क्या है यह प्रकृति की तीन की लीला.. ट्राएंगल?हम इस सम्मोहन के बाहर कैसे आ सकते है?
क्या है अष्टधा प्रकृति?-
09 FACTS;-
1-भगवतगीता केअनुसार श्रीकृष्ण कहते है , ''मुझको परायण हुआ, मेरी तरफ झुक गया, समर्पित हुआ, मेरे चरणों में आ गया!और हे अर्जुन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार भी, ऐसे यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है''।
श्रीकृष्णकहते हैं,परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं है। आदमी की तरफ से दो बाधाएं हैं। एक, नकारात्मक मन; और दूसरा, अस्मिता, अहंकार से भरा हुआ भाव। इन दो दरवाजों को जो पार कर जाता है, वह मुझको उपलब्ध हो जाता है।इस सूत्र में दो त्तीन बातें समझने जैसी हैं। पहली बात, श्रीकृष्ण ने प्रकृति को आठ हिस्सों में विभाजित किया। 2-श्रीकृष्ण ने पंच महाभूतों की बात कही जिनसे प्रकृति बनी है। और तीन और अंतर-रूपों (मन, बुद्धि, अहंकार) की बात कही और इन आठों को इकट्ठा गिनाया।सबसे पहले है
पृथ्वी और सबसे अंतिम है अहंकार। पृथ्वी सबसे मोटी और स्थूल चीज है। अहंकार सबसे सूक्ष्म और बारीक (डेलिकेट) है। इस जगत में जो सूक्ष्मतम अस्तित्व है, वह अहंकार है। और जो स्थूलतम अस्तित्व है, वह पृथ्वी है।और सबसे पहले भीतर की यात्रा में कहा, मन।
मन का अर्थ है, हमारे भीतर जो सचेतना/कांशसनेस ;वह जनरलाइज्ड मनन की शक्ति है, उसका नाम मन है। मन का बहुत रूप जानवरों में भी है। जानवर भी मन से जीते हैं, लेकिन बुद्धि उनके पास नहीं है।
3-बुद्धि मन का स्पेशलाइज्ड रूप है। सिर्फ मनन नहीं, बल्कि तर्कयुक्त, तर्कसरणीबद्ध चिंतन का नाम बुद्धि है। और बुद्धि के भी पीछे जब कोई बहुत बुद्धि का उपयोग करता है, तभी भीतर एक और सूक्ष्मतम चीज का जन्म होता है, जिसका नाम अहंकार है, 'मैं'।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ''इन आठ तत्वों में तू प्रकृति को जानना। और जब इन आठ के पार चला जाए, तब तू मुझे जान पाएगा। इन आठ के भीतर तू जब तक रहे, तब तक तू जानना कि संसार में है; और जब इन आठ के पार हो जाए, तब तू जानना कि तू परमात्मा में है''।
4-सर्वाधिक कठिनाई और आखिरी मुसीबत तो अहंकार के साथ होगी, क्योंकि बहुत ही बारीक है। हवा को तो हम थोड़ा-बहुत मुट्ठी में बांध भी लें , उसको मुट्ठी में बांधने का भी उपाय नहीं। हवा तो चलती है, तो उसका धक्का भी लगता है; अहंकार चलता है, तो उसका
स्पर्श भी मालूम नहीं पड़ता।इसीलिए तो दुरूह हो जाता है अहंकार से ऊपर उठना। क्योंकि इतना सूक्ष्म है कि आप कुछ भी करो, उसी में प्रवेश कर जाता है। आप त्याग करो, वह उसी के पीछे खड़ा हो जाता है।
5-अहंकार कहता है, मैंने त्याग किया! आप किसी के चरण छुओ, समर्पण करो। वह पीछे से कहता है कि देखो, मैं कितना विनम्र हूं! मैंने चरण छुए।आप प्रार्थना करो, परमात्मा के मंदिर में सिर पटको। वह कहता है कि देखो, मैं कितना धार्मिक हूं! मैंने प्रभु की प्रार्थना की ;जबकि दूसरे अधार्मिक सड़कों से जा रहे हैं ; मैं धार्मिक, प्रभु की प्रार्थना कर रहा हूं''!वह 'मैं' आपकी
प्रत्येक क्रिया के पीछे खड़ा हो जाता है। आप कुछ भी करो, वह सदा पीछे है। वह इतना बारीक है कि आप कहीं से द्वार-दरवाजे बंद नहीं कर सकते, जहां वह न आ जाए। जहां भी आप होंगे, वहां वह पहुंच जाएगा। जब तक आप होंगे, तब तक वह पहुंच जाएगा।
6-तो कृष्ण ने यह विभाजन जो करके कहा, वह इसीलिए कहा है कि मोटी से मोटी चीज है पृथ्वी, और सूक्ष्म से सूक्ष्म चीज है अहंकार। पदार्थ से तो मुक्त होना ही है, अंततः अस्मिता से भी मुक्त होना है। क्योंकि अहंकार भी पदार्थ का ही सूक्ष्मतम रूप है।
अगर ठीक से समझें, तो सब बाह्य पदार्थ अग्नि के रूप हैं ,और भीतर के पदार्थ भी वैसे ही अग्नि के ही रूप हैं। जिसको हम मनन कहते हैं, वह भी अग्नि का ही एक रूप है और जिसे हम बुद्धि कहते हैं, वह भी अग्नि का ही एक रूप है।
7-आदमी जो भी कर रहा है, उसमें और पशुओं में बड़ा भेद नहीं है। सिर्फ थोड़ी-सी सूक्ष्मता का भेद पड़ता है। पशु उसे ही जरा अनगढ़ ढंग से करते हैं; और आदमी गढ़कर करता है।
बस सब पशु की प्रवृत्तियां आदमी में सूक्ष्म हो जाती हैं। सूक्ष्म होने से और जटिल कनिंग, और चालाक हो जाती हैं।पशु में एक सरलता भी दिखाई पड़ती है, आदमी में वह भी खो जाती है। क्योंकि वह जटिलता का बिंदु भीतर, अस्मिता, अहंकार पैदा हो जाता है; वह सारी चीजों को उलझा देता है।
8-और जिसको परमात्मा की यात्रा पर जाना हो, उसे पदार्थ के उस सूक्ष्मतम रूप, अग्नि के उस सूक्ष्मतम खेल, प्रकृति के उस सूक्ष्मतम रहस्य के ऊपर जाना पड़ेगा।इसलिए
श्रीकृष्ण कहते हैं, यह विभाजन है।इस तरह आठ हिस्सों में मैंने इस प्रकृति को रचा है।
और जोर यह है कि तू समझ ले कि यह प्रकृति है; यह परमात्मा नहीं है। जो भी रचा जाता है, वह प्रकृति है; और जो भी रचा नहीं जाता है, वही परमात्मा है। जो भी बनता है, वह प्रकृति है; और जो कभी नहीं बनाया जाता, वही परमात्मा है। जो निर्मित होता है, वह प्रकृति है; और जो सदा अनिर्मित है..अनक्रिएटेड, अस्रष्ट–वही परमात्मा है।
8-अहंकार भी निर्मित होता है। बच्चों में अहंकार नहीं होता; धीरे-धीरे निर्मित होता है। बुद्धि भी निर्मित होती है।बच्चों में बुद्धि नहीं होती। और आप ऐसा सोचते हों कि आप बुद्धि लेकर पैदा हुए हैं, तो आप बड़ी गलती में हैं। सिर्फ आप संभावना लेकर पैदा होते हैं, बाद में सब निर्मित होता है। अगर आपको जंगल में भेड़ियों के पास रख दिया जाए और बड़ा किया जाए, तो आपके पास कोई बुद्धि नहीं होगी। हां, भेड़ियों के पास जितनी बुद्धि होती है, उतनी बुद्धि आपके पास होगी। उससे ज्यादा नहीं।
9-बुद्धि भी प्रकृति है, मन भी प्रकृति है। जैसे बाहर पड़ा हुआ पत्थर है, ऐसे ही भीतर पड़ा हुआ अहंकार है। इनमें कोई सूक्ष्म अंतर नहीं है। ये दोनों एक ही चीज हैं। यह सब बना-
बनाया है।इसके पार है वह, जो अस्रष्ट, अनक्रिएटेड है। इन सबके पार जाए कोई, तो उसका
दर्शन है।श्रीकृष्ण कहते हैं,''सो यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा है अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है। और हे महाबाहो, इससे दूसरी को मेरी जीवरूप परा अर्थात चेतन प्रकृति जान कि जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है''।
क्या है अपरा,परा और चैतन्य?-
16 FACTS;-
1-श्रीकृष्ण कहते हैं,"यह जो आठ अंगों वाली प्रकृति है, यह अपरा है। अपरा का अर्थ होता है, निम्न, नीचे की, इस पार की। और इन आठ के पार मेरी वह प्रकृति है, जो परा है, दि बियांड, उस पार की। ये आठ विभाजन इस किनारे के हैं। और एक मैं हूं, उस पार, इन सबसे दूर और ऊपर उठकर–परा। इन सबके पार, इन सबको ट्रांसेंड कर जाता हूं। उस चैतन्य को, उस चेतना को, जो इन सबके पार है, तू इन सबको धारण करने वाली समझ।
वह जो पार है, क्या है?वास्तव में,वह परा ही सबको धारण करने वाली है ;वही धर्म है ..वही सबको सम्हाले है। यह इतना विराट विस्तार उस परा की ही छाती पर है ।परा अथार्त उस पार की चेतना।वह पार की चेतना क्या है? और हमारे भीतर उस पार की चेतना की तरफ जाने वाला द्वार कहां है?स्वयं के भीतर वह परा, वह बियांड कहां शुरू होता है?
2-समस्त योग का सार, उस परा को पहचानने की प्रक्रिया, टेक्नीक है।शरीर में नहीं,
क्योंकि शरीर पदार्थ है। मन में नहीं, क्योंकि मन भी बाहर से संगृहीत विचारों का जोड़ है। बुद्धि में नहीं, क्योंकि बुद्धि भी सूक्ष्मतम अग्नि का रूप है। अहंकार में नहीं, क्योंकि अहंकार भी स्वनिर्मित धारणा है। फिर कहां है वह द्वार, वह सेतु? जहां से सबको धारण करने वाली चेतना का साक्षात और मिलन है?वह है इन सबके साक्षित्व में।
3-शरीर मैं नहीं हूं, यह हम शरीर के साक्षी होकर जान सकते हैं। फिर हम विचारों के भी साक्षी हो सकते हैं। आप भीतर देख सकते हैं कि यह क्रोध चल रहा है। आप भीतर देख सकते हैं, यह लोभ सरक रहा है। आप भीतर देख सकते हैं कि यह काम यात्रा कर रहा है।
विचार को आप वैसे ही,देख सकते हैं जैसे अपने भीतर के पर्दे पर आप फिल्म को देखते हैं। उसके भी आप साक्षी हो सकते हैं। तो फिर आप उससे भी अलग हो गए। कठिनाई थोड़ी-सी पड़ेगी 'मैं 'को देखने में, क्योंकि वह सूक्ष्मतम है और हम उससे आइडेंटिफाइड हैं।
4-कोई आदमी आपको गाली देता है, तब जरा भीतर गौर से देखना कि कोई सांप फन उठाता है, जैसे फुफकारता हो, जैसे सोए सांप को चोट मार दी हो, कोई आपके भीतर उठकर खड़ा हो जाता है। जरा उसे गौर से देखना। जब आप सुंदर कपड़े पहनकर निकलते हैं सड़क पर, तब आप वही नहीं होते, जब आप दीन-हीन कपड़े पहनकर निकलते हैं। भीतर थोड़ा-सा फर्क
होता है।वह जो भीतर 'मैं' है, उसको जरा जागकर खोजते रहेंगे कि वह कहां-कहां खड़ा होता है, तो जल्दी आपकी उससे मुलाकात होने लगेगी; जगह-जगह मुलाकात होगी। आईने के सामने खड़े होंगे, तो शक्ल कम दिखाई पड़ेगी, अहंकार ज्यादा दिखाई पड़ेगा। किसी से हाथ मिलाएंगे, तो आप कम मिलते हुए मालूम पड़ेंगे, अहंकार ज्यादा मिलता हुआ मालूम पड़ेगा। किसी से बात करेंगे, तो आप संवाद करते हुए नहीं मालूम पड़ेंगे, अहंकार भीतर खड़ा हुआ मालूम पड़ेगा।
5-थोड़ा होश का प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे आपके और आपके अहंकार के बीच एक गैप, एक फासला पैदा हो जाएगा। और आप देख पाएंगे, यह अहंकार है; यह रहा अहंकार।
और जिस दिन आप अहंकार को भी देख पाएंगे, उसी दिन आप इस आठ वाली प्रकृति से छलांग लगाकर उस भीतर की परा प्रकृति में पहुंच जाएंगे, जिसे श्रीकृष्ण कहते हैं, ''मेरा
स्वरूप,मेरी चेतना'।और उसी चेतना ने सब धारण किया हुआ है। तब आप पाएंगे कि आपके शरीर, आपकी बुद्धि को भी उसी ने धारण किया हुआ है।
6-तब आप पाएंगे कि आप कभी भीतर गए ही नहीं, उसको कभी आपने देखा ही नहीं, जो प्राणों का प्राण है , जो सारी परिधि का केंद्र है। आपने कभी मालिक को देखा ही नहीं; आप नौकरों से ही उलझे रहे। और अनेक बार आपने नौकरों को ही समझ लिया कि यह मैं हूं।
आप मालिक तक कभी पहुंचे नहीं।श्रीकृष्ण अर्जुन को उस मालिक की तरफ ले जाने की एक-एक कदम कोशिश कर रहे हैं।कहते हैं, ''यह है आठ की प्रकृति अर्जुन। तू इसे ठीक से समझ ले। और फिर इसके पार होने के लिए मैं उस बात की तुझे खबर दूं, जो परा है, वह जो चैतन्य है, पीछे सबसे छिपा, जो सबका निर्माता, जो सबका आधार और जो सबको फिर अपने में आत्मसात कर लेता है''।
7-इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि ''मैं तो छिपा हूं इस सब क्षुद्र में भी, लेकिन तू मुझसे शुरू कर।सत्व, रज, तम,(एयर एलिमेंट ,फायर एलिमेंट, वॉटर एलिमेंट) तीनों से ही जो मोहित हैं, वे मेरे तत्व को न जान पाएंगे, क्योंकि मैं बियांड हूं, मैं पार हूं तीनों के''।बड़ा क्रांतिकारी सूत्र
है!इसको समझना पड़ेगा।गुणों के कार्यरूप सात्विक, राजस और तामस, इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार मोहित हो रहा है, इसलिए इन तीनों गुणों से परे 'अविनाशी' को तत्व से ...कोइ भी नहीं जानता।प्रकृति के मोह में सारे ही लोग हैं।मोह के कारणअलग-अलग होंगे, अलग-अलग बहाने होंगे।लेकिन मोह का परिणाम एक ही होता है।
8-हमें लगता है, चोर नहीं जान पाएगा, बेईमान नहीं जान पाएगा; लेकिन सज्जन तो जान लेगा! सज्जन तो सत्व से मोहित है। हम कहते हैं, वह आदमी नहीं जान पाएगा, जो सिर्फ धन कमा रहा है।वह आदमी तो जान लेगा, जो जाकर मरीजों की सेवा कर रहा है! हम कहते हैं, वह आदमी भला न जान पाए, जो आदमी सिर्फ राजनीति की सीढ़ियां चढ़ रहा है। लेकिन वह आदमी तो जान लेगा, जो दीन-दुखियों के पैर दबा रहा है।श्रीकृष्ण कहते हैं, सत्व, रज,
तम,(एयर एलिमेंट ,फायर एलिमेंट, वॉटर एलिमेंट) तीनों ही मोहित है! वह जो बुरा दिखाई पड़ता है, वह तो मोहित है ही। वह जो भला दिखाई पड़ता है, वह भी मेरी ही प्रकृति के सत्व गुण से हिप्नोटाइज्ड है, वह भी मोहित है। यह जानना थोड़ा कठिन और जटिल है।
9- उदाहरण के लिए आप अपनी दुकान पर बैठे हैं, और आज अगर ग्राहक न आए, तो आप दुखी होते हैं। लेकिन आपको पता है कि किसी सेवक को अगर कोई सेवा करवाने वाला न मिले, तो आपसे कम दुख नहीं होता। इतना ही दुख हो जाता है। फर्क क्या हुआ? माना कि वह काम अच्छा कर रहा था, लेकिन परिणाम तो एक ही है।अगर समाज इतना सुखद,
इतना मंगल को उपलब्ध हो जाए कि किसी व्यक्ति को समाज में समाज-सुधार के काम करने का मौका न मिले, तो आप जानते हैं, समाज-सुधारकों की कैसी हालत हो जाए! बड़ी मुश्किल में बड़ी बेचैनी में पड़ जाएं। वह बेचैनी ठीक वैसी ही होगी, जैसे अचानक धंधा डूब जाए; ग्राहक न आएं; फैशन बदल जाए; आपकी दुकान की चीजें बिकनी बंद हो जाएं। वह पीड़ा उतनी ही होगी।
10-सत्व /एयर एलिमेंट भी, अच्छा काम भी बिना परमात्मा को समर्पित हुए सिर्फ एक मोह है, और उससे भी अहंकार ही निर्मित होता है। इसलिए जिनको हम सात्विक लोग कहते हैं, वे भी
अपने ढंग से अपनी अस्मिता को मजबूत करने में लगे रहते हैं।परमात्मा के अतिरिक्त–वह जो पार है, वह जो परा है प्रकृति के ऊपर, उसके अतिरिक्त–सभी सम्मोहन है। सभी मोह के आधार बन जाते हैं; सभी मन को पकड़ लेते हैं, और सभी मन को मूर्च्छित कर देते हैं।
अन्यथा,श्रीकृष्ण को अर्जुन से यह कहने की जरूरत क्या है कि अर्जुन सत्व से मोहित हो रहा है...।
11-उदाहरण के लिए एक सुबह गौतम बुद्ध के पास एक आदमी आया और बुद्ध के चरणों में सिर रखकर उसने कहा,'' मुझे कुछ बताएं कि मैं दुनिया का कल्याण कर सकूं''। गौतम बुद्ध ने उसकी तरफ नीचे देखा और कहा कि ''तू अपना ही कर ले, तो काफी है। तू दुनिया को क्यों मुसीबत में डालना चाहता है! तेरा कल्याण हो चुका?'' उसने कहा कि मैं कोई स्वार्थी आदमी नहीं हूं। मुझे मेरी फिक्र ही नहीं है; मुझे तो दुनिया की फिक्र है।गौतम बुद्ध ने कहा, ''जिसका खुद का दीया बुझा हो, वह किसके दीए जला सकेगा''!मगर वह आदमी कह रहा है,कि मैं
स्वार्थी नहीं हूं, मुझे दुनिया की फिक्र है। लेकिन यह आदमी अगर कल्याण करने जाए, तो किसी के जले दीए और बुझा देगा। इससे कल्याण हो नहीं सकता।
12-परमात्मा के सिवाय कल्याण हो नहीं सकता। आदमी कैसे कल्याण करेगा? आदमी होना ही एक बीमारी है, एक डिसीज। और वह कहता है कि नहीं, मेरी उत्सुकता मुझमें, अपने आपमें नहीं है। मेरी उत्सुकता तो यह है कि दूसरों का भला कैसे हो।गौतम बुद्ध ने अपने
भिक्षुओं को कहा कि ''देखो, यह एक पवित्र अहंकारी है। इसको यह भी अहंकार है कि यह स्वार्थी नहीं है''। तो ।गौतम बुद्ध ने कहा, ''पहले तू अपना स्वार्थ तो साध ले। तू पहले स्वयं को तो जान ले''। उसने कहा कि इन सब बातों में मुझे मत डालें। दुनिया में बड़ी तकलीफ चल रही है और मुझे सब बदलना है और सब ठीक कर देना है।
13-ये ठीक करने वाले हजारों साल से ठीक कर रहे हैं, दुनिया की तकलीफ बढ़ती जाती है, कम नहीं होती। अब तो ऐसा लगने लगा है कि किसी तरह समाज का समाज-सुधारकों से
छुटकारा हो जाए, तो थोड़ी राहत मिले।असल में दूसरे को बदलने और ठीक करने का भी एक रस है। और सारी दुनिया को ठीक कर देने में भी एक बड़ी मौज है, बड़ा रस है। और हरेक इस खयाल से जीता है कि मैं सारी दुनिया को ठीक कर दूंगा।खुद को ठीक करना
बहुत मुश्किल पाकर लोग दुनिया को ठीक करने निकल जाते हैं! खुद से बचने के लिए लोग हजार उपाय खोज लेते हैं। खुद की बीमारियां दिखाई न पड़ें, खुद की परेशानियां दिखाई न पड़ें, खुद की परेशानियों से पलायन हो जाए, तो दूसरे की परेशानियों में लग जाते हैं। भुलाने की तरकीबें हैं; लेकिन सात्विक बातें हैं, इसलिए मजा भी है।
14-चोर को तो आप कह भी दें कि तू बुरा काम कर रहा है, नष्ट कर रहा है अपने को। साधु को कैसे कहिएगा? वह तो सेवा कर रहा है। वह तो कोई बुरा काम कर नहीं रहा है। वह तो स्कूल खोल रहा है; धर्मशाला बना रहा है; अस्पताल बना रहा है। कोई बुरा काम नहीं कर रहा है। कोढ़ियों की मालिश कर रहा है; कोई बुरा काम नहीं कर रहा है।लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं,
सत्व, रज, तम, तीनों.. चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो बुरा हो; और चाहे कोई ऐसा कृत्य, जो भला हो; और भले और बुरे की तरफ दौड़ने की जो प्रवृत्ति है, वे तीनों ही प्रकृति हैं। और अर्जुन, तू ठीक से समझ ले कि जब तक इन तीन से कोई मोहित हुआ जी रहा है, तब तक वह मुझ पार को, वह जो अतीत है, वह जो अतिक्रमण कर जाता है, उसको उपलब्ध नहीं हो सकेगा।
15-इसका अर्थ यह हैं कि परमात्मा को पाने के लिए बुरे के तो ऊपर उठना ही पड़ता है, भले के भी ऊपर उठ जाना पड़ता है। परमात्मा को पाने के लिए असदवृत्तियों को तो छोड़ ही देना पड़ता है, सदवृत्तियों को भी छोड़ देना पड़ता है। असल में उस परम स्वतंत्रता के लिए लोहे की जंजीरें तो तोड़नी ही पड़ती हैं, सोने की जंजीरें भी तोड़ देनी पड़ती हैं।और ध्यान रहे, लोहे
की जंजीरों से अक्सर ही सोने की जंजीरें ज्यादा जंजीरें सिद्ध होती हैं। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो तोड़ने का मन भी होता है; सोने की जंजीर को बचाने का भी मन होता है। सोने की जंजीर आभूषण मालूम पड़ने लगती है। इसलिए बुराई से तो कोई आदमी उठने की तैयारी दिखलाता है, लेकिन भलाई से तो उठने की तैयारी भी नहीं दिखलाता।
16-तो श्रीकृष्ण कहते हैं, तू सत्व की बातों में मत पड़ अर्जुन। तू यह साधुता की बातें मत कर। क्योंकि मुझे पाए बिना कोई भी साधु नहीं है। उसके पहले सिर्फ धोखा है मन का। कुछ लोग बुरे ढंग से अपने को धोखा देते हैं, कुछ लोग भले ढंग से अपने को धोखा देते हैं। कुछ लोग दूसरों को नुकसान करके अपने को धोखा देते हैं, कुछ लोग दूसरों को लाभ पहुंचाकर अपने को धोखा देते हैं। लेकिन धोखा तब तक जारी रहता है, जब तक कोई प्रकृति के गुणों के
ऊपर न उठ जाए।चित्त की ऐसी अवस्था चाहिए जहां न बुरा खींचता हो, न भला खींचता हो। न बीमारियां आकर्षित करती हों –(क्रोध, काम, लोभ); न आकर्षित करते हों तथाकथित सेवा, सदभाव, मंगल, कल्याण।कोई भी आकर्षित न करता हो।और जब दोनों में से कोई भी
आकर्षित नहीं करता, तो चित्त ठहर जाता है। नहीं तो दौड़ता रहता है। कभी बुरे के लिए, कभी भले के लिए; कभी साधु होने के लिए, कभी असाधु होने के लिए; दौड़ जारी रहती है। चित्त तो रुकता ही तब है, जब दोनों से मुक्त हो जाता है। और जब चित्त दोनों से मुक्त होता है, तब एक नए आयाम में यात्रा शुरू होती है, अंतर्यात्रा या ऊर्ध्वयात्रा शुरू होती है। तब व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठकर परमात्मा को अनुभव कर पाता है।
क्या अंतर है साधु और असाधु में?-
13 FACTS;-
1-वास्तव में,साधु और असाधु एक ही दुनिया के रहने वाले लोग हैं। एक के हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। एक के हाथ में सोने की जंजीरें हैं। एक बुरे कामों में उलझा है, लेकिन व्यस्त है उसी तरह, जैसा दूसरा भले कामों में उलझा है और व्यस्त है, आक्युपाइड है। लेकिन दोनों की नजरें जमीन पर लगी हैं। दोनों में से कोई आकाश की तरफ नहीं देख रहा है।इसलिए हमने
इस देश में साधु को वह मूल्य नहीं दिया, जो संत को दिया।हमने उसे संत कहा है, जो न भले में उलझा है, न बुरे में। जो उलझा ही नहीं है; जिसने जमीन से नजर ऊपर उठा ली; जिसने आकाश को देखा है; जिसने परमात्मा को पहचाना है।
2-इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा को पहचानने के बाद वह साधु नहीं होगा। वह वही
साधु होगा ;लेकिन बुनियादी अंतर पड़ जाएंगे।जिसने परमात्मा को नहीं पहचाना, उसकी साधुता ..असाधुता के खिलाफ एक सतत संघर्ष होती है। असाधु भीतर मौजूद रहता है। वह तमस भीतर मौजूद रहता है। सत्व की लड़ाई चलती रहती है।साधु का मतलब है, जिसने
क्रोध को भीतर दबाया है; अक्रोधी हुआ। जिसने चोरी को भीतर दबाया; अचोर हुआ। जिसने परिग्रह को दबाकर छोड़ा; अपरिग्रही हुआ। जिसने अहंकार को दबाया, और विनम्र हुआ। लेकिन वे सब भीतर बीमारियां कतारबद्ध मौजूद हैं, और प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब आप विश्राम करिएगा! ...कब थोड़ा-सा अवकाश लेंगे अपने संघर्ष से!
3-इसलिए साधु रात सोने तक में डरते हैं, क्योंकि सोने में विश्राम हो जाता है। और जिस-जिस को दिन में दबाया है, वह सब सपना बनकर छाती पर घूमने लगता है। इसलिए साधु जरा भी विश्राम लेने में डरते हैं कि कहीं भी जरा विश्राम लिया और वह संघर्ष अगर थोड़ा भी शिथिल
हुआ, तो मालूम है उन्हें भलीभांति कि दुश्मन मौजूद है।सब साधु अपने भीतर असाधु को दबाए हुए हैं। और जब तक असाधु मौजूद है, साधु सिर्फ सतह है। भीतर तो सब उबल रहा है लावे की तरह। ज्वालामुखी की तरह भीतर आग लगी है। अभी धुआं दिखाई नहीं पड़ रहा; अभी ज्वालामुखी फूटा नहीं; लेकिन इससे ज्वालामुखी नहीं है, ऐसा कहने की कोई जरूरत नहीं। ज्वालामुखी भीतर तैयारी कर रहा है।
4-संत हम उसे कहते हैं, जो असाधुता से लड़कर साधु नहीं है , जिसने परमात्मा को देखा, और परमात्मा को देखने से साधु हो गया ;कोई संघर्ष नहीं है ,किसी को दबाया नहीं, किसी से लड़ा नहीं। इसलिए संत विश्राम से नहीं डरेगा। डरने का कोई सवाल ही नहीं है। उसे विपरीत की संभावना ही नहीं है। उसके भीतर से, परमात्मा को देखने से, असाधुता गिर गई।
संत वह है, जिसकी असाधुता गिर गई; और साधुता पनपी, प्रकट हुई। और साधु वह है, जिसने असाधुता को दबाया, कल्टिवेट किया,अभ्यास किया; साधुता को थोपा, आरोपित किया। साधु की तरह अपने को नियोजित किया, संयमित किया; अपने को बनाया, तैयार किया। साधु की तरह जिसने अपने ऊपर मेहनत की। इसमें आदमी की मेहनत है। आदमी की मेहनत ज्यादा दूरगामी नहीं हो सकती। आदमी हमेशा प्रकृति से हार जाएगा।
5-उदाहरण के लिए एक बड़ा वर्तुल खींचें, वह परमात्मा है। उसमें एक छोटा वर्तुल खींचें, वह प्रकृति है। उसमें और एक छोटा-सा वर्तुल खींचें, वह आदमी है।प्रकृति परमात्मा में है,
लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है।आदमी प्रकृति में है, लेकिन प्रकृति आदमी में नहीं है। वह
आदमी और छोटा वर्तुल है।तो अगर आदमी प्रकृति के खिलाफ लड़ेगा , तो हारेगा। प्रकृति से लड़ नहीं सकता; वह बड़ी है, उससे विराट है। प्रकृति आदमी में है,और भीतर पूरी, गहरे में छिपी है। आदमी उसका छोटा-सा हिस्सा दबाए हुए है। इसलिए आप रोज प्रकृति से हारते हैं, लेकिन आपको खयाल नहीं आता कि आप अपने से बड़ी शक्ति से लड़ रहे हैं; तो हारेंगे ही।
6-उदाहरण के लिए जब आप क्रोध से हारते हैं, तो आपको पता है, आप किससे लड़ रहे हैं।आप सोचते हैं कि क्रोध छोटी-मोटी चीज है।लेकिन क्रोध छोटी-मोटी चीज नहीं है; प्रकृति का हिस्सा है। उसकी जड़ें गहरी हैं; आपके खून ,आपकी हड्डियों और आपकी बुद्धि से ज्यादा गहरी। इसलिए आप हजार दफे बुद्धि से तय कर लेते हैं कि अब क्रोध नहीं करूंगा, और जब क्रोध आता है, तो पता नहीं बुद्धि कहां फिंक जाती है, और क्रोध आ जाता है। क्रोध गहरा है। आप ऊपर-ऊपर निर्णय करते रहते हैं, भीतर प्रकृति आपकी फिक्र नहीं करती।अगर आपने
प्रकृति से अपने ही भरोसे जीतने की कोशिश की, तो आप रोज हारेंगे। कभी-कभी साधु मालूम पड़ेंगे, फिर असाधुता प्रकट हो जाएगी।और फिर - फिर प्रकृति आपको हराती ही रहेगी।
7-अगर प्रकृति को हराना है, तो आदमी के भरोसे नहीं, बड़े वर्तुल, परमात्मा के भरोसे हराया जा सकता है। तब उस बड़े वर्तुल के साथ सहारा लें। उसके साथ तत्काल जीत हो जाती है। उसके साथ प्रकृति उसी तरह हार जाती है, जैसे आपके साथ प्रकृति से आप हार जाते हैं।
प्रकृति से आप लड़ेंगे, तो आप हारेंगे। अगर परमात्मा को लड़ाएंगे, तो प्रकृति हारी ही हुई है। कोई सवाल नहीं है, क्योंकि परमात्मा और भी प्रकृति के गहरे में है।उदाहरण के लिए
सागर, सागर पर उठी लहरें,और लहरों पर तैरता हुआ एक तिनका, ऐसा समझ लें। सागर परमात्मा हैं, लहरें प्रकृति, और आप एक छोटे-से तिनके हैं ..लहरों के ऊपर। आप लहरों से भी नहीं लड़ सकते हैं। लहर से भी हार जाएंगे। आप कितना ही निर्णय करें कि हम तो लहर के ऊपर रहेंगे; लहर की मर्जी कि कब नीचे गिरा दे। लेकिन सागर का सहारा ले लें, तो फिर लहर कुछ भी नहीं है। क्योंकि सागर के सामने लहर का क्या वश!
8-परमात्मा में निष्ठा का अर्थ, या परमात्मा के प्रति परायण होने का अर्थ, या परमात्मा में समर्पित होने का इतना ही अर्थ है कि प्रकृति से मनुष्य की सीधी लड़ाई असंभव है। हम परमात्मा में समर्पित होते हैं, समर्पित होते ही लड़ाई समाप्त हो जाती है। परमात्मा को देखते
ही प्रकृति शांत हो जाती है।यह करीब-करीब ऐसा ही घटित होता है, जैसे कि स्कूल के क्लास के बच्चे खेल रहे हैं, शोरगुल कर रहे हैं, और शिक्षक भीतर आया, और सब शांति हो गई। बच्चे अपनी जगह बैठ गए हैं; उन्होंने किताबें खोल लीं; अपना काम करने लगे। अभी शोरगुल था, अब सब शांत हो गया।
9-ठीक ऐसे ही परमात्मा की तरफ आंख उठते ही प्रकृति एकदम शांत हो जाती है। मालिक आ गया। प्रकृति का कोई उपाय नहीं रह जाता। लेकिन आप तो प्रकृति के एक छोटे-से टुकड़े हैं, तिनके, और प्रकृति से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।सात्विक होने की चेष्टा बिना धार्मिक
हुए, बिना परमात्मा में समर्पित हुए, प्रकृति से लड़ने की चेष्टा है। इन तीनों के पार है प्रभु। जब आपके चित्त में तीन चीजें.. सत्व न हो, तम न हो, रजस न होन हों, तब आपका चित्त परमात्मा की तरफ उठेगा। इनको थोड़ा-सा समझ लें कि जब ये तीनों न होंगे तो कैसी स्थिति होगी।
वह जो शक्ति है, जो करती है, –बुरा करने का भाव नहीं, भला करने का भाव नहीं–जब ये दोनों नहीं रहते ;तब वह जो शक्ति है, वह कहां जाए? और शक्ति तो कहीं जाएगी ही। अगर आप मार्ग न देंगे, तो भी जाएगी। अब न बुरे की तरफ जा सकती है, न भले की तरफ जा सकती है, तो अब कहां जाए?
10-वास्तव में,जब दोनों दिशाएं बंद हो जाती हैं, तो शक्ति ऊपर की तरफ, तीसरे, थर्ड डायमेंशन में, तीसरी यात्रा पर उठने लगती है। और वह तीसरी यात्रा पर परमात्मा है, जहां न शुभ है, न अशुभ है। जहां दोनों नहीं, जहां द्वंद्व नहीं; जहां अद्वय है, जहां अद्वंद्व है, जहां अद्वैत है। उसकी एक झलक, और सारी प्रकृति शांत हो जाती है।फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ''तू
उस झलक को पा ले और फिर तू बात करना साधुता की। करने की जरूरत न रहेगी; तू साधु ही हो जाएगा। उसकी नजर पड़ी, कि तू बदला; तेरी नजर उस पर पड़ी, कि तू बदला। एक दफा उस दर्शन को''…।
11-यह दर्शन शब्द बड़ा अदभुत है। इसका अर्थ है, एक दफा उसका दीदार, उसका दर्शन, एक दफे वह दिख जाए, बस। और उसे देखने के लिए इन तीन के ऊपर जाना जरूरी है।
इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं, ''मैं इन तीनों के पार हूं। इन तीनों तक प्रकृति है, ऐसा तू जानना। और जब इन तीनों के पार उठे, तब तू मुझे देख, और जान पाएगा।यह अलौकिक अर्थात
अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष मेरे को ही निरंतर भजते हैं, वे इस माया का उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं''।
12-बड़ी शक्ति है प्रकृति की, क्योंकि है तो परमात्मा की ही शक्ति...। दुस्तर है ,कठिन है,अलौकिक है, क्योंकि हम उसी शक्ति से निर्मित हैं, हमारा सब कुछ हैं। सिर्फ हमारे भीतर
जो परमात्मा है, वह उसे छोड़कर हैं।हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा सब कुछ प्रकृति से ही निर्मित है। जब हम मिट्टी से लड़ते हैं, तो हम मिट्टी को ही लड़ा रहे हैं। हम प्रकृति से ही प्रकृति को लड़ा रहे हैं। तो हम न जीत पाएंगे।बात बहुत दुस्तर हो जाएगी।श्रीकृष्ण कहते
हैं,विचित्र है, अदभुत है, अलौकिक है, असाधारण है यह शक्ति! क्योंकि शक्ति तो आखिर परमात्मा की ही है। माना कि कितनी ही छोटी लहरें हों, फिर भी हैं तो सागर की। यह सोचकर कि लहरें हैं, उनसे जूझ मत जाना। हमें डुबाने को तो वे लहरें भी काफी हैं। क्योंकि लहरों में भी और छोटी लहर हैं।अगर आदमी अपने बलबूते पर लड़े ;सोचता हो कि मैं पार कर ही लूंगा, तो कठिन है।
13-लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं, कठिन नहीं , संभव भी है, अगर कोई मेरा सहारा ले ले।अगर कोई मुझ पर भरोसा कर सके, ट्रस्ट कर सके, तो बड़ी सरल है। अगर कोई दिन-रात मुझे ही भजे, अगर कोई दिन-रात मुझको ही समर्पित रहे, अगर कोई मेरे ही हाथ में सारी बात छोड़ दे और कहे कि ठीक है, अब तुम्हीं नाव को खेओ। अब मैं छोड़ता हूं; अब तुम मुझे ले चलो, जहां
ले चलना हो।तो विराट शक्ति के साथ भरोसा हो,तो लड़ाई बहुत आसान है। खुद आदमी लड़ने की कोशिश करे, तो लड़ाई बहुत कठिन है; जीतना करीब-करीब असंभव है; हारना ही सुनिश्चित है।लेकिन विराट के साथ हार असंभव है; विराट के साथ जीत सुनिश्चित है।
क्या अंतर है भाव और शब्द में ?-
05 FACTS;-
1-अपने को विराट के हाथों में छोड़ने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं, दिन-रात मुझे ही भजे। क्या मतलब होगा दिन-रात भजने का?वास्तव में, भजना बहुत भाव की दशा है। भजने का अर्थ है, एक अंतःस्मरण। जहां भी, जो भी दिखाई पड़ जाए, उसमें श्रीकृष्ण का ही स्मरण। फूल दिखे, तो पहले फूल का खयाल न आए, पहले खयाल श्रीकृष्ण का आए। फिर श्रीकृष्ण फूल में खिल जाए; फिर फूल श्रीकृष्णरूप हो जाए। भोजन को बैठें, तो पहले खयाल भोजन का न आए, श्रीकृष्ण का आए। पेट में भूख लगे, तो पहले खयाल यह न आए कि मुझे भूख लगी है; पहले खयाल आ जाए, श्रीकृष्ण को भूख लगी है। ऐसा रोएं-रोएं में, उठते-बैठते, चलते-सोते; सांझ जब रात बिस्तर पर गिरने लगें, तो ऐसा खयाल न आए कि मैं सोने जा रहा हूं; ऐसा खयाल आए कि मेरे भीतर वह जो श्रीकृष्ण है, अब विश्राम को जाता है।
2-और यह शब्द से नहीं, यह खयाल भाव से आए।आपके घर में एक बच्चा पैदा हो, तो ऐसा न लगे कि बच्चा पैदा हुआ है; ऐसा लगे कि श्रीकृष्ण आए, या परमात्मा आया। कोई भी नाम से कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि सभी नाम उसी के हैं। लेकिन भाव यह हो कि परमात्मा है। सभी स्थितियों में–सुख में, दुख में, विपदा में, संपदा में–सभी स्थितियों में उसका ही स्मरण बना रहे। सभी कुछ उसको ही समर्पित हो जाए।ऐसा जो दिन-रात भजे कोई, तो विराट से
सम्मिलन शुरू हो जाता है। क्योंकि हमारी चेतना उसी तरफ बहने लगती है, जिस तरफ हमारी स्मृति होती है। स्मृति चेतना के लिए चैनेलाइजेशन है।
3-जैसे हम नहर बनाते हैं नदी में। नहर नहीं बनाते, तो नदी बहती है, जहां उसे बहना होता है।नहर बना देते हैं, तो फिर नदी नहर से बहती है। और जहां हमें ले जाना होता है, नदी वहां
पहुंच जाती है। जिसे संतों ने स्मरण स्मृति या सुरति कहा है, बुद्ध ने राइट माइंडफुलनेस कहा है,..सम्यक स्मृति।यह बात भाव में प्रवेश कर जाए ।सुबह जब नींद खुले, तो ऐसा न लगे कि मैं जग रहा हूं; ऐसा लगे कि मेरे भीतर परमात्मा जागा। और यह शब्द से नहीं; ऐसा आप सुबह उठकर कहें कि मेरे भीतर परमात्मा जागा, उससे बहुत अर्थ नहीं है। क्योंकि कहने का मतलब ही यह है कि आपको भाव पैदा नहीं हो रहा है। भाव पैदा हो, तो कहने की जरूरत नहीं है।
4-भाव और शब्द में फर्क है। शब्द धोखा देते हैं। एक आदमी बार-बार किसी से कहता है, ''मैं बहुत प्रेम करता हूं''। तब वह धोखा देने की कोशिश कर रहा है। क्योंकि जब प्रेम होता है, तो प्रेम शब्द-शून्य होता है; कहने की भी जरूरत नहीं होती पूरे प्राणों से प्रकट होता है; रोएं-
रोएं से प्रकट होता है।मां बच्चे से कह भी नहीं सकती कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। कैसे कहेगी! बच्चा भाषा भी नहीं जानता। फिर भी बच्चा पहचानता है। रोएं-रोएं से, मां के चारों तरफ, प्रेम
बहने लगता है। कोई भाषा नहीं है।और मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर बच्चे को मां के पास बड़ा न किया जाए, तो फिर वह जिंदगी में किसी को भी प्रेम न कर पाएगा। और मां कभी बच्चे से कहती नहीं कि मैं तुझे प्रेम करती हूं, क्योंकि उससे कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन उसे छाती से लगा लेती है। भाव की कोई धारा दोनों की छातियों के बीच आदान-प्रदान हो जाती है। उसकी आंखों में झांकती है। भाव की कोई धारा एक-दूसरे की आंख से उतर जाती है। उसका हाथ.. हाथ में लेती है, और भाव की कोई धारा हाथ-हाथ के पार चली जाती है। शब्द नहीं है ;जो अनूठा प्रेम था–शब्दहीन, निःशब्द, मौन; जाना था जिसे, किसी ने कहा नहीं था कभी; किसी ने दावा नहीं किया था; लेकिन फिर भी बहा था और पहचाना था–।
5-यह जो स्मरण है, यह जो प्रभु-परायण होने की बात है, यह जो श्रीकृष्ण कहते हैं, मुझे ही जो भजे चौबीस घंटे, इसका अर्थ है, जो भाव से मुझमें जीए। उठे-बैठे कहीं भी, भाव से मुझमें रहे। चले-फिरे कहीं भी, भाव से मुझमें रहे। करे कुछ भी, भाव से मुझमें रहे।एक अंतर्धारा भाव की मेरी तरफ बहती रहे, बहती रहे, बहती रहे। धीरे-धीरे वह नहर खुद जाती है, जिससे व्यक्ति
और परमात्मा के बीच सेतु बन जाता है।और एक बार वह सेतु निर्मित हो जाए, फिर इस प्रकृति से ज्यादा निर्बल कोई चीज नहीं है। लेकिन जब तक वह सेतु न बने, प्रकृति महाशक्तिशाली है।हमारी तुलना में प्रकृति बहुत शक्तिशाली है। परमात्मा की तुलना में कोई सवाल ही नहीं उठता।
हम इस सम्मोहन के बाहरकैसे आ सकते है?-
05 FACTS;-
1-इसलिए अगर आदमी अपने पर भरोसा करे, तो अपने को उलझाएगा ।और जब से पूरी आदमियत ने अपने पर भरोसा करना शुरू किया है, और जब से ऐसा लगा है कि ईश्वर को बीच में आने की कोई भी जरूरत नहीं है, हम काफी हैं; मैन इज़ इनफ ;तब से हमने आदमी की समस्याएं करोड़ गुना गहरी और गहन कर दी हैं। और सुलझाव कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। रोज उलझाव बढ़ता चला जाता है।एक समस्या सुलझाते हैं, तो सुलझाने में
पच्चीस नई समस्याएं खड़ी कर लेते हैं। उनको सुलझाने जाते हैं कि और हरेक समस्या से पच्चीस समस्याएं खड़ी होती हैं। सारा मनुष्य एक समस्या हो गया है; सिर्फ एक समस्या; जिसे कहीं से भी छुओ, और समस्या! जैसे सागर को कहीं से भी चखो, और नमकीन, नमक। ऐसे आदमी को कहीं से भी छुओ, और समस्याएं निकल आती हैं। कुछ भी करो, और समस्याएं। सब तरफ समस्याएं फैल गई हैं। क्या बात हो गई है?
2-असल में प्रकृति से लड़कर हम जो कर रहे हैं, उससे यही होना निश्चित था। प्रकृति दुस्तर है, उससे लड़ा नहीं जा सकता। उससे लड़कर हम सिर्फ अपने ऊपर मुसीबत बुला सकते हैं। हां, थोड़ी देर हम अपने को भ्रम में रख सकते हैं कि हम लड़ रहे हैं, और जीत जाएंगे। हम थोड़ी देर आशाएं बांध सकते हैं। लेकिन सब आशाएं धूल-धूसरित हो जाती हैं; सब मिट्टी में
मिल जाती हैं।फिर भी आदमी अजीब है, अब तक उसे खयाल नहीं आया। और हम एक-दूसरे को हिम्मत बढ़ाए चले जाते हैं। पिता बेटे को कहता है, कोई फिक्र नहीं; मैं नहीं जीता, तू जीत जाएगा। जरा परिस्थितियां ठीक न थीं। शिक्षक विद्यार्थी को कहे जाता है, कोई फिक्र नहीं। हम नहीं जान पाए कि सत्य क्या है, लेकिन तुम जान लोगे, क्योंकि अब ज्ञान और काफी विकसित हो गया है।
3-उदाहरण के लिए एक बूढ़े ऊंट से किसी ने पूछा कि तुम पहाड़ पर जाते वक्त ज्यादा आनंद अनुभव करते हो कि पहाड़ से नीचे जाते वक्त? उसने कहा, ये दोनों बातें फिजूल हैं। असली सवाल यह है कि मेरे ऊपर बोझ है या नहीं। ऊपर-नीचे का कोई सवाल नहीं है। मेरा दोनों वक्त एक ही काम रहता है। चाहे पहाड़ के नीचे जाऊं, तो बोझ ले जाता हूं। चाहे पहाड़ के ऊपर जाऊं, तो बोझ ले जाता हूं। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सदा बोझ ही ढोता हूं।
लेकिन हमें फर्क लगता है। कभी हम जब सफलता की तरफ जा रहे होते हैं, तो बोझ हम आसानी से ढोते हैं, क्योंकि हमें लगता है, पहाड़ उतार पर है। जल्दी पहुंच जाते हैं। पर हमें पता नहीं कि पहाड़ के नीचे जाकर करना क्या है? फिर नया बोझ लादना है, फिर पहाड़ पर चढ़ना है!
4-हर सफलता नई असफलता का बोध देगी। हर सफलता नई सफलता के लिए यात्रा बनेगी। हर सफलता पड़ाव होगी, मंजिल तो नहीं। मगर जब सफल होता है मन, तो हम ज्यादा बोझ ढो लेते हैं; और जब असफल होता है, तो जरा पीड़ित अनुभव करते हैं। लेकिन हम जिंदगीभर करते क्या हैं?हम सब एक-दूसरे को कहे चले जाते हैं कि बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास है। बढ़े जाओ, मंजिल बहुत पास है। न हमें कोई मंजिल मिली है; न जिनसे हम कह
रहे हैं, उन्हें कोई मिलेगी; लेकिन चलाए चले जाते हैं।श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ''मुझको परायण को उपलब्ध हो जा, मेरे प्रति समर्पित हो जा। इस दौड़ से बच। ये तीन प्रकृति के गुण और यह प्रकृति का पूरा का पूरा सम्मोहन का जाल, यह मेरी योगमाया है; मेरे सम्मोहन की शक्ति है। और इस सब में सारा जगत चल रहा है और दौड़ा चला जा रहा है।तू रुक और मेरे स्मरण में लग''।
5-अगर हमें सम्मोहन के बाहर आना है, तो परमात्मा के स्मरण में लग जाए।परमात्मा का सम्मोहन डी-हिप्नोटाइजिंग है; वह सम्मोहन को तोड़ता है, वह एंटीडोट है।उदाहरण के लिए
एक आदमी ने आपको गाली दी है और आपके भीतर क्रोध का धुआं उठा। वह प्रकृति का सम्मोहन है। उसने आपकी बटन दबा दी। बस, अब आपका पंखा भीतर चलने लगा। उस वक्त जरा स्मरण करें, उस ओर भी श्रीकृष्ण हैं, इस ओर भी श्रीकृष्ण हैं। और तब आप अचानक पाएंगे कि भीतर जो क्रोध उड़ने के लिए पंख फैलाता था, उसने पंख सिकोड़ लिए।
डी-हिप्नोटाइजिंग है स्मरण।
6-परमात्मा का स्मरण -सम्मोहन तोड़क है। और अगर परमात्मा को भूले और अपना ही स्मरण रखा कि मैं ही सब कुछ हूं, तो यह जो 'मैं' है, यह बहुत ही ख़तरनाक है। और यह सम्मोहन को गहन करता है, मूर्च्छित करता है,और बेहोश करता है। फिर हम दौड़े चले जाते हैं।चारों तरफ यह तीन ,(एयर एलिमेंट ,फायर एलिमेंट, वॉटर एलिमेंट)का खेल चलता रहता है। यह प्रकृति की तीन की लीला चलती रहती है; हम उस ट्राएंगल में दौड़ते रहते हैं।इससे कब ऊपर उठेंगे? इससे उठने का द्वार कहां है?
इससे उठने का द्वार है,केवल प्रभु-स्मरण।
...SHIVOHAM...