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नवधा भक्ति क्या है?क्या है चार तरह के भक्त और पांच प्रकार की मुक्ति ?

क्या है नवधा भक्ति?-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं। .

1.श्रवण 2. कीर्तन, 3. स्मरण, 4. पादसेवन, 5. अर्चन, 6. वंदन, 7. दास्य, 8. सख्य और 9.आत्मनिवेदन।उदाहरण के लिए.. श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

नवधा भक्ति;-

1-श्रवण : -

ईश्वर की लीला, कथा,स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित मन से निरंतर सुनना। 2-कीर्तन: -

ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। 3-स्मरण:-

निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। 4-पाद सेवन:-

ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना। 5-अर्चन:-

मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। 6-वंदन:-

भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

7-दास्य:-

ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। 8-सख्य: -

ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना। 9-आत्म निवेदन:-

अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं। ///////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////

रामचरितमानस में नवधा भक्ति;-- तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम-नाम का जाप करते हुए श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा करने वाली शबरी का चरित्रगान करते हुए उन्हें परमभक्त के रूप में निरूपित किया है।भगवान् राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-

नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।

सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

अथार्त 'माता मैंने गुरुजनो से जो नवधा भक्ति की महिमा सुनी है वही अपने ह्रदय से कहता हूँ

आप भी इसे ह्रदय से धारण कीजिये'।

1-प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।

प्रथम भक्ति सत्संग ही है। विद्वानों, भक्तों एवं संतों के सानिध्य में प्रभु चिंतन का ज्ञान प्राप्त होता है।अर्थात संतों के साथ रहे उनकी बातों को अपने जीवन में उतारें।

2-दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।

दूसरी प्रकार की भक्ति जो पाप-कर्म में प्रवृत व्यक्ति को भी पवित्र करने वाली है, वह है प्रभु लीलाओं के कथा प्रसंग से प्रेम करना। जब मनुष्य भगवान की लीलाओं के प्रति लगनपूर्वक आसक्त होगा तो उन को अपने में ढालने का प्रयत्‍‌न करेगा।अर्थात ईश्वर की महिमा में रूचि ले।उन पर विश्वास रखे ;उनकी कथाओ से सीख ले और उनका अध्यन करते रहे।

3-गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।

तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरू के चरण कमलों की सेवा।गुरुजनो का सदा आदर करना सीखना चाहिए।

4-चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।

चौथी भक्ति में वह माना जाएगा जो छल-कपट रहित होकर श्रद्धा प्रेम व लगन के साथ प्रभु नाम सुमिरन करता है।

5-मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।

पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

मन्त्र का जाप और दृढ़ विश्वास-यह पांचवी भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्ध है।वेदों के अनुसार द्रढ विश्वास के साथ भगवन का नाम जपते रहना चाहिए , उन शब्दों में ऐसी शक्ति है जो आपके जीवन को प्रकाश से उजागर करती है।

6-छठ दम सील बिरति बहु करमा।

निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

छठवीं भक्ति है, जो शीलवान पुरुष अपने ज्ञान और कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए भगवद् सुमिरन करते हैं।अर्थात अपने मन पर काबू रखना और बार बार बाहरी दुनिया की चकाचौंध से खुद को विचलित नहीं करना।

7-सातवँ सम मोहि मय जग देखा।

मोतें संत अधिक करि लेखा।

सातवीं भक्ति में व्यक्ति सारे संसार को प्रभु रूप में देखते हैं।अर्थात प्रभु की दृष्टि से इस संसार को देखने का प्रयत्न करना चाहिए , जो हो रहा है उसको स्वीकार करना सीखो , हर एक कदम पर भगवन आपके साथ है तो किसी भी दुःख में विचलित न हो।संत को हमेशा

अपने प्रभु से भी ऊपर का दर्ज़ा दो और उनका सदैव ही आदर करो।

8- आठवँ जथालाभ संतोषा।

सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को ना देखना।

9-नवम सरल सब सन छलहीना।

मम भरोस हियँ हरष न दीना।।

नौवीं भक्ति है छल कपट का मार्ग छोड़ दूर रहना और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद का न होना।

NOTE;-

उपरोक्त नौ प्रकार की भक्ति में कोई भी भक्ति करने वाला व्यक्ति भक्त होता है और भगवान का प्रिय होता है।भक्त हुए बिना निष्काम कर्मयोग कभी भी सिद्दनहीं हो सकता।भगवद् भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम निष्काम कर्म करते हुए ज्ञान के प्रकाश में अपना आत्मदर्शन कर पाते हैं।

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चार प्रकार के भक्त:-

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:-

''हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है''।

1-आर्त :-

आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है।

2-अर्थार्थी :-

अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।

3-जिज्ञासु :-

जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है।

4-ज्ञानी :-

आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं परंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है।ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है।ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं।

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मुक्ति के प्रकार ;- मुक्‍त का मतलब है बंधनों से और दुखों से मुक्‍त होना।आत्‍मसाक्षात्‍कार के बिना दुखों से मुक्‍त नहीं हो सकते है।मुक्ति कर्म के बन्धन से मोक्ष पाने की स्थिति है।सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य -पाँच प्रकार की मुक्ति होती हैं। ‘सालोक्य’ मुक्तिमें भगवान का लोक प्राप्त होता है।भगवान के समान ऐश्वर्य की प्राप्ति का नाम ‘सार्ष्टि’ है।भगवान की निकटता की प्राप्तिका नाम ‘सामीप्य’ है। भगवान विष्णु जैसे चतुर्भुज रूप प्राप्ति को ‘सारूप्य’ मुक्ति कहते हैं।भगवान से एकाकार हो जाना ‘सायुज्य’ मुक्ति है।

मुक्ति के पांच प्रकार ;- [ 1 ] सालोक्य : -

जीव भगवान के साथ उनके लोक में ही वास करता हैं।इस मुक्ति से भगवद - धाम की प्राप्ति होती है | वहाँ सुख - दु:ख से अतीत अनंत आनंद है , और अनंत काल के लिए है । [ 2 ] सार्ष्टि : -

यह सालोक्य से आगे की मुक्ति है। इसमें भक्त को परम धाम में भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है । सम्पूर्ण ऐश्वर्य , धर्म , यश , श्री , ज्ञान और वैराग्य ये सभी भक्त को प्राप्त हो जाते हैं । केवल संसार की उत्पत्ति व संहार करना भगवान के आधीन रहता है , वह भक्त नहीं कर सकता | [ 3 ] सामीप्य : -

यह सार्ष्टि के आगे की मुक्ति है।इसमें भक्त भगवान के समीप रहता है और भगवान के माता - पिता , सखा , पुत्र , स्त्री आदि होकर रहता है। जीव भगवान के सन्निध्य में रहते कामनाएं भोगता हैं। [ 4 ] सारूप्य : -

यह सामीप्य के आगे की मुक्ति है | इसमें भक्त का रूप भगवान के समान हो जाता है |जीव भगवान के साम्य (जैसे चतुर्भुज) रूप लिए इच्छाएं अनुभूत करता हैं।भगवान के तीन चिन्हों [ श्री वत्स , भृगु - लता , और कौस्तुभ -मणी ] को छोड़कर शेष शंख , चक्र , गदा और पद्म आदि सभी चिन्ह भक्त के भी हो जाते हैं। [ 5 ] सायुज्य : -

यह सारूप्य से भी आगे की मुक्ति है।इसका अर्थ है " एकत्व "। भक्त भगवान मे लीन होकर आनंद की अनुभूति करता हैं।इसमें भक्त भगवान से अभिन्न हो जाता है। यह ज्ञानियों को तथा भगवान द्वारा मारे जाने वाले असुरों की होती है। NOTE;-

ज्ञानी भक्त भगवान की सेवा को छोड़कर ,उक्त सभी मुक्तियाँ भगवान द्वारा दिए जाने पर भी स्वीकार नहीं करता। वह केवल भगवान की सेवा करके , उनको सुख देना चाहता है। भक्त प्रेम का एक ही मतलब जानता है , देना , देना और देना।अपने सुख के लिए वह कोई काम नहीं करता।अद्वैत सिद्धांत से जो मोक्ष होता है , उसमें जड़ता [ संसार ] से सम्बन्ध विच्छेद की मुख्यता रहती है और भक्ति से जो मोक्ष होता है ,उसमें चिन्मय तत्त्व के साथ एकता की मुख्यता होती है।

....SHIVOHAM....

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