उड़ीसा...दो चौसठ योगिनी मंदिरऔर तीन शक्तिपीठ... PART-03
1-चौसठ योगिनी मंदिर, हीरापुर;-
07 FACTS;-
1-चौसठ योगिनी मंदिर, हीरापुर गाँव में भुवनेश्वर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर है। निकटतम हवाई अड्डा भुवनेश्वर का बीजू पटनायक हवाई अड्डा है, जो सिर्फ 6 किलोमीटर दूर है। निकटतम रेलवे स्टेशन भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन है, जो सिर्फ 5 किलोमीटर दूर है।निकट खंडगिरि और उदयगिरि गुफाएं है। मंदिर की स्थापना 9 वीं शताब्दी में भौम वंश की रानी हीरादेवी ने की थी। ओडिशा राज्य संग्रहालय के श्री केदारनाथ महापात्रा ने 1953 में इस मंदिर की आधिकारिक खोज की थी। तब से यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत है। स्थानीय लोगों के अनुसार भौम वंश की रानी हीरादेवी ने इस मंदिर की स्थापना की थी। महारानी हीरा देवी के सम्मान में इस गांव का नाम हीरापुर रखा गया है। मंदिर को 17 वीं कालापहाड़ द्वारा लक्षित किया गया था, जो शताब्दी के मुस्लिम सेना प्रमुख थे, जिन्होंने मूर्तियों को नष्ट कर दिया था।हीरापुर एक छोटा सा गाँव है जो भुवनेश्वर से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भारत का सबसे छोटा योगिनी मंदिर ‘चौसठ योगिनी’ इसी गाँव में स्थित है। सुबह 6 बजे से शाम 4 बजे तक मंदिर खुला रहता है। मंदिर के पट बंद होने की पूर्व संध्या पर आरती की जाती है। मंदिर का प्रवेश द्वार संकरा और ऊंचाई में कम है और बाहरी दीवारों पर द्वारपाल जय और विजय की आकृति उकेरी हुई हैं।
यह एक गोलाकार में एक छोटा मंदिर है। इसका निर्माण करने के लिए स्थानीय बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है और मूर्तियों को बनाने के लिए काले ग्रेनाइट पत्थर का उपयोग किया गया है।
2-योगिनी मंदिर की वास्तुकला अन्य मंदिरों की तुलना में थोड़ी समानता रखती है।गोलाकार दीवारों के प्रत्येक गुहाओं और कोटरों में देवी प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। माँ काली की मूर्ति कमरे के केंद्र में स्थित है जो यह एक मानव के सिर के ऊपर खड़ी है। इसे चंडी मंडप के नाम से भी जाना जाता है।मंदिर देवी महामाया (चंडी देवी) और 64 योगिनियों को समर्पित है और हरे-भरे खेतों के बीच स्थापित है। इस वजह से स्थानीय लोग इसे महामाया मंदिर के रूप में संदर्भित करते हैं।मंदिर की बाह्य भित्ति अपेक्षाकृत साधारण है। समान दूरी पर 9 आलें हैं जिनके भीतर देवी की 9मूर्तियाँ हैं। इन्हे नव-कात्यायनी अथवा नव-दुर्गा कहा जाता है। पुजारी जी ने उन्हे नवरात्रि में पूजे जाने वाली देवी के9 स्वरूपों से संबंधित बताया।बाहरी प्रतिमाओं का आकार भीतरी प्रतिमाओं से अपेक्षाकृत किंचित विशाल है। कुछ मूर्तियाँ मृत देह पर खड़ी हैं तथा कुछ उन पशुओं पर खड़ी हैं जो साधारणतः मृत देह के समीप पाए जाते हैं, जैसे श्वान, सियार इत्यादि। कुछ तांत्रिक क्रियाओं में मृत देह का प्रयोग किया जाता है। सभी प्रतिमाओं ने हाथों में विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हैं।
एक छोटी प्रतिमा ने शीष पर छत्र धारण किया है।
3-योगिनी कौन हैं?-
योगिनियाँ देवियाँ अथवा यक्षिणियाँ होती हैं जिन्हे तांत्रिक क्रिया के अंतर्गत पूजा जाता है। यद्यपि उनके मंदिरों में सामान्यतः 64 योगिनियों के समूह होते हैं, तथापि कुछ मंदिरों में 42 अथवा 81 योगिनियों के समूहों का भी उल्लेख मिलता है। इन योगिनियों को चक्र के आकार में प्रदर्शित किया जाता है। कदाचित यही कारण है कि उनके मंदिर भी चक्र के आकार में निर्मित होते हैं। प्रत्येक योगिनी इस चक्र अर्थात पहिये के एक आरे पर स्थापित होती है।प्रत्येक मंदिर में इन योगिनियों की सूची में भिन्नता होती है। यहाँ एक विशेष तथ्य का उल्लेख करना चाहूँगी कि प्रत्येक योगिनी का एक विशेष नाम होता है तथा किसी भी दो मंदिरों में इन नामों की सूची समान नहीं होती। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि किसी मंदिर की योगिनियों की सूची में स्थानीय प्रभाव अवश्य निर्णायक कारक रहे होंगे। इन योगिनियों में कुछ दयालु तो कुछ क्रूर प्रतीत होती हैं। प्रत्येक योगिनी की एक विशेष शक्ति होती है जिसके आधार पर ही अपनी इच्छा पूर्ति के लिए भक्तगण संबंधित योगिनी की आराधना करते हैं। ये इच्छाएं संतान प्राप्ति से लेकर शत्रु के विनाश तक कुछ भी हो सकती हैं।योगिनियाँ ना तो सप्त मात्रिकाएं हैं, ना ही दश महाविद्याएं हैं। वे नव दुर्गा भी नहीं हैं। वे यक्षिणियों के समूह हैं जो सदैव साथ रहती हैं तथा साथ ही कार्य करती हैं।मंदिर के समक्ष, पूर्व की ओर एक पीठिका है जिसे सूर्य पीठ कहा जाता है। साधक अथवा भक्त इस पीठ का प्रयोग सूर्य की आराधना के लिए करते हैं। कोणार्क सूर्य मंदिर भी समीप ही स्थित है। सूर्य आराधना यहाँ की परंपरा प्रतीत होती है।यदि आप इसे ऊपर से देखेंगे, तो इसका आकार स्त्री योनि के समान प्रतीत होता है। यह 60 आरे समेत पहिये अथवा चक्र के समान भी प्रतीत होते हैं।प्रथम दृष्टि में सभी योगिनियाँ समान प्रतीत होती हैं। कुछ क्षण ध्यानपूर्वक निहारने पर उनके मध्य का अंतर दृष्टिगोचर होने लगता है। उनके भाव, मुद्राएं तथा आसन सभी भिन्न हैं। लगभग 2फीट ऊंची प्रत्येक प्रतिमा भिन्न तत्व पर खड़ी है। कई प्रतिमाएं खंडित भी हैं।
4-चंडी पीठ ;-
60 योगिनियाँ गोलाकार में स्थापित हैं। गोलाकार के मध्य एक चौकोर पीठ है जिसे चंडी पीठ कहा जाता है। चंडी पीठ की भित्तियों पर बने आलों में किसी समय बाकी की ४ योगिनियाँ थीं जिन में से अब एक प्रतिमा अनुपस्थित है। 4आलों के भीतर 4भैरवों की भी प्रतिमाएं हैं। देवी मंदिरों में भैरव की उपस्थिति अवश्य रहती है।दक्षिणावर्त घूमते हुए 31क्रमांक की योगिनी महामाया है जो इस मंदिर की अधिष्ठात्री देवी हैं। महामाया देवी की प्रतिमा वस्त्रों, आँखों एवं आभूषणों द्वारा पूर्णतः अलंकृत है।महामाया के समक्ष एक बड़ा दीपक प्रज्ज्वलित था।यह दीपक अनंत काल से प्रज्ज्वलित है।यह शाश्वत, अविनाशी व चिरकालीन दीपक उस समय से प्रज्ज्वलित है जब से यह मंदिर अस्तित्व में आया है।
5-शिव मंदिर;-
योगिनी मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार के समीप श्वेत रंग में रंगा भगवान शिव का एक मंदिर है जिसे संकटेश्वर मंदिर कहा जाता है। इसके समक्ष नंदी की एक छोटी व मनमोहक मूर्ति है जो रंगबिरंगे वस्त्र से अलंकृत है।
मुरलीधर कृष्ण
परिसर के भीतर, एक वृक्ष के नीचे खुले में, श्रीकृष्णजी के गोपीनाथ रूप की अत्यंत मनभावन श्यामल प्रतिमा खड़ी है।
6-महामाया पुष्कर्णी;-
मंदिर के बाहर एक सुंदर पुष्करणी अर्थात मंदिर का जलकुंड है जिस के मध्य एक छोटा मंदिर भी है जो साधारणतया सम्पूर्ण ओडिशा के जलकुंडों में सहसा दृष्टिगोचर होता है। इसे दीप दांडी कहा जाता है। यह नाम यह जताता है कि इसका प्रयोग मंदिर को प्रकाशमान करने के लिए किया जाता था।
7-चौसठ योगिनी उत्सव;-
प्रत्येक वर्ष, 23 से 25 दिसंबर तक चौसठ योगिनी महोत्सव का आयोजन किया जाता है जिसमें मंदिर के ठीक बाहर स्थित मंच पर ओडिशा नृत्य तथा संगीत का प्रदर्शन होता है।माघ सप्तमी के दिन एक विशाल यज्ञ का भी आयोजन किया जाता है।नवरात्रि के प्रत्येक दिवस चंडी पाठ किया जाता है।
2-चौसठ योगिनी मंदिर रानीपुर झारल उड़ीसा;-
02 FACTS;-
1-उड़ीसा के बलांगीर जिले में स्थित चौसठ योगिनी मंदिर भारत के प्रसिद्ध चौसठ योगिनी मंदिर में से एक है। इस मंदिर को “’रानीपुर झारल मंदिर” या “सोमा तीर्थ” के नाम से भी जाना जाता है। 64 योगिनियों को समर्पित यह मंदिर उड़ीसा राज्य में स्थित दूसरा मंदिर है। इस मंदिर में देवी पार्वती के साथ भगवान शिव के तीन मुख वाले देवता हैं, जो 64 योगिनियों से घिरे हुए हैं। यह मंदिर मुख्य रूप से एक पुण्य शैव तीर्थ के रूप में माना जाता है। यह मंदिर एक अन्य कृत्रिम संरचना है, जो मध्ययुगीन मनोगत प्रथाओं को एक अंतर्दृष्टि देता है, उनमें से कुछ अभी भी आदिवासी परंपराओं के साथ उड़ीसा के कुछ जिलों में प्रचलित हैं।बचे हुए केंद्रीय मंदिर में नृत्य करते शिव की एक छवि है ; सभी योगिनी छवियों को, विशिष्ट रूप से, इसी तरह नृत्य करते हुए दिखाया गया है।मंदिर के केंद्र में चार स्तंभों वाला मूल मंदिर है, जिसमें नृत्य के भगवान के रूप में नटेश्वर , शिव की एक छवि है । शिव की छवियां तीन- मुखी और आठ-सशस्त्र हैं, और उन्हें उर्ध्व लिंग , एक निर्माण के साथ चित्रित किया गया है । हाथी के सिर वाले गणेश और बैल नंदी को छवि के आधार में दिखाया गया है। मंदिर में देवी चामुंडा की समान आकार की छवि एक बार केंद्रीय मंदिर में शिव के साथ रखी गई हो सकती है। चौसठ योगिनी मंदिर रानीपुर के लिए कोई सीधी फ्लाइट और रेल कनेक्टविटी नही है। रानीपुर के सबसे नजदीकी एयरपोर्ट भुवनेश्वर और रायपुर में है जो 248 और 201 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जबकि कांटाबांजी रेलवे स्टेशन रानीपुर का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है जो रानीपुर से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसीलिए आप सड़क मार्ग या ट्रेन से यात्रा करके चौसठ योगिनी मंदिर रानीपुर आयें।
2-रानीपुर झारल मंदिर का इतिहास भी अन्य चौसठ योगिनी मंदिर की तरह 8 – 9वी शताब्दी के आसपास का है। मंदिर से शिलालेखो के अनुसार माना जाता है रानीपुर झारल मंदिर का निर्माण 9 वीं शताब्दी में सोमवंशी केशरी राजाओं के शासनकाल में किया गया था। यह मंदिर भी 15 वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा किये गये पतन का हिस्सा था जिसे मुस्लिमो द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था।रानीपुर झरियाल योगिनियां, मंदिर की दीवारों की तरह, निम्न गुणवत्ता वाले मोटे बलुआ पत्थर से बनी हैं। विशिष्ट रूप से, सभी योगिनी छवियों को भारतीय शास्त्रीय नृत्य की करण मुद्रा में नृत्य करने के लिए तैयार किया गया है। योगिनियों में से 14 पशु-प्रधान हैं ; उनमें से एक बिल्ली, एक हाथी, एक सांप, एक घोड़ा, एक भैंस, एक मृग, और एक तेंदुए और एक बो के सिर के साथ देवी को देखा जा सकता है। तेंदुए के सिर वाली देवी एक मानव लाश को पकड़े हुए है, जो योगिनी पंथ के शव अनुष्ठान ( शव साधना ) का सूचक है । बाद के योगिनी मंदिरों की तरह प्रभामंडल या परिचर आकृतियों की अनुपस्थिति से पता चलता है कि यह मंदिर अपेक्षाकृत जल्दी बनाया गया था। 19वीं सदी के पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम ने दो और योगिनी छवियों का वर्णन किया। एक, विशिष्ट रूप से, सूर्य-देवता, सूर्य के गुण थे ; उसकी दो भुजाएँ थीं, प्रत्येक हाथ में एक कमल का फूल और सात घोड़े थे। दूसरा (अब केवल घुटनों के बल जीवित बचा है) एक झुके हुए पुरुष पर नृत्य कर रहा था; उसकी 6 या 8 भुजाएँ थीं, और उसे अपना मुँह चौड़ा करते हुए दिखाया गया था; उसके पास एक खोपड़ी का प्याला , एक केतली-ड्रम और एक तलवार थी।
शक्तिपीठ;-
03 FACTS;-
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1-विमला शक्तिपीठ जगन्नाथ मन्दिर मे ;-
02 POINTS;-
1-विमला शक्तिपीठ ओडिशा राज्य के पुरी शहर के जगन्नाथ मन्दिर मे है।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी विमला जगन्नाथ पुरी की अधिष्ठात्री देवी हैं।यह उनका तीर्थ क्षेत्र है। विमला देवी को सती का आदिशक्ति स्वरूप माना जाता है और भगवान विष्णु उन्हें अपनी बहन मानते हैं। जगन्नाथ धाम को धरती का वैकुंठ कहा जाता है और माना जाता है कि श्रीविष्णु यहां कृष्ण रूप में साक्षात विराजमान हैं। विमला मंदिर जगन्नाथ मंदिर की दाईं ओर पवित्र कुंड रोहिणी के बगल में स्थित है। मन्दिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है, और बलुआ पत्थर और लेटराइट से निर्मित है। देवी विमला की मूर्ति के चार हाथ हैं। ऊपरी दाहिने हाथ में माला धारण किए हुए हैं।उनको तरह-तरह के 56 प्रकार के नैवेद्यों का भोग लगाया जाता है।इसी भोग को महाप्रसाद कहते हैं।लेकिन एक रहस्य यह भी है कि खुद को समर्पित महाभोग भगवान जगन्नाथ खुद भी पहले नहीं खा सकते हैं।यह भोग सबसे पहले विमला देवी ग्रहण करती हैं।देवी विमला शक्ति स्वरुपणी है जो जगन्नाथ जी को निवेदन किया गया नैवेद्य सबसे पहले ग्रहण करती है। उसके बाद ही सब लोगो मे प्रसाद महाप्रसाद के रूप मे बंट जाता है।
2-यह शक्तिपीठ बहुत प्राचीन माना जाता है।विमला शक्तिपीठ जगन्नाथ मंदिर के दक्षिण-पश्चिमी कोने में पूर्व की ओर स्थित है। मार्कण्डेय तालाब के पास पुरी में एक सप्त मातृका मंदिर भी मौजूद है।देवी विमला और याजपुर नगर में स्थित विरजा एक ही शक्ति मानी जाती है। विरजा देवी के मन्दिर से विमला देवी के मन्दिर तक का पुरा स्थान विरजमण्डल के रूप मे माना जाता है। मान्यता है कि यहां पर मां सती की नाभि गिरी थी।इस शक्तिपीठ में मां सती को 'विमला' और भगवान शिव को 'जगत' कहा जाता है।देवी सती देवी शक्ति (सद्भाव की देवी) का अवतार हैं।निचला दाहिना हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में है और निचले बाएं हाथ में अमृत भरा एक कलश है।विमला मंदिर में ब्राह्मी, माहेश्वरी, आंद्री, कौमारी, वैष्णवी, वराही और माँ चामुंडा की भी प्रतिमाएं हैं।मंदिर के शिखर को 'रेखा देउला' कहा जाता है, जिसकी ऊंचाई 60 फ़ीट है। इसकी बाहरी दीवार पांच भागों में विभाजित है, और मन्दिर के चार प्रमुख हिस्से हैं - मन्दिर का शिखर (विमानम); सम्मेलन सभामंडप (जगमोहन); पर्व-महोत्सव सभामंडप (नटमंडप) और भोग मंडप (आहुति सभामंडप)।
2-बिराजा (विराजा) देवी उत्कल शक्तिपीठ;-
02 POINTS;-
1-भारत के ओडिशा राज्य के जाजपुर जनपद में स्थित यह शक्तिपीठ मंदिर हिंदुओं का एक प्राचीन तीर्थस्थल है। यहां देवी सती के नाभि या नाड़ी गिरने की मान्यता है । देवी सती के गिरे अंग के स्थान पर निर्मित इस शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी को देवी बिराजा या देवी गिरिजा के नाम से पूजा जाता है, जो देवी दुर्गा की दिव्य मूर्ति के रुप में यहां विराजमान हैं, जबकि देवी सती के साथ विराजमान भगवान शिव या भैरव भगवान जगन्नाथ के रुप में पूजे जाते हैं। यह शक्तिपीठ मंदिर बिराजा देवी मंदिर के नाम से विख्यात् है। मंदिर परिसर अत्यंत विशाल है, जहां बहुत सारे शिवलिंग और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी शोभायमान हैं। 13 वीं शताब्दी में बना बिराजा मंदिर गिरिजा देवी मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध है, जिसके गर्भगृह में शेर पर सवार बिराजा देवी के एक हाथ में भाला तो दूसरे हाथ में महिषासुर दैत्य की पूंछ विद्यमान है। जाजपुर एक प्राचीन हिंदू तीर्थस्थल है, जिसका नाम राजा जजाति केशरी से पड़ा है।
2-जाजपुर को देवी विमला के कारण विमलपुरी भी कहा जाता है। प्रसिद्ध बिराजा देवी मंदिर के कारण जाजपुर बिराज पीठ के नाम से भी प्रसिद्ध है, जो किसी समय ओडिशा राज्य की राजधानी भी रह चुका है। सिदयों से बिराज (विराज) क्षेत्र के रुप में विख्यात् रहा ओडिशा का यह पवित्र शहर ब्रह्मा के पंचक्षेत्रों में से एक माना जाता है, जो प्रसिद्ध दशाश्वमेध नामक यज्ञ की पावन-स्थली भी रहा चुका है। विभिन्न ऐतिहासिक मंदिरों के कारण ही जाजपुर को वैतरणी तीर्थ भी कहा जाता है।यहां के प्रसिद्ध मंदिरों में जगन्नाथ मंदिर, बराह मंदिर, राम मंदिर, सिद्धेश्वर मंदिर, वेलेश्वर मंदिर, किलातेश्वर मंदिर, वरुणेश्वर मंदिर, छत्तिया माता मंदिर और दशाश्वमेध घाट प्रमुख हैं, लेकिन बिराजा देवी मंदिर ही यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर है ।मान्यता है कि बिराजा देवी मंदिर के नवी गया में भक्तों द्वारा अर्पित किया गया चढ़ावा सीधे सागर (बंगाल की खाड़ी ) तक पहुंच जाता है। दुर्गा एवं काली पूजा के अवसर पर यहां उत्सवों की बहार देखते ही बनती है।यह शक्तिपीठ स्थल ओडिशा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर से लगभग 100 किमी. दूर स्थित है, जहां विराजमान मां बिराजा देवी की आराधना से भक्तों को हर तरह की सिद्धी प्राप्त होती है।
कैसे पहुंचे -
भुवनेश्वर (कटक शहर से लगभग 29 किमी. दूर) यहां का निकटतम हवाई-अड्डे है, जो जाजपुर से लगभग 121 किमी. दूर स्थित है। हावड़ा-चेन्नई रेलमार्ग के मध्य जाजपुर नगर स्थित केवनझार रोड यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन है। जाजपुर से लगभग 27 किमी. दूर स्थित इस शक्तिपीठ स्थल के लिए अच्छी सड़क सेवा अपलब्ध है।
3-ओडिशा का तारा तारिणी मंदिर;-
02 POINTS;-
ओडिशा के गंजम जिले के ब्रह्मपुर शहर में स्थित है तारा तारिणी आदि शक्ति पीठ। विभिन्न पौराणिक मान्यताओं के आधार पर माना जाता है कि भारत और उसके आस-पास के क्षेत्रों में 51 अथवा 52 शक्तिपीठ हैं, लेकिन 4 ऐसे स्थान हैं, जिन्हें आदि शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। तारा तारिणी मंदिर उन्हीं आदि शक्ति पीठों में से एक है, जिसे ‘स्तन पीठ’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहाँ माता सती के दोनों स्तन, ऋषिकुल्या नदी के किनारे स्थित कुमारी पहाड़ी पर गिरे थे। तारा तारिणी मंदिर को शाक्त संप्रदाय के उन प्रमुख स्थानों के रूप में जाना जाता है, जहाँ तंत्र विद्या का प्राचीन इतिहास रहा है।
मंदिर का पौराणिक इतिहास
शिव पुराण, देवी भागवत पुराण, कालिका पुराण, अष्टशक्ति और पीठनिर्णय तंत्र में तारा तारिणी समेत 4 आदि शक्तिपीठों का वर्णन किया गया है। महाराज दक्ष के द्वारा अपमान किए जाने के बाद जब माता सती ने अपने प्राण त्याग दिए तो भगवान शिव उनकी मृत देह को लेकर भयंकर क्रोध में आ गए। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती की मृत देह को कई भागों में विभक्त कर दिया। इस दौरान माता सती के दोनों स्तन इसी स्थान पर गिरे, जहाँ स्थापित हुए तारा तारिणी मंदिर। मंदिर में दो जुड़वा देवियों तारा और तारिणी की पूजा होती है। इस मंदिर को लेकर एक पौराणिक कथा प्रचलित है और यह एक विद्वान ब्राह्मण वासु प्रहरजा से जुड़ा है, जो देवी के भक्त थे। कुछ वर्षों तक तारा तारिणी वासु प्रहरजा के साथ रहती थीं, लेकिन एक दिन वह लापता हो जाती हैं। इस बात से परेशान ब्राह्मण प्रहरजा उन्हें काफी ढूढ़ते हैं, लेकिन वह कहीं नहीं मिलतीं, जिससे वह काफी निराश हुए थे। ऐसा माना जाता है कि दोनों बहनें तारा तारिणी पहाड़ी पर चढ़ गई थीं और वहां से गायब हो गईं। कुछ वक्त बाद एक रात दोनों बहनें प्रहरजा के सपने में आईं और उन्हें बताया कि वह आदिशक्ति का अवतार हैं। जिसके बाद वहां मंदिर स्थापित किया गया और लोग उनकी पूजा करने लगे।यह भी माना जाता है कि मंदिर की मुख्य देवियाँ तारा और तारिणी कुछ समय के लिए मानव रूप में अपने भक्तों के बीच रहीं। उन्होंने अपने भक्तों के बीच रहते हुए कई चमत्कार किए, जिससे लोगों को उनकी शक्ति का आभाष हुआ। इसके बाद से कुमारी पहाड़ी पर तारा तारिणी मंदिर अस्तित्व में आया। आज ओडिशा के अंदर लगभग सभी इलाकों में माता तारा और तारिणी को इष्ट देवी के रूप में पूजा जाता है और ओडिशा के निवासियों के घरों में तारा और तारिणी की मूर्तियाँ और तस्वीरें मिल जाएँगी।
मंदिर का निर्माण और आदि शक्तिपीठ क्षेत्र
ब्रह्मपुर शहर के उत्तर में 30 किलोमीटर (किमी) की दूरी पर स्थित तारा तारिणी आदि शक्तिपीठ में दो अत्यंत प्राचीन पत्थर की प्रतिमाएँ हैं, जो देवी तारा और तारिणी का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन प्रतिमाओं को स्वर्ण और चाँदी के आभूषणों से सुसज्जित किया गया है। इसके अलावा इन दो प्रतिमाओं के बीच में पीतल के दो मुख स्थित हैं, जिन्हें जीवंत प्रतिमा के रूप में जाना जाता है। तारा तारिणी आदि शक्तिपीठ शक्ति तंत्र का प्रमुख केंद्र माना जाता है। यहाँ तक कि इस स्थान पर बौद्धों के द्वारा तांत्रिक प्रक्रियाओं को सम्पन्न करने के प्रमाण भी मिलते हैं।तारा तारिणी मंदिर का निर्माण कलिंग वास्तुकला के अनुसार हुआ है। कुमारी पहाड़ी के ऊपर स्थित यह मंदिर पूर्णतः पत्थरों का उपयोग करके बनाया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कलिंग राजाओं द्वारा प्राचीन काल में कराया गया। मंदिर जिस पहाड़ी पर स्थित है, उसकी ऊँचाई 708 फुट है, जहाँ यह आदि शक्तिपीठ क्षेत्र लगभग 180 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है।कुमारी पहाड़ी की चोटी तक पहुँचने के लिए 999 सीढ़ियों की चढ़ाई है। इसके अलावा एक पक्की रोड भी पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर तक जाती है। हालाँकि सभी पर्वतीय तीर्थ स्थानों की तरह भक्त यहाँ भी सीढ़ियाँ चढ़कर ही जाना पसंद करते हैं।वैसे तो देवी स्थान होने के करण यहाँ का प्रमुख त्यौहार नवरात्रि है, जो साल में दो बार यहाँ धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन यहाँ का प्रमुख त्यौहार चैत्र पर्व या चैत्र यात्रा को भी माना जाता है। यह त्यौहार चैत्र महीने के प्रत्येक मंगलवार को मनाया जाता है। इसके अलावा हिन्दू नव वर्ष की संक्रांति को भी इस मंदिर में त्यौहार की तरह ही मनाया जाता है।
कैसे पहुँचें?
तारा तारिणी आदि शक्तिपीठ का निकटतम हवाईअड्डा भुवनेश्वर में स्थित है, जो मंदिर क्षेत्र से लगभग 176 किमी की दूरी पर स्थित है। इसके अलावा मंदिर का निकटतम रेलवे स्टेशन ब्रह्मपुर है, जो यहाँ से लगभग 40 किमी की दूरी पर स्थित है।
ब्रह्मपुर, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से लगभग 170 किमी की दूरी पर है। सड़क मार्ग से भी मंदिर तक पहुँचना काफी आसान है। ब्रह्मपुर के लिए ओडिशा के कई बड़े शहरों से यातायात के सभी प्रकार के साधनों का संचालन होता है। ब्रह्मपुर से स्थानीय परिवहन के साधनों का उपयोग करके तारा तारिणी मंदिर पहुँचा जा सकता है।
...SHIVOHAM...
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