क्या योगसूत्र का सार ही जीवन का सत्य है ?
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
योगसूत्र है;-
1-''जो अणु में है, वह विराट् में भी है।जो क्षुद्र में है, वह विराट् में भी है।'' --जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म में है, वह बड़े-से-बड़े में भी है, जो बूंदों में है, वही सागर में भी है''।
2- ''देना ही पाना है, मिटना ही होना है, क्योंकि यहाँ बूँद भी सागर को देती है।''---दान देना और लेना ,भिखारी होना और सम्राट होना सबके साथ इकट्ठा है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
1-योगसूत्र है;-
24 FACTS;-
''जो अणु में है, वह विराट् में भी है।जो क्षुद्र में है, वह विराट् में भी है। जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म में है, वह बड़े-से-बड़े में भी है, जो बूंदों में है, वही सागर में भी है''।
1-इस सूत्र की सदा से योग ने घोषणा की थी, लेकिन विज्ञान ने सोचा भी नहीं था कि अणु के भीतर इतनी ऊर्जा और इतनी शक्ति होगी।अत्यंश /न-कुछ के भीतर- इतना छिपा होगा कि सब-कुछ का विस्फोट हो सकेगा। अणु के विभाजन ने योग की इस अंतर्दृष्टि को वैज्ञानिक सिद्ध कर दिया है। परमाणु तो आंख से दिखाई भी नहीं पड़ता , लेकन दिखाई पड़ने वाले परमाणु में, अदृश्य में ..विराट् शक्ति का संग्रह है। वह विस्फोट हो सकता है।
2-व्यक्ति के भीतर आत्मा का अणु तो दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन उसमें विराट् ऊर्जा छिपी है और परमात्मा का विस्फोट हो सकता है। योग की घोषणा की क्षृद्रतम में विराट्तम मौजूद हैं, कण-कण में परमात्मा मौजूद है। योग ने इस सूत्र पर इसीलिए जोर दिया कि वह सत्य है और दूसरा इसलिए कि एक बार यह स्मरण आ जाये कि अणु में परम छिपा है तो व्यक्ति को अपनी आत्मशक्ति का स्मरण करने का मार्ग बन जाता है।
3-व्यक्ति को क्षुद्र अनुभव करने का कोई भी कारण नहीं हैं क्षुद्रतम को भी क्षुद्र अनुभव करने का कोई कारण नहीं है। इसमें उलटी बात भी ख्याल में ले लेनी जरूरी है कि विराट्तम को भी अहंकार से भर जाने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो उसके पास है, वह क्षुद्रतम के पास भी है। जो सागर के पास है, वह एक छोटी-सी बूंद के पास भी है। क्षुद्रतम को हीन होने का कोई कारण नहीं है, विराट्तम को अहंकार से भर जाने का कोई कारण नहीं है। न हीनता का कोई अर्थ है।न श्रेष्ठता को कोई अर्थ है। ये दोनों ही व्यर्थ हैं, इस सूत्र से ऐसा ही स्पष्ट होता है। 4-आदमी दो ही बातों के चक्कर में जीवन को नष्ट करता है। या तो वह 'हीनता' /'इनफीरिआरिटी कॉम्पलेक्स' के बोध से पीड़ित होता है; या व्यक्ति हीनग्रन्थि से पीड़ित होता है और निरन्तर अनुभव करता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ, न कुछ हूँ।हीनता अगर व्यक्ति को पकड़ ले तो बहुत गहरे और बहुत भीतर से रुग्णता, डिसीज पकड़ लेती है। कोई अगर ऐसे जीने लगे कि जैसे कुछ भी नहीं है तो जीना ही मुश्किल हो जाता है, वह जीते-जी मर जाता है।
5-बहुत कम ही लोग हैं, जो मरने तक जिन्दा रहते हों, अधिक लोग पहले ही मर जाते हैं। अक्सर तो ऐसा होता है कि सत्तर साल में दफनाये जाते हैं, मरना तो बहुत पहले हो गया होता है। जिस दिन लगता है, हीनता पकड़ लेती है भीतर;मरने और दफनाने के समय में तीस-तीस, चालीस-चालीस, पचास-पचास साल का फासला होता है। और अगर इस चारों तरफ फैले हुए विराट् को देखेंगे तो हीनता पकड़ ही लेगी कि ''क्या है स्थिति मनुष्य की ..कुछ भी नहीं है''। 6-मनुष्य, सागर की लहरों पर केवल एक तिनका मालूम होता है।न कोई दिशा है, न कोई शक्ति है। अगर ऐसी हीनता मन को पकड़ ले तो जीते-जी जीवन उदास और मृत हो जाता है, राख हो जाता है। अंगार बुझ़ा-बुझा हो जाता है और अगर भीतर अपना ही जीवन बुझ जाये, बुझा-बुझ़ा हो जाये, ...अपने ही दीये की ज्योति बुझ जाये तो फिर सूर्य के प्रकाश का भी क्या करियेगा? होगा प्रकाश, लेकिन इससे कोई अर्थ नहीं रह जाता। 7-व्यक्ति के भीतर विराट् है, इसका स्मरण जरूरी है। व्यक्ति के भीतर अनन्त है, परमात्मा है, इसका स्मरण जरूरी है, ताकि व्यक्ति हीन न हो जाये। और आश्चचर्य की बात है कि हीनता को मिटाने के लिए व्यक्ति श्रेष्ठता की कल्पनाओं में पड़ जाता है-'सुपीरिआरिटी कॉम्पलेक्स'। वह जो हीनता की भावना है, उसे दबाने के उपाय में लग जाता है। भीतर हीनता लगती है तो आदमी धन कमाने लगता है ताकि धन कमाकर दुनिया को बता दे और खुद भी समझ ले कि कौन कहता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ- मैं कुछ हूँ। हीनता ही श्रेष्ठता की दौड़ बन जाती है। इसलिए जितने लोग श्रेष्ठ होने की 'पागल दोैड़' में होते हें, भीतर हीनता की ग्रन्थि से पीड़ित होते हैं। 8- वास्तव में, अक्सर जो लोग दौड़ में प्रथम आते हैं,वे तो वही होते हैं, जो बचपन में लंगड़ाते हैं।और जो लोग संगीत में बहुत कुशल हो जाते हैं,वो भी वे ही होते हैं, जो बचपन में जरा कम सुनते हैं।और जो लोग राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री बन जाते हैं, वे भी अक्सर वे ही लोग हैं, जिनको स्कूल की बेंचों पर पीछे बैठना पड़ता था।जिन्हे हीनता की,चोट लगती है; वह दुनिया में सिद्ध करने निकल पड़ते हैं कि.. हम दिखा देंगे कि 'हम कुछ हैं'। इसलिए राजनीतिज्ञ अगर हीनता से पीड़ित होता है तो आश्चर्य नहीं। भीतर एक कीड़ा लगा हुआ है कि वह कुछ भी नहीं है। 9-अगर हम दुनिया के राजनीतिज्ञों के पीछे झाकें (स्टैलिन,लिंकन आदि )तो बहुत हैरानी होगी इन्हें कहीं-न-कहीं बचपन में लगी हीनता की चोट, इनकी दौड़ बन गयी है। ये विक्षिप्त होकर दौड़ पड़ें हैं। और जब तक ये किसी पहाड़ पर न चढ़ गयें तब तक उन्होंने तृप्ति न पायी। पहाड़ पर चढ़कर तो इन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि मैं कुछ हूँ, लेकिन निश्चित स्वयं वे कुछ भी न थे। इसलिए सभी पद, सभी धन, सभी यश, पाने वाले अन्ततः व्यर्थ मालूम पड़ते हैं। जब वह सिंहासनों पर खड़ा हो जाता है तब वह पाता है कि खड़ा तो मैं ही हूँ सिंहासन भला मिल गया, लेकिन मैं तो मैं ही हूँ। और वह हीनता का घुन खाये जाता है। इसलिए बड़े-से-बड़ा पद कोई तृप्ति नही लाता। बड़े-से-बड़े पद के आगे भी दौड़ बनी रहती है। 10-उदाहरण के लिए जब किसी ने सिकन्दर से कहा था कि मैंने सुना है तुम सारी दुनिया जीत लोगे, लेकिन कभी यह भी सोचा है कि दुनिया जीत लेने के बाद फिर क्या करोगे? क्योंकि एक ही दुनिया है।तब सिकन्दर बहुत उदास हो गया और उसने कहा था वह तो मैंने सोचा ही नहीं। ठीक कहते हैं अगर पूरी दुनिया जीत लूंगा तो फिर क्या करूंगा? दूसरी दुनिया कहाँ है? क्योंकि पूरी दुनिया जीतने के बाद भी सिकन्दर के मन में जो हीनता पकड़ी होगी, उससे तो छुटकारा नहीं है। दूसरी दुुनिया जीत के भी छुटकारा नहीं है। हीनता की ग्रन्थि ही परवर्टेड होकर या इनवर्टेड होकर, शीर्षासन करके श्रेष्ठता की ग्रन्थि बन जाती है। 11-इसलिए जो आदमी सड़क पर अकड़ा हुआ दिखाई पड़े, उस पर दया करना,कि वह हीनता से पीड़ित है। किसी को जरा धक्का लग जाये तो वह कहता है,जानते नहीं मैं कौन हूँ? वह बेचारा हीनता से पीड़ित है।जो आदमी जरा-जरा सी बातों में क्रोधित हो रहा है, जो जरा-जरा-सी बातों में अहंकार को चोट मान लेता है-रास्ते पर कोई हंसता हो तो जो समझता है कि उसे ही देखकर लोग हंस रहे हैं; जानता है कि वह हीनता की गन्थि से पीड़ित है। यह पीड़ा उसे श्रेष्ठ होने की पागल दौड़ में डाल देती है। 12-हीनता रोग है; 'श्रेष्ठता 'रोग को दबाने के लिए महारोग है। और कई बार दबायी गयी बीमारियां और भी खतरनाक सिद्ध हो जाती हैं। तो योग दूसरी बात भी स्मरण दिलाना चाहता है। वह यह कहता है कि परमात्मा भी अगर कहीं है तो वह भी इस अहंकार में न भर जाये कि मैं कुछ हूँ, क्योंकि जो उसके पास है, वह मिट्टी के कण के पास भी है। इसलिए एक दिशा से मिट्टी के कण को भी हीनता न पकड़े और दूसरी दिशा से परमात्मा को भी श्रेष्ठता न पकड़ जाये।
13-और तब कोई हीनता और श्रेष्ठता दोनों से मुक्त होता है, तभी समत्व को उपलब्ध होता है। योग की यह घोषणा मनुष्य के गहरे मानस रोग को मुक्त करने की चेष्टा है। लेकिन यह सिर्फ मानस रोग को ही दूर करने की चेष्टा नहीं है, सत्य भी यही है। न तो क्षुद्र को रोने का कारण है, न विराट् को अकड़ जाने का कोई कारण है। यहाँ जो बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है और जो बहुत छोटा दिखाई पड़ता है, उन सबके पास एक-सी ही सम्पदा हैं 14-उदाहरण के लिए जीसस एक छोटी-सी कहानी कहते हैं। एक दिन बहुत बड़े अमीर ने अपने बगीचे में कुछ मजदूर लगाये। फिर दोपहर कुछ और मजदूर अमीर के पास गये और उन्होंने कहा कि हमें भी काम दो। उसने उन्हें भी बगीचे में लगा दिया। फिर दोपहर ढलने लगी, तब कुछ मजदूर आये और उन्होंने कहा कि हमें भी काम दो। उस अमीर ने उन्हें भी काम पर लगा दिया। फिर सांझ पर सूरज ढलता था और दिन अस्त होता था, तब भी कुछ मजदूर आये। और उस अमीर ने उन्हें भी काम पर लगा दिया। फिर दिन ढल गया और सबको दिन भर का मेहनताना बांटा गया। उसने सबको बराबर मेहनताना दे दिया।
15-जो सुबह से आये थे, वे नाराजगी में खड़े हो गये। उन्होंने कहा यह अन्याय है, हम सुबह से मजदूरी कर रहे हैं। कुछ लोग दोपहर के बाद आये और कुछ तो अभी आये ही हैं, जब हम काम ही खत्म कर चुके थे।इन सबको बराबर मजदूरी देना अन्याय है। तो उस अमीर ने कहा तुम्हें जो दिया, वह तुम्हारे काम से कम तो नहीं है? उन्होंने कहा नहीं, हमारे काम के लिए तो बहुत है। लेकिन जो बहुत पीछे आये हैं उन्हें भी बराबर मेहनताना दे दिया? उस अमीर ने कहा परमात्मा के राज्य में न कोई आगे है, न कोई पीछे हैं, सब बराबर हैं। 16-योग भी यही कह रहा हैं वह यह कह रहा है कि मिट्टी के कण को कोई दुखी होने का कारण नहीं है और खुद परमात्मा को भी अहंकार से भरने का कोई कारण नहीं है। इस जीवन के खेल में न कोई आगे हैं, न कोई पीछे हैं, न कोई बड़ा है, न कोई छोटा है। योग क्षुद्र को दिखाता है ;बूंद में सागर को दिखाता है,और सागर में बूंद को दिखाता हैं सत्य भी यही है। . वैज्ञानिक रदर फोर्ड ने जब सबसे पहले अणु के परिवार को तोड़ा तो एक बहुत अद्भुत अनुभव प्रकाश में आया और वह यह था कि सबसे कम मात्रा वाला परमाणु भी ठीक ऐसे ही है, जैसे महासूर्य का सौर-जगत्।
17-एक परमाणु में, सबसे छोटे परमाणु में, एक तो केन्द्र होता है और उस केन्द्र के आसपास चक्कर लगाने वाला इलेक्ट्रॉन उस केन्द्र का चक्कर लगाता हैं। इस चक्कर की गति ठीक वैसे ही है जैसे सूरज के आसपास पृथ्वी और मंगल और बृहस्पति ग्रह चक्कर लगाते हैं। इस छोटे-से परमाणु की गति वही है। और उस केन्द्र पर जो ऊर्जा छिपी है, वह वैसी ही ऊर्जा है, जैसी सूर्य की ऊर्जा है। जैसे एक बहुत छोटे रूप में सौर परिवार इस परमाणु के भीतर बैठा है। फर्क सिर्फ मात्रा का है, गुण का कोई भी फर्क नहीं हैं। 18-तो विज्ञान ने भी वही कहा , जो योग का पुराना सूत्र है, हम सबको याद होगा कि अण्ड में ब्रह्माण्ड है। तो वैज्ञानिक रदरफोर्ड या उसक साथी कहते हैं, 'द मैक्रोकाज्म इज द माइक्रोकाज्म।' वह जो विराट् जगत् है, वह बिल्कुल क्षुद्र माइक्रोकाज्म में मौजूद हैं ;वह जो ब्रह्ममाण्ड /कॉसमॉस है, वह छोटे छोटे अण्ड में इतना छोटा है कि उसे देखना भी सम्भव नहीं है। सिर्फ अनुमान से ही जाना है कि वह है; वह घूमता है। 19-यह ऐसा है कि जैसे हम कहें, दो और दो के बीच जो फर्क है, बीस और चालीस के बीच भी वही फर्क है। दो सौ और चार सौ के बीच भी वही फर्क है। दो करोड़ और चार करोड़ के बीच में भी वहीं फर्क है। दो और चार के बीच जो फर्क है, जो अनुपात है, दो करोड़ और चार करोड़ के बीच भी वहीं अनुपात है ..दी सेम प्रपोर्शन। सिर्फ विस्तृत हो गयी है संख्या, लेकिन दोनों के बीच अनुपात एक ही है। ठीक ऐसे क्षुद्रतम को अनुपात वही है, जो विराट्तम का अनुपात है। 20-इस सत्य को समझकर दो बातें स्मरण कर लेनी चाहिए। हीनता पागलपन है,और श्रेष्ठता महापागलपन है। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। अपने को न-कुछ समझना भी पागलपन है, अपने को बहुत-कुछ समझना भी पागलपन है।योग कहता है, तुम जो हो, वहाँ हीन और श्रेष्ठ होने का... दोनों का ही कोई उपाय नहीं है।बस तुम हो, इतना ही जानो, इतना ही काफी है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि अपने को तोलों ही मत... डोण्ट कम्पेयर। तुलना का कोई अर्थ ही नहीं है।दो और चार, बीस और चालीस ...तुलना में कोई अन्तर नहीं है, दोनों बराबर हैं। अनुपात बराबर है, प्रपोर्शन बराबर है, इसलिए तुलना व्यर्थ है। 21-इसलिए योग कहता है, बूंद की सागर से तुलना मत करो, क्योंकि बूंद छोटा सागर ही है।और सागर को भी अकड़ने का मौका मत दो, क्यांकि सागर फैली हुई बूंद ही है। सिर्फ फैलाव का फर्क है। अभी वैज्ञानिकों को ख्याल है कि जल्दी ही, शायद इस सदी के पूरे होते-होते हम चीजों के फैलाव को कम- ज्यादा कर सकेंगे।जैसे कि गुब्बारे को हम खोलकर रख लेते हैं तो सिकुड़ जाता है , भीतर हवा भर देते हैं तो फैल जाता है। अब जैसे गुब्बारों को सिकोड़ते हैं, ऐसे लोहे को भी सिकोड़ा जा सकता है, फैलाया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक चीज परमाणुओं का जोड़ है और परमाणुओं के बीच में बहुत स्पेस है, उस स्पेस को छोटा-बड़ा किया जा सकता है।
22-तो इस सदी में यह हो सकता है कि पूरी रेलगाड़ी एक छोटी-सी माचिस की डिब्बी में लायी जा सके और फिर वापस फैला कर बड़ी की जा सके। जिस दिन यह हो जायेगा, तो बड़े पैमाने पर उपयोग में आयेगा ।और जब यह हो जायेगा, तब बूंद की सागर से तुलना करने में क्या अर्थ रहेगा। सागर सिकोड़कर बूंद बनाया जा सकता है।और बूंद को फैलाकर सागर बनाया जा सकता है।व्यक्ति को फैलाकर परमात्मा बनाया जा सकता है, परमात्मा को सिकोड़कर व्यक्ति बनाया जा सकता है।योग इसे बहुत दिन से कह ही रहा है कि चीजों में सिर्फ फैलाव का अन्तर हैं, और कोई अन्तर नहीं है। बड़ा और छोटा सिर्फ फैलाव है। 23-यह सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि एक बार यह दृष्टि में साफ आ जाये तो आपकी हीनता या आपकी श्रेष्ठता कहाँ टिकेगी।फिर किसलिए बोझ ढोइयेगा ;उसे आप छिटककर फेंक देंगे और अपने रास्ते पर चल पड़ेंगे। और उस दिन अगर कोई अकड़ेगा; तो हंसेंगे और अगर कोई हीन होकर पूंछ हिलायेगा तो भी हंसेंगे।पूंछ हिलाने वाले से कहेंगे कि बेकार मेहनत मत करो।अकड़ने वाले से कहेंगे-नाहक शरीर को दुखाये जा रहे हो, कोई जरूरत नहीं है। सब चीजें अपने होने में हैं। सब चीजें अपने स्वभाव में हैं और सब स्वभाव अतुलनीय हैं, तुलना का कोई अर्थ ही नहीं है। कोई आयोजन भी नहीं है।ऐसा नहीं है कि जो क्षुद्र दिखाई पड़ता है वह सिर्फ ग्राहक हो, भिखारी हो।और जो विराट् दिखाई पड़ता है वह इनमें विराट् दाता हो ...ऐसा नहीं है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
2-योगसूत्र है ;-
20 FACTS;- ''देना ही पाना है, मिटना ही होना है, क्योंकि यहाँ बूँद भी सागर को देती है।दान देना और लेना ,भिखारी होना और सम्राट होना सबके साथ इकट्ठा है।''
1-यहाँ बूंद भी सागर को दान देती है और सागर से दान लेती है। यहाँ बूंद भी विराट् को देती है और यहाँ विराट् भी क्षुद्र में अपने को उड़ेलता है। यहाँ देना और लेना बिल्कुल बराबर चल रहा है।वास्तव में, व्यक्ति में प्रतिपल अनन्त से ऊर्जा समाहित हो रही है।आपके भीतर चारों ओर ब्रह्माण्ड से शक्ति आ रही है।पूरे वक्त जैसे अनन्त-अनन्त मार्गों से शक्ति आपके ऊपर गिर रही है और आपके रोये-रोये से प्रवेश कर रही है।बड़े आश्चर्य की बात है कि जब आप आनन्दित होते हैं ; तो यह शक्ति ज्यादा प्रवेश करती है और जब आप दुखी होते हैं तो यह कम प्रवेश करती है।
2-अगर आप दुखी हैं तो आपके द्वार-दरवाजे बन्द होते हैं ;सिकुड़े होते हैं। आपक भीतर शक्ति कम प्रवेश करती है।आपने भी अनुभव किया होगा कि दुख सिकोड़ता है। इसलिए दुखी आदमी कहता है कि मुझसे बोलो मत, मुझे छेड़ो मत, मुझे एक कोने में बैठ जाने दो, मुझे एक कोने में सो जाने दो।दरवाजा बन्द कर लेता है, अंधेरा कर लेता है।दुखी आदमी सिकुड़ता है, आनन्दित आदमी बंटना चाहता है।आनन्दित आदमी अकेला हो तो बेचैन होता है, भागता है किसी के पास कि आनन्द की खबर दे। 3-हम सबको पता है कि बुद्ध जब दुखी थे तो जंगल गये और जब आनन्दित हुए तब वापस गाँव में लौट आये। महावीर जब दुखी थे जब जंगल गये और जब आनन्दित हुए तब वापस गाँव में लौट आये। कोई पूछे कि दुखी आदमी जंगल क्यों जाता है?क्योकि सिकुड़ जाता है, मिलने से भी भय खाता है। आनन्दित आदमी नदी की धार की तरह दौड़ता है, सबको बांटना चाहता है।आनन्द बंटना चाहता है, आनन्द एक शेयरिंग है। बिना बंटे आनन्द प्रसन्न नहीं होता।
4-दुख सिकुड़ना चाहता है। इसलिए दुखी आदमी अकेला रह जाता है। आनन्दित आदमी को बहुत मित्र मिल जाते हैं और दुखी आदमी आईलैंड बन जाता है। उसके साथ भी कोई खड़ा नहीं होना चाहता और वह भी किसी को खड़ा नहीं करनाा चाहता। आनन्दित आदमी महाद्वीप हो जाता है, दुखी आदमी छोटा-सा द्वीप हो जाता है ...अपने में बन्द और अपने मे अकेला /आइसोलेटेड।जब दुखी आदमी सामने खड़ा होता है तो उसमें विराट् की ऊर्जा कम बरसती है और जब आनन्दित आदमी खड़ा होता है तो विराट् सब तरफ से उसमें प्रवेश करने लगता है... जैसे बांध टूट गये हों और सब तरफ से उसमें ऊर्जा आने लगी हो।योग कहता है कि एक आदमी के द्वार-दरवाजे भी उसी के हाथ में हैं कि वह परमात्मा के लिए अपने दरवाजे खुले रखे या बन्द रखे। 5-लिवनित्ज, एक बड़ा जर्मन गणितज्ञ कहता था, आदमी एक 'मोनोड' है। इस बन्द घर में हाथ भी फैलाओ तो दूसरे तक नहीं पहुँचते, अपने ही मकान की दीवारों को छूते है''।मोनोड उसका शब्द है ;जिसका अर्थ है विण्डोलेस। आदमी ऐसा घर है, जिसमें कोई खिड़की दरवाजा नहीं है ..बन्द घर है। और दूसरे तक तुम पहुँचते ही नहीं। सब आदमी अपने-अपने में बन्द हैं। साधारणतः दुखी आदमी 'मोनोड' होता है।और ऐसा लगता है कि लिविनित्ज दुखी आदमी रहा होगा या जिन लोगों को उसने जाना और सोचा होगा, वे दुखी रहे होंगे। उसने शायद कभी किसी योगी को नहीं देखा, क्योंकि योगी बिल्कुल उल्टा आदमी होता है। 6-अगर हम मोनोड के खिलाफ कोई शब्द बनायें तो 'ओपनिंग' शब्द है। मोनोड का अर्थ है विण्डोलेस, खिड़की-रहित, द्वार-रहित।अगर हम
योगी के लिए कोई शब्द बनायें तो कहना पड़ेगा दीवार-रहित। खिड़की-द्वार तो सवाल ही नहीं है, पूरे मकान को द्वार बना लेता है। इसलिए दीवारे भी अलग कर देता है, खुले आकाश के नीचे हो जाता है। सब तोड़ देता है, ताकि विराट् उसमें सीधा बरसता रहे। बरसता नहीं, जुड़ ही जाता है। इसलिए योग शान्ति, आनंद , मौन पर जोर देता है। 7- जब मौन में आदमी खड़ा होता है, तब ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है और जब बोलता है, बात करता है, विचार करता है, तब ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है। जब शान्त खड़ा होता है तब ऊर्जा ज्यादा बरसने लगती है। जब अशान्त खड़ा होता है, टेन्स /चिन्तित होता है।तब ऊर्जा कम आनी शुरू हाती है।इसीलिए योग ने मौन ,शान्ति या आनन्द परमात्मा तक पहुँचने के लिए मार्ग समझे ,क्योंकि उनसे आप ज्यादा खुले हो जाते हैं ..ओपन।
खिड़कियां-दरवाजे सब खुल जाते हैं। धीरे-धीरे वे गिर जाते हें। फिर दीवारें भी गिर जाती हैं। फिर आप खुले आकाश के नीचे आ सकते हैं।
8-प्रत्येक व्यक्ति भी प्रति पल ऊर्जा की तरंगे छोड़ रहा है;प्रतिपल रिस्पॉन्स हो रहा है। हम परमात्मा से ले ही नहीं रहे हैं, हम दे भी रहे हैं। और ऐसा मत समझना कि अगर परमात्मा न होगा तो आप न हो सकेंगे। इससे उल्टा भी सच है, अगर आप न होंगे तो परमात्मा भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि सागर सिर्फ बादलों को पानी देता ही नहीं ...लेता भी हैं। सागर लेता ही नहीं, देता भी है। और नदियां सिर्फ लेती ही नहीं, देती भी हैं। जहाँ भी लेना है, वहाँ देना भी है। और समतुल है, लेन-देन बराबर है। अगर यह हिसाब ठीक न हुआ तो भूल होती है और जिन्दगी उलझ जाती है। इसलिए योग के इस सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
9-वह आदमी योगी है ,जो जितना लेता है, उतना ही दे देता है। और सदा हिसाब चुकाता है।संत कबीर जब मरते वक्त कह सके कि 'ज्यो की त्यों धर दीन्हीं चदरिया' तो उसका मतलब है कि लेन-देन सब बराबर है। खाते में न कुछ देना बचा, न कुछ लेना बचा। हिसाब-किताब पूरा हो गया। हम जाते हैं ;कोई उधारी नहीं है। ऐसा नहीं कि लिया ही हो और दिया न हो। हम सारे लोग लेते हैं, लेकिन दे नहीं पाते... बाँट नहीं पाते। और लेने तक में कंजूसी कर जाते हैं तो देने में कंजूसी करेंगे ही । खुले मन से लेते तक नहीं हैं, वहाँ भी दरवाजे बन्द रखते हैं और देने में तो बहुत ही कठिनाई है। 10-जैसे ही कहा, आनन्द में ज्यादा मिलता है, तो वैसे ही आनन्द में ज्यादा दिया भी जाता हेै। मौन में ज्यादा मिलता है तो मौन में ज्यादा दिया भी जाता है।वास्तव में, जब कोई बिल्कुल शान्त, मौन होता है। तो ऐसे हो जाता है जैसे पहाड़ो पर 'ईको प्वाइण्ट' होते हैं। आपने आवाज दी ओैर पहाड़ ने उन्हें लौटा दिया। खाली मन्दिर में आप बोले, गूंजी आवाज लौटकर आप पर बरस गयी। खाली, मौन, ध्यान को उपलब्ध आदमी पर जो भी आता है, तत्काल रिसपॉन्स, तत्काल प्रतिध्वनित होकर लौट जाता है।वह प्रति पल ले रहा है और दे रहा है।लेने और देने में फासला भी नहीं है।जैसे लहर सागर की तट पर आयी और वापस लौट गयी और सागर अपने तट पर सदा ही ऋणमुक्त खड़ा है। जितना लेता हैे,जो भी लेता है, उतना लौटा देता है। 11- दुखी आदमी के भीतर से एनर्जी-वेव्ज बहुत कम बाहर जाती है।वह अपने को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। चिन्तित आदमी से भी एनर्जी-वेव्ज बहुत कम बाहर जाती है। चिन्तित आदमी की शक्ति उसी के भीतर वर्तुल बन जाती है और गूंजने लगती है, जैसे पानी में भंवर बन जाते हैं। ऐसे ही चिन्तन आदमी की ऊर्जा भी भीतर भंवर बनकर घूमने लगती है।और वह उन्हीं-उन्हीं बातों को घूम-घूमकर सोचने लगता है जिन्हें हजार बार सोच चुका है।वह जुगाली करने लगता है, जैसे भैंस करती है। खाना खा लिया है,फिर उसे निकालकर चबाने लगती है.. फिर चबाने लगती है.. और फिर चबाने लगती है। 12-भैंस के चबाने का तो उपयोग भी है, क्योंकि भैंस इकट्ठा खा लेती है, फिर कोषों से चबाती रहती है।चिन्तित आदमी जो चबाता है, उसका चबाना बिल्कुल बेमानी है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है? वह एक ही बात को लाख दफे सोचने लगता है।इसका मतलब हुआ, कि उसके भीतर रुग्ण भंवर बन गया।अब सब उसके बाहर है, वह आब्सेस्ड हो गया।अब वह उसी बात को हजार बार सोच रहा है।और यह भी सोचता है कि क्या मैं बेकार बात सोच रहा हूँ? लेकिन सोचे जा रहा हैं।ऊर्जा ने बाहर जाना बन्द कर दिया है, वह भीतर ही घूमने लगी है। ऐसा आदमी ,आध्यात्मिक अर्थों में रुग्ण हो जायेगा। 13-ऊर्जा आनी भी चाहिए, जानी भी चाहिए। और भीतर सदा ही समतुल, लेना-देना बराबर होने चाहिए। तो व्यक्ति और परमात्मा के बीच जो सम्बन्ध बनते हैं, उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। तब सीधे सम्बन्ध होते हैं और तब ऐसा नहीं होता है कि व्यक्ति चरणो में होता है, परमात्मा सिर पर होता हैं तब व्यक्ति परमात्मा हो जाता है, परमात्मा व्यक्ति हो जाता है। तब भगवान् भक्त हो जाता है, भक्त भगवान् हो जाता है फर्क फासले नहीं रह जाते, क्योंकि कोई लेन-देन नहीं होता। भगवान् भी जोर से नहीं कह सकता, क्योंकि जो लिया था, वह दे दिया गया है। कहीं कोई बात बाकी नही रह गयी है ।
14-दुख में, बेचैनी में, परेशानी में... हम न देते है और भी न ही लेते है; बल्कि सिकुड़कर बन्द हो जाते हैं और जीवन-स्रोत सूख जाते हैं।ऐसे ही जैसे कोई कुआं सागर से कह दे कि अब मैं पानी नहीं लूंगा ;अपने झरने बन्द करता हूँ-और लोगों से कह दे कि अब तुम गगरियां डालना बन्द कर दो, अब मैं नहीं दूंगा। स्वभावतः जो लेना बन्द करेगा, वह देना भी बन्द करेगा, नहीं तो वह सूखता जायेगा और जो देना बन्द करेगा, उसे लेना भी बन्द करना पड़ेगा।अन्यथा फट जायेगा, जी नहीं सकता। ये दोनों बातें एक साथ करनी पड़ेंगी। लेकिन ध्यान रहे, जो कुआं सागर से कह देगा कि... नहीं लेता तुझसे और गाँव के लोगों से कह देगा कि नहीं देते तुम्हें... तो वह सिर्फ सड़ेगा, गन्दा होगा, बदबू फैलायेगा उसकी ताजगी नष्ट हो जायेगी, उसका जीवन खो जायेगा। 15-हम सब ऐसे ही कुएं हो गये हैं।योग की दृष्टि से हम सड़ते हुए कुऐ हैं। जो वे जीवित कुएं नहीं हैं, जो सागर से लेते हैं और वापस सागर को बांट देते हैं ।क्योंकि वे लोग जो गगरियां लेकर आ गये हैं;वे सागर के साधन हैं। तो वे वापस सागर तक पहुँचा देंगे और कुंआ ताजे-से-ताजा बनता जायेगा। योग का यह कहना आश्चर्य की बात है,कि जो जितना ले जाये, उतना ही देगा,उतना जीवन्त, उतना लिविंग होगा। जो जितनी ही बड़ी मात्रा में लेगा और उतनी ही बड़ी मात्रा में लौटा देगा, वह उतना जीवन-ऊर्जा का केन्द्र हो जायेगा ;उतना ही जीवन सघन होकर उसमें प्रगट होगा। 16-श्रीकृष्ण हों, बुद्ध हों ,महावीर हों कि क्राइस्ट हों, ये सारे लोग, जो इतने विराट् जीवन-ऊर्जा से भरे हुए मालूम पड़ते हैं, उसका एक ही कारण है कि लेने की भी कंजूसी नहीं है, और देने की भी कंजूसी नहीं है।लेते भी बड़े पैमाने पर हैं,और देते भी उतने ही बड़े पैमाने पर हैं।उदाहरण के लिए जीसस का एक कीमती सूत्र है ''जो बचायेगा, उससे छीना जायेगा। जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लिया जायेगा और जिसके पास बहुत हैं , उसे बहुत दे दिया जायेगा।'' 17-हम कहेंगे कि बड़ी उलटी बात कहते हैं ..कैसी ज्यादती कर रहे हैं। जिसके पास कुछ नहीं है उसे दो और जिसके पास बहुत-कुछ हैं उसे क्यों देते हो? उसे न दो तो भी चलेगा। लेकिन जीसस किसी गहरी बात की बात कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि जिसके पास जितनी ज्यादा ऊर्जा है, उसे उतनी ही ज्यादा दी जायेगी, जिसके पास जितनी कम ऊर्जा है, उसे उतनी कम मिलेगी।कम मिलने का कारण यही है कि वह आदमी अपने द्वार-दरवाजे बन्द किये बैठा है, इसीलिए कम है। उसने देने में कंजूसी की है, इसीलिए लेने में हार गया, थक गया ...तो अब नहीं ले सकता।
18-इसलिए योग के इस सूत्र को ध्यान में रखना है कि ''देना ही पाना है, मिटना ही होना है, क्योंकि यहाँ बूँद भी सागर को देती है। लेकिन जब कोई बूँद अपने को सागर को देती है, तब सागर बूँद को मिल जाता है; तत्काल बूँद सागर हो जाती है ।कबीर ने एक बहुत अद्भुत वचन कहा है कि खोजते-खोजते मैं खो गया और फिर ऐसा हुआ कि 'बूँद समा गयी समुन्द्र में, सो कत हेरी जाई' और फिर बूँद सागर में गिर गयी, अब मैं बूँद को कैसे वापस निकालूं। लेकन कुछ दिन बाद उन्होंने एक दूसरा वचन भी लिखा और अपने मित्रों को कहा कि पहले वचन को छोड़ देना, उसमें कुछ गलती हो गई। पहला वचन था - 'हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई, बूँद समाना समुन्द्र में, तो कत हेरी जाई।'
19-कहा कि काट दो वह पहली बात, उसमें कुछ गलती हो गयी कि बूँद सागर में कूद गयी।अब मैं तुमसे ज्यादा असली बात कहता हूँ कि सागर बूँद में गिर गया, और बूँद सागर में गिरी होती तो निकाल भी लेते, अब सागर बूँद में गिर गया, तो अब कहाँ निकालेंगे , कैसे निकालेंगे ?जब बूँद सागर में गिरती है तो यह बूँद की तरफ से हमें लगता है कि बूँद सागर में गिर रही है, लेकिन जब गिर जाती है तब बूँद से पता चलता है कि यह तो सागर ही मुझमें गिर गया। जब व्यक्ति अपने को खोता है, तब उसे लगता है कि मैं अपने को खो रहा हूँ, जैसे ही खोता है, वैसे ही उसे पता चलता है, यह तो परमात्मा का मिलना हो गया। यह तो मैंने खोया ही नहीं, बल्कि पाया है। 20-गौतम बुद्ध का एक युवा भिक्षु ज्ञान को उपलब्ध हो गया तो बुद्ध ने उससे कहा-अब तूने पा लिया, अब तू जा और लोगों को खबर दे उस मार्ग की, उस राह की, उस द्वार की, जहाँ से तूने प्रवेश किया।जा और लोगों को बता वह मन्दिर.. जहाँ आनन्द के निनाद हो रहे हैं। उस भिक्षु ने कहा-बस, मैं आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता था, आज ही चल पड़ता हूँ। जो मिला है, उसे बाँट दूंगा।बुद्ध ने पूछा-तू जायेगा कहाँ, किस ओर? उस भिक्षु का नाम था, पूर्ण। उसने कहा - मैं बिहार का एक हिस्सा था सूखा, वहाँ जाऊँगा। वहाँ अब तक कोई आपकी खबर नहीं ले गया।बुद्ध ने कहा-वहाँ मत जा। मैं तुझे सलाह नहीं दूंगा, क्योंकि वहाँ के लोग अच्छे नहीं है। इसीलिए तो वहाँ अब तक कोई गया नहीं। तो उस पूर्ण ने कहा कि जहाँ लोग अच्छे हैं, वहाँ मेरे जाने की जरूरत ही क्या है ? मुझे वहीं जाने की आज्ञा दें। तो गौतम बुद्ध ने कहा-मैं तुमसे तीन सवाल पूछ लूं, फिर तू जा सकता है। 20-1-पहला सवाल यह पूछता हूँ कि वहाँ के लोग दुष्ट हैं, कठोर हैं, गंवार हैं, वे तुझे गालियां देंगे तो मेरे मन को क्या होगा ?तो पूर्ण ने कहा- वही, जो आपके मन को होगा। मेरे मन को यही होगा कि कितने भले लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, मारते नहीं हैं। मार भी सकते थे! तो बुद्ध ने कहा-पूर्ण! समझ कि वे तुझे मारे भी, क्योंकि वे लोग बहुत बुरे हैं, मारेंगे भी। वे जब तुझे मारेंगे तब तेरे मन को क्या होगा ? तो पूर्ण ने कहा-वहीं, जो आपके मन को होगा। धन्यवाद दूंगा कि कृपा है प्रभु की; यही कि अच्छे लोग हैं, मार ही नहीं डालते हैं। मार भी डाल सकते थे।
20-2-तो बुद्ध ने कहा-बस, आखिरी सवाल और पूछ लूं कि अगर वे मार ही डालें तो मरते क्षण में आखिरी ख्याल क्या होगा ? तो पूर्ण ने कहा-आप व्यर्थ ही पूछते हैं। जानते हैं भली-भाँति ,वहीं होगा जो आपको होगा।मरते क्षण में हाथ जोड़कर धन्यवाद देकर जा सकूंगा कि अच्छे लोग हैं, इस जीवन से छुटकारा दिला दिया, जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी, तो बुद्ध ने कहा-तू धार्मिक आदमी हो गया है,अब तू कहीं भी जा सकता है। तेरे लिए सारी पृथ्वी स्वर्ग है और सब घर मन्दिर हैं और हर आँख परमात्मा की आँख है।
....SHIVOHAM....