क्या आत्मा के पाँच कोश के अतिक्रमण से तुम प्रत्येक वस्तु का नियंत्रण कर सकते हो?
11 FACTS;-
1-महृषि पतंजलि कहते हैं कि अगर तुमने इन सभी पांच शरीरों का अतिक्रमण कर लिया हो; इन सभी पांच तत्वों के पार जा चुके हो तो तुम ऐसी अवस्था में हो कि जिस वस्तु का तुम चाहो नियंत्रण कर सकते हो।यह मात्र एक विचार हैं कि तुम छोटा होना चाहते हो,तो छोटे हो जाओगे। यदि तुम बड़ा होना चाहते हो, तो बड़े हो जाओगे। यदि तुम अदृश्य होना चाहोगे तो तुम अदृश्य हो जाओगे।यह अध्याय विभूतिपाद कहलाता हैं। विभूति का अर्थ है : ‘शक्ति।’ महृषि पतंजलि ने यह अध्याय सम्मिलित इसलिए ‘किया कि उनके शिष्य और वे लोग जो उनका अनुसरण कर रहे हैं, उन्हें सावधान किया जा सके कि रास्ते में बहुत सी शक्तियां घट सकती हैं, किंतु उनमें तुम्हें उलझना नहीं है।
2-यदि एक बार तुम शक्ति में उलझे,तो तुम परेशानी में पड़ जाओगे।तुम उस बिंदु से बंध जाओगे और तुम्हारी उड़ान थम जाएगी। और व्यक्ति को उड़ते ही जाना है, परम अंत तक, जब तक कि शून्यता न खुले और तुम ब्रह्मांडीय आत्मा में पुन: समाहित न हो जाओ।
यह कोई अनिवार्य नहीं कि योगियों को इसे करना ही चाहिए। ऐसा कभी सुना नहीं गया कि ब्रह्मज्ञानिओ ने यह किया।महृषि पतंजलि केवल सारी संभावनाओं को उदघाटित कर रहे हैं।
वस्तुत: जो व्यक्ति अपने उच्चतम अस्तित्व को उपलब्ध कर चुका हो, वह किसलिए छोटा होने की सोचेगा? वह क्यों हाथी जैसा होना चाहेगा? इसमें क्या सार है? और वह अदृश्य क्यों होना चाहेगा?
3-लोगों के कुतुहल, उनके मनोरंजन में वह रस नहीं ले सकता। वह जादूगर तो नहीं है कि लोग उसकी वाह वाही करें। उसे इसमें कोई रस नहीं होगा। वास्तव में जिस क्षण कोई व्यक्ति अपने अस्तित्व की परम ऊंचाई पर पहुंचता है तो उसकी सारी इच्छाएं खो जाती हैं। जब आकांक्षाएं तिरोहित हो जाती हैं तभी सिद्धियां प्रकट होती हैं। दुविधा तो यही है कि शक्तियां तभी आती हैं जब तुम उन्हें प्रयोग करना नहीं चाहते वस्तुत: वे सिर्फ तब आती हैं, जब वह
व्यक्ति जो सदा से उन्हें पाना चाहता था, मिट गया होता है। चमत्कारिक शक्तियां तुमको तब उपलब्ध होती हैं जब तुम उनमें उत्सुक नहीं रहते। यह अस्तित्व की व्यवस्था है।
3-यदि तुम कामना करोगे, तुम अक्षम रहोगे। यदि तुम कामना न करो, तो तुम अतिशय सामर्थ्यवान हो जाते हो।यही संसार में बैंकिंग का नियम हैं। यदि तुम्हारे पास धन नहीं है, तो कोई बैंक तुम्हें धन नहीं देगा, यदि तुम्हारे पास धन है तो हरेक बैंक तुम्हें धन देने को तैयार है। तुम्हें जब जरूरत नहीं है,तो सब कुछ उपलब्ध है, जब तुम्हें जरूरत है, तो कुछ भी नहीं
मिलता।संपूर्ण देह का निर्माण ’सौंदर्य, लालित्य, शक्ति और वज्र सी कठोरता मिलकर करते
हैं।महृषि पतंजलि इस शरीर की बात नहीं कर रहे हैं। यह शरीर सुंदर हो सकता है, परंतु परिपूर्ण सुंदर कभी नहीं हो सकता। दूसरा शरीर इससे अधिक सुंदर हो सकता, तीसरा और भी ज्यादा क्योंकि वे केंद्र के निकट आ रहे होते हैं। सौंदर्य तो केंद्र का है। जितना दूर यह जाएगा उतना ही यह सीमित हो जाएगा। चौथा शरीर तो और भी सुंदर है। पांचवां तो करीब—करीब निन्यानबे प्रतिशत संपूर्ण है।
4-लेकिन वह जो तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा यथार्थ है, सौंदर्य, लालित्य, शक्ति और वज्र सी कठोरता उसमें है। यह वज्र सी कठोरता और कमल की मृदुलता एक साथ है। यह सुंदर है किंतु सुकुमार नहीं—सशक्त है। यह शक्तिपूर्ण है, पर मात्र कठोर नहीं है।इसमें सारे विपरीत मिल जाते हैं क्योंकि क्योंकि वहां सूर्य और चंद्रमा मिलते हैं ;वहां पुरुष और स्त्री का सम्मिलन और अतिक्रमण होता है।सूर्य और चंद्र का मिलन योग है। शिव स्वर विज्ञानं के अनुसार मनुष्य के शरीर में ऊर्जा की तीन धाराएं होती हैं। एक को ‘पिंगला’ कहते हैं, यह दाईं धारा है, मस्तिष्क के बाएं हिस्से से जुड़ी है—सूर्य नाड़ी। फिर दूसरी धारा है ‘इड़ा’, बाईं धारा, दाएं मस्तिष्क से जुड़ी है—चंद्र नाड़ी। और तब एक तीसरी धारा है, मध्यधारा, सुषुम्ना, केंद्रीय, संतुलित, यह सूर्य और चंद्रमा दोनों से एक साथ मिल कर बनी है।
5-सामान्यत: तुम्हारी ऊर्जा या तो ‘पिंगला’ द्वारा गतिमान होती है या ‘इड़ा’ द्वारा। योगी की ऊर्जा सुषुम्ना द्वारा प्रवाहित होने लगती है। यह कुंडलिनी कहलाती है। तब ऊर्जा इन दोनों दाएं और बाएं के ठीक मध्य से प्रवाहित होती है। तुम्हारे मेरुदंड के साथ ही इन धाराओं का अस्तित्व है। एक बार उर्जा मध्यधारा से प्रवाहित होने लगे, तुम संतुलित हो जाते हो। तब व्यक्ति न स्त्री होता है न पुरुष, न कोमल न कठोर, या दोनों पुरुष -स्त्री, कोमल और कठोर। सुषुम्ना में सारी ध्रुवीयताएं विलीन हो जाती हैं और सहस्रार सुषुम्ना का शिखर है।
6-अगर तुम अपने अस्तित्व के निम्नतम बिंदु मूलाधार, काम—केंद्र पर रहते हो, तो तुम्हारी गति या तो ‘इड़ा’ से होगी या ‘पिंगला’ से होगी, सूर्य नाड़ी या चंद्र नाड़ी, और तुम विभाजित रहोगे। और तुम दूसरे की खोज करते रहोगे, तुम दूसरे की कामना करते रहोगे, तुम स्वयं में
अधूरापन अनुभव करोगे, तुम्हें दूसरे पर आश्रित रहना पड़ेगा।जब तुम्हारी अपनी ऊर्जाएं अंदर मिल जाती हैं तो ऊर्जा का विस्फोट, ब्रह्मांडीय चरम ऊर्जा का विस्फोट, घटता है, जब इड़ा और पिंगला मिल कर सुषुम्ना में समा जाती हैं, तब व्यक्ति आनंद से भर उठता है ;निरंतर आनंदमग्न रहता है।
7-फिर वह व्यक्ति कभी भी अधोगामी नहीं होता। व्यक्ति शिखर पर ही रहता है। ऊंचाई का यह बिंदु व्यक्ति का अंतर्तम केंद्र, उसका समग्र अस्तित्व बन जाता है।वैज्ञानिको ने मानव शरीर का विच्छेदन करके यह देखने की भी कोशिश की ;कि चक्र कहां हैं ,इड़ा और पिंगला और सुषुम्ना कहां हैं और वे उन्हें कहीं नहीं मिलीं। ये सिर्फ संकेत हैं, प्रतीक हैं।योग उस
ढंग से वैज्ञानिक नहीं ..प्रतीकात्मक है।यह कुछ दिखाता रहा है और जब तुम अंतस में उतरोगे, तुम इसे पाओगे, लेकिन इसे खोजने के लिए शरीर का विच्छेदन या शव परीक्षण कोई उपाय नहीं है।ये सारे सूत्र मात्र प्रतीकात्मक हैं, उनसे बंधना नहीं है।संकेत ग्रहण करो और यात्रा के सर्किल पूरे करो ।
8-एक शब्द और है, ऊध्वरेतस। इसका अर्थ है: ऊर्जा की ऊर्ध्वगामी यात्रा। काम केंद्र टिके हु से ऊर्जा का अधोगमन होता रहता है। ऊध्वरेता का अर्थ है कि तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की ओर जाने लगी है।यह एक बहुत सूक्ष्म घटना है और इसके साथ कार्य करते समय बहुत सावधान रहना पड़ता है। यदि तुम सचेत नहीं हो तो बहुत संभावना है कि तुम विकृत व्यक्ति बन जाओ। यह है कि तुम एक जहरिले सांप से खेल रहे हो और तुम्हें नहीं पता कि क्या करना है, और
इसीलिए खतरा है।और संसार में अनेक लोग विकृत हो चुके हैं, क्योंकि ऊर्ध्वगमन के लिए, ऊध्वरेता होने के लिए उन्होंने अपनी काम ऊर्जा को दमित करने की कोशिश की। वे ऊपर को कभी नहीं गए। वे सामान्य लोगों से भी अधिक विकृत हो गए।अत: बेहतर यही है कि इसे जैसी यह है वैसी ही रहने दो।
9-इसमें सदगुरु की आवश्यकता है।विकृत होने से बेहतर है कि सामान्य और स्वाभाविक बने रहो;दमन मत करो। लेकिन केवल सामान्य होना पर्याप्त नहीं है और ज्यादा की संभावना है। वास्तव में,ऊध्र्वरेता होने का मार्ग दमन का नहीं ..रूपांतरण का है।और यह केवल तब हो सकता जब तुम अपने शरीर को मन को शुद्ध करो, तुम वह सारा कचरा फेंक दो जो तुमने शरीर और मन में एकत्रित कर रखा है। शुद्धता, प्रकाश, निर्भारता के साथ ही तुम ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन में सहयोगी हो पाओगे।’
10-साधारणत: कुंडलिनी ..कुंडली मारे सांप की भांति होती है।जब यह अपना सिर उठाती है और ऊपर की ओर जाती है तो यह अदभुत अनुभव है। जब भी यह किसी उच्चतर केंद्र से गुजरती है,तो तुम्हें विशिष्ट अनुभव होगे। प्रत्येक केंद्र पर तुम्हें बहुत कुछ प्रगट होगा। लेकिन ऊर्जा को केंद्रों से होकर गुजरना पड़ता है, तभी वे केंद्र तुम्हारे समक्ष अपना सौंदर्य, अपना नृत्य -संगीत प्रगट करते हैं। और प्रत्येक केंद्र का ऊर्जा शिखर अपने निम्नतर केंद्र से श्रेष्ठ होता है।
11-मूलाधार चक्र का अनुभव निम्नतम है।स्वाधिष्ठान चक्र का शिखर अनुभव उच्चतर है। उससे भी उच्चतम है मणिपूर चक्र- नाभि का शिखर अनुभव।अनाहत चक्र- हृदय का, प्रेम का, और भी उच्चतर है। तब उससे उच्चतर है विशुद्ध चक्र-कंठ, सृजनात्मकता, सहभागिता का। फिर उससे उच्चतर है आज्ञा चक्र-तीसरी आँख... जीवन जैसा है उसे वैसा ही देखने की दृष्टि।वास्तव में जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि भी बदल जाती है।और सातवें केंद्र सहस्रार का
तो सर्वोच्च है। यदि तुम चाहो, तो ऊध्र्वरेता /ऊपर की ओर जा सकते हो ;लेकिन कभी भी सिद्धियों, शक्तियो के लिए ऊध्र्वरेता बनने की कोशिश मत करना; ये विकट समस्या बन जाएगी। शक्ति के लिए नहीं' शांति 'को अपना लक्ष्य बनने दो।''तुम कौन हो-कहाँ से आये हो -कहाँ जाना है '' यह जानने के लिए ऊध्र्वरेता बनने का प्रयास करो।
...SHIVOHAM...