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क्या शक्ति न ही शुभ है और न ही अशुभ?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Sep 30, 2021
  • 13 min read

क्या शक्ति का शुभ उपयोग हो सकता है और अशुभ उपयोग भी ?-

19 FACTS;-

1-शक्ति जब जागती है तो चाहे उसे कुंडलिनी कहें या त्रिनेत्र ...उसकी अग्नि में मनष्य के सभी मैल, सभी कलुष जल जाते हैं, और वह शुद्ध और पवित्र हो जाता है!इस संबंध में कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं।एक, शक्ति स्वयं में निष्पक्ष और निरपेक्ष है। शक्ति न तो शुभ है और न अशुभ। उसका शुभ उपयोग हो सकता है; अशुभ उपयोग हो सकता है।दीए से अंधेरे में रोशनी भी हो सकती है, और किसी के घर में आग भी लगाई जा सकती है। जहर से हम किसी के प्राण भी ले सकते हैं, और किसी मरणासन्न व्यक्ति के लिए जहर औषधि भी बन सकता है।शक्ति सभी भौतिक या अभौतिक ..निष्पक्ष और निरपेक्ष है। हम क्या उपयोग करते हैं, इस पर परिणाम निर्भर होंगे।शुद्ध अंतःकरण न हुआ हो, तो भी शक्ति उपलब्ध हो सकती है। क्योंकि शक्ति की कोई शर्त भी नहीं कि शुद्ध अंतःकरण हो, तो ही उपलब्ध होगी। अशुद्ध अंतःकरण को भी उपलब्ध हो सकती है और अक्सर तो ऐसा होता है कि अशुद्ध अंतःकरण शक्ति को पहले उपलब्ध कर लेता है। क्योंकि शक्ति की आकांक्षा भी अशुद्धि की ही आकांक्षा है।

2-शुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा नहीं , शांति की आकांक्षा करता है। अशुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा करता है, शांति की नहीं। शुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है ..वह परमात्मा की कृपा है।वह उसने न मांगा है , न चाहा है और न ही खोजा है। वह उसे सहज मिला है।अशुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह उसकी वासना की मांग है। वह परमात्मा की कृपा नहीं है। वह उसने चाहा है, यत्न किया है, और उसे पा लिया है। शक्ति की चाह ही हमारे भीतर इसलिए पैदा होती है कि हम कुछ करना चाहते हैं और शक्ति के बिना न कर सकेंगे।शुद्ध अंतःकरण कुछ करना नहीं चाहता। शक्ति की कोई जरूरत भी नहीं है। अशुद्ध अंतःकरण बहुत कुछ करना चाहता है। वासनाओं की पूर्ति करनी है; महत्वाकांक्षाएं भरनी हैं; मन की पागल दौड़ है, उस दौड़ के लिए सहारा चाहिए ,ईंधन चाहिए ..तो शक्ति की मांग होती है।और शक्ति न तो शुद्धि से मिलती है,और न ही अशुद्धि से। शक्ति मिलती है यत्न, प्रयत्न और साधना से।

3-अगर कोई व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र करे, तो शुभ विचार पर भी एकाग्र कर सकता है, अशुभ विचार पर भी।इस संबंध में महावीर स्वामी की गहरी अंतर्दृष्टि ने ध्यान के दो रूप कर दिए हैं। एक को वे धर्म ध्यान कहते हैं और दूसरे को अधर्म ध्यान।यह भेद बड़ा कीमती है। हमें तो लगेगा कि सभी ध्यान धार्मिक होते हैं ।तो ध्यान अपने आप में धार्मिक नहीं है। शुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो ही धार्मिक है, अशुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो अधार्मिक है।धार्मिक ध्यान का तो अनुभव शायद न हुआ हो, लेकिन अधार्मिक ध्यान का आपको भी अनुभव हुआ है।जब आप क्रोध में होते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है परन्तु परमात्मा की मूर्ति पर ध्यान को लगाएं, तो बडी मेहनत करनी पड़ती है।ध्यान का तो मतलब है, मन का ठहर जाना। वह कहां ठहरता है, यह सवाल नहीं है।जब आप क्रोध में होते हैं, तब मन ठहर जाता है..यह भी ध्यान तो है ही।इसे महावीर अधर्म ध्यान कहते हैं।

4-क्रोध में मन एकाग्र हो जाता है, शक्ति उपलब्ध होती है।आपको अनुभव होगा कि क्रोध में आपकी शक्ति बढ़ जाती है। साधारणत: हो सकता है आपमें इतनी शक्ति न हो, लेकिन जब क्रोध में आप होते हैं, तो अनंत गुना शक्ति हो जाती है। क्रोध की अवस्था में लोगों ने ऐसे पत्थरों को हटा दिया है, जिनको सामान्य अवस्था में वे हिला भी नहीं सकते।उन्होंने अपने से दुगुने ताकतवर व्यक्तियों को लोगों ने पछाड़ दिया है, जिनको साधारण अवस्था में वे देखकर ही भाग खड़े होते।एकाग्रता शक्ति है। कहां एकाग्र कर रहे हैं, यह बात एकाग्रता के लिए आवश्यक नहीं है कि वह शुभ हो या अशुभ हो।लेकिन हृदय अशुद्ध है, तो उस एकाग्रता का अंतिम परिणाम अशुभ होता है ;तो वही शक्ति शोषण भी बन सकती है।हमें यह समझने में कठिनाई होती है कि अशुद्ध हृदय एकाग्र कैसे हो सकता है।वास्तव में, एकाग्रता तो मन को एक जगह रोकने की कला है। इसलिए अगर दुनिया में बुरे लोगों के पास भी शक्ति होती है, तो उसका कारण यही है कि उनके पास भी एकाग्रता होती है।

5-उदाहरण के लिए हिटलर के पास बड़ी एकाग्रता है।हिटलर ने जो भी कहा, वह जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति ने स्वीकार कर लिया। उसकी आंखों में जादू था। उसके कहने में बल था। उसके खड़े होते से सम्मोहन पैदा हो जाता।जर्मनी की पराजय के बाद जिन लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय अदालत में वक्तव्य दिए ;उसमें बड़े बुद्धिमान लोग थे, प्रोफेसर ,युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर आदि..उन्होंने यही कहा कि हम अब सोच भी नहीं पाते कि हमने यह सब कैसे किया! जैसे कोई शक्ति हमसे करवा रही थी।

दुनिया में बुरे व्यक्ति के पास भी ताकत होती है और भले व्यक्ति के पास भी ...ताकत एक ही है। बुरे व्यक्ति के पास हृदय का यंत्र बुरा है और वही ताकत उसके बुरे यंत्र को चलाती है।यह बिजली दौड़ रही है। इससे बिजली भी चल रही है, पंखा भी चल रहा है। पंखा खराब हो, बिजली वही दौड़ती रहेगी, लेकिन पंखे में खड़ -खड़ शुरू हो जाएगी। पंखा बहुत खराब हो, तो टूटकर गिर भी सकता है, और किसी के प्राण भी ले सकता है।परन्तु कसूर बिजली का नहीं है।

6-मनुष्य तो एक यंत्र है। शक्ति तो सभी परमात्मा की है, चाहे बुरे व्यक्ति में हो या भले व्यक्ति में ।शक्ति का स्रोत तो एक ही है। श्री राम में भी वही स्रोत है और रावण में भी वही स्रोत है। रावण के लिए शक्ति को पाने का कोई अलग मांर्ग नहीं है । उसी महास्रोत से रावण भी शक्ति पाता है, जिस महास्रोत से श्री राम शक्ति पाते हैं।लेकिन दोनों के हृदय में फर्क है। एक के पास शुद्ध हृदय है, एक के पास अशुद्ध हृदय है। उस अशुद्ध हृदय में से शक्ति विनाशक हो जाती है। शुद्ध हृदय से शक्ति निर्मात्री, सृजनात्मक हो जाती है। शुद्ध से जीवन बहने लगता है, अशुद्ध से मृत्यु बहने लगती है। शुद्ध से प्रकाश बन जाता है, अशुद्ध से अंधकार बन जाता है।लेकिन शक्ति का स्रोत एक है। दो स्रोत हो भी नहीं सकते क्योकि कितना ही बुरा व्यक्ति हो, परमात्मा उसके भीतर भी वही है।

7-इसलिए सदगुरुओ ने अनिवार्यरूप से कुछ व्यवस्था की है जिससे कि अंतःकरण शुद्ध हो। या तो साधना के साथ शुद्ध हो या साधना के पूर्व शुद्ध हो। अथार्त शक्ति की घटना घटने के पहले अंतःकरण शुद्ध हो जाए।गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है।''निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा''॥ अन्यथा हित की जगह अहित की संभावना है।आप कल्पना कर सकते है कि , अगर आपको अभी शक्ति मिल जाए, तो आप क्या करेंगे?तो आपके मन में सब से पहले क्या खयाल उठेगा?आप चाहें तो किसी को जीवन दे सकते है और चाहे तो किसी को मृत्यु दे सकते है।शायद यह आपके मन में खयाल उठे कि मित्र को मैं शाश्वत बना दूं। लेकिन शत्रु को नष्ट कर दूं ..यह खयाल पहले उठेगा। वह जैसा भीतर अंतःकरण है, वैसे ही खयाल देगा।अगर आपको यह शक्ति मिल जाए कि आप अदृश्य हो सकते हैं, तो आपको यह खयाल शायद ही आए कि अदृश्य होकर जाऊं और लोगों की सेवा करूं।अदृश्य होने का खयाल आते ही किसकी तिजोरी खोल लें, जहां कल तक आप प्रवेश नहीं कर सकते थे, वहां कैसे प्रवेश कर जाएं, वही खयाल आएगा।अभी शक्ति मिल नहीं गई है, सिर्फ खयाल है, लेकिन मन सपने संजोना शुरू कर देगा कि क्या करना है।

8-और शक्ति अशुद्ध को भी मिल सकती है। इसलिए शक्ति के स्रोत छिपाकर रखे गए हैं। सीक्रेसी, योग, तंत्र और धर्म के आस- पास इतनी गुप्तता का कुल कारण यही है। क्योंकि शक्ति का स्रोत गलत व्यक्ति को भी मिल सकता है; खतरनाक व्यक्ति को भी मिल सकता है। और जब भी कोई विज्ञान, चाहे आंतरिक, चाहे बाह्य ..ऊंचाइयों पर पहुंचता है, तो खतरे शुरू हो जाते हैं।अभी पश्चिम में विचार चलता है कि विज्ञान की जो नई खोजें हैं, वे गुप्त रखी जाएं, अब उनको प्रकट न किया जाए। क्योंकि विज्ञान की नई खोजें अब खतरे की सीमां पर पहुंच गई हैं।वे बुरे व्यक्ति के हाथ में पड़ सकती हैं।सारी खोज तो राजनीतिज्ञ के हाथ में पड़ जाती है।आइंस्टीन, जिसने अणु शक्ति के निर्माण में हाथ बंटाया , उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी खोज से हिरोशिमां और नागासाकी में एक -एक लाख लोग जलकर राख हो जाएंगे ।

9-आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा कि तुम अगर दुबारा जन्म लो तो क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं एक प्लंबर होना पसंद करूंगा बजाय एक वैज्ञानिक होने के।क्योंकि वैज्ञानिक होकर देख लिया कि मेरे मांध्यम से, मेरे बिना जाने, मेरी बिना आकांक्षा के, मेरे विरोध में, मेरे ही हाथों से जो काम हुआ, उसके लिए मैं रोता हूं।क्योंकि वैज्ञानिक तो शक्ति खोजता है लेकिन शक्ति राजनीतिज्ञ के हाथ में पहुंच जाती है। और राजनीतिज्ञ की दौड़ ही शक्ति की है। उसकी चेष्टा ही महत्वाकांक्षा की है।तो आइंस्टीन ने अपने अंतिम पत्रों में अपने मित्रों को लिखा है कि भविष्य में अब हमें सचेत हो जाना चाहिए। और हम जो खोजें, वह गुप्त रहे।चीन में सबसे पहले बारूद खोजी गई।बारूद वही है, लेकिन चीन ने बम नहीं बनाए; फुलझड़ी -पटाके बनाकर बच्चों का खेल किया।जैसे ही यूरोप में बारूद पहुंची कि उन्होंने तत्काल बम बना लिया। बारूद की ईजाद पूरब में हुई और बम बना पश्चिम में।

10-तीन हजार साल पहले पूरे पूरब को कुछ गहन सूत्र हाथ में आ गए और यह बात भी साफ हो गई कि ये सूत्र गलत व्यक्ति के हाथ में जाएंगे, तो खतरा है। तो उन सूत्रों को अत्यंत गुप्त कर दिया। जब गुरु शिष्य को इस योग्य समझेगा , तब वह उसके कान में सीक्रेसी/अत्यंत गुप्तता से दे देगा।और वह तब ही देगा, जब वह समझेगा कि शिष्य शक्ति का दुरुपयोग न करेगा।इसलिए जो भी महत्वपूर्ण है, वह शास्त्रों में नहीं लिखा हुआ है। शास्त्रों में तो सिर्फ अधूरी बातें लिखी हुई हैं। कोई भी गलत व्यक्ति शास्त्र के मांध्यम से कुछ भी नहीं कर सकता। शास्त्र में मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। जैसे सब बता दिया गया है, लेकिन चाबी शास्त्र में नहीं है। महल का भीतर के एक -एक कक्ष का वर्णन है। लेकिन ताला कहाँ लगा है, इसकी किसी शास्त्र में कोई चर्चा नहीं है। और चाबी का तो कोई हिसाब शास्त्र में नहीं है। चाबी तो हमेशा व्यक्तिगत हाथों से गुरु शिष्य को देगा।

11-जिसको हम दीक्षा या मंत्र कहते रहे हैं; वह गुप्तता में, जो जानता है उसके द्वारा उसको चाबी दिए जाने की कला है, जिससे खतरा नहीं है, जो दुरुपयोग नहीं करेगा; और चाबी को सम्हालकर रखेगा, जब तक कि योग्य व्यक्ति न मिल जाए। और अगर योग्य व्यक्ति न मिले, तो चाबी को खो जाने देना, हर्जा नहीं है। जब भी योग्य व्यक्ति होंगे, चाबी फिर खोजी जा सकती है। लेकिन गलत व्यक्ति के हाथ में चाबी मत देना। वह बड़ा खतरा है। और एक बार गलत व्यक्ति के हाथ में चाबी चली जाए तो अच्छे व्यक्ति के पैदा होने का उपाय ही समाप्त हो जाता है।तो ज्ञान चाहे खो जाए ..लेकिन गलत को मत देना। यह जो हिंदुओं ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था की, उस व्यवस्था में यह सारा का सारा खयाल था कि ब्राह्मण के अतिरिक्त चाबी किसी को न दी जाए।

12-हिंदु धर्म का हिसाब बहुत अनूठा है।हिसाब यह है कि पैदा तो हर व्यक्ति शूद्र ही होता है।शूद्र से उस व्यक्ति का कोई मतलब नहीं, जो शूद्र घर में जन्मा है। शूद्रता तो जन्म से सभी को मिलती है। इसलिए ब्राह्मण को हम द्विज कहते हैं। उसका दुबारा जन्म होना चाहिए।उसका गुरु के पास फिर से जन्म होगा। माता पिता ने जो जन्म दिया, उसमें तो शूद्र ही पैदा होता है। उससे कोई कभी ब्राह्मण पैदा नहीं होता है। और जो अपने को माता पिता से पैदा होकर ब्राह्मण समझ लेता है, उसे कुछ पता ही नहीं है।ब्राह्मण तो पैदा होगा गुरु की सन्निधि में। उसका दुबारा जन्म .ट्वाइस बॉर्न होगा। इसलिए हम उसे द्विज कहते हैं, जिसका दूसरा जन्म हो गया। और दूसरे जन्म के बाद वह अधिकारी होगा कि गुरु ..उसे जो गुह्य है, जो छिपा है, वह दे। जो सामान्य को नहीं दिया जा सकता। वह उसकी धरोहर होगी।इसलिए सैकड़ों वर्ष तक चेष्टा की गयी कि शास्त्र लिखे न जाएं, कंठस्थ किए जाएं। क्योंकि लिखते ही चीज सामान्य हो जाती है, सार्वजनिक हो जाती है। फिर उस पर नियंत्रण रखना असंभव है।

13-और जब शास्त्र लिखे भी गए , तो मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। इसलिए आप शास्त्र कितना ही पढ़ें, सत्य आपको नहीं मिल सकेगा। सब शास्त्र पढकर आपको अंततः गुरु के पास ही जाना पड़ेगा।तो सभी शास्त्र केवल गुरु तक ले जा सकते हैं। और सभी शास्त्र आप में प्यास जगा के और बेचैनी पैदा करेंगे, और चाबी कहां है, इसकी चिंता पैदा होगी। और तब आप गुरु की तलाश में निकलेंगे, जिसके पास चाबी मिल सकती है।आध्यात्मिक विज्ञान तो और भी खतरनाक है। क्योंकि आपको खयाल ही नहीं कि आध्यात्मिक विज्ञान क्या कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति थोड़ी सी भी एकाग्रता साधने में सफल हो जाए, तो वह दूसरे लोगों के मनों को बिना उनके जाने प्रभावित कर सकता है।उदाहरण के लिए रास्ते पर जा रहे हों, किसी व्यक्ति के पीछे चलने लगें; कोई तीन -चार कदम का फासला रखें। फिर दोनों आंखों को सिर के पीछे स्थिर कर लें। एक सेकेंड भी आप एकाग्र नहीं हो पाएंगे कि वह व्यक्ति लौटकर पीछे देखेगा।

14-ठीक रीढ़ के आखिरी हिस्से से मस्तिष्क शुरू होता है। मस्तिष्क रीढ़ का ही विकास है। जहाँ से मस्तिष्क शुरू होता है, वहां बहुत संवेदनशील हिस्सा है। आपकी आंख का जरा सा भी प्रभाव, और वह संवेदना वहा पैदा हो जाती है; सिर घुमांकर देखना जरूरी हो जाएगा।और अगर आप पांच लोगों पर प्रयोग करके समझ जाएं कि यह हो सकता है, तो उस संवेदनशील हिस्से से कोई भी विचार किसी व्यक्ति में डाला जा सकता है।बहुत बार ऐसा होता है, आपको पता भी नहीं होता है कि बहुत से विचार आप में किस भांति प्रवेश कर जाते हैं।बहुत बार ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति के पास आप जाते हैं और आपके विचार तत्काल बदलने लगते हैं; बुरे या अच्छे होने लगते हैं।संतों के पास अक्सर अनुभव होगा कि उनके पास जाकर आपके विचारों में कुछ बदलाहट हो गई। बुरे आदमी के पास जाकर भी एक झोंका आता है, कुछ बदलाहट हो जाती है।

15-संत किसी भावना में इतनी सघनता से जीता है कि जैसे ही आप उसके पास जाते हैं, आपके मस्तिष्क में उसकी चोट पड़नी शुरू हो जाती है। वहाँ एक सतत वातावरण है। बुरा व्यक्ति भी एक भावना में जीता है। वह उसकी एकाग्रता है। उसके पास आप जाते हैं कि चोट पड्नी शुरू हो जाती है।भीड़ में जब भी आप जाते हैं, तभी आप लौटकर अनुभव करेंगे कि मन उदास हो गया, थक गया, जैसे आप कुछ खोकर लौटे हैं। क्योंकि भीड़ में कई तरह के मस्तिष्क हैं, कई तरह की एकाग्रताएं हैं। वे सब एक साथ आपके ऊपर हमला कर देती हैं।इसलिए सदियों से साधक एकांत की तलाश करता रहा है। वास्तव में,एकांत की तलाश जंगल और पहाड़ के लिए नहीं है बल्कि व्यक्ति से बचने के लिए है। वह कोई जंगल की खोज में नहीं जा रहा है, न पहाड़ की खोज में जा रहा है। वह आपसे दूर हट रहा है।

16- पहाड़ कुछ नहीं दे सकते।उनके पास कोई मस्तिष्क नहीं है। इसलिए पहाड़ों के पास आप निश्चित रह सकते हैं। वे न तो बुरा देंगे, न भला देंगे। जो आपके भीतर है, वही होगा। लेकिन व्यक्तियों के पास आप निश्चित नहीं रह सकते। क्योंकि पूरे समय उनके विचार आप में प्रवाहित हो रहे हैं ,चाहे वे बोलें या न बोलें । उनका कचरा आप में बह रहा है; आपका कचरा उनमें बह रहा है। तो जब भी आप भीड़ में जाते हैं, आप कचरे से भरकर लौटते हैं।भीतर एक कनफ्यूजन पैदा हो जाता है।अगर आपको थोड़ी सी भी एकाग्रता अनुभव हो जाए, तो आप किसी के भी विचार बदल सकते हैं।विचार बदलने में बड़ी ताकत है ;विवाद करने की जरूरत नहीं है।सिर्फ एक विचार किसी की तरफ फेंकने की जरूरत है ;उसके विचार बदलने शुरू हो जाते हैं।

एकाग्रता के सेतु से जीवन के गहन में प्रवेश किया जा सकता है । शुभ भी किया जा सकता है, अशुभ भी किया जा सकता है। इसलिए एकाग्रता की कला किसी शास्त्र में लिखी हुई नहीं है। और जो भी लिखा हुआ है, उसको आप वर्षों करते रहें, तो भी एकाग्र न होंगे।

17-इसलिए बहुत लोग कहते हैं कि हम वर्षों से एकाग्रता साध रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है! वे किताब पढ़कर साध रहे हैं तो कभी होगा भी नहीं। थोड़े दिन में थक जाएंगे और किताब भी फेंक देंगे, एकाग्रता को भी भूल जाएंगे।वह एकाग्रता तभी कोई उनको बता सकेगा, जब पाया जाएगा कि उनका हृदय उस शुद्धि में है कि अब वे किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। बच्चों के हाथ में तलवार नहीं दी जा सकती। और जो दे, वह व्यक्ति मंगलदायी नहीं है।दुर्वासा, या उस तरह के लोग शक्तिशाली हैं।उनके पास अदम्य ऊर्जा है, लेकिन...। आज भी कुछ लोगों के पास छोटे- छोटे सूत्र हैं। अनेक कारणों से गलत लोगों के पास भी सूत्र पहुंच गए हैं। कभी मोह के कारण पहुंच जाते हैं; कभी भूल -चूक से भी पहुंच जाते हैं। कभी जो पिता ..कुछ जानता है.. मरता है और सिर्फ मोह के कारण ,वह बेटे को दे जाता है। बेटा योग्य नहीं होता है.. तो भी। कभी गुरु मरता है और सिर्फ इस आशा में दे जाता है कि आज नहीं तो कल शिष्य योग्य हो जाएगा। कई बार सूत्रों की चोरी भी हो जाती है।अथार्त धन की ही नहीं हो , सूत्रों की भी चोरी हो सकती है।

18-लेकिन सूत्रों से ही कुछ नहीं होता। आपको अगर कुंजी भी दे दी जाए, तो आप इतने कमजोर हैं कि कुंजी हाथ में रखे बैठे रहेंगे, ताले तक भी कुंजी नहीं पहुंचाएंगे। या भरोसा ही न करेंगे कि कुंजी कुछ खोल भी सकती है। या कुंजी को कुछ और समझते रहेंगे। या जहाँ ताला नहीं है, वहा कुंजी लगाते रहेंगे।हजारों साल से खोज चलती है। उस खोज में ठीक और गलत सब तरह के लोग लगे हुए हैं।लेकिन हृदय की शुद्धि अत्यंत अपरिहार्य है।इसलिए गौतम बुद्ध ने तो अपने शिष्यों को पहले चार ब्रह्मविहार साधने को कहा है। जब तक ये चार ब्रह्मविहार न सध जाए -तब तक कोई योगिक साधना नहीं करनी है।

ये चार है ..करुणा, मैत्री, मुदिता/प्रसन्नता, उपेक्षा। तो करुणा पहले सध जाए; मैत्री पहले सध जाए; मुदिता पहले सध जाए; उपेक्षा पहले सध जाए। क्योंकि जिसकी करुणा गहन है, वह किसी को नुकसान न पहुंचा सकेगा। जिसकी मैत्री की भाव दशा है, उसके लिए कोई शत्रु न रह जाएगा।और मुदिता का ‘अर्थ है, प्रफुल्लता, प्रसन्नता। जो प्रसन्न है और प्रफुल्ल है, वह किसी को दुखी नहीं करना चाहता। सिर्फ दुखी व्यक्ति ही दूसरे को दुखी करना चाहता है।

19-जब भी आप किसी को दुखी करना चाहते हों, तो समझना कि आप दुखी हैं क्योकि आनंदित व्यक्ति चाहता है, सभी आनंदित हो जाएं। वह आनंद को बांटना और फैलाना चाहता है। जो हमारे पास है, वही हम बांटते हैं; उसी को हम फैलाते हैं।

इसलिए मुदिता अनिवार्य है क्योंकि जब तक तुम प्रसन्नचित्त न हो जाओ, तब तक तुम खतरनाक हो। वास्तव में,दुखी व्यक्ति खतरा है। वह किसी को सुखी नहीं देखना चाहेगा। दुखी व्यक्ति चाहता है कि सब लोग मुझसे ज्यादा दुखी हों, तभी उसको लगता है कि तुलना में मैं थोड़ा सुखी हूं।और चौथा है.. उपेक्षा /इनडिफरेंस। जब ऐसी उपेक्षा सध जाए कि जीवन हो या मृत्यु, बराबर मालूम पड़े ;सुख हो या दुख, समान मालूम पड़े; हानि हो या लाभ, सफलता हो या विफलता.. कोई चिंता न रह जाए। इन चार ब्रह्मविहारो के सध जाने के बाद साधक योग में प्रवेश करे।इसलिए महृषि पतंजलि ने भी आठ यम नियम की व्यवस्था दी है। और इसके पहले कि धारणा, ध्यान और समाधि के अंतिम तीन चरण आएं, पांच चरणों में हृदय का पूरा रूपांतरण हो जाना चाहिए। जब तक पांच प्राथमिक चरण से हृदय का रूपांतरण न होता हो, तब तक तीन चरण के लिए महृषि पतंजलि राजी नहीं हैं।

.. SHIVOHAM....


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