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क्या मनोमय-कोश भी आपकी अंतर्यात्रा में सहायक या बाधा बन सकता हैं?PART-03

मनोमय-कोश का क्या महत्व हैं?-

17 FACTS;-

1-ऊर्जा-शरीर(प्राणमय कोष) को, जो शुद्ध कर ले वही तीसरे शरीर के प्रति जाग्रत हो पाता है।यदि एक पर्त पारदर्शी /ट्रांसपेरेंटहो जाए तो दूसरी पर्त की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।पहला शरीर बनता है अन्न से, दूसरा शरीर निर्मित होता है प्राणवायु से और तीसरा शरीर

निर्मित होता है विचार की तरंगों से। विचार भी भोजन है ,वस्तु है ,शक्ति है।तुम जैसा सोचोगे

वैसे ही हो जाओगे; या तुम जैसे हो गए हो, वह तुम्हारे सोचने का ही परिणाम है।मन तक अथार्त मनोमय कोष तक यह बात सही है। हम कभी भी यह नहीं समझते हैं कि विचार भी भोजन है; और विचार भी भीतर प्रवेश करके एक देह का निर्माण करता है।

2-मनोमय कोष की पहली पर्त जिस भोजन से बनी है, वह गहरा है। इसलिए आदमी कितनी ही कोई दूसरी भाषा सीख ले, कभी भी मातृभाषा की गहराई उपलब्ध नहीं हो पाती।यह असंभव जैसा है, क्योंकि मनोमय कोष में जो पहली पर्त बन गई है,अब वह पहली ही

रहेगी, अब सब पर्तें उसके बाद ही निर्मित होंगी।हम सभी मोगली की कहानी जानते हैं।एक चौदह वर्ष का बच्चा,भेड़ियों से वापस लाया गया ;लेकिन वह एक शब्द भी नहीं बोल सकता था।क्योंकि उसका मनोमय कोष/ मन ही विकसित नहीं हो पाया।आप एक भाषा बोलते हैं, वह भोजन है जो आपको बचपन से दिया गया है और वह गहरी पर्त बन जाती है।

3-भाषा, शब्द, विचार, से हमारे भीतर एक देह निर्मित होती है। जितना सुसंस्कृत और सुशिक्षित व्यक्ति होता है, उतनी बड़ी मनोमय देह होती है। लेकिन यह देह हमें दिखाई नहीं पड़ती, और इसलिए हम बिना चिंता के कुछ भी मनोमय कोष में डाले चले जाते हैं।

सुबह पढ़ने वाला अखबार भी एक व्यक्ति की मनोमय देह का निर्माण करेगा।एक व्यक्ति रास्ते पर चलते दीवालों पर लगे पोस्टर पढ़ रहा है,वह सोच भी नहीं सकता कि ये जो शब्द

उसके भीतर जा रहे हैं, ये भी उसका मन निर्मित कर रहे हैं।हम अपने मन के निर्माण में इतने असावधान हैं, इसलिए हमारी जिंदगी एक समस्या बन जाती है। अगर इतनी ही असावधानी हम शरीर के निर्माण में भी बरतें तो शरीर भी एक समस्या हो जाए।जाने- अनजाने हमारे मन में जो भी प्रवेश कर जाता है वह उसका हिस्सा हो जाता है।

4-लेकिन हमें इसका बोध ही नहीं है कि मनोकाया प्रतिपल निर्मित होती रहती है–जो सुनते हैं, जो पढ़ते हैं, जो सोचते हैं, जो भी शब्द भीतर गुंजारित हो जाता है, वह सब मनोमय कोष को निर्मित करता है।अगर आपसे आपके मित्र आदि कुछ भी कहते है तो आप कभी उससे यह नहीं कहते कि इस व्यर्थ को मेरे भीतर मत डालो।मन में डाल लेना तो आसान

है,लेकिन निकालना बहुत मुश्किल है।वास्तव में जिसे हम भुलाना चाहते हैं, उसे भुलाने के लिए भी तो याद करना पड़ता है।और हर बार याद करके हम उसे और मजबूत किए चले जाते हैं।

5-इसीलिए तो इस दुनिया में जब कोई किसी को भुलाना चाहता है तो भुलाना असंभव हो जाता है।भले ही कोई भूल जाए,लेकिन भुलाना बहुत मुश्किल है।और जो भूल जाता है वह भी केवल ऊपर से भूल गया है। चित्त भीतर से कुछ भी नहीं खोता ,नहीं मिटता ;चित्त बहुत संग्रह करने वाला है। यह मनोमय कोष बहुत सूक्ष्म संग्रह करता है।जन्मों-जन्मों तक इसने विचार की तरंगो को इकट्ठा कर लिया है। इस मनोकाया को ठीक से समझ लेना जरूरी है.. तो ही इसके पार जाया जा सकता है।हमारा शरीर है स्थूल/भौतिक देह दोनों के बीच में है प्राण/एनर्जी/वाइटल बॉडी और इसके बाद है मनस-शरीर।मन और शरीर के बीच में जो ब्रिज/सेतु है, वह प्राण काया का है।इसलिए जब श्वास बंद हो जाती हैं तो शरीर यहीं पड़ा रह जाता है,और मनोमय कोष नई यात्रा पर निकल जाता है।

6-मृत्यु में स्थूल देह नष्ट होती है, मनोदेह नष्ट नहीं होती। मनोदेह तो केवल समाधिस्थ व्यक्ति की नष्ट होती है। जब एक आदमी मरता है तो उसका मन नहीं मरता, सिर्फ शरीर मरता है; और वह मन सब पुराने संस्कारों को साथ लिए नई यात्रा पर निकल जाता है। वह मन फिर लगभग पुरानी शक्ल के ही ढांचे पर नये शरीर को ग्रहण कर लेता है अथार्त नये गर्भ को धारण

कर लेता है।अन्नमय कोष और मनोमय कोष के बीच में जो जोड़ है वह प्राण का है। इसलिए यदि कोई बेहोश हो जाए, कोमा में पड़ जाए या महीनों बिलकुल कोमा में पड़ा रहे, तो भी हम नहीं कहते कि मर गया, लेकिन श्वास बंद हो जाए तो हम कहते हैं कि मर गया, क्योंकि श्वास के साथ ही शरीर और मन का संबंध टूट जाता है।

7-तीसरा मनस शरीर दूसरे से बड़ा, दूसरे से सूक्ष्मतर, दूसरे से उच्चतर है।पशुओं के पास दूसरा शरीर तो है परंतु तीसरा शरीर नहीं है।लेकिन मनुष्य की ऊर्जा उच्चतर की ओर बढ़ती

है।मनस शरीर दूसरे से अधिक विराट है ,विस्तृत है।और यदि तुम इसका विकास नहीं करते, तो तुम मनुष्य होने की संभावना मात्र बने रहोगे, वास्तविक मनुष्य नहीं होंगे।यह मन ही है जो तुम्हें मनुष्य बनाता है।लेकिन इसके स्थान पर तुम्हारे पास एक यांत्रिकता है।तुम अनुकरण से जीते हो;ऐसे में तुम्हारे पास मन नहीं होता।जब तुम अपनी स्वयं की, जिंदगी जीना शुरू कर देते हो, अपने जीवन की समस्याओं का हल तुम स्वयं करते हो, तब तुम उत्तरदायी हो जाते हो,और मनोमय कोष में विकसित होने लगते हो।

8-सामान्यत: तुम धर्म और जातियों में बटें हुए हो।तुम हिंदू हो तो श्रीराम /श्रीकृष्ण का अनुकरण करते हो।तुम ईसाई हो तो जीसस का अनुकरण करते हो।तुम केवल एक रिपीटेशन कर रहे हो।जो रिपीट करता है, वह मनुष्य नहीं हो सकता।वास्तव में,श्रीराम की परिस्थितियां अलग थी तथा श्रीकृष्ण की परिस्थितियां अलग और तुम्हारी अलग।धर्म वही है जो समय और परिस्थितियों के अनुसार बदल जाता है;परंतु तुम केवल एक जगह रुक कर उसी धर्म का पालन कर रहे हो।रिपीटेशन केवल रुकावट /बाधा बन सकता है परन्तु इससे तुम्हारा विकास नहीं हो सकता।

9-हम सभी मूर्ख शब्द से ही डरते हैं /नफरत करते हैं।परंतु यह भूल जाते हैं कि जब तक हम मूर्ख नहीं बनेंगे; जीवन में कभी बुद्धिमान भी नहीं बन पाएंगे। जिस समय हमें मूर्ख बनाया जाये तो हम उस समय धैर्य धारण करें।हमारी मूर्खता ही हमें एक दिन समाज में बुद्धिमान बना देगी।मूर्ख बनना, गलतियां करना मार्ग में बाधाओं का आना हमें बताता है कि हम सही

रास्ते पर चल रहे हैं।परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम हमेशा मूर्ख ही बनते रहे ;हमेशा गलतियां ही करते रहें।गलतियां अच्छी बात है ;की जानी चाहिए।परंतु वही गलती दुबारा कभी न करो।वे लोग जो गलतियां करने से बहुत डरे हुए हैं...कभी विकसित नहीं होते। वे आगे बढ़ने से भयभीत हैं, अत: अपने स्थान पर हीं बनें रहते हैं।

10-मन का विकास तभी होता है जब तुम परिस्थितियों का सामना, मुकाबला, स्वयं के भरोसे करते हो। उन्हें सुलझाने के लिए तुम अपनी ऊर्जा प्रयोग में लाते हो,अपने अनुसार जीते हो । अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में थामो।सदा राय मांगना, दूसरों का अनुकरण करना सुरक्षित है।समाज के पीछे चलना, बंधी बधाई लीक पर चलना, परंपरा का, शास्त्रों का अनुकरण करना, सुविधाजनक, आसान है क्योंकि हर कोई अनुकरण कर रहा है।तुम्हें तो बस भीड़ का मुर्दा हिस्सा भर बनना है ;भीड़ जहां जा रही है उसके साथ जाना है, इसमें तुम्हारी कोई जिम्मेवारी नहीं है। लेकिन तुम्हारा मनस शरीर /मनोमय कोष, इससे अत्यधिक पीड़ित होगा, इसका विकास नहीं होगा।तुम्हारे पास अपना निजी मन नहीं होगा, और तुम कुछ ऐसा चूक जाओगे जो उच्चतर विकास के लिए आवश्यक है।

11-तुम्हारा एक अलग ,अनूठा व्यक्तित्व है, एक अस्तित्व है।किसी के निष्कर्ष ..तुम्हारे निष्कर्ष

नहीं बनने चाहिए।तुम सीखने की कोशिश करो, लेकिन तुम्हें निष्कर्ष एकत्रित नहीं करना

चाहिए।तब तुम्हारा मनस शरीर विकसित होगा।विश्वासी का कोई मनोमय कोष नहीं होता। उसके पास एक नकली मनोमय कोष है, जो उसके अस्तित्व से नहीं आया है वरन बाहर से

जबरन आरोपित कर दिया गया है।विचार भी वस्तुगत है, अत्यंत सूक्ष्म है। प्रतिपल हम अपने भीतर विचार को ले जा रहे हैं।वह विचार हमारे भीतर एक शरीर/मनोकाया को निर्मित कर रहा है ;जो विचार की ईंटों से बना हुआ भवन है। इसीलिए जैसा विचार आप अपने भीतर ले जा रहे हैं वैसी आपकी मनोकाया होगी।विचार भी वस्तुएं हैं;थॉट्स आर थिंग्स;।पहले इसके लिए कोई प्रमाण नहीं था, लेकिन अब इसके लिए बहुत वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं।

12-उदाहरण के लिए अगर आप एक्सरे की मशीन के सामने खड़े हैं। अपने को रिलैक्स करें, और विचार शिथिल छोड़ दें, तो मशीन खबर देती है कि इस आदमी के विचार शिथिल हो गए हैं।विचार भी वस्तु/मैटीरियल है; क्योंकि पदार्थ के ही चित्र लिए जा सकते हैं, विचार के नहीं। विचार सिर्फ विचार नहीं है, जिसका चित्र लिया जा सकता है,वह मैटीरियल /पदार्थ है।आज विज्ञापन की कला का पूरा विकास हो चुका हैं।मनुष्य में सब तरफ से विचार डाले जा रहे हैं ...चाहे टीवी ,कंप्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट हो या अखबार, नेता और विज्ञापनदाता ।कई बार आप सोचते हैं कि आप निर्णय कर रहे हैं, परन्तु आप गलती में हैं।चारों तरफ से हिडेन वे में आपको मनाया/परसुएड किया जा रहा हैं और आप इनके आस-पास जिंदगी भर जीए चले जाते हैं।।

13-मनस शरीर शब्द से निर्मित है।उदाहरण के लिए हम सभी मंत्र जाप करते हैं।मंत्र जाप एक सुरक्षा का उपाय है क्योंकि जब कोई व्यक्ति एक मंत्र जाप करता है तो दूसरे शब्द उसके भीतर प्रवेश नहीं कर पाएंगे; क्योंकि शब्द-प्रवेश के लिए एक अंतराल/स्पेस चाहिए। वह एक सुरक्षा का उपाय है।अगर एक व्यक्ति 24 घंटे अंदर ही अंदर मंत्र जाप करता है ;चाहे वह काम कर रहा हो या सो रहा हो तो उसने अपने अंदर एक मंत्र की दीवार खड़ी है। इसको पार करना आसान नहीं। इस प्रकार वह व्यक्ति अपने मनस शरीर को एक विशेष रूप और आकृति देने की कोशिश में लगा हुआ। और आश्चर्यजनक बात यह है कि उस दीवाल में वही चीज भेद कर पाएगी जो उसके मंत्र की अवधारणा से मेल खा सकती है, अन्यथा नहीं कर सकती।यह जो पर्त है, अब जो अपने अनुकूल है उसे गति दे देगी और जो प्रतिकूल है उसे रोक देगी।और यह व्यक्ति अपने भीतर की मनोकाया का एक अर्थों में मालिक होना शुरू हो जाएगा–जिसको द्वार देना होगा, देगा, जिसको द्वार नहीं देना होगा, नहीं देगा।

14-उदाहरण के लिए एक व्यक्ति 'ओम नमः शिवाय 'का जाप करता है।

तो अगर कोई उसके पास आकर 'ताड़कासुर' बोलता है तो वह शब्द दीवार से टकराकर वापस लौट जाएगा।और कोई 'ओम पार्वती नमः' कहता है तो वह शब्द अंदर प्रवेश कर जाएगा।आज लोग कहते हैं कि हम बहुत अशांत हैं ,बेचैन है,कन्फ्यूजड हैं।इसका अर्थ है कि वह दो विरोधियों को मन में एक साथ ले जाते हैं;हम अपने मन के भी मालिक नहीं हैं।लेकिन

अगर हम अपने विरोधियों को मन में एक साथ ले जा रहे हैं तो हम बेचैन/कन्फ्यूजड ही रहेंगे।

15-यह हमारा मन तो करीब-करीब विक्षिप्त हो गया है, क्योंकि हम अनंत विरोधी चीजों को मन में एक साथ ले जा रहे हैं।जो भी अपने मन

के मालिक नहीं हैं तो फिर किसी किसी चीज के मालिक नहीं हो सकते और आज हमारा मन विचलित हो गया, क्योंकि हम अपने मन को विरोधी दे रहे हैं और इसीलिए हम बेचैन परेशान हैं।एक विचार भीतर डालते

हैं, उसका विरोधी भी भीतर डाल लेते हैं; उन दोनों के भीतर बेचैनी है।दो ध्रुव /Poles है; वे दोनों एक-दूसरे के साथ संघर्ष करते हैं और आप संघर्ष में पड़ जाते हैं।आप संघर्ष में नहीं हैं,

आपके भीतर के अनंत विचार संघर्ष में हैं।कोई पूरब जाना चाहता है, तो कोई पश्चिम और कोई कहीं जाना ही नहीं चाहता; इन सबके भीतर भारी संघर्ष है। हम सब ऐसी हालत में हैं ; यहएक आंतरिक विडंबना है।

16-जो व्यक्ति कहता है मुझे किसी पर भरोसा नहीं है, वह संतोष नहीं पा सकता, क्योंकि उसे सदा ही सजग , डरा हुआ, भयभीत रहना पड़ेगा। वह सदा खतरे में है, क्योंकि चारों तरफ जो भी हैं, सब पर अविश्वास है, कहीं कोई ट्रस्ट नहीं। अगर ऐसा व्यक्ति किसी का भी भरोसा नहीं करता, तो एक दिन वह घड़ी आ ही जाती है कि खुद का भी भरोसा नहीं कर सकता।वास्तव में, वह भरोसा ही नहीं कर सकता, चाहे खुद का हो या दूसरे का।फिर संतोष

की कोई संभावना भी नहीं है।संतोष तो उस व्यक्ति को फलित होता है, जो बिलकुल भरोसे की स्थिति न होने पर भी भरोसा कर सकता है।

17-संतोष एक भरोसे की व्यवस्था है और असंतोष संदेह की एक व्यवस्था है।अगर दोनों साथ चाहते हैं तो कठिनाई खड़ी हो जाती है।अगर आत्मा नहीं है, तो मृत्यु का भय भी बिलकुल पागलपन है क्योंकि जो है ही नहीं वह मरेगा क्या? आप केवल एक जोड़ हो... बिखर जाओगे।एक कंप्यूटर को जब हम बिखेर कर रख देते हैं, तो किसी को पीड़ा नहीं होती ;क्योंकि कोई पीछे हीं नहीं बचता ..जिसको पीड़ा हो।और अगर आत्मा है; तब तो भय की कोई जरूरत ही नहीं, क्योंकि आत्मा का अर्थ ही इतना होता है कि मृत्यु नहीं है।मन कन्फ्यूजड हो जाता है, क्योंकि हम विरोधी विचारों को इकट्ठा कर लेते हैं। अगर मन की काया को शुद्ध करना है, तो एक ही उपाय है कि विचारों में एक तरह का सामंजस्य/ हार्मनी चाहिए, तभी मन की काया शुद्ध होती है और व्यक्ति भीतर प्रवेश करता है।

....SHIVOHAM...

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