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क्या है अन्नमय कोश/PHYSICAL BODY की उपवास ,आसन, तत्व शुद्धि,और तपश्चर्या साधना?PART01

क्या है अन्नमय कोश ?-

05 FACTS;-

1-ऋग्वेद में पंचकोशों को पाँच ऋषियों की संज्ञा देते हुए कहा गया है कि मनुष्य जीवन्त अवस्था में ही सारे जीवन को पवित्र बना सकते हैं ।ये पाँच कोश हैं ...

1-अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से निर्मित ..शरीर और मस्तिष्क ।

2-प्राणमय कोश - प्राणों से बना ।

3-मनोमय कोश - मन से बना ।

4-विज्ञानमय कोश - अंतर्ज्ञान /सहज ज्ञान से बना ।

5-आनंदमय कोश - आनंदानुभूति से बना ।

2-आत्मा के पांच कोशों मे प्रथम कोश का नाम ‘ अन्नमय कोश’ है |यहाँ 'मय' का प्रयोग विकार अर्थ में किया गया है। अन्न (भुक्त पदार्थ) के विकार अथवा संयोग से बना हुआ कोष 'अन्नमय' कहलाता है। यह आत्मा का सबसे बाहरी आवरण है। पशु और अविकसित-मानव भी, जो शरीर को ही आत्मा मानता है, इसी धरातल पर जीता है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं।अन्न तथा भोजन से निर्मित शरीर और मस्तिष्क ,सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथ्वी, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है।अन्न का सात्विक अर्थ है ‘ पृथ्वी का रस ‘| पृथ्वी से जल , अनाज , फल , तरकारी , घास आदि पैदा होते है | उन्ही से दूध , घी , माँस आदि भी बनते हैं | यह सभी अन्न कहे जाते हैं , इन्ही के द्वारा रज , वीर्य बनते हैं और इन्ही से इस शरीर का निर्माण होता है | अन्न द्वारा ही देह बढ़ती है और पुष्ट होती है और अंत मे अन्न रूप पृथ्वी मे ही भष्म होकर या सड़ गल कर मिल जाती है | अन्न से उत्पन्न होने वाला और उसी मे जाने वाला यह देह इसी प्रधानता के कारण ‘अन्नमय कोश ‘ कहा जाता है |

3-जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर, इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है। जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले अथार्त प्राणियों से पहिले का है। पहले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था ,अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है। इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु।

4-यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता है | वह जीव के साथ रहता है | बिना शरीर के भी जीव भूत-योनी मे या स्वर्ग नर्क मे उन भूख -प्यास , सर्दी -गर्मी , चोट , दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बंधित है | इसी प्रकार उसे उन इन्द्रीय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने संभव हैं | भूतों की इच्छाएं वैसी ही आहार विहार की रहती है , जैसी मनुष्य शरीर धारियों की होती है | इससे प्रकट है की अन्नमय कोश शरीर का संचालक , कारण , उत्पादक उपभोक्ता आदि तो है पर उससे पृथक भी है | इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है |चिकित्सा पद्धतियों की पहुच स्थूल शरीर तक है जबकी कितने ही रोग ऐसे हैं जो अन्नमय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं और जिसे चिकित्सक ठीक करने मे प्रायः असमर्थ हो जाते हैं |अन्नमय कोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढांचा और रंग -रूप बनता है | उसी के अनुसार इन्द्रियों की शक्तियां होती हैं |शरीर जिस अन्न से बनता – बढ़ता है उसके भीतर सूक्ष्म जीवन तत्व रहता है जो की अन्नमय कोश को बनाता है |

5-जैसे शरीर मे पांच कोश हैं वैसे ही अन्न मे भी तीन कोश हैं ....

1-स्थूल कोश 2-सूक्ष्म कोश 3-कारण कोश

स्थूल मे स्वाद और भार , सूक्ष्म मे पराजय और गुण तथा कारण कोश मे अन्न का संस्कार होता है | जिह्वा से केवल अन्न का स्वाद मालुम होता है , पेट उसके भार का अनुभव करता है , रस मे उसकी मादकता , उष्णता प्रकट होती है | अन्नमय कोश पर उसका संस्कार होता है | माँस आदि कितने अभक्ष्य पदार्थ ऐसे हैं जो जीभ को स्वादिष्ट लगते हैं ,पर उनमे सूक्ष्म संस्कार ऐसा होता है जो अन्नमय कोश को विकृत कर देता है |

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क्या नाभि / मणिपुर चक्र अन्नमय कोश का प्रवेश द्वार है?-

08 FACTS;-

1-योग राजोपनिषद् के अनुसार सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड मनुष्य के नाभि चक्र में समाहित है, जहाँ से निकलने वाली विद्युतीय Electrical तरंगें न केवल शरीर तंत्र को नियंत्रित करती हैं, वरन् समूचे ब्रह्माण्ड में अपने स्तर की हलचलें उत्पन्न करती हैं।नाभि चक्र को कमलाकार बताते हुए कहा गया है कि इससे 24 नाड़ियाँ निकलती हैं जिनमें से दस नाड़ियाँ ऊपर की ओर जाती हैं और शब्द, रस, गंध आदि प्रक्रियाओं को नियंत्रित करती हैं। दस शिरायें शरीर के निचले भाग की ओर जाती हैं और सम्बन्धित अंग-अवयवों को नियंत्रित करती हैं। इसके अतिरिक्त चार और नाड़ियाँ निकल कर कई शाखा-प्रशाखाओं में बंट जाती हैं और छोटे-छोटे स्थानों की आपूर्ति करती हैं। यह शक्ति केन्द्र सुषुम्ना में मणि रत्नों की भाँति धागे से जुड़ा होता है, इसीलिए इसे ‘मणिपूर चक्र’ /सोलर प्लेक्सस कहते हैं। इसे दस पंखुड़ियों वाले कमल पुष्प के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि यह रुद्र का स्थान है जो समस्त सृष्टि का पोषण करते हैं। इसे विकसित कर लेने पर मनुष्य सभी प्रकार की व्यथाओं एवं कामनाओं पर विजय पा लेता है।उसमें परकाया प्रवेश की सामर्थ्य आ जाती है।

2- नाभि चक्र सूर्य का अधिष्ठान स्थल होने के कारण तेजस का, ज्ञान शक्ति का केन्द्र है। इस पर सविता का ध्यान करने से आत्म सूर्य अर्थात् अंतर्ज्योति मन की मलिनताएँ तथा विकृतियाँ दूर होती है और जीवन में उच्चस्तरीय उत्साह का संचार होता है।ओजस तेजस की अभिवृद्धि होती है। हमारी वृत्तियों से इसका गहरा सम्बन्ध है। चैतन्य अवस्था में जब यह सक्रिय रहता है, तब भावनाएँ एवं वृत्तियाँ उच्चस्तरीय होती हैं। मन में प्रसन्नता की, स्फूर्ति की तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं। किन्तु संकुचित अवस्था में अशुभ वृत्तियाँ उभरती और मन खिन्न तथा उदास बना रहता है। सामान्य रूप से इस शक्ति केन्द्र में सौरशक्ति का नैसर्गिक प्रवाह सतत होता रहता है। किन्तु जब कभी मनुष्य अपने स्वयं के चिन्तन, आचरण या क्रिया-व्यवहारों के द्वारा उस प्रवाह में बाधा उत्पन्न कर लेता है तो जीवन तत्व-प्राण ऊर्जा की कमी के कारण अनेकानेक व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। नाभि सूर्य का प्रतीक है। प्राण चेतना की उत्पत्ति इसी केन्द्र से होती है।

3-प्राणायाम एवं सविता साधना द्वारा वस्तुतः सूर्य चक्र का ही जागरण किया जाता है जिससे आत्मा अपना, सम्बन्ध सीधे सूर्य से जोड़कर प्राणाग्नि का विकास करती रहती है। इस केन्द्र को जाग्रत कर लेने का अर्थ है शक्तिपुँज बन जाना, महाप्राण बन जाना।अग्नि तत्व की प्रधानता होने के कारण यह प्राण शक्ति की प्रबलता का, साहस और वीरता का, संकल्प एवं पराक्रम का भी केन्द्र है। इसका सम्बन्ध निद्रा, भूख, प्यास लगने से है। एम्ब्रियोलॉजी अर्थात् भ्रूण विज्ञान के अंतर्गत नाभि संस्थान का विशेष महत्व है। जीवधारी भ्रूणावस्था से लेकर परिपक्व विकसित शिशु बनने तक जितने दिनों गर्भावस्था में रहता है, तब तक वह माता के शरीर के साथ अपने नाभि केन्द्र से एक नलिका द्वारा जुड़ा होता है जिसे अम्बिलिकल कार्ड या गर्भनाल कहते हैं। इसके माध्यम से ही जननी की प्राण ऊर्जा, रस-रक्त एवं अन्यान्य पोषक तत्व उसके शरीर में पहुँचते हैं और वह एक बिंदु कलल से विकसित होता हुआ शिशु रूप धारण करता है। प्रसव के उपरान्त ही जननी और शिशु को पृथक इकाई के रूप में अपना-अपना कार्य अपने बलबूते करने का अवसर मिलता है। इससे पूर्व नाभि मार्ग से ही शिशु पोषण प्राप्त करता है। इसीलिए नाभि केन्द्र को जीवनी शक्ति का, प्राण ऊर्जा का केन्द्र बताया है।वैज्ञानिकों ने इसे शरीर स्थित दूसरे मस्तिष्क ‘एबडोमिनल ब्रेन’ की संज्ञा दी है।

4-कुण्डलिनी जागरण में ‘मणिपूर चक्र’ का विशेष महत्व है। यों तो कुण्डलिनी महाशक्ति का उद्गम स्थल मूलाधार चक्र है, पर उसका उद्गम छह अंगुल ऊँचाई पर नाभि की सीध में है। मूलाधार को जो ऊर्जा अपने कार्य संचालन के लिए उपलब्ध होती है, वह वस्तुतः नाभि द्वारा ही बाहर से भीतर तक पहुँचती है। इसका प्रमुख कारण है नाभि में सूर्य का उपस्थित होना।शास्त्रों में इस सम्बन्ध में कहा गया है- पेट में यम और नाभि मंडल में सूर्य विद्यमान है और इसमें संयम करने से भुवन का अर्थात् लोक-लोकाँतरों का ज्ञान प्राप्त होता है। सूर्य से सम्बन्धित होने के कारण मणिपुर चक्र की प्रकाश किरणें संपूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाती हैं और शरीर तथा सृष्टि का सारा रहस्य साधक के सम्मुख प्रकट हो जाता है।गर्भ काल में बच्चा जितनी तेजी से बढ़ता है वह आश्चर्यजनक है। उसे अपने शरीर के अनुपात से इतनी अधिक खुराक की जरूरत पड़ती है जितनी जन्म लेने के उपरान्त फिर कभी नहीं पड़ती। उन सारी आवश्यकताओं की पूर्ति नाभि मार्ग से ही होती रहती है।

5-गर्भाशय में भ्रूण का पोषण माता के शरीर की सामग्री से होता है। आरंभ में भ्रूण, मात्र एक बुलबुले की तरह होता है। तदुपरान्त वह तेजी से बढ़ना आरंभ करता है। तब न मुँह खुला होता है और न पाचन यंत्र ही सक्षम होते हैं। पका हुआ, पचा हुआ आहार उस स्थिति में उसे अपनी नाभि द्वारा ही उपलब्ध होता है।प्रसव के समय जब बालक बाहर आता है तो देखा जाता है कि उसकी नाभि में एक नाल रज्जु /Cord बँधी है और वह माता को नाभि स्थली के साथ जुड़ी है। उसे काटना पड़ता है तब दोनों अलग होते हैं। यह नाल ही वह द्वार है जिसके द्वारा माता के शरीर से निकल कर आवश्यक रस द्रव्य बालक के शरीर में निरन्तर पहुँचते रहते हैं।इस दृष्टि से प्रथम मुख नाभि को ही कहा जा सकता है।भ्रूण के फेफड़े गर्भावस्था के नौ महीने प्रायः निष्क्रिय ही रहते हैं। श्वास प्रश्वास की आवश्यकता माता और भ्रूण के दो जुड़े हुए अवयव पूरी करते हैं। माता के ‘यूटेरस’ में स्थित बच्चे के ‘प्लेसेन्टा’ ही फेफड़े का भी काम करते हैं।

6-जन्म के उपरान्त जैसे ही बालक रोता, हाथ पैर चलाता और साँस लेता है वैसे ही रक्त संचार आरंभ हो जाता है। नाल काटने पर बच्चे का ‘अम्ब कार्ड’ माता के ‘प्लेसेन्टा’ से कट कर अलग हो जाता है। तब फिर दोनों के बीच बने हुए सम्बन्ध सूत्र का विच्छेद हो जाता है और इस कार्य के सम्पन्न करती रहने वाली ‘अम्ब वेन’ निष्क्रिय हो जाती है।बच्चे के फेफड़े हृदय आदि ठीक तरह अपना काम करने लगते हैं और उस स्व संचालित प्रक्रिया के सहारे नवजात शिशु की जीवन यात्रा स्वावलंबन पूर्वक जाती है। माता का सहयोग समाप्त हो जाता है। तब उस केन्द्र की उपयोगिता भी समाप्त हो जाती है। इसके बाद उस महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया का केन्द्र नाभि बाह्य दृष्टि से एक सामान्य गड्ढे के रूप में रह जाती है। स्थूल विज्ञान के अनुसार अन्दर उस स्थान के यह सूत्र एकदम निष्प्राण नहीं होते बल्कि जब Liver रोग ग्रस्त हो जाता है तो उस पर पड़ने वाले रक्त के दबाव को कम करने के लिए यह सूत्र पुनः सक्रिय हो उठते हैं।

7- शरीर के विकास की दृष्टि से नाभि की भूमिका समाप्त हो जाती है किन्तु अध्यात्म विज्ञान की मान्यता इससे भिन्न है। उसने नाभि को ‘नाभिकीय’/Nucleus केन्द्र माना है। जिस प्रकार सौर मण्डल का संचालन सूर्य द्वारा होता है उसी प्रकार शरीर का मध्य बिन्दु नाभि है और उसमें नाभिकीय क्षमता विद्यमान् है। मस्तिष्क का सूक्ष्म शरीर का Nucleus आज्ञाचक्र है। नाभि केन्द्र के चुम्बकत्व/Magnetism में आदान-प्रदान की उभय पक्षीय/Bi sided क्षमता विद्यमान् है। अनन्त अन्तरिक्ष से आवश्यक शक्ति खींचने और धारण करने,अदृश्य एवं अविज्ञान सामर्थ्य प्रदान करने का कार्य इस चुम्बकत्व का ही है। शरीर को अनेक प्रकार की ऊर्जा चाहिए; जिन्हें वह अपनी चुम्बक शक्ति के द्वारा खींचता है। यदि नाभि चक्र के चुम्बकत्व को साधना योग द्वारा जाग्रत किया जा सके तो उसकी आकर्षण क्षमता सहज हो बढ़ जाएगी और उसकी प्रखरता के आधार पर अदृश्य अनुदान प्राप्त किया जा सकेगा ।अन्नमय कोश का प्रवेश द्वार नाभि चक्र है। इस केन्द्र की उपयोगिता सदा बनी रहती है। दिव्य शक्तियों का शरीर में प्रवेश इसी मार्ग से होता है।नाभि कन्द के नीचे कुण्डलिनी शक्ति का निवास है। अष्ट प्रकृति की प्रतीक अष्ट सिद्धियाँ उसमें कुण्डली मारकर बैठी हुई है। 8-रावण किसी शस्त्र से मर नहीं सकता था क्योंकि उसकी नाभि में अमृत का कुण्ड था।यह भेद राम को विभीषण ने बताया कि रावण की नाभि में कुण्डलाकार स्थित अमृत को अग्निबाण से सुखा दें, तभी उसकी मृत्यु होगी । राम ने वह कुण्ड सुखाकर रावण मारा। इससे प्रकट है कि शरीर की स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए नाभि चक्र के माध्यम से कितनी बड़ी सफलता प्राप्त की जा सकती है। आत्म-विद्या के अनुसार नाभि चक्र प्राण सत्ता का ,साहस, पराक्रम एवं प्रतिभा का केन्द्र माना गया है । इस स्थान की ध्यान साधना करते हुए इस प्राण-शक्ति को दिशा नियोजित किया जाता है। फलतः उसके सत्परिणाम भी ओजस्विता की वृद्धि के रूप में सामने आते हैं। रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि मज्जा, वीर्य आदि सप्त धातुओं के योग से प्राणी के पिण्डों की उत्पत्ति होती है। उनमें से नाभि मण्डल में अन्नमय पिण्ड है।नाभि चक्र में यह भौतिक जगत अवस्थित है। ''नाभि चक्र से संयम करने से शरीर की रचना का ज्ञान होता है।पाँच तत्त्वों से निर्मित विद्युत शक्ति का इसमें ध्यान करना चाहिए। ऐसा ध्यान करने से साधक सभी भौतिक सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है।

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क्या है अन्नमय कोश की शुद्धि के चार साधन ?–

विकारों की जड़ अन्नमय कोश मे ही होती है | उनका निवारण यौगिक साधनों से हो सकता है |चार साधन के द्वारा अन्न मय कोश को परिमार्जित एवँ परिपुष्ट किया जा सकता है और विविध शारीरिक अपूर्णताओं से छुटकारा पाया जा सकता है |ये चार मुख्य हैं ...

1-उपवास 2-आसन 3-तत्व शुद्धि 4-तपश्चर्या

1-उपवास;-

06 FACTS;-

1-आहार- विहार की शुद्धता तथा उपासना की नियमितता से अन्नमय कोश की साधना आगे बढ़ती है और व्यक्ति स्वस्थ शक्ति सम्पन्न, स्फूर्तिवान बनता है।इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने अनिवार्य समझा था | इसी कारण हर महीने कई उपवासों का धार्मिक महत्व स्थापित किया था अन्नमय कोश की शुद्धि के लिए उपवास का विशेष महत्व है | शरीर मे भिन्न 96 जाति की ‘ नाड़ी -गुच्छक'Ganglion देखी जाती हैं | इनकी अधिकता भिन्न -भिन्न प्रकार के रोगों के कारण बनते हैं | वैज्ञानिक इनका कुछ विशेष परिचय अभी प्राप्त नहीं कर पाए हैं , पर योगी लोग जानते हैं कि ये शरीर मे अन्नमय कोश की बंधन ग्रंथियां हैं | मृत्यु होते ही सब बंधन खुल जाते हैं और फिर एक भी गुच्छक दृष्टिगोचर नहीं होता | अन्नमय कोश को शरीर से बांधने वाली ये उपत्यिकाएँ शारीरिक एवँ मानसिक अकर्मों मे उलझकर विकृत होती हैं तथा सत्कर्मों से सुव्यवस्थित रहती है |प्रकृति के आदेशों पर चलने वालों की उपत्यिकाएँ आहार विहार का संयम ,सात्विक दिनचर्या तथा कुछ अन्य यौगिक उपाय से सुव्यवस्थित रहती हैं |

2-ऋतुओं के अनुसार शरीर की 6 अग्नियाँ न्यूनाधिक होती रहती हैं | ऊष्मा , बहुवृच , ह्वादी, रोहिता , आत्पता , व्याती यह 6 शरीरगत अग्नियाँ ग्रीष्म से लेकर बसंत तक 6 ऋतुओं मे क्रियाशील रहती हैं |इनमे से प्रत्येक के गुण भिन्न -भिन्न हैं... 1- उत्तरायण , दक्षिणायन की गोलार्ध स्थिति 2- चन्द्रमा की बढ़ती घटती कलाएं 3-नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव 4-सूर्य की अंश किरणों का मार्ग ,,इनसे ऋतू अग्नियों का सम्बन्ध है अतः ऋषियों ने ऐसे पुण्य पर्व निश्चित किये हैं जिससे अमुक प्रकार से उपवास करने पर अमुक प्रभाव हो |

3-उपवासों के पांच भेद हैं .. 1-आत्मिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप कौन सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके क्या नियमोपनियम होने चाहिए इसका निर्णय करने के लिए गंभीरता की आवश्यकता है |पाचक ( जो पेट की अपच , अजीर्ण , कोष्ठबद्धता को पचाते हैं ) 2-शोधक ( जो भूखे रहने पर रोगों को नष्ट करते हैं इन्हें लंघन भी कहते हैं ) 3-शामक ( जो कुविचारों , मानसिक विकारों , दुष्प्रवृतियों एवँ विकृत उपत्यिकाओं को शमन करते हैं ) 4-आनस ( जो किसी विशेष प्रयोजन के लिए , दैवी शक्ति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किये जाते हैं ) 5- पावस ( जो पापों के प्रायश्चित के लिए होते हैं ) । पाचक उपवास मे भोजन तब तक छोड़ देना चाहिये जब तक भूख ना लगे | एक दो दिन का उपवास करने से कब्ज पच जाता है | पाचक उपवास मे नीम्बू का रस या अन्य पाचक औषधि की सहायता ली जा सकती है | शोधक उपवास के साथ विश्राम आवश्यक है यह लगातार आवश्यक है जबतक रोग खतरनाक स्थिति से अलग हट जाए | शामक उपवास दूध , छाछ फलों का रस आदि पर चलते हैं | इसमें स्वाध्याय , मनन , एकांत सेवन , मौन , जप , ध्यान , पूजा , प्रार्थना आदि आत्म शुद्धि के उपचार भी साथ मे करने चाहिए | अनास उपवास मे सूर्य की किरणों द्वारा अभीष्ट दैवी शक्ति का आह्वान करना चाहिए | पावस उपवास मे केवल जल लेना चाहिए और सच्चे ह्रदय से प्रभु से क्षमा याचना करना चाहिए की भविष्य मे वैसा अपराध नहीं होगा |

4- -आहार-विहार सम्बन्धी शुद्धता के बिना सूक्ष्म साधनाओं का अभ्यास असम्भव है। आहार शुद्धि पर इसलिए जोर दिया जाता है कि मन की शुद्धता-अशुद्धता का आधार वही है। यदि अन्न अशुद्ध होगा, तो मन भी अशुद्ध रहेगा और अशुद्ध मन न कभी ध्यान, भजन में एकाग्र होता है और न श्रद्धा-विश्वास को ही ग्रहण करता है। मन का परिशोधन अन्न की शुद्धि पर निर्भर है। इसलिए साधना समर में उतरने वाले को सबसे पहले आहार शुद्धि पर ध्यान देना पड़ता है। भोजन स्वाद के लिए ही नहीं, वरन् शरीर रक्षा के लिए ही खाया जाना चाहिए। पेट की थैली को देखते हुए उसमें आधा आहार, चौथाई जल और चौथाई वायु के लिए स्थान रहने देना चाहिए। अर्थात् भोजन की मात्रा इतनी रहनी चाहिए जिससे पेट पर अनावश्यक भार न पड़े, आलस्य न आवे। जल्दी-जल्दी नहीं, हीं वरन् धीरे-धीरे अच्छी तरह चबा कर ग्रास की उदरस्थ किया जाय।

5-- साधना का प्रथम चरण अन्न की शुद्धि है।अन्नमय कोश की साधना को दो जरूरी बातें हैं ..(1) एक सप्ताह में दो दिन नमक, शक्कर छोड़कर अस्वाद व्रत का पालन और ( 2) भोजन में एक बार में खाद्य वस्तुओं की संख्या दो तक सीमित रखना अस्वाद व्रत एवं उपवास आत्मिक साधना के आवश्यक अंग हैं। साधक के भोजन में एक समय एक साथ अनेक प्रकार की वस्तुएँ न होनी चाहिए।भोगों को, स्वादों को सीमित करना, मन को वश में करने का, इन्द्रिय निग्रह का एक मात्र उपाय है। भोजन में जितने अधिक प्रकार वस्तुओं का समावेश किया जायेगा उतनी ही पाचन क्रिया खराब होगी, उतना ही खर्च बढ़ेगा और उतना ही मन चंचल होगा। इसलिए संयम का अवलम्बन करते हुए ही साधना पथ के पथिक को अग्रसर होना पड़ता है। 6-उपवास का क्रम भी सप्ताह में एक दिन रखना चाहिए। प्रारम्भ में पन्द्रह दिन में एक्र दिन या सप्ताह में आधा दिन का उपवास रख सकते हैं। उपवास के दिन जल पर्याप्त मात्रा में ग्रहण करना आवश्यक है। इसके साथ नीबू या शहद मिलाकर ले सकते हैं। जिन्हें दुर्बलता प्रतीत होती है, उन्हें शहद का प्रयोग लाभ पहुँचाएगा। नीबू से पाचन संस्थान की सफाई में सहायता मिलेगी। अन्न के साथ-साथ जल की शुद्धता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। ग्रहण करने की शक्ति जल में अन्न से भी अधिक रहती है, यदि तमोगुणी स्थिति का जल प्रयोग किया जाय तो उससे साधना क्रम में बाधा ही पड़ेगी। समय का एक क्षण भी बर्बाद न करना, निरन्तर काम में लगे रहना, प्रातःकाल दिनचर्या बना कर उसे पूरा करने में मशीन की तरह लगे रहना तथा उपासना का नियमित क्रम सदैव निभाना ये साधक के आवश्यक कर्तव्य हैं।

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अन्नमय कोश की शुद्धि का दूसरा साधन आसन;-

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..... SHIVOHAM...


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