शिवसूत्र-SANSKRIT/ HINDI & ENGLISH PART-02
३.... ३-१. घ्य़ानं बन्धः . ३-२. कलादीनां तत्त्वानां अविवेको माया . ३-३. शरीरे संहारः कलानाम.ह . ३-४. नाडी संहार भूतजय भूतकैवल्य भूतपृथक्त्वानि . ३-५. मोहावरणात.ह सिद्धिः . ३-६. मोहजयाद.ह अनन्ताभोगात.ह सहजविद्याजयः . ३-७. जाग्रद.ह द्वितीयकरः . ३-८. नर्तक आत्मा . ३-९. रङ्गो.अन्तरात्मा . ३-१०. प्रेक्शकाणीन्द्रियाणि . ३-११. धीवशात.ह सत्त्वसिद्धिः . ३-१२. सिद्धः स्वतन्त्रभावः . ३-१३. यथा तत्र तथान्यत्र . ३-१४. विसर्गस्वाभाव्याद.ह अबहिः स्थितेस्तत्स्थितिः . ३-१५. बीजावधानम.ह . ३-१६. आसनस्थः सुखं ह्रदे निमज्जति . ३-१७. स्वमात्रा निर्माणं आपादयति . ३-१८. विद्या अविनाशे जन्म विनाशः . ३-१९. कवर्गादिश्हु माहेश्वर्याद्याः पशुमातरः . ३-२०. त्रिश्हु चतुर्थं तैलवदासेच्यम.ह . ३-२१. मग्नः स्वचित्तेन प्रविशेत.ह . ३-२२. प्राण समाचारे समदर्शनम.ह . ३-२३. मध्ये.अवर प्रसवः . ३-२४. मात्रास्वप्रत्यय सन्धाने नश्ह्टस्य पुनरुत्थानम.ह . ३-२५. शिवतुल्यो जायते . ३-२६. शरीरवृत्तिर्व्रतम.ह . ३-२७. कथा जपः . ३-२८. दानं आत्मघ्य़ानम.ह . ३-२९. यो.अविपस्थो घ्य़ाहेतुश्च . ३-३०. स्वशक्ति प्रचयो.अस्य विश्वम.ह . ३-३१. स्तिथिलयौ . ३-३२. तत.ह प्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात.ह . ३-३३. सुख दुःखयोर्बहिर्मननम.ह . ३-३४. तद्विमुक्तस्तु केवली . ३-३५. मोहप्रतिसंहतस्तु कर्मात्मा . ३-३६. भेद तिरस्कारे सर्गान्तर कर्मत्वम.ह . ३-३७. करणशक्तिः स्वतो.अनुभवात.ह . ३-३८. त्रिपदाद्यनुप्राणनम.ह . ३-३९. चित्तस्थितिवत.ह शरीर करण बाह्येश्हु . ३-४०. अभिलाश्हाद्बहिर्गतिः संवाह्यस्य . ३-४१. तदारूढप्रमितेस्तत्क्शयाज्जीवसंक्शयः . ३-४२. भूतकञ्चुकी तदा विमुक्तो भूयः पतिसमः परः . ३-४३. नैसर्गिकः प्राणसंबन्धः . ३-४४. नासिकान्तर्मध्य संयमात.ह किमत्र सव्यापसव्य सौश्हुम्नेश्हु . ३-४५. भूयः स्यात.ह प्रतिमीलनम.ह . ३-४६. ॐ तत.ह सत.ह /////////////////////////////////////////////////
3-व्यक्ति का रूपांतरण ;--- ////////////////////////////////////////////////// 34-ध्यान बीज है।
35-कला आदि तत्वों का अविवेक ही माया है।
36-भौतिकता का ज्ञान-विवेक की कमी है और रूपांतरण सिद्धांत के विरुद्ध है। स्वयं में स्थिति ही शक्ति है। 37-शरीर का रूपांतरण रुक जाता है --जब तक महत्वपूर्ण नाड़िओ का शांत होना , तत्वों की महारत होना, तत्वों से अलग होना और तत्वों का अलग होना न हो जाये।
38-मोह आवरण से युक्त योगी को सहज सिद्धियां तो फलित हो जाती है।लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता है। 39--स्थाई रूप से मोह-जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। 40-ऐसे जागृत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्फुरण है; ऐसा बोध होता है। 41-आत्मा नर्तक है। 42-अंतरात्मा केवल रंगमंच है। 43-इंद्रियां दर्शक हैं। 44-''बुद्धि के वश में होने से सत्त्व की सिद्धि होती है' 45-''और सिद्द होने पर स्वातंत्र्य फलित होता है।'' 46-जैसा यहाँ है ; वही कहीं और है। 47-उत्सर्जन प्रकृति का तरीका है;इसीलिए स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है। और वह बाहर स्थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है। 48-बीज पर ध्यान दें। 49-आसनस्थ अथार्त स्वस्थित व्यक्ति सहज ही चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाता है।
50-और आत्म- निर्माण अथार्त द्विजत्व को प्राप्त करता है। 51-विद्या का अविनाश, जन्म का विनाश है।
52-माहेश्वरी और अन्य मातृ शक्तियां ध्वनि तत्वों में निवास करती हैं।
53-तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए। 54--ऐसा मग्न हुआ स्व- चित्त में प्रवेश करे।
55- प्राण-समाचार से, अथार्त सर्वत्र परमात्म-ऊर्जा का प्रस्फुरण है।
56-ऐसा अनुभव कर समदर्शन को उपलब्ध होता है।
57-और वह शिवतुल्य हो जाता है ।
58-उनकी शरीर की वृतियां ही व्रत है। 59-वे जो भी बोलते हैं, वही जप है। 60-आत्मज्ञान ही उनका दान है। 61-जो अंतस शक्तियों का स्वामी और ज्ञान का कारण है। 62-स्वशक्ति का प्रचय अथार्त सतत विलास ही इसका विश्व है। 63-और वह स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है। 64-सुख दुःख बाह्य वृतियां हैं, ऐसा सतत जानता है। 65-और उनसे विमुक्त ,वह केवली हो जाता है।
66-मन का अति मोह ही कर्म को प्रेरित करता है।
67-मोह से मुक्त योगी के कर्म ही सृजन की ओर ले जा सकते है।
68-सृजन शक्ति अपने स्वयं के अनुभव पर आधारित होती है।
69-जो तीनों अवस्थाओं को पार कर लेता है; वह उन्हें जीवंत करता है।
70-ऐसे स्थिर चित्त योगी को कारण शरीर में प्रवेश करना चाहिए।
71-लालसा आंतरिक प्रक्रिया को बहिर्मुखता की ओर ले जाती है। 72-उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा क्षय के कारण जन्म-मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है। 73--ऐसा भूतकंचुकी, विमुक्त पुरुष परम शिवरूप ही होता है। 74- यद्यपि तत्व में फंसा हुआ मुक्त नहीं है लेकिन,वह भगवान की तरह, सर्वोच्च है।
75-प्राणिक श्वास के साथ संबंध स्वाभाविक है।
76-जो नाक के भीतर केंद्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए बाएँ इड़ा और दाएँ पिंगला या सुषुम्ना का उपयोग करता हैं। 77- ऐसा व्यक्ति भगवान शिव में विलीन हो जाता है।
ओम श्री भगवान शिव को यह अर्पित हो । ///////////////////////////////////////////////////////
IN ENGLISH- 3- The transformations of the individual.;... 3-1 Meditation is seed. 3-2 (Material) knowledge is bondage (association). 3-3 Maya is the lack of discernment of the principles of transformation. 3-4 The transformation is stopped in the body. The quieting of the vital channels, the mastery of the elements, the withdrawal from the elements, and the separation of the elements.
3-5 Perfection is through the veil of delusion. 3-6 Overcoming delusion and by boundless extension innate knowledge is achieved. 3-7 Waking is the second ray (of consciousness). 3-8 The self is the actor. 3-9 The inner self is the stage. 3-10 The senses are the spectators. 3-11 The pure state is achieved by the power of the intellect. 3-12 Freedom (creativity) is achieved. 3-13 As here so elsewhere. 3-14 Emission (of consciousness) is the way of nature and so what is not external is seen as external. 3-15 Attention to the seed. 3-16 Seated one sinks effortlessly into the lake (of consciousness). 3-17 The measure of consciousness fashions the world. 3-18 As (limited) knowledge is transcended, birth is transcended. 3-19 Maheshvari and other mothers (sources) of beings reside in the sound elements. 3-20 The fourth (state of consciousness) should be used to oil the (other) three (states of consciousness). 3-21 Absorbed (in his nature), one must penetrate (the phonemes) with one's mind. 3-22 The lower plane arises in the center (of the phoneme). 3-23 A balanced breathing leads to a balanced vision. 3-24 What was destroyed rises again by the joining of perceptions with the objects of experience.
3-25 He becomes like Shiva. 3-26 The activity of the body is the vow. 3-27 The recitation of the mantras is the discourse. 3-28 Self-knowledge is the boon. 3- 29 He who is established is the means and knowledge. 3-30 The universe is teh aggregate of his powers.
3-31 Persistence and absorption. 3-32 Even when this (maintenance and dissolution) there is no break (in awareness) due to the perceiving subjectivity. 3-33 The feeling of pleasure and pain is external. 3-34 The one who is free of that is alone (with consciousness). 3-35 A mass of delusion the mind is subject to activity. 3-36 When separateness is gone, action can lead to creation. 3-37 The power to create is based on one's own experience. 3-38 That which precedes the three (states of consciousness) vitalizes them. 3-39 The same stability of mind (should permeate) the body, senses and external world. 3-40 Craving leads to the extroversion of the inner process. 3-41 When established in pure awareness, (the craving) is destroyed and the (empirical) individual ceases to exist. 3-42 Although cloaked in the elements one is not free, but, like the lord, one is supreme. 3-43 The link with the vital breath is natural. 3-44 Concentrating on the center within the nose, what use are the left and the right channels or su\dsumna? 3-45 May (the individual) merge (in the lord) once again.
3-46 Aum Tat Sat means He that Divine is everywhere. ..SHIVOHAM....
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