कठोउपनिषद यम-नचिकेता संवाद के अनुसार क्या है परब्रह्म का रहस्य ?PART-1
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...…
कठोउपनिषद यम-नचिकेता संवाद;-
04 FACTS;-
1-नचिकेता को दुनिया का पहला महत्वपूर्ण जिज्ञासु माना जाता है।इसीलिए एक उपनिषद् भी उससे शुरू होता है। नचिकेता एक छोटा बालक था। उसके पिता ने एक यज्ञ करने की शपथ ली थी।कुछ लोग आध्यात्मिक ज्ञान के लिए इस तरह का शपथ लेते हैं। नचिकेता के पिता ने यह शपथ ली और और उन्होंने अपनी सभी बीमार गायें, बेकार संपत्ति और जिन चीजों की उन्हें जरूरत नहीं थी, जो किसी न किसी रूप में उनके लिए बोझ थीं, वे सब दान में दे डालीं।उसके पिता ने शपथ ली थी कि वह सब कुछ दान करके आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करेंगे, मगर उन्होंने चालाकी की। नचिकेता अपने पिता के पास गया और इस बारे में उनसे बात करने लगा। उसकी उम्र उस समय सिर्फ पांच साल की थी, मगर उसमें असाधारण समझदारी थी।नचिकेता ने अपने पिता से कहा, ‘आपने ठीक नहीं किया। अगर आप सब कुछ देना नहीं चाहते थे, तो आपको यह शपथ नहीं लेनी चाहिए थी। एक बार शपथ लेने के बाद, आपको सब कुछ दे देना चाहिए। मुझे बताइए कि आप मुझे किसको दान करने वाले हैं?’ उसके पिता क्रोधित हो गए और बोले, ‘मैं तुम्हें यम को देने वाला हूं।’ यम मृत्यु के देवता होते हैं। बालक ने अपने पिता की बात को बहुत गंभीरता से लिया और यम के पास जाने के लिए तैयार होने लगा।
2-यम उस समय यमलोक में नहीं थे।नचिकेता पूरे तीन दिन तक इंतजार करता रहा।तीन दिन बाद यम लौटे तो उन्होंने पूरी तरह थके और भूखे, मगर पक्के इरादे वाले इस छोटे से बालक को देखा।वह बोले, ‘मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि तुम तीन दिन से मेरा इंतजार कर रहे हो। तुम्हें क्या चाहिए? मैं तुम्हें तीन वरदान देता हूं। बताओ, तुम क्या चाहते हो?’ नचिकेता ने सबसे पहले कहा, ‘मेरे पिता बहुत लालची हैं। वह सांसारिक सुख-सुविधाएं चाहते हैं। इसलिए आप उन्हें सारे भौतिक ऐशोआराम का आशीर्वाद दें। उन्हें राजा बना दीजिए।’ यम ने कहा ‘तथास्तु’। उसने दूसरा वरदान मांगा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि मुझे ज्ञान प्राप्त करने के लिए किस तरह के कर्मों और यज्ञों को करने की जरूरत है।’ वैदिक साहित्य में हमेशा यज्ञों की बात की जाती है।यम ने उसे सिखाया कि उसे क्या करना चाहिए।फिर नचिकेता ने उनसे पूछा, ‘मृत्यु का रहस्य क्या है? मृत्यु के बाद क्या होता है?’ यम ने कहा, ‘यह प्रश्न तुम वापस ले लो। तुम मुझसे और कुछ भी मांग लो। तुम चाहो तो मुझसे एक राज्य मांग लो, मैं तुम्हें दे दूंगा। मैं तुम्हें धन-दौलत दे सकता हूं। मैं तुम्हें दुनिया के सारे सुख दे सकता हूं।’ वह बोलते रहे, ‘तुम मुझे बताओ, क्या चाहते हो। तुम मुझसे दुनिया की सारी खुशियां ले लो, मगर यह प्रश्न मत पूछो।’
3-नचिकेता ने कहा, ‘इन सब का मैं क्या करूंगा? आप पहले ही मुझे बता चुके हैं कि ये सब चीजें नश्वर हैं। मैं पहले ही समझ चुका हूं कि सारे क्रियाकलाप, लोग जिन चीजों में संलिप्त हैं, वे सब अर्थहीन हैं। वह सिर्फ दिखता है, वह हकीकत नहीं है। फिर मुझे और धन-दौलत देने का क्या लाभ? वह तो मेरे लिए सिर्फ एक जाल होगा। मैं कुछ नहीं चाहता, आप बस मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए।’यम ने इस सवाल को टालने की हर संभव कोशिश की। वह बोले, ‘देवता भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं जानते। मैं तुम्हें नहीं बता सकता।’ नचिकेता ने कहा, ‘अगर ऐसा है, अगर देवता भी इसका उत्तर नहीं जानते और सिर्फ आप जानते हैं, तब तो आपको इसका उत्तर देना ही होगा।’उसने अपनी जिद नहीं छोड़ी। यम एक बार फिर उसे वहीं छोड़कर महीनों के लिए घूमने चले गए। वह किसी तरह सिर्फ इस बालक से पीछा छुड़ाना चाहते थे। मगर बालक कई महीनों तक वहीं डटा रहा। कहा जाता है कि यम के द्वार पर ही उसे पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसे अस्तित्व के सारे प्रश्नों के जवाब मिल गए और उसने खुद को विलीन कर दिया।
4-वह प्रथम जिज्ञासु था। इसलिए हमेशा उसे एक आदर्श की तरह प्रस्तुत किया जाता है।जब आप नचिकेता की तरह होते हैं, तो आपको किसी मार्ग की जरूरत नहीं होती। सब कुछ यहीं मिल जाता है ..कहीं जाने की जरूरत नहीं होती।इच्छा को इतना प्रबल और शक्तिशाली होना चाहिए कि ईश्वर आपसे दूर न रह सके और दिव्यता आपको नजरअंदाज न कर पाए। ऐसा नहीं है कि दिव्यता आपको नजरअंदाज करने की कोशिश करता है, मगर आपका मन और अहं लाखों अलग-अलग तरीकों से वास्तविकता पर पर्दा डाल कर उसे आपकी आंखों से ओझल करने की कोशिश करते हैं।चाहे आप कर्म के पथ पर चलें या ज्ञान, या भक्ति के पथ पर, आपकी तीव्रता ही आपको इन रास्तों पर आपको आगे बढ़ाती है, न कि खुद ये रास्ते। अगर तीव्रता न हो, तो कोई क्रिया कुछ नहीं कर सकती। जब तीव्रता इन क्रियाओं में आ जाती है, तो उनमें आपको एक अलग आयाम तक ले जाने की शक्ति होती है अर्थात आपकी तीव्रता ही आपको रूपांतरित करती है।
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यमराज के इन वचनों को सुनकर नचिकेता बोला— ) जिस उस परमेश्वर को धर्म से अतीत अधर्म से भी अतीत तथा कार्य और कारणरूप संपूर्ण जगत से भी भिन्न और भूत वर्तमान एवं भविष्य तीनों कालों से तथा इनसे संबंधित पदार्थों से भी पृथक ( आप) जानते हैं उसे बतलाइए।। 14।।यम ने कहा संपूर्ण वेद जिस परमपद का बारंबार प्रतिपादन करते हैं और संपूर्ण तप जिस पद का लक्ष्य कराते हैं, अर्थात वे जिसके साधन हैं जिसको चाहने वाले साधकगण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वह पद तुम्हें (मैं) संक्षिप्त में बतलाता हूं। (वह है) ओम— ऐसा यह एक अक्षर।।15।।यह अक्षर ही तो ब्रह्म है (और) यह अक्षर ही परब्रह्म है इसलिए इसी अक्षर को जानकर, जो जिसको चाहता है उसको वही ( मिल जाता है)।।16।।यही अत्युत्तम आलंबन है यही (सबका) अंतिम आश्रय है। इस आलंबन को भलीभांति जानकर ( साधक) ब्रह्मलोक में महिमा को उपलब्ध होता है।। 17।।नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा न तो जन्मता है और न मरता ही है; यह न तो स्वयं किसी से हुआ है न (इससे) भी कोई हुआ है, अर्थात यह न तो किसी का कार्य है और न कारण है। यही अजन्मा नित्य सदा एकरस रहने वाला (और ) पुरातन है अर्थात क्षय और वृद्धि से रहित है। शरीर के नाश किए जाने पर भी (इसका) नाश नहीं किया जा सकता है।। 18।।यदि कोई मारने वाला व्यक्ति अपने को मारने में समर्थ मानता है और यदि ( कोई) मारा जाने वाला व्यक्ति अपने को मारा गया समझता है ( तो ) वे दोनों ही (आत्मस्वरूप को) नहीं जानते; ( क्योकि) यह आत्मा न तो (किसी को) मारता है (और) न किसी के द्वारा मारा जा सकता है।। 19।।इस जीवात्मा के हृदयरूप गुहा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म और महान से भी महान है। परमात्मा की इस महिमा को कामनारहित (और) चितारहित (कोई बिरला साधक) सर्वाधार परब्रह्म परमेश्वर की कृपा से ही देख पता है।।20।।
16 FACTS;-
1- नचिकेता ने कहा, यह जो सारे संपूर्ण जगत से भिन्न है, सारे जगत से अतीत है, अतिक्रमण कर जाता है; जो दिखाई पड़ता है, उसके पार है; जो सुनाई पड़ता है, उसके पार है ...उस परम तत्व को आप मुझे समझाइए।यम ने कहा संपूर्ण वेद जिस परमपद का बारंबार प्रतिपादन करते हैं और संपूर्ण तप जिस पद का लक्ष्य कराते हैं अर्थात वे जिसके साधन हैं जिसको चाहने वाले साधकगण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं वह पद तुम्हें मैं संक्षिप्त में बतलाता हूं वह है ओम .. ऐसा यह एक अक्षर।यह ओम वैसा ही है, जैसे कि फिजिक्स या केमिस्ट्री के फार्मूले होते हैं, सूत्र होते हैं। इस ओम में सारी खोज समाई हुई है। इस एक शब्द में हमने सब रख दिया है। और इस छोटे से शब्द को कोई छोटा न समझे। कुंजी छोटी होती है, लेकिन महलों का द्वार खोल देती है। इस एक छोटी सी कुंजी से सारे अस्तित्व का द्वार खुल सकता है। लेकिन कुंजी का ठीक उपयोग करना आना चाहिए। आपके हाथ में भी कुंजी हो, दरवाजे पर भी आप खड़े हों, और कुंजी को ताले में न लगाएं और कहीं लगाते रहें।तो चाबी के घुमाने की भी ठीक व्यवस्था खयाल में होनी चाहिए। क्योंकि आप चाबी उलटी भी घुमाते रह सकते हैं। जरा सी चूक और सब भटक जाएगा। और प्रयोग जितना सूक्ष्म होता है , उतने ही भटकने की संभावना बढ़ जाती है।
2-यम ने नचिकेता को कहा कि वेद जिसका बारंबार गुणगान करते हैं संपूर्ण तप जिसकी ओर लक्ष्य कराते हैं साधक जिसके लिए ब्रह्मचर्य साधते हैं।इसे थोड़ा समझना चाहिए। जो लोग भी अति कामी हैं, उन्हें भीतर की ओंकार की ध्वनि सुनाई पड़ने में बड़ी कठिनाई होगी। उसके कारण हैं।कामवासना सिर्फ वासना ही नहीं है, शक्ति का अपव्यय भी है। और जो ऊर्जा हम बाहर फेंक रहे हैं वह ऊर्जा हमें भीतर रिक्त , क्षीण कर जाती है।इसीलिए संवेदना कम हो जाती है। जिन्हें भी ओम की ध्वनि सुननी हो, उन्हें अपनी शक्ति के अपव्यय से बचना चाहिए। क्योंकि जितनी ज्यादा शक्ति की तरंगें भीतर होंगी, उन तरंगों में वह भीतर की ओंकार की ध्वनि टकराने लगेगी। और वह जो टकराहट है, वह आपको पहले सुनाई पड़ेगी।ब्रह्मचर्य का मूल्य ब्रह्मचर्य में स्वयं नहीं है बल्कि भीतर शक्ति की एक दीवाल खड़ी करने में है, जिसमें भीतर का ओंकार टकराने लगे और उस टकराहट को हम सुन पाएं। ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति दीवालरहित है। उसके आसपास कोई भी घेरा नहीं है, जिस घेरे में भीतर की ध्वनि टकराकर वापस लौट सके और सुनी जा सके। वह बिना दीवाल का मकान है। उसमें से आवाज गूंजती है और अनंत शून्य में, आकाश में खो जाती है।
3-ब्रह्मचर्य एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जिसके माध्यम से शरीर की पर्त के साथ -साथ शक्ति की पर्त इकट्ठी होती चली जाती है। इस शक्ति की पर्त में पहली बार ओंकार की ध्वनि गूंजती है। और जब इस गूंज को हम सुन लेते हैं, तो हमें एक बात तो पक्की हो जाती है कि जिसकी यह गूंज है, वह भीतर छिपा है। फिर इस गूंज का ही रास्ता पकड़कर हम उस मूल तक पहुंच सकते हैं।
इसलिए हम इस देश में बच्चों को पहले ब्रह्मचर्य के लिए गुरुकुल भेज देते थे, ताकि वे भीतर की गूंज से थोड़े परिचित हो जाएं। एक बार व्यक्ति बिना भीतर की ध्वनि का अनुभव किए ब्रह्मचर्य से छूट जाए तो फिर उस ध्वनि को पकड़ना अति कठिन हो जाता है। आपके मकान में दीवाद्दों में छेद हो जाते हैं। चीजें जैसे विकृत हो जाती हैं, फिर उनको सुधारना अति कठिन होता चला जाता है।और एक घड़ी है, ठीक जिस समय चौदह या तेरह वर्ष की उम्र में युवक और युवतियां कामवासना से प्रौढ़ होते हैं, वह क्षण शक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षण है।उस समय उनके शरीर के आसपास वह सारी ऊर्जा इकट्ठी है। वह ऊर्जा असाधारण है क्योंकि उसी ऊर्जा से जन्म होगा। वह ऊर्जा जन्मदात्री है। वह ऊर्जा परमात्मा की है, तभी तो उससे बच्चे पैदा हो पाते हैं। वह सृष्टि की मूल शक्ति है।
4-और एक व्यक्ति कितनी शक्ति लेकर पैदा होता है, आप कल्पना नहीं कर सकते।विज्ञान के अनुसार दस करोड़ जीवकोष्ठ एक मिलन में स्खलित होते हैं। और एक जीवकोष्ठ एक बच्चे को जन्म दे सकता है। अगर एक व्यक्ति के सारे जीवकोष्ठों का उपयोग हो, तो इस पृथ्वी को हम एक ही व्यक्ति के बच्चों से भर सकते हैं।अर्थात चार अरब बच्चे एक व्यक्ति की संपदा है। इतनी जीवन -ऊर्जा एक व्यक्ति लेकर पैदा होता है।यह जीवन ऊर्जा असाधारण है। एक छोटे से वीर्य के कण में छिपी हुई ऊर्जा एटम में छिपी ऊर्जा से ज्यादा ही शक्तिशाली है। एक एटम से एक क्षण में एक लाख लोग नष्ट होते हैं, इस पूरी पृथ्वी को थोड़े से ही एटम नष्ट कर देंगे। लेकिन एटम से भी बड़ी ऊर्जा जीवकोष्ठ की है। क्योंकि एक ही क्षण में एक व्यक्ति, एक करोड़ व्यक्तियों को पैदा करने की क्षमता खो देता है। विज्ञान जब जीवकोष्ठ की भी शक्ति को पकड़ लेगा, तो परमाणु बम की शक्ति बहुत छोटी हो जाएगी। जिस दिन भी हम जीवकोष्ठ की शक्ति को पकड़ लेंगे, उस दिन हमने परमात्मा की शक्ति को पकड़ लिया। हमने मौलिक तत्व पकड़ लिया, जिससे सारे जीवन का विस्तार है।
5-चौदह वर्ष की उम्र में, जब व्यक्ति के वीर्य का पहला स्खलन होगा, उसके पहले अगर उसे ओंकार की ध्वनि सुनाई पड़ जाए, उसका जीवन दूसरा ही हो जाएगा। उस स्खलन के बाद, हर स्खलन के बाद इस ओंकार को सुनना कठिन होता जाएगा। दीवारों में छेद होने लगे। प्रतिध्वनि वापस नहीं आएगी, बिखर जाएगी, खुले आकाश में लीन हो जाएगी।जिन्होंने बच्चों को पहला पाठ ब्रह्मचर्य का देना चाहा था, उनके प्रयोजन बड़े गहन थे। और ध्यान रहे, यह पाठ उस दिन शुरू हो जाने चाहिए, जब बच्चों के मन में कोई कामवासना ही पैदा नहीं हुई। एक बार कामवासना पैदा हो गई, फिर ब्रह्मचर्य की शिक्षा का कोई भी अर्थ नहीं। बल्कि वह खतरनाक है । क्योंकि उससे मन सिर्फ विकृत होगा, दमन से भरेगा, कुछ परिणाम नहीं होगा।छोटे बच्चे, जब उन्हें कामवासना की कोई झलक ही नहीं है, और जब उनके शरीर तैयार हो रहे हैं, और वासना के पहले कृत्य के लिए जब उनकी ऊर्जा इकट्ठी हौ रही है, उस क्षण में ही, उस क्षण के पूर्व ही अगर ओम की ध्वनि से संबंध जुड़ जाए, जो कि बहुत आसान है...।
छोटे बच्चों को ओंकार की तरफ ले सरल बात है; बूढ़ों को ले जाना बहुत कठिन बात है।यह जो यम ने कहा कि साधक उसके लिए ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उसके लिए ही तप करते हैं। वही संपूर्ण वेदों का सार है।
5-वह एक छोटा शब्द यह अक्षर ही तो ब्रह्म है और यह अक्षर ही परब्रह्म है इसलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिसको चाहता है उसको वही मिल जाता है।यह सूत्र बड़ा खतरनाक है। और इसलिए इस सूत्र की प्राथमिक साधना में इच्छाओं से मुक्त हो जाना जरूरी है।ओंकार की ध्वनि आपको सुनाई पड़ जाए,तो फिर आप जो भी इच्छा करेंगे, वह करते ही पूरी होने लगेगी। इसलिए आप जैसे अभी हैं, ठीक वैसे ही अगर ओंकार की ध्वनि आपको मिल जाए, तो आप अपनी आत्महत्या में लग जाएंगे।
आप जैसे हैं, कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच जाएं, तो उसके नीचे जो भी कामना होगी, वह तुरंत पूरी हो जाएगी।आपकी इच्छाएं, वासनाएं आपके बस में नहीं हैं। उठती हैं, तो आप कुछ कर नहीं सकते क्योकि भीतर मन विक्षिप्त है। फिर क्या होगा?
यम कह रहे है कि यह अक्षर ही तो ब्रह्म है। यह अक्षर ही परब्रह्म है। इसलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिसको चाहता है उसको वही मिल जाता है। इस अक्षर को जानते ही, इस ओंकार की ध्वनि के साथ एक होते ही, जो भी वासना है, वह तुरंत पूरी हो जाती है। इसलिए शर्त है कि वासनाएं छोड्कर ही ओंकार की साधना करनी है। नहीं तो आप क्षुद्र से भर जाएंगे और विराट की ऊर्जा क्षुद्र में खो जाएगी। जो मिला था, उसे आप नष्ट कर देंगे। हीरा मिला था, आप कंकड़ खरीद लेंगे, हीरा दे देंगे।
6-इसीलिए यम ने इतनी ज्यादा परीक्षा ली है कि नचिकेता में कोई वासना तो नहीं है और जब पाया कि कोई वासना नहीं है, वैराग्य का भाव पूरा है, तब वह बताने को राजी हुए। लेकिन तब वह निर्वासना से भरकर ओंकार की साधना में डूब जाता है, तो उसकी एक ही प्यास शेष रहती है ..परम सत्य से एक हो जाने की, लीन हो जाने की महासागर में, बूंद की भांति खो जाए । ओंकार की ध्वनि की स्फुरणा के साथ ही जो भी प्यास शेष रहती है वह भी तत्क्षण पृरी हो जाती है।ओंकार वैसा ही सूत्र है, जैसा किं एटामिक फिजिक्स का सूत्र है, कि हाथ में पड़ते ही विनाश का महामंत्र मिल गया। आइंस्टीन ने कहा है मरने के कुछ दिन पहले कि अगर मुझे दुबारा जन्म मिले, तो मैं किसी गांव में प्लंबर होना पसंद करूंगा. लेकिन अब दुबारा आइंस्टीन होने की इच्छा नहीं है। क्योंकि मुझे पता नहीं था कि मेरे हाथ से विनाश की शक्ति का सूत्र निकल रहा है।यह ओम सृजन की शक्ति का सूत्र है ...महासृजन की शक्ति का सूत्र है। इससे हम जीवन के मूल केंद्र पर पहुंच जाते हैं, जहा से सारी सृष्टि विकसित हुई है; उस गंगोत्री पर, जहाँ से जीवन की सारी गंगा बहती है। लेकिन उसके पहले सारी वासनाएं जड़मूल से खो जानी चाहिए।
इसलिए आपका सब तरह से रेचन हो जाना चाहिए । अगर जरा भी कुछ रोग आपके भीतर पड़े रह गए, और ध्यान आपका सधने लगा, तो वे रोग आपको बहुत बुरी तरह सता सकते है ।क्योंकि ध्यान महाशक्ति है, अगर रोग मौजूद रहे, तो वह महाशक्ति रोगों को मिल जाएगी। वे रोग हट जाने चाहिए।
7-प्रकृति ने पुरुष में भी उतने ही ग्लैड्स /आंसू की क्षमता दी है जितनी स्त्री की आंखों में ..प्रकृति ने भेद नहीं किया। लेकिन बड़ी अजीब बात है, स्त्रियां कम पागल होती है, पुरुष ज्यादा पागल होते हैं। पुरुष ज्यादा आत्महत्या करते हैं स्त्रियां कम । स्त्री दिल खोलकर रो लेती है,लेकिन पुरुष नहीं ।जब कोई घर में मर जाए और रोना आता हो, मगर आप रोक लें ,तो सारे प्राण सिकुड़ जाएंगे। भीतर दुख ही दुख भर जाएगा। आप एक घाव हो जाएंगे, जो रिसने लगेगा। और जब तक आप भरपूर रो न लेंगे , तब तक इस घाव से छुटकारा न होगा। और ध्यान रहे, जो रोने को रोक लेगा, उसका हंसना भी रुक जाएगा। यह जरा जटिल है। क्योंकि जो ठीक से रो नहीं सकता, वह ठीक से हंस भी नहीं सकता। वह हंसने से भी डरेगा। असल में वह सभी चीजों क्रो नियंत्रित करने लगेगा। क्योंकि भयभीत है कि कहीं कुछ बंधन न टूट जाए; चीजें नियंत्रण से निकल पड़े।इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जो बहुत कहता है आत्महत्या करेंगे, उससे निश्चित रहना। और जो नहीं कहता हो, वह खतरनाक है। वह कभी न कभी कर सकता है। उसने कभी कहा या निकाला नहीं है। सब इकट्ठा होता चला गया है।जो व्यक्ति रोज छोटी -छोटी बातो में क्रोध करता है, उससे डरने की कोई जरूरत नहीं। वह उपद्रव कोई नहीं कर सकता। इसलिए छोटी -छोटी बातो में क्रोध करने वाले लोग अक्सर प्यारे और भले होते हैं। साधु, सज्जन, जो क्रोध नहीं करेंगे, पी जाएंगे, ये खतरनाक हैं। ये किसी भी दिन, जब भी करेंगे, तो इन्होंने इतना इकट्ठा कर लिया है कि.....। और आपने जिंदगीभर जो इकट्ठा कर रखा है वही तो आपका रोग है।
8-उसकी वजह से तो आप सरल नहीं हो पाते।बच्चे सरल हैं। उनकी सरलता का कुल एक ही कारण है कि अगर क्रोध है, तो बच्चे में जैसे सारी दुनिया की शक्ति उसमें आ जाती है। चेहरा लाल हो जाता है, आंखे जलने लगती हैं, हाथ -पैर पटकने लगता है। है छोटा सा, लेकिन जैसे विराट उसमें प्रकट होने लगता है। फिर क्रोध बह गया, और एक क्षण बाद वह हंस रहा है। और उसके हंसने में क्रोध का जरा सा भी विकार नहीं है। हमें बड़ी हैरानी होती है कि अभी यह इतने क्रोध से भरा था, अब इतना खुश नजर आ रहा है!क्रोध बह गया, बच्चा हंस रहा है। फिर क्रोध आएगा, फिर क्रोध कर लेगा, फिर हंस लेगा, खुश होगा, दुखी होगा। लेकिन जो भी होगा वह क्षण में हो जाएगा, इकट्ठा कुछ भी न होगा। जिस दिन बच्चा इकट्ठा करने लगा, उसी दिन बचपन मर गया। और हम सब ने कितना इकट्ठा कर लिया हैं जिसकी वजह से हम जटिल हैं, सरल नहीं हैं।और जो सरल नहीं है, सहज नहीं है, उसका इस भीतर के ओंकार से कोई संबंध नहीं हो सकता। इसलिए कैथार्सिस /रेचन पर इतना जोर है कि सब जन्मभर का इकट्ठा हुआ कचरा फेंक दें । उसे, सम्हालकर मत चलें।लेकिन आपकी एक इमेज है कि आप पागलों की तरह खिलखिलाकर हंस नहीं सकते।
8-अगर इतना भी साहस नहीं है तो आप दूसरे के भय से जी रहे हैं। दूसरा आपको नियोजित कर रहा है, तो आपकी धर्म यात्रा नहीं हो सकती। वह निर्भीक, साहसी लोगों का काम है।इस इमेज को बचाने के मोह में हम दमित बने रहते हैं। वह दमित व्यक्तित्व मूल स्वरों को नहीं पकड़ सकता। वह उतना गहरा नहीं जा सकता। गहराई में जाने के लिए निर्दोष , बच्चे जैसी सरलता चहिए।आप बिलकुल छोटे बच्चे जैसे हो जाएं। इस संबंध में एक सूत्र और आपको जोड़ देना है । सोने के पहले एक विधि रात को करने की है। दस मिनट जोर से श्वास को छोड़ें और ओsss...की आवाज करते हुए छोड़े। और फिर सो जाएं। उसी ओ की आवाज करते-करते लीन हो जाएं।सुबह जैसे ही अनुभव में आ जाए कि नींद खुल गई है। पहला काम करें ..जैसा कि बिल्लियां या कुत्ते पूरे शरीर को खींचते है, तानते है। पैरों को, हाथों को, गर्दन को, पूरे शरीर को अकड़ाये , तानें ,शिथिल करें, ताकि पूरे शरीर में रक्त का प्रवाह हो जाए। सारे अंगों को खीचें और ढीला छोड़े ताकि शरीर की शक्ति पूरी तरह से प्रवाहित हो जाये। ढाई मिनट तक आंखे न खोले, और जब दो-ढ़ाई मिनट ऐसा करने के बाद आप पाएं कि स्फूर्ति आ गई है ;सारा शरीर जग गया। तब ढाई मिनट तक खिलखिलाकर पागल की तरह से हंसे।आंखे बंद ही रखें। उसके बाद ही बिस्तर छोड़े। ताकि शुभ-मुहूर्त सूबह ही रेचन शुरू हो जाए और जब आप ध्यान करने यहां आएं तो पहले से ही तैयारी हो चुकी हो।इस प्रयोग को सुबह के लिए जोड़ दे।यह अत्युत्तम है।
9-''इस आलंबन /सहारा को भलीभांति जानकर साधक ब्रह्मलोक में महिमा को उपलब्ध होता है।नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा ने जो जन्मता है और न मरता है। यह न तो स्वयं किसी से हुआ है। न इससे भी कोई हुआ है। अर्थात यह न तो किसी को कार्य है और न कारण है। यह अजन्मा, नित्य, सदा एकरस रहने वाल और पुरातन है, अर्थात क्षम और वृद्धि से रहित है। शरीर के नाश किए जाने पर भी इसका नाश नहीं किया जा सकता।यदि कोई मारने वाला व्यक्ति अपने को मारने में समर्थ मानता है और यदि कोई मारा जाने वाला व्यक्ति अपने को मारा गया समझता है, तो वे दोनों ही आत्मस्वरूप को नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जा सकता है''।ओम की ध्वनि के माध्यम से जैसे ही कोई व्यक्ति स्वयं के स्वरूप की झलक पाता है, वैसे ही वह आत्मरूप हो जाता है। तब वह देखता है कि भीतर जो है उसे मिटाने को कोई भी उपाय नहीं है। वहाँ जो पूर्ण उपलब्धता है। क्योंकि वह कभी जन्मा नहीं है। जो जन्मता है, वह मरता है। आप नहीं जन्में तो माता-पिता से जो आपकी देह निर्मित हुई है ..आप प्रविष्ट हुए है।अब टेस्ट-टूयूब में शरीर वैज्ञानिक ढंग से निर्मित होने लगा है और आत्मा उसमें प्रविष्ट होने लगी है। आत्मा सिर्फ प्रवेश करती है, आत्मा पैदा नहीं होती।आत्मा अजन्मी है और उसकी कोई मृत्यु भी नहीं है। शरीर ही बनता है और शरीर ही मिटता है।
10-लेकिन यह बात कुछ मान लेने की या कुछ सिद्धात की तरह पकड़ लेने की नहीं है। यह तो तभी समझ में आएगी, जब इसका भीतर अनुभव हो जाएगा। इसलिए आप यह न मान लें कि आत्मा अमर है बल्कि जानने में लगें।अनुभव से तो जिन्होंने भी जाना उन सबने कहा कि आत्मा है। जब तक अनुभव न हो, तब तक आप कह सकते हैं कि मुझे पता नहीं है। अगर आप जोर देकर कहने लगें कि आत्मा नहीं है, तो आप नास्तिक नहीं हैं।नास्तिकता का मतलब यह नहीं है कि आत्मा नहीं है। नास्तिक होना बुरा नहीं, लेकिन नास्तिक पर रुक जाना बुरा है।वास्तव में,नास्तिकता से कुछ मिलता तो है नहीं। वह सिर्फ निषेध है ..मात्र अहंकार है। निषेध से कोई रूपांतरण तो नहीं होता। सिर्फ कह देने से कि मोक्ष नहीं है, कुछ हल नहीं होता। इससे न ही आप मुक्त होते है और न ही कोई मंजिल उपलब्ध होती है। लेकिन बिना जाने न तो मानें, और न ही मानने का जोर करें। बिना जाने इतना ही समझें कि मुझे पता नहीं, और खोज के लिए तैयार हों।
11-आत्मा अमर है, ऐसा सिद्धात कुछ काम का नहीं है। लेकिन आत्मा अमर है, ऐसी प्रतीति अनूठी है। और वह तत्व आपके भीतर छिपा है । जब आप इस शरीर की भांति नहीं थे , तब भी वह था : और जब यह शरीर आपके प्रियजन मरघट में जला देंगे, तब भी होगा। लेकिन उसे पाने के लिए थोड़ा शरीर से , मन से हटना होगा। और थोड़ा अपने भीतर उस केंद्र को खोजना होगा, जिसके आगे कुछ भी नहीं है।इस केंद्र की खोज ओंकार से, ओम से हो सकती है। ओम इसकी कुंजी है।इस जीवात्मा के हृदयरूप गुहा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म और महान से महान है। परमात्मा की इस महिमा को कामना रहित, चिंता रहित कोई बिरला साधक परब्रह्म परमेश्वर की कृपा से ही देख पाता है।यह आखिरी बात थोड़ी खयाल में ले लेनी चाहिए। यह बड़ी जटिल है और बड़ी विवादग्रस्त है। और इस पर हजारों साल तक चर्चा हुई है। और दो बड़े मत हैं, जो एक दूसरे के विरोधी हैं।
12-एक मत कहता है कि जो परमतत्व है, वह अपने ही प्रयास से और प्रयत्न और साधना और तप से उपलब्ध होता है। वह किसी की कृपा से नहीं मिल सकता। कृपा का कोई सवाल भी नहीं है इस मत का कहना है। और अगर वह किसी की कृपा से मिलता है, तो यह जगत फिर बिलकुल ही एक बेबूझ पहेली है, यह बेहूदी घटना है। क्योंकि तब तो यह भी हो सकता है कि जो श्रम करे उसे न मिले, और जो श्रम न करे उसे मिल जाए।इसलिए महावीर, बुद्ध और उस परंपरा के सारे सिद्धपुरुष कहते हैं कि किसी की कृपा का कोई सवाल ही नहीं है, अपने ही प्रयत्न पर्याप्त है। कृपा की बात ही थोड़ी गड़बड़ है। उसमें थोड़ी रिश्वत की बू आती है।एक व्यक्ति अपने हाथ -पैर जोड़कर मंदिर में, और नाक रगड़कर और सिर पटककर, कहता हे कि तुम पतित -पावन हो और मैं पापी हूं, ऐसा कहकर राजी कर ले परमात्मा को। और एक व्यक्ति जीवन भर श्रम करता रहे, तप करता है ,और परमात्मा का नाम भी न ले, तो उस पर कृपा कैसे होगी?
13-महावीर ने तो कहा कि परमात्मा है ही नहीं। क्योंकि वह हो तो यह कृपा का उपद्रव साथ लगा रहे! इसके लिए श्रम पर्याप्त है। उसका श्रम जिस दिन पूरा हो जाएगा, उस दिन सत्य उपलब्ध होगा।इससे विपरीत एक विचारधारा है, जो कहती है,मनुष्य के हाथ में क्या है ..वह कमजोर है, असहाय है, अज्ञानी है। और इस अज्ञान से भरा हुआ व्यक्ति जो श्रम भी करेगा, वह श्रम भी तो अज्ञान में ही होगा। सत्य इतना बेबूझ है, इतना दुर्गम है, और मनुष्य इतना कमजोर और इतने अंधेरे में है कि प्रभु कृपा के बिना यह यात्रा हो नहीं सकती। उस विराट की कृपा होगी, तो ही इन पैरों में शक्ति आएगी। और फिर इस दूसरी धारा का यह भी कहना है कि प्रयत्न और संकल्प और श्रम, सब अहंकार को मजबूत करेंगे और अहंकार तो बड़ी बाधा है। इसलिए इस अहंकार को जगह मत दो। उसकी कृपा, उसकी ही अनुकंपा से होगी , ताकि अहंकार को कोई जगह न रहे। इस दूसरी बात में भी बड़ा सच है।ये दोनों बातो में सच है और दोनों बातो में खतरा भी है। पहली बात का खतरा है अहंकार। और दूसरी बात का खतरा है प्रमाद, आलस्य।
14-पहली बात का खतरा है कि व्यक्ति अहंकार से भर जाए। इसलिए जैन साधु अहंकारी होता है। जैन साधु किसी को नमस्कार भी नहीं करेगा। जब परमात्मा नहीं है, जिसको नमस्कार करें, तो फिर किसको नमस्कार करें! वह सिर्फ आशीर्वाद दे सकता है, नमस्कार नहीं कर सकता। झुकने की बात ही में गड़बड़ हो जाती है क्योंकि अपने ही प्रयत्न का भरोसा है। कोई कृपा नहीं है ;कोई परमात्मा नहीं है जिसका सहारा चाहिए हो। अपना ही सहारा है। स्वभावत: अहंकार सघन होता है। यह खतरा है।वे जो कृपा को मानकर चलते हैं, वे कुछ करते ही नहीं।वे कहते हैं, जब उसकी कृपा होगी...। ये प्रभु कृपा वाले लोग गहन आलस्य को उपलब्ध हो जाते हैं। उनमें विनम्रता होती है, लेकिन आलस्य हो जाता है। इन दोनों ही बातो को ठीक से समझ सकें कि प्रयत्न आपको करना होगा, फिर भी उपलब्धि उसके कृपाप्रसाद से होगी तो आपके जीवन में बड़ी क्राति आ जाएगी। प्रयास आपको करना होगा, क्योंकि प्रयास ही आपको इस योग्य बनाएगा कि अंतिम क्षण में उसका कृपाप्रसाद आपको मिल सके।
15-इसका यह मतलब नहीं है कि अगर कोई परमात्मा का स्मरण न करे, तो घटना नहीं घटेगी। यह तो जीवन की एक आंतरिक व्यवस्था है। जैसे सौ डिग्री तक कोई पानी को गरम करे , फिर चाहे वह अग्नि देवता को मानता हो कि न मानता हो, कि अग्नि देवता की पूजा करता हो कि न पूजा करता हो। सौ डिग्री पर जब पानी आ जाता है, तो भाप बन जाता है।तो चाहे कोई परमात्मा को मानता हो, या न मानता हो, जब सौ डिग्री पर प्रयत्न आ जाता है तो कृपाप्रसाद उपलब्ध हो जाता है। लेकिन अंतिम घड़ी कृपाप्रसाद से घटती है।और यह ऐसा होना ही चाहिए। क्योंकि व्यक्ति इस विराट का एक छोटा सा अंश है । इस विराट को पाने में श्रम तो चाहिए, लेकिन अकेला श्रम काफी नहीं है। इस विराट को पाने में श्रम से भी ज्यादा कुछ चाहिए ..इस विराट का सहयोग चाहिए। लेकिन वह मिलता उसी को है जो श्रम करता है।यम कह रहे है नचिकेता को कि कोई बिरला साधक ही ...लेकिन साधक। साधक का मतलब है जिसने श्रम किया, उसकी कृपा से इस परमतत्व को उपलब्ध हो पाता है।उसकी कृपा को कभी न भूलें और अपने प्रयत्न को भी कभी न भूलें।
16-आपकी प्रार्थनाओं से उसका प्रसाद नहीं मिलेगा; आपकी साधना से उसका प्रसाद मिलेगा। प्रार्थनाएं बचकानी हैं, धोखा हैं। कुछ किए बिना हाथ जोड़े खड़े हैं ...यह मिल जाए, वह मिल जाए, मोक्ष मिल जाए। सब मिल जाए आपको, लेकिन मिलने की कोई पात्रता नहीं है। सागर को बुला रहे हैं और चुल्लभर पानी को सम्हालने की पात्रता नहीं है। यह अच्छा ही है कि सागर आपकी प्रार्थना सुनकर नहीं आता, नहीं तो आप डूबेंगे। आपका उबरना मुश्किल हो जाएगा। जिस दिन पात्रता पूरी होती है, उस दिन सागर आ जाता है।संत कबीर ने कहा है कि पहले तो मैं सोचता था कि बूंद सागर में खो गई, अब जानता हूं कि सागर ही बूंद में उतर आया। और पहले तो सोचता था कि बड़ा मुश्किल होगा, एक बार बूंद सागर में खो जाएगी तो उसको वापस कैसे लाएंगे और अब तो बड़ी मुसीबत हो गई है, क्योंकि बूंद सागर में खो जाए तो शायद खोजना किसी तरह संभव भी हो, लेकिन जब सागर ही बूंद में खो जाए, तो अब खोजने का कोई उपाय न बचा। यह मिटना पूरा हो गया।श्रम प्रथम चरण में और अंतिम चरण में कृपाप्रसाद। ये दोनों सूत्र अगर सम्हले रहें, तो जीवन में वह जो परम आनंद है, वह जो परम चैतन्य है, उसके बरसने में देर नहीं लगती।लेकिन ये दो विरोधी चीजें साथ जुड़ी हों, तो आपका जीवन रथ मुक्ति के द्वार तक निश्चित ही पहुंच जाता है।
...SHIVOHAM...
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