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आठवां शिवसूत्र-''ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है''।

NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...

आठवां शिवसूत्र- ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है।

08 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है ''ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है''। वेदांत में, सारे जगत की माया की जो धारणा है, वह इसी सूत्र का एक प्रयोग है। संन्यासी को चौबीस घंटे स्मरण रखना है कि जो भी हो रहा है, सब स्‍वप्‍न है।यह एक प्रयोग है, एक प्रक्रिया है, एक विधि है। अगर तुमने आठ घंटे जागते में स्मरण रखा कि जो भी हो रहा है, यह स्‍वप्‍न है, तो यह स्मरण इतना गहरा हो जाएगा कि जब रात स्‍वप्‍न भी चलेगा, तब तुम वहां भी याद सकोगे कि यह स्‍वप्‍न है।अभी चौबीस घंटे, जब तुम जागते हो, तब समझते हो कि जो भी देख रहा हूं... यह सत्य है। इसी प्रतीति के कारण रात सपने को देखकर भी तुम समझते हो कि जो भी मैं देख रहा हूं वह सत्य है। क्योंकि यह प्रतीति गहरी हो जाती है। फिर दुबारा तुम सोते हो और फिर वही भूल होती है। इस भूल के बार -बार होने के पीछे कारण यह है कि तुम जो भी जाग्रत में देखते हो , उसको सत्य समझते हो है। जब सब कुछ देखा हुआ तुम सत्य मानते हो तो रात के सपने को भी तुम सत्य मान लेते हो।

2-माया का प्रयोग इससे उलटा है।तुम जो भी देखते हो उसे दिन भर स्मरण रखते हो कि यह असत्य है। बार बार भूलते हो लेकिन फिर स्मरण करते हो कि यह असत्य है... मैं जो चारों तरफ देख रहा हूं , एक बड़ा नाटक है और मैं दर्शक से ज्यादा नहीं हूं। मैं न भोक्ता हूं और न कर्ता...सिर्फ साक्षी हूं।अगर हम इस भाव को सम्हालते है तो भीतर एक धारा बन जाती है और तब रात सपना टूट जाता है।जब सपना टूट जाए तो यह बड़ी उपलब्धि है।तब फिर तीसरा चरण अथार्त सुषुप्‍ति में होश रखने का कदम उठाया जा सकता है। लेकिन उस प्रयोग को सीधा करना संभव नहीं है; बहुत कठिन है। एक -एक कदम ही उठा सकते है। जब सपना टूट जाता है, तब कोई दृश्य भी नहीं रह जाता। तुम चाहे कितना ही मानो कि जो देख रहे हो, वह सब माया है, तो भी दिन में ध्यान से चलना पड़ेगा वर्ना हॉस्पिटल पहुंच जाओगे । कितना ही कहों कि सब माया है, तो पत्थर नहीं खा सकते ...चाहिए तो भोजन ही। इसलिए, बाहर का जगत तो बना ही रहेगा ।कोई पत्थर लगेगा तो खून बहेगा, घटना तो घटेगी ही। लेकिन वहां एक विशिष्ट प्रयोग हो जाता है।

3-जैसे ही तुम समझते हो कि सपना माया है, सपना खो जाता है, दृश्य विलीन हो जाता है। कोई दृश्य नहीं बचता। तो, जो ऊर्जा दृश्य की तरफ जाती थी, वह स्वयं की तरफ मुड़ती है। स्वयं की तरफ मुड़ती हुई ऊर्जा ही ध्यान है। और, जैसे ही यह स्वयं की तरफ मुड़ती है, तब तुम सुषुप्ति में भी होश रख सकते हो।जब तक दृश्य मौजूद रहता है, तब तक तुम बाहर ही देखते हो; क्योंकि दृश्य आकर्षित करता रहता है। जब दृश्य खो जाता है, पर्दा खाली हो जाता है, बल्कि पर्दा भी नहीं रह जाता और तुम अकेले हो जाते हो। इसलिए ध्यान आँख बंद करके किया जाता है।यह संसार वास्तविक है... माया नहीं । यह तुम्हारे सोचने पर निर्भर नहीं है।यह संसार तो ब्रह्म का स्‍वप्‍न है ...तुम्हारा नहीं । लेकिन तुम्हारे निजी सपने है; वे रात में घटते हैं। इसलिए महत्वपूर्ण घटना तो तब घटती है, जब तुम निजी स्‍वप्‍न को तोड़ देते हो।जब स्‍वप्‍न टूट जाए तो आँख मत खोलना; गौर से देखना शून्य को... और तब स्‍वप्‍न खो जायेगा।उस शून्य को देखने में ही तुम पाओगे कि तुम्हारी चेतना भीतर की तरफ मुड़ने लगी, अंतर्मुखी हो गई। तब तुम सुषुप्‍ति में भी जागे रहेगे।

4-सुषुप्ति में संसार नहीं होता ..स्‍वप्‍न नहीं होता।अब तुम सुषुप्ति में जाग जाओगे। यही श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि जब सब सो जाते हैं, तब भी योगी जागता है। जो सबके लिए निद्रा है, वह योगी के लिए निद्रा नहीं है। वह सुषुप्ति में भी जागा हुआ है। और, जब तुम तीनों को पृथक -पृथक देख लेते हो, तब तुम स्वयं ही तुर्या हो गये.. चौथे हो गये।तुर्या शब्द का और कोई अर्थ नहीं है क्योंकि सभी अर्थ उसको बांध लेंगे, क्योंकि वह अनंत है ..असीम है।जैसे ही तुम तीन के बाहर हुए, तुम परमात्मा हो। इन तीनों में तुम प्रविष्ट हो गये हो, इसलिए संकीर्ण हो गये हो।इंद्रियों तक आते -आते तुम बिलकुल संकीर्ण हो जाते हो। जैसे -जैसे तुम पीछे लौटते हो, तुम्हारा आकाश बड़ा होता जाता है। जिस क्षण तुम तीनों के पार अपने को देख लेते हो, उस दिन तुम महा आकाश हो.. परमात्मा हो।न तुम आँख हो न कान और न ही हाथ ... लेकिन बस तुम उनसे बंध गये हो।यह विस्मृति है। इस विस्मृति को तोड्ने की प्रक्रिया है— जाग्रत से शुरू करो, सुषुप्‍ति पर पूर्ण होने दो। जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्ति--इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है। इससे शुरू करो और धीरे -धीरे बढ़ते जाओ। जिस दिन तुम्हें गहरी नींद में होश रह जाए, उस दिन जान लेना कि तुममें शिवत्व जाग गया ।

5-लेकिन तुम उलटा ही काम कर रहे हो। तुम्हारा जागरण नाम मात्र को है। तुम्हें भ्रम पैदा होता है कि तुम जागे हो, क्योंकि तुम कामचलाऊ काम निपटा लेते हो। कार चला लेते हो तो तुम सोचते हो कि जागे हुए हो। लेकिन होशपूर्वक चलने की कोई जरूरत नहीं है क्योकि सब यंत्रवत अथार्त आदत हो गयी है और वह घर पहुंच ही जाता है। कार चलानेवाला चलाता जाता है; उसको जागने की कोई जरूरत ही नहीं है।हम सबकी जिंदगी एक रूटीन पर घूमने लगती है।सुबह उठते हो, एक धारा चलती है; रात सो जाते हो, एक सर्किल पूरा हो जाता है। फिर सुबह उठते हो ...फिर सब वही।यह सब तुमने इतनी बार दोहराया है कि अब होश रखने की कोई जरूरत नहीं ..बेहोशी में ही सब हो जाता है। समय पर भूख लग जाती है ,नींद आ जाती है।तुम पूरी जिंदगी को ऐसे ही सोये -सोये एक सर्किल में गुजार रहे हो।जिस दिन तुम्हें झटका देने का खयाल आ जायेगा, उसी दिन से परमात्मा की यात्रा शुरू हो जाती है।

6-तुम्हारी यह सोयी -सोयी अवस्था तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं तोड़ सकता।मंदिर जाने से या शास्त्र पढ़ते से तुम धार्मिक नहीं होते; क्योंकि वह भी तुम्हारे रूटीन का हिस्सा है ।यदि तुम कभी होशपूर्वक मंदिर जा सको तो मंदिर जाने की जरूरत न रह जायेगी। जहां होश हो जायेगा, तुम वहीं पाओगे कि मंदिर है।वास्तव में, तो तुम्हारा जाग्रत भी सोया हुआ है और योगी की सुषुप्ति भी जागी हुई है। तुम बिलकुल उलटे योगी हो। और जिस दिन तुम इससे विपरीत हो जाओगे, उसी दिन जीवन का सार सूत्र तुम्हारे हाथ आ जायेगा। तीनों को अलग -अलग जान लो तो जाननेवाला तीनों से अलग हो जाता है। तुम मात्र ज्ञान हो इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। तुम सिर्फ होश मात्र हो। लेकिन तीनों से अपने को तोड़ो।अगर कोई क्रोध करने को चौबीस घंटा रुक जाये, तो क्रोध असंभव है। चौबीस सैकंड भी रुक जाये तो क्रोध असंभव है।अगर जल्दी की तो मूर्च्छा हो जाती है , इसीलिए थोड़ा वक्त देना चाहिए ।लेकिन, तुम रुकते ही नहीं और सोचते हो कि तुम बड़े होशपूर्ण हो।

7-वास्तव में, तुम अपने मालिक नहीं हो क्योकि बेहोश व्यक्ति मालिक हो भी नहीं सकता।किसी ने तुम्हारा अपमान किया और तुम आंसुओ से भर गये क्योकि हर कोई तुम्हें चलाता है और जो तुम्हें चला रहे हैं, वे भी अपने मालिक नहीं हैं।हम संचालित हो रहे हैं।जो भीतर जागा हुआ है; केवल वही एक से चालित है। उसकी जिंदगी में एक स्पष्टता होगी ,एक दिशा होगी। तुम्हारे जीवन में कोई दिशा नहीं है ,पूरी जिंदगी भीड़ में चलती हुई है।कोई कुछ कहता है और तुम वही करते हो। फिर दूसरा कुछ और कहता है, वह भी तुम करते हो।इसीलिए तुम्हारे भीतर इतने विरोधाभास हो जाते हैं। चारों तरफ तुम्हें चलाने वाले करोड़ों मालिक है और तुम अकेले हो। तुम सबकी सुनते हो या जो भी दबा देता है, उसी को सुनते हो।तब तुम्हारा व्यक्तित्व खंडित हो जाता है । जब तक तुम भीतर की न सुनोगे.. तब तक तुम अखंड नहीं हो सकते।जो भी आवाज तुम्हारी वासनाओं को तृप्त करती हुई मालूम पडती है, उसे तुम अंतरात्मा की आवाज कहते हो।लेकिन सिर्फ जागे हुए व्यक्ति के भीतर कोई आवाज होती है। संन्यासी उसे कहते है जिसने भीतर की आवाज सुननी शुरू कर दी और भीतर की आवाज तुम्हें समझ में भी न आयेगी, जब तक तुम बेहोश हो।तुर्यावस्था का अर्थ है आत्मा को पहचानना।और वह आवाज तुम्हें मिल जाये तो तुम्हारा जीवन बदल जायेगा

8-हम छोटे छोटे प्रयोग कर सकते है। क्रोध आये,घृणा आये...तो थोड़ा रुको। उत्तर तभी दो जबकि तुम होश में आ जाओ। और तब तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारी जिंदगी से गलत अपने आप विसर्जित होना शुरू हो गया है। तुम पाओगे कि अब क्रोध का उत्तर देने की जरूरत न रही। यह भी हो सकता है कि जिसने तुम्हारा अपमान किया था तुम उसे धन्यवाद देने भी जाओ; क्योंकि उसने भी तुम्हारा उपकार किया है ...तुम्हें जागने का एक मौका दिया है।संत कबीर कहते है कि '' निंदक नियरे रखिये, आंगन कुटी छवाय''। वह जो तुम्हारी निंदा कर रहा है, उसे तुम पास में ही इंतजाम कर दो क्योंकि वह तुम्हे जागने का मौका देगा।जो तुम्हे मूर्च्छित होने का मौका देता है, अगर तुम चाहो तो उसी मौके को तुम जागरण की सीढी भी बना सकते हो।साधक को एक ही बात स्मरण रखनी है कि जिंदगी की समस्याओं को अवसर बना ले। जीवन का हर एक क्षण चाहे भूख हो या क्रोध... जागृति के लिए उपयोग किया जा सकता है।अगर तुम उस थोड़ी -थोड़ी ऊर्जा को इकट्ठा करोगे , तो तुम्हारे भीतर जागरण हो जायेगा। उस ऊर्जा की जो ज्वाला पैदा होती है, उसमें तुम पाओगे कि तुम न तो जाग्रत हो, न स्‍वप्‍न और न ही तुम सुषुप्ति हो; तुम तीनों के पार... पृथक हो।बाहर की वस्तुओं के ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है।

...SHIVOHAM...


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