क्या हैं प्राणिक हीलिंग और प्राणिक ऊर्जा/Pranic Energy ?PART01
क्या हैं प्राणिक ऊर्जा/Pranic Energy ?-
06 FACTS;-
1-जीवन ऊर्जा है इसीलिए शरीर मजबूत और जीवित रहता है. शब्द "प्राण" संस्कृत के शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक अन् धातु से बना है और अन् धातु जीवनीशक्ति का प्रतीक या चेतनावाचक है। इस प्रकार प्राण से तात्पर्य ‘‘जीवनीशक्ति’’ से है। और यह लगभग सभी संस्कृतियों द्वारा मान्यता प्राप्त है. यह जापानी में ki कहा जाता है, चीनी में ची, Ebreo में Nephesch, ग्रीक में pneuma, Polynesian में मन, और हिब्रू में ruah, जिसका अर्थ है 'जीवन की सांस'.आप जीवन enery के एक सागर में हैं .प्राणशक्ति उपचार /Pranic healing एक पूरक चिकित्सा पद्धति है जो रोगों के उपचार के लिये प्राणशक्ति (life energy) के उपयोग का दावा करती है। कुछ प्राचीन सभ्यतों में इससे मिलती-जुलती चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित थीं, जैसे मंत्र चिकित्सा, 'शमनिक हीलिंग' (shamanic healing), 'डिवाइन हीलिंग' आदि।
2-प्राण हमारे जीवन का सार तत्व है और हमारी प्रगति का मूल आधार है। समृद्धि का स्रोत यही प्राण तत्व है। यह प्राण तत्व हमारे अन्दर प्रचुर मात्रा में है। यदि हम अपने भीतर इस प्राण का चुम्बकत्व बढ़ा दें तो ब्रह्माण्डीय प्राण या विश्वप्राण को अभीष्ट मात्रा में धारण कर सकते हैं। मानवीकाय में निहित इस प्राणउर्जा के भण्डार को ‘‘प्राणमयकोश’’ कहा जाता है। सामान्यत: हमारी यह प्राणऊर्जा प्रसुप्त स्थिति में रहती है तथा इससे शरीर के निर्वाह भर के कार्य ही सम्पन्न हो पाते है किन्तु साधना के माध्यम से इस प्रसुप्त प्राण का जागरण संभव है।
3-इस प्रकार विश्वव्यापी प्राण एक महान् तत्व है, जो संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। हमारे शरीर में बहने वाला विद्युत प्रवाह इसी प्राण तत्व का अंश है। जो प्राणी इस प्राण तत्व को समुचित मात्रा में धारण कर लेता है, वह संकल्प बल से युक्त प्रसन्न उत्साहित रहता है और जो इस शक्ति का समुचित मात्रा में ग्रहण नहीं कर पाता है, वह उदास, निराश, निस्तेज देखा जाता है। मनुष्य ने सृष्टि के प्रारंभ में ही इस बात का पता लगा लिया था कि मानवीय प्राण में एक प्रबल रोग निवारक शक्ति होती है। आपने देखा होगा कि जब बच्चा रो रहा हो और उसे गोद में ले लिया जाये तो उसका रोना बंद हो जाता है, क्योंकि उसकी पीड़ा चाहे वह किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसको गोद में उठाने वाले व्यक्ति की प्राण उर्जा का सम्पर्क पाकर कम हो जाती है। रोगी व्यक्ति के मस्तक पर जब हाथ फेरा जाये तो उसे अच्दा अनुभव होता है। इसके पीछे यह वैज्ञानिक कारण है कि एक व्यक्ति की प्राण उर्जा दूसरे व्यक्ति में जो कमजोर या बीमार है, उसमें प्रविष्ट होकर उसे प्रसन्नता एवं आनन्द प्रदान करती है।
4-हमारे शरीर में यह प्राण नाड़ियों में प्रवाहित होता है, किन्तु दूसरे व्यक्ति या प्राणी तक हम इस प्राण उर्जा को नाड़ियों के बिना भी प्रेषित कर सकते हैं हमारे मस्तिष्क से प्रतिक्षण विचार निकलते रहते हैं और आकाश में निरन्तर गति करते रहते हैं। यदि इन विचारों को प्राणशक्ति का बल मिल जाये तो ये विचार उत्पन्न शक्तिशाली बनकर कार्यरूप में परिणत होने लगते हैं। अत: प्राणचिकित्सक उपचार करते समय मानसिक रूप से रोगी के स्वस्थ होने की भावना भी करता है, क्योंकि इसके बिना मार्जन एवं उत्सर्जन की क्रिया पूरी तरह सफल नहीं हो पायेगी।
5-प्राण उर्जा कोई काल्पनिक विचार नहीं है। इस सन्दर्भ में वैज्ञानिकों ने गहन अनुसंधान किये है।वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसमें छोटे जानवरों का मस्तिष्क निकाल देने के बावजूद वे पहले की तरह ही सब कार्य करते रहते हैं। इससे स्पष्ट
होता है कि प्राणशक्ति केवल मस्तिष्क में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहती है। हम अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके इस प्राणऊर्जा द्वारा अद्भुत कार्य कर सकते हैं। जिस प्रकार आतिशी शीशे द्वारा जब सूर्य की किरणों को एक जगह इकट्ठा किया जाता है, तो उर्जा के केन्द्रीकरण के कारण वहाँ अग्नि जल उठती है, इसी प्रकार प्राणचिकित्सा में, जब उपचारक द्वारा प्राण उर्जा को रोगी के अंगविशेष पर जब प्रक्षेपित किया जाता है तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम आते हैं, और उसका रोग ठीक होने लगता है।
6-कुछ डॉक्टर यह मानते हैं कि प्राण उर्जा केवल मस्तिष्क में ही रहती है, किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है। प्राण उर्जा तो हमारे सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है। मस्तिष्क केवल तर्क और बुद्धि का स्थान है। अन्य शक्तियाँ इस स्थान में नहीं रहती। हमारे प्रत्येक कार्य केवल बुद्धि या तर्क के बल पर नहीं किये जा सकते है।निद्रावस्था में मनुष्य का दिमाग सोता रहता है और प्राण तत्त्व द्वारा शरीर की रक्षा होती रहती है।वर्तमान समय में विश्व के अनेक देशों में प्राणचिकित्सा का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है और इसके अत्यन्त उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे हैं।
प्राण के स्रोत;-
03 FACTS;-
प्राण चिकित्सा के अनुसार प्राण के तीन मुख्य स्रोत बताये गये हैं- (1) सौर प्राणशक्ति (2) वायु प्राणशक्ति (3) भू या भूमि प्राणशक्ति।
1-सौर प्राणशक्ति -
सूर्य से प्राप्त होने वाली उर्जा को ‘‘सौरप्राणशक्ति’’ कहा जाता है। सूर्य प्राणउर्जा का अक्षय स्रोत है। इसे जगत् की आत्मा कहा जाता है। सूर्य के प्राणीमात्र में नवजीवन का संचार होता है। सूर्य से प्राणशक्ति प्राप्त करने के अनेक तरीके हैं। जैसे सूर्य या धूप स्नान, धूप में रखे हुये पानी या तेल का प्रयोग करके इत्यादि।यह अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है और पूरे शरीर energizes करता है। 5 या 10 मिनट के लिए sunbathing द्वारा सौर प्राण ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं । लेकिन बहुत ज्यादा सौर प्राण शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है। धूप स्नान लेते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रात: कालीन सूर्य की रोशनी ही हमारे लिये स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। अत्यधिक तेज धूप में लम्बे समय तक खड़े रहने पर हमारे शरीर को हानि पहुँच सकती है।
2-वायु प्राणशक्ति -
वायुमंडल में पाये जाने वाली उर्जा को वायुप्राणशक्ति या प्राणवायु कहते हैं। वायुप्राण को ग्रहण करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम श्वसन क्रिया है। श्वसन क्रिया के द्वारा हम अधिकतम प्राण उर्जा को ग्रहण कर सकें इस हेतु हमारी श्वास-प्रश्वास दीर्घ हो, उथली नहीं। अत: प्राणायाम के द्वारा हम सहजतापूर्वक वायुप्राणशक्ति को ग्रहण कर सकते हैं। विशेष प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति वायु पा्रण को त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों के द्वारा भी ग्रहण कर सकते हैं।हवा में सांस लेने से, प्राण हमारे फेफड़ों द्वारा अवशोषित हो जाती है। यह ऊर्जा भी चक्र केन्द्रों द्वारा सीधे अवशोषित हो जाती है। यह वायु प्राण ऊर्जा धीमी गति से लयबद्ध और गहरी साँस लेने द्वारा अधिक प्राप्त करना संभव है।
3-भू प्राणशक्ति -
पृथ्वी या भूमि में पायी जाने वाली प्राणशक्ति को भू प्राणशक्ति कहते है। भूमि के माध्यम से हम निरन्तर भप्राणशक्ति को ग्रहण करते रहते हैं। यह प्रक्रिया स्वत: ही होती रहती है। भू प्राण को हम पैर के तलुवों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। नंगे पैर भूमि पर चलने से भू प्राणउर्जा की मात्रा में वृद्धि होती है। इस प्रकार आप जान गये होंगे की सूर्य, वायुमंडल और भूमि-प्राणशक्ति के ये तीन मुख्य स्रोत हैं।जमीन प्राण पृथ्वी में मौजूद जीवन ऊर्जा से प्राप्त होता है। नंगे पांव चलने से यह ऊर्जा हमारे पैरों के तलवों द्वारा अवशोषित हो जाती है।यह प्राण ऊर्जा अधिक काम करने के लिए शरीर की क्षमता को बढ़ाने के लिए है।
क्या हैं प्राणिक हीलिंग?-
08 FACTS;-
1-प्राणिक हीलिंग का विज्ञान हीलिंग ऊर्जा-शरीर या मानव आभा की अवधारणा पर आधारित है। यह एक वैज्ञानिक विद्या है जो प्राण ऊर्जा पर आधारित है। प्राणिक हीलिंग एक स्पर्श चिकित्सा थेरेपी है जो दो बुनियादी सिद्धांतों Energizing और Cleaning के आधार पर आधारित है। 'आभा' अथार्त चारों ओर से घेरे चमकीले ऊर्जा शरीर... जो दृश्यमान भौतिक शरीर को चार से पांच इंच तक घेरे रहता है... के रूप में समझाया गया है। प्राणिक हीलिंग का आधार व्यक्ति के आस-पास के औरा को माना जाता है। महापुरुषों के चित्र के सिर के आस-पास स्वर्ण आभा होती है, जिसे औरा भी कहते हैं।कोई भी रोग या बीमारी पहले आभा में प्रकट होती है, और उसके बाद भौतिक शरीर में फैल जाती है.. जिन्हे रोकना संभव है।
2-इस विद्या के अन्तर्गत ऊर्जा को आधार बनाते हुए पीड़ित (बीमार) व्यक्ति के शरीर की नकारात्मक ऊर्जा तथा बीमारी पैदा
करने वाले कारकों को दूर किया जाता है और रोग लाभ दिलाया जाता है।प्राणिक हीलिंग, एक तरह का प्राणायाम है जो प्राण बढ़ाने के लिए किया जाता है।प्राण शरीर और इसमें स्थित चक्रों को देख कर रोग का पता लगाया जाता है। इस ऊर्जा से कई प्रकार के रोगों का उपचार किया जाता है।यह एक तरह की चिकित्सा थेरेपी है जिसकी मदद से बिना किसी दवा का इस्तेमाल किये कई तरह के जटिल रोगों का इलाज किया जाता है।प्राणिक हीलिंग के अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक रोगों तथा इसके अलावा सौंन्दर्य सम्बन्धी रोगों का उपचार संभव है।
3-प्राचीन समय के महापुरुष आदि के सिर के पीछे हमेशा एक प्रकाश फैला रहता था, उनके सिर के सन्मुख स्वर्ण आभा बनी रहती थी। इस चिकित्सा प्रणाली में व्यक्ति का उपचार रंगों के माध्यम से किया जाता है।इस सृष्टि में विभिन्न रंग हैं और प्रत्येक रंग के अनगिनत भेद हैं, इन्ही में से कई हमें सुखद अनुभूति कराते हैं तो कुछ निराशा के प्रतीक भी होते हैं। प्राणिक हीलिंग एक अत्यंत शक्तिशाली विज्ञान है, एक आध्यात्मिक चिकित्सक को इस विज्ञान का प्रयोग करने से पूर्व ध्यान एवं योग की कुछ क्रियाओं का नियमित अभ्यास कर स्वयं को चेतना के एक स्तर पर लाना होता है।
4-प्राणिक हीलिंग की मदद से मनोविज्ञानिक रोगों भी का इलाज किया जाता है। हीलिंग की मदद से मनोविकार, मिर्गी, चिन्ता, उदासी, भय, आत्महत्या की प्रवृति, शराब या किसी अन्य नशे की लत आदि का उपचार संभव है।प्राणिक हीलिंग की मदद से डायबिटिज, एन्जाईना, हृदय रोग, गुर्दे की पथरी और विकार, आंतों की सूजन, अल्सर, रक्त स्त्राव, आधे सिर का दर्द, आँखों की कम होती रौशनी, मोतियाबिन्द, बहरापन, सांस का रोग, दमा, पाचन तंत्र के रोग, भूख न लगना, उल्टी, कब्ज व दस्त, पीलिया व लीवर के रोग, गठिया, चर्म रोग, प्रजनन संबंधित रोग , लकवा, गर्दन का दर्द, स्पान्डलाईटिस, हाई ब्लड प्रेशर, गाल
ब्लैडर स्टोन, ट्यूमर, फ्रोजन सोल्डर आदि तमाम तरह के विकारों का इलाज संभव है ...वह भी बिना किसी दवा के।इतना ही नहीं प्राणिक हीलिंग सौन्दर्य सम्बन्धी विकार भी दूर करता है जैसे मोटापे की समस्या, कील-मुहांसे की समस्या, लम्बाई ना बढ़ना, जले-कटे निशानो को मिटाना आदि।
5-प्राण चिकित्सा के अन्तर्गत उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्माण्डीय प्राणऊर्जा को ग्रहण करके हाथों द्वारा ही रोगी व्यक्ति में प्रक्षेपित करता हैं। इस प्रकार इस चिकित्सा पद्धति में चिकित्सक रोगी की प्राणशक्ति को प्रभावित करके उसे
स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।प्राण चिकित्सा के द्वारा न केवल दूसरों का वरन् स्वयं का भी उपचार किया जा सकता है। इस प्रकार यह पद्धति स्वयं के लिये और दूसरों के लिये समान रूप से उपयोगी हैं। प्राण चिकित्सा को अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे औषधि धिवगांग, अतिभौतिक उपचार, मानसिक उपचार, हाथ का स्पर्श, चिकित्सकीय छुअन, चुम्बकीय उपचार, विश्वास उपचार, चमत्कारी उपचार, ओज उपचार आदि।अपने अनेक बार अनुभव किया होगा कि जो लोग अत्यधिक प्राणवान्
होते हैं, उनके आसपास रहने वाले लोग भी उनके सान्निध्य में स्वयं को ऊर्जावान एवं अच्छा महसूस करते हैं क्योंकि जिनमें प्राणऊर्जा की कमी होती है, वे अनायास ही अधिक उर्जा वाले व्यक्ति से जीवनीशक्ति ग्रहण करते हैं। इसलिये कमजोर एवं निर्बल प्राणशक्ति वाले ही स्वयं को अत्यधिक थका हुआ अनुभव करते हैं।
6-इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राणशक्ति अधिक से कम की ओर स्थान्तरित होती है और प्राण चिकित्सा में उपचारक प्रयास पूर्वक इस जीवनीशक्ति को रोगी में प्रक्षेपित करते हैं। न केवल इंसान वरन् कुछ पेड़-पौधे भी ऐसे हैं, जो अन्य पौधों की तुलना में अधिक प्राणऊर्जा छोड़ते है और इनके पीछे बैठने या लेटने पर हम स्वयं को अत्यधिक प्राणवान् अनुभव करते हैं। इस दृष्टि से पीपल का वृक्ष अत्यन्त उपयोगी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘वृक्षों में मैं पीपल हूँ।’’ पीपल के पेड़ को अत्यधिक चैतन्य माना जाता है और यह एक ऐसा पेड़ है जो दिन एवं रात दोनों समय ऑक्सीजन छोड़ता है। इसलिये भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक दृष्टि से भी पीपल के वृक्ष का अत्यन्त महत्व है और इसकी पूजा की जाती है। प्राणियों एवं वनस्पतियों के समान कुछ स्थान विशेष भी अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक प्राणशक्ति से युक्त होते हैं। जैसे-मंदिर, चर्च, तीर्थस्थल में जाकर हमें अत्यधिक शांति महसूस होती है। यह सब प्राण ऊर्जा की ही विशेषता है।
7-शरीर में प्राण ऊर्जा संतुलित एवं लयबद्ध रूप से परिक्रमा करती रहती है तथा यही मनुष्य के जीवन का सार एवं उसका आधार भूत तथ्य है। यह शक्ति एवं वैचारिक क्षमताओं में वृद्धि करने के साथ-साथ मानवीय गुणों को विकसित करने में भी अपूर्व सहयोग प्रदान करती है। जब कभी वाह्य या किन्हीं आंतरिक कारणों से शरीर में परिभ्रमित प्राण ऊर्जा में असंतुलन पैदा हो जाता है, तो इसके फलस्वरूप शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का घटना और बीमारियों का उत्पन्न होना आरंभ हो जाता है। बीमारी का कारण समझने के लिए शरीर के बाहर और अंदर की स्थिति को भी समझना चाहिए तथा दृश्य अदृश्य कारणों का मंथन करना चाहिए। बाहर के कारणों का तात्पर्य उन भौतिक कारणों से है जिनकी वजह से बीमारी हुई है। जैसे कीटाणु , कुपोषण, विषाणु युक्त प्रदूषित पदार्थ, व्यायाम की कमी, वायुमंडल में प्रदूषण तथा शुद्ध वायु एवं ऑक्सीजन की कमी और पानी कम पीना आदि। आंतरिक कारणों से तात्पर्य है शारीरिक अवयवों का ठीक प्रकार से कार्य न करना, पेट से संबंधित रोग, भावनात्मक एवं मानसिक कारण आदि। इनके कारण विभिन्न शक्ति-चक्रों का कमजोर होना या चक्रों में अत्यधिक शक्ति का एकाएक एकत्रित हो जाना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।
8-सांस लेने के समय ऑक्सीजन तथा दूसरी गैसें एवं रासायनिक पदार्थ, जो वायु के रूप में फेफड़ों में जाते हैं, कुछ अंश में सोख लिए जाते हैं तथा शेष सांस के साथ बाहर आ जाते हैं। सोख ली गई गैसों को ‘‘स्पेक्ट्रम-एनालिसिस’’ द्वारा जाना जा सकता है। रंगीन प्रकाश पुंज , जो प्राण वायु का रूप है, शोषित गैसों का ही अभिन्न हिस्सा होता है। इसी प्रकार हमारे खाद्य पदार्थों का वह भाग जो पाचन क्रिया के द्वारा तरल रूप में सोख लिया जाता है, हमारी जीवन ऊर्जा का स्रोत है। इस प्रकार जल, वायु, ताप व भोजन के द्वारा जो ऊर्जा, किरण-रश्मियों एवं प्राण वायु के द्वारा शरीर में शोषित की जाती है, उसका लगातार उत्सर्जन भी होता रहता है। इस प्रकार ये उत्सर्जित किरणें शरीर के चारों तरफ एक कंबल की तरह लिपटी रहती हैं और जीव विशेष के आभा मंडल या प्रभा मंडल के रूप में जानी जाती हैं। यह आभा मंडल शरीर के बाहर ढाई से चार इंच की मोटाई में परिव्याप्त रहता है जिसे अनुभव द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। मृतक के शव पर यह आभा मंडल नहीं होता क्योंकि यह आभा मंडल जीवित प्राणी की ऊर्जा का ही उत्सर्जन है।
प्राण चिकित्सा के सिद्धान्त;-
02 FACTS;-
प्राण चिकित्सा दो सिद्धान्तों पर आधारित है-
1. रोग से स्वमुक्ति का सिद्धान्त 2. प्राणउर्जा या जीवनीशक्ति का सिद्धान्त।
1-रोग से स्वमुक्ति का सिद्धान्त;-
02 POINTS;-
1-प्राणचिकित्सा का पहला सिद्धान्त ‘‘रोग से स्वमुक्ति’’ का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का आशय यह है कि हमारे शरीर में स्व-उपचार की क्षमता होती है। शरीर में जब किसी भी प्रकार की विकृति उत्पन्न हो जाती है तो शरीर स्वयं इसे ठीक करता है।
आपने देखा होगा कि जब किसी व्यक्ति की हड्डी टूट जाती है तो कुछ समय के बाद वह स्वत: जुड़ जाती है। प्लास्टर तो उसे जुड़ने में केवल सहयोग देता है, किन्तु हड्डी को जोड़ने का कार्य शरीर स्वयं करता है। इसी प्रकार जुकाम या बुखार अथवा खाँसी होने पर चाहे हम दवा लें अथवा ना ले कुछ दिनों बाद ये स्वयं ही ठीक हो जाते हैं। ये सभी तथ्य शरीर की स्वउपचार की क्षमता को सिद्ध करते हैं।
2-जिस प्रकार रसायन विज्ञान में रासायनिक क्रियाओं की गति को बढ़ाने के लिये विद्युत उर्जा का उपयोग उत्प्रेरक (केटेलिस्ट) के रूप में किया जाता है, उसी प्रकार प्राण चिकित्सा में प्राण उर्जा उत्प्रेरक के रूप में उन जीव रासायनिक प्रतिक्रियाओं की गति को तीव्र कर देती है जो शरीर की स्वयं चिकित्सा से संबंधित है। प्राण चिकित्सा के द्वारा सम्पूर्ण शरीर या
प्रभावित अंग विशेष को उर्जा देने पर उसके उपचार की गति अत्यन्त तीव्र हो जाती है।इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ शरीर की स्वयं उपचार की गति को बढ़ाने में सहायक बनती है, लेकिन रोग को ठीक करने की सामथ्र्य शरीर में स्वयं में है।
2-प्राण उर्जा या जीवनीशक्ति का सिद्धान्त-
यह प्राण चिकित्सा का दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है, जिसके अनुसार जीवित रहने के लिये हमारे शरीर में प्राणशक्ति का होना अत्यन्त आवश्यक है।जब व्यक्ति मर जाता है तो कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति के प्राण निकल गये। इस प्रकार स्पष्ट है कि जीवन को बनाये रखने के लिये जीवनीशक्ति का होना अनिवार्य है। इस प्रकार रोग से स्वमुक्ति तथा प्राणउर्जा इन दो सिद्धान्तों पर प्राणचिकित्सा आधारित है।
प्राणिक हीलिंग उपचार की विशेषता;-
02 FACTS;-
1-उपचार की इस विधि में ना तो मरीज को स्पर्श किया जाता है और न ही किसी प्रकार की कोई दवा दी जाती है।यह कोई जादू ,अन्ध विश्वास या सम्मोहन कला नहीं है।यह कोई परासामान्य विद्या नहीं, बल्कि प्रकृति के उन नियमों पर आधारित है जिससे हम अनभिज्ञ हैं । यह एक वैज्ञानिक विद्या है जो प्राण ऊर्जा पर आधारित है । प्राण शरीर और इसमें स्थित चक्रों को देख कर रोग का पता लगाया जाता है। इलाज के पूर्व इसी द्वारा जांच की जाती है । इस ऊर्जा से कई प्रकार के रोगों का उपचार किया जाता है ।
2-रैकी, एक्यूप्रेशर, स्पर्श चिकित्सा, मानसिक उपचार, विश्वास उपचार, एक्यूपन्चर, चुम्बक थैरेपी, आदि अनेक चिकित्सा प्रणालियां प्राण ऊर्जा पर ही आधारित है।'प्राण' सूक्ष्म ऊर्जाएं होती है जो स्थूल शरीर बनाती है । इसी सूक्ष्म शरीर को आभामण्डल कहते हैं । किरलियन फोटोग्राफी द्वारा आभामण्डल का फोटो लेना इसका प्रमाण है । इसमे रोगी को स्पर्श नहीं किया जाता है न ही कोई दवाई दी जाती है ।बुरी ऊर्जा नष्ट करने के उपरांत प्राणिक हीलर दोनों हाथों से शुद्ध-वायु, पेड़-पौधे, वनस्पति एवं प्राणदाता सूर्य आदि से खगोलीय ऊर्जा को संग्रहीत कर रोगग्रस्त व्यक्ति के अंग विशेष संबंधी ऊर्जा-चक्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए उसे ऊर्जा प्रदान करता है। ऊर्जा देने की प्रक्रिया को हीलिंग कहते हैं।प्राणिक हीलिंग उपचार के भी कई अलग अलग रूप हैं...
2-1-सीधा उपचार :-
इस प्रकार के उपचार में प्राणिक हीलर द्वारा रोगी को अपने ठीक सामने बैठाकर उपचार किया जाता है।हीलर रोगी को अपने समक्ष बैठाकर उसकी खराब ऊर्जा को इलाज करने वाला अपने हाथों से दूर करता है। इस पद्धति में रोगग्रस्त व्यक्ति के सामने की ओर एक पात्र में नमक मिश्रित जल रख दिया जाता है और माना जाता है कि उसके शरीर से निकाली गई बुरी ऊर्जा का उस जल में विलय कर दिया जाता है।
2-2-दूरस्थ उपचार :-
प्राणिक हीलिंग से उपचार का यह माध्यम उन लोगों के लिए ज्यादा कारगर साबित होता है जो इलाज कराने हीलर के पास नहीं आ पाते, इस प्रक्रिया में रोगी की अनुपस्थिति में भी उपचार संभव है।
2-3-स्वयं की हीलिंग: -
ध्यान देने वाली बता यह हैं कि प्राणिक हीलिंग का एक खास लाभ यह भी है कि इसकी मदद से ना सिर्फ आप खुद को प्रशिक्षित कर सकते हैं बल्कि स्वयं अपने को स्वस्थ भी रख सकते है।
प्राण चिकित्सा की विधि;-
02 FACTS;-
1-प्राणशक्ति उपचार या प्राणचिकित्सा अपने आप में कोई नयी चिकित्सा प्रणाली नहीं है, वरन् हमारे ऋषि-मुनियों, योगियों,
महापुरुषों के वरदानों-ेआशीर्वादों के रूप में अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है।प्राण चिकित्सा में सभी रोगों का मूल कारण एक ही माना जाता है और वह है-प्राणऊर्जा का असंतुलित होना। इसलिये सभी रोगों के इलाज की पद्धति भी एक ही है। प्राण चिकित्सा की सभी प्रक्रियायें मूलत: मार्जन एवं उर्जन की दो आधारभूत विधियों पर आधारित है। दूषित प्राण को शरीर से बाहर निकालना अर्थात् मार्जन या सफाई करना और स्वस्थ प्राण ऊर्जा को रोगी के शरीर में प्रवेश करना अर्थात उत्र्जन।
2-इस प्रकार प्राणचिकित्सा में हर रोग की दवा अलग-अलग नहीं है, वरन् रोग का निदान करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है अर्थात रोग शरीर के किस भाग में है? रोग की स्थिति क्या है? रोग शरीर में क्या विकृति उत्पन्न कर रहा है? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर रोग का सफल निदान करने के बाद उपचार प्रारंभ करना चाहिये। उपचारक को इलाज करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब रोग शरीर में प्रवेश करता है तो उसकी गति बाहर से भीतर की और एवं नीचे से ऊपर की ओर रहती है, लेकिन रोग जब ठीक होने की स्थिति में होता है तो उसकी गति बदल जाती है अर्थात् उसकी गति भीतर से बाहर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर हो जाती है। अत: रोग की गति की दिशा के आधार पर हम यह आसानी से पता लगा सकते है कि इस समय रोग का प्रकोप हो रहा है या रोग ठीक हो रहा है।
प्राण चिकित्सा की सावधानियॉ;-
06 FACTS;-
1-प्राण चिकित्सा में सभी रोगों का मूल कारण एक ही माना जाता है और वह है-प्राणउर्जा का असंतुलित होना ।
रोगी की आन्तरिक आभा की जाँच के दौरान जिन अंगों की आभा में खोखलापन प्रतीत हो तो वहाँ उर्जा कम होती है। यह प्राणशक्ति के कम होने का संकेत है।
2-स्वास्थ्य आभा को जाँचने के लिये पहले वाली स्थिति में ही रहते हुये धीरे-धीरे थोड़ा आगे की ओर बढ़ना चाहिये।
अब उपचारक को अपने हथेलियों के मध्यभाग में ध्यान केन्द्रित करते हुये धीरे-धीरे रोगी की ओर बढ़ना चाहिये और रोगी की बाहरी आभा को महसूस करना चाहिये।
3-हाथों की संवेदनशीलता के लिये लगभग एक महीने की अवधि तक इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिये।
सर्वप्रथम उपचारक को जीभ को तालू पर लगाना चाहिये। उपचारक को इलाज करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब रोग शरीर में प्रवेश करता है तो उसकी गति बाहर से भीतर की और एवं नीचे से ऊपर की ओर रहती है, लेकिन रोग जब ठीक होने की स्थिति में होता है तो उसकी गति बदल जाती है अर्थात् उसकी गति भीतर से बाहर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर हो जाती है। अत: रोग की गति की दिशा के आधार पर हम यह आसानी से पता लगा सकते है कि इस समय रोग का प्रकोप हो रहा है या रोग ठीक हो रहा है।अब जब हथेलियों में पुन: संवेदना महसूस होने पर रूक जाना चाहिये। ये संवेदन पहले की अपेक्षा थोड़े तीव्र हो सकते हैं। ये स्वास्थ्य आभा की निशानी हैं।
4-निदान - रोग की पहचान करना तथा उसके कारणों का पता लगाना।
5-प्रक्षेपित प्राणउर्जा - उपचारक या हीलर द्वारा रोगी को दी गई जीवनशक्ति
6-चक्र - उर्जा केन्द्र । प्राणचिकित्सा में 11 बड़े या प्रमुख चक्र तथा अन्य छोटे चक्र माने गये है।
रंग प्राण या जीवन ऊर्जा के प्रकार;-
07 FACTS;-
1-सभी रंग के अलग- अलग गुण है जो हमारे शरीर के आंतरिक कामकाज को प्रभावित करते हैं. सभी चक्र के भिन्न भिन्न रंग है और उनके अर्थ और विशिष्ट कार्य है.भिन्न-भिन्न रंग, प्रेम, दिव्यता, सत्ता, क्रोध आदि के भी प्रतीक हैं। प्रत्येक रंग दूसरे से भिन्न है; इसलिए शरीर पर प्रत्येक का प्रभाव भी दूसरे से भिन्न होता है।इन रंगों के प्रयोग से एक आध्यात्मिक चिकित्सक
रोगी के सूक्ष्म कोशो में प्रवेश कर रोग के मूल कारणों में परिवर्तन करता है।सूर्य की किरणों में 3 रंग ही प्रमुख माने गए हैं।
यह है पीला ,लाल और नीला।
2-पीला रंग एयर एलिमेंट का ,लाल रंग फायर एलिमेंट का और नीला रंग वाटर एलिमेंट का प्रतिनिधित्व करता है।
आयुर्वेद में आयुर्वेद में चिकित्सा उपचार का मूलभूत आधार भी 3 एलिमेंट की स्थिति को ही माना गया है तीन एलिमेंट के दोष से ही विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं।एयर फायर के मिश्रण से नारंगी रंग;एयर और वाटर एलिमेंट के मिश्रण से हरा ;और फायर एवं वाटर एलिमेंट के मिलन से बैंगनी रंग उत्पन्न होता है।त्रिदोष जन्य विकार से सन्निपात की उत्पत्ति मानी जाती है जिससे शरीर सफेद दिखाई देने लगता है।सफेद यानी श्वेत दरअसल कोई रंग ही नहीं है। लेकिन साथ ही श्वेत रंग में सभी रंग होते हैं। सफेद प्रकाश को देखिए, उसमें सभी सात रंग होते हैं।
3-आप सफेद रंग को अपवर्तन (Refraction ) द्वारा सात रंगों में अलग-अलग कर सकते हैं अथार्त श्वेत में सब कुछ
समाहित है।जब आप आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ते हैं और कुछ खास तरह से जीवन के संपर्क में आते हैं, तो सफेद वस्त्र पहनना सबसे अच्छा होता है।श्वेत रंग सात रंगों का मिश्रण है। श्वेत रंग पवित्रता, शुद्धता, विद्या और शांति का प्रतीक है। इससे मानसिक, बौद्धिक और नैतिक स्वच्छेता प्रकट होती है। विद्या ज्ञान का रंग सफेद है। ज्ञान हमें सांसारिक संकुचित भावना से ऊपर उठाता है और पवित्रता की ओर अग्रसर करता है। श्वेत रंग चंद्ममा जैसी शीतलता प्रदान करता है । सूर्य के प्रकाश के केवल 7 रंगों का ही हमें ज्ञान है, परंतु उनके मिलन से 10 लाख रंग बन सकते हैं।
4-लाल प्राण ;-
रोगोपचार में विभिन्न रंग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लाल रंग की मुख्य विशेषता यह है कि वह स्नायु और रक्त की क्रियाशीलता को बढ़ाता है। एड्रीनल ग्रंथि एवं संवेदी तंत्रिकाओं को उत्तेजित करने का काम तो लाल रंग का होता ही है। रक्त का रंग लाल होता है। उगते सूरज का रंग भी लाल होता है। मानवीय चेतना में सबसे अधिक कंपन लाल रंग ही पैदा करता है। जोश और उल्लास का रंग लाल ही है। लाल रंग गर्म है गर्मी, निर्माण या क्षतिग्रस्त ऊतकों की तेजी से मरम्मत , जीविका, उत्तेजना और प्राण शक्ति के साथ जुड़ा हुआ है,।
5-नारंगी प्राण; -
नारंगी रंग त्याग, संयम, तपस्या, साधुत्व और क्रिया का रंग है और नारंगी रंग Decongesting के साथ साथ सफाई प्रक्रियाओं के लिए है । ये रंग सफाई, बंटवारे, विस्फोट और विनाशकारी प्रक्रियाओं का प्रतीक है। नारंगी प्राण निष्कर्षण और अमूर्त के मूल रूप से संबंधित है। सुदृढ़ीकरण, विशाल, विस्फारित, वितरण, उत्तेजक, और रचनात्मकता को सक्रिय करने के साथ यह भौतिक शरीर भी सम्हालता है।
6-हरित प्राण;-
हरा रंग समस्त प्रकृति में व्याप्त है. यह पेड़-पौधे, खेतों-पर्वतीय प्रदेश को आच्छादित करने वाला मधुर रंग है। यह मन को शांति और हृदय को शीतलता प्रदान करता है। यह मनुष्य को सुख, शांति, स्फूर्ति देने वाला रंग है । संसार के महान ग्रंथ, मौलिक विचार, प्राचीन शास्त्र, वेद-पुराण आदि उत्तम ग्रंथ हरे शांत वातावरण में ही निर्मित हुए हैं। यह रंग प्राण decongesting , सफाई, detoxifying , संक्रमण और भंग का प्रतीक है । हरित प्राण deconstruction , टूट , detoxification और पाचन के साथ जुड़ा हुआ है।
7-पीला प्राण; -
यह रंग ज्ञान और विद्या का, सुख और शांति का, अध्ययन, विद्वता, योग्यता, एकाग्रता और मानसिक तथा बौद्धिक उन्नति का प्रतीक है। यह रंग मस्तिष्क को प्रफुल्लित और उत्तेजित करता है. भगवान विष्णु का पीत वस्त्र उनके असीम ज्ञान का द्योतक है।यह पीला प्राण एकता के गुण के साथ imbued /जोड़नेवाला है। यह तंत्रिका कोशिकाओं की उत्तेजना के साथ जुड़ा हुआ है और आत्मसात, गुणन विकास और शुरुआत का प्रतीक है।
8-नीले प्राण; -
नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुंदर। जो कुछ भी आपकी समझ से बड़ा है, वह नीला होगा, क्योंकि नीला रंग सब को शामिल करने का आधार है।नीले प्राण में कीटाणुशोधन के गुण होते हैं, निषेध, शांत और शीतलता के लिए अच्छा है। यह रंग बाधा, करार, सुखदायक, कूलिंग और लचीलापन का प्रतीक है। इसे शुद्ध करना होता है।
9-वायलेट प्राण ;–
यह रंग राजसी वैभव का प्रतीक है, इसके साथ ही यह जादू और रहस्य के मिश्रित भावों को प्रतिबिंबित करता है। इस रंग में सभी गुण शामिल हैं .हल्का बैंगनी रंग /वायलेट उत्थान और उपचार के गुणों के साथ जुड़े रहे हैं। वायलेट प्राण के प्रभावी उपयोग गंभीर बीमारियों और संक्रमण का उपचार कर रहे हैं। हल्के जामुनी का एक regenerating प्रभाव पड़ता है।
10-इलेक्ट्रिक बैंगनी प्राणिक ऊर्जा; -
इलेक्ट्रिक बैंगनी प्राण उच्च से उच्चतर आत्मा द्वारा स्वयं प्राप्त किया जाता है और यह "परिधि पर हल्के जामुनी रंग के साथ सफेद" के रूप में प्रकट होता है। यह आध्यात्मिक ऊर्जा या दैवी शक्ति रूप में भी जाना जाता है। यह सामान्य वायलेट प्राण से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली है और इसमें अन्य रंग के सभी गुण है। एक चेतना अपनी खुद की इलेक्ट्रिक बैंगनी प्राणिक ऊर्जा है।
11-गोल्डन प्राणिक ऊर्जा; -
जब etheric शरीर इलेक्ट्रिक बैंगनी ऊर्जा के साथ संपर्क में आता है ,तो गोल्डन प्राणिक ऊर्जा के रूप में शरीर द्वारा अवशोषित हो जाता है। गोल्डन प्राण के गुण लगभग इलेक्ट्रिक बैंगनी ऊर्जा के समान होते हैं; परंतु यह कम fluidic है। यह ऊर्जा योग में 'स्वर्ग 'की', या प्रकाश स्तंभ / प्रकाश का आध्यात्मिक पुल के रूप में जाना जाती है।
चक्र और प्राणशक्ति उपचार;-
07 FACTS;-
1-आभा मंडल को ऊर्जा-शरीर भी कहते हैं। हमारे तीन शरीर हैं - सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर और कारण शरीर। सूक्ष्म शरीर (आत्मा) अति सूक्ष्म व अदृश्य है। यह आत्मा ही चेतना का उत्सर्जन करती है जिसे प्राण भी कहा जाता है। स्थूल शरीर हमारा यह दृश्य शरीर है। यह शरीर ही हमारे क्रिया-कलापों का केंद्र है जिसमें शक्ति संचित है। यह सूक्ष्म शरीर को धारण करता है तथा अदृश्य रूप में कारण शरीर का भी केंद्र है। सूक्ष्म शरीर की उत्सर्जित चेतना अथवा प्राण के कारण यह जीवित रहता है। प्राण ऊर्जा के अशक्त होने से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तथा रोगों का जन्म होता है। कारण शरीर अदृश्य रूप में स्थूल शरीर के बाहर उससे लिपटा रहता है। इस कारण शरीर पर मानसिक एवं भावनात्मक विचार प्रभाव डालते रहते हैं । किसी भी प्रकार की क्षति अथवा वाह्य या आंतरिक कारण पहले कारण शरीर पर प्रभाव डालता है जिससे आभा मंडल क्षति ग्रस्त हो जाता है तथा यह प्रभाव स्थूल शरीर पर प्रत्यावर्तित होकर उसे रुग्ण बना देता है।
2-हमारा कारण शरीर एक कवच की भांति स्थूल शरीर का एक प्रकार का आवरण है और जहां यह एक ओर मानसिक व भावनात्मक विचारों से प्रभावित होता है वहीं दूसरी ओर निरंतर ब्रह्मांडीय ऊर्जा से निकट संपर्क में रहता है। इस कारण ब्रह्माण् डीय-ऊर्जा में विद्यमान नकारात्मक एवं सकारात्मक ऊर्जाएं निरंतर कारण एवं स्थूल शरीर को प्रभावित करती रहती हैं। स्थूल शरीर पर रोगों का प्रभाव, शरीर के किसी स्थान विशेष पर नकारात्मक ऊर्जा के जमाव को दर्शाता है। इसमें शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास हो जाता है तथा शरीर के अंदर स्वाभाविक गति से प्रभावित होने वाले ऊर्जा पथ में अवरोध आ जाता है जिसे स्थानीय ऊर्जा चक्र प्रदर्शित कर देते हैं।आध्यात्मिक उपचारक उस स्थानीय चक्र पर एकत्रित नकारात्मक ऊर्जा को झाड़ कर उसे दैवीय अग्नि में भस्म कर देता है अथवा अंतरिक्ष में प्रवाहित कर देता है।इस प्रक्रिया में वह निरीक्षण करता हुआ यह पता करता रहता है कि वह चक्र नकारात्मक ऊर्जा के जमाव से मुक्त हुआ अथवा नहीं। फिर उसके बाद वह सकारात्मक ऊर्जा के प्रक्षेपण से उस चक्र को स्वस्थ एवं स्वाभाविक दशा में ले आता है। ये सभी क्रियाएं अदृश्य रूप में होती हैं जिनमें प्रवाहक अपने स्वयं के चक्रों एवं संकल्प शक्ति का प्रयोग करता है।
3-केवल स्पर्श की क्रिया ही दिखाई देती है जिसमें वह स्थानीय एक या उससे अधिक चक्रों को स्पर्श करता है तथा शेष सभी क्रियाएं अदृश्य ही होती हैं। स्थूल शरीर के ऊर्जा पथ पर विद्यमान ऊर्जा चक्र, जो एक प्रकार से ऊर्जा परिभ्रमित पथ पर स्थापित एक ‘जंक्शन स्टेशन’ की भांति कार्य करते हैं, उस स्थान विशेष की ऊर्जा उत्सर्जन की स्थिति को दर्शाते हैं। ये ऊर्जा चक्र योग शास्त्र में वर्णित हैं ।यह सभी चक्र स्थान विशेष एवं पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन चक्रों से ऊर्जा के अवरोधन अथवा अत्यधिक उत्सर्जन की स्थिति का पता चल जाता है तथा उस स्थान विशेष का पता लग जाता है जिसके ऊपर किसी रोग का प्रभाव है। उपचारक उस चक्र विशेष पर ऊर्जा के नकारात्मक प्रभाव को हटाकर, सकारात्मक ऊर्जा का प्रेक्षपण करता है जिससे वह स्थान रोग मुक्त एवं स्वस्थ हो जाता है। इसी क्रम में यह विधि बार-बार दोहराई जाती है जो रोग की अवधि व उसकी तीव्रता पर निर्भर करती है। कभी-कभी इसमें तत्काल प्रभाव दिखाई देने लगता है और कभी-कभी कई दिन व माह भी लग जाते हैं।
4-एक बार में इस उपचार में दस मिनट से 60 मिनट तक का समय लग जाता है जिसे उपचारक ही निर्दिष्ट करता है। इस उपचार विधि के उपचारक में सदाचार, परोपकारिता, परमात्मा में भक्ति, दया के भाव एवं अन्य कई प्रकार के दैवीय गुणों का होना आवश्यक है। दूसरों के प्रति प्रेम, करुणा, निःस्वार्थ सेवा आदि भावों से पूरित व्यक्ति ही इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का सफल प्रवाहक एवं सम्प्रेषक बन पाता है। जब कोई प्रवाहक, रोगी पर इस ऊर्जा का प्रयोग करता है, तो वह रोगी और इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के मध्य एक माध्यम के रूप में कार्य करता है। प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति एवं स्पर्श से इस ऊर्जा का प्रक्षेपण करता है, जिसमें यह ऊर्जा उसके आज्ञा चक्र से शरीर में प्रवेश करके उसकी हथेली के माध्यम से रोगी के शरीर में प्रवाहित होने लगती है। प्रवाहक अपनी संकल्प शक्ति से रोगी के ऊर्जा शरीर पर तथा अपने स्पर्श द्वारा रोगी के स्थूल शरीर पर, ऊर्जा का प्रक्षेपण करता है तथा कभी-कभी आवश्यकतानुसार अपने आज्ञा चक्र के अतिरिक्त विशुद्धि चक्र एवं मूलाधार चक्र का भी प्रयोग करता है।
5-ब्रह्मांडीय ऊर्जा, प्रज्ञावंत होने के साथ-साथ, विशुद्ध एवं सात्विक प्रेम का असीम भंडार है, जो कभी समाप्त नहीं होता। यह हमारी क्षमताओं में वृद्धि करने के अतिरिक्त जीवन में मानवीय सद्गुणों को विकसित करने में भी अपूर्व सहयोग प्रदान करती है। स्वभावतः इस ऊर्जा शक्ति का भंडार हमारे अंदर जन्म से ही होता है किंतु वैचारिक प्रदूषण के कारण इस ऊर्जा से हमारा संबंध विच्छेद होने लगता है। परंतु जब कोई इस सुषुप्त ऊर्जा को पुनः जाग्रत कर देता है तो यह संपर्क पुनः स्थापित हो जाता है तथा निरंतर अभ्यास से, विचारों की पवित्रता और सात्विकता के चलते आजीवन बना रह सकता है। एक ऊर्जा प्रवाहक रोग निदान के लिए, इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रयोग करके, किसी समय विशेष पर शरीर में हुई ऊर्जा की क्षति को पूरा करता है। इस समग्र विश्व की संरचना एवं उसके अस्तित्व के पीछे यही ब्रह्मांडीय ऊर्जा सतत् क्रियाशील है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा में शरीर की रासायनिक ग्रंथियों, शारीरिक अवयवों, स्नायुओं और अस्थियों की सृजनात्मक प्रक्रिया को सुचारू रूप से संतुलित करने की अपूर्व क्षमता है। यह शरीर के विजातीय तत्वों को पूर्ण रूप से निष्प्रभावी करके, प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करती है जिससे रोग की पुनरावृत्ति नहीं हो पाती।यह पद्धति सरल एवं दुष्प्रभावों से रहित है तथा अत्यंत प्रभावशाली है जिसमें किसी भी प्रकार की हानि एवं प्रतिकूलता की संभावना नहीं है।
6-संपूर्ण सूक्ष्म शरीर या आध्यात्मिक शरीर एक दूसरे के साथ ऊर्जा चैनलों के माध्यम से जुड़ा हुआ है, इन ऊर्जा चैनल को नाड़ी कहा जाता है, नाड़ी का अर्थ है धारा। नाड़ी वह चैनल हैं जो रीढ़ की हड्डी के स्तंभ या केंद्रीय चैनल से प्राणिक ऊर्जा लेते हैं। इसी में प्राणिक ऊर्जा बहती रहती है।मानव ढांचे में कई हजारों नाडिय़ां हैं, लेकिन इनमें 72 को महत्वपूर्ण माना जाता है और 10 को प्रमुख माना जाता है। हालांकि वे सभी रीढ़ की हड्डी के भीतर सूक्ष्म ऊर्जा निकाय की सबसे महत्वपूर्ण 3 मुख्य नाडिय़ों से जुड़ी हैं। उन्हें इडा नाड़ी, पिंगला नाड़ी और सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है। इडा स्त्री चैनल है, पिंगला पुरुष चैनल है और सुषुम्ना केंद्रीय, आध्यात्मिक चैनल है। यिन और यांग, इडा और पिंगला की तरह सूक्ष्म रूप में प्रकृति, मन और शरीर की दो प्रमुख शक्तियां होती हैं। इडा में चेतना की मानसिक शक्ति होती है और पिंगला नाड़ी भौतिक शरीर के महत्वपूर्ण जीवन शक्ति को शामिल करती है। सुषुना नाड़ी सभी का सबसे सूक्ष्म चैनल है, यह रीढ़ की हड्डी के माध्यम से चल रहा है और चारों ओर इडा और पिंगला कई बिंदुओं पर पार कर जाते हैं ताकि ऊर्जा चक्र या चक्र विकसित हो सके।
7-चीन के मास्टर चो कोक् सुई ने प्राणशक्ति से उपचार की कला को वैज्ञानिक रूप दिया। उनकी यह कला शरीर के 11 चक्रों पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार मानव शरीर चक्रों से संचालित होता है। चक्र तेजी से घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र हैं, जो प्राणशक्ति को सोखकर, शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाते हैं। चक्रों को ठीक प्रकार से कार्य न करने आपका स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है।
11 चक्र ;-
1-मूलाधार चक्र;-
यह चक्र रीढ़ के अन्तिम छोर पर स्थित होता है। मूलाधार चक्र मांसपेशियों और अस्थि तन्त्र, रीढ़ की हड्डी साफ रक्त के निर्माण, अधिवृक्क ग्रन्थियों, शरीर के ऊतक और आन्तरिक अंगों को नियन्त्रित करता है। यह चक्र जननांगों को भी प्रभावित करता है। इस चक्र के गलत ढंग से कार्य करने पर जोड़ों का दर्द, रीढ़ की हड्डी का रोग, रक्त के रोग, कैंसर, हड्डी का कैंसर, ल्यूकेमिया, एलर्जी, शरीर विकास की समस्या, जीवनशक्ति की कमी, जख्म भरने में देरी और हडि्डियों के टूटन की शिकायत होती है। जिन व्यक्तियों को मूलाधार चक्र बहुत अधिक सक्रिय होता है, वे हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ्य होते हैं और जिनका मूलाधार चक्र कम सक्रिय होता है वे नाजुक और कमजोर होते हैं।मूलाधार चक्र लगभग अनदेखी पीले प्राण की एक छोटी मात्रा के साथ ज्यादातर लाल और नारंगी प्राण है।
2-काम चक्र;-
यह चक्र जननांग क्षेत्र में स्थित होता है। यह जननांगों व ब्लैडर को नियन्त्रित करता और ऊर्जा प्रदान करता है। इस चक्र के कार्य में गड़बड़ी होने पर काम सम्बंधी समस्याएं पैदा होती है। स्वाधिस्तान चक्र नारंगी प्राण के साथ साथ लाल प्राण के दो अलग अलग रंग है।
3-कटि चक्र;-
यह चक्र नाभि के ठीक पीछे पीठ में स्थित होता है। यह मूलाधार चक्र से आने वाली सूक्ष्म प्राणशक्ति को ऊपर की ओर भेजने के लिए रीढ़ की हड्डी में पंपिंग स्टेशन की तरह कार्य करता है। यह गुर्दे और अधिवृक्क ग्रन्थियों को नियन्त्रित करने का कार्य करता है। इस चक्र के कार्य में गड़बड़ी होने पर गुर्दे की बीमारी, जीवनशक्ति में कमी, उच्च रक्तचाप और पीठ दर्द होते हैं।कटि चक्र ज्यादातर लाल प्राण और प्राण नीले और पीले रंग की बहुत छोटी मात्रा के साथ नारंगी प्राण से भरा है।
4-नाभि चक्र;-
यह चक्र नाभि पर स्थित होता है। यह छोटी व बड़ी आन्त और एपेण्डिक्स को नियन्त्रित करता है। इस चक्र के ठीक से कार्य न करने पर कब्ज, एपेण्डिसाइटिस, शिशु-जन्म में कठिनाई, ओजिस्वता में कमी, एवं आन्त सम्बंधी रोग होते हैं।नाभि चक्र पीला है। नारंगी प्राण के रूप में ग्रीन, ब्लू, लाल और बैंगनी प्रमुख रंग है।
5-प्लीहा चक्र;-
यह बायीं निचली पसली के मध्य में स्थित होता है। इसमें गड़बड़ी से सामान्य कमजोरी व रक्त सम्बंधी बीमारी होती है।मणिपुर चक्र पसलियों के बीच खोखले क्षेत्र में स्थित है और एक पीछे और एक सामने का हिस्सा है। यह दस पंखुड़ियों के साथ है ...ज्यादातर लाल, पीला, हरे और नीले नारंगी और बैंगनी रंग के साथ।
6-सौर जालिका चक्र;-
यह चक्र छाती के डायफ्राम, अग्नाशय, जिगर, आमाशय, फेफड़े, हृदय को नियन्त्रित करता है। इस चक्र के गलत ढंग से कार्य करने पर मधुमेह, अल्सर, यकृतशोथ, हृदय रोग होते हैं। तिल्ली चक्र मुख्य रूप से लाल और पीले रंग का है .सूक्ष्म रंगों के साथ नीले, हरे, बैंगनी और नारंगी रंग है।
7-हृदय चक्र;-
छाती के मध्य में स्थित होता है। यह हृदय, थायमस ग्रन्थि और रक्त संचार तन्त्र को नियन्त्रित करता है। इसकी गड़बड़ी से हृदय, फेफड़ा, रक्त सम्बंधी
रोग होते हैं। सामने गोल्डन और लाइट रेड हार्ट चक्र है और पीछे स्वर्ण हार्ट चक्र शामिल हैं,अथार्त लाल, नारंगी और पीले।
8-कंठ चक्र;-
यह गले के बीच में होता है, जो थायराइड ग्रन्थि, गला और लिंफेटिक तन्त्र को नियन्त्रित करता है।इसकी गड़बड़ी से घेंघा, गले में खराश, दमा आदि रोग होते हैं।विशुद्धि चक्र ज्यादातर ब्लू प्राण.. कुछ हरे और बैंगनी रंग के साथ है।
9-भृकुटि चक्र;-
यह चक्र भौंह के मध्य स्थित होता है। यह पीयूष ग्रन्थि व अन्त:स्रावी ग्रन्थि को नियन्त्रित करता है। इसके ठीक ढंग से कार्य न करने पर मधुमेह हो सकता है। यह आंख व नाक को भी प्रभावित करता है।अजना चक्र 2 भागों और 2 रंग में है।
10-ललाट चक्र;-
यह चक्र ललाट यानि माथे के बीच स्थित होता है। यह पीनियल ग्रन्थि और तन्त्रिका तन्त्र को नियन्त्रित करता है। इसके ठीक तरह से कार्य न करने पर यादाश्त में कमी, लकवा और मिरगी जैसे रोग हो सकते हैं।
ललाट चक्र है, हल्के जामुनी,ब्लू, लाल, ऑरेंज, पीले और हरे रंग का ।
11-ब्रह्म चक्र;-
यह सिर के तालू पर स्थित होता है। यह पीनियल ग्रन्थि, मस्तिष्क और पूरे शरीर को नियन्त्रित करता है। इसकी गड़बड़ी से मानसिक रोग हो सकते हैं।
सहस्रार चक्र के भीतर हल्के जामुनी और गोल्डन प्राण है।बारहवां चक्र एक गोल्डन बॉल , या एक स्वर्ण ज्योति की तरह लगता है।
THE KEY NOTES;-
1-जब तक अंतरिक्ष से प्राण ऊर्जा का तार शरीर से जुड़ा रहता है तब तक मनुष्य जीवित रहता है। उस तार के टूटते ही जीव मर जाता है। यही जीवन और मृत्यु का रहस्य है। प्राण ऊर्जा को दीर्घकाल तक शरीर से संरक्षित रखने के लिए शरीर को स्वस्थ और प्रसन्न रखना अनिवार्य है। आशावादी दृष्टि और प्रसन्नता से प्राण ऊर्जा बढ़ती रहती है।जब आप प्रसन्न रहते हैं तो जीवन में उत्साह रहता है, किसी भी काम को करने में खुशी मिलती है। इसी से जीवनी शक्ति बढ़ती जाती है। प्राण शक्ति के संचय के लिए प्रसन्नता अमृत का काम करती है। दूसरी ओर जो लोग दुखी रहते हैं, हमेशा उदास रहते हैं, उनकी जीवनी शक्ति घटती रहती है। उदास रहना शरीर के लिए बहुत हानिकारक है। उदास, हताश और तनाव में रहने वाले व्यक्ति का जीवन बहुत कम होता है।
2-हंसमुख लोगों की प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, करुणा उसी व्यक्ति में उत्पन्न होगी जो हमेशा खुश रहेगा।उनकी एंडोक्राउन अधिक सक्रिय व सतेज रहती है। मानसिक तनाव में रहने वाला व्यक्ति कभी भी दयालु नहीं हो सकता। उसमें करुणा का भाव लेश मात्र भी नहीं मिलेगा। वही व्यक्ति दयालु हो सकता है जिसने मन को वश में कर लिया हो। इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ेगा। मनुष्य की संकल्प शक्ति से बड़ी शक्ति कोई नहीं। यदि वह संकल्प कर ले, तो कुछ ही समय में काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि पर विजय प्राप्त कर लेगा, मन उसके वश में होगा और हृदय में करुणा का सागर लहराएगा। बिना किसी क्रिया के सिर्फ मन को वश में करके ध्यान किया जाए, तो संभव है मनुष्य में स्पर्श के द्वारा चिकित्सा के गुण आ जाएं ।लेकिन प्राणिक हीलिंग का आधार सूर्य शक्ति (प्राण वायु)और करुणा है।इसीलिए जप और प्राणायाम के द्वारा प्राप्त विश्वव्यापी शक्ति, जिसे प्राण शक्ति (सूर्य) कहते हैं, को अपने में समाविष्ट करने के बाद ही प्राणिक हीलिंग की क्षमता प्राप्त होगी।
..CONTD...
..SHIVOHAM...
Comments