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अष्टांग योग का पांचवां चरण प्रत्याहार क्यों महत्वपूर्ण है?


पांचवां चरण प्रत्याहार क्यों महत्वपूर्ण है?-

20 FACTS;-

1-प्रत्याहार का अर्थ होता है'' अपने स्रोत तक लौट आना''।पांचवां चरण 'प्रत्याहा'र प्रथम चार (बाहरी योग) के और अंतिम तीन (भीतरी योग) के

बीच सेतु/Bridge के रूप में काम करता है।इसमें उर्जा के लौटने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है ;विषय वस्तुओं में रस नहीं रह जाता। ऊर्जा बाहर से हट चुकी है;इसीलिए भीतर मुड़ती /कनवर्ट होती है।साधारणतया, ऊर्जा बाहर की तरफ ही गति करती है।तुम पांचो तन्मात्राओ(आंखें, कान, नाक, हाथ) का उपयोग करते हो लेकिन तुम भूल गए हो कि कौन इन इंद्रियों के पीछे छिपा है।

2- जब तुम देखना चाहते हो, सूंघना चाहते हो,छूना चाहते हो,अनुभव करना चाहते हो .. तब तुम्हारी ऊर्जा बाहर जा रही होती है।तुम्हारे पास आंखें हैं, लेकिन तुम आंखें नहीं हो।तुम्हारी मौजूदगी चाहिए क्योकि आंखें अपने आप नहीं देख सकतीं।उदाहरण के लिए करवा चौथ है ,चंद्रमा की पूजा होने वाली है परंतु पूजा की थाली में फूल- माला नहीं है।तुम जल्दी-जल्दी लेने जा रहे हो।अचानक तुम्हारे पैर में चोट लग जाती है; खून बहने लगता है। लेकिन तुम इतने डूबे होते हो कि तुम्हें होश नहीं होता।चोट लगी है, लेकिन तुम अनुभव करने के लिए मौजूद नहीं हो।आधे घंटे बाद पूजा खतम होती है; अचानक तुम्हारा ध्यान पैर की तरफ जाता है ..खून बह रहा है। अब दर्द होता है।आधा घंटा खून बहता रहा, लेकिन कोई दर्द न था क्योंकि तुम वहां नहीं थे।

3-इसे गहरे में समझना है कि इंद्रियां अपने आप में नहीं है। यदि तुम सहयोग नहीं देते, तो इंद्रियां बंद हो जाती हैं ,वापस लौटना शुरू हो जाता है अथार्त प्रत्याहार शुरू हो जाता है।जब ऊर्जा बाहर देखने में, सुनने में, छूने में व्यस्त नहीं होती तो ऊर्जा भीतर की ओर मुड़ने लगती है। 'प्रत्याहार' है उस केंद्र /स्रोत की ओर लौट पड़ना जहां से तुम आए

हो और यह ध्यान के द्वारा ही संभव है।'प्रत्याहार' तो केवल ऊर्जा के घर की ओर लौट पड़ने का प्रारंभ है ..अंत होगा 'समाधि' में।समाधि' तब है जब तुम घर पहुंच गए। यम, नियम, आसन, प्राणायाम ...ये चारों प्रत्याहार के लिए, पांचवें चरण के लिए तैयारी हैं।

4-प्राणायाम ब्रह्मांड के साथ लयबद्धता पाने की विधि है, लेकिन फिर भी तुम बाहर रहते हो। तुम ऐसे ढंग से, ऐसी लय से श्वास लेना आरंभ कर देते हो कि तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व के साथ तालमेल बैठ जाता है।तब तुम समग्र के साथ संघर्ष नहीं कर रहे होते, तुमने समग्र के साथ समर्पण कर दिया

होता है।धार्मिक होने का वास्तविक अर्थ समर्पण करना ही है।अब उसके पास अपने कोई निजी लक्ष्य नहीं होते,उसका वही लक्ष्य है जो समग्र का लक्ष्य है।अब वह अस्तित्व की धारा के साथ बहता है; वह धारा के विपरीत नहीं लड़ता है।अब उसकी कोई निजी नियति नहीं है, समग्र अस्तित्व की नियति ही उसकी नियति है।

5-जब तुम अस्तित्व की धारा के साथ बहते हो तो तुम मिट जाते हो, क्योंकि अहंकार केवल तभी बच सकता है जब वह लड़ता है,प्रतिरोध करता है।बहुत से लोग कहते हैं कि, 'हम अहंकार छोड़ देना चाहते हैं'।वास्तव में, अगर तुम अहंकार को छोड़ना चाहते हो तो तुम उसे नहीं छोड़ सकते , क्योंकि जो यह कह रहा है कि मैं अहंकार छोड़ देना चाहता हूं ..वह भी अहंकार है और अब तुम केवल अपने अहंकार से ही लड़ रहे हो।

6- तुम केवल विनम्र होने का दिखावा कर सकते हो ,लेकिन अहंकार मौजूद रहेगा।अगर सम्पन्नता में अहंकार रहा है,तो विपन्नता में भी अहंकार बना रहेगा।पहले वह राजा की भांति था; अब वह विनम्र भिक्षुक की भांति रहेगा। तुम कहते हो कि, 'मैं संसार का सबसे विनम्र व्‍यक्‍ति हूं।’ लेकिन उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता।पहले तुम संसार के महान व्यक्ति थे , और अब विनम्र व्यक्ति हो लेकिन तुम्हारे अंदर असाधारण होने का भाव मौजूद है।

7-अगर तुम अहंकार के साथ लड़ते हो तो तुम और सूक्ष्म अहंकार बना लेते हो, जो ज्यादा खतरनाक है।क्योंकि वह सूक्ष्म अहंकार तो पवित्र और धार्मिक होने का भी दावा करेगा।पहला अहंकार तो लौकिक ही था लेकिन दूसरा तो अलौकिक है।यह तो शुद्ध, शक्तिशाली, और सूक्ष्म है ; उसकी पकड़ ज्यादा खतरनाक है और उससे बाहर आना ज्यादा कठिन होगा।तुम छोटे खतरे से बड़े खतरे में प्रवेश कर जाओगे।'प्राणायाम', जिसे

'श्वास नियंत्रण' की भांति समझा गया है, वह नियंत्रण नहीं बल्कि समस्त अस्तित्व के साथ सहजता से होने का, जीने का एक ढंग है।

8-सारे नियंत्रण अहंकार से आते हैं क्योकि अहंकार ही नियंत्रण करता है। लेकिन तुम इसे समझ लो, तो अहंकार स्वयं ही तिरोहित हो जाएगा ..उसे

छोड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।तुम माया को,भ्रम को, झूठ को नहीं छोड़ सकते; तुम केवल सत्य को ही छोड़ सकते हो और अहंकार सत्य नहीं है।भ्रम इसीलिए नहीं छोड़े जा सकते, क्योंकि वे तो होते ही नहीं है। तुम्हें केवल समझना होता है, और वे तिरोहित हो जाते हैं।उदाहरण के लिए सपने को नहीं छोड़ा जा सकता है।तुम्हें केवल सजग होना होता है कि यह सपना है, और सपना खो जाता है।

9-अहंकार भी सूक्ष्मतम सपना है कि मैं अस्तित्व से अलग व्यक्ति हूं; मुझे 'समग्र' के विरुद्ध कुछ पाना है। जिस क्षण तुम होशपूर्ण होते हो, अहंकार

मिट जाता है।तुम समग्र के विपरीत नहीं हो सकते, क्योंकि तुम समग्र के हिस्से हो।यह तो वैसा ही है जैसे अपना ही हाथ अपने विरुद्ध होने की कोशिश करे।समग्र के विरुद्ध होने का कोई उपाय नहीं है। केवल एक ही उपाय है....समग्र के साथ बहना।

10-जब तुम सोचते भी हो कि तुम समग्र के विरुद्ध चल रहे हो या समग्र से अलग हो या तुम्हारा अपना कोई अलग लक्ष्य है, तो वह केवल सपना ही है; क्योंकि तुम अलग हो ही नहीं सकते।समुद्र पर उठने वाली लहर.. रहेगी तो समुद्र का ही हिस्सा।यदि वह कहीं जाती हुई मालूम भी पड़ती है,तो वह

समुद्र की मर्जी ही होगी तभी वह जा रही है।जब कोई यह समझ लेता है, तो वह जान जाता है कि मैं बड़े सपने में जी रहा था अब सपना तिरोहित हो गया है।मैं अब नहीं हूं...मैं दोनों ही था, स्वप्न भी और स्वप्न देखने वाला भी लेकिन अब केवल 'समग्र' ही हूं।

11-प्राणायाम वह स्थिति निर्मित करता है जहां 'लौटना' संभव हो जाता है, क्योंकि अब कोई शत्रुता,कोई संघर्ष या कहीं जाने को नहीं रहता। यदि तुम संघर्ष छोड़ दो, बाहर जाना समाप्त कर दो तो अपनी अंतस सत्ता/ भीतर की ओर .. बहने लगते हो और यह स्वाभाविक है।महृषि पतंजलि

कहते हैं, 'प्राणायाम के बाद, फिर उस आवरण का विसर्जन हो जाता है, जो प्रकाश को ढंके हुए है।’'व्यक्ति प्रकाश को उपलब्ध हो जाता है'परन्तु

इसका अर्थ यह नहीं हैं कि तुम प्रत्याहार में ही अपने लक्ष्य ,अपने अंतरतम केंद्र तक पहुंच गए हो ।फिर धारणा , ध्यान , समाधि का क्या अर्थ बचता है।

12-आवरण का विसर्जन' ...प्रकाश की उपलब्धि नहीं हैं.. ये दोनों अलग बातें हैं।आवरण का हटना केवल प्रकाश पाने की संभावना निर्मित करता

है।उदाहरण के लिए, यदि अंधकार का लंबा अभ्यास तुम्हारी आंखों का हिस्सा बन चुका है तो सूर्य तुम्हारे सामने मौजूद होगा, लेकिन तुम उसे देख

न पाओगे।क्योकि वहां पलकों का स्थूल आवरण नहीं है, लेकिन अंधकार का एक सूक्ष्म आवरण अभी भी मौजूद है। और यदि तुम बहुत जन्म अंधकार में जीए हो, तो सूर्य तुम्हारी आंखों के लिए बहुत ज्यादा चमकदार होगा। तुम्हारी आंखें इतनी कमजोर होंगी कि वे इतनी तेज रोशनी बरदाश्त न कर पाएंगी।

13-जब रोशनी.. तुम्हारी बरदाश्त करने की क्षमता से ज्यादा होती है, तो वह अंधकार बन जाती है।यदि कभी थोड़ी देर सूरज की तरफ देखने की कोशिश करोगे तो तुम पाओगे तुम्हारी आंखों में अंधेरा छा रहा है।देखने की बहुत ज्यादा कोशिश तुम्हे अँधा भी बना सकती है अथार्त बहुत ज्यादा रोशनी भी अंधेरा बन सकती है।वास्तव में तुम नहीं जानते कि तुम कितने

जन्मों से अंधकार में जीते रहे हो।इसीलिए अंधकार ही तुम्हारा एकमात्र अनुभव रहा है।प्रकाश इतना अपरिचित है कि उसे पहचानना असंभव होगा।आवरण के हटने मात्र से ही तुम उसे नहीं पहचान पाओगे।

14-अगर कोई औषधि तुम्हारी मदद कर सकती है,तो बीमारी दूर हो

सकती है।लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि तुमने स्वास्थ्य पा लिया है। तुम्हें थोड़े दिन आराम करना होगा ।जरूरी नहीं कि बीमारी का दूर हो जाना स्वास्थ्य का मिलना हो। स्वास्थ्य एक पॉजिटिव घटना है; बीमारी एक नेगेटिव घटना है।डाक्टर तुम्हें ऐसा सर्टिफिकेट नहीं दे सकता कि तुम स्वस्थ हो; वह तुम्हें केवल यही सर्टिफिकेट दे सकता है कि तुम बीमार नहीं

हो।उसके पास यह पता करने का कोई उपाय नहीं है कि तुम स्वस्थ हो या नहीं।बीमार न होना स्वस्थ होने की मूलभूत शर्त है। लेकिन यदि तुम बीमार नहीं हो, तो जरूरी नहीं है कि तुम स्वस्थ हो।

15-कभी -कभी ऐसा भी होता है कि कोई तन्हा व्यक्ति बूढ़ा, बीमार, जीवन से हारा ,जीवन के प्रति कोई रस नहीं ,जीने की चाह ही मिट गई है।तुम निरोग होने में उसकी मदद कर सकते हो ,लेकिन वह स्वस्थ भी नहीं है। उसकी जीने की इच्छा ही नहीं है तो कोई उसकी मदद नहीं कर सकता। 'अब कोई आवरण /Maskन रहा'...इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने प्रकाश को जान लिया।अभी तीन चरण और शेष हैं।धीरे -धीरे तुम्हें उस प्रकाश को अनुभव करने ,जानने ,आत्मसात करने के लिए अपने अंतर्दृष्टि को तैयार करना होगा और इस तैयारी में वर्षों लग जाते हैं।

16-अब कोई बाधा नहीं रहती,अवरोध मिट जाता है, लेकिन दूरी अभी भी होती है।तुम्हें अब पहले से अधिक ध्यानपूर्वक चलना होगा, क्योंकि तुम भी सोचने की वही गलती कर सकते हो कि अब सब मिल गया, अवरोध /आवरण/Mask हट गया है ,अब वापस घर लौट आया। लेकिन तब तुम

मंजिल पर पहुंचने के पहले ही रुक गए।बहुत से योगी है जो पांचवें पर रुक गए है।वास्तव में यदि तुम बहुत अहंकारी हो तो तुम इसी सूत्र पर ठहर

जाओगे।अगर अवरोध हो तो अहंकार के पास कुछ लड़ने के लिए होता है।आवरण हो,तो तुम उसे हटाने की, उठाने की कोशिश करते रहते हो।जब वह हट जाता है, तो लड़ने के लिए कुछ नहीं रहता।जैसे कि तुम जिस चीज से संघर्ष कर रहे थे, वह अचानक खो जाए -तुम्हारे जीवन का सारा अर्थ उसके साथ खो जाता है।अब तुम नहीं जानते कि क्या करें।

17-उदाहरण के लिए संसार में बहुत लोग दूसरों के साथ एक गहरी प्रतियोगिता में उलझे हैं ...व्यापार में, राजनीति में, इधर उधर की बातों में। अगर वे थोड़े भी बुद्धिमान हैं, तो फिर वे थक जाते हैं। फिर वे अपने अहंकार से ही लड़ने लगते हैं, जो कि एक आवरण है। एक दिन वह आवरण भी हट जाता है, तब लड़ने के लिए, संघर्ष करने के लिए कुछ बचता नहीं। जब संघर्ष करने के लिए कुछ नहीं बचता, तो अहंकार के लिए रह पाना असंभव हो जाता है। क्योंकि अहंकार केवल संघर्ष में ही रहता है ; या तो दूसरे के साथ या फिर अपने अहंकार के साथ ।जब लड़ने , संघर्ष करने के लिए ,कहीं जाने के लिए कुछ नहीं रहता, कोई बाधा नहीं रहती, तो तुम ठहर जाते हो। लेकिन तीन चरण अभी भी शेष हैं।

18-धारणा केवल एकाग्रता नहीं है ...एकाग्रता से बहुत बड़ी बात है।

धर्म भी धारणा से ही आता है। धारणा का अर्थ होता है... धारण करने की क्षमता। जब प्राणायाम के बाद तुम समग्र के साथ लयबद्ध हो जाते हो, तो धारण करने की विराट क्षमता बन जाते हो। तुम इतने विराट हो जाते हो कि

सब कुछ समाहित कर सकते हो।लेकिन 'धारणा' का अनुवाद 'एकाग्रता' की भांति किया जाता रहा है क्योंकि इसमें एकाग्रता की थोड़ी झलक मिलती है। एक ही विचार को लंबे समय तक धारण किए रहना एकाग्रता है।

19-वास्तव में,मन के लिए किसी चीज पर एकाग्र रहना बड़ा कठिन है। मन बहुत संकुचित है..विराट नहीं। वह किसी चीज के साथ कुछ क्षणों के लिए ही रह सकता है, फिर वह उससे हट जाता है।किसी एक चीज पर न ठहरना मनुष्यता की गहरी समस्याओं में से एक है। यदि तुम अपने लक्ष्य तक पहुंच भी जाते हो, तो जल्दी ही तुम वहां से हट जाते हो।यही हमेशा से हो रहा है... तुम कहीं रुक नहीं सकते।

20-धारणा का अर्थ है धारण करने की क्षमता। क्योंकि यदि तुम परमात्मा को जानना चाहते हो, तो तुम्हें उसे धारण करने की क्षमता जुटानी होगी। यदि तुम अपने अंतरस्थ केंद्र को जानना चाहते हो, तो तुम्हें उसके लिए

स्वयं को पुन: जन्म देना होगा ।पृथ्वी वृक्ष के बीज को महीनों तक धारण करती है। जब बीज भूमि के साथ एक हो जाता है; सारा भय छोड़ देता है;

निश्चित अनुभव करने लगता है तो खोल टूटती है और अंकुर फूट पड़ते हैं । जब बीज को लगता है कि यह पृथ्वी मां जैसी है तो स्वयं की सुरक्षा करने ,अपने चारों ओर खोल का कवच बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं रहती और वह शिथिल हो जाता है।तब धीरे-धीरे खोल टूटता है और पृथ्वी में खो जाता है।

21-तुम्हें स्वयं को जन्म देना है, स्वयं को गर्भ में धारण करना है। एकाग्रता उसी का हिस्सा है।यदि तुम एक ही विचार के साथ ज्यादा देर तक रह सकते हो, तो तुम अपने साथ भी ज्यादा देर तक रहने में सक्षम हो जाते हो। क्योंकि यदि तुम लंबे समय तक स्वयं में नहीं रह सकते तो तुम वस्तुओं द्वारा आकर्षित होते रहोगे : वस्तुओं में भटकते रहोगे और घर वापस न आ

पाओगे।लौटना तभी संभव होता है;जब कोई वस्तु तुम्हारे चित्त को भटकाती नहीं। जिस मन में गहन धैर्य है... जो प्रतीक्षा कर सकता है, स्थिर रह सकता है, केवल वही मन स्वयं को जान सकता है।

22-योग का पांचवां अंग है प्रत्याहार अथार्त स्रोत पर लौट आना।यह मन की उस क्षमता की पुनर्स्थापना है जिससे बाह्य विषय जनित विक्षेपों/ Deflection से मुक्त हो इंद्रियां वश में हो जाती हैं।उदाहरण के लिए

तुम्हारा मोबाइल बार -बार बजता है, तो तुम कैसे ध्यान कर सकते हो? तुम्हें अपना मोबाइल Silent करना है।जब तुम ध्यान करने की

कोशिश कर रहे हो...तुम्हारे आसपास बहुत कुछ चल रहा हैं।मन का दूसरा हिस्सा कुछ और ही कहता है -और मन में हजारों बातें चलती रहती हैं। वे सब बातें तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रही हैं। यदि यही चलता रहा, तो प्रत्याहार संभव नहीं है .. तुम भीतर नहीं जा सकते।

23- विक्षेपों/Deflection से मुक्त होना कठिन है .. मात्र प्रतिज्ञा करने से

यह संभव नहीं है।वास्तव में प्रतिज्ञा से उलटा ही होता है।यदि तुम जबरदस्ती, बिना समझ के कुछ छोड़ते हो, तो तुम और ज्यादा मुश्किल में पड़ जाते हो और बहुत से लोग ऐसे ही छोड़ने की कोशिश करते रहे हैं।संकल्प तो

अहंकार का ही हिस्सा है इसीलिए समझ आवश्यक है।जब तुम किसी वस्तु या आदत के विरुद्ध संकल्प करते हो, तो तुम दो हिस्सों में बंट जाते हो ; अपनें से ही लड़ने लगते हो।तुम किसी समारोह में, भीड़ में, मंदिर में, किसी धर्मगुरु के सामने प्रतिज्ञा करने, व्रत लेने जाते हो कि अब तुम्हें

कोई रस नहीं है।वास्तव में तुम अब भी आकर्षित हो और कोई सहारा खोज रहे हो जहां तुम इसे छोड़ सको।

24-तुम्हारा संकल्प तुम्हारी अपनी ही कामना/वासना से लड़ रहा है। यह ऐसे ही है जैसे तुम्हारा बायां हाथ तुम्हारे ही दाएं हाथ से लड़ रहा हो।

यह नासमझी है जो तुम समझ से , अनुभव से छोड़ सकते हो,लेकिन किसी प्रतिज्ञा से कभी नहीं ...। यदि तुम कोई चीज छोड़ना चाहते हो, तो उसे पूरा जीओं, उसके गहरे में उतरो, ताकि तुम समझ सको। एक बार बात समझ में आ जाती है, तो उसे बिना किसी प्रयास के छोड़ा जा सकता है।संकल्पपूर्वक जबरदस्‍ती कुछ भी मत करो... संकल्‍प ही उलझन खड़ी करता है।

25-जीवन एक पाठशाला है जिससे गुजरना जरूरी है।अनुभव ही एकमात्र उपाय है; और दूसरा कोई सरल उपाय नहीं है। इसमें थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता। यह कहना कि छोड़ा जा सकता है ठीक नहीं है... वह अपने आप ही छूट जाता है।बाहरी वस्तुओ

द्वारा होने वाले असंयम का त्याग करने से व्यक्ति प्रत्याहार के योग्य हो जाता है। जब बाहर के संसार में कोई रस नहीं रहता, तब तुम स्वयं को जानना चाहते हो। स्वयं को जानने की आकांक्षा बाकी सारी आकांक्षाओं का स्थान ले लेती है।

26-जब तुम घर लौट आते हो, भीतर आ जाते हो, तो फिर समस्त इंद्रियों पर पूर्ण वश हो जाता है।अचानक तुम मालिक हो जाते हो। यही इस प्रक्रिया का सौंदर्य है। यदि तुम बाहर भटकते रहते हो, तो तुम गुलाम रहते हो और तुम्हारी गुलामी अनंत होती है, क्योंकि तुम्हारी आकांक्षा के विषय

भी अनंत होते हैं। एक मनुष्य महल में रहकर भी संत हो सकता है; और एक मनुष्य झोपड़ी में रहकर भी शायद संत न हो। संत होने की गुणवत्ता तुम्हारे मालिक होने पर निर्भर है। यदि तुम वस्तुओ का उपयोग करते हो तो ठीक है; लेकिन यदि तुम्हारा उपयोग किया जा रहा है तो तुम मूढ़तापूर्ण व्यवहार कर रहे हो।

27-जब तुम्हारी जिंदगी में आत्मज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता है;तब अंतस-सत्ता के लिए हर वस्तु छोड़ी जा सकती है ...राज्य मूल्यहीन हो जाते हैं। यदि तुम्हें अपने आंतरिक राज्य और बाहरी राज्य के बीच चुनना हो, तो तुम आंतरिक राज्य चुनोगे। उस क्षण, पहली बार, तुम मालिक हो जाते हो।

स्वामी का अर्थ होता है मालिक अथार्त इंद्रियों का मालिक।इसीलिए संन्यासियों के लिए हम 'स्वामी' शब्द का प्रयोग करते रहे हैं।

28-अधिकांश मनुष्य भौतिक संसार के गुलाम हैं और जब तक वे मालिक नहीं हो जाते, कुरूप ही रहेगे , नरक में ही रहेगे। स्वयं का मालिक होना

है ...स्वर्ग में प्रवेश करना। प्रत्याहार तुम्हें मालिक बना देता है अथार्त अब तुम वस्तुओ के पीछे नहीं भटक रहे हो, उनकी खोज में नहीं हो। वही ऊर्जा जो संसार में भटक रही थी, अब केंद्र पर लौट आती है। जब ऊर्जा केंद्र में लौटती है, तब रहस्यों पर रहस्य खुलते चले जाते हैं। तुम पहली बार स्वयं के सामने प्रकट होते हो ;तुम जानते हो कि तुम कौन हो। और यह जानना कि ''मैं कौन हूं'' तुम्हें शिव बना देता है।

....SHIVOHAM....

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