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क्या है अन्नमय कोश/PHYSICAL BODY की--उपवास ,आसन, तत्व शुद्धि,और तपश्चर्या साधना?PART-02

क्या है अन्नमय कोश की--उपवास ,आसन, तत्व शुद्धि,और तपश्चर्या साधना?

अन्नमय कोश की शुद्धि का दूसरा साधन... आसन;-

06 FACTS;-

1-आसन को योग साधना मे इसलिए प्रमुख स्थान दिया है क्योकि ये स्वस्थ्य रक्षा के लिए उपयोगी होने के अतिरिक्त मर्म स्थानों मे रहने वाली ‘ हव्य- वहा ‘ और ‘कव्य- वहा ‘ तडित शक्ति /Thunderstorm power को क्रियाशील रखते हैं| मर्म स्थल वे हैं जो अतिकोमल हैं और प्रकृति ने उन्हें इतना सुरक्षित बनाया है की साधारणतः उन तक वाह्य प्रभाव नहीं पहुचता | आसनों से इनकी रक्षा होती है | इन् मर्मों की सुरक्षा मे यदि किसी प्रकार की बाधा पड जाए तो जीवन संकट मे पड सकता है | आयुर्वेद के अनुसार व्यक्ति के शरीर में कुल 108 मर्म बिंदु हैं| ।08 मर्म बिंदुओं को उत्प्रेरित कर शरीर में छिपी हुई ऊर्जा को जागृत किया जाता है।शरीर के वे बिन्दु जहाँ पर मांस, सिरा, स्नायु, अस्थि व संधि का संगम होता है, वे मर्म स्थान कहलाते हैं। जहां प्राण ऊर्जा की अधिकता हाेती है, और ये ऊर्जा शारीरिक व मानसिक क्रियाओं का नियंत्रण करती है।

2-मर्माघात होने पर संज्ञानाश, सुप्तत, भारीपन, मूर्च्छा, स्वेद, वमन, श्वास, विक्षिप्तता, शिथिलता, शीतलता की इच्छा, हृदय प्रदेश में दाह,अस्थिरता, बैचेनी आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। ऐसे मर्म स्थान उदर और छाती के भीतर विशेष हैं | Throat, Shoulder , Coccyx (Tailbone) , Spine और ब्रह्मरंध्र / The top of the head से सम्बंधित 33 मर्म हैं | इनमे कोई आघात लग जाए तो देह भीतर ही भीतर घुलने लगती है | बाहर से कोई प्रत्यक्ष या विशेष रोग दिखाई नहीं पड़ता , पर भीतर ही भीतर देह खोखली हो जाती है | नाडी मे Fever नहीं होता पर मुँह का कड़वा पन, शरीर मे रोमांच , भारीपन , उदासी , सिर मे हल्का दर्द , प्यास आदि भीतरी ज्वर जैसे लक्षण दिखाए पड़ते हैं | वैद्य ,डाक्टर कुछ समझ नहीं पाते , दवा देते हैं पर कुछ विशेष लाभ नहीं होता|आयुर्वेद में मर्म शरीर के वे बिंदु हैं जहाँ प्राणों का वास होता है तथा जिनका रक्षण न करने पर मृत्यु अथवा विभिन्न प्रकार की मृत्यु तुल्य कष्टदायक शारीरिक व्याधि उत्पन्न होती है। अतः इन बिंदुओ को उपचारित करने से रोगों से मुक्ति भी संभव है। 3-मर्मों मे चोट पहुचने से आकस्मिक मृत्यु हो सकती है | तांत्रिक अभिचारी मारण का प्रयोग करते हैं तो उनका आक्रमण इन् मर्म स्थलों पर ही होता है |हानि , शोक , अपमान आदि की कोई मानसिक चोट लगे तो मर्म स्थल क्षत -विक्षत हो जाती है और उस व्यक्ति के प्राण संकट मे पड जाते हैं |मर्म अशक्त हो जाएँ तो गठिया , गंज , स्वेत्कंठ, पथरी , गुर्दे की शिथिलता , खुश्की ,बवासीर जैसे न ठीक होने वाले रोग उपज पड़ते हैं |सिर और धड मे रहने वाले मर्मों मे ‘हव्य- वहा’ नामक धन विद्युत का निवास और हाथ पैरों मे ‘कव्य- वहा’ ऋण विद्युत की विशेषता है | दोनों का संतुलन बिगाड जाए तो लकवा , अर्धांग , संधिवात जैसे उपद्रव खड़े होते हैं |

4-कई बार स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले मनुष्य भी ऐसे मंद रोगों से ग्रसित हो जाते हैं , जो उनकी शारीरिक अच्छी स्थिति को देखते हुए न होने चाहिए थे |इन् मार्मिक रोगों का कारण मर्म स्थानों की गडबडी है | कारण यह है की साधारण परिश्रम या कसरतों द्वारा इन मर्म स्थानों का व्यायाम नहीं हो पाता | औषधियों की पहुच वहाँ तक नहीं होती |उस गुत्थी को सुलझाने मे केवल ‘योग -आसन ‘ ऐसे तीक्ष्ण अस्त्र हैं जो मर्म शोधन मे अपना चमत्कार दिखाते हैं |ऋषियों ने देखा की अच्छा आहार -विहार रखते और विश्राम -व्यायाम की व्यवस्था रखते हुए भी कई बार अज्ञात सूक्ष्म कारणों से मर्म स्थल विकृत हो जाता है| और उसमे रहने वाली हव्य-वहा , कव्य -वहा Thunderstorm power का संतुलन बिगड़ जाने से बीमारी और कमजोरी आ धमकती है , जिससे योग साधना मे बाधा पड़ती है |इस कठिनाई को दूर करने के लिए उन्होंने अपने दीर्घकालीन अनुसंधान और अनुभव द्वारा ‘आसन -क्रिया’ का आविष्कार किया | 5- आसनों का सीधा प्रभाव हमारे मर्म स्थलों पर पड़ता है | प्रधान नस-नाड़ियों और मांसपेशियों के अतिरिक्त सूक्ष्म कशेरुकाओ का भी आसनों द्वारा ऐसा आकुंचन/Retraction -प्राकुंचन/ Systolic होता है कि उसमे जमे हुए विकार हट जाते हैं तथा फिर नित्य सफाई होते रहने से नए विकार जमा नहीं होते | मर्म स्थलों की शुद्धि , स्थिरता एवँ पोषण के लिए आसनों को अपने ढंग का सर्वोत्तम उपचार कहा जा सकता है |आसन अनेक हैं उसमे से 84 प्रधान हैं|आठ आसन ऐसे हैं जो सभी मर्म स्थानों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं … 1-सर्वांगासन 2-बद्ध-पद्मासन 3-पाद हस्तासन 4-उत्कटासन 5-पश्चिमोत्तान आसन 6-सर्पासन 7-धनुरासन8- मयूरासन इन् सभी से जो लाभ होता है उसका सम्मिलित लाभ सूर्य-नमस्कार से होता है | यह एक ही आसन कई आसनों के मिश्रण से बना है | इसे प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व करना चाहिए|मर्म चिकित्सा ही एक्युप्रेसर, एक्यूपंचर जैसी चिकित्सा विधाओ की जननी है।

6-कुछ विशेष मर्म स्थानों का उपचार ;-

शरीर के आधार पर स्थान के विचार से मर्मो की संख्या इस प्रकार है ... पैरौं में 22, भुजाओ मे 22 , Back/पीठ मे 14,छाती में 9,Stomach/उदर में 3 ,Throat /गर्दन में 14 और सिर में 23 अथार्त ऊर्ध्व भाग में 37 ।

शरीर की स्वचिकित्सा शक्ति (सेल्फ हीलिंग पॉवर) ही मर्म चिकित्सा है। मर्म चिकित्सा से सबसे पहले शांति व आत्म नियंत्रण आता है और सुख का अहसास होता है।

मर्म चिकित्सा के सामान्य नियम एवं सावधानियां;-

1. सामान्यतया लेटी अवस्था में (शवासन की स्थिति में) मर्म चिकित्सा करना है।

2. रोगी की वय, बल, वेदना सहन करने की शक्ति, मन: स्थिति व मर्म के प्रकार को ध्यान में रखकर मर्म चिकित्सा की जानी चाहिये।

3. प्रारम्भ में मर्म बिन्दुओं पर हल्का दबाव देना हैं, बाद में शारीरिक क्षमता के अनुरुप दबाव बढ़ाया जा सकता हैं।

4. मर्म चिकित्सा के दौरान कसे हुये कपड़े, टाई, बेल्ट, जुराब, नी कैप, आदि हटा देना चाहिये।

5. चिकित्सा के दौरान रोगी को लम्बा श्वास प्रश्वास लेने को कहते हैं।

6. चिकित्सा के दौरान होने वाली वेदना को आश्वासन व मन को हटाकर दूर किया जा सकता है।

7. अत्यधिक रोगावस्था में मर्म चिकित्सा को प्रभावित भाग से सुदूरवर्ती मर्म स्थानों से प्रारम्भ करना चाहिये। बाद में प्रभावित भाग की चिकित्सा की जानी चाहिये। सूजन की अवस्था में उसके समीपवर्ती मर्म स्थानों को उपचारित करने से लाभ मिलता है।

8. स्त्रियों में मासिक धर्म व गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा नहीं दी जानी है। वह स्त्री स्वयं 'स्व मर्म चिकित्सा' कर सकती है।

9. स्त्रियों में मर्म चिकित्सा बाईं ओर से व पुरुषों में दाईं ओर से करनी चाहिये।

10. मर्म चिकित्सा की समाप्ति पर मर्म बिन्दुओं को चिह्नित कर देना चाहिये, ताकि रोगी बाद में उन बिन्दुओं को स्वत: उपचारित करता रहे। मर्म चिकित्सा की विधि;-


1-आवाहन 2-पूजन 3-विसर्जन

04 POINTS;-

1-सामान्यत: मर्मों को अंगूठे एवं तर्जनी / मध्यमा / अनामिका द्वारा दबाव देना चाहिये।

2-मर्मों को हृदय गति के अनुसार उददीपत/Stimulate किया जाता है।

3-किसी भी मर्म स्थान को 0.8 sec. से अधिक समय तक दबाव नहीं देना चाहिये।

4-प्रत्येक मर्म स्थान को एक बार में 15 -18 बार दबाया जा सकता है।

हायपरटेंशन के लिए :-

दोनों हथेलियों में अंगूठों के नीचे तल-हृदय मर्म बिंदु हाेता है, इसे दबाने पर हायपरटेंशन से राहत मिलती है।

याददाश्त के लिए :-

माथे पर जिस जगह महिलाएं बिंदी लगाती हैं, वहां स्थपनी मर्म बिंदु होता है, यदि उस पॉइंट को दबाया जाए तो याददाश्त बढ़ती है।

डायबिटीज़ के लिए :-

दोनों हाथों की कोहनी में अंदर और बाहरी तरफ दो पाॅइंट होते हैं, इसे कुर्पर मर्म कहते हैं। इन्हें दबाने पर डायबिटीज़ को नियंत्रित किया जा सकता है।

तनाव के लिए :-

दोनों भौंहों को शुरुआत से लेकर आखिर तक दबाने पर सिरदर्द और तनाव कम होता है। भौंह के आखिर में अपांग मर्म बिंदु होता है। डिप्रेशन से उबरने में भी ये कारगर है। ///////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// 3- अन्नमय कोश की शुद्धि के साधन –तत्व-शुद्धि ;- 06 FACTS;- 1-यह श्रृष्टि पंच तत्वों से बनी हुई है | प्राणियों के शरीर भी इन्ही तत्वों से बने हुए हैं | मिटटी , जल , वायु , अग्नि और आकाश इन् पांच तत्वों का यह सबकुछ संप्रसार है | जितनी वस्तुवें दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभाव मे आती हैं उन सब की उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई हैं | वस्तुओं का परिवर्तन , उत्पत्ति , विकास तथा विनास इन् तत्वों की मात्रा मे परिवर्तन आने से ही होता है | जलवायु का स्वस्थ्य पर प्रभाव पड़ता है ...शीत प्रधान देशों के तथा यूरोपियन देशों का रंग रूप , कद -स्वास्थ्य तथाअफ्रीका के उष्ण प्रदेश वासियों के रंग -रूप , कद , स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है | पंजाबी , काश्मीरी , बंगाली , मद्रासी लोगों के शरीर तथा स्वास्थ्य की प्रत्यक्ष भिन्नता जलवायु का ही अंतर् है |पशु पक्षी , घास -अन्न , फल , औषधि आदि के रंग ,रूप ,स्वस्थ्य , गुण , प्रकृति आदि मे भी जलवायु के अनुसार अंतर पड़ता है | इस प्रकार वर्षा, गर्मी -सर्दी का तत्व-परिवर्तन प्राणियों मे अनेक प्रकार के सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है | 2-आयुर्वेद शास्त्र मे वात , पित्त , कफ /एयर, फायर, वॉटर एलिमेंट का असंतुलन रोगों का कारण बताया है | वात /एयर एलिमेंट का अर्थ है वायु , पित्त ./ फायर एलिमेंट का अर्थ है गर्मी और कफ/वॉटर एलिमेंट का अर्थ है जल | पंच तत्वों मे पृथ्वी शरीर का स्थिर आधार है | मिटटी से ही शरीर बना है और जला देने या गाड़ देने पर मिटटी रूप मे ही इसका अस्तित्व रह जाता है | इसलिए पृथ्वी तत्व शरीर का स्थिर आधार होने से वह रोग आदि का कारण नहीं बनता |दूसरे आकाश का सम्बन्ध मन से बुद्धि और इन्द्रियों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से है | स्थूल शरीर पर जलवायु और गर्मी का ही प्रभाव पड़ता है और उन्ही प्रभावों के आधार पर रोग एवँ स्वस्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहते हैं | वायु की मात्रा मे अंतर् आ जाने से गठिया , लकवा , दर्द , कंप ,अकडना , गुल्म , हड्फुतन, नाडी विक्षेप आदि रोग होते हैं |पित्त तत्व के विकास से फोड़े -फुंसी , चेचक ज्वर, रक्त पित्त , हैजा , दस्त , क्षय ,स्वास उपदंश , रक्त विकार आदि बढते हैं |जल तत्व की गडबडी से जलोदर ,पेचिस, संग्रहणी, मलमूत्र, प्रमेह स्वप्न दोष , सोम , प्रदर , जुकाम , खांसी आदि रोग पैदा होते हैं | अग्नि की मात्रा कम हो तो शीत , जुकाम , अकडन , अपच , शिथिलता शरीखे रोग उठ खड़े होते हैं | इस प्रकार अन्य तत्वों का घटना बढ़ना अनेक रोग उत्पन्न करता है | 3-आयुर्वेद के मत से स्थूल शरीर को स्थिर करने वाले कफ वात पित्त अर्थात जल वायु गर्मी ही है और दैनिक जीवन मे जो उतारचढाव होते रहते हैं उनमे इन् तीनों का ही प्रधान कारण होता है | फिर भी शेष दो तत्व पृथ्वी और आकाश शरीर पर स्थिर रूप मे काफी प्रभाव डालते हैं |मोटा या पतला होना , लंबा या ठिगना होना , रूपवान या कुरूप होना , गोरा या काला होना , कोमल या सुदृढ़ होना शरीर मे पृथ्वी तत्व की स्थिति से सम्बंधित है | इसी प्रकार चतुरता – मूर्खता , सदाचार -दुराचार , नीचता -महानता , तीव्र बुद्धि , दूरदर्शिता व खिन्नता -प्रसन्नता एवँ गुण , कर्म , स्वभाव , इच्छा , आकांछा , भावना , आदर्श , लक्ष्य आदि बातें इस पर निर्भर रहती हैं की आकाश तत्व की स्थिति क्या है ? उन्माद , सनक , दिल की धडकन , अनिद्रा , पागलपन, दु: स्वप्न , मिर्गी , मूर्छा , घबडाहट , निराशा आदि रोग मे भी आकाश ही प्रधान कारण होता है | तत्वों की मात्रा मे गडबडी पड़ जाने से स्वस्थ्य मे निश्चित रूप से खड़ाबी आ जाती है | जल वायु सर्दी गर्मी ( ऋतू प्रभाव ) के कारण रोगी मनुष्य निरोग और निरोग रोगी बन सकता है |

4-लापरवाही , अव्यवस्था और आहार -विहार मे असंयम से तत्वों का संतुलन बिगड़ जाता है| योग साधकों को जान लेना चाहिए की पंच तत्वों से बने शरीर को सुरक्षित रखने का महत्व पूर्ण आधार यह है की देह मे सभी तत्व स्थिर मात्रा मे रहें | भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश - ये पांच तत्व इस शरीर, धरती, और पूरी सृष्टि के आधार हैं। इन्हीं पांच तत्वों से सृजन होता है। अगर ये पांच तत्व एक खास तरह से मिलते हैं, तो कीचड़ बन जाते हैं। अगर थोड़ा अलग तरह से मिलते हैं, तो भोजन बन जाते हैं। अगर वे दूसरी तरह का खेल खेलते हैं, तो वह मानव रूप ले लेते हैं। अगर वे एक अलग तरह का खेल खेलते हैं, तो चैतन्य बन जाते हैं। आप इस सृष्टि में जो कुछ भी देखते हैं, वह बस इन पांच तत्वों की बाजीगरी है।योग में, पांच तत्वों से मुक्त होने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया बनाई गयी है, जिसे भूत-शुद्धि कहते हैं। अगर आप इन तत्वों का बखूबी शुद्धीकरण करते हैं, तो आप ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं जिसे भूत-सिद्धि कहते हैं। योग-प्रणाली में भूत-शुद्धि की इस बुनियादी परंपरा से ही कई दूसरी परंपराएं निकली हैं।भूत-सिद्धि साधना

5- योग की बुनियादी प्रक्रिया का मकसद भूत-सिद्धि की स्थिति हासिल करना है, ताकि जीवन की प्रक्रिया कोई आकस्मिक प्रक्रिया न रहे ,बल्कि एक सचेतन प्रक्रिया बन जाए। एक बार ऐसा हो जाने के बाद, खुश और आनंदित रहना स्वाभाविक है और फिर मोक्ष की ओर बढऩा तय है। आप जिस वायु में सांस लेते हैं, जो पानी पीते हैं, जो खाना खाते हैं, जिस भूमि पर चलते हैं और अग्नि जो जीवन-ऊर्जा के रूप में काम कर रही है- अगर इन सभी को आप नियंत्रित और केंद्रित रखें, तो आपके लिए स्वास्थ्य, सुख और सफलता सुनिश्चित है।यह भौतिक शरीर अपने भौतिक सुख के लिए, अपनी सांसारिक कायमाबी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और साथ ही, यह इंसान की परम मुक्ति का एक उत्तम साधन भी हो सकता है।दक्षिणी भारत में, लोगों ने इन पांच तत्वों के लिए पांच बड़े मंदिर भी बनाए।

6-ये मंदिर अलग-अलग तरह की साधना के लिए बनाए गए थे।आप एक खास मंदिर में जाते हैं और एक तरह की साधना करते हैं।पृथ्वी तत्व से मुक्त होने के लिए एकंबरनाथ है और कांचीपुरम (तमिलनाडु) में स्थित है।जल तत्व से मुक्त होने के लिए जम्बूकेश्वर है जो त्रिची (त्रिचिरापल्ली, तमिलनाडु) में स्थित है।अग्नि तत्व से मुक्त होने के लिए अरुणाचलेश्वर है और तिरुवन्नामलाई (तमिलनाडु) में स्थित है।वायु तत्व से मुक्त होने के लिए, काला हस्ती है जो आंध्र प्रदेश के जिला चित्तुर के काला हस्ती में स्थित है।आकाश तत्व से मुक्त होने के लिए नटराज मंदिर है। यह तमिलनाडु के चिदंबरम शहर में हैं। इसी तरह, सभी पांच तत्वों के लिए बनाए गए पांच अद्भुत मंदिरों में खास तरह की ऊर्जा स्थापित की गई जो उस किस्म की साधना में मदद करती है। योगी एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाया करते थे और साधना करते थे।पांच तत्वों की अशुद्धियाँ हमारे भौतिक जीवन में तो रुकावट बनती ही है; साथ में हमारे अध्यात्मिक यात्रा में विध्न पैदा करती है और हमारे मन को खासतौर पर दूषित करती है।




पञ्चभूत-सिद्धि साधना;-

03 FACTS;-

1-भूत' का मतलब होता है तत्व, और 'भूतशुद्धि' का मतलब है तत्वों की गंदगी खत्म करना। इसका अर्थ भौतिकता से मुक्त होना भी है।तत्वों के रंगों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विज्ञानियों की मान्यता यह है कि आकाश तत्व का रंग सफेद - ग्रे , अग्नि का लाल, जल का नीला-काला , वायु का हरा-भूरा, और पृथ्वी का पीला है। शरीर में जिस तत्व की कमी पड़ती है या बढ़ोत्तरी होती है उसका अनुमान अंगों के अथवा मलों के स्वाभाविक रंगों में परिवर्तन देखकर लगाया जा सकता हैं। आँखें बन्द करने पर रंग दिखाई पड़े तब उसके अनुसार तत्व की प्रबलता आँकी जा सकती है। तत्वों की सघनता के हिसाब से रंगों का आभास इस तेजोबलय/Aura की परिधि में पाया जाता है। पृथ्वी सबसे स्थूल और भारी है, इसके बाद क्रमश: जल, अग्नि, वायु और आकाश का नम्बर आता है।Aura की स्वाभाविक स्थिति में रंगों की आभा भी इसी क्रम से चलती है।आकाश की तन्मात्रा-शब्द, वायु, का स्पर्श अग्नि का रूप, जल का रस और पृथ्वी, की गन्ध है।

2-पृथ्वी तत्व का केन्द्र मल द्वार और जननेन्द्रिय के बीच है इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। जल तत्व का केन्द्र मूत्राशय की सीध में पेडू पर है इसे स्वाधिष्ठान चक्र कहते हैं। अग्नि तत्व का निवास नाभि और मेरुदण्ड के बीच में है इसे मणिपुर चक्र कहते हैं। वायु केन्द्र हृदय प्रदेश के अनाहत चक्र में है। आकाश तत्व का विशेष स्थान कण्ठ में है, इसे विशुद्ध चक्र कहा जाता है। कब किस तत्व की प्रबलता है इसकी परख थोड़ा सा साधना अभ्यास होने पर सरलतापूर्वक की जा सकती है।जिह्वा इन्द्रिय को साध लेने पर मुँह में स्वाद बदलते रहने की प्रक्रिया को समझकर भी तत्वों की प्रबलता जानी जा सकती है। पृथ्वी तत्व का स्वाद मीठा, जल का कसैला, अग्नि का तीखा, वायु का खट्टा और आकाश का खारी होता है। गुण एवं स्वभाव की दृष्टि से यह वर्गीकरण किया जाय तो वायु और आकाश सतोगुण ;अग्नि और जल रजोगुण तथा पृथ्वी को तमोगुण कहा जा सकता है।

3- प्रकृति के समान ही मानव शरीर पंच तत्वों से बना है| आरोग्य का आधार इन पंच तत्वों का संतुलन है| विभिन्न उंगली-मुद्राएं शरीर में चेतना के शक्ति केंद्रों के रिमोट कंट्रोल बटन के समान हैं| उनके उचित अभ्यास से स्वास्थ्य-रक्षा और रोग-निवारण, दोनों संभव हैं| षट्‌चक्रों का संबंध पंच तत्वों से है और ये मुद्राएं पांच तत्वों को संतुलित करती हैं| इन मुद्राओं का प्रयोग कर साधक प्रसुप्त अनंत संभावनाओं को जाग्रत करने में सफल हो जाता है| इनसे प्रसुप्त चक्रों में विशेष आघात होता है, जिससे वे चालित हो जाते हैं|उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को अचानक दिल का दौरा पड़ा है और उसके पास तत्क्षण कोई प्रभावशाली दवा नहीं है| ऐसी स्थिति में, भले ही उसने किसी व्यक्ति को डॉक्टर बुलाने भेज दिया हो, यदि वह तत्काल अपने दोनों हाथों से अपानवायु मुद्रा करे तो कुछ ही क्षणों में हृदय की ओर चढ़ता और दिल पर दबाव देता हुआ गैस का गुबार निकल जाएगा| फलतः डॉक्टर के आने से पहले ही वह व्यक्ति मौत के चंगुल से बच जाएगा| धरती हमारे शरीर में 12% होती है।हमें जल पर बहुत ध्यान देना चाहिए क्योंकि वह शरीर में 72% है।वायु हमारे शरीर में 6% है। उसमें 1% से भी कम आप अपनी सांस के रूप में लेते हैं। बाकी आपके अंदर बहुत से रूपों में घटित हो रही है।अग्नि हमारे शरीर में 2% है और आकाश हमारे शरीर में 6% है। ।

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पांच प्राण हाथ की अंगुलिओं में>>उनके सहायक प्राण>> पांच तत्त्व /////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////

1-अंगूठा/Thumb.>>>व्यान>>> धनञ्जय>>>अग्नि तत्व

2-तर्जनी/Index Finger>उदान>देवदत्त> > वायु तत्व>

3-मध्यमा/Middle Finger>>अपान>>कूर्म >> >>आकाश तत्व

4-अनामिका/Ring Finger>>समान>>कृकल>> >>पृथ्वी तत्व

5-कनिष्ठा/Baby Finger>>प्राण>>नाग>>अनाहत>> जल तत्व

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पंच तत्वों के संतुलन के पाँच प्रकार के अभ्यास ;-

अगर किसी को पांच तत्वों पर सिद्धि प्राप्त हो, तो शरीर का त्याग करके उसे शून्य में विलीन किया जा सकता है। फिर शरीर का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। बहुत से योगियों ने ऐसा किया है।नीचे कुछ ऐसे अभ्यास बताये जाते हैं जिनको करते रहने से शरीर में तत्वों की जो कमी हो जाती है उसकी पूर्ति होती रह सकती है और मनुष्य अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रहते हुए दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है।

1-पृथ्वी तत्व( Earth/Skin);-

05 FACTS;- 1-जिन तत्वों, धातुओं और अधातुओं से पृथ्वी बनी है उन्हीं से यह हमारा शरीर भी बना है।नंगे पैर चलें, फर्श या धरती पर आलथी-पालथी मार कर बैठें और भूत शुद्धि क्रिया का अभ्यास करें। जो आप खाएं, सासं लें और पिएं उसके पीछे सजगता रखें कि उनके द्वारा आप अपने भीतर इस धरती का अंश ग्रहण कर रहे हैं। आप जो भी करें, उसे यथासंभव सजगता के साथ करें।प्रदोष से लेकर अमावस्या तक, और खासकर अमावस्या वाला दिन इस अनुभव के लिए काफी सहयोगी होता है। इन दिनों चंद्रमा का गुरुत्वाकषर्ण एक खास स्तर की जड़ता को पैदा करता है और इस अवधि में आपका शरीर व उसकी ऊर्जा अन्य दिनों की अपेक्षा धरती से ज्यादा जुड़ी होती हैं, क्योंकि यह आपको उसी दिशा में खींच रही है। इससे उल्टा, पूर्णिमा के दिन चंद्रमा का आकर्षण आपको उलटी दिशा में ऊपर की ओर खींचता है। इसलिए अमावस्या, प्रदोष, शिवरात्रि व पूर्णिमा के लिए अलग-अलग तरह के योगिक अभ्यास करने की परंपरा है।

2-अगर रोज संभव न हो तो कम से कम इन तीन दिनों में, प्रदोष से लेकर अमावस्या तक, आप नंगे पैर रहें और चलें। अगर आप बाहर नंगे पैर नहीं निकल सकते तो कम से कम घर में तो नंगे पैर रहें, फर्श पर आलथी-पालथी मार कर बैठें। ये दोनों क्रियाएं ही आपके भीतर न सिर्फ धरती से ऊर्जा का गहन संबंध जोड़ती हैं, बल्कि आपके भीतर पृथ्वी का अंश होने का भाव भी जगाती हैं। फर्श पर लेटने से आपको उस तरह की सजग अनुभूति नहीं होगी।लेटते हुए आपकी ऊर्जाएं ऐसे काम करेंगी कि आपका अनुभव जागरूकता से भरा नहीं होगा।पृथ्वी तत्व के अन्तर्गत आने वाली धातु वात, पित्त तथा कफ तीनों ही आती हैं।विद्वानों के मतानुसार पृथ्वी एक विशालकाय चुंबक है।इस चुंबक का दक्षिणी सिरा भौगोलिक उत्तरी ध्रुव में स्थित है। पृथ्वी के इसी चुंबकीय गुण का उपयोग वास्तु शास्त्र में अधिक होता है।इस चुंबक का उपयोग वास्तु में भूमि पर दबाव के लिए किया जाता है।वास्तु शास्त्र में दक्षिण दिशा में भार बढ़ाने पर अधिक बल दिया जाता है।इसी कारण दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सोना स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना गया है।

3-पृथ्वी अथवा भूमि के पाँच गुण शब्द, स्पर्श, रुप, स्वाद तथा आकार माने गए हैं।आकार तथा भार के साथ गंध भी पृथ्वी का विशिष्ट गुण है क्योंकि इसका संबंध नासिका की घ्राण शक्ति से है। पृथ्वी तत्व में विषों को खींचने की अद्भुत शक्ति है।मिट्टी की टिकिया बाँध कर फोड़े तथा अन्य अनेक रोग दूर किये जा सकते हैं। पृथ्वी में से एक प्रकार की गैस हर समय निकलती रहती है। इसको शरीर में आकर्षित करना बहुत लाभदायक है।प्रतिदिन प्रातःकाल नंगे पैर टहलने से पैर और पृथ्वी का संयोग होता है। उससे पैरों के द्वारा शरीर के विष खिच कर जमीन में चले जाते हैं और ब्रह्ममुहूर्त में जो अनेक आश्चर्यजनक गुणों से युक्त वायु पृथ्वी में से निकलती है उसको शरीर सोख लेता है।प्रातःकाल के सिवाय यह लाभ और किसी समय में प्राप्त नहीं हो सकता। अन्य समयों में तो पृथ्वी से हानिकारक वायु भी निकलती है जिससे बचने के लिए जूता आदि पहनने की

जरूरत होती है।प्रातःकाल नंगे पैर टहलने के लिए कोई स्वच्छ जगह तलाश करनी चाहिए।

4-किसी बगीचे, पार्क, खेल या अन्य ऐसे ही साफ स्थान में प्रति दिन नंगे पाँवों कम से कम आधा घंटा नित्य टहलना चाहिए।हरी घास भी वहाँ हो तो और भी अच्छा।घास के ऊपर जमी हुई नमी पैरों को ठंडा करती है। वह ठंडक मस्तिष्क तक पहुँचती है। साथ ही यह भावना करते चलना चाहिए “पृथ्वी की जीवनी शक्ति को मैं पैरों द्वारा खींच कर अपने शरीर में भर रहा हूँ और मेरे शरीर के विषों को पृथ्वी खींच कर मुझे निर्मल बना रही है।” यह भावना जितनी ही बलवती होगी, उतना ही लाभ अधिक होगा।

हफ्ते में एक दो बार स्वच्छ भुरभुरी पीली मिट्टी या शुद्ध बालू लेकर उसे पानी से गीली करके शरीर पर साबुन को तरह मलना चाहिए। कुछ देर तक उस मिट्टी को शरीर पर लगा रहने देना चाहिए और बाद में स्वच्छ पानी से स्नान करके मिट्टी को पूरी तरह से छुड़ा देना चाहिए। इस मृतिका स्नान से शरीर के भीतरी और चमड़े के विष खिंच जाते हैं और त्वचा कोमल एवं चमकदार बन जाती है।

5-पृथ्वी तत्व साधन विधि;-

02 POINTS;-

1-इस तत्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अंडकोश की ओर हटकर सीवन में स्थित है। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक चक्र का आधार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वी तत्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है।पृथ्वी तत्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसलिए इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया आदि रोग इसी तत्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्व के विकार मूलाधार चक्र में ध्यान स्थित करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं। 2-सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे, तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उल्टे करके घुटनों पर इस प्रकार रखी, जिससे उँगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘लं’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी पर ध्यान करें। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जाती है और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है। ध्यान करते समय पृथ्वी तत्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘लं’ इस बीज मन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्यान रूप से) जप करना चाहिए।

2-जल तत्व( Water-body);-

05 FACTS;- 1-जल से ही जड़ जगत की उत्पत्ति हुई है। हमारे शरीर में लगभग 72 प्रतिशत जल विद्यमान है उसी तरह जिस तरह की धरती पर जल विद्यमान है। जितने भी तरल तत्व जो शरीर और इस धरती में बह रहे हैं वो सब जल तत्व ही है। चाहे वो पानी हो, खून हो, वसा हो,या शरीर में बनने वाले सभी तरह के रस और एंजाइम।चंद्र को ही जलतत्व ग्रह माना गया है। इस तत्व का कारकत्व रस को माना गया है।यहाँ रस का अर्थ स्वाद से है। स्वाद या रस का संबंध हमारी जीभ से है।इन दोनों का अधिकार रुधिर अथवा रक्त पर माना गया है क्योंकि जल तरल होता है और रक्त भी तरल होता है।कफ धातु इस तत्व के अन्तर्गत आती है।जब भी आपको पानी पीने की आवश्यकता पड़े, दूध की तरह घूँट घूँट कर पानी पियें। चाहे कैसी ही प्यास लग रही हो एक दम गटापट न पीना चाहिए। हर एक घूँट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए-”इस अमृत तुल्य जल में जो मधुरता और शक्ति भरी हुई है, उसे मैं खींच रहा हूँ।” इस भावना के साथ पिया हुआ पानी, दूध के समान गुणकारक होता है। पानी पीने में कंजूसी न करनी चाहिए।

2-भोजन करते समय अधिक पानी न पियें इसका ध्यान रखते हुए अन्य किसी भी समय की प्यास को जल द्वारा समुचित रीति से पूरा करना चाहिए। व्रत के दिन तो खास तौर से कई बार काफी मात्रा में पानी पीना चाहिए।पौधे में पानी देकर हरा भरा रखा जाता है, इसी प्रकार शरीर को स्नान के द्वारा सजीव रखा जाता है। मैल साफ करना ही स्नान का उद्देश्य नहीं हैं वरन् जल में मिली हुई विद्युत शक्ति, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि अमूल्य तत्वों द्वारा शरीर को सींचना भी है। इसलिए ताजे, स्वच्छ, सह्य ताप के जल से स्नान करना कभी न भूलना चाहिए। वैसे तो सवेरे का स्नान ही सर्वश्रेष्ठ है पर यदि सुविधा न हो तो दोपहर से पहले स्नान जरूर कर लेना चाहिए। मध्याह्न के बाद का स्नान लाभदायक नहीं होता। हाँ गर्मी के दिनों में संध्या को भी स्नान किया जा सकता है।जल के देवता वरुण को माना गया है।

3-प्रातःकाल सोकर उठते ही वरुण देवता की उपासना करने का एक तरीका यह है कि कुल्ला करने के बाद स्वच्छ जल का एक गिलास पीया जाए। इसके बाद कुछ देर बिस्तर पर इधर उधर करवटें बदलनी चाहिए। इसके बाद शौच जाना चाहिए। इस उपासना का वरदान तुरन्त मिलता है। खुल कर शौच होता है और पेट साफ हो जाता है। यह ‘उषापान’ वरुण देवता की प्रत्यक्ष आराधना है।आप जिस वायु में सांस लेते हैं, जो पानी पीते हैं, जो खाना खाते हैं, जिस भूमि पर चलते हैं और अग्नि जो जीवन-ऊर्जा के रूप में काम कर रही है- अगर इन सभी को आप नियंत्रित और केंद्रित रखें, तो आपके लिए स्वास्थ्य, सुख और सफलता सुनिश्चित है।

4-1-रंग एव आकृति .. इस की आकृति अर्ध चाँद जैसी और रंग चांदी के समान माना गया है ध्यान में इसी आकृति और रंग का ध्यान करते है ।

4-2-श्वास द्वारा पहचान - इस समय श्वास बारह अंगुल तक चल रही होती है।इस समय स्वर भीगा चल रहा होता है।

4-3-दर्पण विधि द्वारा पहचान - इस की आकृति अर्ध चाँद जैसी बनती है।

4-4-स्वाद द्वारा पहचान - जब यह स्वर चल रहा हो मुख का स्वाद कसैला प्रतीत होता है।

4-5-रंग द्वारा पहचान - इस का रंग ध्यान में चांदी जैसा प्रतीत होता है ।

4-6-बीज मंत्र - वं

4-7-ध्यान विधि - सिद्धआसन में अर्ध चाँद जैसी आकृति को देखे.. जिस का रंग चांदी जैसा हो और बीज मंत्र ''वं ''का जप करे।

5-जल तत्व साधन विधि;-

पेढू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का स्थान है। यह चक्र ‘ भुव ’ लोक का प्रतिनिधि है, रंग नीला-काला , आकृति अर्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्व की विकृति से होते हैं।पृथ्वी तत्व का ध्यान करने के लिए आसन पर बैठकर ‘वं ’ बीज वाले अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जल तत्व का स्वाधिष्ठान चक्र में स्थान करना चाहिए। इनसे भूख-पास मिटती है और सहन- शक्ति उत्पन्न होती है।

3-अग्नि तत्व(Fire/Temperature );-

05 FACTS;- 1-सूर्य तथा मंगल अग्नि प्रधान ग्रह होने से अग्नि तत्व के स्वामी ग्रह माने गए हैं।अग्नि का कारकत्व रुप है।इसका अधिकार क्षेत्र जीवन शक्ति है। इस तत्व की धातु पित्त है। हम सभी जानते हैं कि सूर्य की अग्नि से ही धरती पर जीवन संभव है।यदि सूर्य नहीं होगा तो चारों ओर सिवाय अंधकार के कुछ नहीं होगा और मानव जीवन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है।सूर्य पर जलने वाली अग्नि सभी ग्रहों को ऊर्जा तथा प्रकाश देती है।इसी अग्नि के प्रभाव से पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के जीवन के अनुकूल परिस्थितियाँ बनती हैं।रुप को अग्नि का गुण माना जाता है। रुप का संबंध नेत्रों से माना गया है। ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत अग्नि तत्व है।सभी प्रकार की ऊर्जा चाहे वह सौर ऊर्जा हो या आणविक ऊर्जा हो या ऊष्मा ऊर्जा हो सभी का आधार अग्नि ही है।अग्नि के देवता सूर्य अथवा अग्नि को ही माना गया है।जीवन को बढ़ाने ओर विकसित करने का काम अग्नि तत्व का है जिसे गर्मी कहते हैं। गर्मी न हो तो कोई वनस्पति एवं जीव विकसित नहीं हो सकता। गर्मी के केन्द्र सूर्य उपासना और अग्नि उपासना एक ही बात है।

2-स्नान करके गीले शरीर से ही प्रातःकालीन सूर्य के दर्शन करने चाहिए और जल का अर्घ्य देना चाहिए। पानी में बिजली का बहुत जोर रहता है। बादलों के जल के कारण आकाश में बिजली चमकती है। इलेक्ट्रिसिटी के तारों में भी वर्षा ऋतु में बड़ी तेजी रहती है। पानी में बिजली की गर्मी को खींचने की विशेष शक्ति है। इसलिए शरीर को तौलिया से पोंछने के बाद नम शरीर से ही सूर्य नारायण के सामने जाकर अर्घ्य देना चाहिए। यदि नदी, तालाब, नहर पास में हो कमर तक जल में खड़े होकर अर्घ्य देना चाहिए।अर्घ्य लोटे से भी दिया जा सकता है और अंजलि से भी, जैसी सुविधा हो कर लेना चाहिए। सूर्य के दर्शन के पश्चात् नेत्र बन्द करके उनका ध्यान करना चाहिए और मन ही मन यह भावना दुहरानी चाहिए-”भगवान सूर्य नारायण का तेज मेरे शरीर में प्रवेश करके नस नस को दीप्तिमान सतेज और प्रफुल्लित कर रहे हैं और मेरे अंग प्रत्यंग में स्फूर्ति उत्पन्न हो रही है।” स्नान के बाद इस क्रिया को नित्य करना चाहिए।

3-अग्नि तत्व साधन विधि;-

नाभि स्थान में स्थिति मणिपूरक चक्र में अग्नि तत्व का निवास है। यह ‘स्व’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्व की आकृति त्रिकोण, लाल गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पाँव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सृजन आदि शारीरिक विकार इस तत्व की गड़बड़ी से होते हैं, इसके सिद्ध हो जाने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने में सहायता मिलती है।नियत समय पर बैठकर ‘रं’ बीज मन्त्र वाले त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नि- तत्व का मणि पूरक चक्र में ध्यान करें।अपने सिद्धआसन में इस के बीज मंत्र का जाप करते हुए.. ध्यान में एक त्रिकोण आकृति देखे ..जिस का रंग लाल हो ।इस तत्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।

4-1-पहचान ..श्वास द्वारा -- जब साँस 4 अंगुल तक चल रही तो तो अग्नि तत्व होता है । 4-2-पहचान..स्वाद द्वारा -- सूक्ष्म विश्लेषण करने पर मुख का स्वाद तीखा प्रतीत होता है। 4-3-पहचान..रंग द्वारा -- इस का रंग लाल होता है . ध्यान विधि द्वारा इसे हम जान सकते है। 4-4-दर्पण विधि द्वारा पहचान-- दर्पण विधि में में हम साँस का प्रवाह ऊपर की तरफ पाएंगे और आकृति त्रिकोण होगी।

4-5-आकृति -- इस की आकृति त्रिकोण होती है। 4-6-बीज मंत्र -- रं 4-7-लाभ ..लाल रंगके प्रयोग से भूख बढती है ,प्यास लगती है । जिनको भूख न लगती हो तो इसका प्रयोग करे।ये प्राकृतिक प्रयोग है जो निश्चित ही लाभ प्रदान करता है। युद्ध में या अन्य साहसिक कार्य में सफलता दिलाता है।जब आप को कभी काफी जोर से क्रोध आये.. उस वक्त यदि आप गौर करेंगे; तो अग्नि तत्व ही चल रहा होगा।

4-वायु तत्व(Air/Oxygen ) ;-

07 FACTS;- 1-वायु तत्व का कारकत्व स्पर्श है।इसके अधिकार क्षेत्र में श्वांस क्रिया आती है।वात इस तत्व की धातु है।यह धरती चारों ओर से वायु से घिरी हुई है। वायु में मानव को जीवित रखने वाली आक्सीजन गैस मौजूद होती है।जीने और जलने के लिए आक्सीजन बहुत जरुरी है। इसके बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि हमारे मस्तिष्क तक आक्सीजन पूरी तरह से नहीं पहुंच पाई तो हमारी बहुत सी कोशिकाएँ नष्ट हो सकती हैं।व्यक्ति अपंग अथवा बुद्धि से जड़ हो सकता है। वायु का गुण हैं ..स्पर्श।स्पर्श का संबंध त्वचा से माना गया है।संवेदनशील नाड़ी तंत्र और मनुष्य की चेतना श्वांस प्रक्रिया से जुड़ी है और इसका आधार वायु है।उत्तम वायु का जितना स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है उतना भोजन का नहीं। डॉक्टर लोग क्षय आदि असाध्य रोगियों को पहाड़ों पर जाने की सलाह देते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि बढ़िया दवाओं की अपेक्षा उत्तम वायु में अधिक पोषक तत्व मौजूद हैं।

2-शरीर को पोषण करने वाले तत्वों का थोड़ा भाग भोजन से प्राप्त होता है, अधिकाँश भाग की पूर्ति वायु द्वारा होती है। जो वस्तुएं स्थूल हैं वे सूक्ष्म रूप से वायु मंडल में भी भ्रमण करती रहती हैं। बीमार तथा योगी बहुत समय तक बिना खाये पिये भी जीवित रहते हैं। उनका स्थूल भोजन बन्द है तो भी वायु द्वारा बहुत सी खुराकें मिलती रहती हैं। यही कारण है कि वायु द्वारा प्राप्त होने वाले ऑक्सीजन आदि अनेक प्रकार के भोजन बन्द हो जाने पर मनुष्य की क्षण भर में मृत्यु हो जाती है। बिना वायु के जीवन संभव नहीं।अनन्त आकाश में से वायु द्वारा प्राणप्रद तत्वों को खींचने के लिए भारत के तत्व दर्शी ऋषियों ने प्राणायाम की बहुमूल्य प्रणाली का निर्माण किया है। मोटी बुद्धि से देखने में प्राणायाम एक मामूली सी फेफड़ों की कसरत मालूम पड़ती है किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से इस क्रिया द्वारा अनिर्वचनीय लाभ प्रतीत हुए हैं। प्राणायाम द्वारा अखिल आकाश में से अत्यन्त बहुमूल्य पोषक पदार्थों को खींचकर शरीर को पुष्ट बनाया जा सकता है।

3-स्नान करने के उपरान्त किसी एकान्त स्थान में जाइए। समतल भूमि पर आसन बिछा कर पद्मासन से बैठ जाइए। मेरुदंड बिलकुल सीधा रहे। नेत्रों को अधखुला रखिए। अब धीरे धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ कीजिए और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ भावना कीजिए कि “विश्वव्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वास्थ्यदायक प्राणतत्व साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्यचक्र में (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलते हैं) इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को ध्यान द्वारा चित्रवत् मूर्तिमान रूप से देखने का प्रयत्न करना चाहिए।

4-जब फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो तो दस सैकिण्ड तक वायु को भीतर रोके रहो। रोकने के समय ऐसा ध्यान करना चाहिए कि “प्राणतत्व मेरे अंग प्रत्यंगों में पूरित हो रहा है।” अब वायु को नासिका द्वारा ही धीरे धीरे बाहर निकालो और निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि “शरीर के सारे दोष, रोग और विष वायु के साथ साथ निकाल बाहर किये जा रहे हैं।”

उपरोक्त प्रकार से आरम्भ में दस प्राणायाम करने चाहिए फिर धीरे धीरे बढ़ाकर सुविधानुसार आधे घंटे तक कई बार इन प्राणायामों को किया जा सकता है। अभ्यास पूरा करने के उपरान्त आपको ऐसा अनुभव होगा कि रक्त की गति तीव्र हो गई है और सारे शरीर की नाड़ियों में एक प्रकार की स्फूर्ति, ताजगी और विद्युत शक्ति दौड़ रही है। इस प्राणायाम को कुछ दिन लगातार करने से अनेक शारीरिक और मानसिक लाभों का स्वयं अनुभव होगा।

5-इस तत्व की पहचान निम्न तरीको से कर सकते है ... श्वास द्वारा -- इस की पहचान हम अपनी श्वास द्वारा कर सकते है । यदि श्वास 8 अंगुल तक चल रही हो वायु तत्व चल रहा होता है। इस की लिए आप अपने सर को सीधा रख कर अपनी श्वास की गति अपने हाथ से (हथेली के ठीक विपरीत ) महसूस करे ।

स्वाद द्वारा -- सूक्ष्म अध्यन करने पर मुख का स्वाद खट्टा प्रतीत होता है।

दर्पण विधि द्वारा -- यदि वायु तत्व चल रहा हो तो इस की गति तिरछी होती है। इस का आकार आयताकार होता है।

6-इस का रंग हरा या गहरा भूरा होता है। कुंडली जागरण में जो लाभ है उस की सम्पूर्ण लौकिक सिद्धियाँ इस तत्व में प्राप्त हो जाती है और इन का त्याग कर आकाश तत्व सिद्ध कर साधक परालौकिक शक्तिया प्राप्त कर लेता है।स्पष्ट है की बाकि के तीन तत्व तत्व भी इसी से बनते है अतः वे स्वयं ही सिद्द हो जाते है ।तंत्र शास्त्र में आकाश में आवागमन की अनेक विधियाँ दी हुई है। जो साधक वायु में चिड़िया की तरह उड़ने की तथा दूसरो के मन की बात अपने आप जानने की इच्छा रखता हो वह श्रद्धा पूर्वक इस बीज मंत्र -- ''यं'' को सिद्ध करे।

7-वायु तत्व साधन विधि;-

यह तत्व हृदय देश में स्थिति अनाहत चक्र में है एवं ‘महलोक’ का प्रतिनिधि है। गुण-स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय-त्वचा और कर्मेन्द्रिय-हाथ हैं। वात-व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।नियत विधि से स्थित होकर आसन लगा कर बैठ जाये और 'यं'' बीज वाले आयताकार , हरी या भूरा आभा वाले वायु-तत्व का अनाहत चक्र में ध्यान करें या हवा में स्थित एक हरा या भूरा गोले का ध्यान करे और इसके बीज मंत्र ''यं'' का उच्चारण करे ।इससे शरीर और मन में हल्कापन आता है।

4-आकाश तत्व ( Space/ Thought);-

05 FACTS;- 1-आकाश एक ऐसा तत्व है जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु विद्यमान है। यह आकाश ही हमारे भीतर आत्मा का वाहक है। इस तत्व को महसूस करने के लिए साधना की जरूरत होती है। ये आकाश तत्व अभौतिक रूप में मन है। जैसे आकाश अनन्त है वैसे ही मन की भी कोई सीमा नहीं है। जैसे आकाश में कभी बादल, कभी धूल और कभी बिल्कुल साफ होता है वैसे ही मन में भी कभी सुख, कभी दुख और कभी तो बिल्कुल शांत रहता है। ये मन आकाश तत्व रूप है जो शरीर मे विद्यमान है।इन पंच तत्व से ऊपर एक तत्व है जो आत्मा (ॐ) है। जिसके होने से ही ये तत्व अपना काम करते हैं। आकाश एक ऎसा क्षेत्र है जिसका कोई सीमा नहीं है।पृथ्वी के साथ्-साथ समूचा ब्रह्मांड इस तत्व का कारकत्व शब्द है।इसके अधिकार क्षेत्र में आशा तथा उत्साह आदि आते हैं।वात तथा कफ इसकी धातु हैं।वास्तु शास्त्र में आकाश शब्द का अर्थ रिक्त स्थान माना गया है।आकाश का विशेष गुण “शब्द” है और इस शब्द का संबंध हमारे कानों से है जिनसे हम सुनते हैं।

2-शब्द जब हमारे कानों तक पहुंचते है तभी उनका कुछ अर्थ निकलता है।वेद तथा पुराणों में शब्द, अक्षर तथा नाद को ब्रह्म रुप माना गया है। वास्तव में आकाश में होने वाली गतिविधियों से गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश, ऊष्मा, चुंबकीय़ क्षेत्र और प्रभाव तरंगों में परिवर्तन होता है।इस परिवर्तन का प्रभाव मानव जीवन पर भी पड़ता है। इसलिए आकाश कहें या अवकाश कहें या रिक्त स्थान कहें, हमें इसके महत्व को कभी नहीं भूलना चाहिए।आकाश का देवता भगवान शिवजी को माना गया है। आकाश का अर्थ शून्य या पोल समझा जाता है। पर यह शून्य या पोल खाली स्थान नहीं है। ईथर तत्व (Ethar) हर जगह व्याप्त है। इस ईथर को ही आकाश कहते हैं। रेडियो /टी.वी. द्वारा ब्रॉडकास्ट किये हुए शब्द ईथर तत्व में लहरों के रूप में चारों ओर फैल जाते हैं और उन शब्दों को दूर दूर स्थानों में भी सुना जाता है। केवल शब्द ही नहीं विचार और विश्वास भी आकाश में (ईथर में) लहरों के रूप में बहते रहते हैं। जैसी ही हमारी मनोभूमि होती है उसी के अनुरूप विचार इकट्ठे होकर हमारे पास आ जाते हैं। हमारी मनोभूमि, रुचि, इच्छा जैसी होती हैं उसी के अनुसार आकाश में से विचार, प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त होते हैं।

3-सृष्टि के आदि से लेकर अब तक असंख्य प्राणियों द्वारा जो असंख्य प्रकार के विचार अब तक किये गये हैं वे नष्ट नहीं हुए वरन् अब तक मौजूद हैं, आकाश में उड़ते फिरते हैं। यह विचार अपने अनुरूप भूमि जहाँ देखते हैं वहीं सिमट सिमट कर इकट्ठे होने लगते हैं। कोई व्यक्ति बुरे विचार करता है तो उसी के अनुरूप असंख्य नई बातें उसे अपने आप सूझ पड़ती हैं, इसी प्रकार भले विचारों के बारे में भी है हम जैसी अपनी मनोभूमि बनाते हैं उसी के अनुरूप विचार और विश्वासों का समूह हमारे पास इकट्ठा हो जाता है और यह तो निश्चित ही है कि विचारो की प्रेरणा से ही कार्य होते हैं। जो जैसा सोचता है वह वैसे ही काम भी करने लगता है।आकाश तत्व में से लाभदायक सद्विचारों को आकर्षित करने के लिए प्राणायाम के बाद का समय ठीक है। एकान्त स्थान में किसी नरम बिछाने पर चित्त होकर लेट जाओ, या दीवार का सहारा लेकर शरीर को बिलकुल ढीला कर दो। नेत्रों को बन्द करके अपने चारों ओर नीले आकाश का ध्यान करो। नीले रंग का ध्यान करना मन को बड़ी शान्ति प्रदान करता है।

4-आकाश तत्व हमारे शरीर में कब प्रधान है ये हम संध्या काल के द्वारा ज्ञात कर सकते है। दो प्रकार के संध्या काल होते है..पहला वह संध्या काल है जिसे हम प्रभात तथा संध्या के नाम से जानते है ।इस समय हमारा मन शांत होता है और हम ईश्वर तत्व के निकट होते है।हमारा मन क्यों शांत होता है इसका भी कारण है।वास्तव में प्रकति में उपस्थित हर कण की अपनी आवृत्ति होती है।उदाहरण के लिए सबसे छोटे कण परमाणु है और प्रत्येक परमाणु अपनी मध्य स्थिति के दोनों तरफ कम्पन करता रहता है अर्थात उस की अपनी आवृत्ति होती है। इन की आवृत्ति क्रमशः बढती और घटती रहती है। रात और दिन के 12 बजे इसकी आवत्ति अधिकतम होती है ।यही कारण है कि इस समय हमारा मन विचलित होता है। इसी प्रकार प्रभात और संध्या में इनकी आवृत्ति न्यूनतम होती है इसलिए हमारा मन शांत होता है। दूसरा वह संध्या काल है जिसमें दोनों नथुनों के वायु का प्रवाह एक साथ हो।प्राणायाम तथा अन्य जगह इसी संध्या काल का वर्णन है।इस समय तत्व बदल रहे होते है और वायु का प्रवाह इडा से पिंगला या पिंगला से इडा की ओर स्थानांतरण हो रहा होता है।यह सुषुम्ना 'नाड़ी' का समय होता है।इस समय किया गया कोई भी भौतिक कार्य सफल नही होता।सिर्फ आध्यात्मिक कार्य ही सफल होते है। इस तत्व का ज्ञान होने पर भूत , भविष्य और वर्त्तमान में झांकने की शक्ति प्राप्त हो जाती है ..

5-पहचान के अन्य लक्षण;-

रंग;- अन्य सभी तत्वों के 4 रंगों का मिश्रण , सफेद - ग्रे रंग

स्वाद;- मुख का स्वाद कडुआ प्रतीत होता है

आकृति;- सबकी मिश्रित

स्थान;- सहस्त्रार चक्र

बीज मंत्र; - ''हं''

6-आकाश तत्व साधन विधि;-

शरीर में इसका निवास विशुद्ध चक्र में है। यह चक्र कण्ठ स्थान ‘जनलोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग सफेद - ग्रे , आकृति अण्डे की तरह लम्बी, गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय-कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है।पूर्वोक्त आसन पर ‘ हं' बीज मन्त्र का जाप करते हुए चित्र- विचित्र रंग वाले आकाश- तत्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिए। इससे तीनों कालों का ज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।नित्य प्रति पाँच तत्वों का छः मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं, फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।

NOTE;-

1-उपरोक्त पाँच तत्वों की साधनाएं देखने में छोटी और सरल हैं तो भी इनका लाभ अत्यन्त विषद है। नित्य पाँचों तत्वों का जो साधन कर सकते हैं। वे इन सबको करें जो पाँचों को एक साथ न कर सकते हों वे एक -एक दो -दो करके किया करें। जिन्हें प्रतिदिन करने की सुविधा न हो वे सप्ताह में एक दो दिन के लिए भी अपना कार्यक्रम निश्चित रूप से चलाने का प्रयत्न करें। रविवार के दिन भी इन पाँचों साधनों को पूरा करते रहें तो भी बहुत लाभ होगा। नित्य प्रति नियमित रूप से अभ्यास करने वालों को तो शारीरिक और मानसिक लाभ इससे बहुत अधिक होता है।नित्य प्रति पाँच तत्वों का छः मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं, फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।

2-तत्व शुद्धि साधना में हम सबसे पहले यह समझते है कि हमारे शरीर के कौन से भाग में कौन सा तत्व स्थित है। फिर हम एक- एक तत्व पर ध्यान करते है यानि कि शरीर में पांच चक्रो पर ध्यान करते है। सारा का सारा प्रोसेस योग निद्रा में माध्यम से किया जाता है।फिर हम तत्वों को बदलना शुरू करते है ..पृथ्वी को जल में, जल को अग्नि में, अग्नि को वायु में और वायु को आकाश में।इस प्रकार से हम खुद को एक तरह से विलीन कर देते है।फिर हम अपने अहम तक पहुचते है और फिर खुद से ही जुड़ जाते है।बहुत ही अलग तरह का अनुभव हो रहा होता है ; जब उस वक़्त न हम शरीर होते है और न ही मन, न ही बुद्धि और न कुछ और ही।यह एक ऐसा अनुभव होता है जो यदि एक बार घटित हो जाये तो जीवन को देखने का नज़रियाँ ही बदल जाता है।फिर हम खुद से खुद को बनाना शुरू करते है।हम एक तरह से “कुछ नहीं” से स्वयं का सृजन करते है। फिर अहम् से बुद्धि, बुद्धि से मन, मन से पांच तत्व – आकाश तत्व से सभी तत्वों का सृजन करते है।जब यह साधना समाप्त होती है तो शरीर इतना हल्का महसूस हो रहा होता है कि जैसे weight है ही नहीं। बहुत देर तक आनंद छाया रहता है;क्योकि सब कुछ शुद्ध हो चुका होता है... शरीर, सारे तत्व, मन, बुद्धि, चित और हमारी आत्मा। ////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// अन्नमय कोश की शुद्धि के साधन- 4-तपश्चर्या ;- 05 FACTS;- 1-तपस्या का अर्थ है कल्याण के मार्ग पर लगना और आत्मा में लीन होकर मोक्ष मंजिल पाना। तप में लीन हुआ साधक पर को नहीं देखता और स्व का चिंतन ही करता रहता है। संतो ने तप के दो भेद कहे है एक अंतरंग तप और दूसरा बहिरंग तप। जो तप बाह्य दृष्टि से देखने में आते है वह बहिरंग तप है और जो तप आत्मदृष्टि में आवे वह अंतरंग तप है। हमें दोनों तप कर अपना कल्याण करना चाहिए।जीवन जीने के दो मार्ग बताए है एक योग का और दूसरा भोग का। भोग का मार्ग साधन संपन्न है और योग का मार्ग साधना संपन्न है। हमें अपने जीवन में साधना संपन्न मार्ग (योग) पर चलकर अपने जीवन का कल्याण करना चाहिए। तप के विषय में संत कहते है कि इच्छाओं का नियंत्रण ही तप होता है।किसी वस्तु को निर्दोष, पवित्र एवं लाभदायक बनाना होता है तो उसे तपाया जाता है। सोना तपने से खरा हो जाता है। अध्ययन का कठोर श्रम किए बिना विद्वान् बनना सम्भव नहीं। माता बच्चे को गर्भ में रखने एवं पालन- पोषण का कष्ट सहे बिना मातृत्त्व का सुख प्राप्त नहीं कर सकती। प्राचीनकाल में पार्वती ने तप करके मनचाहा फल पाया था। भगीरथ ने तप करके गंगा को भूलोक में बुलाया था। ध्रुव के तप ने भगवान् को द्रवित कर दिया था।तपस्वी लोग कठोर तपश्चर्या करके सिद्धियाँ प्राप्त करते थे। 2- ईश्वर तपस्वी पर प्रसन्न होता है और उसे ही अभीष्ट आशीर्वाद देता है। जो धनी, सम्पन्न, सुन्दर, स्वस्थ, विद्वान्, प्रतिभाशाली, नेता, अधिकारी आदि के रूप में चमक रहे हैं, उनकी चमक वर्तमान के या पिछले तप के ऊपर ही अवलम्बित है। यदि वे नया तप नहीं करते और पुरानी तपश्चर्या की पूँजी को खा रहे हैं, तो उनकी चमक पूर्व पूँजी चुकते ही धुँधली हो जाएगी। जो लोग आज गिरे हुए हैं, उनके उठने का एकमात्र मार्ग है- तप। बिना तप के कोई भी सिद्धि, कोई भी सफलता नहीं मिल सकती, न सांसारिक और न आत्मिक। कल्याण की ताली तप की तिजोरी में रखी हुई है। जो उसे खोलेगा, वही अभीष्ट वस्तु पायेगा। दोनों हथेलियों को रगड़ा जाए तो वे गरम हो जाती हैं।दो लकड़ियों को घिसा जाए तो अग्नि पैदा हो जाएगी।आत्मा में तेजस्विता, सामर्थ्य एवं चैतन्यता उत्पन्न करने के लिए तप करना होता है।आलसी और आरामतलब शरीर में अन्नमय कोश की स्वस्थता स्थिर नहीं रह सकती तथा लम्बे समय तक साधनारत रहना भी सम्भव नहीं है। वैसा करने से शरीर तुरन्त पीड़ाग्रस्त हो जाएगा।

3-सतयुग में लम्बे समय तक दान, तप होते थे, क्योंकि उस समय शरीर में वायु तत्त्व प्रधान था। त्रेता में शरीरों में अग्नि तत्त्व की प्रधानता थी। द्वापर में जल तत्त्व अधिक था। उन युगों में जो साधनाएँ हो सकती थीं, आज नहीं हो सकतीं, क्योंकि आज कलियुग में मानव देहों में पृथ्वी तत्त्व प्रधान है।पृथ्वी तत्त्व अन्य सभी तत्त्वों से स्थूल है, इसलिए आधुनिक काल के शरीर उन तपस्याओं को नहीं कर सकते जो सतयुग, त्रेता आदि में आसानी से होती थीं। वर्तमान समय में कोई बिरले ही हठयोग में सफल हो पाते हैं। जो किसी प्रकार इन क्रियाओं को करने भी लगते हैं, वे उनसे वह लाभ नहीं उठा पाते जो इन क्रियाओं से होना चाहिए। इसलिए वर्तमान काल की शारीरिक स्थितियों का ध्यान रखते हुए तपश्चर्या में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। आज तो समाज सेवा, ज्ञान- प्रचार, स्वाध्याय, दान, इन्द्रिय संयम आदि के आधार पर ही हमारी तप साधना होनी चाहिए। 4-अन्नमय कोश की साधना का प्रारंभिक कदम 'इन्द्रिय निग्रह' है ।यों ज्ञानेन्द्रियाँ पांच मानी जाती है पर उनमें दो ही प्रधान हैं ... (1) स्वादेन्द्रिय (2) कामेन्द्रिय। इनमें से स्वादेन्द्रिय प्रधान है उसके वश में आने से कामेन्द्रिय भी वश में आ जाती है। जीभ का स्वाद जिसने जीता वह विषय वासना पर भी अंकुश रख सकेगा। जिस प्रकार पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय और कामेन्द्रिय ही प्रबल हैं, उसी प्रकार स्वाद के षट रसों में नमक और मीठा ही प्रधान हैं। चरपरा, खट्टा, कसैला आदि तो उनके सहायक रस मात्र है। इन दो प्रधान रसों पर संयम प्राप्त करना षटरसों की त्यागने के बराबर ही है। जिसने स्वाद और काम-प्रवृत्ति को जीता उसकी सभी इन्द्रियाँ वश में हो गई जिसने नमक, मीठा छोड़ा, उसने छहों रसों को त्याग दिया, ऐसा ही समझना चाहिए। मन को वश में करने के लिए यह संयम साधना हर साधक को किसी न किसी रूप में करनी होती है। नमक और शक्कर दोनों को छोड़कर फीका भोजन करना ही अस्वाद व्रत है।

तो उस समय का भोजन टाल दिया जाये । उतावली न की जाय ग्रास को पूरी तरह चबाने के बाद ही गले से नीचे उतरने दिया जाय।दिव्य सन्तति को जन्म देने के लिए यह आवश्यक है कि गृहस्थ में भी वासनात्मक संयम को कड़ाई से पालन किया जाय और इन्द्रिय निग्रह की अवधि अधिकाधिक लम्बी बनाई जाती रहे। NOTE;- भोजन के सभी नियम एलिमेंट के हिसाब से रहेंगे।उपरोक्त सभी नियम एयर एलिमेंट के लिए हैं।फायर एलिमेंट अगर अपना मिर्च मसाला छोड़ देगा तो उसको समस्या हो जाएगी।वाटर एलिमेंट का जीवन भोजन से जुड़ा होता है;जो उपरोक्त नियमों का पालन नहीं कर सकता।उसके लिए फायर एलिमेंट आत्मा है।तो उसे गर्म खाना ,नियम से समय पर खाना आदि नियमों के द्वारा सहायता मिलेगी।फायर एलिमेंट की आत्मा एयर एलिमेंट है। तो भुना हुआ भोजन ,ड्राई फ्रूट लेना आदि उसकी सहायता करेगा।एयर एलिमेंट वालों के लिए वाटर एलिमेंट आत्मा है।तो उनके लिए दूध, गाय का घी,मीठे फल आदि का सेवन सहायता करेगा। ..... SHIVOHAM...

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