अनन्य रसिक शिरोमणि स्वामी हरिदास जी कृतअष्टादश सिद्धांत के पद के अर्थ ...PART-01
स्वामी हरिदास ;-
04 FACTS;-
1-ध्रुपद के जनक स्वामी हरिदास का जन्म विक्रम संवत 1535 में भाद्रपक्ष शुक्ल पक्ष की अष्टमी को हुआ था। पिता आशुधीर, माता गंगा देवी के साथ अपने उपास्य राधा माधव की प्रेरणा से अनेक तीर्थयात्रा करने के बाद अलीगढ़ के ग्राम कोल (हरिदासपुर) में बस गए। स्वामी हरिदास संप्रदाय के ग्रंथ वाणी के अनुसार मधुर कंठ के कारण बचपन से ही हरिदास जी की गायन शैली की प्रसिद्धि फैलने लगी थी। यहां तक कि गांव भी उनके नाम से ही जाना जाने लगा। हरिदास जी का विवाह हरिमती से हुआ। लेकिन श्यामा कुंजबिहारी में उनकी आसक्ति देख पतिव्रता पत्नी ने योगाग्नि से अपना शरीर त्याग दिया। ताकि हरिदास जी की साधना में कोई विघ्न न आए। 25 वर्ष की उम्र में वह वृंदावन पहुंचे।यहां निधिवन में वो श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान और भजन में तल्लीन रहते। उनकी साधना की शक्ति ने ठा. बांके बिहारी महाराज का प्राकट्य हुआ। वैष्णव, स्वामी हरिदास जी को ललिता सखी का अवतार मानते हैं। ललिता सखी को संगीत की अधिष्ठात्री माना गया है।
2-स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे, उनका संगीत सिर्फ अपने आराध्य को समर्पित था। बैजू बावरा, तानसेन जैसे दिग्गज संगीतज्ञ उनके शिष्य थे। स्वामी जी के संगीत की तारीफ सुन मुगल बादशाह अकबर भेष बदलकर वृंदावन स्वामीजी का संगीत सुनने आए थे।स्वामी हरिदास जी ने एक नये पंथ सखी संप्रदाय का प्रवर्तन किया। उनके द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा कुंजबिहारी की सेवा-उपासना की पद्धति विकसित हुई, जो विलक्षण है। निकुंज उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ नहीं चाहता, उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख देने के लिए ही होते हैं।
“आचारज ललिता सखी, रसिक हमारी छाप।
नित्य किशोर उपासना, जुगल मंत्र को जाप॥
नाहीं द्वैताद्वैत हरि, नहीं विशिष्ट द्वैत।
बंधे नहीं मतवाद में, ईश्वर इच्छा द्वैत॥"
3-स्वामी हरिदास की भावना इन्हीं दोहों के अनुरूप थी। ‘सखी भाव’ की उपासना के कारण उनका संप्रदाय ‘सखी संप्रदाय’ के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ है । संसार के समस्त सुख-वैभव के उपकरणों का त्याग कर कामरी और करुआ को अपनी संपत्ति मान लिया था। उनके इष्टदेव का विग्रह ‘बाँके बिहारी’ के नाम से विख्यात है।स्वामी हरिदास ने अपने सिद्धांतों को स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा। श्याम-श्यामा की निकुंज-लीलावर्णन के लिए जो पद वे बनाते थे, उन्हीं में सिद्धांतों का भी समावेश है। उनकी रचनाओं का संकलन ‘केलिमाल’ नामक पुस्तक में कर दिया गया है। ‘केलिमाल’ में 108 पद हैं। 18 सिद्धांत के पद अलग से संकलित हैं। स्वामी हरिदास की वाणी बड़ी सरस और संगीतमय है। ब्रजभाषा का चलता रूप इनके पदों में देखा जाता है।प्रियाजू के चरण कल्पतरु हैं, कामधेनु हैं। इनकी शरण में आने पर मन की कल्पना एक क्षण में पूर्ण हो जाती है। जैसे सूर्य की किरण से सारा संसार प्रकाशित है, वैसे ही श्रीधाम प्रिया-प्रियतम के श्रीचरणों से प्रकाशित है।
4-श्रीकृष्ण भक्ति सम्बन्धी पांच मुख्य संप्रदाय है... 1. निम्बार्क संप्रदाय ;निम्बार्क 2-सखी संप्रदाय: स्वामी हरिदास 3-गौड़ीय संप्रदाय: चैतन्य महाप्रभु 4-राधा वल्लभ संप्रदाय: हित हरिवंश 5-वल्लभ संप्रदाय: वल्लभाचार्य ।सखी संप्रदाय की स्थापना स्वामी हरिदास ने की थी। इसे हरिदासी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको श्रीकृष्ण की सखी मानकर उसकी उपासना तथा सेवा करते हैं ।स्वामी हरिदास जी के द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बड़ी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं। श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है।यह संप्रदाय "जिन भेषा मोरे ठाकुर रीझे सो ही भेष धरूंगी " के आधार पर अपना समस्त जीवन "राधा-कृष्ण सरकार" को निछावर कर देती है।सखी संप्रदाय के साधुओं में तिलक लगाने का अलग ही रीति है।कोई भी व्यक्ति सखी नहीं बन जाता, इसके लिए भी एक विशेष प्रक्रिया है जो की आसान नहीं। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति पहले साधु ही बनता है, और साधु बनने के लिए गुरु ही माला-झोरी देकर तथा तिलक लगाकर मन्त्र देता है। तथा इस साधु जीवन में जिसके भी मन में सखी भाव उपजा उसे ही गुरु साड़ी और श्रृंगार देकर सखी की दीक्षा देते हैं।सखी सम्प्रदाय से जुडी एक और बात बहुत दिलचस्प है की इस सम्प्रदाय में कोई स्त्री नहीं, केवल पुरुष साधु ही स्त्री का रूप धारण करके कान्हा को रिझाती हैं। सखी सम्प्रदाय की भक्ति कोई मनोरंजन नहीं बल्कि इसमें प्रेम की गंभीरता झलकती है, और पुरुषों का यह निर्मल प्रेम इस सम्प्रदाय को दर्शनीय बनाता है।
अष्टादश सिद्धान्त के पद;- 1.ज्योंही-ज्यौंही तुम राखत हौ, त्यौंही रहियत हौं, हो हरि। और तौ अचरचे पाँय धरौं सो तौ कहौ, कौन के पैंड़ भरि? जद्यपि कियौ चाहौ, अपनौ मनभायौ सो तौ क्यों करि सकौं, जो तुम राखै पकरि। कहिं श्रीहरदास पिंजरा के जानवर ज्यौं, तरफराय रहृौ उड़िबे कौं कितौऊ करि।।1।। (राग विभास) 2. काहू कौ बस नाहिं, तुम्हारी कृपा तें सब होय बिहारी-बिहारिनि। और मिथ्या प्रपंच, काहे कौं भषियै, सु तौ है हारिनि।। जाहि तुमसौं हित, तासौं तुम हित करौ, सब सुख कारनि। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी, प्रानन के आधारनि।।2।। (राग विभास) 3. कबहूँ-कबहूँ मन इत-उत जात, यातैंब कौन अधिक सुख। बहुत भाँतिन घत आनि राख्यौ, नाहि तौ पावतौ दुख।। कोटि काम लावन्य बिहारी, ताके मुहांवुहीं सब सुख लियै रहत रुख। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी कौ दिन देखत रहौं विचित्र मुख।।3।। (राग विभास) 4. हरि भज, छाँड़ि न मान नर-तन कौ। मत बंछै मत बंछै रे, तिल-तिल धन कौ।। अनमाँग्यौ आगै आवैगौ, ज्यौं पल लागै पल कौं। कहि श्रीहरिदास मीचु ज्यों आवैं, त्यौं धन है आपुन कौं।।4।। (राग विभास) 5. ए हरि, मो-सौ न बिगारन कौ, तो-सौ सँवारन कौ, मोहि-तोहिं परी होड़। कौन धौं जीतै, कौन धौ हारै, पर बदी न छोड़।। तुम्हारी माया बाजी विचित्र पसारी, मोहे सुर मुनि, का के भूले कोड़। कहिं श्रीहरिदास हम जीते, हारे तुम, तऊ न तोड़॥ 5।। (राग विलावल) 6. बंदे अखत्यार भला। चित न डुलाब, आव समाधि-भीतर, न होहु अगला।। न फिर दर-दर पिदर-दर , न होहु अँधला। कहिं श्रीहरिदास करता किया सो हुआ, समेर अचल चला।।6।। (राग असावरी) 7. हित तो कीजै कमलनैन सौं, जा हित के आगैं और हित लागै फीकौ। कै हित कीजै साधु-संगति सौं, ज्यौं कलमष जाय सब जी कौ।। हरि कौ हित ऐसौ, जैसौ रंग मजीठ, संसार हित रंग कसूँभ दिन दुती कौ। कहिं श्रीहरिदास हित कीजै श्रीबिहारीजू सौं, और निहाहु जानि जी कौ।।7।। (राग आसावरी) 8. तिनका ज्यों बयार के बस। ज्यौं चाहे त्यौं उड़ाय लै डारै, अपने रस।। ब्रह्मलोक, सिवलोक और लोक अस। कहिं श्रीहरिदास बिचारि देखौ, बिना बिहारी नाहिं जस।।8।। (राग आसावरी) 9. संसार समुद्र, मनुष्य-मीन-नक्र-मगर, और जीव बहु बंदसि। मन बयार प्रेरे, स्नेह फंद फंदसि।। लोभ पिंजर, लोभी मरजिया, पदारथ चार खंद खंदसि। कहिं श्रीहरिदास तेई जीव पार भए, जे गहि रहे चरन आनंद-नंदसि।।9।। (राग आसावरी) 10. हरि के नाम कौ आलस कर है रे , काल फिरत सर साँधे। बेर-कुबेर कछु नहिं जानत, चढ्यौ रहत है कांधैं।। हीर बहुत जवाहर संचे, कहा भयौ हस्ती दर बाँधै। कहिं श्रीहरिदास महल में बनिता बनि ठाढ़ी भई, एकौ न चलत, जब आवत अंत की आँधैं।।10।। (राग आसावरी) 11. देखौ इन लोगन की लावनि। बूझत नाँहि हरि चरन-कमल कौं, मिथ्या जनम गँवावनि।। जब जमदूत आइ घेरत, तब करत आप मन-भावनि। कहिं श्रीहरिदा तबहिं चिरजीवौ, जब कुंजबिहारी चितावनि।।11।। (राग आसावरी)
12. मन लगाय प्रीति कीजै, कर करवा सौं ब्रज-बीथिन दीजै सोहनी।
वृन्दावन सौं, बन-उपवन सौं, गुंज-माल हाथ पोहनी॥
गो गो-सुतन सौं, मृगी मृग-सुतन सौं, और तन नैंकु न जोहनी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी सौं चित, ज्यौं सिर पर दोहनी॥12॥ [राग आसावरी] 13. हरि को ऐसौई सब खेल। मृग तृष्ना जग व्यापि रह्मौ है, कहूं बिजौरौ न बेल। धन-मद, जोवन-मद, राज-मद, ज्यौं पंछिन मैं डेल। कहिं श्रीहरिदास यहै जिय जानौ, तीरथ कौसौ मेल।।13।। (राग कल्यान) 14. झूँठी बात सांची करि दिखावत हौ हरि नागर। निस-दिन बुनत-उधेरत जात, प्रपंच कौ सागर।। ठाठ बनाइ धरयौ मिहरी कौ, है पुरुष तैं आगर। सुनि श्रीहरिदास यहै जिय जानौ, सपने कौ सौ जागर।।4।। (राग कल्यान) 15. जगत प्रीति कर देखी, नाहिंनै गटी कौ कोऊ। छत्रपति रंक लौं देखे, प्रकृति-विरोध बन्यौ नहीं कोऊ।। दिन जो गये बहुत जनमनि के, ऐसैं जाउ जिन कोऊ। कहिं श्रीहरिदास मीत भले पाये बिहारी, ऐसे पावौ सब कोऊ।।15।। (राग कल्यान) 16. लोग तौ भूलैं भूलें, तुम जिनि भूलो मालाधारी। अपुनौ पति छँड़ि औरन सौ रति, ज्यों दारनि में दारी।। स्याम कहत ते जीव मोते बिमुख भये, सोऊ कौन जिन दूसरी करि डारी। कहिं श्रीहरिदास जज्ञ-देवता-पितरन कों श्रद्धा भारी।।16।। (राग कल्यान) 17. जौलौं जीवे तौलौं हरि भज रे मन और बात सब बादि। द्यौस चार के हला-भला में कहा लेड़गौ लादि? माया-मद, गुन-मद, जोवन-मद भूल्यौ नगर विवादि। कहिं श्रीहरिदास लोभ चरपट भयौ, काहे की लगै फिरादि।।7।। (राग कल्यान) 18. प्रेम-समुद्र रूप-गहरे, कैसैं लागैं घाट। बेकारयौं दै जान कहावत, जानिपन्यौं की कहा परी बाट? काहू कौ सर सूधौ न परै, मारत गाल गली-गली हाट। कहिं श्रीहरिदास जानि ठाकुर-बिहारी तकत ओ पाट।।18।। (राग कल्यान) ///////////////////////////////////////////////////////////////////////////////
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