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अष्टांग योग - AT A GLANCE


योग के आठ अंग :

24 FACTS;-

1-योग के आठ चरण हैं...यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ;जिनका एक जीवंत अंतर्संबंध है।वास्तव में, यह योग

का संपूर्ण विज्ञान है।उदाहरण के लिए हमारे हाथ, पैर, हृदय.. एक दूसरे से अलग नहीं हैं, वे जुड़े हुए हैं। यदि हृदय रुक जाए तो फिर हाथ नहीं चलेगा। वे सीढ़ी के सोपानों की भांति नहीं हैं, क्योंकि सीढ़ी का तो हर डंडा अलग होता है। यदि एक डंडा टूट जाए तो पूरी सीढ़ी नहीं टूटती। इसलिए महृषि पतंजलि कहते हैं कि वे चरण हैं, क्योंकि उनका एक सुनिश्चित विकास है ;लेकिन वे शरीर के जीवंत अंग हैं।तुम उन में से किसी एक को नहीं छोड़ सकते हो;वे समग्र के साथ संबंधित हैं।

2-सीढ़ी के सोपान में तुम एक ही छलांग में दो चरण कूद सकते हो, लेकिन अंग नहीं छोड़े जा सकते हैं, वे कोई यांत्रिक हिस्से नहीं हैं।

तो योग के ये आठ अंग, चरण भी हैं और जीवंत इकाई भी हैं।चरण का अर्थ हैं कि प्रत्येक अंग दूसरे का अनुगामी/Follower है, और वे एक गहन संबद्धता में जुड़े हुए हैं। पहले को पहला होना है और दूसरे को दूसरा होना है।और आठवां चरण आठवां ही होगा, वह चौथा या पहला नहीं हो सकता है।

3-पहला अंग 'यम' का अर्थ सेल्फ रेस्ट्रेंट/ निषेध / दमन जैसा मालूम

पड़ता है।लेकिन महृषि पतंजलि के लिए आत्म संयम का अर्थ स्वयं का, ऊर्जाओं का दमन नहीं,बल्कि स्वयं के जीवन को सम्यक दिशा देना है। क्योंकि तुम ऐसा जीवन जी सकते हो, जो बहुत सी दिशाओं में जाता हो।

तब तुम बहुत से रास्तों पर चल सकते हो, लेकिन जब तक तुम्हारे पास दिशा नहीं है, तुम व्यर्थ ही चल रहे हो ।तुम कभी भी कहीं नहीं पहुंचोगे। और केवल निराशा अनुभव करोगे।

4-आत्म संयम का अर्थ है, जीवन ऊर्जा को सम्यक दिशा देना। जीवन ऊर्जा सीमित है ;जो तुम्हें प्रकृति से, अस्तित्व से, परमात्मा से मिली हैं। यदि तुम उसका उपयोग नासमझी और दिशा हीन ढंग से करते हो, तो तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे।तुम्हारी ऊर्जा चुक जाएगी और वह बिलकुल नकारात्मक खालीपन होगा ..भीतर खोखला..कुछ भी नहीं। तुम मरने के पहले ही मर जाओगे।

5-ये सीमित ऊर्जाएं इस ढंग से प्रयोग की जा सकती हैं कि वे असीम के लिए द्वार बन सकती हैं। यदि तुम अपनी सारी ऊर्जाओं को इकट्ठा कर एक ही दिशा में होशपूर्वक /बोधपूर्वक बढ़ते हो, तो तुम भीड़ नहीं रहते बल्कि

एक व्यक्ति हो जाते हो।साधारणतया तुम एक भीड़ हो; तुम्हारे भीतर बहुत सी आवाजें हैं। एक कहती है, 'इस दिशा में जाओ।’ दूसरी कहती है, 'यह तो बेकार है। उधर जाओ।और तुम्हें कभी कहीं चैन नहीं मिलता, क्योंकि तुम कहीं भी जाओ, तुम केवल पछताओगे।

6-यदि तुम आत्मवान ,अखंड नहीं हो, तो तुम जहां कहीं भी जाओगे; कभी कहीं चैन से नहीं रहने पाओगे। तुम सदा ही कहीं न कहीं जा रहे होओगे

और कभी कहीं नहीं पहुंचोगे।वह जीवन जो 'यम' के विपरीत है, पागल/विक्षिप्त हो जाएगा।जब तक तुम आत्मवान न हो जाओ, तुम मुक्त नहीं हो सकते हो।तुम्हारी स्वतंत्रता एक आडम्बर के सिवाय और कुछ न होगी।तुम स्वयं को,अपनी संभावनाओं, अपनी ऊर्जाओं को नष्ट कर दोगे और एक दिन तुम अनुभव करोगे कि जीवन भर तुमने इतनी कोशिश की, लेकिन

पाया कुछ भी नहीं...उससे कोई विकास नहीं हुआ। जब तक तुम आत्म संयमी नहीं होते, दूसरा चरण 'नियम' की संभावना नहीं है।'नियम' का अर्थ हैं एक सुनिश्चित नियमन : वह जीवन जो अव्यवस्थित नहीं अनुशासित है।

7-जब तक तुम में और तुम्हारे जीवन में नियमितता , अनुशासन नहीं आता, तब तक तुम अपनी वृत्तियों के गुलाम ही रहोगे और तुम सोच सकते हो कि यही स्वतंत्रता है। भले ही तुम्हारा कोई प्रकट मालिक न हो, लेकिन तुम्हारे भीतर बहुत से अप्रकट मालिक होंगे ; और वे तुम पर शासन करते रहेंगे।जिसके पास नियमितता होती है,केवल वही किसी दिन मालिक हो

सकता है। वास्तव में असली मालिक तभी प्रगट होता है जब आठवां चरण पा लिया जाता है ..जो कि लक्ष्य है। तब व्यक्ति मुक्तिदाता हो जाता है क्योंकि यदि तुम मुक्ति पा गए हो, तो अचानक तुम दूसरों के लिए मुक्ति देने वाले हो जाते हो। तुम उन्हें मुक्ति देने की कोशिश नहीं करते हो..केवल तुम्हारी उपस्थिति ही एक मुक्तिदायी प्रभाव बन जाती है।

8-तीसरा है 'आसन'। जब तुम्हारे जीवन में नियमितता होती है, केवल तभी तुम्हें आसन उपलब्ध होता है।उदाहरण के लिए यदि तुम कभी मौन बैठने का प्रयास करो तो तुम नहीं बैठ सकते ..शरीर तुम्हारे खिलाफ विद्रोह

करने की कोशिश करता है।अचानक तुम यहां वहां दर्द अनुभव करने लगते हो , शरीर के बहुत से हिस्सों में एक बेचैनी अनुभव करते हो।तुम अनुभव करते हो कि चींटियां रेंग रही हैं।जबकि आंख खोल कर तुम पाओगे कि कहीं कोई चींटियां नहीं हैं।वास्तव में, शरीर तुम्हें धोखा दे रहा है ;अनुशासित होने के लिए राजी नहीं है।

9-तुमने पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया था।ऐसा इसीलिए होता है क्योकि शरीर बिगड़ चुका है ; तुम्हारी नहीं सुनना चाहता।वह स्वयं अपना मालिक बन गया है।और तुम सदा उसका अनुसरण करते रहे हो।

'करना' एक विक्षिप्तता हो गई है।तुम्हें कोई व्यस्तता चाहिए।केवल मौन

होकर बैठना कठिन मालूम पड़ता है।आसन का अर्थ है एक विश्रांत मुद्रा। तुम आराम में इतने हल्के हो जाते हो कि उस विश्राम के क्षण में, अचानक, तुम शरीर का अतिक्रमण कर जाते हो;चेतना ऊर्ध्वगामी हो जाती है।

10-शरीर तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने के लिए समस्याएं खड़ी करता है, क्योंकि एक बार समस्या खडी हो जाए, तो तुम्हें लौटना ही पड़ेगा।यह

शरीर की चालाकी है कि यहीं रहो.. ''बंधे रहो शरीर से और धरती से।’' तुम आकाश की ओर बढ़ रहे हो, तो शरीर भयभीत होने लगता है।आसन

केवल उसी व्यक्ति को घटित होता है, जो संयम , नियमितता का जीवन जीता है।’आसन' शब्द का ही अर्थ है एक गहन विश्राम;लेकिन शरीर का किसी विश्राम से परिचय नहीं है, क्योंकि तुम सदा बेचैन रहे हो।

11-यदि शरीर शांत हो, तो तुम अपनी श्वास को नियमित कर सकते हो और ज्यादा गहरे उतर सकते हो , क्योंकि श्वास शरीर और आत्मा के बीच, शरीर और मन के बीच एक सेतु है।श्वास को नियमित करना ही प्राणायाम है।

वास्तव में, जब भी मन बदलता है, तो श्वास की लय तुरंत बदल जाती है या यदि श्वास की लय बदल जाए तो मन को तुरंत ही बदलना पड़ता है।जब

तुम क्रोधित होते हो तो तुम धीमी श्वास नहीं ले सकते; वरना तो क्रोध खो जाएगा।जब तुम क्रोधित अनुभव करते हो, तो तुम्हारी श्वास अराजक , अनियमित,उद्विग्न, बेचैन हो जाती है, वह सारी लय खो देती है।

12-उदाहरण के लिए,जब भी तुम्हें क्रोध आ रहा हो तो बस शांत हो जाना और श्वास को लय में चलने देना।अचानक तुम पाओगे कि क्रोध तिरोहित हो गया है।क्योकि एक विशेष प्रकार की श्वास के बिना क्रोध नहीं हो सकता।

आसन के बाद आता है प्राणायाम।थोड़े दिन श्वास लेने और श्वास छोड़ने के अनुपात पर ध्यान देना कि जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम्हारी श्वास की लय क्या होती है।श्वास का भीतर लेना थोड़ी देर होता है या श्वास का

बाहर निकाला जाना ज्यादा देर होता है। जब तुम करुणा अनुभव कर रहे होते हो,जब मौन में होते हो या जब तुम लड़ने -झगड़ने की भाव दशा में हो, तब श्वास की गति को नोट करना।

13-प्रत्येक मनुष्य की श्वास की लय उतनी ही भिन्न होती है जितनी कि अंगूठे की छाप। श्वास एक वैयक्तिक घटना है, इसलिए तुम्हें स्वयं अपनी लय खोजनी होती है। तुम्हारी लय किसी दूसरे की लय नहीं हो सकती या हो सकता है किसी दूसरे के लिए वह हानिकारक हो।परन्तु किसी विशेषज्ञ

से पूछने की जरूरत नहीं है।केवल महीने भर की अपनी सारी भाव -दशाओं और अवस्थाओं का एक चार्ट बना लेना।और तुम्हें पता चल

जायेगा कि कौन न सी लय में तुम सर्वाधिक आराम , शांत अनुभव करते हो। कौन सी लय है जिसमें तुम मौन ,शांत, सुव्यवस्थित, अनुभव करते हो; कौन सी लय है जब अनायास ही तुम आनंदित अनुभव करते हो, किसी अज्ञात आनंद से भर जाते हो,और उस क्षण तुम सारे संसार को बांट सकते हो।

14-उस क्षण पर ध्यान दो जब तुम्हें लगता है कि तुम संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो, एक अखंडता है। जब तुम वृक्षों और पक्षियों के साथ, नदियों और चट्टानों के साथ, सागर और रेत के साथ एक अनुभव करते हो। तुम पाओगे कि तुम्हारे श्वास की बहुत सी लय हैं, उनका सतरंगा विस्तार है।

और फिर जब तुम अपनी लय खोज लो, तो उसका अभ्यास करना और उसे अपने जीवन का एक हिस्सा बना लेना।धीरे -धीरे यह सहज हो जाता है,और तुम उसी लय में श्वास लेते हो।उस लय के साथ तुम्हारा जीवन एक योगी का जीवन हो जाएगा।न तुम क्रोधित होओगे, न इतनी कामवासना अनुभव करोगे,और न ही तुम स्वयं को इतना घृणा से भरा हुआ पाओगे।

15-धीरे -धीरे तुम अनुभव करोगे कि तुममें एक रूपांतरण घट रहा है।

प्राणायाम मानव चेतना की महानतम खोजों में से एक है।प्राणायाम चौथा चरण है और कुल आठ चरण हैं अथार्त प्राणायाम पर आधी यात्रा पूरी हो जाती है।जिस व्यक्ति ने अपनी खोज और अपने होश द्वारा प्राणायाम सीखा है, जिसने अपनी अस्तित्वगत लय को सीख लिया है, उसने आधी मंजिल तो

पा ही ली है।और प्राणायाम के बाद है 'प्रत्याहार' जिसका अर्थ है पीछे लौट आना है, वापस आना, भीतर की ओर मुड़ना, घर लौटना।प्राणायाम के

पश्चात संभावना होती है प्रत्याहार की; क्योंकि प्राणायाम तुम्हें लय दे देगा। अब तुम सारे विस्तार को जानते हो कि किस लय में तुम स्वयं से निकटतम और किस लय में सर्वाधिक दूर होते हो। 17-जब तुम हिंसक, कामोन्मत्त, क्रोधित, ईर्ष्याग्रस्त हो,तो स्वयं से बहुत दूर हो ।और जब करुणा में, प्रेम में, प्रार्थना में, अनुग्रह में हो तो स्वयं से

निकट हो।प्राणायाम के पश्चात ही प्रत्याहार अथार्त वापस लौटना संभव

होता है और फिर है धारणा।प्रत्याहार के बाद, जब तुमने घर लौटना आरंभ कर दिया ,जब तुम अपने अंतरतम केंद्र के निकट आने लगते हो, तो तुम अपने अस्तित्व के द्वार पर ही होते हो। प्रत्याहार तुम्हें द्वार के निकट ले आता है। प्राणायाम बाहर से भीतर के लिए एक सेतु है।प्रत्याहार द्वार है, और तब संभावना होती है धारणा , एकाग्रता की। अब तुम अपने मन को एक ही लक्ष्य पर एकाग्र कर सकते हो।

18-पहले तुमने अपने शरीर को ,अपनी जीवन ऊर्जा को दिशा दी ;अब तुम अपनी चेतना को दिशा दो।अब चेतना को एक लक्ष्य पर लगाना होता है। यह लक्ष्य है एकाग्रता, ' धारणा'।तुम अपनी चेतना को एक ही बिंदु पर लगा

देते हो।जब चेतना एक ही बिंदु पर एकाग्र हो जाती है तो विचार खो जाते हैं, क्योंकि विचार केवल तभी संभव हैं जब तुम्हारी चेतना निरंतर किसी बंदर की भांति उछल कूद कर रही होती है।उस समय बहुत विचार चलते

रहते हैं और जब तुम एक बिंदु पर एकाग्र हो सकते हो, तब संभावना है ध्यान की।

19-धारणा में तुम अपने मन को एक बिंदु पर एकाग्र करते हो जबकि ध्यान में तुम उस बिंदु को भी छोड़ देते हो।अब तुम पूरी तरह केंद्रित हो जाते हो, कहीं गति नहीं करते। क्योंकि गति तो बाहर की ओर होती हैं।

धारणा तक दो होते हैं -विषय और तुम।धारणा के बाद उस विषय को भी गिरा देना पड़ता है।सारे मंदिर तुम्हें केवल धारणा तक ही ले जाते हैं।वे तुम्हें इसके पार नहीं ले जा सकते, क्योंकि सारे मंदिरों में ध्यान के लिए विषय अथार्त ईश्वर की मूर्ति होती है।

20-ध्यान है विशुद्ध आत्म बोध, आत्मरमण क्योंकि यदि तुम किसी विषय पर ध्यान कर रहे हो तो वह धारणा है। धारणा का अर्थ है कि किसी विषय पर एकाग्रता करनी है। ध्यान है मेडिटेशन, वहां कोई विषय नहीं रहता, हर चीज छूट जाती है, लेकिन तुम जागे हुए हो।तब एक गहन बोध होगा,कोई विषय नहीं होगा, तुम स्वयं में केंद्रित होओगे।लेकिन अभी भी 'मैं' की

अनुभूति छाया की भांति मौजूद रहेगी।विषय गिर जाता है, लेकिन विषयी अभी भी मौजूद रहता है।तुम अब भी अनुभव करते हो कि तुम हो।

लेकिन यह अहंकार नहीं है।दो शब्द हैं : 'अहंकार' और 'अस्मिता'।

21-अहंकार का अर्थ है 'मैं हूं' और अस्मिता का अर्थ है 'हूं,-''मात्र हूं''...कोई अहंकार न रहा, मात्र एक छाया बची है।अगर यह विचार हो, कि मैं हूं तब

तो यह अहंकार है।ध्यान में अहंकार पूरी तरह खो जाता है, लेकिन एक 'हूं' ,एक छाया जैसी घटना, मात्र एक अनुभूति, तुम्हारे चारों ओर छाई रहती है की तरह तुम्हारे आस—पास छाई रहती है।ध्यान अर्थात सुबह की धुंध, ...सूर्य अभी उगा नहीं, अस्मिता, हूं ...पन अब भी मौजूद है।तुम अभी भी

पीछे लौट सकते हो। एक हलकी सी अशांति अथार्त कोई बात कर रहा है और तुम सुनते हो तो ध्यान खो गया; तुम वापस धारणा तक आ गए ।

22-यदि तुम केवल सुनते ही नहीं बल्कि तुमने उसके विषय में सोचना भी शुरू कर दिया है, तो धारणा भी खो चुकी है, तुम प्रत्याहार तक लौट आए हो।और यदि तुम न केवल सोचते हो, बल्कि तुमने विचार के साथ, तादात्म्य/Identification भी बना लिया है तो प्रत्याहार भी खो चुका है, तुम प्राणायाम तक उतर आए हो।और यदि विचार इतना हावी हो गया है कि तुम्हारी श्वास की लय गड़बड़ा जाती है, तो प्राणायाम भी खो गया; तुम आ गए हो आसन पर।और यदि विचार और श्वास इतनी ज्यादा अस्तव्यस्त हैं कि शरीर कंपने लगता है, बेचैन हो जाता है, तो आसन भी खो गया क्योकि वे सब आपस में जुड़े हुए हैं।इसीलिए कोई ध्यान तक पहुंच कर भी गिर सकता है; जिसे हम योग भ्रष्ट कहते हैं।

23-तो ध्यान एक बिंदु है..संसार का वह उच्चतम तल है जहां से तुम बहुत बुरी तरह से गिर सकते हो।योग भ्रष्ट शब्द ही बहुत अदभुत है क्योकि यह एक साथ आदर भी करता है और निंदा भी। जब हम कहते हैं कि कोई योगी है तो वह बहुत बड़ा आदर है।जब हम कहते हैं कि योग भ्रष्ट है, तो वह एक निंदा भी है अथार्त यह व्यक्ति अपने किसी पिछले जन्म में ध्यान तक पहुंच गया था, और फिर गिर गया!वास्तव में, ध्यान में यात्रा समाप्त नहीं होती है;अभी भी संसार में वापस लौट जाने की संभावना रहती है।क्योकि अस्मिता /'हूं -पन' का बीज अभी भी जिंदा रहता है जो किसी भी क्षण प्रस्फुटित हो सकता है।

24-जब अस्मिता भी तिरोहित हो जाती है, जब तुम्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि तुम हो ,तब समाधि घटित होती है। समाधि अतिक्रमण/violation है;जहां से कोई वापस नहीं आता।समाधि एक न लौटने का बिंदु है;जहां से

कोई नहीं गिरता।समाधि को उपलब्ध व्यक्ति इस संसार में भले ही रहता हो, लेकिन वह इस संसार का नहीं होता अथार्त वह संसार में रहता है लेकिन संसार उसमें नहीं रहता। योग के ये आठ चरण /आठ अंग बहुत जीवंत रूप से जुड़े हुए /संबंधित हैं।चरण का अर्थ है कि तुम्हें उनसे एक -एक करके गुजरना है, तुम ऐसे ही 'कहीं से भी शुरू नहीं कर सकते।

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क्या ध्यान सेतु है समाधि का?-

11 FACTS;-

1-अष्टांग योग आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग /चरण युगो से साधको द्वारा अनुसरण किए जा रहे हैं।आज से 500 वर्ष पहले संत गोरखनाथ ने कलयुग के मनुष्यों की उम्र कम देख कर के 'अंतरंग' साधन धारणा ,ध्यान, समाधि से अष्टांग योग का शुरुआत कर दी। उन्होंने कहा ध्यान शुरू करने के बाद शिवत्व की अनुभूति शुरू हो जाती है। इसलिए यम, नियम का पालन करना आसान हो जाता है। लेकिन उन्होंने दो 'बहिरंग' साधन... आसन ,प्राणायाम भी लिए।क्योकि बिना आसन और प्राणायाम के 'ध्यान' संभव ही नहीं है।ध्यान की स्टेजेस बढ़ने के बाद प्रत्याहार सिद्ध हो जाता है।यम और नियम की परीक्षा ली जाती है ...सपने में और वास्तविक जगत में भी।

2-जब आप परीक्षा पास कर लेते हैं तो आपका यम ,नियम सिद्ध हो जाता है। एक प्रकार से कलयुग के मनुष्यों के लिए उन्होंने यह शॉर्टकट बता दिया अन्यथा शुरुआत तो वास्तव में 'यम' से ही होती है।एक प्रसिद्ध संत गुरजिएफ कहते थे कि 9 वर्ष की अवस्था में अपने दादाजी को दिए गए एक वचन के कारण मेरा जीवन बदल गया।''यदि कोई तुम्हारा अपमान करे तो चौबीस घंटे बाद उसे उत्तर देना''।यम अथार्त आत्म संयम यानी अपने आचरण का नियमन।यम तुम्हारे और दूसरों/समाज के बीच एक सेतु ,एक घटने वाली घटना है।जिसमे तुम अचेतन रूप से यंत्रवत प्रतिक्रिया नहीं करते।तभी यह बात एक रूपांतरण बन जाती है।

3-प्रतिक्रिया को तात्कालिकता चाहिए।संत गुरजिएफ ने कहा , 'कोई मेरा अपमान करे या कोई कुछ गलत कह दे, तो मैं कहता हूं कि मैं कल आऊंगा। केवल चौबीस घंटे बाद ही मैं उत्तर दे सकता हूं और मैंने अपने दादा को वचन दिया है और वे मर चुके हैं और वचन तोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन मैं आऊंगा।’'' वह आदमी तो चकित होता। वह नहीं समझ पाता कि बात क्या है।

3-यम के पालन करते समय तुम ज्यादा सजग ,होशपूर्ण हो जाते हो और केवल तभी प्रतिक्रिया करते हो जब बहुत जरूरी होता है।तुम्हारी कोशिश यही होती है कि प्रतिक्रिया/Response

न होकर विषहर औषधि/Antidote‍ हो।प्रतिक्रिया यंत्रवत होती है ;कोई तुम्हारा अपमान कर देता है; तो तुम भी तुरंत प्रतिक्रिया करते हो और उसका अपमान कर देते हो।प्रतिक्रिया में समझने के लिए एक क्षण का भी अंतराल नहीं होता।आत्म -संयमी व्यक्ति होशपूर्ण होता है ;इसीलिए प्रतीक्षा करता है अपने अपमान के विषय में विचार करता है।और धीरे- धीरे

क्रोध तिरोहित हो जाता है।और केवल क्रोध ही नहीं धीरे -धीरे यही विधि दूसरे आवेगों के साथ भी प्रयोग की जा सकती है।और हर चीज तिरोहित हो जाती है।

4-इस प्रकार यम तुम्हारे और दूसरों के बीच एक सेतु है अथार्त होशपूर्वक जीओ; लोगों के साथ होशपूर्वक संबंध रखो। फिर नियम और आसन का संबंध तुम्हारे शरीर से है।पहला 'यम' सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच। अगले दोनों चरण एक दूसरे सेतु के लिए एक तैयारी हैं। नियम और आसन के द्वारा तुम्हारा शरीर तैयार किया जाता है।फिर शरीर और मन के बीच प्राणायाम का सेतु है।प्रत्याहार और धारणा, मन की तैयारी हैं। इसके बाद ध्यान आता है जो मन और आत्मा के बीच एक सेतु है। और समाधि है परम उपलब्धि।अष्टांग योग अंतर्संबंधित हैं, एक श्रृंखला है।

5-यम संयम है ..दमन नहीं। संयम हमेशा समझ से आता है ;अज्ञान में व्यक्ति जबरदस्ती करता है और दमन करता है।जो भी करो समझ से करो, तो तुम कभी भी स्वयं की या किसी दूसरे की हानि नहीं करोगे।दूसरों के साथ तुम जिस तरह संबंधित होते हो, उस ढंग को रूपांतरित करना है। यदि तुम दूसरों के साथ उसी ढंग से संबंध बनाए रखते हो जैसा कि तुम सदा से करते आए हो, तो रूपांतरण की कोई संभावना नहीं है। तुम्हें दूसरों के साथ अपने संबंध को रूपांतरित करना है।

6-तुम्हारे चारों तरफ समाज है; समाज से तुम तक एक सेतु है 'यम'।'यम' है तुम्हारे आस -पास एक अनुकूल वातावरण का निर्माण करना। यदि तुम हर किसी के प्रति दुश्मनी रखते हो, लड़ते हो, घृणा करते हो, क्रोधित होते हो तो तुम भीतर नहीं मुड़ सकोगे ये ..अंतर्यात्रा संभव ही न होगी। तुम्हारे आसपास एक अनुकूल, एक मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण

करना ही यम है।जब तुम दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से, होशपूर्वक संबंधित होते हो, तो वे तुम्हारी अंतर्यात्रा में कोई अड़चन नहीं खड़ी करते बल्कि सहयोगी बन जाते हैं।

7-उदाहरण के लिए यदि तुम अपने बच्चे से प्यार करते हो, तो वह तुम्हारे ध्यान में बाधा नहीं डालेगा। बल्कि वह दूसरों से भी शांत रहने के लिए कहेगा। लेकिन यदि तुम अपने बच्चे से क्रोधित ही रहते हो, तो जब तुम ध्यान कर रहे हो तो वह हर तरह की बाधा खड़ी करेगा।वास्तव में,वह

अचेतन रूप से बदला लेना चाहता है।यदि तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो, तो वह व्यक्ति सदा तुम्हारे विकास में सहायक होता है , क्योंकि वह जानता है कि जितने ज्यादा तुम विकसित होते हो, उतने ज्यादा तुम सक्षम हो जाते हो।सारे ध्यान हमें हर तरह से ज्यादा सौंदर्यपूर्ण होने में ,प्रेममय होने में मदद करते है ।

8-संसार में प्रत्येक मनुष्य स्वयं को नहीं बल्कि दूसरे पर नियंत्रण करने

का प्रयत्न कर रहा है।लेकिन यम को साधने वाला व्यक्ति स्वयं को साधता है, संयमित करता है और दूसरों को स्वतंत्रता देता है। वह दूसरों को इतना ज्यादा प्रेम करता है कि उनको स्वतंत्रता दे सकता है।और वह स्वयं को इतना ज्यादा प्रेम करता है कि अपने को संयमित करके अपनी ऊर्जाओं

को एक दिशा देता है।शरीर एक यंत्र है और नियम और आसन शरीर के लिए हैं क्योंकि नियमित जीवन बहुत स्वास्थ्यप्रद होता है।

9-यदि तुम अनियमित जीवन जीते हो तो तुम शरीर को परेशानी में डाल देते हो।शरीर की एक आंतरिक जैविक घड़ी होती है; वह एक नियम में चलती है। यदि तुम रोज उसी समय पर भोजन करते हो तो शरीर सदा ऐसी स्थिति में होता है जहां कि वह समझता है कि क्या हो रहा है, और वह तैयार होता है।आपके पेट में बिलकुल ठीक उसी समय पर रस प्रवाहित होते हैं।आज तुमने 10 बजे भोजन किया ,कल 12 बजे; परसों 9 बजे।तुम

जब भी भोजन करना चाहो, तो कर सकते हो, लेकिन रस प्रवाहित न होंगे।और यदि भोजन करते समय रस प्रवाहित नहीं होते हैं, तो भोजन पचाना कठिन होता है।

10- यदि रस तैयार हों तो भोजन का 6 घंटे में पाचन हो सकता है।इसके विपरीत यदि रस तैयार नहीं हैं तो बारह या अठारह घंटे लग जाते हैं। तब तुम बोझिलता अनुभव करते हो, आलस्य लगता है ..भोजन तुम्हें जीवन तो देता है, लेकिन विशुद्ध जीवन नहीं...।और भोजन एक विशुद्ध ऊर्जा बन सकता है ..लेकिन तब एक नियमित जीवन की जरूरत है।तुम रोज 9 बजे सो जाते हो तो शरीर को पता है ..ठीक 9 बजे शरीर तुम्हें खबर कर देता है।इस प्रकार नियम और आसन शरीर के लिए हैं।

11-फिर मन और शरीर के बीच प्राणायाम एक सेतु है क्योंकि मन का आयाम शरीर से भिन्न है। तुम शरीर और मन को श्वास के द्वारा बदल सकते हो।फिर प्रत्याहार और धारणा है मन की तैयारी ...।प्रत्याहार और धारणा मन के रूपांतरण के साथ घर वापिस लौटने और एकाग्रता से संबंधित हैं ।उसके बाद मन और आत्मा के बीच एक और अंतिम सेतु है... ध्यान और फिर तुम मंजिल तक पहुंच जाते हो अथार्त समाधि।समाधि का अर्थ है सब समाधान मिल गया; कुछ पाने की ,कहीं जाने की कोई आकांक्षा न रही ; तुम वापिस घर आ गए।

.....SHIVOHAM....

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