क्या है मनोमय कोश की साधनायें तथा सिद्धियाँ अथार्त ध्यान ,त्राटक, जप, और तन्मात्रा साधना?
क्या है मनोमय कोश का मनोलय योग ?- 04 FACTS;- 1-पंचकोशों में तीसरा मनोमय कोश है।मन में प्रचण्ड प्रेरक शक्ति है।वश में किया हुआ मन भूलोक का कल्प-वृक्ष है।यह सुख प्राप्ति की अनेक कल्पनाएँ किया करता है। मन में जैसी कल्पनाएँ, इच्छाएँ, वासनाएँ आकांक्षाएँ, तृष्णाएँ उठती हैं उसी ओर शरीर चल पड़ता है।मेस्मरेजम, हिम्नोटिज्म, परसन मैग्नेटिज्म ,मेण्टलथैरेपी, आकल्ट साइन्स, मेण्टल हीलिंग, स्प्रिचुअलिज्म और समाधि सुख आदि भी 'मनोबल' का ही एक चमत्कार है। तन्त्र क्रिया, मन्त्र-शक्ति, प्राण विनियम और चमत्कारी शक्तिया आदि सब एकाग्र मन की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के द्वारा ही होते हैं।पातंजलि ऋषि ने योग की परिभाषा करते हुए कहा कि 'चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोककर एकाग्र करना ही योग है। योग साधना ही इसलिए है कि चित्त वृत्तियाँ एक बिन्दु पर केन्द्रित होने लगें तथा आत्मा के आदेशानुसार उनकी गतिविधि हो। इस कार्य में सफलता मिलते ही आत्मा अपने पिता परमात्मा में सन्निहित समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। वश में किया हुआ मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जायेगा उसी ओर आश्चर्यजनक चमत्कार उपस्थित हो जायेंगे। 2-संकल्प की पूर्ण शक्ति से हमारे पूजनीय पूर्वज परिचित थे, उस शक्ति के थोड़े-थोड़े भौतिक चमत्कारों को लेकर अनेकों व्यक्तियों ने रावण जैसी उधम मचायी थी, परन्तु अधिकांश योगियों ने मन की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति को परकल्याण में लगाया था।अर्जुन को पता था कि मन को वश करने से कैसी अद्भुत सिद्धियाँ मिल सकती हैं।इसलिए उसने गीता में भगवान् क्या से पूछा- ''हे अच्युत्! मन को वश में करने की विधि मुझे बताइये, क्योंकि वह वायु को वश में करने के समान कठिन है।''अर्जुन ने ठीक कहा है कि मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान कठिन है। वायु को तो यंत्रों द्वारा किसी डिब्बे में बन्द भी किया जा सकता है, पर मन को वश में करने का तो कोई यन्त्र भी नही है। 3-भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये... (1) अभ्यास और (2) वैराग्य। अभ्यास का अर्थ है- वे योग साधनायें जो मन को रोकती हैं।वैराग्य का वास्तविक तात्पर्य है- राग से निवृत्त होना.. व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना।बुरी भावनाओं और आदतों से बचने का अभ्यास करने के लिए ऐसे वातावरण में रहना पड़ता हैं, जहाँ उनसे बचने का अवसर हो।पानी से दूर रहकर तैरना नहीं आ सकता। इसी प्रकार राग- द्वेष जहाँ उत्पन्न होता है उस क्षेत्र में रहकर उन बुराइयों पर विजय प्राप्त करना ही वैराग्य की सफलता है। कोई व्यक्ति जंगल में एकान्तवासी रहे तो नहीं कहा जा सकता कि वैराग्य हो गया क्योंकि जंगल में वैराग्य की अपेक्षा ही नहीं होती। जब तक परीक्षा द्वारा यह नहीं जान लिया गया कि हमने राग उत्पन्न करने वाले अवसर होते हुए भी उस पर विजय प्राप्त कर ली। तब तक यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एकान्तवासी वस्तुत: वैरागी ही है। प्रलोभन को जीतना ही वैराग्य है और यह विजय वहीं हो सकती है, जहाँ वे बुराइयाँ मौजूदा हों। इसलिए गृहस्थ में, सांसारिक जीवन में सुव्यवस्थित रहकर मन पर विजय प्राप्त करने को वैराग्य कहना चाहिए। 4-अभ्यास के लिए योगशास्त्रों में ऐसी कितनी ही साधना का वर्णन है, जिनके द्वारा मन की चंचलता, विषय लोलुपता और एषणा प्रवृत्ति को रोककर उसे ऋतम्भरा बुद्धि के, अंतरात्मा के अधीन किया जा सकता है। इन साधनाओं को मनोलय योग कहते हैं।मनोलय के अंतर्गत चार साधन प्रधान रूप से आते हैं।इन चारों का मनोमय कोश की साधना में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । 1- ध्यान 2- त्राटक 3- जप 4- तन्मात्रा साधना ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 1- क्या है ''ध्यान''?- 02 FACTS;- 1-ध्यान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मन:क्षेत्र में की जाती है। चुम्बक पत्थर अपने चारों ओर बिखरे हुए लौहकणो को सब दिशाओं से खींचकर अपने पास जमा कर लेता है। इसी प्रकार ध्यान द्वारा मन सब ओर से खींचकर एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होता है, बिखरी हुई चित्त-प्रवृतियाँ एक जगह सिमट जाती हैं।कोई आदर्श, लक्ष्य इष्ट निधारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। जैसा ध्यान किया जाता है मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। साँचे में गीली मिट्टी को दबाने से वैसी आकृति बन जाती है, जैसी उस साँचे में होती है। कीट-भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग, झींगुर को पकड़ ले जाता है और उसके चारों ओर लगातार गुंजन करता है। झींगुर इस गुंजन को तन्मय होकर सुनता है और भृंग के रूप को उसकी चेष्टाओं को एकाग्र भाव से निहारता है। झींगुर का मन भृंगमय हो जाने से उसका शरीर भी उसी ढाँचे में ढलना आरम्भ हो जाता है। उसके रक्त, माँस, नस, नाड़ी, त्वचा आदि में मन के साथ ही परिवर्तन आरम्भ हो जाता है और थोड़े समय में वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भृंग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यान शक्ति द्वारा साधक का सर्वागपूर्ण काया-कल्प होता है। 2-साधारण ध्यान से मनुष्य का शरीर परिवर्तन नहीं होता। इसके लिए विशेष रूप से गहन साधनाएँ करनी पड़ती हैं। परन्तु मानसिक काया-कल्प करने में हर मनुष्य ध्यान-साधना से भरपूर लाभ उठा सकता है। ऋषियों ने इस बात पर जोर दिया है कि हर साधक को इष्टदेव चुन लेना चाहिए। इष्टदेव चुनने का अर्थ है- जीवन का प्रधान लक्ष्य निर्धारित करना। इष्टदेव उपासना का अर्थ है- उस लक्ष्य में अपनी मानसिक चेतना को तन्मय कर देना। इस प्रकार की तन्मयता का परिणाम यह होता है कि मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एक बिन्दु पर एकत्रित हो जाती हैं। एक स्थानीय एकाग्रता के कारण उसी दिशा में सभी मानसिक शक्तियाँ लग जाती हैं, फ्लस्वरूप साधक के गुण, स्वभाव, विचार उपाय एवं काम अद्भुत गति से बढ़ते हैं, जो उसे अभीष्ट लक्ष्य तक सरलतापूर्वक स्वल्प काल में ही पहुँचा देते हैं। इसी को इष्ट सिद्धि कहते हैं।यहाँ किसी को भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं। अनेक देवताओं का कोई स्वतन्त्र आधार नहीं है। ईश्वर एक है। उसकी अनेक शक्तियाँ ही अनेक देवों के नाम से पुकारी जाती हैं।ध्यान साधना के लिए ही आदर्शो को दिव्य रूपधारी देवताओं के रूप में मानकर उनमें मानसिक तन्मयता स्थापित करने का यौगिक विधान है। ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की विधि(FOR BEGINNERS);- 10 FACTS;- ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि के लिए दस ध्यान नीचे दिये जा रहे हैं.. वे सभी आन्तर-त्राटक हैं.... 1- चिकने पत्थर की या धातु की सुन्दर-सी इष्टदेव की प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गन्ध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों पूजन कीजिए। इस प्रकार नित्य-प्रति पूजन आरम्भिक साधकों के लिए श्रद्धा बढ़ाने वाला मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधक में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान, यह पार्थिव पूजन ही है। मन्दिरों में मूर्ति पूजा का आधार यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है। 2-पूर्व को ओर मुँह करके, आसन पर बैठिए। सामने इष्टदेव का चित्र रख लीजिए। विशेष मनोयोगपूर्वक उसकी मुखाकृति या अंग-प्रत्यंगों को देखिये। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र की बारीकियाँ भी ध्यानावस्था में भली-भाँति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टाग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आर्शीर्वाद प्राप्त हो रहा है। 3- एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए।ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है, केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में मनोयोगपूर्वक देखिए। उसके बीच में इष्टदेव की धुँधली-सी छवि दृष्टिगोचर होगी, अभ्यास से धीरे-धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी। 4- भावना कीजिए कि इस सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रही हैं और वे रोमकूपों में होकर प्रवेश हुई आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।दिव्य तेजयुक्त,अत्यन्त सुन्दर, इतनी जितनी कि आप अधिक-से-अधिक कल्पना कर सकते हों। 5-आकाश में दिव्य वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित इष्टदेव का ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने की होती है। इष्टदेव के एक-एक अंग को विशेष मोनोयोगपूर्वक देखिए। उसकी मुखाकृति, चितवन, मुसकान, भाव-भंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए।इष्टदेव अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथा संकेतों द्वारा आपके मन:क्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेंगे। 6- शरीर को बिल्कुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर, शरीर की नस-नाडि़यों को निर्जीव की भाँति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे से निकल कर एक नीलवर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क या हृदय में ऋतुम्भरा बुद्धि के रूप में ..तरणतारिणी प्रज्ञा के रूप में प्रवेश कर रही है।उस परम दिव्य परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहें है जैसे समुद्र में ज्वार-भाटा उमड़ते हैं।वह ध्रुव तारा जो इस धरा में प्रेरक है ...सत्लोकवासी इष्टदेव ही है और भावना कीजिए कि आप उनकी गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं। 7- मेरुदण्ड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भू-मध्य भाग (भृकुटी) में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत की भांति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषक एवं जागरण कर रही है ऐसा विश्वास कीजिए। 8- भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है। उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजोमय इष्टदेव विराजमान हैं और घोड़ों की लगाम उसने अपने हाथ में थाम रखी है।जो घोड़ा बिचकता है वह चाबुक से उसका अनुशासन करते है और लगाम झटककर उसको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ-प्रदर्शन करते है। घोड़े भी इष्टदेव से आतंकित होकर उसके अंकुश को स्वीकार करते हैं। 9- हृदय स्थान के निकट, सूर्य चक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश की ध्यान कीजिए यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें इष्टदेव की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा से वस्तु स्वरूप की झाँकी होती है। आत्मा साक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्य चक्र है। 10- ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग, मन: क्षेत्र से उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है अपने समस्त पाप-ताप, विकार-संस्कार जल गये हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है। NOTE;- ऊपर कुछ सुगम एवं सर्वोपरि ध्यान हैं जो सरल हैं और प्रतिबन्ध रहित हैं। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। साधना के समय उनका करना उत्तम है... वैसे अवकाश में ,अन्य समयों में भी.. जब चित्त शान्त हो तो, इन ध्यानों में से, अपनी रुचि के अनुकूल ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में मन को संयत, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है। साथ ही उपासना का आध्यात्मिक लाभ भी मिलने से यह ध्यान दुहरा हित साधन करते हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 2-क्या है त्राटक?- 02 FACTS;- 1-त्राटक क्या है?--‘त्रि’ और ‘टकटकी बंधने’ से मिलकर बना शब्द त्राटक वास्तव में त्र्याटक है, जिसके विश्लेषण में कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु पर अपनी नजर और मन को बांध लेता है, तो वह क्रिया त्राटक कहलाती है। उस वस्तु को कुछ समय तक देखने पर द्वाटक और उसे लगातार लंबे समय तक देखते रहना ही त्राटक है। इसके लिए दृष्टि की शक्ति को जाग्रत करते हुए मजबूत बनानी होती है। यह क्रिया हठ योग के अंतरगत आती है। यह कहें कि त्राटक से किसी वस्तु को अपलक देखते रहने की अद्भुत शक्ति हासिल होती है। ऐसी स्थिति में एकाग्रता आती है और मन का भटकाव नहीं होने पाता है।त्राटक साधना से अगर शरीर की सुप्त शक्तियां जागृत हो जाती हैं और निर्मल-निरोगी काया में सम्मोहन, आकर्षण और वशीकरण जैसे भाव भी समाहित हो जाते हैं। इस अनुसार त्राटक का वास्तविक रूप अपनी चेतना को भटकने से रोकने के संघर्ष में जीत हासिल कर लेती है।त्राटक भी ध्यान का एक अंग है या त्राटक का ही एक अंग ध्यान है।
2-“त्राटक” तीन प्रकार के होते हैं....
03 POINTS ;-
1-आन्तर त्राटक-
किसी भी आसन में बैठकर या श्वासन में लेटकर, भूमध्य, ह्रदय की धड़कन या किसी “वस्तु-विशेष” का “मानसिक ध्यान” ”आन्तर-त्राटक” कहलाता है।नेत्र बन्द करके किसी एक वस्तु पर भावना को जमाने और उसे आन्तरिक नेत्रों से देखते रहने की क्रिया आन्तर-त्राटक कहलाती है। मैस्मरेजम के ढंग से जो लोग अन्तर-त्राटक करते हैं वे केवल प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करते हैं। इससे एकांगी लाभ होता है।प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करने से मन तो एकाग्र होता है, पर उपासना का आत्म-लाभ नही मिल पाता। इसलिए भारतीय योगी सदा ही आन्तर-त्राटक का इष्ट ध्यान के रूप में प्रयोग करते रहे हैं।आन्तर-त्राटक को योगी इस प्रकार करते हैं कि दीपक की अग्नि-शिखा, सूर्य-चन्द्रमा आदि कोई चमकता प्रकाश पन्द्रह सैकण्ड खुले नेत्रों से देखा, फिर आँखें बन्द कर ली और ध्यान किया कि वह प्रकाश मेरे सामने मौजूद है। एकटक दृष्टि से मैं उसे घूर रहा हूँ तथा अपनी सारी इच्छा शक्ति को तेज नोंकदार कील की तरह उसमें घुसाकर आर-पार कर रहा हूँ।त्राटक के अभ्यास के लिए स्वस्थ नेत्रों का होना आवश्यक है। जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हो, उन्हें बाह्य-त्राटक की अपेक्षा आन्तर-त्राटक उपयुक्त है
2-मध्य त्राटक;-
किसी 1×1 के सफेद कागज के बीचों बीच I रूपये के सिक्के के आकार का गोला बनाये व उसमेें चटकीला काला रंग भर दें या फिर “शक्ति-चक्र” का चित्र बना कर उसे अपनी आंखों के सामने दिवार पर इस प्रकार टांगे कि गोला आंखों के ठीक सामने पड़े। आंखों व उस गोले के बीच में ढाई से तीन फिट की दूरी रखें। गोले को ‘एकाग्र’ मन से तब तक देखे, जब तक आंखों में पानी न आ जाये।आंखों में पानी आने के बाद उस दिन का अभ्यास बन्द कर दें। उसके बाद नेत्रों को शीतल जल से धोयें। कुछ दिनों तक लगातार अभ्यास करते रहने से, बिन्दु या “शक्ति-चक्र” पर हिलता-डुलता प्रकाश दिखायी देने लगता है। चारों ओर रंग-बिरंगे प्रकाश की किरणें भी दिखाई देने लगती है। साधक को केवल बिन्दु या “शक्ति-चक्र” पर पड़ रहे प्रकाश पर ध्यान एकाग्र करना है। जितना प्रकाश गहरा होता जायेगा, साधक की एकाग्रता भी उतनी ही बढ़ती जायेगी।
3-बाह्य त्राटक;-
इस त्राटक में चन्द्रमा या किसी विशेष तारे का, उदय होते हुए सूर्य का, या किसी पहाड़ की चोटी, या पेड़ की फुनगी पर द्रष्टि जमा कर अभ्यास किया जाता है। प्रारम्भ में अभ्यास 2-3 मिनट तक करें, धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाये।बाह्य त्राटक का उद्देश्य बाह्य-साधकों के आधार पर मन को वश में करना एवं चित्त प्रवृत्तियों का एकीकरण करना है। मन की शक्ति प्रधानतया नेत्रों द्वारा बाहर आती है। दृष्टि को किसी विशेष वस्तु पर जमाकर उसमें 'मन को तन्मयतापूर्वक प्रवेश कराने से नेत्रों द्वारा चुम्बकत्व पैदा हो सकता है। इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है। दूसरे नेत्रों का प्रवाह-चुम्बकत्व बढ़ जाता है। ऐसी बढ़ी हुई आकर्षण शक्ति वाली दृष्टि को 'बेधक-दृष्टि' / Piercing Eyes कहते हैं जिससे किसी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। मैस्मरेजम करने वाले अपने नेत्रों में त्राटक द्वारा ही इतना विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर लेते हैं कि उसे जिस किसी शरीर में प्रवेश कर दिया जाय, वह तुरन्त बेहोश एवं वशवर्ती हो जाता है।मैस्मरेजम द्वारा सत्संकल्प, दान, रोग निवारण, मानसिक त्रुटियों का परिमार्जन आदि लाभ हो सकते हैं और उससे ऊँची अवस्था में जाकर अज्ञात वस्तुओं का पता लगाना, अप्रकट बातों को मालूम करना आदि कार्य भी हो सकते हैं।परन्तु दुष्ट प्रकृति के बेधक दृष्टि वाले अपने दृष्टि तेज से कहीं स्त्री-पुरुषों के मस्तिष्क पर अपना अधिकार करके उन्हें भ्रमग्रस्त कर देते हैं। त्राटक साधना ;-
आन्तर-त्राटक और बाह्य-त्राटक दोनों का उद्देश्य मन को एकाग्र करना है।कोई भी व्यक्ति अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के जरिए त्राटक साधन की अद्भुत सिद्धियां हासिल कर सकता है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिए बताई गई अनेकों योग पद्धतियों में त्राटक साधना को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। इसके लिए व्यक्ति में असीम श्रद्धा, धैर्य और मन की शुद्धता का होना जरूरी है। यह कई तरह से किया जा सकता है। जिसमें ज्योति त्राटक, बिंदु त्राटक और दपर्ण त्राटक मुख्य हैं।
04 FACTS;-
1-बिंदु त्राटकः-
यह त्राटक साधना का एक असान तरीका है, जिसके द्वारा इस क्रिया की शुरुआत की जाती है। इसके लिए किसी वस्तु, जैसे पेंसिल, फूल या कोई छोटी वस्तु को एकटक देखकर साधना की जाती है। यह एक ऐसी साधना है, जिसे सिद्ध करने वाले व्यक्ति में ऐसी शक्ति आ जाती है कि वह अपने विचारों से दूसरों के मन में पहुंच जाता है और वह व्यक्ति वशीभूत हो जाता है। इसतरह से वशीकरण होने पर दूसरों के मनोभावों या विचारों को पढ़ा-समझा जा सकता है। इसकी मुख्य बात यह है कि इसके लिए किसी भी तरह के तंत्र-मंत्र संबंधी अनुष्ठान आदि नहीं किए जाते हैं। यह एक तरह से आभासी ज्ञान, वशीकरण की अद्भुत शक्ति, प्रभाव, तेज और आत्मविश्वास को बढ़ा देता है।इसके लिए एक वर्गफूट के आकार का एक सफेद कागज लें, जो ड्राईंग पेपर हो सकता है। उसके बीच में काली स्याही से भरा हुआ तीन इंच व्यास का एक वृत बना लें। उस पेपर को अपने बैठने वाले आसन के सामने करीब तीन फीट की दूरी लिए हुए कमरे की दीवार पर इस तरह से टांग दें कि उसका वृत्त आपकी आंखों के ठीक सामने रहे। कमरे में हल्की रोशनी का होनी चाहिए। इस प्रयोग को रात्रि के समय शांत वातावरण में करने से अच्छा रहता है। उस वृत्त पर तब तक दृष्टि जमाए रहें जबतक कि उसपर कोई चमकीली न दिखने लगे। अर्थात ज्यों-ज्यों एकाग्रता बढ़ेगी, त्यों-त्यों वृत्त का कालापन खत्म होता चला जाएगा और एक स्थिति ऐसी भी आएगी जब वह एकदम से गायब ही हो जाएगा। इस अभ्यास को प्रतिदिन पंद्रह मिनट तक करते हुए लगातार 51 दिनों तक करने के बाद त्राटक साधना की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इस दौरान मन में बाहरी विचारों को नहीं आने देना चाहिए।
2-ज्योति त्राटक ;-
इसकी सिद्धि रात्रि या घुप्प अंधेरे में प्रतिदिन करीब एक निश्चित समय पर बीस मिनट तक कर प्राप्त की जा सकती है। इस साधना के दौरान किसी भी प्रकार की बाधा या अशांति नहीं पैदा होनी चहिए। ढीलेढाले परिधानों में आसन लगाकर करीब तीन फुट की दूरी पर एक दीपक या मोमबत्ती को जलाकर उपासना की जानी चाहिए। ध्यान रहे दीपक या मोमबत्ती की लौ में हवा या दूसरी वजहों से कंपन नहीं होने पाए या वह ध्यान के बीच में ही बुझे नहीं। उसे लौ की ज्योति या कहें मधुर प्रकाश पुंज को स्थिर आंखों से एकाग्रता के साथ देखना चाहिए। आंखों की पलकें नहीं झपकनी चाहिए। ऐसा तबतक करना चाहिए, जबतक कि आंखों में किसी भी तरह की पीड़ा या असहनशीलता की स्थिति नहीं आए।इस सिलसिले को प्रतिदिन जारी रखने पर ज्योति का तेज बढ़ता हुए ऐहसास होगा। कुछ दिनों के बाद तो साधना के दौरान ज्योति के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखेगा। साथ ही प्रकाश पुंज में संकल्पित कार्य या व्यक्ति का स्वरूप दिखेगा, तो उस आकृति के अनुरूप घटित घटनाओं से आंखों की गजब के तेज की अनुभूति होगी और मनोवांछित कार्यों में सफलता मिलेगी। इस तरह से मिलने वाली सिद्धि सकारात्मक कार्यों के लिए हो तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। एक मान्यता के अनुसार सिद्ध योगियों में दृष्टिमात्र से ही अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता त्राटक सिद्धि से ही हासिल होती है।
3-दर्पण त्राटकः-
02 POINTS;-
1- इस साधना के दौरान व्यक्ति की स्थिति गहन ध्यान अर्थात शून्य मे विचरण की होती है और उसके द्वारा विचारी जाने वाली बातें साकार होने लगती हैं। इस साधना को संपन्न करने वाला व्यक्ति के चेहरे पर जहां तेज और आत्मविश्वास झलकता है, वहीं लंबे समय तक विचारशून्य बना रहता है। वह किसी को भी आसानी से सम्मोहित या वशीभूत कर लेता है। इसके अभ्यास के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।इस तरीके में दर्पण का उपयोग किया जाता है, जिसमें अभ्यास के दौरान चेहरा नहीं दिखता है।दर्पण का आकार दस इंच लंबा और छह इंच चौड़ा होना चाहिए। यानि कि उसमें नजदीक से केवल चेहरा दिखने लायक हो। उसके सामने इस तरह से बैठना चाहिए ताकि दर्पण में सिर्फ आपकी दोनों आंखों की पुतली ही दिखाई दे।दर्पण को एकटक से निहारते समय अपनी सांसों को नियंत्रित रखना चाहिए। उसमे उतार-चढ़ाव आने से एकाग्रता भंग हो सकती है। यदि आपकी सांस एकदम रूकी हुई तो इससे आपकी वैचारिकता में स्थिरता आने की संभावना प्रबल हो जाती है। दर्पण में दिखने वाली सिर्फ पुतली पर ही ध्यान देना चाहिए, न कि दर्पण की फ्रेम या आस-पास की दीवारों पर।यह त्राटक लंबे समय तक प्रभावकारी रह सकता है। इस दौरान समय का अंदाजा लगाना मुश्किल है।दर्पण त्राटक से आत्मविश्वास, विचार शून्यता, सम्मोहन और प्राण ऊर्जा के अभ्यास किए जा सकते हैं। 2- एक फुट लम्बे-चौड़े दर्पण के बीचI रूपये के सिक्के के आकार के बराबर काले रंग के कागज का एक गोल टुकड़ा काटकर, चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर पीला बिन्दु बनाते हैं। इस बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करते हैं। इस अभ्यास को एक-एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह की दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब इसके आगे का अभ्यास शुरू हो जाता है।अब दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुँह देखते हुए अपनी बाई आँरव की पुतली पर दृष्टि जमा कर लेते हैं और उस पुतली में ध्यानपूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं। दृष्टि को स्थिर करने पर देखेंगे कि उस काले गोले में तरह-तरह की आकृतियों पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायेगा तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, कभी चिन्गारियाँ-सी उड़ती दीखेगी, कभी बादल से छाये हुए प्रतीत होंगे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा, किन्तु जैसे-जैसे दृष्टि स्थिर होना शुरू हो जायेगी उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियाँ बन्द हो जायेंगी और बहुत देर तक देखते रहने पर भी गोला ज्यों का ज्यों बना रहेगा।
4-अन्य त्राटकः- 1 - गो घृत का दीपक जलाकर नेत्रों की सीध में चार फुट की दूरी पर रखिए। दीपक की लौ आध इन्च से कम उठी हुई न हो इसलिए मोटी बत्ती डालना और पिघला हुआ घृत भरना आवश्यक है। बिना पलक झपकाये इस अग्नि-शिखा पर दृष्टिपात कीजिए और भावना कीजिए कि आपके नेत्रों की ज्योति दीपक की लौ से टकराकर उसी में घुली जा रही है। 2- प्रातःकाल के सुनहरे सूर्य पर या रात्रि को चन्द्रमा पर भी त्राटक किया जाता है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में होंगे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण कि उस समय तो सिर ऊपर को करना पड़ेगा या लेटकर ऊपर को आँखें करनी पड़ेगी, यह दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक हैं। इसलिए उदय होता सूर्य या चन्द्रमा ही त्राटक के लिए उपयुक्त माना जाता है।
NOTE;-
1-साधना का कमरा ऐसा होना चाहिए कि जिसमें न अधिक प्रकाश रहे न अंधेरा .. न अधिक सर्दी हो, न गर्मी। पालथी मारकर, मेरुदण्ड सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान हो उस पर दृष्टि जमाओ। चित्त की सारी भावनायें एक़त्रित करके, उस बिन्दु को इस प्रकार देखो, मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है, कुछ देर इस प्रकार देखने से आँखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास बन्द कर दो।
2-अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय ठीक है। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आँखें थक जाती हैं और पानी आ जाता है। पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है प्रतिदिन उससे एक या आधी मिनट बढा़ते जाओ।त्राटक साधन के लिए खुद को नियमों से बंधना होगा, तो इस उगते सूर्य, मोमबत्ती या दीपक की लौ, कोई यंत्र, दीवार या सफेद कागज पर बना बिंदु आदि को देखकर किया जा सकता है। इससे आंखों और मस्तिष्क के भीतर गर्मी बढ़ जाती है और अधिक देर तक करने से आंखों से आंसू तक निकल आते हैं। इस स्थिति में अभ्यास थोड़े समय के लिए रोक देना चाहिए। 3-अपनी सुविधा स्थिति या रुचि के अनुरूप इन त्राटकों में से किसी को चुन लेना चाहिए और उसे नियत समय पर नियमपूर्वक करते रहना चाहिए मन एकाग्र होता है और दृष्टि में बेधकता/Piercing, पारदर्शिता एवं प्रभावोत्पादकता की अभिवृद्धि होती है। त्राटक पर से उठने के पश्चात् गुलाब जल से आँखों को धो डालना चाहिए। गुलाब जल न मिले तो स्वच्छ छना हुआ ताजा पानी भी काम में लाया ला सकता है। आँख धोने के लिए छोटी काँच की प्यालियाँ सुविधाजनक होती हैं। पानी भरके उसमें आँख खोलकर डुबाने और पलक हिलाने से आँख धुल जाती हैं। इस प्रकार के नेत्र स्नान से त्राटक के कारण उत्पन्न हुई आँखों की उष्णता शान्त हो जाती है। त्राटक का अभ्यास समाप्त करने के उपरान्त साधना के कारण बढ़ी हुई मानसिक गर्मी के समाधान के लिए दूध, दही, लस्सी, मक्ख्न, मिश्री, फल, शर्बत, ठण्डाई आदि कोई ठण्डी पौष्टिक चीजें, ऋतु का ध्यान रखते हुए सेवन करनी चाहिए। जाड़े के दिनों में बादाम की हलुआ, च्यवनप्राश आदि वस्तुएँ भी उपयोगी होती हैं।
4-फायर एलिमेंट/ पित्त-प्रकृति’ वाले व्यक्तियों को ‘सूर्य-त्राटक’ (उगते हुए सूर्य का ध्यान) तथा ‘वॉटर एलिमेंट/कफ-प्रकृति’ वाले व्यक्तियों को ‘चंद्र त्राटक’ नहीें करना चाहिए। ///////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// क्या है जप साधना?- 04 FACTS;- 1-मनोमय कोश स्थिति एवं एकाग्रता के लिए जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। इसकी उपयोगिता इससे निर्विवाद है कि सभी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय इसकी आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। जप करने से मन की प्रवृत्तियों को एक ही दिशा में लगा देना सरल हो जाता है।उदाहरण के लिए एक बार एक मनुष्य ने किसी भूत को सिद्ध कर लिया। भूत बड़ा बलवान था उसने कहा - मैं तुम्हारे वश में आ गया ठीक है, जो आज्ञा होगी सो करूँगा, मुझसे बेकार नहीं बैठा जाता है। यदि बेकार रहा तो आपको ही खा जाऊँगा। यह मेरी शर्त अच्छी तरह समझ लीजिए। उस आदमी ने भूत को बहुत काम बताये, उसने थोड़ी-थोड़ी देर में सब काम कर दिये। भूत की बेकारी से उत्पन्न होने वाला संकट उस सिद्ध को बेतरह परेशान कर रहा था। तब वह दुःखी होकर अपने गुरु के पास गया। गुरु ने सिद्ध को बताया कि आँगन में एक बाँस गाढ़ दिया जाय और भूत से कह दो कि जब तक दूसरा काम न बताया जाया करे, तब तक उस बाँस पर बार-बार चढ़े और बार-बार उतरे। यह काम मिल जाने पर भूत से काम लेते रहने की भी सुविधा हो गई और सिद्ध के आगे उपस्थिति रहने वाला संकट हट गया। 2-मन ऐसा ही भूत है, जो जब भी निरर्थक बैठता है, तभी कुछ- न- कुछ खुराफात करता है। इसलिए यह जब भी काम से छुट्टी पावे तभी इसे जप पर लगा देना चाहिए। जप केवल समय काटने के लिए ही नहीं है, वरन् वह एक बड़ा ही उत्पादक एवं निर्माणात्मक, मनोवैज्ञानिक श्रम है। निरन्तर पुनरावृत्ति करते रहने से मन में उस प्रकार का अभ्यास एवं संस्कार बन जाता है, जिससे वह स्वभावत: उसी ओर चलने लगता है।पत्थर को बार-बार रस्सी की रगड़ लगने से उसमें गड्ढा पड़ जाता है। निरन्तर अभ्यास से मन भी ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि अपने दीर्घकाल तक सेवन किए गये कार्यक्रम में अनायास ही प्रवृत्त हो जाता है।एक-एक बूँद जमा करने से घड़ा भर जाता है। चींटी एक-एक दाना ले जाकर अपने बिलों में मनों अनाज जमा कर लेती है। जप में भी वही होता है। माला का एक-एक दाना फेरने से बहुत जमा हो जाता है। इसलिए योग ग्रन्थों में जप को, यज्ञ बताया गया है। गीता के अध्याय 10 श्लोक 25 में कहा गया है कि 'समस्त यज्ञों में जप-यज्ञ श्रेष्ठ हैं।' अन्य यज्ञों में हिंसा होती है, पर जप-यज्ञ में नहीं होती। जितने कर्म, यज्ञ, दान तप हैं, सब जप-यज्ञ की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते। समस्त पुण्य साधना में जप-यज्ञ सर्वश्रेष्ठ हैं।'' इस प्रकार जप, मन को वश में करने का रामवाण अस्त्र है और मन को वश में करना इतनी बड़ी सफलता है कि उसकी प्राप्ति होने पर जीवन को धन्य माना जा सकता है। समस्त आत्मिक और भौतिक सम्पदायें, संयत मन से ही उपलब्ध की जाती हैं।जप मन को वश में करने एवं मनोमय कोश को सुविकसित करने में बड़ा महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। 3-जप-यज्ञ के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक जानकारियाँ;-
09 POINTS ;- 1- जप के लिए प्रातःकाल एवं सर्वोत्तम काल है। दो घण्टे रात में रहने से सूर्योदय तक ब्रह्म-मुहूर्त कहलाता है। सूर्योदय से दो घण्टे दिन चढ़े तक प्रातःकाल होता है। प्रातःकाल से भी ब्रह्म-मुहूर्त अधिक श्रेष्ठ है।सन्ध्या को जप करना हो, तो सूर्य अस्त से एक घण्टा उपरान्त तक जप समाप्त कर लेना चाहिए। 2- जप के लिए पवित्र, एकान्त स्थान चुनना चाहिए। मन्दिर, तीर्थ, बगीचा, जलाशय आदि एकान्त के शुद्ध स्थान जप के लिए अधिक उपयुक्त हैं। घर में यह करना हो, तो भी ऐसी जगह चुननी चाहिए जहाँ अधिक खटपट न हो। 3- जप के लिए शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बैठना चाहिये। साधारणत: स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है पर किसी विवशता ऋतु प्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ मुँह धोकर या गीले कपड़ों से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है, नित्य धुले वस्त्रों की व्यवस्था न हो सके तो रेशमी या ऊनी वस्त्रों से काम लेना चाहिए। 4- जप के लिए बिना बिछाये न बैठना चाहिये। कुश का आसन, चटाई आदि घास के बने आसन अधिक उपयुक्त हैं। पशुओं के चमड़े, मृगछाला आदि आजकल उनकी हिंसा से प्राप्त होते हैं, इसलिए वे निषिद्ध हैं। 5- पद्मासन में पालती मारकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए जप के लिए बैठना चाहिए। मुँह प्रात: पूर्व की ओर सायंकाल पश्चिम की ओर रहे। 6- माला जपते समय सुमेरु (माला के प्रारम्भ का सबसे बड़ा केन्द्रीय दाना का) उल्लंघन न करना चाहिए। एक माला पूरी करके उसे मस्तिष्क तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उल्टा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए। 7- लम्बे सफर में, स्वयं रोगी हो जाने पर, किसी रोगी की सेवा में संलग्न होने पर, जन्म- मृत्यु का सूतक लग जाने पर स्नान आदि पवित्रताओं की सुविधा नहीं रहती है। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिये। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता या किसी भी पवित्र, अपवित्र दशा में किया जा सकता है 8- जप इस प्रकार करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें परन्तु समीप बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। मल-मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिये साधना के बीच में ही उठना पड़े तो शुद्ध जल से साफ होकर तब दुबारा बैठना चाहिये। जपकाल में यथासम्भव मौन रहना उचित है। कोई बात कहना आवश्यक हो तो इशारे से कह देनी चाहिये। 9 - जप के समय मस्तिष्क के मध्य भाग में इष्टदेव को, प्रकाश ज्योति का ध्यान करते रहना चाहिए। साधक का आहार तथा व्यवहार सात्विक होना चाहिये। मन शुद्ध होना चाहिये। ///////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////////// क्या हैं तन्मात्रा साधना?- 03 FACTS;- 1-हमारा शरीर एवं समस्त संचार तन्त्र पंचतत्वों का बना हुआ है। पृथ्वी, जल, वायु अग्नि और आकाश इन पाँच तत्वों की मात्रा में अन्तर होने के कारण विविध आकार प्रकार और गुणधर्म की वस्तुएँ बन जाती हैं।इन पाँच तत्वों की जो सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, इनकी इन्द्रियजन्य अनुभूति को 'तन्मात्रा' कहते हैं। शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। यह पाँच तत्वों से बने हुए पदार्थों के संसर्ग में आने पर जैसा अनुभव करती हैं, उस अनुभव को 'तन्मात्रा' नाम से पुकारते हैं। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पाँच तन्मात्राएँ हैं।परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्रायें उत्पन्न कर और उनके अनुभव के लिये शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ बनाकर, शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ सम्बद्ध कर दिया है।यदि तत्वों में तन्मात्रायें होती पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ न होतीं तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव-जीवन भी नीरस हो जाता है।इन्द्रियों की संवेदना-शक्ति और तत्वों की तन्मात्रायें मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं जिनके लोभ से वह जीवन धारण किये रहता है। इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म-मरण के चक्र में भव-बन्धन में बँधे रहने के लिए बाध्य करती है। 2-पाँच इन्द्रियों के खूँटे से, पाँच तन्मात्राओं के रस्सों से जीव बँधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं,खूँटे चाँदी सोने के बने हुए हैं, उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं।जीवन रूपी घोड़ा इन रस्सों से बँधा है। वह बन्धन के दुःख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूँटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा तक करना छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है। इसी बुद्धि की अदूरदर्शिता की, वास्तविकता न समझने को शास्त्रों में अविद्या माया, भ्रान्ति आदि नियमों को पुकारा गया है और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा, गाथाओं, उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है। वास्तव में, मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाय तो वह अपने विषय में भी लगता है और जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनःशक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं।पाँचों तन्मात्राओं की छोटी- सरल साधनायें करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है कि शब्द रूप रस, गंध, स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोग है, जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यक नहीं है। 3-आकाश की तन्मात्रा 'शब्द' है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय हैं।इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा 'स्पर्श' का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।अग्नि तत्व की तन्मात्रा 'रूप' है। यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा 'रस' है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है, षटरसों का खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा 'गन्ध' को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। क्या हैं तन्मात्रा साधना 05 FACTS;- पंच ज्ञानेन्द्रियों के पाँच प्रकार की पंच तन्मात्राओं की साधनायें इस प्रकार हैं- 1-शब्द साधना-आकाश तत्व2-स्पर्श साधना-वायु तत्व 3- रूप साधना-अग्नि तत्व
4-रस साधना -जल तत्व 5-गंध साधना-पृथ्वी तत्व 1-शब्द साधना;- 03 POINTS;- 1-शब्द साधना के लिए एकान्त स्थान में जाइये जहाँ किसी प्रकार शब्द या कोलाहल न होते हों। बाहर के शब्द भी न सुनाई पड़ते हों। रात्रि को जब चारों ओर शांति हो जाती हो तब इस साधना के लिए बड़ा अच्छा अवसर मिलता है। दिन में करना हो तो कमरे के किवाड़ बन्द कर लेना चाहिए ताकि बाहर से शब्द भीतर न आवें।शांत चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइये और उसक टिक-टिक की ध्यानपूर्वक सुनिये। अब धीरे- धीरे घड़ी को कान से दूर हटाते जाइये और ध्यान देकर उसकी टिक-टिक को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइये। धीरे-धीरे अभ्यास से घड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक-टिक कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रभाव शिथिल हो जाय, तो घड़ी को कान के पास लगाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और फिर दूर हटा कर सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से उस शब्द प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। 2- घड़ियाल में एक चोट मारकर, उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना। जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाय तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर, फिर उस ध्यान को ताजा कर लेना, इसी साधना का 'मुष्टि योग' नाम से योग ग्रन्थों में वर्णन है। 3-किसी झरने के निकट या नहर की झील के निकट जाइये जहाँ प्रपात का शब्द हो रहा हो। शान्त चित्त से इस शब्द-प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए। फिर कानों को उँगली डालकर बन्द कर लीजिए और सूक्ष्म कणन्द्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिये। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाय तो उँगली ढीली करके उसे सुनिये और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए। इन शब्द साधनाओं में लगे रहने से मन एकाग्र होता है। साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जाग्रत होती है, जिनके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं।आगे चलकर यही साधना 'कर्ण पिशाचिनी' सिद्धि के रूप में प्रकट होती है। कहाँ क्या हो रहा है, किसके मन में क्या विचार उठ रहा है, किसकी वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियाँ क्या-क्या कर रही हैं, भविष्य में क्या होने वाला है ? आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुँह रखकर सारी बात कह रहा है। इस सफलता को 'कर्ण पिशाचिनी सिद्धि' कहते हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 2-स्पर्श साधना;- 03 POINTS;- 1- स्पर्श साधना के लिए बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे उठावें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वह ठण्डक मिल रही है। किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछाकर उस पर चित्त लेटे रहिये, कुछ देर तक उसकी कोमलता का स्पर्श सुख अनुभव करते रहिये, इसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइये। कठोर भूमि पर पड़े रहकर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए फिर पलटकर गद्दे पर आ जाइये और कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से तितिक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श- साधना की सफलता से शारीरिक कष्टों को हँसते-हँसते सहने की शक्ति पैदा होती है। 2-उदाहरण के लिए भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने की प्रतीक्षा में कई महीने वाणों से छिदे हुए पड़े रहे थे। तिल-तिल शरीर में बाण लगे थे फिर भी कष्ट से चिल्लाना तो दूर वे उपस्थित लोगों को बड़े ही गढ़ विषयों का उपदेश देते रहे। ऐसा करना उनके लिए तभी सम्भव हो सका जब उन्हें तितिक्षा की सिद्धि थी अन्यथा हजारों बाणों में छिदा होना तो दूर एक सुई या काँटा लग जाने पर लोग होश हवास भूल जाते हैं ।स्पर्श- साधना से चित्त की वृत्तियाँ एकाग्र होती हैं और उनके अतिरिक्त तितिक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है जिससे कर्मयोग एवं प्रकृति प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों को भोगने से साधक बच जाता है। 3-वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है । वह सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे अद्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है जिन्हें पाकर मानव- जीवन धन्य हो जाता है। अनियन्त्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है। अग्नि जहाँ रखी जायेगी उसी स्थान को जलावेगी। जिस देह में असंयत मन रहेगा उसमें नित नई विपत्तियों, कठिनाइयाँ, आपदायें, बुराइयाँ बरसती रहेंगी। इसलिए मनोमय कोश को सुव्यवस्थित कर लेना मानो तीसरे बन्धन को खोल लेना है...आत्मोन्नति की तीसरी कक्षा पार कर लेना है। 3-रूप साधना;-
03 POINTS;- 1-रूप साधना के लिए माता सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी या राम, कृष्ण, आदि इष्टदेव का जो सबसे सुन्दर चित्र या प्रतिमा मिले, उसे लीजिए। एकान्त स्थान में ऐसी जगह बैठिये जहाँ पर्याप्त प्रकाश हो, इस चित्र या प्रतिमा के अंग-प्रत्यंगों को मनोयोगपूर्वक , खूब बारीकी के साथ देखिये। एक मिनट इस प्रकार देखने के बाद नेत्रों को बन्द कर लीजिये। अब उस चित्र के रूप का ध्यान कीजिए और जो बारीकियाँ, विशेषताएँ अथवा सुन्दरताएँ चित्र में देखी थीं उन सबको कल्पनाशक्ति द्वारा ध्यान के चित्र में आरोपित कीजिए। फिर नेत्र खोल लीजिए और उस छवि को देखिए ध्यान के साथ-साथ ॐ मन्त्र जपते रहिए। इस प्रकार बार-बार करने से वह रूप मन में बस जायेगा। उसका दिव्य नेत्रों से दर्शन करते हुए बड़ा आनन्द आवेगा। धीरे-धीरे इस चित्र की मुखाकृति बदलती मालूम देगी, हँसती मुस्कराती, नाराज होती, उपेक्षा करती हुई भावभंगीमा दिखाई देगी। यह प्रतिमा स्वप्न में अथवा जागृति अवस्था में, नेत्रों के सामने आवेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है, जिसे प्रत्यक्ष साक्षात्कार कहा जा सके। आरम्भ में यह साक्षात्कार धुंधला होता है। फिर धीरे-धीरे ध्यान सिद्ध होने से वह छवि अधिक स्पष्ट होने लगती है। पहले दिव्य दर्शन ध्यान क्षेत्र में ही रहता है, फिर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है। 2- किसी मनुष्य के रूप का ध्यान, जिन भावनाओं के साथ, प्रबल मनोयोगपूर्वक किया जायेगा, उन भावनाओं के अनुरूप उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ेगा। किसी के विचारों को बदलने, द्वेष मिटाने मधुर संबन्ध उत्पन्न करने, बुरी आदतें छुड़ाने, आशीर्वाद या शाप से लाभ हानि पहुँचाने आदि के प्रयोग इस साधना के आधार पर होते हैं ।छाया पुरुष की सिद्धि भी रूप-साधना का एक अंग है। शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से तथा बिना भोजन किये मनुष्य की लम्बाई के दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आकृति ध्यानपूर्वक देखिये ।थोड़ी देर बाद नेत्र बन्द कर लीजिए और उस दर्पण की आकृति का ध्यान कीजिए। आपको अपनी छवि दृष्टिगोचर होने लगेगी। कई व्यक्ति दर्पण की अपेक्षा स्वच्छ पानी में , तेल तथा घी में अपनी छवि को देखकर उसका ध्यान करते हैं। दर्पण की साधना-शान्तिदायक, तेल की संहारक और घी की उत्पादक होती है। सूर्य और चन्द्रमा जब मध्य आकाश में ऐसे स्थान पर हों कि उनके प्रकाश में खड़े होने पर अपनी छाया 3.5 हाथ रहे उस समय अपनी छाया पर भी उस प्रकार ध्यान कल्याणकारक माना गया है। 3-दर्पण, जल, तेल, घृत आदि में मुखाकृति स्पष्ट दीखती है और नेत्र बन्द करके वैसा ही ध्यान हो जाता है। सूर्य-चन्द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी छाया सामने आती है। उसे खुले नेत्रों से भली प्रकार देखने के उपरान्त आँखें बन्द करके उसकी छाया का ध्यान करते हैं। कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से उस छाया में अपनी आकृति भी दिखाई देने लगती है। कुछ काल निरन्तर इस छाया- साधना को करते रहा जाय तो अपनी आकृति की एक अलग सत्ता बन जाती है और उसमें अपने संकल्प एवं प्राण का सम्मिश्रण होते जाने से वह एक स्वतंत्र चेतना का प्राणी बन जाता है। उसके अस्तित्व को 'अपना जीवित भूत' कह सकते हैं। आरम्भिक अवस्था में यह आकाश में उड़ता या अपने आस-पास फिरता दिखाई देता है। फिर उस पर जब अपना नियंत्रण हो जाता है तो आज्ञानुसार प्रकट होता तथा आचरण करता है। जिनका प्राण निर्बल है उनका यह मानस-पुत्र, (छाया पुरुष) भी निर्बल होगा और अपना रूप दिखाने के अतिरिक्त और कुछ विशेष कार्य न कर सकेगा। पर जिनका प्राण प्रबल होता है उनका छाया पुरुष दूसरे अदृश्य शरीर की भाति कार्य करता है। एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म देह ..दो प्रकट देहें पाकर साधक बहुत से महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है। साथ ही रूप- साधना द्वारा मन का वश में होना तथा एकाग्र होना तो प्रत्यक्ष लाभ ही हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 4-रस साधना;- 02 POINTS;- 1-रस साधना के लिए जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको आम अधिक रुचिकर है, तो उसके छोटे-छोटे पाँच टुकड़े कीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्रभाग पर एक मिनट तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का स्मरण इस प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा, फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिये और पूर्ववत् उसे फेंक कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पाँच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।धीरे- धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय कम करना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस के अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता। 2-शरीर के लिए जिन रसों की आवश्यकता है, वे पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं उनका कुछ अंश वायु रूप में, कुछ तरल रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता रहता है। साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा, संकल्प-शक्ति के आकर्षण द्वारा खींचकर उदरस्थ किया जा सकता है।प्राचीनकाल में ऋषि लोग दीर्घकाल तक बिना अन्न जल के तपस्यायें करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकश में से ही अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे, इसलिए बिना अन्न जल के भी उनका काम चलता था। इस साधना का साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थ, औषधियों एवं स्वादिष्ट रसों का उपभोग अपने साधन बल द्वारा ही कर सकता है तथा दूसरों के लिए वह वस्तुयें आकाश में उत्पन्न करके इस तरह दे सकता है, मानो किसी के द्वारा कहीं से मँगाकर दी हों। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 5-गंध साधना;- 03 POINTS;- 1-गंध साधना के लिए नासिक के अग्र भाग पर त्राटक करना इस साधना में आवश्यक है। दोनों नेत्रों से एक साथ नासिका के अग्र भाग पर त्राटक नहीं हो सकता.. इसलिए एक मिनट दाहिनी ओर तथा एक मिनट बाई ओर करना उचित है। दाहिने नेत्र को प्रधानता देकर उससे नाक के दाहिने हिस्से को और फिर बाएँ नेत्र को प्रधानता देकर बाएँ हिस्से को गम्भीर दृष्टि से देखना चाहिए। आरम्भ में एक-एक मिनट से करके अन्त में पाँच-पाँच मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। इस त्राटक में नासिका की सूक्ष्म शक्तियों जाग्रत होती हैं। 2-इस त्राटक के बाद कोई सुगन्धित तथा सुन्दर पुष्प लीजिए। उसे नासिका के समीप ले जाकर कर एक मिनट तक धीरे-धीरे सूँघिये और उसी गन्ध का भली प्रकार स्मरण कीजिए। इसके बाद फूल को फेंक दीजिए और बिना फूल के ही उस गन्ध का दो मिनट तक स्मरण कीजिए ।इसके बाद दूसरा फूल लेकर फिर इसी क्रम की पुनरावृत्ति कीजिए। पाँच फूलों पर पन्द्रह मिनट प्रयोग करना चाहिए। स्मरण रहे कम-से-कम एक सप्ताह तक एक ही फूल का प्रयोग होना चाहिए। इसी प्रकार रस साधना में एक फल का एक सप्ताह तक प्रयोग होना चाहिए।कोई भी सुन्दर पुष्प गन्ध- साधना के लिए लिया जा सकता हैं। प्रत्येक पुष्प में कुछ सूक्ष्म गुण होते हैं। गुलाब- प्रेमोत्पादक, चमेली- बुद्धिवर्धक, गेंदा- उत्साह बढ़ाने वाला, चम्पा- सौन्दर्यदायक, मोगरा- सन्तानवर्धक, केतकी- रोग नाशक, कदम्ब- शान्तिदायक, कन्नेर- उष्ण, सूर्यमुखी- ओजवर्धक है। जिस पुष्प को सामने रखकर उसका ध्यान किया जायेगा उसी सूक्ष्म गुण अपने में बढ़ेंगे। 3-हवन, गन्ध- योग से सम्बन्धित है। किन्हीं पदार्थों की सूक्ष्म प्राण शक्ति को प्राप्त करने के लिए उनसे विधिपूर्वक हवन किया जाता है। जिससे उनका स्थूल रूप तो जल जाता है, पर सूक्ष्म रूप से वायु के साथ चारों ओर फैलकर निकटस्थ लोगों की प्राण-शक्ति में अभिवृद्धि करता है। सुगन्धित वातावरण में अनुकूल प्राण की मात्रा अधिक होती है इससे उसे नासिका द्वारा प्राप्त करते हुए अन्तःकरण प्रसन्न होता है।गन्ध- साधना से मन की एकाग्रता के अतिरिक्त भविष्य का आभास प्राप्त करने की शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर (बायाँ) और चन्द्र स्वर (दायाँ) सिद्ध हो जाने पर साधक अच्छा भविष्य- ज्ञाता हो सकता है। नासिका द्वारा साधा जाने वाला स्वर-योग भी गन्ध-साधना की एक शाखा है।
....SHIVOHAM....
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