क्या है दहराकाश ,चिदाकाश ,महाकाश?
धारणा का अर्थ;-
02 FACTS;-
1-धारणा मन की एकाग्रता है, एक बिन्दु, एक वस्तु या एक स्थान पर मन की सजगता को अविचल बनाए रखने की क्षमता है। ‘‘योग में धारणा का अर्थ होता है मन को किसी एक बिन्दु पर लगाए रखना, टिकाए रखना। किसी एक बिन्दु पर मन को लगाए रखना ही धारणा है। धारणा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है- आधार, नींव।’’ धारणा अर्थात ध्यान की नींव, ध्यान की आधारशिला।
2-धारणा परिपक्व होने पर ही ध्यान में प्रवेश मिलता है।शिव संहिता तथा अन्य कई उपनिषदों में भी पंच तत्व के आधार पर पांच प्रकार की धारणा बतायी गयी है।वसिष्ठ संहिता में पांच तत्वों की धारणा बतायी गयी है-अर्थात पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश इनमें पांच बीज वर्णों (ल, व, र, य, ह) का चिंतन करना धारणा है।
2-1-पृथ्वी तत्व की धारणा से पृथ्वी तत्व पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
2-2-जल तत्व की धारणा से रोगों से छुटकारा मिलता है।
2-3-अग्नि तत्व की धारणा करने वाला अग्नि से नहीं जलता।
2-4-वायु तत्व की धारणा से वायु के समान आकाश विहारी होता है।
2-5-आकाश तत्व में पांच पल की धारणा से जीव मुक्त होगा और एक वर्ष में ही मल-मूल की अल्पता होगी।
क्या है दहराकाश, चिदाकाश, महाकाश?-
15 FACTS;-
1-भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश इन्हीं को पञ्च महाभूत कहा जाता है| इन्ही से सारी सृष्टि की रचना संपन्न हुई है ऐसा माना जाता है| इनमे भूमि जल, तेज, वायु की भूमिका प्रत्यक्षानुभव के विषय होने के नाते सबको समझ में आती है किन्तु जहाँ तक आकाश का प्रश्न है तो जनसामान्य की बात ही क्या कतिपय दार्शनिक भी आकाश को तत्व के रूप में नहीं स्वीकार करते| ऐसा इसलिए क्योकि यह सूक्ष्मतम ,अति रहस्यात्मक होने के साथ ही साथ सर्वव्यापी और अंतर्यामी भी है|
2-जबकि तथ्य यह है कि सृष्टि रचना में इसकी भूमिका सर्वोपरि है| यही वह तत्व है जो बंधन और मोक्ष दोनों का कारण है| इस एक तत्व को यदि ठीक से समझ और साध लिया जाय तो समस्त सिद्धियाँ करतलगत हो सकती है क्योंकि इसका साक्षात् परब्रह्म से अव्यवहित सम्बन्ध है|आकाश से वायु,
वायु से तेज, तेज से जल और जल से भूमि का प्रादुर्भाव होता है जो क्रमिक रूप से तन्मात्राओं की बृद्धि का परिणाम है |इसमें पांचों सूक्ष्म आकाशों की अनुभूति अवचेतन तथा उसके परे जगत की होती है। ये पांच हैं-1-गुणरहित आकाश 2-परमाकाश 3-महाकाश 4-तत्वाकाश 5-सूर्याकाश |
3-आकाश की शब्द तन्मात्रा के साथ स्पर्श तन्मात्रा के योग से वायु, वायु की दो तन्मात्रावों में रूप की तीसरी तन्मात्रा जुड़ने से तेज, तेज की तीन तन्मात्रावों में रस की चौथी तन्मात्रा जुड़ने से जल और जल की चार तन्मात्रावों में गंध की पाचवी तन्मात्रा जुड़ने से भूमि तत्त्व की उपलब्धि होती है| इस प्रकार सृष्टि के लिए आवश्यक सभी उपादान प्रादुर्भूत होते है| तात्पर्य है की अब तक की सारी घटना आकाश तत्त्व के अंतर्गत ही घट रही है और सर्वत्र आकाश तत्व ही है ;सृष्टि परंपरा की शुरुआत आकाश से ही है|
4-यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि सृष्टिकाल में जो क्रम प्रवर्तित होता है उसका प्रतिलोम मुक्तिकाल में प्रवर्तित होता है तथा जिस परंपरा से और जिस विन्दु से उद्भव होता है उसी विन्दु में विपरीत परंपरा से विलय होता है| इस प्रकार से आकाश एकओर जहाँ अनुलोमक्रम में सृष्टि का विधायक है वही दूसरी ओर विलोम गति में मुक्ति का प्रदायक भी है और इसी में सृष्टि का लय भी होता है|आकाश परब्रह्म से सर्वाधिक निकट है| इसी आकाश को चिदाकाश की संज्ञा दी गयी है जिसे अधिकांश स्थलों पर ब्रह्म का पर्याय तक स्वीकार किया गया है|
5-आकाश नाम का व्यापक तत्त्व आकाश, चित्ताकाश और चिदाकाश तीन रूपों में सर्वत्र व्याप्त है।चिदाकाश को अनंत, अखंड, अद्वय, सर्वव्यापी और विभु सत्ता माना गया है| ठीक यही विशेषण परम चैतन्य के लिए भी प्रयुक्त होता है| इसका अर्थ हुआ कि चिदाकाश और परम चैतन्य दो पृथक सत्ताएं नहीं हो सकती| मह:, जन:, तप:, सत्यम् आदि लोकों, व चिदाकाश, दहराकाश, महाकाश, पराकाश और सूर्याकाश आदि सब से परे अनंत व पूर्ण ब्रह्ममय सत्ता में कहीं कोई भेद नहीं है| शिवत्व में निरंतर स्थिति ही हमारा स्वधर्म है|
6-जिसे चित्त, बुद्धि, मन और अहंकार से अभिहित किया गया है वह सब वास्तव में चित्ताकाश, महादाकाश और अहमाकाश ही है|चित्ताकाश, महादाकाश और अहमाकाश ये सब चिदाकाश के अंतर्गत ही घटित होते है| इस प्रकार मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये सभी चिदाकाशांश के ही अलग अलग शेड्स है| अब जब हम चित्ताकाश से आगे बढ़ते है तो हमारा प्रवेश भूताकाश /दहराकाश में होता है|
7-मुण्डक तथा श्र्वेताश्र्वतर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा की उपमा दो मित्र पक्षियों से दी गयी है और जो दहराकाश में एक ही वृक्ष पर बैठे हैं | इनमें से एक पक्षी (अणु-आत्मा) वृक्ष के फल खा रहा है और दूसरा पक्षी (कृष्ण) अपने मित्र को देख रहा है | यद्यपि दोनों पक्षी समान गुण वाले हैं, किन्तु इनमें से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है, किन्तु दूसरा अपने मित्र के कार्यकलापों का साक्षी मात्र है | कृष्ण साक्षी पक्षी हैं, और अर्जुन फल-भोक्ता पक्षी | यद्यपि दोनों मित्र (सखा) हैं, किन्तु फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है |
8-अणु-आत्मा द्वारा इस सम्बन्ध की विस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने या एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का कारण है | जीव आत्मा प्राकृत शरीर रूपी वृक्ष पर अत्याधिक संघर्षशील है, किन्तु ज्योंही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है – जिस प्रकार अर्जुन कृष्ण का उपदेश ग्रहण करने के लिए स्वेच्छा से उनकी शरण में जाता है – त्योंही परतन्त्र पक्षी तुरन्त सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है |
9-हृदय स्थित दहराकाश/कमलकोष से प्राण का उदय होकर नासिका-मार्ग से निकलकर बारह उंगुल चलकर अंत में आकाश में बिलीन हो जाता है।प्राण की बाह्य गति को रेचक' कहा जाता है तथा इस बाह्य आकाश से 'अपान' का उदय होता है तथा नासिका-मार्ग से चलकर यह हृदय स्थित कमल कोष में विलीन हो जाता है।अपान की इस स्वाभाविक आंतर गति को 'पूरक' कहा जाता है।सिर की शिखा के पास ही द्वादशान्त कहा गया है। जब द्वादशान्त में तथा अपान वायु हृदय में क्षण भर के लिए रुक जाती है उसे योग शास्त्र में 'कुम्भक' कहा जाता है। 10-यह कुम्भक अवस्था दो तरह की होती है--1- बाह्य कुम्भक 2- आंतर कुम्भक ।जब यह श्वास चलते-चलते मध्य में ही किसी कारण से रुक जाती है तो उसे मध्य कुम्भक कहते हैं। यह मध्य दशा इतनी बढ़ जाती है कि वायु रूप यह प्राणात्मक और अपानात्मक शक्ति द्वादशांत से हृदय दहराकाश तक वापस लौटती है।इन सभी रेचक कुम्भक तथा पूरक अवस्थाओं का निरंतर ध्यानपर्वक निरीक्षण करते रहने से योगी जीवन-मृत्यु से मुक्त हो जाता है।इस अवस्था मे पहुँचा योगी बाह्य पदार्थ तथा आंतरिक भावों को ध्यान रूपी अग्नि में भस्म कर देता है। वह अपने समस्त इन्द्रिय समहू को अपने स्वरूप में विस्तीर्ण कर देता है।यह उसकी निर्विकल्प अवस्था है ;जिसमें प्रवेश करने पर साधक स्वयम शिवस्वरूप हो जाता है।अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का उसे ज्ञान हो जाता है।इस समय प्राण और अपान का स्पंदन बहुत कम हो जाता है।यही समाधि है। 11- इस प्रकार हृदय से लेकर द्वादशान्त तक 36 अंगुल का प्राणचार होता है।आज्ञा चक्र में प्रकृति तत्व का स्थान है , उसके सोलह अंगुल ऊपर अथार्त सहस्त्रार चक्र में अव्यक्त तत्व का स्थान है । इसके मध्य में ग्यारह अंगुल उपर माया तत्व का स्थान होता है , इसी के बारह अंगुल की जगह शब्दब्रम्ह का स्थान है।इसी शब्दब्रम्ह को” द्वादशान्त ” कहा जाता हैं।प्राण हृदय-देश /दहराकाश से उद्भूत होकर कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट आदि स्थानों में होता हुआ द्वादशान्त(ब्रह्मरन्ध) से ऊपर) शाक्तप्रदेश में जाकर अस्त होता हैl
12-दहराकाश/ हृदय व्योम से द्वादशान्त व्योम पर्यन्त जो प्राणचार है वह प्रत्येक जन्तु का अपने अंगुल से छत्तीस अंगुल का माना है l दहराकाश/हृदय से द्वादशान्त पर्यन्त ''प्राण प्रवाह'' की संज्ञा दिन है और द्वादशान्त से अपान रूप में प्राण का अवरोह ही रात्रि है lहृदय /दहराकाश से लेकर ऊर्ध्व ” द्वादशान्त ” के इस स्थान तक श्वास प्राण का प्रवाह माना जाता है। ''द्वादशान्त ” के पास प्राण प्रवाह समाप्त होता है ।इसमें हृदय से लेकर कण्ठ तक का 9अंगुल का प्रवाहकाल प्रथम प्रहर, द्वादशान्त को गुरु स्थान कहा गया है ।
13--इस प्रकार 'प्राण 'सूर्य है और 'अपान' चन्द्र l वस्तुतः काल दो प्रकार का है - दिवस में चार और रात्रि में चार प्रहर होते हैं l इस प्रकार आठ प्रहर होते है l हृदय से कण्ठ के निचले भाग पर्यन्त नौ अंगुल का प्रवाहकाल दिन का प्रथम प्रहर है lकण्ठ से तालु के मध्य तक का 9 अंगुल तक प्रवाहकाल द्वितीय प्रहर है ;इस स्थान पर किया गया होम जप और ध्यान मोक्षप्रद होता है lतालु के मध्य से ललाट तक 9 अंगुल तक तृतीय प्रहर और ललाट से 9 अंगुल ऊपर द्वादशान्त तक चतुर्थ प्रहर होता है।इस प्रकार हृदय से लेकर द्वादशान्त तक 36 अंगुल का प्राणचार चार प्रहर वाला आध्यात्मिक दिन और उसके विपरीत क्रम से द्वादशान्त से लेकर /दहराकाश /हृदय तक का प्राणीय आभ्यन्तर संचार चार प्रहर की रात्रि होती है। 14- जब प्राण सूर्य अस्त होता है ;तब सूर्यास्त और अपान रूप चन्द्रोदय के बीच आधी सायं सन्ध्या मानी जाती है lशक्ति और शक्तिमान के संघट्ट के कारण ही इसे सन्ध्या कहा जाता है l यहां प्राण विलम्बित होकर अपान होकर हृदय पर्यन्त अवरोह करता है lअपान रूप रात्रि के भी वैसे ही चार प्रहर होते हैं l जिस समय चन्द्र हृदयकमल में आता है तभी प्रभात होता है l 15- द्वादशान्त , दो प्रकार के होते हैं , शिव द्वादशान्त और शक्ति द्वादशान्त।प्राण -अपान की गति जहाँ शुरू होती है जहाँ रुकती है ,उसे दहराकाश /हृदय और द्वादशान्त कहते हैं ।बाह्य श्वास को शिव द्वादशान्त और आंतर श्वास को शक्ति द्वादशान्त भी कहते हैं ।सभी नाड़ियों की अंतिम अग्र भाग की स्थिति को भी द्वादशान्त कहते हैं।प्राण हृदयदेश /दहराकाश से उद्भूत होकर कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट आदि स्थानों में होता हुआ द्वादशान्त(ब्रह्मरन्ध| से ऊपर) शाक्तप्रदेश में जाकर अस्त होता है ।
क्या है द्वादशान्त में द्वादश आधार?-
04 FACTS;-
1-द्वादशान्त में द्वादश आधार के अन्तर्गर्भ में जाए तो तँत्र शास्त्र में ऋ ऋ ल्र् ल्र् ऐसे चार स्वर आते है , जिन्हें नपुसंक बीज कहते हैं । मुख्य 16 सोलह स्वरों में इन चारों को निकाल दे तो 12 स्वर रह जाते हैं ।इन बारह स्वरों की शरीर के इन 12 स्थानों पर कल्पना करनी चाहिए…
1-1-गुदाधार/जन्मग्र ,
1-2-मूलाधार ,
1-3-कन्द ,
1-4-नाभि ,
1-5-हृदय ,
1-6-कंठ ,
1-7-तालु ,
1-8-भ्रूमध्य ,
1-9-ललाट ,
1-10-ब्रम्हरन्ध,
11-1-शक्ति ,
1-12-व्यापिनी
2-इसमे , जन्मग्र से द्वादशान्त ओर हृदय से द्वादशान्त ऐसे दो प्रकार की प्राणशक्ति का वहन कहा जाता है ।ऊपरी 12 स्थान ही यह 12 चक्र है।ब्रम्हरन्ध से ऊपर द्वादशान्त की स्थिति कही गई है।ललाट के ऊपर क्रमश: ...
2-1- बिंदु – 2-2-अर्धचंद्र – 2-3-रोधिनी – 2-4-नाद – 2-5-नादन्त – 2-6-शक्ति – 2-7-व्यापिनी – 2-8-समना – 2-9-उन्मना ….. 3-ऐसे क्रम कहा गया है जो चित्र में दिया गया है।द्वादशान्त की स्थिति समझने से पहले उसके 12 स्थान समझने आवश्यक है , क्योंकि इन्ही बारह स्थानों से श्वास चलता है । द्वादशान्त इसमें अंतिम स्थान है ।प्रणव/ ओंकार का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना।बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है।
4-समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़ना संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए।बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है।अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।-तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है।
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