आदिशंकर-04
- Chida nanda
- Apr 25, 2021
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शंकर जब छोटे थे, तब मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी। परंतु एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया। शंकर ने मरने से पहले मां से संन्यास लेने की अनुमति मांगी। अनुमति मिली और शंकर बच गए! कृपया इस घटना पर कुछ प्रकाश डालें।
घटना का कोई मूल्य नहीं है। घटना हुई भी हो, ऐसा जरूरी नहीं है। लेकिन जो अर्थ है, वह समझने जैसा है। और इसे सदा स्मरण रखना कि बुद्धपुरुषों के जीवन में जो घटनाएं हैं, वे घटनाएं कम हैं, प्रतीक ज्यादा हैं; उनमें छिपा कुछ राज है। वे ऐतिहासिक हों, न हों–आध्यात्मिक हैं। समय की धारा में वैसा घटा हो, न घटा हो, लेकिन चैतन्य की धारा में वैसा घटता है।
बुद्धपुरुषों को इतिहास के माध्यम से मत समझना; काव्य, अनुभव के माध्यम से समझना। अन्यथा बड़ी जड़ता पैदा होती है। यही छोटी सी बोध-कथा है।
‘शंकर छोटे थे, तब मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी।’
बहुत सी बातें छिपी हैं। मां यानी ममता, मां यानी मोह। मोह और संन्यास लेने की आज्ञा दे, अति कठिन है। क्योंकि संन्यास का अर्थ तो मोह की मृत्यु होगी। संन्यास का अर्थ ही यह है कि व्यक्ति परिवार से मुक्त हो रहा है–मां अब मां न होगी, पिता अब पिता न होंगे, भाई अब भाई न होंगे। इसलिए तो जीसस ने बार-बार कहा है, जो मेरे साथ चलना चाहता हो, उसे अपनी मां को, अपने पिता को इनकार करना होगा; जो मेरे साथ चलना चाहता हो, उसे अपने परिवार का परित्याग करना होगा। यदि तुम परिवार को न छोड़ सको, तो जीसस के परिवार के हिस्से नहीं बन सकते।
संन्यास का अर्थ है कि यह जो जन्म और मृत्यु के बीच में घिरा हुआ जीवन है, यह व्यर्थ है। अगर जीवन ही व्यर्थ है, तो जिस मां ने जन्म दिया, वह तो व्यर्थ हो गई। उसने तो जीवन को जन्म दिया ही नहीं, एक सपने को विस्तार दिया। तो संन्यास तो मूलतः जीवन से मुक्ति है। और जीवन की मुक्ति का अर्थ हुआ–मां से मुक्ति, पिता से मुक्ति, परिवार से मुक्ति, समाज से मुक्ति। यह सब व्यर्थ हुआ। तो मां तो कैसे आज्ञा दे! संन्यास की आज्ञा और मां दे–असंभव है; अति कठिन है। मोह से तो संन्यास की आज्ञा नहीं मिल सकती; ममता से आज्ञा नहीं मिल सकती। जीवन जहां से आया है, उसी स्रोत से, तुम जीवन से मुक्त होना चाहो, इसकी आज्ञा मांगो–असंभव है।
‘शंकर छोटे थे, तभी मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी।’
और ध्यान रखना, चाहे तुम कितने ही बड़े हो जाओ, मां के लिए छोटे ही रहोगे। मां से तो बड़े न हो पाओगे। जिसने तुम्हें जन्म दिया, उससे तो तुम छोटे ही रहोगे। तुम सत्तर साल के हो जाओ, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। शंकर छोटे थे, इसका कुल अर्थ इतना ही है कि जब भी किसी संन्यास की आकांक्षा से भरे खोजी ने मां से आज्ञा मांगी, तभी मां को लगा–छोटा बच्चा, और ऐसे दूभर मार्ग पर जाना चाहता है! मां ने रोकना चाहा है।
‘शंकर छोटे थे, तभी मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी। परंतु एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया।’
लेकिन जीवन की नदी में आज नहीं कल, दुख पकड़ता है। जीवन की नदी में ही मिलन होता है मृत्यु से भी। तुम कोई मृत्यु को मिलने नहीं जाते हो नदी। तुम तो स्नान करने गए थे; तुम तो तैरने का सुख लेने गए थे; तुम तो सुबह की ताजगी लूटने गए थे। कोई संसार में मरने को थोड़े ही जाता है? कोई जीवन की धार में मगरमच्छों से मिलने थोड़े ही जाता है? जाता तो सुख की तलाश में है; खजानों की खोज में है; सफलता, यश, प्रतिष्ठा, महिमा के लिए है। लेकिन पकड़ा जाता है मगरमच्छों से। आज नहीं कल, मौत पकड़ती है। और जितना बोधवान व्यक्ति होगा, उतने जल्दी यह स्मरण आता है कि यह नदी तो ऊपर-ऊपर है, भीतर मौत छिपी है। मगरमच्छ यानी भीतर छिपी मौत। ऊपर से जल की ऐसी पवित्र धार मालूम होती है, भीतर मौत प्रतीक्षा कर रही है। ऊपर से कितना लुभावना लगता है और नदी कैसी भोली-भाली लगती है। और भीतर मौत दांव लगाए बैठी है! जो जितना होशियार है, जितना बुद्धिमान है, जितना चैतन्यपूर्ण है, उतने जल्दी ही दिखाई पड़ जाएगा।
शंकर को बहुत जल्दी दिखाई पड़ गया। तुम्हें अगर देर तक दिखाई न पड़े, तो समझना कि बुद्धिमत्ता क्षीण है, बहुत बोध नहीं है; मिट्टी की पर्तें जमी हैं तुम्हारे दर्पण पर और तुम्हारी बुद्धि धुएं से भरी है। अन्यथा जल्दी ही दिख जाएगा। शंकर को दिख गया कि इस जीवन में तो मौत के सिवाय कुछ मिलेगा नहीं। इतनी ही बात है कथा में। और जब तक मौत ही स्पष्ट न हो जाए, तब तक ममता से छुटकारा नहीं होता, तब तक मां से छुटकारा नहीं है।
इसे थोड़ा समझो। एक तरफ मां है, मां यानी जन्म; दूसरी तरफ मौत है, मौन यानी अंत। अगर मौत दिख जाए तो ही मां से छुटकारा है; अंत दिख जाए तो ही जन्म व्यर्थ होता है।
तो संन्यास का अर्थ है–मौत का दर्शन, मृत्यु की प्रतीति।
संसार में तो हम मौत को टाले जाते हैं। हम कहे चले जाते हैं, सदा दूसरा मरता है, मैं तो कभी मरता नहीं। रोज ही तुम देखते हो–किसी की अरथी उठ गई, किसी का जनाजा उठ गया; कोई कब्रिस्तान चले गए, कोई मरघट चले गए। तुम सभी को पहुंचा आते हो मरघट, तुम तो कभी नहीं जाते। तुमको दूसरे पहुंचाएंगे। तुम्हें तो कभी पता ही न चलेगा कि तुम भी जाते हो; क्योंकि जब तक तुम जा सकते हो, तब तक तो तुम जाओगे नहीं। जब तुम न जा सकोगे, तभी दूसरे तुम्हें पहुंचाएंगे। इसलिए प्रत्येक को ऐसा लगता है, मौत सदा दूसरे की घटती है–हम तो जीते हैं, दूसरे मरते हैं। ऐसे ही झूठे आसरों पर आदमी जीए चला जाता है!
संन्यास का अर्थ है, इस बोध का जग जाना कि मृत्यु मेरी है। और कोई भी मरता हो, हर बार जब कोई मरता है तो मेरे ही मरने की खबर बार-बार आती है। हर एक की मृत्यु में मेरी ही मृत्यु की सूचना है, इंगित है, इशारा है। और हर एक की मौत में थोड़ा मैं मरता हूं। अगर तुम्हें समझ हो, तो हर एक की मौत तुम्हारी मौत हो जाएगी। अगर नासमझी हो, तो तुम्हारा दंभ और अकड़ जाएगा कि सदा दूसरे मरते हैं, मैं तो कभी नहीं मरता, मैं अमर हूं।
शंकर को दिखाई पड़ा कि मौत है। मौत के दिखाई पड़ते ही मां से छुटकारा हो जाता है। क्योंकि मां यानी जीवन, मां यानी जिसने उतारा। मौत यानी जो ले जाएगी।
इसलिए हिंदुओं ने एक बड़ी अनूठी कल्पना की है। हिंदुओं से ज्यादा कल्पनाशील, काव्यात्मक कोई जाति पृथ्वी पर नहीं है। उनके काव्य बड़े गहरे हैं। तुमने कभी देखी काली की प्रतिमा? वह मां भी है और मौत भी। काल मृत्यु का नाम है, इसलिए काली; और मां भी है, इसलिए नारी। सुंदर है, मां जैसी सुंदर है। मां जैसा सुंदर तो फिर कोई भी नहीं हो सकता। अपनी तो मां कुरूप भी हो तो भी सुंदर मालूम होती है। मां के संबंध में तो कोई सौंदर्य का विचार ही नहीं करता। मां तो सुंदर होती ही है। क्योंकि अपनी मां को कुरूप देखने का अर्थ तो अपने को ही कुरूप देखना होगा, क्योंकि तुम उसी के विस्तार हो। तो काली सुंदर है, सुंदरतम है। लेकिन फिर भी गले में नरमुंडों की माला है! सुंदर है, पर काली है–काल, मौत!
पश्चिम के विचारक जब इस प्रतीक पर सोचते हैं, तो वे बड़े चकित होते हैं कि स्त्री को इतना विकराल क्यों चित्रित किया है! और तुम उसे मां भी कहते हो! और इतना विकराल!
इतना विकराल इसलिए कि जिससे जन्म मिला है, उसी से मृत्यु की शुरुआत भी हुई। विकराल इसलिए कि जन्म के साथ ही मौत भी आ गई है। तो मां ने जन्म ही नहीं दिया, मौत भी दी है। तो एक तरफ वह सुंदर है मां की तरह, स्रोत की तरह। और एक तरफ अंत की तरह, काल की तरह अत्यंत काली है। गले में नरमुंडों की माला है, हाथ में कटा हुआ सिर है, खून टपक रहा है, पैरों के नीचे अपने ही पति को दबाए खड़ी है।
स्त्री के ये दो रूप–कि वह जीवन भी है और मृत्यु भी–बड़ा गहरा प्रतीक है। क्योंकि जहां से जीवन आएगा, वहीं से मृत्यु भी आएगी; वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जैसा हिंदुओं ने इस बात को पहचाना, पृथ्वी पर कोई भी नहीं पहचान सका।
शंकर को जब मृत्यु का बोध हुआ…मगरमच्छ ने नदी में पकड़ा हो या न पकड़ा हो, यह नासमझ इतिहासविदों से पूछो, इसमें मुझे कोई बहुत रस नहीं है। क्या लेना-देना, पकड़ा हो मगरमच्छ ने तो, न पकड़ा हो तो! लेकिन मौत दिख गई उन्हें, इतना पक्का है। और जब मौत दिख गई, तभी संन्यास घट गया। जब मौत दिख गई, तो फिर संन्यास बच ही नहीं सकता। फिर तुम जैसे हो, जहां हो, वहीं ठगे खड़े रह जाओगे। फिर जीवन वही नहीं हो सकता, जो इसके क्षण भर पहले तक था। वह पुरानी दौड़, वह महत्वाकांक्षा, वह यश, कीर्ति का नशा–वह सब टूट गया, मौत सब गिरा देगी। मरना है, फिर कितनी देर बाद मरना है, इससे क्या फर्क पड़ता है! आज कि कल कि परसों–यह तो समय का हिसाब है। अगर मौत होनी है तो हो गई, अभी हो गई। और उस मौत का तीर इस तरह चुभ जाएगा कि फिर तुम वही न हो सकोगे, जो अब तक थे। यह जो नये का होना है, उसी का नाम संन्यास है।
अगर तुम मुझसे पूछो कि संन्यास की क्या परिभाषा है? तो मैं कहूंगा: संन्यास वैसे जीवन की दशा है, जब बाहर तो मौत नहीं घटी, लेकिन भीतर घट गई। जीते हो, लेकिन मौत को जानते हुए जीते हो। यही संन्यास है। जीते हो, लेकिन मौत को भूलते नहीं क्षण भर को। यही संन्यास है। जानते हो कि क्षण भर के लिए टिकी है ओस–अभी गिरी, अभी गिरी। जगत तरैया भोर की–अभी डूबी, अभी डूबी। जीते हो, लेकिन जीने के नशे में नहीं डूबते। जीने का नशा अब तुम्हें डुबा नहीं सकता। जागे रहते हो, होश बना रहता है।
मौत जगाती है। जो जाग गया, वही संन्यासी है। जो जीवन में खोया है और सपनों को सच मान रहा है, वही गृहस्थ है। सपने में जिसका घर है, वह गृहस्थ; या घरों में जो सपने सजा रहा है। सपनों के बाहर जो उठ आया, तंद्रा टूटी, बेहोशी गई, जाग कर देखा कि यहां तो सिवाय मौत के और कुछ भी नहीं है। जिसे हम बस्ती कहते हैं, वह बस मरघट है, प्रतीक्षा करने वालों का क्यू है। किसी का वक्त आ गया, कोई क्यू में थोड़ा पीछे खड़ा है। क्यू सरक रहा है, मरघट की तरफ जा रहा है। जिसको यह दिखाई पड़ गया, उसके जीवन से आसक्ति खो जाती है। वही आसक्ति का खो जाना संन्यास है।
संन्यास विरक्ति की चेष्टा नहीं है, संन्यास विरक्ति का अनुशासन नहीं है, संन्यास आसक्ति का टूट जाना है। बस जहां आसक्ति खो गई। अनासक्ति का साधना संन्यास नहीं है, ध्यान रखना। क्योंकि आसक्ति न टूटी हो तो ही अनासक्ति साधनी पड़ती है। आसक्ति टूट गई हो तो अनासक्ति साधनी नहीं पड़ती। आसक्ति की जगह जो खाली जगह छूट जाती है, वही अनासक्ति है; वह अभाव है। तब तुम संन्यस्त हो।
इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं, संन्यास के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं। तुम जहां हो, वहीं थोड़ा होश आ जाए; बस थोड़ा दीया जल जाए भीतर का; चीजें जैसी हैं, वैसी दिखाई पड़ने लगें–नशे की आंख से नहीं, खुली आंख से।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन चला आ रहा है रात शराबघर से। नशे में है, गीत गुनगुना रहा है। एक आदमी रास्ते पर टकरा गया। अंधेरा, नशे में, गीत गुनगुनाता, होश नहीं–क्रोध में बोला कि उल्लू के पट्ठे, पांच सेकेंड के भीतर क्षमा मांग, नहीं तो…
उधर से बड़ी कड़कड़ाती आवाज आई कि नहीं तो? तो क्या करेगा अगर पांच सेकेंड में क्षमा न मांगूं?
कड़कड़ाती आवाज ने जरा होश वापस लौटाया, गौर से देखा: आदमी कम, मोहम्मद अली मालूम होता है! घूंसेबाज! घबड़ा गया, होश उतरा, जमीन पर वापस आया। कहा, बड़े मियां, अगर पांच सेकेंड कम पड़ते हों, तो कितना समय चाहिए आपको?
जिंदगी में जैसे तुम चल रहे हो–नशे में हो, सपनों का गीत गुनगुना रहे हो–चीजें जैसी हैं, वैसी दिखाई नहीं पड़तीं। धक्का लगना चाहिए, एक कड़कड़ाती आवाज आनी चाहिए, चोट कि सब बिखर जाए, एक क्षण को उस चोट में बादल छितर-बितर हो जाएं और तुम्हें खाली आकाश दिखाई पड़े। तब तुम सिवाय मौत से घिरे हुए अपने को और कुछ न पाओगे। जिसको तुमने जिंदगी जाना, वह मौत का चेहरा है। जिसको तुमने सुख जाना, वह दुख के मुखौटे हैं। जिनको तुमने धन जाना, वह कौड़ियों के साथ झूठ का खेल है। उस धन की भ्रांति में तुम निर्धन बने रहे। और उस जीवन की भ्रांति में तुम असली जीवन से परिचित न हो पाए। और समय हाथ से बीता चला जाता है; प्रतिपल जीवन चुकता जाता है, शक्ति क्षीण होती चली जाती है।
यह तो प्रतीक है केवल कि शंकर को जब मौत ने पकड़ लिया, तो मरने के पहले मां से संन्यास लेने की अनुमति मांगी। अनुमति मिली।
तभी अनुमति मिल सकती है, जब मौत का संकट द्वार पर खड़ा हो जाए। उसके पहले अनुमति मिल भी नहीं सकती। जब मां को भी ऐसा लगे कि या तो बेटा बचेगा तो संन्यासी होकर बचेगा, या जैसा है वैसा तो मर ही जाएगा। मरे बेटे में और संन्यासी बेटे में चुनने का सवाल हो, तो ही मां संन्यासी बेटे को चुनेगी–इतना ही अर्थ है। क्योंकि संन्यासी बेटा मरा हुआ बेटा है।
संन्यास का अर्थ है: आदमी जीते जी मर गया।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम अपनी सूली को अपने कंधे पर ढोने को राजी न होओ, मेरे साथ न चल सकोगे; जब तक तुम अपने को ही इनकार करने को राजी न होओ, मेरे साथ न चल सकोगे; जब तक तुम मरने को राजी नहीं हो, तब तक पुनरुज्जीवन का कोई उपाय नहीं है।
अगर ऐसी कहानी सच में घटी हो, तो वह प्रतीक याद करने जैसा है–कि शंकर, छोटा सा बच्चा, नवजात, मौत के चंगुल में फंसा है, मगर ने पकड़ा हुआ है उसका पैर, नदी के तट पर मां खड़ी है और शंकर पूछते हैं कि मैं मर रहा हूं, बचने का अब कोई उपाय नहीं है, तू आज्ञा दे दे! अब तो आज्ञा दे दे कि मैं संन्यस्त हो जाऊं, मरूं संन्यासी की तरह! अब कोई जीने का तो उपाय नहीं रहा कि संन्यासी की तरह जी सकूंगा, मगर ने पकड़ा है–यह गया, यह गया–अब तो आज्ञा दे दे!
तब भी तुम सोचना, मां झिझकी होगी। तब भी आशा ने पंख फैलाए होंगे। तब भी उसे लगा होगा: कौन जाने, बच ही जाए! लेकिन मौत सामने थी। शंकर खिंचा जा रहा है। भीड़ इकट्ठी हो गई होगी। लोग भी कहने लगे होंगे: अब आज्ञा दे दे, अब मरते को क्या बांधना! जो जा ही रहा है, जाने के पहले उसे छोड़ दे! फिर उसकी पुकार को सुन कि वह संन्यस्त मरना चाहता है, ताकि फिर जन्म न हो, ताकि जीवन की आसक्ति न रह जाए। वह जीवन को छोड़ कर मरना चाहता है। जो जीवन हाथ से जा ही रहा है, उसे छोड़ने की आज्ञा दे दे!
फिर भी मुझे लगता है, मां झिझकी होगी; आंखें आंसुओं से भर गई होंगी। उसने भगवान से प्रार्थना की होगी कि बचा दो मेरे बेटे को। लेकिन जब कोई उपाय न पाया होगा, तब उसने कहा होगा, अच्छा–बेमन से, असहाय अवस्था में–कि ठीक, अब तुम मर ही रहे हो, तो ठीक है, संन्यस्त होकर मर जाओ।
मगर यह घटना घटी नहीं है, क्योंकि मगरमच्छ इन बातों की चिंता नहीं करते। आदमी नहीं करते चिंता, मगरमच्छ क्या करेंगे! कहते हैं, शंकर बच गए। मगरमच्छ ने देखा कि अब संन्यासी हो गया, अब क्या मारना! नहीं, मगरमच्छ इतने बुद्धिमान नहीं। हिटलर-मुसोलिनी नहीं हैं, तो मगरमच्छों की क्या बात करनी!
नहीं लेकिन, प्रतीक बड़ा बहुमूल्य है: व्यक्ति बचता तभी है जब संन्यस्त हो जाता है, फिर मौत भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती। मरता वही है, जो जीवन को पकड़ता है; जो जीवन को अपने हाथ ही छोड़ देता है, उसे मौत भी कैसे मार पाएगी? जो देने को ही राजी हो गया है, उससे छीनोगे कैसे? जो बचाना चाहता है, उससे ही छीना जा सकता है।
इसलिए जीसस कहते हैं: जो बचाएगा, वह खो देगा; जो खोने को राजी है, उसने बचा लिया।
इस सार की बात को समझ लेना–शंकर बच गए। मगरमच्छ ने छोड़ा?
नहीं, इतनी ही खबर है कि मौत संन्यासी को नहीं मार पाती। संन्यासी को मारने का उपाय नहीं है। क्योंकि संन्यासी कहता है: मैं–जिसे तुम मार सकते थे, छोड़ ही दिया उसे। उस अहंकार को, उस आकांक्षा-अभीप्सा के जाल को, उस सपनों के फैलाव को छोड़ ही दिया मैंने। मैं खुद ही मर गया हूं अपने हाथ से। तब भीतर जो अमृत बचा है–जो घिरा था मृत्यु से–वही शुद्ध होकर बचता है ।
जब तक तुम जीवन को पकड़ रहे हो, तब तक तुम्हें अपने अमृत की कोई खबर नहीं है। इसीलिए तो जीवन को इतनी जोर से पकड़े हो कि कहीं छूट न जाए; डर है कि कहीं मर न जाओ। फिर भी डर तो लगा ही रहता है। जितना पकड़ते हो, उतने ही पैर कंपते हैं। क्योंकि जानते तो तुम हो, कैसे झुठलाओगे, कि मौत आ रही है। कितना ही समझाओ–कैसे समझाओगे? मौत आ रही है। कितना ही आंखें बचाओ, कितना ही छिपाओ–छिपोगे कहां? जाओगे कहां? मौत सब तरफ से आ रही है। कोई एक दिशा होती तो दूसरी दिशा में बच जाते–मौत सभी दिशाओं से आ रही है, दिग-दिगंत से आ रही है। और अगर बाहर से आती होती, तो भी बच जाते; भीतर से आ रही है। कहीं भी भाग जाओ, मौत आएगी ही; कहीं भी छिप जाओ, मौत खोज ही लेगी; क्योंकि मौत तुम्हारे भीतर ही छिपी है।
अमृत भी तुम्हारे भीतर छिपा है, मौत भी तुम्हारे भीतर छिपी है। और जब तक तुम जीवन को बाहर पकड़ोगे, तब तक तुम्हें भीतर की सिर्फ मौत दिखाई पड़ेगी; जिस दिन तुम भीतर की मौत को स्वीकार कर लोगे, उसी क्षण तुम्हें भीतर के जीवन के दर्शन शुरू हो जाएंगे।
ध्यान रहे, जैसे काले तख्ते पर हम सफेद खड़िया से लिखते हैं और अक्षर साफ दिखाई पड़ते हैं। अगर हम सफेद दीवाल पर लिखें तो नहीं दिखाई पड़ते। अगर तुमने भीतर की मौत को स्वीकार कर लिया, तो उस कालिमा में ही, वह जो अमृत का छोटा सा दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है, वह हजार गुनी रोशनी में चमकने लगेगा।
लेकिन तुम मौत को स्वीकार नहीं करते, तुम काले तख्ते को स्वीकार नहीं करते, इसलिए सफेद अक्षर दिखाई नहीं पड़ते। तुम काले तख्ते को देखने से डरते हो, इसलिए सफेद अक्षर दिखाई नहीं पड़ते। इस विरोधाभासी वक्तव्य को हृदय में सम्हाल कर रख लेना। जिसने भी मौत को भर आंख देखा, उसे अमृत दिखाई पड़ गया।
‘शंकर बच गए।’
क्योंकि मौत तुम्हें मिटा ही नहीं सकती। तुम जिसे जीवन कहते हो, उसे मिटा सकती है। तुम जिसे शरीर कहते हो, उसे मिटा सकती है। तुम जिसे नाम-रूप कहते हो, उसे मिटा सकती है। तुम्हें मिटाने का मौत के पास कोई उपाय नहीं; तुम अमृत-पुत्र हो! तुम न कभी मिटे, न कभी मिटाए जा सकते हो। न तुम कभी पैदा हुए और न तुम कभी मरोगे। जो पैदा हुआ है, वह मरेगा। तुम्हारी देह पैदा हुई है, वह गुजरेगी। तुम्हारा नाम, तुम्हारा व्यक्तित्व पैदा हुआ है, वह मरेगा। लेकिन तुम नाम-रूप से अतीत सदा काल में थे, सदा काल में रहोगे। तुम सनातन हो, तुम शाश्वत हो।
संन्यास का इतना ही अर्थ है कि जो मिटेगा, हम उसे स्वयं छोड़ देते हैं; और उस खोज में निकलते हैं जो नहीं मिटेगा। क्षणभंगुर को छोड़ते हैं, शाश्वत की तरफ आंख उठाते हैं। अगर स्वयं का भी मिटना इसमें हो जाए, तो भी स्वीकार है; क्योंकि जो क्षणभंगुर है, उसे बचा कर भी कौन बचा पाया है, जाने ही दो। अगर जाने के बाद कुछ बच जाएगा–इस कूड़े-करकट के जाने के बाद अगर कुछ बच रहेगा–जिसको त्याग कर भी त्यागा न जा सके, छोड़ कर भी छोड़ा न जा सके; नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि–जिसे शस्त्र छेदें और छेद न पाएं; जिसे आग जलाए और जला न पाए–अगर कुछ ऐसा बचेगा–सब जलाने के बाद, सब शस्त्रों के छिद जाने के बाद, तो बस वही बचाने योग्य था। संन्यास उसकी ही खोज है।
इस घटना को तुम घटना मत समझना; यह बड़ा बहुमूल्य बोध-प्रतीक है; यह एक बोध-कथा है।
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धर्म ज्ञान से भी मुक्ति है और उसी मुक्ति में परमज्ञान है।
शास्त्र तुम्हें पंगु करने को नहीं हैं, तुम्हें उड़ने की क्षमता देने को हैं। और जिन शास्त्रों ने तुम्हें पंगु किया हो, जानना कि तुम गलत समझे; तुमने व्याख्या में कहीं कोई भूल कर ली। जिन शास्त्रों ने तुम्हें उदास किया हो, समझना कि तुम चूक गए; तुम कुछ का कुछ समझ गए। जिन शास्त्रों ने तुम्हारे उड़ने की, बहने की स्वाभाविक क्षमता छीन ली हो, वे शास्त्र तुम्हारे मित्र नहीं हैं, तुमने उन्हें शत्रुओं में परिणत कर लिया। शास्त्र मुक्तिदायी हो, तो ही शास्त्र है। और शास्त्र तुम्हें स्वाभाविक करे, तो ही शास्त्र है। और शास्त्र तुम्हें दूसरों के प्रति निंदा से न भरे, वरन उनके भीतर भी छिपे हुए परमात्मा की अनुभूति कराए, तो ही शास्त्र है।
शंकर के ये वचन बड़े महत्वपूर्ण हैं।
‘जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है…’
किंचित को खयाल रखना।
‘जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है और गंगाजल की एक बूंद भी पी ली है और मुरारी की थोड़ी सी अर्चना की है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है?’
गीता तो तुमने बहुत पढ़ी है। यह देश गीता तो हजारों साल से पढ़ रहा है। गीता तो प्रत्येक व्यक्ति की जबान पर है। प्रत्येक व्यक्ति आकंठ गीता से भरा है, लेकिन मुक्ति तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ मृत्यु दिखाई पड़ती है।
और शंकर कहते हैं, जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है, मृत्यु उसकी विसर्जित हो गई। जिसने जरा सा भी स्वाद ले लिया है परमात्मा का। एक बूंद भी गंगाजल की जिसके कंठ में उतर गई। तुम तो स्नान कर आए हो! एक बूंद भी गंगाजल की जिसके कंठ उतर गई, जिसने थोड़ी सी भी अर्चना की है…
तुमने तो कितनी पूजा की, कितने पाठ किए, कितने यज्ञों में सम्मिलित हुए, कितने मंदिरों के द्वार पर सिर पटके! मंदिरों के द्वार के पत्थर घिस गए हैं तुम्हारे सिर के पटकने से, लेकिन तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटित नहीं हुई। कहीं कोई मौलिक चूक हो गई है, कोई बुनियादी भ्रांति है।
किंचित भी मुक्तिदायी है, लेकिन समझ में आए तो। अन्यथा पूरा शास्त्र भी कारागृह बन जाएगा। एक शब्द भी छुड़ा सकता है। अन्यथा शब्द ही तुम्हारी छाती पर पहाड़ बन जाएंगे। शास्त्र नहीं मुक्त करता, समझ मुक्त करती है। और समझ तुम्हें पैदा करनी पड़ेगी, शास्त्र नहीं देता।
इसे थोड़ा समझ लो।
समझ तुम्हें पैदा करनी पड़ेगी, तो ही शास्त्र सार्थक होगा। अगर तुम्हारे पास समझ न हो, तो शास्त्र तुम्हें समझ नहीं दे सकता, सिद्धांत दे सकता है। सिद्धांतों का कोई भी मूल्य नहीं है; क्योंकि सिद्धांत एक तरफ पड़ा रहता है, तुम चलते और ही ढंग से रहते हो।
मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को पूछा कि बहुत दिन से तुम्हारे बच्चे नहीं दिखाई पड़ते?
उसने कहा, मैं तो परिवार-नियोजन में भरोसा करता हूं।
मैं थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसके सत्रह बच्चे हैं! और वह कहता है, मैं परिवार-नियोजन में भरोसा करता हूं। मैंने कहा, मैं समझा नहीं, तुम्हारा मतलब क्या है?
उसने कहा, मैं तो परिवार-नियोजन वालों की इस बात में भरोसा करता हूं: कि दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे। तो बाकी को मैं मोहल्ले-पड़ोस में खेलने-खाने को भेज देता हूं। उनमें से अधिकतर तो वहीं सोने भी लगे हैं। घर में मैं दोत्तीन बच्चे से ज्यादा नहीं रखता।
दो या तीन बच्चे, होते हैं घर में अच्छे! तो पड़ोसियों के घर में भेज देता है। सिद्धांत को पूरा कर रहा है। तुम्हारी शास्त्र से जो समझ है, बस वह ऐसे ही पूरी होती है। बच्चे पैदा करने से तुम नहीं रुकते, बच्चों को पड़ोसियों की छाती पर सवार कर देते हो। तरकीब आदमी निकाल लेता है।
सिद्धांत से बचना बड़ा सुगम है, समझ भर से बचना संभव नहीं है। सिद्धांत के पास से गुजर कर निकला जा सकता है; क्योंकि सिद्धांत तो मुर्दा है, तुम जिंदा हो। सिद्धांत तुम्हारा पीछा नहीं कर सकता; तुम सिद्धांत से अपनी चादर बचा कर निकल सकते हो। सिद्धांत क्या करेगा? पत्थर का टुकड़ा है! लेकिन समझ से बच कर तुम कहां जाओगे? समझ तुम्हारे भीतर है; तुम कहीं भी भागोगे, तुम्हारे साथ होगी।
इसलिए इस जोर को खयाल में ले लो। सिद्धांत पर बहुत जोर मत देना, समझ पर जोर देना। सिद्धांत उधार मिल सकता है, समझ खुद पैदा करनी होती है। सिद्धांत चुरा भी सकते हो–शास्त्र से, गुरुओं से। समझ तो इंच-इंच संघर्ष करने से मिलती है; समझ के लिए तो मूल्य चुकाना पड़ता है, मुफ्त नहीं मिलती। सिद्धांत मुफ्त मिल जाते हैं, उनकी कोई कीमत नहीं है। पर उनकी कोई कीमत होने की जरूरत भी नहीं है, वे कूड़ा-करकट हैं, कचरा हैं।
‘जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है…’
भगवद्गीता किंचिदधीता…
जिसने जरा सी भी पढ़ ली, बस काम हो गया। कोई पूरी गीता पढ़ने के लिए थोड़े ही रुकना पड़ता है; एक शब्द भी समझ लिया। लेकिन समझ का सवाल है।
महाभारत में कथा है कि द्रोण ने सोचा था कि इन सारे पांडवों और कौरवों में युधिष्ठिर सबसे ज्यादा बुद्धिमान मालूम होता है। लेकिन थोड़े दिनों के अनुभव से लगा कि वह तो बिलकुल बुद्धू है। दूसरे बच्चे तो आगे जाने लगे, नया-नया पाठ रोज सीखने लगे और युधिष्ठिर पहले पाठ पर ही रुका रहा। आखिर द्रोण की सीमा-क्षमता भी समाप्त हो गई। द्रोण ने पूछा, तुम आगे बढ़ोगे कि पहले ही पाठ पर रुके रहोगे? लेकिन युधिष्ठिर ने कहा, जब तक पहला पाठ समझ में न आ जाए, तब तक दूसरे पाठ पर जाने से सार भी क्या है?
पहला पाठ था सत्य के संबंध में। दूसरे बच्चों ने याद कर लिया, पढ़ लिया, आगे बढ़ गए। लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि मैं जब तक सत्य बोलने ही न लगूं, तब तक दूसरे पाठ पर जाऊं कैसे? और आप जल्दी मत करें। तब द्रोण को समझ में आया। खुद युधिष्ठिर की इस मनोदशा को देख कर द्रोण को पहली दफा समझ में आया कि सत्य के आगे और पाठ हो भी क्या सकता है! तब उन्होंने कहा, तू जल्दी मत कर। तू पहला पाठ ही पूरा कर ले तो सब पाठ पूरे हो गए। फिर दूसरा पाठ और है कहां? अगर सत्य बोलना ही आ गया, सत्य होना आ गया, तो फिर और पाठ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन पाठ अगर सिर्फ पढ़ने हों, तब एक बात है; पाठ अगर जीने हों, तो बिलकुल दूसरी बात है। अंत में महाभारत में कथा है कि जब सारे भाई स्वर्गारोहण के लिए गए, तो एक-एक गिरने लगा, पिघलने लगा, गलने लगा; स्वर्ग के मार्ग पर धीरे-धीरे एक-एक गिरने लगा, द्वार तक सिर्फ युधिष्ठिर पहुंचे और उनका कुत्ता पहुंचा। सत्य पहुंचा; और सत्य का जिसने गहरा सत्संग किया था, वह पहुंचा। वह कुत्ता था उनका। वह सदा उनके साथ रहा था। उसकी निष्ठा अपार थी। भाइयों की भी निष्ठा इतनी अपार न थी। भाई भी रास्ते में गल गए, कुत्ता न गला। उसकी श्रद्धा अनन्य थी। उसने कभी संदेह किया ही न था। उसने युधिष्ठिर के इशारे को ही अपना जीवन समझा था। युधिष्ठिर भी चकित हुए कि भाइयों का भी साथ छूट गया, वे भी गिर गए मार्ग पर, स्वर्ग के द्वार तक न आ सके–आ सका एक कुत्ता!
द्वार खुला, युधिष्ठिर का स्वागत हुआ, लेकिन द्वारपाल ने कहा, कृपया आप ही भीतर आ सकते हैं, कुत्ता न आ सकेगा। कुत्ता कभी इसके पहले स्वर्ग में प्रवेश भी नहीं पाया। आदमी ही मुश्किल से पाते हैं।
तो युधिष्ठिर ने कहा, फिर मैं भीतर न आ सकूंगा; जिस कुत्ते ने मेरा इतने दूर तक साथ दिया, जहां मेरे भाई भी मेरे साथी न हो सके, संगी न हो सके; जिसकी श्रद्धा ऐसी अनन्य है; जो मेरे साथ इतने दूर आया, उसका साथ मैं न छोड़ सकूंगा; अन्यथा मैं कुत्ते से भी गया-बीता हुआ। जिसने मेरा साथ दिया, उसका साथ मैं दूंगा, द्वार तुम बंद कर लो।
तब सारा स्वर्ग हंसने लगा; भीड़ इकट्ठी हो गई देवताओं की और उन्होंने कहा, आप भीतर आएं। और तब गौर से देखा युधिष्ठिर ने, तो कुत्ता न था, स्वयं विष्णु थे! वह परीक्षा थी। वह परीक्षा थी, अगर युधिष्ठिर उस समय कुत्ते को भूल जाते और भीतर प्रवेश कर देते तो स्वर्ग चूक जाता। वह परीक्षा थी–प्रेम की, श्रद्धा की, अनन्य भाव की।
एक ही पाठ युधिष्ठिर ने सीखा–सत्य। उतना काफी हुआ; उतना स्वर्ग तक ले जा सका। अर्जुन को सीखने में बड़ी देर लगी। पूरी गीता कृष्ण ने कही, तो भी संदेह उठते चले गए। युधिष्ठिर ने सिर्फ एक पाठ सीखा जीवन में, वह छोटा सा पाठ था सत्य का। गुरु तक को शक हुआ कि यह थोड़ा मंद बुद्धि मालूम होता है, पहले ही पाठ पर अटका है। लेकिन फिर समझ में आया कि पहले पाठ के आगे और पाठ कहां हैं!
जिसने एक पाठ भी सीख लिया, उसने सब सीख लिया। तुम सीखने की ज्यादा दौड़ में मत पड़ना, उसमें तुम वंचित हो जाओगे। किंचित भी–किंचिदधीता–जरा सा भी बोध परमात्मा का आ गया, परमात्मा का गीत थोड़ा सा भी सुनाई पड़ गया, एक कड़ी भी कान में पड़ गई, एक शब्द भी हृदय तक उतर गया, तो वही बीज बन जाएगा–फूटेगा, वृक्ष बनेगा, तुम अनंत सुगंध से भर जाओगे। एक बीज में सब कुछ छिपा है।
पंडित कोरे के कोरे रह जाते हैं–गीता कंठस्थ हो जाती है, गीत सुनाई नहीं पड़ता; शब्दों से मस्तिष्क भर जाता है, हृदय भीगता नहीं; दोहरा सकते हैं गीता को, आंख में एक आंसू नहीं उतरता; प्राण में कोई स्वर नहीं बजता; पैर में कोई थिरक नहीं आती; पत्थर की तरह, मुर्दे की भांति, यंत्र की भांति दोहरा देते हैं; भीतर सब अछूता ही रह जाता है; रेखा भी नहीं पड़ती, छाया भी नहीं पड़ती।
इसलिए शंकर कहते हैं: ‘जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है…’
इस गीता से कोई श्रीमद् भगवद्गीता का संबंध नहीं है। क्योंकि जिसने किंचित भी कुरान पढ़ा है, वह भी पहुंच जाएगा; जिसने किंचित भी बाइबिल पढ़ी है, वह भी पहुंच जाएगा। और जिसने न बाइबिल पढ़ी है, न कुरान पढ़ा है, न गीता पढ़ी है–किंचित भी जीवन पढ़ा है, वह भी पहुंच जाएगा। जोर है इस बात पर कि जिसने थोड़ी अपनी समझ जगाई है, जिसने जाग कर देखा है; जो सोया-सोया नहीं जीया; जिसने आंखें खोलीं और जीवन को पहचाना है–जरा सा भी।
जरा सा छोर हाथ में आ जाए, फिर सारा स्वर्ग हाथ में है। एक किरण को भी तुम पकड़ लो, पूरा सूरज तुम्हारे हाथ में है। उसी किरण के सहारे अगर तुम चल पड़ो, तो सूरज कहां जाएगा? तुम अंधेरे घर में बैठे हो, खपड़ों के छेद से जरा सी एक किरण उतर रही है। उस किरण में पूरा सूरज छिपा है। तुम उसके सहारे ही चल पड़ो, तुम सूरज तक पहुंच जाओगे। पूरे सूरज को घर में उतारने की जरूरत भी नहीं है। उतने ज्यादा का करोगे क्या? अपच हो जाएगा।
तो ध्यान रखना, कहीं ऐसा न हो कि तुम शास्त्र को इकट्ठा करने में लग जाओ। अन्यथा शास्त्र तुम्हारा कारागृह बन जाएगा। उससे तुम्हारे पंख उन्मुक्त न होंगे; न तुम्हारे प्राण नाचेंगे; न तुम स्वाभाविक हो सकोगे।
शास्त्र के कारण जितने लोग अस्वाभाविक हो जाते हैं, उतने और किसी कारण से नहीं होते। अगर तुम समझ सको तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा: शास्त्र के कारण जितने लोग अधार्मिक हो गए हैं, उतने किसी और कारण से नहीं। जितने शास्त्र बढ़ते गए हैं, उतना आदमी अंधा होता गया है; क्योंकि उसे लगता है कि सब समझ तो किताब में रखी है; पढ़ लेंगे किताब और समझ हाथ आ जाएगी।
काश समझ इतनी सस्ती होती! तो सारी दुनिया समझदार हो गई होती। गीता घर-घर में है; बाइबिल, कुरान घर-घर में है। क्या कमी है? समझ बिलकुल नहीं है। और शास्त्र जितना उपलब्ध हो जाता है, उतना ही तुम चेष्टा छोड़ देते हो। ध्यान रखना, सिद्धांतों के जंगल में मत भटक जाना।
‘जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है, गंगाजल की एक बूंद भी पी ली है…’
पूरी गंगा का करोगे भी क्या? जरूरत भी क्या है? पूरी गंगा बहुत है; एक बूंद तुम्हारे लिए काफी है।
किस गंगा की बात कर रहे हैं शंकर?
जिस गंगा पर तुम तीर्थयात्रा करने गए हो, उस गंगा की बात नहीं हो रही। गंगा तो प्रतीक है। जिसने पवित्रता की एक बूंद पी ली है; जिसने निर्दोषता की एक बूंद पी ली है; जिसने सरलता की एक बूंद पी ली है; बस उसने गंगा को चख लिया। गंगा जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि गंगा के किनारे कितने लोग ही बैठे हुए हैं, और कुछ भी नहीं हुआ। गंगा में ही जीए हैं, गंगा में ही स्नान किया है और कुछ भी नहीं हुआ।
नहीं, बाहर दिखाई पड़ने वाली गंगा का सवाल नहीं है; एक और गंगा है जो भीतर बहती है। और एक बूंद काफी है। तुम्हारे लिए एक बूंद भी जरूरत से ज्यादा है। क्योंकि हमारी सीमा एक बूंद से बड़ी कहां? हमारा होना एक बूंद से बड़ा कहां? हम इस विराट अस्तित्व में एक छोटी सी बूंद हैं। गंगा की एक छोटी सी बूंद ही हमें नहला देगी और पवित्र कर देगी।
लेकिन ठीक से समझ लेना: गंगा से अर्थ है निर्दोषता का; गंगा से अर्थ है सरलता का; गंगा से अर्थ है भीतर के कुंआरेपन का; गंगा से अर्थ है छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो जाने का।
एक बूंद भी तुम्हारे बचपन की तुम वापस लौटा लो, फिर से तुम एक बार दुनिया को वैसा देख लो जैसा तुमने बचपन में देखा था–उन्हीं ताजी आंखों से, बिना किसी विचार के, बिना किसी निंदा के, बिना किसी निर्णय के। ऐसे ही देख लो जगत को जैसा तुमने पहली बार आंख खोली थी संसार में और देखा था। सिर्फ देखा था, कुछ भीतर विचार न उठा था–न कहा था अच्छा, न कहा था बुरा; न सुंदर, न असुंदर; न पाप, न पुण्य–सिर्फ देखा था भर आंख; सारा जगत तुम्हारे सामने था और भीतर कोई विचार न था। वैसे ही अगर तुम पुनः देख लो, एक बूंद भी वैसे बालपन की तुम्हें फिर मिल जाए, तो गंगा की बूंद तुमने चख ली।
‘गंगाजल की एक बूंद भी पी है और मुरारी की थोड़ी भी अर्चना की है…’
बहुत अर्चना से कुछ भी न होगा। बहुत अर्चना तो यही बताती है कि तुम अर्चना करना जानते नहीं। बहुत अर्चना का तो यही अर्थ है कि तुम पुनरुक्ति कर रहे हो मृत प्रक्रियाओं की। अन्यथा एक बार भी राम का नाम ले दिया तो बस काफी होना चाहिए। तुम रोज बैठे माला फेर रहे हो, राम-राम, राम-राम कहे चले जा रहे हो। कितनी बार राम-राम कहने से जीवन में राम का अवतरण होगा? कोई संख्या का हिसाब है? लोग हैं, जो हिसाब रखे बैठे हैं कि उन्होंने एक करोड़ दफे मंत्र पढ़ा है। लेकिन अगर एक बार मंत्र पढ़ने से कुछ भी न हुआ, तो एक करोड़ बार पढ़ने से क्या होगा?
इसे थोड़ा समझो। मंत्र कोई गणित थोड़े ही है। मंत्र गुणात्मक है; क्वांटिटेटिव थोड़े ही है, मंत्र तो क्वालिटेटिव है; परिमाणात्मक नहीं है, गुणात्मक है। अगर होना है तो एक बार में हो जाएगा, अगर नहीं होना है तो तुम करोड़ बार दोहराते रहो तो क्या होगा! अगर पहली बार ही तुमने गलत दोहराया है, तो दूसरी बार तुम और भी गलत दोहराओगे, तीसरी बार और भी ज्यादा गलत दोहराओगे; क्योंकि गलती मजबूत होती जाएगी; जितना दोहराओगे, उतनी लीक मजबूत होती जाएगी। फिर तुम करोड़ बार दोहराओ कि दस करोड़ बार दोहराओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ठीक पुकारने का सवाल है।
और तब एक हृदय की आह भी काफी है; तब एक पुकार से भी क्रांति हो जाती है। परमात्मा बहरा थोड़े ही है, और परमात्मा कोई तुम्हारी खुशामद का आतुर थोड़े ही है कि तुम बहुत बार कहो तब सुनेगा। बिना कहे भी सुन लेता है, तुम्हारे हृदय में होना चाहिए। और तुम्हारी खोपड़ी से तुम कितना ही दोहराओ, कभी नहीं सुना जाता; क्योंकि तुम्हारी चिंतना से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी प्रार्थना से संबंध है।
मैंने सुना है, एक गांव में वर्षों से वर्षा न हुई थी। तो सारा गांव मंदिर में इकट्ठा हुआ था प्रार्थना करने को। एक छोटा बच्चा भी मंदिर जा रहा था प्रार्थना के लिए। सारे लोग रास्ते में उसका मजाक करने लगे। मंदिर का पुजारी भी कहने लगा, नासमझ! यह छाता किसलिए ले जा रहा है? वर्षों से वर्षा नहीं हुई, इसीलिए तो हम प्रार्थना करने जा रहे हैं। वह बच्चा एक छाता ले आया था। भीड़ आई थी, कोई दस हजार लोग इकट्ठे हुए थे, कोई भी छाता न लाया था।
उस बच्चे ने कहा, मैं इसलिए छाता ले आया कि जब हम प्रार्थना करेंगे तो वर्षा जरूर होगी, लौटते में छाते की जरूरत पड़ेगी।
लोग हंसने लगे, उन्होंने कहा, पागल हुआ है?
अब सवाल यह है कि इन लोगों की प्रार्थना का कोई परिणाम होगा? इस एक छोटे बच्चे की प्रार्थना का परिणाम भर हो सकता था। इसका भरोसा था गहन, यह छाता लेकर आया था; इसे प्रार्थना पर जरा भी शक न था; प्रार्थना इसकी बड़ी गहन श्रद्धा थी। लेकिन इस बच्चे के भी मन को उन बड़े लोगों ने संदेह से भर दिया। उन्होंने कहा, जा, घर छाता रख आ। कहीं ऐसे वर्षा हुई है?
प्रार्थना करने जा रहे हैं, लेकिन भरोसा नहीं है कि प्रार्थना से वर्षा होने वाली है। तो फिर प्रार्थना क्यों करते हो?
नास्तिक होना बेहतर है, लेकिन ईमानदार होना जरूरी है। आस्तिकता का क्या मूल्य है, अगर बेईमान है? तुमने कितनी बार प्रार्थना की है, लेकिन तुमने भरोसा किया था कि पूरी होगी? फिर प्रार्थना पूरी नहीं होती तो तुम कहते हो, हम तो पहले से ही जानते थे कि कहीं प्रार्थना पूरी होने वाली है। तुमने कितनी बार मंदिर के द्वार खटखटाए, लेकिन कभी तुमने हृदयपूर्वक खटखटाए? कभी तुमने संपूर्ण मन से खटखटाए? या संदेह को लेकर ही गए थे? अगर संदेह को लेकर ही गए थे, तो न जाना उचित था, कम से कम ईमानदारी तो थी। जाकर तुमने किसको धोखा दिया? जाकर तुमने अपना ही नुकसान किया; क्योंकि जाकर तुम्हारी प्रार्थना ही टूटी, और कुछ भी न हुआ। और अगर बार-बार प्रार्थना टूटे, तो धीरे-धीरे आत्मश्रद्धा खो जाती है; आत्मविश्वास खो जाता है; अपने पर भरोसा खो जाता है। फिर प्रार्थना ओंठों से होती है, प्राणों से नहीं होती।
‘मुरारी की थोड़ी सी भी अर्चना जिसने की है…’
थोड़ी सी काफी है। शंकर का जोर समझ लेना। मात्रा का सवाल नहीं है कि तुमने कितनी की है, गुण का सवाल है कि तुमने कैसे की है।
मैंने एक वकील के संबंध में सुना है कि वह रोज प्रार्थना कर लेता है। लेकिन ज्यादा नहीं करता, वकील है। पहले दिन प्रार्थना की थी, दूसरे दिन कहा–डिट्टो! फिर तीसरे दिन भी डिट्टो। पूरी प्रार्थना क्या करनी है, क्या बकवास लगा रखी है! कानूनी हिसाब साफ है। एक दफा कह दिया, फिर नीचे लिख दिया–डिट्टो! वही!
लोग गणित से जी रहे हैं। प्रार्थना में भी गणित है; वहां भी होशियारी है, कुशलता है। वहां भी तुम सरल नहीं हो। जैसे अगर परमात्मा की जेब काटने का मौका मिले तो तुम छोड़ोगे नहीं। शायद इसीलिए परमात्मा छिपा है। तुम उसकी दुर्गति कर दोगे। वह तुम्हारे सामने आने से डरता है।
सरलता अपने आप में प्रार्थना है।
‘जिसने थोड़ी सी भी अर्चना की है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है?’
जिसने जरा भी प्रार्थना का स्वाद सीख लिया, मृत्यु के पार हो गया। मरते वही हैं, जो भयभीत हैं। भय मारता है। मरते वही हैं, जो अहंकारी हैं। अहंकार की मृत्यु होती है। मरते वही हैं, जिन्होंने जीवन को जाना नहीं। जिन्होंने जीवन को जरा सा भी जान लिया है, फिर कैसी मृत्यु? फिर यमराज के घर तुम्हारी चर्चा नहीं होती, तुम्हारी चर्चा बंद हो जाती है। तुम उसके हिसाब के बाहर हो गए। थोड़ा सा भी जिसने परमात्मा का गीत समझ लिया, फिर उसकी कैसी मौत? फिर तुम जैसे हो, ऐसे चाहे न रहोगे, लेकिन तुम्हारा जो अंतरतम है, वह सदा रहेगा। तुमने जिस बुद्धि से विचार किए हैं, शायद वह न रहेगी; तुमने जिस शरीर से भोग किया है, शायद वह न रहेगा; लेकिन जिस अंतरतम से तुमने श्रद्धा की है, उसे मिटाने का कोई उपाय नहीं है। श्रद्धा शाश्वत है, क्योंकि श्रद्धा तुम्हारा आत्यंतिक, आखिरी, अंतरतम है। वहां तक मृत्यु कभी प्रवेश नहीं की है, और कभी प्रवेश नहीं कर सकती। वहां तुम शाश्वत हो, सनातन हो। वहां तुम स्वयं परमात्मा हो।
जिसने परमात्मा को चाहा है, पुकारा है, उसने जल्दी ही पा लिया कि जिसे मैं पुकारता था, वह मेरे भीतर छिपा है। वह किसी मंदिर में नहीं मिलता, स्वयं के भीतर मिलता है; वह किन्हीं पहाड़ों पर नहीं छिपा है और न चांदत्तारों में छिपा है।
रूस का पहला अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन जब वापस लौटा–तो रूस तो नास्तिक देश है–जो पहली बात लोगों ने उससे पूछी वह यह थी कि ईश्वर मिला चांद पर?
उसने कहा, मैंने बहुत गौर से देखा, कहीं कोई ईश्वर नहीं मिला।
लेनिनग्राड में एक बहुत बड़ा म्यूजियम बनाया गया है, जिसमें मनुष्य-जाति के इतिहास में नास्तिकता से संबंधित सभी वस्तुएं इकट्ठी की गई हैं। उस म्यूजियम की दीवाल पर यूरी गागरिन के अक्षर पत्थर में खोद कर रखे गए हैं–कि मैंने चांद पर जाकर देख लिया, अंतरिक्ष में देखा, परमात्मा कहीं भी नहीं है।
परमात्मा अगर अंतरिक्ष में होता, तो यूरी गागरिन को मिल जाता। लेकिन यूरी गागरिन भी गलत है और तुम भी गलत हो। क्योंकि तुम भी सोचते हो कि वह कहीं बाहर है। आस्तिक भी गलत है और नास्तिक भी गलत है। क्योंकि आस्तिक भी सोचता है, कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। और नास्तिक भी सोचता है कि अगर आकाश में बैठा है तो खोज लेंगे, आज नहीं कल पूरा आकाश भ्रमण कर लेंगे। और जब आकाश में न पाएंगे तब?
यूरी गागरिन को खुद में खोजना चाहिए, वहां बैठा है परमात्मा। वह जो देख रहा था यूरी गागरिन की आंखों से चांदत्तारे पर, वही है परमात्मा–वह जो देख रहा था। परमात्मा को कभी देखा नहीं जा सकता, वह सदा देखने वाला है। उसे तुम देखने की वस्तु नहीं बना सकते, वह तुम्हारे भीतर छिपा देख रहा है। जो देख रहा है, वही परमात्मा है। वह सदा द्रष्टा है, उसे तुम कभी दृश्य नहीं बना सकते।
लेकिन जिसने थोड़ा भी जीवन का गीत सुना–उसको ही मैं भगवद्गीता कहता हूं। कृष्ण ने जो गीत गाया है अर्जुन के सामने, वह तो उसी परम गीत की एक कड़ी है–उस जीवन के गीत की एक कड़ी है। वह तो उसी का छोटा सा टुकड़ा है। लेकिन वह गीत वृक्ष-वृक्ष में लिखा है, चट्टान-चट्टान पर खुदा है। सागर की लहर-लहर में उसी की खबर है। आकाश की शून्यता में उसी का मौन है। झरनों के कल-कल नाद में उसी का गीत है। तुम्हारी आंखों से वही देख रहा है, तुम्हारे कानों से वही सुन रहा है, तुम्हारे हृदय में वही धड़क रहा है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिसने परमात्मा का जरा सा भी गीत समझ लिया, जिसने जीवन की थोड़ी सी भी पहचान कर ली और जिसने सरलता की एक बूंद पी ली, जिसने थोड़ी सी भी अर्चना की है…
अर्चना का अर्थ है: जिसने थोड़े भी घुटने टेके हैं अहंकार के और जो झुका है; जिसने थोड़ा भी अपना सिर नवाया है। खयाल रखना, सवाल यह नहीं है कि किसके सामने नवाया है; नवाया है, बस यही सवाल है। तुमने मस्जिद में नवाया है, ठीक; तुमने मंदिर में नवाया है, बिलकुल ठीक; तुमने गुरुद्वारा में नवाया है, बिलकुल ठीक। तुम जाकर चट्टान के सामने झुका दो, तुम वृक्ष के सामने झुको, या तुम कोरे आकाश के सामने झुको–कोई फर्क नहीं पड़ता, झुकने में असली सवाल है। तुम परमात्मा को मानते हो तो, नहीं मानते हो तो, कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर बिना माने झुके और पा लिया। और बुद्ध ने परमात्मा को कभी स्वीकार नहीं किया और परमात्मा हो गए। झुकने की कला जिसे आ गई।
असली सवाल परमात्मा को पाना नहीं, असली सवाल अपने को मिटाना है।
अर्चना का अर्थ है: जिसने अपने को गिरा दिया; और जिसने कहा, मैं नहीं हूं। जरूरत नहीं है कहने की कि तू है। जिसने यह कहा कि मैं नहीं हूं, उसी क्षण जाना कि बस तू ही है; कहने का कोई सवाल नहीं है। मैं के गिरते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। वह मैं ही अकेली बाधा है। फिर यमराज के घर तुम्हारी चर्चा नहीं होती।
‘अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’
‘जहां पुनः-पुनः जन्म लेना है, पुनः-पुनः मरना है, और पुनः-पुनः माता के गर्भ में गिरना है, ऐसे इस बहुदुस्तर संसार से, हे मुरारी, मेरी रक्षा करो।’
आदमी असहाय है, और आदमी के संकल्प से कुछ भी नहीं हो सकता। क्योंकि तुम जो भी करोगे, वह तुमसे छोटा होगा। परमात्मा तुमसे बहुत बड़ा है। तुममें है, तुममें झांकता है, लेकिन तुमसे बहुत बड़ा है। ऐसा ही समझो कि जैसे बूंद में सागर है। बूंद को भी चखो तो सागर का ही स्वाद है, वही खारापन है। और एक बूंद का भी विश्लेषण कर लो, तो तुम वही तत्व पाओगे जो पूरे सागर के विश्लेषण से मिलते हैं। फिर भी बूंद बड़ी छोटी है। बूंद से सागर झांका है, जैसे खिड़की से सागर झांका हो। तुमसे भी झांका है, लेकिन तुमसे बहुत बड़ा है। खिड़की से देखा गया आकाश, बूंद में छिपा सागर, बीज में छिपा वृक्ष–ऐसा परमात्मा तुमसे झांका है। तुम अपने प्रयास से उसे न पा सकोगे; तुम्हारा प्रयास बड़ा छोटा है–मुट्ठी में आकाश बांधने की चेष्टा है। तुम उसकी कृपा से ही पा सकोगे।
इसलिए शंकर कहते हैं, ‘हे मुरारी, मेरी रक्षा करो।’
मैं अपने आप तो डूब जाऊंगा, तुम बचाओगे तो ही बच सकूंगा। मेरे हाथ में कोई बल नहीं मालूम पड़ता; मेरी शक्ति बड़ी छोटी है। मैं विचार भी करूंगा तो क्या विचार करूंगा! मैं सोचूंगा भी तो क्या सोचूंगा! सब सोच-विचार मेरा ही होगा। तुम अज्ञात हो, तुम विराट हो, तुम्हें पाने के लिए तुम्हारी ही सहायता की जरूरत है।
इसलिए भक्त निरंतर आकांक्षा कर रहा है कि उसका सहारा मिले। जिस दिन तुम उसका सहारा मांगने लगोगे, उसी दिन तुम पाओगे, सहारा मिलने लगा; क्योंकि तुम बड़े होने लगे; तुम्हारा सिकुड़ाव टूटने लगा; तुम फैलने लगे। जिस दिन तुम विराट जीवन का सहारा मांगते हो, उसी क्षण तुम विराट होने लगे; उसी क्षण तुम्हारा छोटापन मिटने लगा। तुमने निमंत्रण दे दिया–आ जाओ! तुम्हारे निमंत्रण भर की देर है।
बुद्ध ने कहा है कि मैं सोचता था, मैं सत्य को खोज रहा हूं। लेकिन जब पाया, तब मुझे पता चला कि सत्य भी मुझे खोज रहा था।
सत्य भी तुम्हें खोज रहा है; परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है, तुम्हें टटोल रहा है। लेकिन तुम निमंत्रण नहीं देते। अगर कभी भूल-चूक, वह तुम्हारा हाथ भी हाथ में ले ले, तो तुम हाथ छोड़ देते हो।
तुमने कभी छोटे बच्चों को देखा है? बाप छोटे बच्चे का हाथ पकड़ कर बाजार ले जा रहा है। बाप पकड़े है, लेकिन बच्चा छोड़े हुए है हाथ। क्योंकि वह स्वतंत्र होना चाहता है; वह चाहता है, छोड़ो हाथ तो मैं खुद चलूं। बाप पकड़े हुए है, लेकिन छोटा बच्चा हाथ छोड़े हुए है। वह किसी तरह परेशान है कि तुम छोड़ो किसी तरह मेरा हाथ। तो वह खुद दौड़ना चाहता है।
करीब-करीब आदमी की हालत ऐसी है। परमात्मा तो हाथ पकड़े हुए है, अन्यथा आदमी जी भी नहीं सकता। वही श्वास न ले हममें, तो हम श्वास कैसे लेंगे? वही हममें न धड़के, तो हम जीएंगे कैसे? लेकिन हमारी चेष्टा यह है कि हम अपने बल खड़े हो जाएं। अहंकार की सदा चेष्टा यही है कि मैं किसी तरह पूरी तरह स्वतंत्र अपने पैर पर खड़ा हो जाऊं, किसी के सहारे की कोई जरूरत न रहे। सहारा मांगने में बड़ी दीनता मालूम होती है। इसलिए जैसे-जैसे मनुष्य का अहंकार बढ़ता गया है, वैसे-वैसे अर्चना खो गई, पूजा खो गई, प्रार्थना खो गई।
तुमने कभी खयाल किया कि मंदिर में तुम झुकते हो, तो थोड़ी बेचैनी सी अनुभव होती है कि कोई देखे न। तुम घुटने टेकते हो, तुम हाथ जोड़ते हो, तो तुम देख लेते हो कि कोई देख तो नहीं रहा है आस-पास। किसी को पता न चल जाए, नहीं तो लोग कहेंगे, अरे तुम! और घुटने टेके बैठे हो! तुम और सिर झुका रहे हो! अहंकार को बड़ी चोट लगती है।
लोग सिर झुकाने में डरने लगे हैं, भयभीत होने लगे हैं। इससे ज्यादा दुर्भाग्य की और कोई घड़ी नहीं हो सकती थी; क्योंकि जीवन में जो भी विराट है, वह तुम्हारे झुकने से पैदा होता है। यह हालत ऐसी हो गई कि जैसे प्यास तुम्हें लगी है और नदी में तुम खड़े हो, लेकिन झुक नहीं सकते। तुम चाहते हो नदी तुम्हारे ओंठों तक आ जाए।
नदी बही जा रही है, लेकिन तुम्हें झुकना पड़ेगा, अंजुलि भरनी पड़ेगी, सिर झुकाना पड़ेगा, हाथ झुकाने पड़ेंगे, पानी भरना पड़ेगा, तो ही प्यास बुझ सकेगी। लेकिन कैसे तुम झुको, तुम्हारी रीढ़ अकड़ गई है, अहंकार झुकने नहीं देता।
अधिक लोग परमात्मा को इनकार करते हैं, इसलिए नहीं कि उनको पता चल गया है कि परमात्मा नहीं है; वे इनकार करते हैं सिर्फ इसलिए कि अगर परमात्मा है तो फिर झुकना पड़ेगा।
फ्रेडरिक नीत्शे ने लिखा है कि अगर परमात्मा है तो फिर झुकना पड़ेगा। इसलिए मैं कहता हूं परमात्मा नहीं है, क्योंकि झुक मैं कैसे सकता हूं! अगर परमात्मा है तो वह मुझसे ऊपर हो गया। इसलिए मैं कहता हूं परमात्मा नहीं है; क्योंकि मुझसे ऊपर कोई कैसे हो सकता है!
अहंकार। भयंकर अहंकार मनुष्य को घेरे हुए है। जैसे शरीर में कैंसर है, ऐसे ही आत्मा में अहंकार है। अहंकार आत्मा का कैंसर है। और जब तक तुम उससे मुक्त न हो जाओ, तब तक अर्चना के फूल न खिलेंगे, तब तक प्रार्थना की धूप न उठेगी, तब तक भगवत्-गीत तुम्हारे भीतर जन्म नहीं ले सकता। जब तक तुम अपने से भरे हो, तब तक परमात्मा तुममें उतर नहीं सकता। जगह खाली करो, सिंहासन से उतरो, उसे निमंत्रण दो।
‘जहां पुनः-पुनः जन्म लेना है, पुनः-पुनः मरना है, और पुनः-पुनः माता के गर्भ में सोना है, ऐसे इस बहुदुस्तर संसार से, हे मुरारी, मेरी रक्षा करो।’
जिन्होंने भी जीवन के सत्य को समझा है, उन्होंने एक बात पहचान ली कि जीवन एक पुनरुक्ति है; वही-वही बार-बार हो रहा है। बहुत बार तुम जन्मे, बहुत बार तुम मरे; बहुत बार तुमने धन कमाया, यश कमाया; बहुत बार सफल हुए, असफल हुए; लेकिन तुम ऐसे ही घूम रहे हो, जैसे गाड़ी का चाक घूमता है। वही चाक घूमता चला जाता है–वही आरा फिर ऊपर आ जाता है, फिर नीचे चला जाता है–फिर वही आरे ऊपर आ जाते हैं।
इस पुनरुक्ति से मुक्त होने की आकांक्षा स्वाभाविक है, क्योंकि पुनरुक्ति सिर्फ उबाने वाली है। हमने संसार को इसीलिए चक्र कहा है, दुष्ट-चक्र कहा है, क्योंकि उसमें हम एक से ही घूमते चले जाते हैं, कुछ भी नया नहीं होता। तुम कल भी वैसे ही जीए थे, जैसे तुम आज जीओगे; परसों भी वैसे ही जीए थे, आने वाले कल भी ऐसे ही जीओगे। वही शाम, वही सुबह, वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही जन्म, वही मौत–दोहरता चला जाता है। निश्चित ही हमारे भीतर बड़ी गहरी मूढ़ता होनी चाहिए, तभी हम जागते नहीं हैं। अन्यथा हमें होश आ जाएगा कि वही-वही हम दुबारा क्यों किए जा रहे हैं? इतनी बार करके जब कुछ भी नहीं मिला, तो कितनी ही बार करें, कुछ भी न मिलेगा। इस चक्र के बाहर निकलना जरूरी है। इसीलिए पूरब में, विशेषकर भारत में, आवागमन से कैसे मुक्ति हो जाए, इसकी महान आकांक्षा पैदा हुई। ऐसी आकांक्षा संसार में कहीं भी पैदा नहीं हुई। पश्चिम में इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी धर्म इस आकांक्षा से प्रेरित नहीं हैं। वे चाहते हैं, स्वर्ग मिले। स्वर्ग का अर्थ है: इस जीवन में जो दुख हैं, वे तो न हों; और जो सुख हैं, वे सब हों। स्वर्ग इसी जीवन के सुखों का विस्तार है। लेकिन भारत में एक बड़ी अनूठी आकांक्षा पैदा हुई, वही भारत की विशेषता है–मोक्ष की आकांक्षा। मोक्ष की आकांक्षा स्वर्ग की आकांक्षा नहीं है। मोक्ष की आकांक्षा का अर्थ है कि न अब दुख चाहिए, न सुख। बहुत भोग लिए दोनों, दोनों में कुछ सार न पाया–अब दोनों से मुक्ति चाहिए। दोनों से मुक्ति की आकांक्षा बड़ी अनूठी खोज है।
इसलिए मोक्ष शब्द को अनुवाद करना दुनिया की किसी भी भाषा में संभव नहीं है। स्वर्ग संभव है, नरक संभव है, लेकिन मोक्ष अनूठा शब्द है; दुनिया की किसी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि शब्द तो पीछे आते हैं, पहले आकांक्षा आती है; अनुभव पहले आता है, तब शब्द बनते हैं। मोक्ष का अनुभव भारत की अपनी अनूठी खोज है। इससे ऊपर कोई खोज न गई है और न जा सकती है; क्योंकि सुख से भी केवल मुक्त हो जाने की आकांक्षा उनमें ही हो सकती है, जिन्होंने सुख को पूरी तरह जान लिया और पाया कि यह भी दुख की ही एक शक्ल है, दुख का ही एक ढंग है, दुख का ही धोखा है; यह दुख की ही तरकीब है।
‘गली के चीथड़ों से जिसकी कंथा बनी है, पुण्य और पाप के विचार से जिसका मार्ग मुक्त है, योग में जिसका चित्त नियोजित है, ऐसा योगी कभी बालक की तरह क्रीड़ा करता है और कभी उन्मत्त की तरह।’
जो सड़क पर बैठा है, भिखारी की तरह दिखाई पड़ता है, लेकिन अगर गौर से देखोगे तो सम्राट को छिपा हुआ पाओगे; क्योंकि तुम्हारे सम्राटों में अगर तुम गौर से देखोगे तो भिखारी को छिपा हुआ पाओगे। उनकी मांग अभी जारी है।
एक मुसलमान फकीर हुआ फरीद। उसके गांव के लोगों ने फरीद से कहा कि अकबर तुम्हें इतना मानता है, तुम अगर उससे कहो तो वह एक मदरसा गांव में खोल दे। फरीद कभी अकबर से कुछ मांगा न था। फकीर मांगता ही नहीं, फकीर देता है। पर गांव के लोगों ने कहा तो फरीद इनकार भी न कर सका; वह गया। वह कभी राजमहल गया भी नहीं था, लेकिन गांव के लोगों ने कहा तो गया। जल्दी ही पहुंच गया, ताकि सुबह-सुबह ही सम्राट से बात हो जाए। भीतर गया तो पता चला कि सम्राट अपने निजी पूजागृह में है, मस्जिद में है; अभी प्रार्थना कर रहा है। तो फरीद ने कहा, यह तो और भी अच्छा है, प्रार्थना के बाद ही सीधा कह दूंगा। तो वह जाकर पीछे खड़ा हो गया।
अकबर को पता नहीं है। अकबर ने प्रार्थना पूरी की, दोनों हाथ आकाश की तरफ उठाए और कहा–हे परमात्मा, तूने मुझे जो दिया है, वह काफी नहीं है; अभी और पाने को बहुत शेष है। तेरी कृपा हो, मेरे राज्य को बड़ा कर! मेरे साम्राज्य को फैला! मेरे धन को, मेरे यश को बड़ा कर!
फरीद तो भरोसा न कर सका। अकबर, इतना बड़ा सम्राट–इतना बड़ा साम्राज्य कम लोगों के हाथ में रहा है–अभी भी मांग रहा है! अभी भी भिखमंगा भीतर से गया नहीं! सोचा उसने कि जब यह अभी खुद ही मांग रहा है तो इससे मांगना उचित नहीं है। क्योंकि एक मदरसे में कुछ तो खर्च लगेगा ही; उतनी और कमी हो जाएगी बेचारे को। और फिर जब यह खुद ही परमात्मा से मांग रहा है तो हम बीच में एजेंट क्यों बनाएं? हम भी उसी से मांग लेंगे। वह लौट पड़ा।
अकबर उठा तो उसने फरीद को सीढ़ियां उतरते देखा। वह दौड़ा और उसने कहा, कैसे आए? बड़ा सम्मान करता था अकबर फरीद का। कभी फरीद आया भी नहीं था, सदा वही जाता था फरीद के दर्शन करने। कैसे आए और कैसे लौट चले?
फरीद ने कहा, आया था सोच कर कि एक सम्राट से मिलने जा रहा हूं; जाता हूं देख कर कि यहां भी एक भिखमंगा है। आया था कुछ मांगने, भूल हो गई। तुम्हें खुद मांगते देख कर शर्म आ गई कि अब तुमसे क्या मांगूं! तुम तो वैसे ही गरीब हो, तुम्हें और गरीब करूं? गांव के लोग नहीं माने, पीछे पड़ गए, तो एक मदरसे के लिए कहने आया था। लेकिन अब न कहूंगा; अब मैं भी परमात्मा ही से कह दूंगा। जब तुम भी वहीं से मांगते हो, तो हम भी वहीं से मांग लेंगे; अब तुमसे बीच में क्यों बाधा डालनी।
अकबर ने बहुत प्रार्थना की कि मुझे मौका दो। मदरसा, तुम जो कहो, मैं बना दूंगा।
फरीद ने कहा, अब नहीं। सम्राट से मांगा जाता है, गरीब भिखमंगों से क्या मांगना!
तुम्हारे सम्राटों में तुम गरीब भिखमंगे पाओगे; वहां भी मांग अभी कायम है। लेकिन इस मुल्क ने ऐसे सम्राट भी पैदा किए हैं, जिनको तुम देखोगे तो भिखमंगे मालूम होंगे, उनके भीतर झांकोगे तो उन जैसे रत्न कभी भी हुए नहीं।
‘गली के चीथड़ों से जिसकी कंथा बनी है…’
रास्ते पर पड़े चीथड़ों को बीन कर जिसने अपने कपड़े बना लिए हैं, अपनी गुदड़ी बना ली है; लेकिन जिसके भीतर मोक्ष अवतरित हुआ है, जिसके भीतर स्वतंत्रता ने अपने पूरे पंख फैलाए हैं।
‘पुण्य और पाप के विचार से जिसका मार्ग मुक्त है…’
ध्यान रखना, धर्म कहते हैं: पाप करोगे तो नरक; पुण्य करोगे तो स्वर्ग। फिर अगर मोक्ष पाना हो, तो क्या करोगे तो मोक्ष? न पुण्य, न पाप।
जिसका जीवन पुण्य और पाप की धारणा से मुक्त हो गया है। जिसे अब न तो कुछ अच्छा दिखाई पड़ता, न कुछ बुरा; जिसका जीवन चुनाव-मुक्त हो गया है। कृष्णमूर्ति जिसे च्वाइसलेस अवेयरनेस कहते हैं। जिसके जीवन में अब सिर्फ बोध रह गया है–चुनावरहित, विकल्परहित। जो चुनता नहीं। जो न तो कहता है, यह ठीक है; न कहता है, यह गलत है; जो चुनाव ही नहीं करता; जो कहता है, सब एक जैसा है, चुनने को कुछ है ही नहीं; न कुछ सुंदर है, न कुछ असुंदर; न कुछ पाप है, न कुछ पुण्य।
यह बड़ी अनूठी बात है। यह मोक्ष के साथ जुड़ी है। इसलिए जब पहली दफा उपनिषदों का अनुवाद हुआ, तो पश्चिम में विचारक समझ नहीं सके कि ये उपनिषद क्या कह रहे हैं। क्योंकि पश्चिम में खयाल था कि धर्मशास्त्र का अर्थ होता है, जो पुण्य करना सिखाए। पाप से बचाए और पुण्य करवाए, वही धर्मशास्त्र है। लेकिन उपनिषद कहते हैं, पाप और पुण्य दोनों से जो बचाए, वही धर्मशास्त्र है। क्योंकि जब तक तुम पाप और पुण्य से भरे हो, तब तक द्वंद्व से भरे हो। जो निर्द्वंद्व बनाए। जब तक तुम कहते हो, यह पाप है, तब तक तुम्हारे मन में निंदा है; जब तक तुम कहते हो, पुण्य है, तब तक तुम्हारे मन में प्रशंसा है। जब तक तुम कहते हो, पुण्य–तो तुमने कुछ चुना; जब तक तुम कहते हो, पाप–तुमने कुछ इनकार किया। और पाप में भी परमात्मा है और पुण्य में भी। तो जिसे तुमने इनकार किया, परमात्मा को ही इनकार किया।
परमज्ञानी वही है, जिसके जीवन में न कोई इनकार है, न कोई मांग है; न जो स्वीकार करता है, न जो अस्वीकार करता है। जो थिर हो गया, जिसकी चेतना कंपती ही नहीं।
‘पाप और पुण्य के विचार से जिसका मार्ग मुक्त है, योग में जिसका चित्त नियोजित है…’
जो जुड़ गया, जो एक हो गया, वही योगी है; जिसके लिए दो न बचे। जब तक दो हैं, तब तक स्वर्ग और नरक रहेंगे; सुख और दुख रहेगा; पाप और पुण्य रहेंगे। जब एक ही बच रहता है, तो स्वर्ग-नरक, सुख-दुख, अंधेरा-प्रकाश, सब खो जाते हैं। उस एक में ही परम विश्रांति है; उस एक में ही परम आनंद है। उस एक को ही जिसने पा लिया, उसने ही कुछ पाया।
ऐसा योगी कभी बालक की तरह मालूम होगा। इतना सरल, जैसे बालक हो। और कभी पागल की तरह मालूम होगा। इतना उन्मत्त, इतना आनंदित, इतना नशे में सराबोर।
योगी में पागल और बालक दोनों का मिलन होता है। बालक का अर्थ है: जिसने अभी सोचना शुरू नहीं किया; और पागल का अर्थ है: जो सोचने के पार चला गया। योगी में वर्तुल पूरा हो जाता है। वह बालक की तरह हो गया है, सोचता ही नहीं। और पागल की तरह भी हो गया है, सोचने के पार चला गया है।
इसलिए योगी को पहचानना बड़ा कठिन हो जाता है। तुम उसके संबंध में कोई भी कोटि नहीं बना सकते, कोई निर्णय नहीं ले सकते। वह क्या करेगा अगले क्षण, कुछ भी पता नहीं है; क्योंकि अपनी तरफ से वह कुछ करता ही नहीं–परमात्मा जो करवाता है। उसने अपने को उसके हाथ में छोड़ दिया है। वह बहा जाता है। परमात्मा की नदी उसे जहां ले जाती है, वहीं उसकी मंजिल है। अगर बीच में डुबा दे, तो वहीं उसकी मंजिल है। अपना कोई लक्ष्य शेष नहीं रह गया है।
योगी यानी परम स्वातंत्र्य।
‘अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’
‘तुम कौन हो, मैं कौन हूं, कहां से आया, कौन मेरी माता है, कौन पिता है? इस प्रकार मनन करो। और तब पाओगे कि संसार और उसकी चिंता असार और स्वप्नवत है और तुम उस दुख-स्वप्न से मुक्त हो जाओगे। अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’
‘तुममें, मुझमें, अन्यत्र एक विष्णु का ही वास है। मेरे प्रति असहिष्णु होकर तुम व्यर्थ क्रोध करते हो। इसलिए सर्वत्र भेद-रूपी अज्ञान का त्याग कर सबमें अपने को ही देखो। अतः हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’
‘शत्रु और मित्र, पुत्र और भाई, युद्ध और संधि में अपनी शक्ति मत गंवाओ। यदि तुम विष्णुपद को शीघ्र उपलब्ध करना चाहो, तो सर्वत्र सबके साथ समत्व भाव रखो। और हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’
समत्व भाव एकत्व की यात्रा है। समत्व को साधो तो एकत्व सधेगा। सुख-दुख में समान, जीत-पराजय में समान, सफलता-असफलता में समान, तो धीरे-धीरे एकत्व सधेगा।
जब तक तुम द्वंद्व देखोगे, तब तक तुम दो रहोगे; क्योंकि जो तुम देखते हो, वही तुम हो जाते हो। जब तुम द्वंद्व न देखोगे, जब तुम द्वैत न देखोगे, और एक ही दिखाई पड़ने लगेगा–मित्र में और शत्रु में; शुभ में, अशुभ में; पाप में, पुण्य में; नरक में, स्वर्ग में; अच्छे में, बुरे में; अभिशाप में, वरदान में–एक ही दिखाई पड़ने लगेगा, तो तुम एक होने लगोगे; क्योंकि जो तुम देखते हो, वही तुम हो जाते हो; दर्शन ही तुम्हारा स्वभाव बन जाता है। इसलिए दो को देखने से बचना ही सारी साधना है।
कठिन होगा। कैसे देख पाओगे–जो तुम्हें गाली देता है उसमें वही, जो तुम उसमें देखते हो जो तुम्हारी प्रशंसा करता है और गीत गाता है?
लेकिन जरा गौर से देखो, गीत और गाली सब ऊपर-ऊपर हैं, भीतर एक का ही वास है। जरा गौर से देखो, मित्र और शत्रु, घृणा और प्रेम एक ही ऊर्जा के दो ढंग हैं। इसीलिए तो प्रेम घृणा बन जाता है और घृणा प्रेम बन जाती है; मित्र शत्रु बन जाते हैं और शत्रु मित्र बन जाते हैं। अगर दोनों बिलकुल अलग होते, तो यह परिवर्तन नहीं हो सकता था। जो आज मित्र है, कल शत्रु हो जाता है। जो कल शत्रु था, वह आज मित्र हो जाता है। निश्चित ही ऊर्जा एक ही है। जो तुमसे दूर जा रहा है–जिन पैरों से दूर जा रहा है, उन्हीं पैरों से तुम्हारे पास आ जाता है; पैर एक हैं। पास आना और दूर जाना, एक ही शक्ति के दो ढंग हैं।
इसे खोजने की कोशिश करो। पुरानी आदतें बाधा डालेंगी। पुराने सोचने के ढंग अड़चन डालेंगे। लेकिन अगर सतत चेष्टा रही, तो धीरे-धीरे अंधकार कटता है, प्रकाश उभरता है। और जैसे-जैसे तुम्हें विपरीत में एक ही दिखाई पड़ने लगेगा, तुम अचानक पाओगे–भीतर एक गहन शांति उतरने लगी; कोई परिपूर्ण तुम्हारे भीतर आने लगा; तुम वही नहीं रहे जो कल तक थे; तुम्हारे घर में किसी नई चेतना का आवास शुरू हो गया। जब दो मिट जाते हैं और एक रह जाता है, तभी तुम पात्र बनते हो परमात्मा के लिए, तब तुम तैयार हो। और परमात्मा तो सदा ही तैयार था। तुम्हारे तैयार होते ही मेघ बरस जाता है, तुम भर जाते हो; आनंद की, मंगल की घड़ी आ जाती है।
लेकिन दो से बचना है, दो से जागना है और एक की धारा को पकड़ना है।
समत्व को साधो, एकत्व उपलब्ध होगा। दो में कोशिश करके देखते रहो–बस यही तुम्हारा ध्यान बन जाए, यही तुम्हारी साधना हो। सफलता आए, तब गौर से देखना कि यह भी असफलता ही है; जल्दी ही असफलता कहीं छिपी होगी और आती होगी। और जब असफलता आए, तब बहुत परेशान मत हो जाना, गौर से देखना, कहीं सफलता छिपी होगी और आती ही होगी। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब एक आ गया तो दूसरा ज्यादा दूर नहीं हो सकता। और जब सफलता असफलता मालूम होने लगे, असफलता सफलता मालूम होने लगे; भेद गिर जाए, अभेद पैदा हो, तो तुम्हारा द्वार परमात्मा के लिए खुला।
परमात्मा सदा पास है, तुम्हीं अपने भेद के कारण दूर बने हो। परमात्मा सदा सामने है; क्योंकि जो भी तुम्हारे सामने है वह परमात्मा ही है। लेकिन तुम्हारी आंख बंद है। भेद में आंख अंधी हो जाती है, अभेद में खुल जाती है। भेद ऐसा है, जैसे पलक आंख पर पड़ी; अभेद ऐसा है, जैसे पलक खुली।
‘अतः हे मूढ़, गोविन्द को भजो।’
भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम्, भज गोविन्दम् मूढ़मते।
क्या यह संभव है कि आदमी का चित्त एक नवजात शिशु के चित्त की भांति हो जाए?
निश्चित ही। एक झील पर सब शांत है। फिर लहरें आ गईं, हवा के झोंके आए–झील कंप गई। फिर हवा के झोंके चले जाएं, झील फिर शांत हो जाएगी, फिर दर्पण बन जाएगी। झील स्वच्छ है। पत्ते गिर गए, गंदगी हो गई। पत्ते बैठ जाएंगे भूमि में, झील फिर ताजी और फिर स्वच्छ हो जाएगी।
बच्चा पैदा हुआ, झील अभी स्वच्छ थी–तरंगें न थीं, विचारों के कोई पत्ते न थे, वासना की कोई लहरें न थीं।
फिर सब तरंगायित हो गया–तूफान उठे, मन कंपा, दर्पण खो गया। जवानी आई, सब आंधी-आंधी हो गया; कुछ ठहरा हुआ न रहा; बड़ी वासनाओं के उत्तंड वेग आए।
फिर बुढ़ापा आया; सब कूड़ा-कचरा, पत्थर, खंडहर पड़े रह गए।
लेकिन जो मूल में था, वह अब भी वहां है। थोड़ी सी समझ–पत्तों को बैठ जाने देना; थोड़ी सी समझ–वासना की हवाओं का रुक जाना। झील फिर वही हो जाएगी, झील के स्वभाव में कोई अंतर नहीं पड़ा है।
जैसा निर्दोष बच्चे का मन है, ऐसा ही पुनः जब हो जाता है, तभी हम उसे संत कहते हैं; फिर बच्चे जैसा हो जाता है।
इसलिए शंकर ने कहा: वह परमयोगी कभी बच्चों की भांति और कभी पागलों की भांति मालूम होता है। कभी तो ऐसा लगता है, छोटे बच्चे की तरह सरल है; कुछ भी नहीं उसके भीतर, शून्य है। और कभी ऐसा लगता है, प्रचंड अज्ञात की आंधियां उठी हैं–उन्मत्त है, पागल है।
पागल व्यक्तियों में भी एक बालपन जैसी निर्दोषता होती है; और बच्चों में भी पागलों जैसी एक विक्षिप्तता होती है।
छोटे-छोटे बच्चे छोटी-छोटी चीजों पर पागल हो जाते हैं। उनको खिलौना चाहिए–नाचने लगेंगे, कूदने लगेंगे, तोड़ने-फोड़ने लगेंगे–अभी चाहिए। अभी क्रोधित हैं, क्षण भर बाद हंसने लगेंगे, मुस्कुराने लगेंगे–भूल ही जाएंगे कि जैसे क्रोध था। पागल और बच्चों में बड़ा सामान्य है, बहुत कुछ समान है। इसलिए पागलों की आंख में तुम झांकोगे तो बच्चों जैसा निर्दोष भाव पाओगे; और बच्चों की आंख में भी झांकोगे तो भी एक पागलपन की अवस्था पाओगे।
परमज्ञानी दोनों एक साथ हो जाता है। बहुत बार लगता है बच्चों की भांति है; और बहुत बार लगता है पागलों की भांति है। क्योंकि न तो कोई नियम रह जाते हैं, न कोई मर्यादा रह जाती है, इसलिए पागल लगता है; न पाप, न कोई पुण्य, इसलिए पागल लगता है। और इसीलिए बच्चा भी लगता है। बच्चे को भी न कोई पाप है, न कोई पुण्य है; बच्चे को भी कोई मर्यादा नहीं है। बच्चा मर्यादा के पहले है, संत मर्यादा के पार है, बीच में संसार है–जहां मर्यादाएं हैं, नीति है, नियम है; पाप है, पुण्य है; शुभ है, अशुभ है; करने योग्य है, न करने योग्य है–दोनों छोर हैं।
निश्चित ही, जो एक क्षण तुम्हारे जीवन में था, वह फिर हो सकता है। कभी तुम बच्चे थे, वह बच्चा खो नहीं गया है, तुम्हारे मन के विचारों की भीड़ में अभी भी भीतर मौजूद है। भीड़ शांत होगी, अचानक पुनराविष्कार हो जाता है, फिर वह बच्चा मौजूद है। वही संतत्व है।
पांचवां प्रश्न:
श्री शंकराचार्य कभी तो कहते हैं कि गंगा की यात्रा करने से भी कुछ न होगा, और कभी कहते हैं गंगाजल की एक बूंद भी पीने से आदमी मृत्युंजय हो जाता है। कृपापूर्वक इस विरोधाभास पर प्रकाश डालें।
बाहर की गंगा और भीतर की गंगा। बाहर की गंगा की कितनी ही यात्रा करो, कुछ भी न होगा; क्योंकि बाहर की गंगा की यात्रा भी बाहर की यात्रा है, उससे तुम भीतर न पहुंचोगे। और भीतर की गंगा की एक बूंद पी लो, तो पहुंच गए; क्योंकि भीतर की गंगा की एक बूंद पीने के लिए भी तुम्हें बिलकुल भीतर आना पड़ेगा, तो ही तुम एक बूंद भी पी सकोगे।
तीर्थयात्रा बाहर नहीं है, बाहर तो बस संसार है; तीर्थयात्रा भीतर है। जितने तुम भीतर जाओगे, जितने अपने में रमोगे, उतने ही तीर्थ के निकट आओगे–वहीं गिरनार है, वहीं शिखरजी, वहीं काबा, वहीं कैलाश, वहीं काशी। बाहर की भ्रांति से बचना।
लेकिन हम तो बाहर ही देखना जानते हैं। तो जब हम परमात्मा को भी खोजते हैं, तो बाहर खोजते हैं। और जब हम मंदिर खोजते हैं, तो भी बाहर खोजते हैं।
परमात्मा तुम्हारे भीतर है; जो खोज रहा है, उसमें ही छिपा है; खोजने वाला ही है वही। तुम अपने चैतन्य को पहचानना शुरू करो, उसकी एक बूंद काफी है।
कहते हैं, कथा है कि जब गंगा उतरी पृथ्वी पर तो आधी ही उतरी, आधी स्वर्ग में ही रह गई। इसे तुम ऐसा समझो कि जब गंगा आई बाहर तो आधी ही आई, आधी भीतर रह गई। स्वर्ग यानी भीतर, स्वर्ग यानी स्वयं में डूब जाना, और नरक यानी दूसरे में भटक जाना।
पश्चिम का बहुत बड़ा विचारक है ज्यां पाल सार्त्र। उसका एक वचन बड़ा महत्वपूर्ण है: दि अदर इज़ हेल। दूसरा नरक है।
स्वयं में है स्वर्ग। जब तक तुम दूसरे पर निर्भर हो, तब तक तुम नरक में रहोगे। जब तक तुम ऐसे स्वातंत्र्य, ऐसी निजता, ऐसी स्वायत्तता, ऐसा स्वयंपन न पा लो कि अब कोई निर्भरता न रही, अब किसी के सामने तुम भिखारी न रहे, अपने मालिक हो गए, स्वामी हुए, फिर स्वर्ग है। दूसरे के सामने हाथ फैलाए तो बड़ी दीनता है–वहां नरक ही मिल सकता है; वहां ज्यादा से ज्यादा तुम अपने भिक्षा के कटोरे में दुख ही जुटा पाओगे। वहां सुख का कोई संगीत न कभी हुआ है, न होगा।
भीतर आओ। भीतर की गंगा स्वर्ग की आधी गंगा है और उसकी एक बूंद काफी है। वह अमृत है।
बाहर की गंगा में कितने ही नहाओ, क्या होगा? मछलियां सदा गंगा में ही रह रही हैं, वे सभी स्वर्ग पहुंच गई होतीं; मगरमच्छ भी रह रहे हैं, वे भी स्वर्ग पहुंच गए होते; जानवर, पशु-पक्षी भी गंगा में स्नान कर रहे हैं, वे सब स्वर्ग पहुंच गए होते।
वे अभी नहीं पहुंचे हैं। तुम उनसे ज्यादा स्नान न कर पाओगे; तुम एक डुबकी लगा कर घर आ जाओगे। किसको धोखा दे रहे हो? आंख के अंधे हो–आंख होते अंधे हो। यह धोखा अपने को ही मत दो।
गंगा भीतर है। जो भी मूल्यवान है, भीतर है; जो भी निर्मूल्य है, बाहर है। कचरा खोजना हो तो बाहर, धन खोजना हो तो भीतर।
दुनिया में दो तरह की भ्रांतियां हैं। कुछ लोग हैं, जो समझते हैं–प्रयास करने से ही मिल जाएगा। उन्हें परमात्मा कभी नहीं मिलता। क्योंकि उनका अहंकार कभी गिरता ही नहीं, प्रयास से और मजबूत होता है; द्वार-दरवाजे और बंद हो जाते हैं खुलने की जगह। और कुछ लोग हैं, जो मानते हैं–प्रयास से तो मिलता नहीं, प्रसाद से ही मिलेगा। वे बैठे ही रहते हैं; वे उठते ही नहीं, चलते ही नहीं। वे आलस्य में गंवा देते हैं। कुछ अहंकार में खो देते हैं, कुछ आलस्य में।
परमात्मा मिलता है अथक प्रयास से और फिर भी बिना प्रयास के।
तुम्हारी तरफ से तुम्हें पूरा करना है, तुम्हारी तरफ से कुछ भी न बचे जो अनकिया रह जाए। तुम अपने को पूरा दांव पर लगा दो, तभी तुम प्रसाद पाने के अधिकारी हो। तब तुम कह सकते हो, अब मेरे पास कुछ भी नहीं जो मैं और लगाऊं–अब तो तेरी कृपा हो!
तो उसकी कृपा मांगने का अधिकार तुम्हें तब मिलेगा, जब तुम जो कर सकते थे वह तुमने पूरा कर दिया, अब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम मुफ्त कृपा न पा सकोगे। कृपा सबसे बड़ा बहुमूल्य हीरा है, वह मुफ्त नहीं मिलता। तुमने जब सब दांव पर लगा दिया, तुम्हारे पास कुछ भी न बचा, तब तुम्हारे हृदय से प्रार्थना उठ सकती है; तब तुम कह सकते हो, अब मेरे किए कुछ भी नहीं होता–अब तू देख!
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे।
उस क्षण में ही–कि देख, अब मुझसे कुछ भी नहीं होता, मैं सब कर चुका; अब मैंने कुछ बचा नहीं रखा है जो दांव पर लगाना है; मैंने अपने को पूरा उंडेल दिया, फिर भी कुछ नहीं होता–अब तेरी कृपा की जरूरत है। और तब कृपा निश्चित मिलती है।
परमात्मा तो मिलता सदा प्रसाद से है; क्योंकि तुम्हारा प्रयास तो बहुत छोटा है, परमात्मा बहुत बड़ा है। प्रयास से तुम उसे पा न सकोगे। लेकिन तुम्हारे प्रयास से तुम उस जगह के करीब आते हो, जहां बूंद राजी हो जाती है सागर को झेलने को।
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