क्या मूलबंध कामवासना से मुक्ति की सफलतम विधि है?क्या गुरुत्वाकर्षण के बाहर होने की अनुभूति ध्यान
मूलाधार कैसे बंद कर सकते है?-
09 FACTS;- 1-जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। लेकिन साधारणत: तुम्हारी जीवन-ऊर्जा नीचे की और प्रवाहित हो रही है। इसलिए तुम्हारी सब जीवन ऊर्जा अनंत वासना बन जाती है। काम वासना तुम्हारा निम्नतम चक्र है। तुम्हारी ऊर्जा नीचे गिर जाती है और सारी ऊर्जा काम केन्द्र पर इकट्ठी हो जाती है। इसलिए तुम्हारी सारी शक्ति कामवासना बन जाती है। एक छोटा सा प्रयोग किया जा सकता है। जब भी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो, शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको अथार्त Exhale करो।श्वास को Inhale/भीतर मत लो क्योंकि भीतर जाती श्वास काम ऊर्जा को नीचे ले जाती है। जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारा पेट और नाभि वैक्यूम हो जाती है, शून्य हो जाती है। और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है।
2-शून्य खींचता है, क्योंकि प्रकृति शून्य को बरदाश्त नहीं करती, शून्य को भरती है। तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है ।जब तुम पहली दफ़ा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगें, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया। वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ जाए, तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रफुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का रूपांतरण शुरू हुआ, तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण, ज्यादा सक्रिय, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे ;जैसे गहरी नींद के बाद उठे हो। इसे अगर तुम निरंतर करते रहे, सतत साधना बना ली ;तो एक क्षण में ऊर्जा ऊपर की तरफ स्फुरण कर जाती है और इसका किसी को पता नहीं चलता।
3-तुम इसे बाजार में खड़े हुए,दफ़तर में काम करते और दुकान पर बैठे हुए भी कर सकते हो। कुर्सी पर बैठे हुए, कब तुमने चुपचाप अपने पेट को को भीतर खींच लिया;किसी को पता नहीं चलता।अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ महीनों के बाद पाएगा, कामवासना तिरोहित हो गई। तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का सुगमंतम मार्ग हो सकता है। फिर और कठिन मार्ग हैं, पर उनकी कोई जरूरत नहीं है। बस, तुम्हे एक बात सीखनी है कि ऊर्जा कैसे नाभि तक जाए ।जब भी कामवासना उठे, तुम ऊर्जा को नाभि में इक्ट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे नाभि में ऊर्जा बढ़ेगी ;वह अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी।
4-जैसे -जैसे बाल्टी में पानी बढ़ता जाता है, तो वैसे -वैसे पानी की सतह ऊपर उठती जाती है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, तो ऊर्जा इकट्ठी होती जाएगी, घड़ा अपने आप भरता जाएगा। अगर मूलाधार बंद हो जाता है तो एक दिन अचानक पाओगें कि धीरे-धीरे ऊर्जा नाभि के ऊपर आ रही है। जिस दिन तुम्हारी ऊर्जा ह्रदय चक्र पर आएगी , तुम पाओगें कि तुम प्रेम से भर गये हो। दूसरे लोग भी अनुभव करेंगे कि तुममें कुछ बदल गया है। तुम अब वह नहीं रहे हो, तुम किसी और तरंग पर बैठ गये हो। तुम्हारे साथ कोई और लहर भी आती है—कि उदास प्रसन्न हो जाते है, कि दुःखी थोड़ी देर को दुःख भूल जाते है, कि अशांत शांत हो जाते है, कि तुम जिसे छू देते हो, उस पर ही एक छोटी सी प्रेम की वर्षा हो जाती है। लेकिन, ह्रदय में ऊर्जा आएगी, तभी यह होगा।
5-ऊर्जा जब बढ़ेगी, ह्रदय से कंठ में आएगी, तब तुम्हारी वाणी में माधुर्य आ जाएगा , एक संगीत, एक सौंदर्य आ जाएगा। तुम साधारण से शब्द बोलोगे और उन शब्दों में काव्य होगा। तुम दो शब्द किसी से कह दोगे और उसे तृप्त कर दोगे। तुम चुप भी रहोगे, तो तुम्हारे मौन में भी संदेश छिप जाएंगे। तुम न भी बोलोगे तो तुम्हारा अस्तित्व बोलेगा। ऊर्जा कंठ पर आ गई। ऊर्जा ऊपर उठती जाती है। एक घड़ी आती है कि तुम्हारे नेत्र पर ऊर्जा का आविर्भाव होता है। तब तुम्हे पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होता है जबकि तुम अंधे नहीं हो । पहले तुम अंधे थे क्योंकि उसके पहले तुम्हें आकार दिखाई पड़ते है, निराकार नहीं दिखाई पड़ता; और वही सत्य है।निराकार तो सब आकारों में छिपा है। आकार तो मूलाधार में बंधी हुई ऊर्जा के कारण दिखाई पड़ते है अन्यथा कोई आकार नहीं है। मूलाधार अंधा चक्र है। इसलिए तो कामवासना को अंधी कहते है। उसके पास आँख बिलकुल नहीं है।
6-वास्तव में, आँख तो तब खुलती है जब तीसरे नेत्र पर ऊर्जा आकर प्रकट होती है।जब तीसरे नेत्र के किनारे पर तुम्हारी ऊर्जा की लहरे आकर टकराने लगती है, तब पहली बार तुम्हारे भीतर दर्शन की क्षमता जागती है। दर्शन की क्षमता, और विचार की क्षमता दोनों अलग है। दर्शन की क्षमता देखने की क्षमता है .. साक्षात्कार है। जब सद्गुरु कुछ कहते है, तो देख कर कहते है। वह उनका अपना अनुभव है। अनानुभूत शब्दों का अर्थ नहीं होता है ..केवल अनुभूत शब्दों में सार्थकता होती है। ऊर्जा जब तीसरी आँख में प्रवेश करती है तो अनुभव शुरू होता है, और ऐसे व्यक्ति के वचनों में तर्क का नहीं ,बल्कि सत्य का बल होता है। जिसने जाना है, जिसने परमात्मा की अनुभूति की है, जो परमात्मा के साथ एक हो गया है.. ऐसे व्यक्ति के वचनों में एक प्रामाणिकता होती है,जो भीतर से आती है। ऐसे व्यक्ति के वचन को ही हम शास्त्र कहते है।
7-फिर ऊर्जा और ऊपर जाती है। सहस्त्रार को छूती है। पहला सबसे निम्न केंद्र मूलाधार चक्र है, मूलबंध, और अंतिम चक्र है, सहस्त्रार। क्योंकि वह ऐसा है, जैसे सहस्त्र पंखुडि़यों वाला कमल। बड़ा सुंदर है, और जब खिलता है तो भीतर ऐसी ही प्रतीति होती है, जैसे पूरा व्यक्तित्व सहस्त्र पंखूडि़यों वाला कमल हो गया है। जब ऊर्जा सहस्त्र से टकराती है , तो उसकी पंखुडि़यां खिलनी शुरू हो जाती है। सहस्त्रार के खिलते ही व्यक्तित्व से आनंद का झरना बहने लगता है। मीरा उसी क्षण नाचने लगती है। उसी क्षण चैतन्य महाप्रभु उन्मुक्त हो नाच उठते है। चेतना तो प्रसन्न होती ही है,शरीर का रोआं-रोआं भी आन्ंदित हो उठता ।
8-जब भी मन को कामवासना पकड़े तो आत्मग्लानि न महसूस करते हुए इस प्रयोग को करें।उर्जा यदि काम केन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है! तो हम बाहर जाती उर्जा इस उर्जा का, जो उठ चुकी है, भीतर के लिए उपयोग करें अथार्त रूपांतरण करे। यदि हम इसका उपयोग नहीं करेंगे तो यह अपना काम करेगी अथार्त उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी ..'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'। कामवासना के पकड़ने पर, मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं।और सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम कमरे में बैठे छत को देखतेहैं।आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है।यदि हमने मूत्र द्वार
और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लिया जिसे मूलबंध लगाना कहते हैं।और सक्रिय ध्यान करें तो यह 'अपने' से लगता है।आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं और देखते रहते हैं... तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र (मूलाधार) पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर, यानी भोग से मोक्ष की ओर बढ़ने लगती है।
9- इस प्रयोग को हम एक महत्वपूर्ण 'समय' पर भी कर सकते हैं।जब हम रात को सोते हैं, तो हमारी श्वास गहरी होती है।यानी नाभि के नीचे काम केन्द्र को छूती है और सुबह तक कामकेन्द्र पर बहुत सारी उर्जा इकठ्ठी हो जाती है।बिस्तर से उठने के बाद
यह उर्जा मूत्रद्वार से बाहर चली जाती है। तो जैसे ही सुबह नींद से बाहर आएं, सोये रहें और आँखें बंद कर इस प्रयोग को शुरू करें।मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लें और फिर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें।हम यहां एक चमत्कार घटित होते देखेंगे! कुछ ही क्षणों में उर्जा रीढ़ के माध्यम से कामकेन्द्र से उपर की ओर बहनी शुरू हो जायेगी और कामकेन्द्र शिथिल हो जायेगा।इस तरह से हम बाहर जाती उर्जा को भीतर की ओर दिशा दे देंगे, तो ध्यान के लिए हमें अलग से समय और उर्जा की जरूरत नहीं रह जायेगी ।कहा जाता हैं कि बूंद- बूंद से ही घड़ा भरता है... लेकिन घड़े में यदि छेद हो तो नहीं भरेगा! इस बाहर जाती उर्जा को भीतर लौटाना ही घड़े का छेद बंद करना है।भीतर लौटकर यह उर्जा हमारे साक्षी की ओर बहने लगती है, तथा साक्षी को और भी प्रगाढ़ करती है।यह छोटे - छोटे प्रयोग यदि हम अपनाते हैं, तो ध्यान का हमारे जीवन में प्रवेश आसान हो जाएगा।
क्या गुरुत्वाकर्षण के बाहर तुम्हारी उम्र बढ़नी रूक जाती है?
02 FACTS;-
1-आइंस्टीन ने खोज की थी कि गुरुत्वाकर्षण के बाहर तुम्हारी उम्र बढ़नी रूक जाती है।यदि मनुष्य दूर के किसी ग्रह
पर जाए और उसे वहां तक पहुंचने में तीस साल लगे और फिर तीस साल में नीचे आये, और जब उसने पृथ्वी को छोड़ा था उसकी उम्र तीस साल थी, तब यदि तुम सोचो कि जब वह पुन: आए तब वह नब्बे साल का होगा, तो तुम गलत हो, वह अब भी तीस साल का ही होगा।उसके सभी दोस्त और संगी साथी कब्र में जा चुके होंगे।शायद एक या दो अब भी जिंदा हो परंतु उनका एक पैर कब्र में होगा।परंतु वह उतना ही जवान होगा जितना तब था जब उसने जमीन को छोड़ा था।
2-जिस क्षण तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर जाते हो, उम्र की प्रक्रिया रूक जाती है।तुम्हारे शरीर पर एक निश्चित दबाव के कारण उम्र बढ़ रही है।जमीन लगातार तुम्हें खींच रही है और तुम इस खिंचाव से लड़ रहे हो।यदि आदमी दूर के किसी ग्रह
पर जाए और उसे वहां तक पहुंचने में तीस साल लगे और फिर तीस साल में नीचेआये, और जब उसने पृथ्वी को छोड़ा था उसकी उम्र तीस साल थी, तब यदि तुम सोचो कि जब वह पुन: आए तब वह नब्बे साल का होगा, तो तुम गलत हो, वह अब भी
तीस साल का ही होगा।तुम्हारी ऊर्जा इसे खींच रही है और तुम इस खिंचाव से लड़ रहे हो।तुम्हारी ऊर्जा इस खिंचाव से बाधित होती है ,व्यय होती है।परंतु एक बार जब तुम इस जमीन के गुरुत्वाकर्षण से बाहर हो जाते हो तुम वैसे ही बने रहते हो जैसे हो।तुम अपने समसामयिक लोगों को नहीं पाओगे, तुम वह फैशन नहीं पाओगे जो तुमने छोड़ी थी।तुम पाओगे कि साठ साल बीत गये।
क्या गुरुत्वाकर्षण के बाहर होने की अनुभूति ध्यान में भी पाई जा सकती है?-
02 FACTS;-
आप किसी भी साधक को देख ले वह अपनी उम्र से कम लगेगा। यही राज है आइंस्टीन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का। परंतु गुरुत्वाकर्षण के बाहर होने की अनुभूति ध्यान में भी पाई जा सकती है।ऐसा होता है और यह कई लोगों को भटका देती है। अपनी बंद आंखों के साथ जब तुम पूरी तरह से मौन हो तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो। परंतु मात्र तुम्हारा मौन गुरुत्वाकर्षण
के बाहर है, तुम्हारा शरीर नहीं। परंतु उस क्षण में जब तुम अपने मौन से एकाकार होते हो, तो महसूस करते हो कि तुम ऊपर उठ रहे हो। बिना आंखें खोले तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा शरीर मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है।यह एक सच्चा अनुभव है ;परंतु अभी भी तुम शरीर के साथ एकाकार हो। तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा शरीर उठ रहा है।लेकिन जब आंख खोलोगे तो पाओगे कि तुम उसी आसन में जमीन पर बैठे हो।
2-ध्यान एक होश भी है, और हमें जमीन की गुरुत्वाकषर्ण हर समय अपनी और खींचे जाता है। यह खिंचाव ही शरीर की उम्र तय करता और झुकाता जाता है। इसका कारण हमारा शरीर के प्रति बेहोशी है और ध्यान हमें सजग करता है। ध्यान हमारी सोई हुई तंद्रा को तोड़ता है। हम दिन भर जो काम करते हैं, बेहोशी में ही करते हैं। अगर उनके प्रति हम सजग हो जाएं तो जो
हमारी ऊर्जा कार्य की गति में बरबाद होती है;वह नहीं होगी। उल्टा हम अधिक ऊर्जावान महसूस करेंगे। जब हम होश में भर कर चलते हैं तो हमारे कदम जमीन पर तो पड़ते हैं ; परन्तु जमीन उन्हें खींच नहीं पाती।केवल हमें लगता है कि हवा में उड़ रहे हैं। तो जैसे-जैसे साधक का होश बढ़ता जाएगा ;उसकी कार्य क्षमता बढ़ती जाएगी और थकावट भी महसूस नहीं होगी।
उर्जा का साधना में उपयोग करने का क्या उपाय है?-
07 FACTS;-
1-बंध का शाब्दिक अर्थ है- 'गांठ', बंधन या ताला। इसके अभ्यास से प्राणों को शरीर के किसी एक भाग पर बांधा जाता है। इससे योगी प्राणों को नियंत्रित कर सफलता पूर्वक कुंडलिनी जाग्रत करता है।प्राण ऊर्जा या Vital Energy Force को सही दिशा में केंद्रित करने की यौगिक तकनीक है 'बंध'। बंध से आप ऐसे जगह पर ऊर्जा को संचारित कर सकते है जहां इसकी आवश्यकता सबसे ज्यादा है। ऐसे में Yoga Energy Lock का इस्तेमाल आप योग चिकित्सा के महत्वपूर्ण टूल्स के तौर पे भी इस्तेमाल कर सकते हैं।मूलत: पाँच बंध है- 1.मूलबंध, 2.उड्डीयान बंध, 3.जालंधर बंध, 4.बंधत्रय और 5.महाबंध।।महाबंध मूलबंध, उड्डियानबंध और जालंधर बंध की सम्मिलित Yoga शक्ति है ।
2-क्या है मूलबंध ?-
02 POINTS
1-पहली विधि.. गुदाद्वार को सर्वथा बंद कर देने को मूलबंध कहा जाता है।अश्विनी मुद्रा लगाकर जोर से श्वास को बाहर फेंको अथार्त Exhale करो।श्वास को Inhale/भीतर मत लो।अपान वायु को ऊपर खींच कर रखना,मूलबंध कहलाता है।जैसे अश्व (घोड़ा) लीध करने के बाद अपने गुदाद्वार को बार-बार सिकोड़ता ढीला करता है, उसी प्रकार गुदाद्वार को सिकोड़ना और फैलाने की क्रिया को ही अश्विनी मुद्रा कहते हैं। घोड़े में इतनी शक्ति और फुर्ती का रहस्य यही मुद्रा है।
2-दूसरी विधि ..सिद्धासन में बैठकर, अपने गुदा को एड़ी से दबाकर योनि को बारंबार संकुचित करके अपान वायु को ऊपर खींच कर रखना,मूलबंध कहलाता है। ऐसा करने से अपान वायु ऊपर की तरफ चढ़ता है। हमारेनाभि मंडल से नीचे की तरफ अपान वायु होता है औरनाभि मंडल से ऊपर प्राणवायु होता है अपान और प्राण का मिलन ही योग का अंतिम लक्ष्य कहा जा सकता है।मूलबंध से अपान वायु ऊपर की तरफ चढ़ता है और जालंधर बंध से प्राणवायु नीचे की तरफ प्रभावित होता है जहां दोनों का मिलन होता है और कुंडलिनी जागृत हो जाती है।
3-क्या है उड्डीयान बंध ?-
उड्डीयान बंध नाभि के ऊपर और नीचे वाले हिस्से को पीछे की तरफ खींचने से लगता है। सभी बंधो में उड्डीयान श्रेष्ठ है।
मूलबंध और उड्डीयान बंद एक साथ लगाने से मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र अति शीघ्र जागृत हो जाते हैं और प्राणवायु मस्तिष्क की तरफ उठती है जिससे साधक मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।
4-क्या है जालंधर बंध ?-
कंठ को संकुचित कर हृदय में चिबुक (थोड़ी) को दृढ़ता पूर्वक लगावे यह जालंधर नामक बंध बुढ़ापा और मृत्यु को दूर
करता है।कन्ठ संबंधी रोग समूह को नष्ट करने वाला यह जालंधर बंध नाडी समूह को बांधता है और सहस्रार चक्र से गिरने वाले अमृत को नाभि में गिरकर भस्म नहीं होने देता।
5-क्या है महाबंध ?-
इन तीनों बंध का एक साथ लगाना, पहले जालंधर बंध फिर उड्डीयान फिर मूलबंध को ही त्रिबंध कहा गया है।
सर्वप्रथम अपना संपूर्ण स्वास निकालकर जालंधर बंध लगाएं और उसके बाद उड्डीयान बंध लगाएं और उसके बाद मूलबंध लगाकर स्थिर हो जाएं यही त्रिबंध है। इसको महाबंध भी बोला जाता है। इस समय में ध्यान त्रिकुटी पर लगाकर रखें। इस संपूर्ण स्थिति को महाबंध कहा जाता है।
6-क्या है बंध की विधि?-
07 POINTS;-
1-गहरा पूरक करें और रेचक पूरी तरह मुख से करें। > श्वास बाहर ही रखें। > हाथों को घुटनों पर रखें, कंधों को ऊंचा करें और पीठ को सीधा रखते हुए धड़ को थोड़ा-सा आगे करें। > जालंधर बन्ध करें और विशुद्धि चक्र पर ध्यान दें। > उड्डियान बन्ध करें और मणिपुर चक्र पर ध्यान दें। > अंत में मूलबन्ध में आ जायें और मूलाधार चक्र में ध्यान दें। इसके बाद गुदाद्वार को पूरी तरह से सिकोड़ लें। > तीन बन्धों को बनाये रखें, जितनी देर तक श्वास आसानी से रोकी जा सके, इस स्थिति में बने रहें। > बन्धों को उसी क्रम से खोलें जिस क्रम में उनका प्रयोग किया गया था। > गहरा पूरक करें और प्रारम्भिक स्थिति में लौट आयें। इस अभ्यास को 4 से 5 बार करें।
बाएँ पाँव की एड़ी से सीवनी (गुदाद्वार) को दबाकर, फिर दाएँ पाँव को बाएँ पाँव की जाँघ पर रखकर सिद्धासन में बैठें। इसके बाद नीचे की वायु को ऊपर की ओर (गुदा को संकुचित करते हुए) खींचने का अभ्यास करें। सिद्धासन में एड़ी के द्वारा ही यह काम लिया जाता है। सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियाँ उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए। अब साँस को रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से साँस को बाहर छोड़ दें।
...SHIVOHAM...
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