क्यों विशेष महत्व है मां कामाख्या शक्तिपीठ का? PART-01
22 June अम्बुवाची पर्व .... 'कामाख्याये वरदे देवी नीलपवर्त वासिनी! त्व देवी जगत माता योनिमुद्रे नमोस्तुते!!''
मां कामाख्या शक्तिपीठ ;-
09 FACTS;-
1-भारत देश रहस्यों से भरा पड़ा है। देश में ऐसे कई रहस्यमयी मंदिर है जिनके आगे विज्ञान तक फेल हो गया है।मां कामाख्या देवी कुल 51 शक्ति पीठों में सबसे शक्तिशाली हैं, जो भारत के असम की राजधानी गुवाहाटी के पास दिसपुर में कमरू नाम के स्थान पर सदियों से स्थित है। इसका विशेष महत्व शक्ति की देवी सती मंदिर के साथ-साथ तंत्र-मंत्र सिद्धि के लिए भी है। इसके तांत्रिक महत्व के कारण यह प्राचीनकाल से एक अद्भुत तीर्थ बना हुआ है।यहां भगवती की योनि-कुंड के प्रत्येक वर्ष जून माह में तीन दिनों तक अंबूवाची योग पर्व मनाए जाने की परंपरा है।वास्तव में यह सती के राजस्वला पर्व है, जिसमें विश्व के तांत्रिकों, साधु-संतों, अघोरियों और मंत्र साधकों का जमावड़ा लगता है। ऐसी मान्यता है कि इन तीन दिनों में योनि-कुंड से रक्त प्रवाहित होता है।
2-कामाख्या शक्तिपीठ गुवाहाटी (असम) के पश्चिम में 8 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। माता के सभी शक्तिपीठों में से कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम कहा जाता है। माता सती के प्रति भगवान शिव का मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51 भाग किए थे।पौराणिक कथा में बताया गया है कि माता सती के पिता राजा दक्ष ने एक यज्ञ किया। इस यज्ञ में देवी सती के पति भगवान शिव को नहीं बुलाया गया। यह बात सती को बुरी लग गई और यज्ञ में आने पर वह अपने पति शिव का अपमान सह नहीं सकीं। इसके चलते क्रोधित होकर अग्निकुंड में कूदकर उन्होंने आत्मदाह कर लिया। जिसके बाद शिव जी ने सती का शव उठा कर भयंकर तांडव किया, जिससे चारों ओर हाहाकार मच उठा। इस पर भगवान विष्णु ने शिव के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के अनेक टुकड़े कर दिए।
3-जिस-जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वे शक्तिपीठ कहलाए। कहा जाता है कि यहां पर माता सती का गुह्वा मतलब योनि भाग गिरा था, उसी से कामाख्या महापीठ की उत्पत्ति हुई। कहा जाता है यहां देवी का योनि भाग होने की वजह से यहां माता रजस्वला होती हैं। इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है, यहां पर देवी के योनि भाग की ही पूजा की जाती है।
मंदिर में एक कुंड सा है, जो हमेशा फूलों से ढका रहता है।यहां पर मंदिर में चट्टान के बीच बनी आकृति देवी की योनि को दर्शाता है। जिसके पास में एक झरना मौजूद है। योनि भाग से जल धार हल्की बहती रहती है।इस जल का पान करने से हर प्रकार के रोग एवं बीमारी दूर होती है।यह पीठ माता के सभी पीठों में से महापीठ माना जाता है।कामाख्या मंदिर के मुख्य प्रांगण में मां कामाख्या के साथ कुछ अन्य देवियों के भी मंदिर हैं। इसमें काली, तारा, सोदशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमवती, बगलामुखी, मतंगी और कमला देवी के मंदिर शामिल हैं। ऐसा माना जाता है कि इन सभी देवियों के पास महाविद्या है। यही कारण है तांत्रिक यहां आकर अनुष्ठान करके हैं और सिद्धी प्राप्त करते हैं।
4-इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था।
इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था। जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं।और यही वक्त होता है जब विश्व के सबसे प्राचीनतम तंत्रमठ(चीनाचारी)आगम मठ के विशिष्ट तांत्रिक अपनी साधना करने तिब्बत से यहाँ आते है इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं।
5-यहां पर मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है, जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं।इस वस्त्र को अम्बुबाची कहते है ;इसलिए मेले का नाम भी अम्बुबाची है।इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं।
6-लुप्त हो चुका है मूल मंदिर..
04 POINTS;-
`1-कथा के अनुसार, एक समय पर नरक नाम का एक असुर था। नरक ने कामाख्या देवी के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा।देवी उससे विवाह नहीं करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने नरक के सामने एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि अगर नरक एक रात में ही इस जगह पर मार्ग, घाट, मंदिर आदि सब बनवा दे, तो देवी उससे विवाह कर लेंगी। नरक ने शर्त पूरी करने के लिए काम शुरू कर दिया।
2-काम पूरा होता देख देवी ने रात खत्म होने से पहले ही मुर्गे के द्वारा सुबह होने की सूचना दिलवा दी और विवाह नहीं हो पाया। आज भी पर्वत के नीचे से ऊपर जाने वाले मार्ग को नरकासुर मार्ग के नाम से जाना जाता है और जिस मंदिर में माता की मूर्ति स्थापित है, उसे कामदेव मंदिर कहा जाता है। मंदिर के संबंध में कहा जाता है कि नरकासुर के अत्याचारों से कामाख्या के दर्शन में कई परेशानियां उत्पन्न होने लगी थीं, जिस बात से क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ठ ने इस जगह को श्राप दे दिया।
कहा जाता है कि श्राप के कारण समय के साथ कामाख्या पीठ लुप्त हो गया।
3- मान्यताओं के अनुसार, 16वीं शताब्दी में कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे, जिसमें कूचविहार रियासत के राजा विश्वसिंह जीत गए। युद्ध में विश्व सिंह के भाई खो गए थे और अपने भाई को ढूंढने के लिए वे घूमते -घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए।
4-वहां उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी। उस महिला ने राजा को इस जगह के महत्व और यहां कामाख्या पीठ होने के बारे में बताया। यह बात जानकर राजा ने इस जगह की खुदाई शुरु करवाई। खुदाई करने पर कामदेव का बनवाए हुए मूल मंदिर का निचला हिस्सा बाहर निकला। राजा ने उसी मंदिर के ऊपर नया मंदिर बनवाया।कहा जाता है कि 1564 में
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिर को तोड़ दिया था। जिसे अगले साल राजा विश्वसिंह के पुत्र नरनारायण ने फिर से बनवाया।
7-भैरव के दर्शन के बिना अधूरी है कामाख्या यात्रा.. कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है, उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं।यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में है। कहा जाता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है।कामाख्या मंदिर की यात्रा को पूरा करने के लिए और अपनी सारी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए कामाख्या देवी के बाद उमानंद भैरव के दर्शन करना अनिर्वाय है।कामाख्या मंदिर तंत्र विद्या का सबसे बढ़ा केंद्र माना जाता है और हर साल जून महीने में यहां पर अंबुवासी मेला लगता है। देश के हर कोने से साधु-संत और तांत्रिक यहां पर इकट्ठे होते हैं और तंत्र साधना करते हैं। माना जाता है कि इस दौरान मां के रजस्वला होने का पर्व मनाया जाता है और इस समय ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। मंदिर से काफी रहस्य जुड़े हुए है। यहा हर वर्ष अपनी मनोकामना लेकर लाखों की तादात में श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते है। काले जादू एवं श्राप से मुक्ति भी यही पर मिलती है।
8-कामाख्या देवी तांत्रिको के लिए सबसे महत्वपुर्ण देवी है। इसलिए यहां तांत्रिक अपनी सिद्धियां प्राप्त करने आते है। तांत्रिकों के लिए मां काली और मां त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद मां कामाख्या सबसे महत्वपूर्ण देवी है जो तांत्रिको को सिद्धियां प्रदान करने में सहायक है। जब तक व्यक्ति पूरी तरह तांत्रिक नहीं बनता तब तक वो मां कामाख्या के सामने मत्था नहीं टेकता है... नहीं तो देवी नाराज हो जाती है। यहां का तांत्रिक मेला अपने आप में रहस्यमय है। इसलिए कामाख्या देवी मंदिर को सबसे शक्तिशाली मंदिर माना गया है।ऐसा कहा जाता है कि प्यार के देवता कामदेव एक अभिशाप के कारण अपनी शक्ति और सत्ता खो देते है। यह वह जगह है, जहां पर भगवान को उनका प्यार और शक्ति वापस मिली और यहां पर कामाख्या देवी को स्थापित किया गया और उनकी पूजा की जाने लगी।अन्य के अनुसार यह वह जगह है जहां पर शिव और सती का मिलन हुआ था, इस जगह को कामाख्या के नाम से जाना जाने लगा। कामा का अर्थ संस्कृत में प्यार करना माना जाता है।
9-संक्षेप में मां कामाख्या मंदिर की 14 खास बातें;-
1. गर्भ गृह में देवी की कोई तस्वीर या मूर्ति नहीं।
2. तांत्रिक सिद्धि के लिए है ये बेहतर स्थान।
3. देवी के 51 शक्तिपीठ में है ये शामिल।
4. गर्भगृह में सिर्फ योनि के आकार का है पत्थर।
5. मां भगवती के योनि रूप का है ये अनूठा मंदिर।
6. दुनियाभर के तांत्रिकों का है ये पूज्य स्थान।
7. देवी की महामुद्रा कहलाता है योनि रूप।
8. पूरे ब्रह्मांड का माना जाता है केंद्र बिंदु।
9. हर माह तीन दिनों के लिए बंद होता है मंदिर ।
10. मान्यता है कि कामाख्या देवी माता सती की योनि यहां गिरी थी।
11. दस महाविद्या, काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला की पूजा भी कामाख्या मंदिर परिसर में की जाती है।
12. यहां बलि चढ़ाने की भी प्रथा है. इसके लिए मछली, बकरी, कबूतर और भैंसों के साथ ही लौकी, कद्दू जैसे फल वाली सब्जियों की बलि भी दी जाती है।
13. पूस के महीने में यहां भगवान कामेश्वर और देवी कामेश्वरी के बीच प्रतीकात्मक शादी के रूप में पूजा की जाती है।
14. मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे एक गुफा में स्थित है।
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गुवाहाटी के पश्चिमी भाग नीलांचल पहाड़ी पर स्थित 10 महाविद्या आदि दर्शनीय स्थल ;-
1-माता कामाख्या मंदिर ;-
05 FACTS;-
1-यह मंदिर समुद्र के स्तर से 800 फीट ऊपर गोवहाटी के पश्चिमी हिस्से में बनाया गया है।यह एक ऐसा मंदिर है, जहां पर
किसी देवी की मूर्ति नहीं है। हालांकि मंदिर के गुफा के कोने में जिस जगह पूजा होती है, वह देवी की योनि के तराशे छवि की
ही होती है। यह मंदिर 16 वीं सदी में नष्ट हो गया था। बाद में 17 वीं सदी में राजा नर नारायण ने इसे दोबारा बनवाया था, इस मंदिर को विशाल मान्यता प्राप्त है।मंदिर में तीन प्रमुख कक्ष होते हैं, जो कि पश्चिमी चैंबर का एक आयताकार और समकोण के आकार में है। लेकिन इसकी पूजा तीर्थयात्री द्वारा नहीं की जाती है।मध्य या दूसरा कक्ष वर्ग के आकार का है, और इसमें माता की एक छोटी सी मूर्ति भी है, जिसे बाद में जोड़ा गया था।यहाँ मान्यता है, कि जो भी बाहर से आये भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है । " या देवी सर्व भूतेषू मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।
2-इस मंदिर के दूसरे कक्ष को गर्भगृह के नाम से भी जाना जाता है। यह एक तरह की गुफा है, जहां पर कोई छवि नहीं होती, लेकिन एक प्राकृतिक भूमिगत वसंत होता है, जो कि योनि के आकार का छिद्र में प्रवाह होता है।देवी कामाख्या को ब्लीडिंग देवी के नाम से भी जाना जाता है। भक्तों का मानना है कि आषाढ़ के महीने में तीन दिनों के लिए मंदिर को बंद कर दिया जाता है, क्योंकि इन दिनों देवी माहवारी से ग्रस्त होती हैं। इसके बाद चौथे दिन मंदिर खुलता है और मंदिर के बाहर अंबुबच्ची मेला लगाया जाता है।मंदिर के गेट नंबर एक के ठीक सामने सौभाग्य कुंड है। कहा जाता है कि इसे इंद्र आदि देवताओं ने बनवाया है। कुंड दो भागों में विभक्त है। एक हिस्से का जल भक्तगण इस्तेमाल करते हैं, दूसरे का पानी मंदिर की सफाई और देवी पिंड के स्नान आदि में उपयाेग होता है। एक कुंड का जल शिवरात्रि को खाली किया जाता है और पानी के नीचे स्थित शिवलिंग की पूजा होती है। श्रुति है कि मंदिर निर्माण के लिए कामदेव ने स्वयं विश्वकर्मा को यहां बुलाया था। मंदिर के गेट नं.1 के बायीं ओर हाथी पर विराजमान विश्वकर्मा की प्रतिमा भी है। मंदिर की दीवारों पर 64 योगिनियों और 52 भैरवों की प्रतिमाएं थीं, जिनमें कुछ ही बची हैं।
3-मंदिर में सुबह पांच बजे पूजा प्रारंभ होती है। प्रक्रिया दो घंटे तक चलती है। फिर पुजारी बाहर निकलते है और गर्भ गृह के ठीक सामने बलि मंडप की ओर रुख करते है, जहां बलि प्रदान की जाती है। बिना बलि विधान संपन्न किए मंदिर का पट नहीं खुलता। गर्भगृह के सामने 12 खंभों के बीच देवी की चलंता मूर्ति (उत्सव मूर्ति) है। इसके उत्तर वृषवाहन, पंच-वक्त्र, दशभुज कामेश्वर महादेव हैं। दक्षिण में कमलासना देवी कामेश्वरी विराजती हैं। इनके दर्शन के बाद महामुद्रा दर्शन होता है। देवी की योनि मुद्रा पीठ, दस सीढ़ी नीचे एक अंधेरी गुफा में है। यहां हमेशा दीपक जलता रहता है, आने और जाने का अलग-अलग रास्ता है। यह दुनिया की इकलौती पीठ है जहां दसों महाविद्या- भुवनेश्वरी, बगला, छिन्नमस्तिका, काली, तारा, मातंगी, कमला, सरस्वती, धूमावती और भैरवी एक ही स्थान पर विराजमान हैं। शक्तिपीठों के न्यास विधान के मातृका न्यास के (16 स्वरों 33 व्यंजनों, लृकार एवं क्षकार) के कुल 51 वर्णों में 51 पीठों का तत्-तत् अंगों का न्यास होता है। इनमें पहला ही है- अं कामरूपाय नम: शिरसि। यह कामाख्या के लिए ही है।
4-साधक मंदिर की परिक्रमा क्लॉकवाइज करते हैं। इसे वाम मार्ग कहते हैं, अन्य दर्शनार्थी एंटी-क्लॉकवाइज परिक्रमा करते हैं यानी दाहिने से बाएं। गर्भगृह की संरचना श्रीयंत्र की तरह है। यह साधकों की पूर्व पीठिका है। बलि गृह के ठीक सामने मंदिर की छतरी के ऊपर एक जानवर की इकलौती आकृति है। यह शर्दावल है, हाथी और शेर का मिलाजुला स्वरूप। दोलोई इसे
ड्रैगन कहते हैं।मंदिर में सात प्रकार की बलि का विधान है- भैंसा, बकरा, मांगुर मछली, कबूतर, बतख, कुम्हड़ा और गन्ना (जड़ समेत)। मां के भोग में सब कुछ चढ़ती है। सप्तमी, अष्टमी व नवमी को भैंसे की बलि चढ़ेगी। बलि के बाद बोड़ो और कछारी जनजाति के लोग इसे ले जाते हैं।परंतु यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां पर बलि देने वालों और ना देने वालों.. दोनों की ही व्यवस्था है।यहां पर ज्यादातर बकरे समर्पित करने की प्रथा है।परंतु जो लोग बलि नहीं देते हैं वह मंदिर में पूजा करके कबूतर और बकरे को मंदिर के कैंपस में ही छोड़ देते हैं;जो वहां पर कभी मारा नहीं जाता।।मंदिर में आप ढेरों बकरों और
कबूतरों को घूमते हुए तथा उड़ते हुए देख सकते हैं ।कुछ बकरे तो इतने बड़े हो गए हैं कि शेर की तरह दिखाई पड़ते हैं।जो बकरे मां के लिए छोड़ दिए जाते हैं.. फिर उनको कोई भी नहीं खाता। यह कामाख्या मंदिर में माता का भय है।
इस प्रकार यहां पर अगर बलि होती है तो जीवो की रक्षा भी होती है।यह आप पर निर्भर करता है कि आप जीव की बलि लेने वाले हैं या जीव को जीवन दान देने वाले।
5-गुवाहाटी शहर का यह एक हिस्सा, अलग-अलग मंदिरों का एक प्रमुख मंदिर है, जो शक्तिवाद के दस महाविद्याओं को समर्पित है: काली, तारा, सोदशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला । इन , त्रिपुरासुंदरी, मातंगी और कमला मुख्य मंदिर के अंदर रहते हैं जबकि अन्य सात मंदिर मुख्य मंदिर से हटकर उसी नीलाचल पहाड़ी पर स्थित हैं। यह हिंदुओं के लिए और विशेष रूप से तांत्रिक उपासकों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है।भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।नीलांचल पर्वत के घर-घर में देवी का वास है। नीलांचल पर्वत तीन भाग में विभक्त है। जहां भुवनेश्वरी पीठ है, वह ब्रह्मपर्वत कहलाता है, मध्य भाग में महामाया पीठ है, वह शिव पर्वत तथा पश्चिमी भाग विष्णु या वाराह पर्वत है। 2-माता काली महाविद्या;- कामाख्या मंदिर के पहले ही 10 महाविद्याओं में से सर्वप्रथम माता काली का का मंदिर है । 3-माता तारिणी महाविद्या;- माता काली के मंदिर के बाद माता तारिणी का मंदिर है ।तारिणी माता का मुख्य मंदिर गुवाहाटी में
ब्रह्मपुत्र के पास है। 4-माता कमला और माता मातंगी महाविद्या;- कामाख्या मंदिर के कैंपस में ही महाविद्या माता कमला ,माता त्रिपुर सुंदरी और माता मातंगी का मंदिर है । 5-माता त्रिपुर भैरवी और माता धूमावती महाविद्या;- मंदिर के बैक साइड के नीचे उतरने पर माता त्रिपुर भैरवी और माता धूमावती का मंदिर है ।
6-भुवनेश्वरी महाविद्या मंदिर;-
भुवनेश्वरी मंदिर गुवाहाटी में सबसे लोकप्रिय प्राचीन मंदिरों में से एक है, जो देवी नीलाचल पहाड़ियों के शीर्ष पर
स्थित है।हिंदू धर्म के अनुसार, भुवनेश्वरी देवी 10 महाविद्या देवी में से चौथी देवी हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 7 वीं और 9 वीं शताब्दी के बीच हुआ था। पत्थरों से बने इस मंदिर की संरचना कामाख्या मंदिर से काफी मिलती-जुलती है और यहाँ से आप सुरम्य वातावरण का आनंद ले सकते हैं।इस स्थान पर आध्यात्मिक वातावरण और प्राकृतिक सुंदरता का एक संयोजन है जो इसे लोकप्रिय हिंदू तीर्थ स्थल में से एक बनाता है।
7-माता बगुलामुखी महाविद्या मंदिर;-
प्राचीन तंत्र ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख है जिनमें से एक है बगलामुखी। माँ भगवती बगलामुखी का महत्व समस्त देवियों में सबसे विशिष्ट है। विश्व में इनके सिर्फ तीन ही महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर हैं, जिन्हें सिद्धपीठ कहा जाता है। यह मन्दिर
उन्हीं से एक बताया जाता है।यह मंदिर अत्यंत चमत्कारिक भी है। इस मन्दिर में विभिन्न राज्यों से तथा स्थानीय लोग भी एवं शैव और शाक्त मार्गी साधु-संत तांत्रिक अनुष्ठान के लिए आते रहते हैं। यहाँ बगलामुखी के अतिरिक्त माता10 महाविद्या मंदिर भी हैं।
8-माता छिन्नमस्ता महाविद्या;-
माता छिन्नमस्ता महाविद्या का मंदिर कामाख्या मंदिर के कैंपस में जिस स्थान पर खिचड़ी आदि प्रसाद का वितरण किया
जाता है ;उसी स्थान के नजदीक ही बना हुआ है।
9-आदि शंकराचार्य का मंदिर;-
कामाख्या मंदिर के कैंपस में ही शंकराचार्य का मंदिर है जहां पर उन्होंने माता कामाख्या के लिए आद्या स्त्रोत लिखा था ।
10-नरकासुर मार्ग;-
एक नरक नाम का दानव, मां कामाख्या के आकर्षण और सुंदरता की तरफ आकर्षित हो गया। देवी मां ने उसके सामने एक र्शत रखी कि अगर वह मंदिर की सीढ़ी का निर्माण नीचे से लेकर नीलांचल की पहाड़ी तक करता हैं, तो वह उससे शादी कर लेंगी। दानव ने इस शर्त को मान लिया और वह मंदिर के लिए सीढ़िया बनवाने लगा। उसका यह काम पूरा ही होने वाला था कि मां ने उसके साथ एक चाल खेली और एक मुर्गा लेकर आई और उसे यह कहा कि सुबह होने पर आवाज करें। जब मुर्गा ने आवाज की तो दानव को लगा कि सुबह हो गई हैं, वह अपना काम आधा छोड़कर चला गया। जब नरकासुर को यह पता लगा कि यह महज एक चाल थी तो वह बहुत गुस्सा हुआ और मुर्गे के पीछे भाग कर उसे मार डाला, जिस जगह पर मुर्गे को मारा उस जगह को कुकुराकटा के नाम से जाना जाने लगा। यह अधूरी सीढ़ी नरकासुर ने बनाई थी, जिसे मेखेलउजा पथ के नाम से जाना जाता है।आज भी पर्वत के नीचे से ऊपर जाने वाले मार्ग को नरकासुर मार्ग के नाम से जाना जाता है।
11- माता कामाख्या मंदिर के चार द्वारपाल ;-
माता कामाख्या मंदिर की चारों दिशाओं में चार द्वारपाल हैं।दक्षिण द्वार में बाल हनुमान है और
पूरब पश्चिम उत्तर द्वार पर गणेश जी द्वारपाल है।माता कामाख्या मंदिर के पहले ही गणेश जी का मंदिर है।
दूसरे द्वारपाल गणेश कोटिलिंगम के पास हैं।दक्षिण द्वारपाल बाल हनुमान मंदिर के नीचे पहाड़ी में उतर कर पांडवों द्वारा बनवाया गया मंदिर है। जहां पर श्री कृष्ण द्वारा रखा गया सुदर्शन चक्र का निशान भी है।बाल हनुमान तक जाने का मार्ग बहुत ही दुर्गम है और जंगल से होकर जाता है।इसलिए वहां पर जाना बहुत ही कठिन है।पांडुनाथ मंदिर...पांडु नगरी का नाम महाभारत काल के दौरान के महाराज पांडु के नाम पर रखा गया हैं। महाराज पांडु पांचो पांडव के पिता थे।यह स्थान शहर के टीला हिल्स में पांडुनाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं। पांच पांडवो का नेतृत्व करते हुए पांच गणेश मूर्ती यहाँ मिलती हैं। माना जाता हैं कि निर्वासन के समय पांचो भाइयों ने गणेश के रूप में यहा शरण ली थी।परंतु पांडव मंदिर में सुदर्शन चक्र को स्पर्श करते ही दिव्य अनुभूतियां होती हैं।
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गुवाहाटी के दर्शनीय स्थल;-
गुवाहाटी विशाल ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे पर बसा हुआ पूर्व-उत्तर भारत में असम का सबसे बड़ा नगर हैं। प्राचीन समय में गुवाहाटी को प्रागज्योतिस्वर नाम से जाना जाता था। गुवाहाटी दो शब्दों गुवा और हाट से मिलकर बना हैं, जिसमे गुवा का अर्थ है सुपारी और हाट का अर्थ बाजार। गुवाहाटी शहर को “नॉर्थ ईस्ट इंडिया की सेवन सिस्टर्स” का प्रवेश द्वार भी कहते हैं। गुवाहाटी में प्राचीन मंदिर की संख्या बहुत अधिक हैं ।यहां के प्रमुख मंदिरों में कामाख्या देवी के मंदिर में आने वाले भक्तगणों की संख्या बहुत अधिक होती हैं।
1-उमानन्दा मंदिर;-
04 POINTS;- 1- विशाल ब्रह्मपुत्र के बीच में पिकॉक हिल पर स्थित यह एक सुंदर मंदिर है।भगवान शिव का एक मंदिर दुनिया के सबसे छोटे रिवर आइलैंड में है। यह आइलैंड भारत के असाम राज्य के गोहवाटी शहर में मौजूद ब्रह्मापुत्रा नदी के बीचों-बीच है। भगवान शिव के इस मंदिर का निर्माण 1594 में हुआ था। इस मंदिर में जाने के लिए आपको नाव से जाना पड़ेगा, जो प्रात: 7.00 बजे से सायं 5.30 बजे तक चलती हैं। उमानंद मंदिर अपनी वास्तुश्ल्पिीय विशेषता के लिए जाना जाता है।कामाख्या देवी मंदिर के दर्शन करने से पहले इस मंदिर में भक्तों को आकर पहले शिव जी के दर्शन करने चाहिए तब ही कामाख्या देवी के दर्शन सफल हो पाते हैं। नवरात्र के समय जो भक्त कामाख्या देवी के दर्शन करने आते हैं तथा जिन्हें इस कहानी के बारे में पता है वे पहले शिव जी के दर्शन करते हैं और बाद में देवी मंदिर जाते हैं। वैसे तो आइलैंड पर साल भर टूरिस्टों की भीड़ रहती है, मगर सावन, शिवरात्री और नवरात्र के समय यह भीड़ दोगुनी हो जाती है।उमानंद आइलैंड से कुछ ही दूरी पर कामाख्या देवी केा मंदिर है।उमा का अर्थ है माँ यानी पार्वती और आनंद भगवान शिव का ही एक नाम है। इस मंदिर से नीलाचल पहाड़ी भी दिखाई देती है जहां स्थित है माँ कामाख्या देवी का मंदिर। कहते है कि जब शिव जी इस आइलैंड पर बैठ कर तपस्या कर रहे थे तब पारवती जी उनका इंतजार कामाख्या देवी मंदिर पर बैठ कर कर रहीं थी। बस तब से ही इस इस जगह का नाम उमानंद पड़ गया।
2- आइलैंड पर पहुंचते ही आपको मंदिर का प्रवेश द्वार दिखने लगेगा। कुछ सीढ़यां चढ़ने के बाद आप उमानंद मंदिर के परिसर में पहुंच जाएंगे। यहां पर दर्शन करने के बाद जैसे ही आप मंदिर से बाहर निकलेंगे आपको यहां पर आपको दो और मंदिरों के दर्शन करने को मिलेंगे यह मंदिर भी शिव जी के ही दूसरे स्वरूपों के हैं। यहां पर आपको शिव जी के बद्रीनाथ और महाकालेश्वर मंदिर के दर्शन करने को मिलेंगे।यहां के स्थानीय लोग मानते हैं कि भगवान शिव के यहां निवास करने से उनके शहर पर किसी भी तरह की विपदा नहीं आएगी। गोहवाटी में कई बारे तेज भुकंप और बाढ़ आई मगर न तो शहर में कोई नुकसान हुआ और न ही इस आइलैंड को। इस लिए लोगों का इस मंदिर को लेकर विश्वास बढ़ता ही जा रहा है।इस मंदिर का नाम उमानंद हिंदी के दो शब्दों से आया है। पहला शब्द ‘उमा’ जो कि भगवान शिव की पत्नी माता पार्वती का एक नाम है और दूसरा शब्द ‘आनंद’ जिसका अर्थ है खुशी।
3-जिस पर्वत पर मंदिर का निर्माण किया गया है, उसे भस्मकाल के नाम से जाना जाता है। मंदिर का परिवेश अदभुत और दिव्य है। मंदिर के चारों तरफ प्रकृति का अदभुत सौन्द्रर्य है, यह प्रकृति प्रेमियों के लिए एक आश्रय स्थल है।
उमानंद मंदिर का निर्माण सन् 1681 से 1694 में राजा गदाधर सिंह द्वारा किया गया था, जो अहोम वंश के एक राजा और
सबसे मजबूत शासकों में से एक थे। प्रवेश द्वार के दोनों ओर बैठे हैं नंदी। मंदिर परिसर में दाखिल होने पर सब से पहले टिन के छत वाला एक छोटा सा झोंपड़ी नुमा गणेश मंदिर मिलता है। भक्त पहले वहाँ माथा टेकने के बाद ही उमानंद मंदिर की ओर बढ़ते हैं। उमानंद मंदिर में दाखिल होते ही मुख्य गर्भ ग्रह से सटे एक बड़े हॉल के बीचों बीच विराजमान हैं ब्रह्मा और विष्णु।यहाँ से आप मुख्य गर्भ ग्रह में प्रवेश करते हैं. गर्भ ग्रह के अंदर अखंड दीप जल रहा है।यह दीप उस दिन से जल रहा है
जब से इस मंदिर का निर्माण हुआ था। मंदिर से जैसे ही बाहर निकलते हैं मूल मंदिर से सटा एक और लाल रंग का मंदिर दिखाई देता है जिसे महाकाल शिव मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस महाकाल शिवमंदिर का निर्माण वर्ष 1820 में हुआ था
।इस मंदिर के अंदर भी शिव लिंग स्थापित है। महाकाल मंदिर से सटा हुआ एक और उजले रंग का छोटा सा मंदिर है जिसे बद्रीनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है।भक्तगण इन दोनों मंदिरों में बिना माथा टेके नहीं जाते।
4-मंदिर का इतिहास;-
इस मंदिर से भी कई इतिहास जुड़े हैं। द्वापर युग में गुवाहाटी को प्रागज्योतिष पुर के नाम से जाना जाता था।उस समय ब्रहमपुत्र इस पहाड़ी के उत्तर की ओर से बहता था। दाहनी ओर एक सौदागर रहता था जिस के पास बहुत सारे जानवर थे। उन्हीं जानवरों में एक कामधेनु भैंस हमेशा दूध देने के लिए इस पहाड़ पर चली आती थी। जब सौदागर ने उसका पीछा किया तब देखा की वह एक बेल के पेड़ के नीचे दूध देती है। सौदागर ने उस स्थान की खुदाई की तो वहां शिवलिंग दिखाई दिया। उसी रात सौदागर के सपने में भगवान शिव ने दर्शन दिए और वहाँ मंदिर बनाने का आदेश दिया। लेकिन उसी रात भारी भूकंप से ब्रहमपुत्र का बहाव दो भाग में बंट गया और वो पहाड़ी ब्रहमपुत्र के बीचोबीच एक टापू की शक्ल में रह गया। जब नदी में पानी कम हुआ तब सौदागर वहां आया और एक मंदिर का निर्माण करवाया। उस के बाद समय के साथ साथ मंदिर बनते रहे और टूटते रहे लेकिन फिर भी वहाँ उमानंद मंदिर खड़ा है।ब्रह्मपुत्र नदी के बीचों बीच जिस पहाड़ी पर उमानंद मंदिर का निर्माण किया गया है, उस पहाड़ी को “भस्मांचल ” के नाम से भी जाना जाता है। कालिका पुराण में इस बात का वर्णन किया गया है की सृष्टी के आरम्भ में जब भगवान शिव इस पहाड़ी पर ध्यान कर रहे थे, तब ही कामदेव ने उनका ध्यान बाधित किया था, शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी जिस से कामदेव जलकर भस्म हो गए और इसलिए इस पहाड़ी का नाम भस्मांचल पड़ा। शिवरात्री के दिन पार्वती की तरह पत्नी की और शिव की तरह पति पाने की तमन्ना लिए काफी युवक युवतियां, शिव आराधना करते नज़र आते हैं। शिवरात्री के दिन उमानंद में खास 4 प्रकार की पूजा का विधान है।
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2-कोटि लिंगम और परशुराम कुंड;-
कामाख्या मंदिर के अपोजिट साइड में ब्रह्मपुत्र के नजदीक कोटि लिंगम गुफा और परशुराम कुंड है।यहां पर परशुराम की ध्यान स्थली और गुफा के अंदर एक शिवलिंग है। परशुराम कुंड में एक करोड़ शिवलिंग थे।उन्होंने एक करोड़ शिवलिंग को एक लिंग बना दिया। इसलिए कहा जाता है कि इस शिवलिंग की पूजा करने से एक करोड़ शिवलिंग की पूजा करने का फल प्राप्त होता है। इसी कुंड में परशुराम ने अपने फरसे को माता कामाख्या को समर्पित कर दिया था।इस गुफा में एक पतली झिरी जैसी है ;जिसमें पार निकलने से माना जाता है कि जो इस गुफा द्वार को पार करेगा उसके चारों पुरुषार्थ सिद्ध हो जाते हैं।परंतु इस गुफा की पतली झिरी से निकलना असंभव ही दिखता है परंतु भगवान की कृपा होती है तो मोटे, पतले सभी निकल जाते हैं।
3-शुकेश्वर मंदिर;
अहोम राजवंश के पवित्र मंदिरों में से एक गुवाहाटी शुकेश्वर मंदिर है, जो भगवान शिव को समर्पित है।शुकेश्वर मंदिर
सुरम्य स्थान के बीच एक पहाड़ी पर स्थित है। अहोम राजा प्रमत्त सिंह द्वारा 1744 में निर्मित, इस मंदिर का असम के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।यह शिवलिंग गुरु शुक्राचार्य के द्वारा स्थापित है।ऐसा माना जाता है कि शुक्राचार्य के द्वारा
स्थापित शिवलिंग के द्वारा ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।ब्रह्मपुत्र नदी के पास होने के कारण,आप नदी के क्षितिज पर
सूर्यास्त का दृश्य देख सकते हैं।
4-वशिष्ठ आश्रम ;-
असम राज्य के गुवाहाटी शहर के दक्षिण-पूर्वी छोर पर स्थित बसिष्ठ आश्रम मंदिर संध्याचल पर्वत के बेलटोला क्षेत्र में है। यह एक प्राचीन मंदिर है, जो भगवान शिव को समर्पित है।वैदिक युग में महान महर्षि वशिष्ठ द्वारा स्थापित गुवाहाटी से कुछ किलोमीटर दूर शिव मंदिर के रूप में मान्यता प्राप्त एक शक्तिपीठ है। ऐसा माना जाता है कि इस आश्रम की स्थापना महर्षि वसिष्ठ ने की थी, जिन्होंने अपने जीवन का अंतिम समय यहां बिताया था।इस मंदिर का इतिहास एक पुराना वैदिक काल माना जाता है।निर्वाण दिवस, जिस दिन ऋषि वसिष्ठ ने मोक्ष प्राप्त किया, इस मंदिर में बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है ।
5-नवग्रह मंदिर ;-
ब्रह्मपुत्र नदी चित्रशाला पहाड़ी पर स्थित यह नवग्रह मंदिर, हमारे सौर मंडल के नौ ग्रहों को समर्पित, प्रत्येक मंदिर नवग्रह पहाड़ी की चोटी पर स्थित विभिन्न पत्थरों द्वारा खूबसूरती से बनाया गया है।ये ग्रह लोगों के भाग्य को प्रभावित करते हैं अत: उन्हें भगवान माना जाता है और उनकी पूजा की जाती है।माना जाता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा के द्वारा नवग्रह की रचना इसी स्थान पर हुई थी।नवग्रह का अर्थ है नौ ग्रह। नौ ग्रहों को प्रतिबिंबित करने के लिए मंदिर के अंदर नौ शिवलिंग स्थापित किए गए हैं। प्रत्येक शिवलिंग अलग-अलग रंग के कपड़े से ढका हुआ है। गुवाहाटी प्रागज्योतिषपुर का पुराना नाम मंदिर के खगोलीय और ज्योतिषीय केंद्र के कारण उत्पन्न हुआ था।ऐसा माना जाता है कि नवग्रह मंदिर का निर्माण 18 वीं शताब्दी में अहोम राजा राजेश्वर सिंह और बाद में उनके बेटे रुद्र सिंह ने करवाया था।मंदिर परिसर में बना सिलपुखुरी तालाब भी यहाँ का प्रमुख आकर्षण है और कहा जाता है कि यह पूरे साल भर भरा रहता है।
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