्येक व्यक्ति की सुख की स्वाभाविक इच्छा होती है और योग सर्वाधिक स्वाभाविक है।और जब भी तुम आराम में नहीं होते तो तुम उस स्थिति को बदलना चाहोगे ...यह स्वाभाविक है। तो सदा अपने भीतर की सहज-स्वाभाविक अनुभूति को सुनना। वह करीब -करीब हमेशा सही होती है।यदि तुम्हारा शरीर गहन सुख में, गहन विश्राम में होता है, अच्छा अनुभव कर रहा होता है, एक स्वास्थ्य घेरे होता है तुमको : तो वही निर्णय का मापदंड,कसौटी होनी चाहिए। और यह खड़े हुए संभव है, यह बैठे हुए संभव है, यह लेटे हुए संभव है। यह कहीं भी संभव है, क्योंकि यह आंतरिक अनुभूति है सुख की, आराम की।

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2-''प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है''।

16 FACTS;-

1-क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि जब तुम किसी थिएटर में कोई फिल्म देखने जाते हो तो कितनी बार तुम अपने बैठने का ढंग बदलते हो?अगर पर्दे पर कोई बहुत सनसनीखेज सीन चल रहा होता है, तो तुम कुर्सी पर आराम से टिके हुए बैठे नहीं रह सकते। तुम सीधे बैठ जाते हो; तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाती है। अगर कुछ उबाऊ बात चल रही होती है , तो तुम शिथिल रहते हो। अगर कुछ बहुत ही अप्रीतिकर सीन चल रहा होता है, तो तुम बार -बार अपना बैठने का ढंग बदलते हो। अगर सच में कोई सुंदर बात वहां चल रही होती है, तो तुम्हारी आँख का झपकना तक रुक जाता है; कोई गति नहीं होती, तुम बिलकुल स्थिर हो जाते हो, अकंप, जैसे कि शरीर हो ही नहीं।क्या तुमने इन बातों के आपसी संबंध को देखने की कोशिश की है?

2-तो आसन की सिद्धि में पहली बात है... प्रयास की शिथिलता, जो इस संसार की सर्वाधिक कठिन बातों में से एक है।यदि तुम उसे समझ लेते हो तो बहुत सरल है, यदि तुम नहीं समझते तो बहुत कठिन है। यह किसी अभ्यास की बात नहीं है; समझ की बात है।फ्रांसीसी मनोवैज्ञानिक

एमाइल कुए ने एक विशिष्ट नियम खोजा है'' लॉ आफ रिवर्स इफेक्ट'' /'विपरीत प्रभाव का नियम'। वह मनुष्य मन की सर्वाधिक आधारभूत बातों में से एक है। कुछ चीजें हैं जिन्हें यदि तुम करना चाहते हो, तो कृपया उन्हें करने की कोशिश मत करना, अन्यथा विपरीत प्रभाव होगा।उदाहरण

के लिए, तुम्हें नींद नहीं आ रही है तो प्रयास मत करना नींद लाने का। यदि तुम प्रयास करते हो, तो नींद और मुश्किल हो जाएगी। यदि तुम बहुत ज्यादा प्रयास करते हो तो नींद असंभव हो जाएगी, क्योंकि प्रत्येक प्रयास नींद के विपरीत है।

3-नींद तभी आती है जब कोई प्रयास नहीं होता। तुम बस विश्राम में होते हो और कुछ नहीं। तुम नींद के विषय में सोच तक नहीं रहे होते। कुछ चित्र गुजरते हैं मन से... तुम उन्हें तटस्थ भाव से देखते हो, तुम्हें उनमें भी कोई बहुत ज्यादा रस नहीं होता है , क्योंकि यदि रस पैदा हो जाए तो नींद खो जाती है। बस तुम उनसे अलग बने रहते हो, लेटे रहते हो, विश्राम कर रहे होते हो, कोई लक्ष्य नहीं होता और नींद आ जाती है।अगर तुम कोशिश

करने लगो कि नींद आनी ही चाहिए, तो जब यह 'चाहिए' बीच में आ जाता है तो बात करीब -करीब असंभव हो जाती है। तब तुम सारी रात जागते रह सकते हो। और यदि तुम्हें नींद आ भी जाती है, तो केवल इसीलिए कि तुम प्रयास द्वारा थक जाते हो और जब कोई प्रयास नहीं रहता ;तब नींद आ जाती है।

4-एमाइल कुए ने अभी इसी सदी में ही 'विपरीत प्रभाव का नियम' खोजा। पतंजलि इसे करीब पांच हजार वर्ष पहले ही जानते थे। वे कहते हैं ,प्रयत्न शैथिल्य -प्रयास की शिथिलता। 'यदि तुम बहुत ज्यादा प्रयास करते हो, तो यह संभव नहीं होगा। अप्रयास में ही यह घटता है।’सारे प्रयास छूट जाने

चाहिए पूरी तरह से, क्योंकि प्रयास संकल्प का ही हिस्सा है और संकल्प समर्पण के विपरीत है। यदि तुम कुछ 'करने' की कोशिश करते हो, तो तुम परमात्मा को नहीं करने दे रहे हो। जब तुम समर्पण कर देते हो, जब तुम कह देते हो, ''ठीक है; तेरी मर्जी पूरी हो। अगर तुम नींद को भेज रहे हो, बिलकुल ठीक। अगर तुम नहीं भेज रहे हो तो , वह भी ठीक। मेरी कोई शिकायत नहीं... मैं कोई शिकायत नहीं करता। तुम बेहतर जानते हो। अगर मेरे लिए नींद जरूरी है तो भेज दो। अगर नहीं जरूरी है तो मत भेजो। कृपया, मेरी मत सुनो! तुम्हारी मर्जी पूरी होनी चाहिए।’' इसी भांति कोई प्रयास को छोड़ता है।

5-अप्रयास एक अदभुत घटना है। एक बार तुम यह जान लेते हो तो लाखों बातें तुम्हारे लिए संभव हो जाती हैं। प्रयास से मिलता है बाजार; अप्रयास से मिलता है परमात्मा। प्रयास से तुम कभी नहीं पहुंच सकते निर्वाण तक ...तुम नई दिल्ली पहुंच सकते हो, लेकिन निर्वाण तक नहीं। प्रयास से तुम संसार की वस्तुएं पा सकते हो; वे कभी बिना प्रयास के नहीं मिलती । यदि तुम ज्यादा धन की तलाश में हो, तो यह मत सुनना ।संसार के मार्ग हैं

हिंसा और संकल्प के मार्ग। यदि तुम संकल्प को शिथिल कर देते हो , तो तुम हटा दिए जाओगे; कोई छलांग लगा कर तुम्हारे ऊपर चढ़ जाएगा।

तुम साधन बना दिए जाओगे।

6-यदि तुम संसार के मार्गों पर सफल होना चाहते हो, तो कभी मत सुनना पतंजलि जैसे लोगों की, तो बेहतर है मैक्यावेली को, चाणक्य को पढना—जो संसार के सर्वाधिक चालाक व्यक्ति हैं। वे तुम्हें बताएंगे कि कैसे सब का शोषण करना और किसी को अपना शोषण नहीं करने देना। कैसे निर्दयी होना -बिना किसी करुणा के, एकदम कठोर। केवल तभी तुम पा सकते हो सत्ता, प्रतिष्ठा, धन -संसार की तमाम चीजें। लेकिन यदि तुम कुछ पारलौकिक अनुभूति पाना चाहते हो, तो एकदम विपरीत बात चाहिए ;अप्रयास चाहिए, प्रयास शून्यता , विश्रांति चाहिए।

7-राजनीति की दुनिया के, धन की, बाजार की दुनिया के बहुत से लोग कहते हैं, 'हम शांति पाना चाहते हैं।लेकिन राजनीति और शांति... ये दोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं।हम आराम से शांत नहीं बैठ सकते।' शांत होना एक बिलकुल ही अलग आयाम है -ठीक विपरीत आयाम है।

तुम संसार में संकल्प के साथ सफल होते हो। संसार में सफलता का सूत्र है... 'विल टु पावर'। पतंजलि का मार्ग नहीं है.. 'विल टु पावर', वह है समग्रता के प्रति समर्पण ; 'प्रयत्न शैथिल्य' -अप्रयास। तुम्हें तो बस विश्राम में होना है। इस विषय में बहुत प्रयास मत करना; अनुभूति को ही काम करने देना। तुम आराम को जबरदस्ती अपने ऊपर नहीं थोप सकते हो? यह असंभव है। तुम विश्राम में हो सकते हो यदि तुम सहजता से शिथिल हो जाओ। तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते।

8-यदि तुम किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करते, तो नहीं करते;तुम जबरदस्ती प्रेम को नहीं ला सकते हो। तुम कोशिश कर सकते हो, दिखावा कर सकते हो, जबरदस्ती कर सकते हो अपने साथ, लेकिन एकदम विपरीत परिणाम होगा। यदि तुम कोशिश करते हो तो तुम्हारे प्रयत्नों का एकमात्र परिणाम यही होगा कि तुम उस व्यक्ति से घृणा करने लगोगे , क्योंकि तुम बदला लोगे। तुम कहोगे, 'यह कैसा अजीब व्यक्ति है, क्योंकि मैं तो प्रेम करने की इतनी कोशिश कर रहा हूं और कुछ घटता ही नहीं!' तुम उसे जिम्मेवार ,अपराधी ठहराओगे, जैसे कि वही कुछ कर रहा है।

9-लेकिन वह कुछ नहीं कर रहा है। प्रेम , प्रार्थना ,आसन संकल्प से नहीं हो सकता। तुम्हें इनकी अनुभूति में उतरना पड़ता है। अनुभूति संकल्प से

एकदम अलग बात है।बुद्ध संकल्प के मार्ग से बुद्ध नहीं बन सके। उन्होंने लगातार छह वर्ष तक प्रयत्न किया संकल्प से। वे संसारी व्यक्ति थे, राजकुमार की भांति शिक्षा -दीक्षा हुई थी उनकी। सम्राट बनने का प्रशिक्षण मिला था उन्हें। उन्हें जरूर वही सब सिखाया गया होगा जो

चाणक्य ने कहा है।चाणक्य कुछ ज्यादा ही चालाक है ..परम शिखर है। क्योंकि भारतीय चित्त की एक खूबी है ..एकदम जड़ों तक जाने की। यदि वे बुद्ध होते हैं, तो सच में वे बुद्ध होते हैं। यदि वे चाणक्य होते हैं, तो तुम उनके साथ मुकाबला नहीं कर सकते । जहां भी वे उतरते हैं, एकदम जड़ों तक उतरते हैं।

10-तो बुद्ध को जरूर सिखाए गए होंगे संसार के ढंग; उनको सांसारिक व्यक्तियों के बीच जीना था ,अपना साम्राज्य सम्हालना था।प्रत्येक राजकुमार को तैयार किया जाता है। और फिर वे सब छोड़ कर चले गए। लेकिन महल छोड़ कर चले जाना , राज्य छोड़ कर चले जाना आसान है...मन के प्रशिक्षण को छोड़ना कठिन है।छह वर्ष तक उन्होंने

संकल्प द्वारा परमात्मा को पाने का प्रयास किया। उन्होंने वह सब किया जो किसी मनुष्य के लिए संभव है ..वह भी किया जो मनुष्य के लिए संभव नहीं है। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। जितनी ज्यादा उन्होंने कोशिश की, उतना ही दूर उन्होंने अपने को पाया। असल में जितना ज्यादा संकल्प उन्होंने किया और जितने कठिन प्रयास किए, उतना ही उन्होंने अनुभव किया कि वे दूर हैं ...परमात्मा कहीं नहीं है। कुछ उपलब्धि नहीं हुई।

11-फिर एक शाम उन्होंने सब छोड़ दिया। उसी रात वे बुद्धत्व को उपलब्ध

हो गए। उसी रात घटित हुआ 'प्रयत्न शैथिल्य' -प्रयास की शिथिलता। वे संकल्प द्वारा बुद्ध नहीं हुए, वे बुद्ध हुए जब उन्होंने समर्पण किया, जब

उन्होंने सारा प्रयास छोड़ दिया।इसीलिए हर संभव प्रयास करो जो कि तुम कर सकते हो, लेकिन सदा स्मरण रहे, हर संभव प्रयास पर यह जोर केवल इसीलिए है ताकि तुम्हारा संकल्प बिखर जाए, हार जाए और संकल्प के साथ जुड़ा सपना टूट जाए। तुम संकल्प से इतने थक जाओ कि एक दिन तुम गिर पड़ो, तुम हार कर सब छोड़ दो और उसी दिन तुम सबुद्ध हो जाते हो।

12-लेकिन जल्दी मत करना, क्योंकि तुम बिना प्रयास किए हुए ही सब प्रयास छोड़ सकते हो,लेकिन तब कोई मदद न मिलेगी। वह एक चालबाजी होगी। और तुम परमात्मा से नहीं जीत सकते.. चालबाजी द्वारा। तुम्हें बहुत निर्दोष होना होगा। बुद्धत्व अपने आप घटित होता है।ये सीधी साफ

परिभाषाएं हैं।महृषि पतंजलि नहीं कह रहे हैं, 'ऐसा करो।’ वे तो बस मार्ग दिखा रहे हैं। यदि तुम उसे समझ लेते हो , तो वह तुमको, तुम्हारे मार्ग को, तुम्हारे अंतस को प्रभावित करने लगेगा । उसे आत्मसात करो ;गहरे उतरने दो .. बहने दो अपने रक्त में ..बनने दो मांस -मज्जा। बस इतना ही। ये सूत्र रटने के लिए नहीं हैं। इन्हें स्मृति में रख लेने की जरूरत नहीं है, इन्हें प्राणों में उतारने की जरूरत है। तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व को बात समझ में आनी चाहिए , बस इतना ही काफी है। फिर भूल जाना इन बातों को... वे अपना काम शुरू कर देती हैं।

13-''और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है''।

मन बहुत कुशल है... सीमित के साथ। यदि तुम धन के ,सत्ता के ,राजनीति के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है। यदि तुम शब्दों के , दर्शन के, सिद्धांतो के , धारणाओं के विषय में सोचते हो, तो मन कुशल है ..ये सब सीमित बातें हैं। लेकिन यदि तुम परमात्मा के विषय में सोचते हो, तो अचानक मन ठिठक जाता है, एक शून्य आ जाता है। तुम क्या सोच सकते

हो परमात्मा के विषय में?यदि तुम कुछ भी सोच सकते हो, तो फिर वह परमात्मा परमात्मा नहीं है; वह सीमित हो गया। यदि तुम परमात्मा का विचार करते हो कृष्ण के रूप में, तो वह परमात्मा नहीं है; तब श्रीकृष्ण वहां हो सकते हैं अपनी बांसुरी बजाते हुए, लेकिन सीमा आ गई।वह परमात्मा न रहा, तुमने एक सीमा दे दी। सुंदर छवि है , लेकिन असीम के सौंदर्य की तुलना में कुछ भी नहीं है।

14-दो प्रकार के परमात्मा हैं। पहला, धारणा का परमात्मा. ईसाई परमात्मा, हिंदू परमात्मा, मुसलमान परमात्मा। और दूसरा, अस्तित्वगत परमात्मा, धारणागत नहीं.... वह असीम है। यदि मुसलमान परमात्मा के विषय में सोचते हो तो तुम मुसलमान होओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। यदि तुम ईसाई परमात्मा के विषय में सोचते हो, तो तुम ईसाई होओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। अगर तुम परमात्मा का सीधा साक्षात करते हो तो ही तुम धार्मिक होओगे ..फिर तुम हिंदू, मुसलमान , ईसाई नहीं रहते।क्योंकि

वह परमात्मा कोई धारणा नहीं है।

15-धारणा तो एक खिलौना है जिससे तुम्हारा मन खेलता है। वास्तविक परमात्मा तो बड़ा विराट है। तब परमात्मा खेलता है तुम्हारे मन के साथ न कि तुम्हारा मन खेलता है परमात्मा के साथ। तब परमात्मा तुम्हारे हाथ का खिलौना नहीं होता; तुम एक खिलौना होते हो परमात्मा के हाथ में। सारी बात बदल जाती है। अब तुम नियंत्रण नहीं करते -नियंत्रण तुम्हारे हाथ से छूट जाता है, अब परमात्मा तुम्हें चलाता है। इसके लिए सही शब्द है 'आविष्ट होना, ' असीम द्वारा आविष्ट होना, संचालित होना।फिर यह

बात तुम्हारे मन के पर्दे पर किसी चित्र की भांति नहीं रहती। नहीं, वहां कोई चित्र नहीं होता। एक विराट शून्यता होती है -और उस विराट शून्यता में तुम खो रहे होते हो।

16-न केवल परमात्मा की परिभाषा खो जाती है, सीमाएं भी खो जाती हैं; जब तुम असीम के संपर्क में आते हो, तो तुम भी अपनी सीमाएं खोने लगते हो। तुम्हारी सीमाएं भी धुंधली - धुंधली हो जाती हैं , खोने लगती हैं, ज्यादा लोचपूर्ण हो जाती हैं; तुम आकाश में धुएं की भाति विलीन होने लगते हो। एक घड़ी आती है, तुम देखते हो स्वयं को ..और तुम वहां नहीं

होते।तो महृषि पतंजलि दो बातें कहते हैं : अप्रयास और चैतन्य का असीम पर केंद्रित होना। इस भांति तुम आसन सिद्ध करते हो। और यह केवल शुरुआत है, यह केवल शरीर है। व्यक्ति को और गहरे उतरना होता है।

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3-''जब आसन सिद्ध हो जाता है तब द्वंद्वों से उत्पन्‍न अशांति की समाप्ति होती है''।

11 FACTS;-

जब शरीर सच में ही सुख में होता है, विश्रांत होता है, शरीर की लौ कैप नहीं रही होती स्थिर होती है, कोई गति नहीं होती—अचानक जैसे समय रुक गया हो, कोई हवा न चल रही हो; प्रत्येक चीज थिर और शांत हो और शरीर में कोई उत्पेरणा न हो हिलने —डुलने की, वह थिर हो, गहनरूप से संतुलित, शांत, मौन, अपने स्वभाव में स्थित. उस अवस्था में सभी द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं और द्वंद्वों के कारण उत्पन्न अशांति समाप्त हो जाती है।

1-क्या तुमने ध्यान दिया कि जब भी तुम्हारा मन अशांत होता है तो तुम्हारा शरीर भी अशांत और बेचैन होता है, तुम चुपचाप नहीं बैठ सकते? या जब भी तुम्हारा शरीर बेचैन होता है तो तुम्हारा मन मौन नहीं हो सकता? वे दोनों जुड़े हैं। पतंजलि अच्छी तरह से जानते हैं कि शरीर और मन दो चीजें नहीं हैं, तुम शरीर और मन, दो में बंटे हुए नहीं हो। शरीर और मन एक ही चीज है। तुम साइकोसोमैटिक हो; तुम मनोशरीर हो।

2-शरीर केवल तुम्हारे मन का प्रारंभ है और मन तुम्हारे शरीर के अंतिम छोर के सिवाय और कुछ भी नहीं है। दोनों एक ही घटना के दो पहलू हैं; वे दो नहीं हैं। तो जो कुछ भी शरीर में घटता है वह मन को प्रभावित करता है और जो कुछ भी मन में घटता है वह शरीर को प्रभावित करता है। वे साथ

-साथ चलते हैं।इसलिए शरीर पर इतना जोर है, क्योंकि अगर तुम्हारा शरीर विश्राम में नहीं है, तो तुम्हारा मन भी शांत नहीं हो सकता। और शरीर के साथ शुरू करना ज्यादा आसान होता है, क्‍योंकि वह सब से बाहरी पर्त है। मन के साथ शुरू करना कठिन होता है।

3-बहुत से लोग मन के साथ प्रारंभ करने का प्रयास करते हैं और असफल होते हैं, क्योंकि उनका शरीर सहयोग नहीं देता।क, ख, ग से प्रारंभ करना, और धीरे -धीरे क्रम में आगे बढ़ना;हमेशा अच्छा होता है। शरीर सबसे पहली बात है, बिलकुल प्रारंभिक है। व्यक्ति को शरीर से प्रारंभ करना चाहिए। यदि तुम शरीर की शांत अवस्था को उपलब्ध हो जाते हो, तो अचानक तुम पाओगे कि मन स्थिर हो रहा है।मन हमेशा बाएं

-दाएं डोलता रहता है पुरानी घड़ी के पेंडुलम जैसा।

4-और यदि तुम पेंडुलम को ध्यान से देखो तो तुम अपने मन के विषय में बहुत कुछ जान सकते हो। जब पेंडुलम बाईं तरफ जा रहा होता है, तो प्रकट में वह बाईं तरफ जा रहा होता है, किंतु असल में वह दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा होता है। जब आंखें कहती हैं कि पेंडुलम बाईं तरफ जा रहा है, तो बाईं ओर की वह गति ही पेंडुलम के फिर से दाईं ओर जाने के लिए एक शक्ति, एक मोमेंटम पैदा कर देती है। और जब वह दाईं तरफ जा रहा होता है तो वह बाईं ओर जाने के लिए शक्ति इकट्ठा कर रहा होता है।

5-तो जब भी तुम प्रेम में पड़ते हो, तब तुम घृणा करने की शक्ति इकट्ठी कर रहे होते हो। जब तुम घृणा करते हो तो तुम प्रेम करने की शक्ति इकट्ठी कर रहे होते हो। जब तुम सुखी अनुभव कर रहे होते हो, तब तुम दुखी होने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे होते हो। जब तुम दुखी अनुभव कर रहे होते हो, तब तुम सुखी होने की शक्ति इकट्ठी कर रहे होते हो। इसी भांति मन

डोलता रहता है।तुम्हारा मन निरंतर एक अति से दूसरी अति में डोलता रहता है... बाईं ओर, दाईं ओर; दाईं ओर, बाईं ओर। मध्य में कभी नहीं। और मध्य में होना वस्तुत: 'होना' है। दोनों अतियां बोझिल होती हैं, क्योंकि तुम आराम में नहीं हो सकते।

6-आराम होता है मध्य में, क्योंकि मध्य में बोझ नहीं होता। ठीक -ठीक मध्य में तुम निर्भार होते हो। बाईं ओर झुको, और बोझ हो जाता है। दाईं ओर झुको, और बोझ हो जाता है। और बढ़ते ही चलो... तो जितना ज्यादा तुम मध्य से दूर जाते हो, उतना ही ज्यादा बोझ बढ़ता जाता है।मध्य में

रहो। धार्मिक व्यक्ति अतियों में जीने वाला व्यक्ति नहीं होता है। और जब तुम ठीक मध्य में होते हो -तुम्हारा शरीर और तुम्हारा मन दोनों ही ..तो सारे द्वैत खो जाते हैं, क्योंकि सारे द्वैत हैं ...तुम निरंतर इस ओर से उस ओर डोलते रहते हो।

7-'जब आसन सिद्ध हो जाता है, तब द्वंद्वों से उत्पन्न अशांति की समाप्ति

होती है।’और जब कहीं कोई द्वैत नहीं बचता, तब तुम कैसे तनावपूर्ण , परेशानी में रह सकते हो? जब तुम्हारे भीतर दो होते हैं, तो संघर्ष होता है। वे दो लड़ते ही रहते हैं, और वे तुम्हें कभी विश्राम में न रहने देंगे। तुम्हारा घर बंटा हुआ होता है, तुम सदा शीतयुद्ध में ,बुखार में जीते हो। जब यह द्वैत तिरोहित हो जाता है, तो तुम शांत, केंद्रस्थ, मध्य में स्थिर हो जाते हो।

बुद्ध ने अपने मार्ग को कहा है, 'मज्‍झिम निकाय' -मध्य मार्ग। वे अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'केवल एक बात ध्यान रखने की है... सदा मध्य में रहो; अतियों पर मत जाओ।’

8-संसार भर में अतियां हैं। कोई निरंतर स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है और फिर किसी दिन वह सारी भाग -दौड़ से थक जाता है। तब वह संसार छोड़ देता है और वह संन्यासी हो जाता है। और फिर वह हर किसी को स्त्रियों के

विरुद्ध समझाता रहता है, और कहता है, ''स्त्री नरक का द्वार है। सचेत रहो। स्त्री ही फांसी है।'' जब भी तुम किसी संन्यासी को स्त्री के विरुद्ध बोलते हुए पाओ, तो तुम समझ सकते हो कि वह पहले जरूर 'मजनू' रहा है। वह स्त्री के बारे में कुछ नहीं कह रहा है; वह अपने अतीत के बारे में कुछ कह रहा है। अब एक अति समाप्त हो गई, वह दूसरी अति की तरफ जा रहा है।

9-कोई पागल है धन के पीछे। और बहुत हैं ..धन के पीछे पागल, एकदम आविष्ट, जैसे कि उनका पूरा जीवन धन के अंबार इकट्ठे करने के लिए ही हो। लगता है कि उनके यहां होने का एकमात्र अर्थ इतना ही है कि जब उनकी मृत्यु हो तो वे धन के अंबार छोड़ जाएं -दूसरों से बड़े अंबार! वही उनके जीवन का कुल अर्थ मालूम पड़ता है। जब ऐसा आदमी थक जाता है तो वह सिखाने लगता है, ' धन दुश्मन है।’ जब भी तुम किसी को यह कहते हुए सुनो कि धन दुश्मन है, तो तुम समझ सकते हो कि यह आदमी जरूर धन के पीछे पागल रहा होगा। अभी भी वह पागल ही है -दूसरी अति पर है।

10-एक ठीक संतुलित व्यक्ति किसी चीज के विरुद्ध नहीं होता है, क्योंकि वह किसी चीज के पक्ष में नहीं होता है। धन एक साधन है, एक उपयोगिता है, विनिमय का एक माध्यम है -उसके पीछे पागल होने की कोई जरूरत नहीं है। यदि वह तुम्हारे पास है तो उसका उपयोग कर लो। यदि वह तुम्हारे पास नहीं है तो उसके न होने का मजा लो।संतुलित व्यक्ति यदि महल में है, तो वह महल का सुख लेता है। यदि महल न हो तो वह झोपड़ी का आनंद लेता है। कैसी भी स्थिति हो, वह प्रसन्न और संतुलित रहता है। न तो वह महल के पक्ष में होता है और न वह, उसके विरोध में होता है। जो व्यक्ति पक्ष में या विरोध में होता है, वह असंतुलित है, वह संतुलित नहीं है।

11-गौतम बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे, 'बस संतुलित रहो, और सब कुछ अपने आप सध जाएगा। मध्य में रहो ।’ और यही महृषि पतंजलि कहते हैं ,'' बाह्य आसन शरीर से संबंधित है; आंतरिक आसन मन से संबंधित है और दोनों जुड़े हुए हैं। जब शरीर मध्य में होता है, विश्राम में होता है, तो मन भी मध्य में होता है -शांत और मौन होता है।'' जब शरीर शांत होता है, तो शरीर भाव तिरोहित हो जाता है, जब मन विश्राम में होता है, तो मन तिरोहित हो जाता है। तब तुम केवल आत्मा होते हो... इंद्रियातीत, जो न शरीर है और न मन।

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4-''आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम। यह सिद्ध होता है श्वास और प्रश्वास पर कुंभक करने से या अचानक श्वास को रोकने से''।

15 FACTS;-

1-शरीर और मन के बीच श्वास एक सेतु है। ये तीनों बातें समझ लेनी हैं। आसन में स्थिर शरीर, असीम में विलीन होता मन और श्वास का सेतु जो कि उन्हें जोड़ता है, ये तीनों चीजें एक सम्यक लय में होनी चाहिए।ध्यान देना.. कि जब भी तुम्‍हारा मन बदलता है, तो श्वास बदल जाती है। इसके विपरीत यह बात भी सच है कि यदि श्वाश का ढंग बदलो तो मन बदल जाता है।

जब तुम शांत और मौन होते हो, तो अच्छा अनुभव करते हो।अचानक किसी सुबह की शांति में या शाम तारों की ओर देखते हुए, कुछ न करते हुए, बस विश्राम करते हुए श्वास पर ध्यान देना। वह बहुत धीमी चलती है। तुम उसे अनुभव भी नहीं करते कि वह चल भी रही है या नहीं।

2-जब तुम क्रोधित होते हो, तो ध्यान देना। श्वास तुरंत बदल जाती है। जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो ध्यान देना। प्रत्येक भाव दशा के साथ श्वास की लय भिन्न होती है। श्वास एक सेतु है। जब तुम्हारा शरीर स्वस्थ होता है, तो श्वास अलग ढंग से चलती है। जब तुम्हारा शरीर अस्वस्थ होता है तो श्वास अलग ढंग से चलती है। जब तुम पूर्णरूपेण स्वस्थ होते हो तो तुम बिलकुल भूल जाते हो श्वास को। जब तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं होते तो श्वास पर बार -बार तुम्हारा ध्यान जाता है, कुछ गड़बड़ है।

3-'आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम।’प्राणायाम का अर्थ

'श्वास पर नियंत्रण' नहीं है। यह प्राणायाम शब्द की ठीक व्याख्या नहीं है। इसका अर्थ है प्राण -ऊर्जा का विस्तार। प्राण =आयाम : प्राण का अर्थ है श्वास में छिपी प्राण -ऊर्जा, और आयाम का अर्थ है असीम विस्तार।

यह 'श्वास पर नियंत्रण' नहीं है।यह शब्द 'नियंत्रण' थोड़ा भद्दा है, क्योंकि यह 'नियंत्रण' शब्द ही तुम्हें कर्ता की अनुभूति देता है ..संकल्प आ जाता है। प्राणायाम बिलकुल अलग बात है। प्राण -ऊर्जा का विस्तार ..इस ढंग से श्वास लेना कि तुम अस्तित्व की श्वास के साथ एक हो जाते हो; कि तुम अलग से श्वास नहीं ले रहे, तुम समग्र के साथ श्वास ले रहे हो।

4-कई बार ऐसा होता है..प्रयोग करके देखना : दो प्रेमी साथ -साथ बैठे हैं तो वे अचानक पाते हैं कि वे एक साथ श्वास ले रहे हैं। जब स्त्री श्वास भीतर लेती है, तब पुरुष भी श्वास भीतर लेता है। जब पुरुष श्वास बाहर छोड़ता है, तब स्त्री भी श्वास बाहर छोड़ती है। कभी अचानक सजग होकर देखना कि तुम अपने मित्र के साथ बैठे हो, तो तुम साथ -साथ श्वास ले रहे होओगे। यदि कोई दुश्मन बैठा है और तुम उससे पीछा छुड़ाना चाहते हो या कोई उबाने वाला बैठा है और तुम उससे छुटकारा पाना चाहते हो, तो तुम अलग -अलग श्वास लोगे; तुम्हारी श्वास आपस में बिलकुल लयबद्ध न होगी।

5-आश्चर्य की बात है,कि किसी वृक्ष के पास बैठना। यदि तुम शांत हो, आनंदित हो, आह्लादित हो, तो अचानक तुम पाओगे कि वृक्ष,उसी ढंग से श्वास ले रहा है, जिस ढंग से तुम श्वास ले रहे हो।और एक घड़ी आती है जब तुम अनुभव करते हो कि तुम समग्र के साथ श्वास ले रहे हो। तुम समग्र की श्वास के साथ लयबद्ध हो जाते हो। तुम फिर लड़ नहीं रहे होते, संघर्ष नहीं कर रहे होते, तुम समर्पित होते हो कि अलग श्‍वास लेने की जरूरत नहीं रह जाती है।

6-गहन प्रेम में लोग साथ -साथ श्वास लेते हैं। घृणा में ऐसा कभी नहीं होता। अगर तुम किसी के प्रति विरोध रखते हो तो चाहे वह हजारों मील दूर क्यों न हो ;तुम अलग -अलग श्वास लोगे; तुम एक साथ श्वास नहीं ले सकते।यह एक अनुभूति ही है क्योंकि इसके लिए कोई वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है ।लेकिन तुम भारत में हो, और तुम्हें पता भी न हो कि तुम्हारा प्रेमी कहां है ;लेकिन तुम साथ-साथ ही श्वास लोगे। ऐसा ही होना चाहिए और ऐसा ही होता है।कुछ प्रमाण हैं जो संकेत देते हैं।उदाहरण के लिए टेलीपैथी पर

कुछ प्रयोग चलते हैं।

7-इस टेलीपैथी के प्रयोग में दो व्यक्ति, बहुत दूर होते हैं। एक व्यक्ति संदेश भेजता है, दूसरा व्यक्ति संदेश ग्रहण करता है। निश्चित समय पर, कोई व्यक्ति संदेश भेजना शुरू करता है। वह त्रिभुज का आकार बनाता है, उस पर चित्त को एकाग्र करता है और संदेश भेजता है कि 'मैंने त्रिभुज बनाया है।’ और दूसरा व्यक्ति उसे ग्रहण करने की कोशिश करता है। बस खुला रहता है, अनुभव करता है, संवेदनशील रहता है ..क्या संदेश आ रहा है। और वैज्ञानिकों ने निरीक्षण किया है कि यदि वह त्रिभुज को पकड़ पाता है, तो वे दोनों एक ही ढंग से श्वास ले रहे होते हैं; यदि वह त्रिभुज को चूक जाता है तो वे एक ही ढंग से श्वास नहीं ले रहे होते हैं।

8-श्वास की गहन लयबद्धता में कोई सेतु तुम्हें जोड़ता है; तुम एक हो जाते हो, क्योंकि श्वास जीवन है। तब अनुभूति दूसरे तक पहुंच सकती है, विचार

दूसरे तक पहुंच सकते हैं।यदि तुम किसी संत से मिलने जाओ तो सदा उसकी श्वास पर ध्यान देना। और यदि तुम एक संवाद अनुभव करते हो, उसके साथ एक गहन प्रेम अनुभव करते हो, तो फिर अपनी श्वास पर भी ध्यान देना। तुम अचानक अनुभव करोगे कि तुम उसके जितने ज्यादा पास आते हो, तुम्हारी भाव -दशा, तुम्हारी श्वास उसके साथ मेल खाने लगती है। जाने या अनजाने ; लेकिन यह होता है।

9- प्राणायाम का मतलब है : समग्र के साथ श्वास लेना—'श्वास का नियंत्रण' कहीं आता ही नहीं! यदि तुम नियंत्रण करते हो, तो कैसे तुम समग्र के साथ श्वास ले सकते हो? तो 'प्राणायाम' को 'श्वास का नियंत्रण' कहना गलत है।

सच्चाई इसके ठीक विपरीत है।प्राणायाम है समग्र के साथ श्वास लेना -शाश्वत और समग्र की श्वास के साथ एक हो जाना। तब तुम विस्तार पाते हो। तब तुम्हारी जीवन-ऊर्जा फैलती चली जाती है पेड़ों और पहाड़ों और आकाश और सितारों के साथ। तब एक घड़ी आती है, जब तुम बुद्ध हो जाते हों—तुम पूरी तरह खो जाते हो। अब तुम श्वास नहीं लेते, समग्र श्वास लेता है तुम में। अब तुम्हारी श्वास और समग्र की श्वास अलग नहीं होती। वे एक होती हैं। इतनी एक होती हैं कि अब यह कहना व्यर्थ होता है कि 'यह मेरी श्वास है।’

10-'आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम। यह सिद्ध होता है श्वास और प्रश्वास पर कुंभक करने से, या अचानक श्वास को रोकने से।’

जब तुम श्वास भीतर लेते हो, तो एक घड़ी आती है जब श्वास पूरी तरह भीतर होती है और कुछ क्षणों के लिए श्वास ठहर जाती है। ऐसा ही तब होता है जब तुम श्वास बाहर छोड़ते तो। तुम श्वास बाहर छोड़ते हो, जब श्वास पूरी तरह बाहर होती है, तब फिर कुछ क्षणों के लिए श्वास ठहर जाती है। उन घड़ियों में तुम्हारा मृत्यु से साक्षात्कार होता है, और मृत्यु से साक्षात्कार परमात्मा से साक्षात्कार है।क्योंकि जब तुम मिट जाते हो, परमात्मा अवतरित होता है तुम में।

11-केवल सूली के बाद ही पुनर्जीवन होता है।जब श्वास ठहर जाती है;

न बाहर जाती है न भीतर आती है, तब तुम ठीक उसी अवस्था में होते हो जहां तुम मृत्यु की घड़ी में होओगे। एक पल को तुम्हारा मृत्यु से साक्षात्कार हो जाता है -श्वास ठहर गई होती है। पूरा 'विज्ञान भैरव तंत्र' इस प्रक्रिया पर आधारित है, क्योंकि यदि तुम उस अंतराल में प्रवेश कर सको , तो वही द्वार है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म और संकरा है।जीसस ने बार -बार कहा है,

'मेरा मार्ग संकरा है ,सीधा है, लेकिन बहुत संकरा है।’ कबीर ने कहा है, 'दो नहीं गुजर सकते साथ -साथ, केवल एक ही गुजर सकता है।’

12-मार्ग इतना संकरा है कि यदि तुम्हारे भीतर भीड़ है, तो तुम नहीं गुजर सकते। यदि तुम दो में भी बंटे हुए हो ..बाएं और दाएं ;तो भी तुम नहीं गुजर सकते। यदि तुम एक हो, एक समस्वरता, एक अखंडता, तो तुम गुजर सकते हो।मार्ग संकरा है , सीधा है, निश्चित ही; वह कोई आड़ा -तिरछा नहीं है। वह सीधा परमात्मा के मंदिर की तरफ जाता है, लेकिन बहुत संकरा है।

तुम अपने साथ किसी को नहीं ले जा सकते। तुम अपने साथ अपनी चीजें नहीं ले जा सकते। तुम अपना ज्ञान नहीं ले जा सकते। तुम अपना त्याग नहीं ले जा सकते।असल में तुम अपना अहंकार भी नहीं ले जा सकते -स्वयं को भी नहीं ले जा सकते!

13-'तुम्हीं' गुजरोगे वहां से, लेकिन तुम्हारे शुद्धतम अस्तित्व के अतिरिक्त बाकी हर चीज द्वार पर छोड़ देनी होती है ।और यही क्षण हैं मार्ग

को देख लेने के... जब श्वास भीतर जाती है और ठहर जाती है ...पल भर को; जब श्वास बाहर जाती है और ठहर जाती है।इन अंतरालों के प्रति, इन क्षणों के प्रति और भी सजग होना। इन अंतरालों के द्वारा परमात्मा तुम में

प्रवेश करता है... मृत्यु की भांति।यम अर्थात 'मृत्यु का देवता।’हम इसे बहुत सोच समझ कर देवता कहते हैं. क्योंकि मृत्यु द्वार है..' परमात्मा 'का। असल में मृत्यु ज्यादा गहरी है..उस जीवन की अपेक्षा ;जिसे तुम जीवन जानते हो।और जब तुम मृत्यु से गुजरते हो, तो तुम्हें वह जीवन मिलेगा जिसका किसी से कोई लेना -देना नहीं है...एक समग्र का जीवन।

14-इसीलिए मृत्यु को देवता कहा गया है। एक पूरा उपनिषद है, कठोपनिषद । पूरा उपनिषद यही है कि एक छोटा बच्चा मृत्यु के पास जाता है -जीवन का रहस्य सीखने के लिए । बात, बिलकुल असंगत लगती है। जीवन का रहस्य सीखने के लिए मृत्यु के पास जाना? विरोधाभास मालूम पड़ता है, लेकिन सच्चाई यही है। जब तुम्हारा तथाकथित जीवन समाप्त होता है, केवल तभी वास्तविक जीवन सक्रिय होता है-तो तुम्हें पूछना होगा मृत्यु से।

15-'आसन की सिद्धि के बाद का चरण है प्राणायाम। यह सिद्ध होता है श्वास और प्रश्वास पर कुंभक करने से......।’तो जब तुम श्वास भीतर

लेते हो, तो उसे थोड़ी देर रोकना, ताकि 'द्वार' अनुभव किया जा सके। जब तुम श्वास बाहर छोड़ते हो, तो उसे थोड़ी देर बाहर रोकना, ताकि तुम उस शून्य अंतराल को ज्यादा आसानी से अनुभव कर सको।या, कभी श्वास को

अचानक रोक देना।रास्ते पर चलते हुए उसे रोक देना.. अचानक झटका,

और मृत्यु प्रवेश कर जाती है। कभी भी, किसी भी समय तुम अचानक रोक सकते हो श्वास को, उसी श्वास के रुकने में मृत्यु प्रवेश कर जाती है अथार्त इन अंतरालों के द्वारा परमात्मा तुम में प्रवेश करता है... मृत्यु की भांति।

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5-''उपरोक्त प्राणायामों की अवधि और आवृत्ति देश काल और संख्या के अनुसार ज्यादा लंबी और सूक्ष्म होती जाती है''।

02 FACTS;-

1-इन अंतरालों का जितना ज्यादा तुम अभ्यास करते हो, उतना ज्यादा विस्तीर्ण होता है ''द्वार''; तुम उसे उतना ज्यादा अनुभव करने लगते हो। इसे अपने जीवन का हिस्सा बना ले। जब भी तुम कुछ नहीं कर रहे हो, तो श्वास को भीतर लेना और रोक लेना। उसे वहां अनुभव करना; वहीं कहीं द्वार है। वहां अंधेरा है; द्वार तुरंत ही नहीं मिल जाता है, तुम्हें टटोलना होगा ..लेकिन तुम पा लोगे।और जब भी तुम श्वास को रोकोगे, तुरंत ही विचार ठहर जाएंगे।

2-प्रयोग करके देखना। अचानक श्वास रोक देना और तुरंत प्रवाह रुक जाता है और विचार ठहर जाते हैं, क्योंकि विचार और श्वास दोनों संबंधित हैं ...इस तथाकथित जीवन से। दूसरे जीवन में, दिव्य जीवन में, श्वास की जरूरत नहीं है। तुम जीते हो, श्वास की कोई जरूरत नहीं होती, विचारों की कोई जरूरत नहीं होती। विचार और श्वास भौतिक संसार का हिस्सा हैं। निर्विचार, निःश्वास ...वे शाश्वत जीवन का हिस्सा हैं।

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6-''प्राणायाम का चौथा प्रकार आंतरिक होता है और वह प्रथम तीन के पार जाता है''।

03 FACTS;-

1-पतंजलि कहते हैं. ये प्राणायाम के तीन प्रकार हैं -भीतर रोकना, बाहर रोकना, अचानक रोकना। और चौथा प्रकार आंतरिक है।इस चौथे

प्रकार पर बुद्ध ने बहुत जोर दिया है, वे इसे कहते हैं, 'अनापानसतीयोग'। वे कहते हैं, 'कहीं भी श्वास को रोकने की कोशिश मत करना। बस श्वास की पूरी प्रक्रिया को देखते रहना।’ श्वास भीतर जाती है ..तुम देखना, एक भी श्वास मत चूकना।फिर एक ठहराव आता है ..जब श्वास भीतर जा चुकी होती है तो एक पल के लिए ठहरती है ..उस ठहराव को देखना। कुछ करना मत; बस देखते रहना।

2-फिर श्वास बाहर की यात्रा पर चल देती है ...देखते रहना। जब श्वास पूरी तरह बाहर होती है तो फिर एक क्षण के लिए ठहरती है ..उसको भी देखना। फिर श्वास भीतर आती है, बाहर जाती है, भीतर आती है, बाहर जाती है ..तुम बस देखना। यह चौथा प्रकार है.... केवल देखते रहने से ही

तुम श्वास से अलग हो जाते हो।जब तुम श्वास से अलग हो जाते हो, तब तुम विचारों से अलग हो जाते हो। असल में शरीर में श्वास की प्रक्रिया मन में विचारों की प्रक्रिया के समानांतर ही है।मन में विचार चलते हैं ;शरीर में श्वास चलती है। वे समानांतर शक्तियां हैं... एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

3-महृषि पतंजलि भी चौथे प्राणायाम की ओर संकेत करते हैं।गौतम बुद्ध ने भी अपना पूरा ध्यान चौथे प्राणायाम पर ही केंद्रित कर दिया। वे प्रथम तीन की बात ही नहीं करते। संपूर्ण बौद्ध ध्यान चौथे प्राणायाम पर ही आधारित

है।'प्राणायाम का चौथा प्रकार' जो कि साक्षी होना है ' आंतरिक होता है और

वह प्रथम तीन के पार जाता है।’महृषि पतंजलि बहुत वैज्ञानिक हैं ;वे योग के विषय में वह सब कहते जाते हैं ...जो भी कहा जा सकता है। इसीलिए वे योग के अल्फा और ओमेगा हैं ..आदि और अंत हैं। उन्होंने एक भी बात नहीं छोड़ी है।महृषि पतंजलि के योग -सूत्रों में कुछ भी जोड़ा -घटाया नहीं जा सकता है।योग सूत्र में पूरा/ संपूर्ण,विज्ञान मौजूद है ..अपनी पराकाष्ठा पर।

....SHIVOHAM....

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