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क्या दर्शन एक है और अभिव्यक्ति अनेक ?क्या जब तक दृष्टि शेष है तब तक दर्शन न होगा?


क्या दृष्टि मुक्त होते ही दर्शन उपलब्ध होता है ;-

17 FACTS;-

1-जीवन एक समस्या नहीं है, अन्यथा उसका समाधान हो जाता । जीवन न प्रश्न है,न पहेली... केवल एक रहस्य है; जिसे बूझने का कोई उपाय नहीं। केवल जीने का उपाय है, समझने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए दर्शनशास्त्र की खोज व्यर्थ खोज है ;वह हार जाता है।न

तो कोई प्रश्न जीवन की गहराई को छूता है और न ही कोई उत्तर जीवन की गहराई को छूता है।यहीं दर्शन और धर्म का भेद है।धर्म डुबकी लगाने का उपाय है और दर्शन किनारे पर बैठकर विचार करता है। धर्म सागर में नाव छोड़ देता है जो तूफानों से टकराता है, चुनौतियों को स्वीकार करता है और उन्हीं चुनौतियों, उन्हीं आंधियों से आत्मा का , अनुभव का जन्म होता है।

2-प्रेम का ही विस्तार और परिष्कार है भक्ति।और जहां से प्रेम गुजरता है उसी राह पर परमात्मा भी गुजरता है। प्रेम की राह और परमात्मा की राह दो राहें नहीं हैं। अभी परमात्मा का तो हमें पता नहीं है लेकिन प्रेम का तो थोड़ा पता है।जितना अपने पास है.. हम उस संपदा से ही शुरू कर सकते है।एक कौड़ी भी पास हो तो करोड़ों रुपयों को ला सकती है। प्रेम तुम्हारे पास है, और पर्याप्त है जिससे विचार तिरोहित हो जाएंगे। विचारों की ऊर्जा भावनाओं में रूपांतरित हो जाएगी।

3-धर्म की खोज में पुरुष भाव को स्वीकार की गति ही नहीं है;प्रत्येक व्यक्ति को स्त्री भाव

स्वीकारना पड़ता है।पुरुष से अर्थ है -अहंकार, अस्मिता, 'मैं भाव'। स्त्री से अर्थ है : विनम्रता, झुकने की क्षमता, निर्अहंकार। पुरुष से अर्थ है -आक्रमण, विजय की यात्रा ।स्त्री से

अर्थ है -प्रतीक्षा, प्रार्थना, धैर्य।जो परमात्मा की खोज में निकले हैं वे अगर पुरुष की अकड़ से चले तो नहीं पहुंचेंगे क्योकि न तो परमात्मा पर आक्रमण किया जा सकता है और न ही परमात्मा को जीता जा सकता है। और पुरुष तो जीतने की भाषा में ही सोचता है। परमात्मा के समक्ष तो हारने में जीत है। वहां तो जो झुके, जो गिरे.. वे शिखर पर चढ़ गए।

4-हमने कहावत सुनी है कि उसकी कृपा हो जाए तो लंगड़े भी पर्वत चढ़ जाते हैं।वास्तव में, उसकी कृपा ही उन पर होती है जो लंगड़े हैं। जिनको अपने पैरों की अकड़ है और अपने बल का भरोसा है, वे तो घाटियों में ही भटकते रह जाते हैं। अंधेरे की अनंत घाटियां हैं। जन्मों -जन्मों तक भटक सकते हो। ईश्वर पुरुष है,अगर उसको पाना हैं तो उसकी प्रतीक्षा करना हमें सीखना होगा ...प्रार्थना ,सुमिरन और प्रतीक्षा ।

5-अपने भीतर नए जीवन को उतारने के लिए द्वार खुले हुए हैं। लेकिन जीवन को खोजने,

परमात्मा की तलाश करने हम कहां , किस दिशा में जाएं.. ।एक तरफ जाननेवाले हैं, वे कहते हैं, कण—कण में वही-वही है और कोई भी नहीं। और एक तरफ न जानने वाले हैं,

वे कहते हैं कि और सब कुछ तो है,परन्तु परमात्मा नहीं है।भक्त इन दोनों के बीच खड़ा है। न उसे पता है कि सब जगह है, और न ही वह ऐसे अहंकार से भरा है कि कह सके कि कहीं भी नहीं है। क्योंकि वह कहता है, मुझे पता ही नहीं ।

6-तो भक्त प्रतीक्षा करे, प्रार्थना करे;उसकी श्वास -श्वास पुकारे और अगर कहीं परमात्मा है तो आंसू व्यर्थ नहीं जाएंगे, पुकारें सुनी जाएंगी। और जितनी गहरी पुकार होगी उतनी शीघ्रता से सुनी जाएगी। अगर कोई पूरे प्राण से पुकार सके तो उसी क्षण घटना घट सकती है।

वास्तव में,उसके चरणकमलों का विस्तार सब तरफ है। उसका चेहरा तो बहुत विराट है लेकिन उसके पैर हरेक के पास हैं। और जो भी झुकना जानता है उसे उसके पैर मिल जाते हैं। पैरों को खोजकर फिर हम झुकेंगे ..ऐसा मत सोचो। झुकने की कला सीख लिया तो तुम जहां झुकोगे वही बद्रीनाथ होगा और फिर तुम्हे उतने दूर की यात्रा करने की जरूरत नहीं है।

7-लेकिन जो जिंदगी भर न झुका हो, जो चांद- तारों के सामने न झुका हो;जिसे झुकना न आता हो तो वह बद्रीनाथ पहुंचकर भी क्या करेगा? सिर झुका लेगा मगर भीतर का अहंकार तो खड़ा ही रहेगा; शायद सिर झुकाने से और अकड़ जाएगा। अहंकारी अगर चारो धाम हो आए तो और अहंकारी हो जाएगा क्योकि तीर्थयात्रा का अहंकार हो जाता है। तुमने धर्म के माध्यम से भी अपने अहंकार को बढ़ा लिया। और जितने तुम अहंकारी हुए उतने ही तुम परमात्मा से दूर हुए। जितने तुम झुके ,उतने ही तुम उसके करीब हो। अगर तुम परिपूर्णता से झुक जाओ तो तुम्हारे हृदय के भीतर वह विराजमान है।

8-अभी तो प्रत्यक्ष देखना कठिन होगा ;परोक्ष से ही खोजना होगा।इसलिए झुको ..झुकने में उसके चरणों पर तुम्हारे हाथ पड़ेंगे। धीमे -धीमे, उसके चरणों की गंध तुम्हारे नासापुटों में भरने लगेगी; तुम्हें तुम्हारी पहचान बढ़ेगी।इसलिए उसके चरणों को कमल कहते हैं। उसके चरण बड़े सुगंधित ,बड़े कोमल हैं, बड़े सुंदर हैं।उनका सौंदर्य अपूर्व है। उसके चरण बड़े चमत्कारी हैं जैसे कीचड़ से कमल का होना चमत्कार है। जो झुकता है वह कीचड़ में भी हीरा पा लेता है।

9-दर्शन की कोई भिन्नता नहीं है। अभिव्यक्ति की भिन्नता है। जो देखा है, वह तो एक ही है। देखने के बहुत ढंग नहीं हैं, क्योंकि जब तक देखने

का ढंग शेष है तब तक वह दिखायी ही न पड़ेगा।जब तक दृष्टि शेष है तब तक दर्शन न होगा। तब तक तुम्हारे पास कोई दृष्टि है, देखने का ढंग है, कोई चश्मा है, तब तक तुम वह न देखोगे जो है।तुम वही देखोगे जो तुम देख सकते थे, देखना चाहते थे ।

10-दृष्टि मुक्त होते ही दर्शन उपलब्ध होता है अथार्त जब तुम्हारी कोई आंख न रही , तुम न हिंदू रहे, न मुसलमान; न जैन, न ईसाई; न पारसी, न सिक्ख। जब तुम्हारी कोई दृष्टि न रही। तब तुम परमात्मा के समक्ष बिलकुल शुद्ध, शून्य होकर खड़े हुए कि मेरे पास कुछ दृष्टि नहीं है।'' मैं सिर्फ दर्पण हूं, आप जैसे हो ..वैसा ही झलको। न मैं कुछ जोडूंगा,न कुछ घटाऊंगा। मेरे पास जोड़ने-घटाने को कुछ है ही नहीं , अब मैं हूं ही नहीं। अब केवल आप हो, और मैं दर्पण हूं''।

11-जिस दिन दृष्टि मिट जाती है, वह मिट जाता है।उस दिन , उस शुद्ध दृष्टि में दर्शन उपलब्ध होता है। दर्शन तो एक ही है। लेकिन, जब हम उसे कहने जाते हैं तब फर्क आ जाता है। परमात्मा को ,सत्य को किसी ने देखा , जाना ,तो परम आनंद की वर्षा हुई। जो हुआ है वह इतना विराट है कि समाता नहीं--यह हृदय बहुत छोटा है। सागर ने बूंद में छलांग ले ली। अब इसको

कहना बड़ा मुश्किल हो गया है। यह Bliss/आनंद की घटना घटी है, मीरा इसे शब्दों में नहीं कहेगी,क्योकि वह शब्द की मालिक नहीं है... वॉटर एलिमेंट है।''पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे''। और यही उनके लिए आसान था।

12-जब यह Bliss/आनंद की घटना घटी तो गौतम बुद्ध चुप हो गए,वे नहीं नाचे। यह उनके व्यक्तित्व में न था।सन्नाटा छा गया; सात दिन तक बोले ही

नहीं।उन्होंने कहा, ''बोलने का कोई मन नहीं है।उस आनंद को मैं चुप रहकर ही कह सकता हूं। कहने से बात बिगड़ जाएगी ..कह न पाऊंगा। और, मुझे भरोसा नहीं है कि सुननेवाले समझ पाएंगे''। न तो वे नाचने को

तैयार थे, न बोलने को तैयार थे। वे बड़े तर्कनिष्ठ हैं ,इसलिए उन्होंने परमात्मा की बात नहीं कहीं क्योंकि कहने से गड़बड़ होता है और जो सत्य कहा जा सके वह सत्य ही नहीं है।

13-गुरुनानक को जब ज्ञान हुआ तो अपने एक बचपन के साथी ' मरदाना' को लेकर निकल पड़े और गाने लगे। कोई गुरुनानक से प्रश्न पूछता तो नानक कहते, मरदाना, अपना वाद्य बजाओ और नानक गाते। ये उत्तर होता। जब भी कोई ईश्वर की , कर्म की, सिद्धांत की बात पूछता तो गीत ही

उनका उत्तर था।क्योंकि वे कहते है कि'' वह बात इतनी बड़ी है वाद्य से नहीं कही जा सकेगी, तर्क से न समझायी जा सकेगी, गाकर ही कही जा सकती है। शायद गीत तुम्हें कहीं चोट कर दें''।

14-अभिव्यक्ति के अनंत रूप हैं, दर्शन के नहीं ;दर्शन तो एक का ही होता है।लेकिन जब उस एक की खबर लेकर लोग पृथ्वी पर उतरते हैं तो वे माध्यम बनते हैं।और तब माध्यम अलग होगा, क्योंकि हर व्यक्ति की अपनी सामर्थ्य है। मीरा नाच सकती है, गुरुनानक गा सकते हैं,गौतम बुद्ध बोल सकते हैं, आदिशंकर तर्क कर सकते हैं।आदिशंकर से बड़ा तार्किक व्यक्ति खोजना कठिन है,वे परमात्मा को तर्क से समझाते रहे ;नास्तिकों के तर्क को खंडन करते रहे। वह उनकी क्षमता थी।

15-इस तरह हजार-हजार लोग हुए। उनका दर्शन एक, उनकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। उनकी अभिव्यक्ति में जो छिपा है-- उसके लिए न तो तर्क दिया जा सकता है, न तो बोलकर समझाया जा सकता है, न गाकर समझाया जा सकता है, न ही नाचकर समझाया जा सकता है; वह अव्यक्त

है।अज्ञानी 'यदि' में जीता है तो ज्ञानी 'शायद' में। अज्ञानी अतीत के लिए अक्सर सोचता रहता है, यदि ऐसा होता, यदि वैसा होता--तो ऐसा परिणाम हो जाता।' यदि' से तुम पहचान सकते हो आदमी कितना अज्ञानी है।

16-अज्ञानी 'यदि' में रहता है तो ज्ञानी 'शायद' में। शायद में भी अपने लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व के लिए ।उदाहरण के लिए ''शायद किसी क्षण में अंतस जग जाए; शायद कोई बात चोट कर जाए; शायद नींद में तुम

आंख खोल दो और तुम्हारा सपना टूट जाए''।तो गौतम बुद्ध चालीस वर्ष तक इसी 'शायद' के लिए मेहनत करते हैं मीरा नाचती है; गुरुनानक गाते हैं।अगर वे अपनी तरफ देखें तो अब कुछ कहने को नहीं बचता है, न कोई 'यदि' बची है, न कोई 'शायद' बचा है।लेकिन जब हमारी तरफ देखते हैं तो लगता है, एक महाकरुणा जनमती है। वही शक्ति जो हमारे भीतर वासना है, ज्ञानी में करुणा बन जाती है। वह रोक नहीं पाता, वह बहने लगती है।

17-इस शायद के कारण ज्ञानियों की इतनी अभिव्यक्तियां हैं। उन्होंने जो जाना है वह तो एक है, लेकिन जिनसे कहना है वे अनेक हैं। और, जिसके सामने कहना है उसकी सीमा है ;इसलिए भेद है। भेद हमारी समझ ,सीमा के कारण है।जानना ''एक'' को है,लेकिन बताना, समझाना अनेक को है। और, फिर व्यक्ति की सीमा है।इलेक्ट्रिकसिटी तो एक ही है परन्तु

इलेक्ट्रिक अपार्टस हज़ारो ...परमात्मा इतना बड़ा है किसी में भी नहीं समाता। जो बताने के पार है, उसे भी महाकरुणावान व्यक्तियों ने बताने

की कोशिश की है।चांद तो आकाश में एक ही है।इसीलिए दर्शन तो एक है, अभिव्यक्ति अनेक है।

...SHIVOHAM.....

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