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अजपा जाप क्या है?


05 FACTS;-

1-अजपा जप एक प्राचीन ध्यान साधना है जिसका उपयोग हजारों वर्षों से परमात्मा से गहरा आध्यात्मिक संबंध बनाने के लिए किया जाता रहा है।अजपा जप में साँसों की माला पर ध्यान दिया जाता है| वेदों और शास्त्रों में कई प्रकार के जपों का उल्लेख मिलता है किन्तु उनमें से कुछ ही प्रमुख माने गए हैं|1-वैखरी जप– उच्च स्वर में मन्त्र उच्चारण करके किया गया जप वैखरी जप कहलाता है|2-उपांशु जप– मन्त्रों को मुख द्वारा जोर से न बोलकर मुख के अन्दर ही जपना उपांशु जप है|

3-मानस जप– मन ही मन मन्त्रों का उच्चारण करना मानस जप कहलाता है|4-अजपा जप– श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया पर अपनी चेतना को केद्रित करके किया गया जप ही अजपा जप है| यह जप सबसे सरल और उच्च कोटि का माना गया है| गङ्गा, यमुना, सरस्वती के मिलन से तीर्थराज त्रिवेणी संगम बनता है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश देवाधिदेव हैं। इसी प्रकार सरस्वती, लक्ष्मी, काली, शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं। मृत्यु लोक, पाताल और स्वर्ग ये तीन लोक हैं।जीवन सत्ता के भी तीन पक्ष हैं, जिन्हें चिन्तन, चरित्र और व्यवहार कहते हैं। इन्हीं को ईश्वर, जीव, प्रकृति कहा गया है। तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट करना हो तो इन्हें आत्मा, शरीर और संसार कह सकते हैं। यह त्रिवर्ग ही हमें सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।

2-जीवन तीन भागों में बँटा हुआ है- (1) आत्मा, (2) शरीर और (3) पदार्थ सम्पर्क। शरीर को स्वस्थ और सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया जाता है। आत्मा को परिष्कृत और सुसंस्कृत बनाया जाता है ।जीवन साधना का समग्र रूप वह है जिसमें इन तीनों का स्तर ऐसा बना रहे, जिससे प्रगति और शान्ति की सुव्यवस्था बनी रहे।इन तीनों में प्रधान चेतना है, जिसे आत्मा भी कह सकते हैं। दृष्टिकोण इसी के स्तर पर विनिर्मित होता है।इच्छाओं, भावनाओं मान्यताओं का रुझान किस ओर हो, दिशाधारा और रीति-नीति क्या अपनाई जाय, इसका निर्णय अन्त:करण ही करता है। उसी के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव बनते हैं। किस दिशा में चला जाय? क्या किया जाय? इसके निमित्त संकल्प उठना और प्रयत्न बन पड़ना भी आत्मिक क्षेत्र का निर्धारण है। इसीलिये आत्मबल को जीवन की सर्वोपरि सम्पदा एवं सफलता माना गया है।जीवन साधना का अर्थ आत्मिक प्रगति होता है। वह गिरती-उठती है, तो समूचा जीवन गिरने-उठने लगता है। इसलिये जीवन साधना को आत्मोत्कर्ष प्रधान मानना चाहिये।ऐसा करने पर तीनों ही क्षेत्र सुव्यवस्थित बनते रहते हैं और जीवन को समग्र प्रगति, सफलता या सार्थकता के लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है।

3-जप शब्द के सामने अ अक्षर का अर्थ है बिना "कोई जप नहीं"। इस प्रकार अजपा का अर्थ है किसी भी सामग्री के बारे में सोचना बंद करना , और जप का अर्थ है माया के बारे में सोचने के बजाय परमात्मा के बारे में सोचना। तीन तल हुए—एक वाणी में प्रकट हो,एक विचार में प्रकट हो, एक विचार के नीचे अचेतन में हो। उसके नीचे भी एक तल है। अचेतन में भी आकृति और रूप होता है।उसके भी नीचे एक तल है ..महाअचेतन, जहां रूप और आकृति भी नहीं होती। वह अरूप होता है। जैसे एक बादल आकाश में भटक रहा है। अभी वर्षा नहीं हुई। ऐसा एक कोई अज्ञात तल पर भीतर कोई संभावित विचार घूम रहा है ।वह अचेतन में आकर अंकुरित होगा, चेतन में आकर प्रकट होगा, वाणी में आकर अभिव्यक्त हो जाएगा। ऐसे चार तल हैं। उस तल पर "अजपा" का प्रवेश है। तो जप का नियम है। अगर कोई भी जप शुरू करें—समझें कि राम—राम या ओम, तो पहले उसे वाणी से शुरू करें। पहले कहें, राम, राम; जोर से कहें। फिर जब यह इतना सहज हो जाए कि करना न पड़े और होने लगे, इसमें कोई प्रयत्न न रह जाए,यह होने लगे; जैसे श्वास चलती है, ऐसा हो जाए कि राम, राम चलता ही रहे, तो फिर ओंठ बंद कर लें।फिर उसको भीतर चलने दें। फिर मुख से न बोलें राम, राम; मन मे चलने दे राम, राम।फिर इतना इसका अभ्यास हो जाए कि उसमें भी प्रयत्न न करना पड़े, तब इसे वहां से भी छोड़ दें, तब यह और नीचे 'डूब जाएगा। और अचेतन में चलने लगेगा ..राम,राम। आपको भी पता न चलेगा कि चल रहा है, और चलता रहेगा।

4-फिर वहां से भी गिरा दिए जाने की विधियां हैं और तब वह अजपा में गिर जाता है। फिर वहां राम, राम भी नहीं चलता। फिर राम का भाव ही रह जाता है ...एक बादल की तरह छा जाता है। जैसे पहाड़ पर कभी बादल बैठ जाता है धुआ-धुआ, ऐसा भीतर प्राणों के गहरे में अरूप छा जाता है। और जब कोई मंत्र अजपा हो जाए , तब वह अजपा है और इस अजपा का लक्ष्य है विकार से मुक्ति।मंत्र शास्त्र का अपनी अदभुत केमेस्ट्री है ।मंत्र शास्त्र यह कहता है कि अगर कोई भी मंत्र का उपयोग अजपा तक चला जाए,तो आपके चित्त से कामवासना क्षीण हो जाएगी, सब विकार गिर जाएंगे। क्योंकि जो व्यक्ति अपने अंतिम अचेतन तल तक पहुंचने में समर्थ हो गया, उसको फिर कोई चीज विकारग्रस्त नहीं कर सकती। क्योंकि सब विकार ऊपर -ऊपर हैं, भीतर तो निर्विकार बैठा हुआ है। हमें उसका पता नहीं है,इसलिए हम विकार से उलझे रहते हैं।वे जो संन्यासी हैं, उनके कंधे पर चौबीस घंटे एक ही बात टंगी हुई है ...मन का निरोध, मन से मुक्ति, मन के पार हो जाना। जो अपने कंधे पर ही अपना मकान लिए हुए हैं, उनको खानाबदोश कहते हैंअथार्त जिनका कोई मकान नहीं है, कंधे पर ही मकान है।संन्यासी भी चौबीस घंटे अपने कंधे पर एक चीज ही लिए चलता है ..मन का निरोध।सतत श्वास उसकी धारा है ...मनातीत है सत्य और ध्यान उसका मार्ग है।

5-'अजपा जप' वह साधना है, जिसमें साधक अपनी प्रत्येक श्वांस को शिव के रूप में मानकर उसी की साधना करता है। श्वांस लेते समय और छोड़ते समय वह ओम की ध्वनि का ध्यान करते हुए ध्याता व ध्येय में एकाकार की स्थिति का अनुभव करता है।इसमें किसी प्रकार की माला या मंत्र का प्रयोग नहीं होता, बल्कि श्वांस को ही माला मानकर जप करना होता है। अजपा जप योग की वह अवस्था है, जिसमें योग करने केलिए प्रयत्‍‌न नहीं किया जाता है बल्कि स्वत: हो जाता है और जब योग स्वत: हो जाता है तो श्वांसों में शिव का वास होता है ।'अजपा' की तुलना में कोई भी अन्य विद्या, कोई भी अन्य जप और कोई भी अन्य ज्ञान को नहीं रखा जा सकता। अजपा के अभ्यास से समाधि की स्थिति भी प्राप्त हो जाती है। अजपा जप ऐसा योग है जिसको जीवात्मा माता के गर्भ में आने के समय से ही आजीवन करता रहता है। इसमें स्वाभाविक श्वास प्रक्रिया को नियमित, संयमित, दीर्घकालिक या अल्पकालिक करने के लिए किसी प्रकार का बाहरी प्रयत्‍‌न किये बिना उसे केवल यह ध्यान देना होता है कि कोई भी श्वांस व्यर्थ न जाय। उसे अपनी तथा सर्वव्यापक दिव्य तत्व की एकता को स्मरण रखना होगा। यही वह सत्य है, जिसे प्रत्येक श्वांस अव्यक्त रूप से उसके हृदय में ध्वनित करती रहती है। यही 'अजपा जप' है।अजपा जप के द्वारा मनुष्य अपने अंतर्द्वंद या आन्तरिक संघर्ष पर विजय प्राप्त कर सकता है और स्पष्टता और मन की शांति जीवन में ला सकता है।

6-प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व नित्यकर्म से निबट कर पूर्व को मुख करके किसी शान्त स्थान में बैठिए। मेरुदंड सीधा रहे। दोनों हाथों को समेट कर गोदी में रख ली जिए। नेत्र बन्द रखिए। जब नासिका द्वारा वायु भीतर प्रवेश करने लगे तो सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को सजग करके ध्यान पूर्वक अवलोकन की जिये कि वायु के साथ साथ सो की सूक्ष्म ध्वनि हो रही है। इसी प्रकार जितनी देर ‘अ’ और वायु निकलते समय ‘हं’ की ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित कीजिए। साथ ही हृदय स्थित सूर्य चक्र के प्रकाश बिन्दु में आत्मा के तेजोमय स्फुल्लिंग की श्रद्धा कीजिए। जब सांस भीतर जा रही हो और ‘सो’ की ध्वनि हो रही हो तब अनुभव करिए कि यह तेज बिन्दु परमात्मा का प्रकाश है। ‘सो’ अर्थात् वह परमात्मा। ‘ऽहम्’ अर्थात्-मैं। जब वायु बाहर निकले और ‘हं’ ध्वनि हो तब उसी प्रकाश बिन्दु में भावना कीजिए कि ‘‘यह मैं हूं’’ ‘अ’ की विराम भावना परिवर्तन के अवकाश का प्रतीक है। आरंभ में उस हृदय चक्र स्थिति प्रकाश बिन्दु को ‘सो’ ध्वनि के समय ब्रह्म माना जाता है और पीछे उसी को ‘हं’धारणा में जीव भावना हो जाती है इस भाव परिवर्तन के लिए ‘अ’ का अवकाश काल रखा गया है।

7-इसी प्रकार जब ‘हं’ समाप्त हो जाय वायु बाहर निकल जाय और नई वायु प्रवेश करे उस समय भी जीव भाव हटाकर उस तेज बिन्दु में ब्रह्म भा व बदलने का अवकाश मिल जाता है। यह दोनों ही अवकाश ‘अ ऽ ऽ ऽ’ के समान हैं पर इनकी ध्वनि सुनाई नहीं देतीं। शब्द तो केवल ‘सो हं’ का ही होता है। ‘सो’ ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। ‘ऽ’ प्रकृति का प्रतिनिधि है। ‘हं’ जीव का प्रतीक है। ब्रह्म प्रकृति और जीव का सम्मिलन इस अजपा जाप में होता है। सोऽहम् साधना में तीनों महा कारण एकत्रित हो जाते हैं। जिनके कारण आत्म जागरण का सुयोग एक साथ ही उपलब्ध होने लगता है। ‘सो हं’ साधना की उन्नति जैसे जैसे होती जाती है वैसे ही वैसे आत्मज्ञान बढ़ता है और धीरे धीरे आत्म साक्षात्कार की स्थिति निकट आती चलती है। आगे चलकर सांस पर ध्यान जमना छूट जाता है और केवल मात्र हृदय स्थित सूर्य चक्र में विशुद्ध ब्रह्म तेज के ही दर्शन होते हैं उस समय समाधि की सी अवस्था हो जाती है।

....SHIVOHAM....



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