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कठोउपनिषद यम-नचिकेता संवाद के अनुसार क्या है परब्रह्म का रहस्य ?PART- 2

NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...…

कठोउपनिषद यम-नचिकेता संवाद;-

ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह ( प्रत्यक्ष जगत) सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह ( परमेश्वर) ही है। वही ब्रह्म है (और) वही अमृत कहलाता है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह ( परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था)।।1।।परब्रह्म परमेश्वर से ) निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत है उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप ( सर्वशक्तिमान) परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म—मरण से छूट जाते हैं।।2।।इसी के भय से अग्नि तपती है ('इसी के) भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इंद्र वायु और पांचवें मृत्यु देवता ( अपने—अपने काम में) प्रवृत्त हो रहे हैं।।3।।यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही ( साधक) परमात्मा को साक्षात कर सका ( तब तो ठीक है ), नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है।।4।।

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16 FACTS;-

1-सभी प्रतिबिंब उलटे होते हैं। प्रतिबिंब कभी भी सीधा नहीं हो सकता। किसी सरोवर के किनारे कोई वृक्ष खड़ा हो तो सरोवर में जो प्रतिबिंब बनता है, वह उलटा होगा। तट पर खड़े हुए वृक्ष की शाखाएं आकाश में ऊपर की ओर फैली होंगी और वृक्ष की मूल जड़ें नीचे जमीन में फैली होंगी।जड़ें ऊपर होंगी, शाखाएं नीचे होंगी ... लेकिन प्रतिबिंब उलटा होगा। इस वैज्ञानिक सत्य को ध्यान में रखकर इस सूत्र को समझना बहुत आसान होगा।चीजें जैसी हैं, ठीक उससे उलटी दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि देखना भी एक तरह का प्रतिबिंब है। आंख भी एक दर्पण है।आंख पर भी प्रतिबिंब बनते हैं। प्रतिबिंब सभी उलटे हो जाते हैं। तो इस जगत को जैसा हम देख रहे हैं, यह जगत इससे ठीक उलटा है। जगत का जो नियम हमें मालूम होता है, वास्तविक नियम उससे ठीक उलटा होगा।आभास सत्य से विपरीत होते हैं, इस मौलिक विचार के आधार पर भारत के मनीषियों ने एक बहुत पुराना प्रतीक उपयोग किया है। वह प्रतीक ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर ही है। वही ब्रह्म है और वही अमृत कहलाता है।

2-ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। हम तो जो भी देखते हैं, उसमें जड़ें नीचे की तरफ हैं, शाखाएं ऊपर की तरफ हैं। लेकिन यह यम का सूत्र नचिकेता को कहा गया है, इसमें यम कह रहे है कि ऊपर की ओर मूल, नीचे की ओर शाखाएं हैं। जैसा भी हमारा जानना है, जीवन का सत्य उससे ठीक विपरीत है। इसे हम कुछ जीवन के अलग अलग पहलुओं से समझने की कोशिश करें।हम सोचते हैं कि मृत्यु जीवन की दुश्मन है, लेकिन सत्य बिलकुल विपरीत है। मृत्यु के बिना जीवन हो ही नहीं सकता। तो मृत्यु जीवन की शत्रु नहीं बल्कि मित्र है। मृत्यु के बिना जीवन के होने की कोई संभावना नहीं है। जिस दिन मृत्यु मिट जाएगी, उसी दिन जीवन भी मिट जाएगा। लेकिन हमारे देखने में सब चीजें उलटी हो जाती हैं। हमें लगता है कि जीवन और मृत्यु में विरोध है, जब कि वस्तुत: मृत्यु ही जीवन का आधार है। और मृत्यु के बिना जीवन हो नहीं सकता।

3-हमें अनुभव में आता है कि प्रेम और घृणा विपरीत हैं, जब कि सचाई बिलकुल उलटी है।मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा के दो पहलू हैं, वे साथ -साथ हैं।व्यक्ति जिसको प्रेम करता है, उसी को घृणा भी करता है। हम भी अगर थोड़ा सोचें, तो आप किसी भी व्यक्ति को सीधा शत्रु नहीं बना सकते। शत्रु बनाने के पहले मित्र बनाना जरूरी होगा। तो मित्रता शत्रुता का पहला, अनिवार्य कदम है, उसके बाद ही शत्रुता हो सकती है।तो शत्रुता और मित्रता विपरीत नहीं हैं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस -जिसको हम प्रेम करते हैं, उस -उसको घृणा भी करते हैं; और जिस -जिसको हम घृणा करते हैं, उस-उसको हम प्रेम भी करते हैं। शत्रुओं से हमारा बड़ा लगाव होता है, उनकी याद आती है। उनके बिना हम अधूरे हो जाएंगे; उनके बिना हमारे जीवन में कुछ खाली हो जाएगा। उसी तरह, जैसे मित्र के मिट जाने पर कुछ खाली हो जाएगा। मित्र भी हमें भरते हैं, शत्रु भी हमें भरते हैं। गौतम बुद्ध ने कहा है कि मैं कोई मित्र नहीं बनाता, क्योंकि मैं कोई शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं। पर हम तो सोचते हैं कि शत्रु और मित्र विपरीत हैं ...रात और दिन विपरीत हैं, अंधेरा और प्रकाश विपरीत हैं।

4-लेकिन यह सत्य नहीं है। अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है। प्रकाश अंधेरे का ही एक ढंग है। वे दोनों एक ही ऊर्जा के अलग -अलग रूप हैं।अगर जगत से अंधकार पूरी तरह मिट जाए तो हमारी साधारण बुद्धि कहेगी कि सब तरफ प्रकाश ही प्रकाश रह जाएगा।परन्तु विज्ञान कहेगा, अंधकार अगर बिलकुल मिट जाए तो प्रकाश बिलकुल मिट जाएगा, या प्रकाश बिलकुल मिट जाए तो अंधकार बिलकुल मिट जाएगा।अगर जगत से घृणा बिलकुल मिटानी हो तो प्रेम को बिलकुल मिटाना पड़ेगा। जब तक प्रेम है, घृणा जारी रहेगी। जब तक मित्र हैं, तब तक शत्रु पैदा होते रहेंगे। और अगर मृत्यु को बिलकुल पोंछ देना हो, तो जन्म को बिलकुल पोंछ देना होगा। जब तक जन्म है, मृत्यु होती रहेगी।अगर दुनिया से युद्ध मिटाने हों, तो हम सोचते हैं कि जब युद्ध मिट जाएंगे तो दुनिया में परम शांति होगी। लेकिन युद्ध अगर बिलकुल मिट जाएं तो शांति भी मिट जाएगी। यह जरा कठिन मालूम पड़ता है। यही हमारे आभास और सत्य की विपरीतता है। दुनिया में तभी तक शांति रह सकती है, जब तक युद्ध जारी रहेंगे। शांति और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें से एक भी खो जाए तो दूसरा भी खो जाएगा।

5-हम सोचते हैं कि बीमारी है, स्वास्थ्य है ..विपरीत हैं। और हमारी चेष्टा होती है कि ऐसा वक्त आ जाए कि व्यक्ति के जीवन में कोई बीमारी न रहे। जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन कोई स्वास्थ्य भी न रह जाएगा।इस बात की संभावना है कि वैज्ञानिक धीरे -धीरे मनुष्य के सारे अंगों को बदल डालें। उनकी जगह प्लास्टिक और स्टेनलेस स्टील और कृत्रिम अंगों को डाल दें। बीमारी मिट जाएगी, लेकिन स्वास्थ्य भी मिट जाएगा। स्वास्थ्य का जो अनुभव है, वह स्टेनलेस स्टील और प्लास्टिक के अंगों से नहीं हो सकती। बीमारी के साथ ही जुड़ा है स्वास्थ्य।उलटे के सत्य होने की संभावना ज्यादा है। लेकिन मन कहता है कि जहां सुख दिखाई पड़ता है, वहां सुख होगा। खोजने पर दुख हाथ लगता है। और हम जीवन में अनेक बार प्रयोग कर चुके हैं। जहां सुख दिखाई पड़ा, वहीं दौड़े, और पाया कि दुख हाथ लगा।ऋषियों ने इस सूत्र को उलट लिया। उन्होंने कहा, जहां -जहां दुख दिखाई पड़े, वहाँ -वहाँ प्रवेश करने की कोशिश करना। जब सुख दिखाई पड़ने पर दुख मिलता है, तो जहाँ दुख दिखाई पड़ता है, उसमें खोजने से सुख मिलेगा। इस वैज्ञानिक खोज का नाम ही तप है। तप का मतलब है : दुख में सुख को खोजना। क्योंकि सुख में खोजने वाले दुख पा रहे हैं तो सूत्र उलटा लिया। एक यात्रा भ्रान्ति में ले जाती थी, तो हमने दिशा बदल ली।

6-भोगी हम उसे कहते हैं, जो सुख के आभास में सोचता है कि खोजने से सुख मिलेगा। योगी हम उसे कहते हैं, जिसकी यह भ्रान्ति टूट गई और जिसने सूत्र को उलटा कर लिया, और अब जो दुख में खोजने की कोशिश करता है। और जो व्यक्ति दुख में खोजता है, वह निश्चित ही सुख पाता है।क्योंकि सुख में खोजने वालों ने सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं पाया है।इसलिए ऋषियों ने कहा है कि जो वृक्ष तुम्हें दिखाई पड़ता है कि जड़ें नीचे हैं और शाखाएं ऊपर हैं, वस्तुत: इससे उलटा होगा। जीवन के वृक्ष की शाखाएं ऊपर नहीं नीचे, और मूल नीचे नहीं ऊपर है। इसे शाश्वत, सनातन पीपल का वृक्ष ऋषियों ने कहा है '

यह तो सिर्फ काव्य -प्रतीक है। ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व परमेश्वर ही है।लेकिन हमें पदार्थ दिखाई पड़ता है और वस्तुत: है परमेश्वर।परमेश्वर हमें अदृश्य है, पदार्थ हमें दृश्य है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इस प्रक्रिया को उलटा करता है, तो पदार्थ अदृश्य होने लगता है और परमात्मा दृश्य होने लगता है। और जिस दिन पदार्थ पूरी तरह अदृश्य हो जाता है, सिर्फ परमात्मा दृश्य रह जाता है, उस दिन जानना कि सत्य की अनुभूति हुई।

7-इसलिए उस परम अवस्था में ज्ञानियों ने जगत को माया कह दिया। इसलिए कह दिया क्योकि वह दिखाई नहीं पड़ती थी, खो गई। जैसा कि अज्ञानी ईश्वर को असत्य कहते हैं क्योकि वह दिखाई नहीं पड़ता, तो वह नहीं है।ज्ञानी को पदार्थ पकड़ में नहीं आता, सिर्फ परमेश्वर ही पकड़ में आता है। इसलिए अज्ञानी कहता है ..जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। ज्ञानी कहता है ..ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। उलटा हो जाता है। इस गणित को अगर आप खयाल रख लें और जीवन में थोड़ा सा इसका उपयोग करने लगें, तो आप पाएंगे, आप बदलने लगे ।इस सूत्र का आचरण में उपयोग हो सकता है। जब कोई गाली दे, तो आपको क्रोध पैदा होता है। यह सहज, प्राकृतिक, अज्ञानी मनुष्य की स्थिति है। ज्ञानी कहते हैं कि जब कोई क्रोध करे, तो क्षमा पैदा हो ..उलटा कर लेना है। जब कोई क्रोध करे, तो क्षमा करना ..तुम्हारा जीवन नया हो जाएगा। जब कोई गाली दे और क्रोध तुम करो, तो तुम्हारा जीवन जैसा था, वैसा ही रहेगा। उसमें कोई रूपांतरण संभव नहीं है। क्योंकि तुम कोई बुनियाद बदल नहीं रहे हो।

जब कोई तुम्हारा आदर करे तो हम प्रसन्न होते हैं क्योंकि अहंकार तृप्त होता है। ज्ञानी ने कहा है, जब तुम्हारा कोई आदर करे, तब तुम उदास हो जाना, उपेक्षा से भर जाना।

8-अहंकार रोग है; इसलिए आपके दुश्मन आपको उतना नुकसान नहीं पहुंचा सकते, जितने आपके खुशामदी आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं। क्योंकि वे आपके अहंकार को भर रहे हैं।संत कबीर ने तो कहा है कि आगन कुटी छवाकर, जो तुम्हारी निंदा करते हैं, उनको अपने घर के पास ही बसा लेना। यह उलटा है। जो तुम्हें गाली देते हैं, उनको तुम मकान के बगल में ही बसा लेना, ताकि सुबह -शाम वे तुम्हें गाली देते रहें। क्योंकि जो तुम्हें गाली देता है, वह तुम्हारे अहंकार को तोड़ता है। और जो तुम्हारी प्रशंसा करता है, स्तुति करता है, वह तुम्हारे अहंकार को बढ़ाता है। और अहंकार ही महारोग है, वही दुख का आधार है, स्रोत है।आचरण में इस सूत्र का अर्थ होगा कि जो सहज, प्राकृतिक प्रतिक्रिया मालूम होती है, वह मत करना, उससे उलटा करना। तुम्हारा जीवन धार्मिक होता चला जाएगा।जीसस को सूली दी गई और अंतिम समय कहा गया कि तुम्हें कुछ कहना तो नहीं है? तो जीसस ने परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहा कि इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।

9-जब तुम्हें कोई सूली दे रहा हो, तो तुम्हारे मन से अभिशाप निकल सकते हैं। वरदान के निकलने का कोई उपाय नहीं है। अभिशाप बिलकुल प्राकृतिक प्रक्रिया है। वह तो पशुओं से भी वही निकलेगा, पत्थर से भी वही निकलेगा। उसके लिए मनुष्य होने की कोई जरूरत नहीं है। वह तो जीवन का जड़ नियम है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है और आग जलाती है, ऐसे ही पशुता क्रोध के उत्तर में दुगुना क्रोध पैदा करती है। वह पशुता का सहज नियम है। लेकिन पशु का अर्थ है जो जड़ है, रुका है और जिसके जीवन में कोई ऊर्ध्वगमन नहीं है।पशु शब्द बनता है पाश से और पाश का अर्थ होता है ..जो बांध ले, 'बंधन'। पशु का अर्थ जानवर नहीं है; जो बंधा हुआ है और स्वतंत्र नहीं है।पशुता से ऊपर उठना हो तो प्रकृति जो सहज रूप से करने को कहे, उससे विपरीत को तुम अपनी साधना समझना। जब तुम्हारी कोई प्रशंसा करे तो तुम रोना, और जब तुम्हें कोई गाली दे तो तुम हंसना अगर जीवन इस एक छोटे से सूत्र को मानकर चल पड़े, तो मोक्ष ज्यादा दूर नहीं है। और तुम्‍हें परमात्‍मा को खोजने नहीं जाना पड़ेगा, परमात्मा तुम्हें खोजता हुआ आ जाएगा। फिर उसकी तलाश की कोई जरूरत नहीं है।

10-एक बार तुमने जीवन की साधारण प्रक्रिया को बदलकर विपरीत किया कि तुम सत्य के जगत में प्रवेश कर गए, कि तुम उस पथ पर आ गए जहां से सत्य तुम्हें खींच लेगा।अभी हम उलटे खड़े हैं। जिसे हम सीधा होना समझ रहे हैं, वह शीर्षासन है। हमें सब उलटा दिखाई पड़ रहा है। हमें पैर के बल खड़ा होना होगा। जैसे हम हैं, उससे उलटा हो जाना पड़ेगा।सारे संतो का बस एक ही प्रयास है कि तुम्हारे जीवन की जो अंधी प्रक्रियाएं हैं, वे होशपूर्ण हो जाए। तुम जहां जड़ की तरह व्यवहार करते हो, यंत्र की तरह व्यवहार करते हो, वहां तुम सचेतन हो जाओ। और सचेतन कोई तभी होता है, जब प्रकृति का अतिक्रमण करता है। कोई गाली दे, तो क्रोध करने के लिए सचेतन होने की कोई भी जरूरत नहीं है।क्रोध मूर्च्छा है। उसके लिए होश की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन कोई गाली दे और क्षमा करना है, तो बहुत सावधान ,जागरूक होना पड़ेगा; चित्त को बहुत ऊंचाई पर उठाना पड़ेगा। तब भी डर है कि क्रोध की पुरानी आदत पकड़ ले और नीचे खींच ले। लेकिन अगर कोई व्यक्ति जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं को उलटा करने लगे, तो पूरा जीवन एक प्रयोगशाला हो जाता है।

11-व्यक्ति जैसे ही जीवन की सामान्य धारा के ऊपर अपने को उठाना शुरू करता है, एक बड़ी रसपूर्ण प्रक्रिया शुरू होती है। एक बहुत मधुर और मीठी यात्रा का प्रारंभ होता है, जो रोज -रोज मधुर, मीठी होती जाती है। इस यात्रा के अंत में ही अमृत की वर्षा है।लेकिन जैसे हम हैं, जहाँ हम हैं, हम बिलकुल उलटे हैं। हम वही कर रहे हैं, जो नहीं करना चाहिए। हम वैसे ही जी रहे हैं, जैसा नहीं जीना चाहिए। हम अपने ही हाथ से मार्ग पर पत्थर रख रहे हैं, जिनकी वजह से यात्रा असंभव हो जाएगी। हम अपने ही दुश्मन हैं।तत्व और आचरण दोनों में यह सूत्र खयाल में आ जाए कि हमारी बुद्धि विपरीत देख रही है, तो जीवन के रूपांतरण की कुंजी आपके हाथ में उपलब्ध हो जाती है।''इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर है वही ब्रह्म है और वही अमृत है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था।उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा का अर्थ ही यही है कि जो अंत है, कि जो आखिरी है ..सीमांत ..जिसके पार कुछ शेष नहीं रह जाता। अगर उसके पार कुछ शेष रह जाता है, तो वह परमात्मा नहीं है''।

12-इसे ऐसा समझें कि जब तक आपके मन में पाने की कोई कामना है, तब तक आप परमात्मा नहीं हैं। जिस दिन आपके मन में पाने की कोई कामना न रही, उसका अर्थ हुआ कि अब आगे जाने को कुछ भी न बचा, उस दिन आप परमात्मा हो गए।इसलिए ज्ञानियों ने परमात्मा की परिभाषा की है ..निर्वासना से भरी हुई चेतना। क्योंकि वासना अतिक्रमण करना चाहती है—और आगे, और आगे। और वासना अनेक रूप लेती है, वह कहीं भी तृप्त नहीं होती। अगर आप इसी क्षण, जैसे हैं वहीं तृप्त हो जाएं और कह दें कि बस आगे और कुछ भी मांग नहीं है। लेकिन कहने से नहीं होगा, यह भाव भीतर प्रविष्ट हो जाए तो इसी क्षण आपका सब अंधकार गिर जाए और आप परमात्मा हो जाएं।परमात्मा का अर्थ है ..इसी क्षण में पूर्ण तृप्ति, जिसके पार कुछ भी नहीं बचता।लेकिन मनुष्य बहुत उपद्रवी है। अगर वह एक तरफ से अपने उपद्रव को छोड़ता है, तो तभी छोड़ता है जब दूसरी तरफ अपने उपद्रव को तैयार कर लेता है।इस आंतरिक यात्रा की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि वहाँ लोभ के द्वारा कोई भी प्रवेश नहीं हो सकता। वहां तृप्ति के द्वारा प्रवेश है।जहां साधना में पाने का तनाव रहेगा, वहां हम संसार में हैं। यह पाने की दौड़ संसार है। और न पाने के लिए राजी हो जाना, संसार से बाहर हटने लगना है।

13-एक व्यक्ति धन के लिए दौड़ रहा है;दूसरा व्यक्ति पद के लिए दौड़ रहा है। तीसरा यश के लिए दौड़ रहा है और एक व्यक्ति मोक्ष के लिए दौड़ रहा है। इन चारो में कोई भी फर्क नहीं है। मोक्ष के लिए दौड़ा ही नहीं जा सकता। मोक्ष तो खड़े होने वाले को मिलता है।धन, पद, यश, सब दौड़े हैं। मोक्ष दौड़ नहीं है। मोक्ष ठहर जाना है, रुक जाना है। कुछ साधक कहते है कि अभी तक कोई अनुभव नहीं हो रहा है .. प्रकाश दिखाई पड़ने लगे तो कुछ हो जाएगा। कि भीतर रंग दिखाई पड़ने लगें तो कुछ हो जाएगा। कि भीतर कोई सुगंध आने लगे तो कुछ हो जाएगा। या हाथ से राख झड्ने लगे तो कुछ हो जाएगा परन्तु वह सब खेल संसार का है और मन का है।अनुभव की तलाश लोभ है। उस तलाश को गिर जाने दें।अनुभव तो फिर भी पराए हैं, बाहरी हैं। अध्यात्म अनुभव नहीं है।अनुभव जिसको होते हैं, उसके साथ एक हो जाना.. अध्यात्म है। जिसके सामने प्रकाश आते है, और जिसके सामने सुगंधें तैरती हैं, और जिसके सामने रंगों की बहार आ जाती है और इंद्रधनुष फैल जाते हैं, और जिसके भीतर संगीत बजने लगता है...। लेकिन ये सब बाहर ही हैं।

14-चाहे आंख बंद करके ये घटनाएं घट रही हों, तो भी बाहर हैं। इनको जानने वाला तो और भीतर है। जानने वाला हमेशा, जिसे भी जानता है, उससे भीतर है, पीछे है, पार है। और जब तक आप जानने वाले में न ठहर जाएं, तब तक अध्यात्म का कोई स्वाद आपको नहीं मिल सकता।तो कोई बाहर का रूप रंग खोज रहा है; कुछ भीतर के रूप रंग खोज रहे हैं, कि चलो कुंडलिनी जगाएं, भीतर का प्रकाश देखें, कि भीतर का आनंद लें, लेकिन खोज वही है। दोनों ही अध्यात्म नहीं हैं।अध्यात्म तो उसकी तलाश है, उस चैतन्य की, उस साक्षी भाव की, जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं और केवल अनुभोक्ता रह जाता है। जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता है। जहां सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं और मात्र शांता शेष रह जाता है। ''उस कैवल्य की खोज अध्यात्म है।सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था''।तो जिस दिन आप उस घड़ी में पहुंच जाएं जहां लांघने को कुछ न बचे, समझना कि आ गया घर। समझना कि आ गया वह मंदिर, जिसकी तलाश थी। यह इसी क्षण भी हो सकता है। क्योंकि परमात्मा का समय से कोई संबंध नहीं है कि साल लगेगी कि दो साल लगेगी, कि दो जन्म लगेंगे कि पचास जन्म लगेंगे। आप के ऊपर निर्भर है। अनंत जन्म लग सकते हैं। और एक क्षण भी काफी है।

15-यह बोध साफ हो जाए कि न ही कुछ लांघना है, न ही कहीं जाना है, न ही कुछ पाना है। जो भी मैं हूं वहीं परम तृप्ति का भाव सजग हो जाए, तृप्ति का दीया जल जाए तो इसी क्षण आप उसमें प्रवेश कर गए, जिसको लांघने का कोई उपाय नहीं। जो लांघने की कोशिश कर रहा है, वह संसार में भटकता रहेगा।हम सब लांघने की कोशिश कर रहे हैं फिर चाहे कुंडलिनी हो या धन हो। महत्वाकाक्षा आकाश के क्षितिज की भांति है। आपके और क्षितिज के बीच फासला हमेशा वही रहता है, चाहे आप कितनी ही यात्रा करें। क्योंकि क्षितिज कहीं है नहीं, सिर्फ भासता है। दूर लगता है कि आकाश जमीन को छू रहा है। आकाश जमीन को कहीं भी नहीं छूता। बढ़ें तो ऐसा लगता है, जैसे अभी कुछ ही समय में पहुंच जाएंगे उस जगह जहां आकाश जमीन को छू रहा है। जितना आप बढ़ते जाते हैं, उतना ही क्षितिज आगे बढ़ता जाता है। वह और आगे छूता है। आप पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर अपनी जगह पर वापस लौट आएं, तब भी वह उतना ही आगे छूता रहता है। वह छूता नहीं, सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है।आपके और क्षितिज के बीच के फासले को कम करने का कोई भी उपाय नहीं है। आप सोचते हों कि पैदल चलने से पूरा नहीं होता, तो शायद कार में चलने से पूरा होगा, या हवाई जहाज में उड़ने से पूरा होगा। नहीं, कोई उपाय ही नहीं है, क्योंकि क्षितिज की कोई रेखा वस्तुत: नहीं है। नहीं तो उपाय हो सकता था। वहां सिर्फ रेखा भासती है। वहां है नहीं; प्रतीत होती है।

16-महत्वाकांक्षा की रेखा क्षितिज की भांति है। बस लगता है कि दस अरब पर रेखा है, जब तक आप दस अरब की रेखा पर पहुंचते हैं, पाते हैं कि रेखा आगे हट गई, फासला उतना का उतना है। इस लिहाज से देखने पर एक बड़ी गहरी आर्थिक प्रक्रिया समझ में आ जाती है। दुनिया में गरीब और अमीर के बीच धन का कितना ही फर्क हो, गरीबी का फर्क नहीं होता।एक व्यक्ति के पास दस रुपये हैं, उसको सौ रुपये की चाह है। वह नब्बे रुपये से गरीब है। एक व्यक्ति के पास दस हज़ार रुपये हैं, उसे एक लाख रुपये की चाह है, वह नब्बे हज़ार रुपये से गरीब है। वह नब्बे का आकड़ा बराबर चलेगा। दस अरब हों, तो सौ अरब की चाह है। वह क्षितिज और व्यक्ति के बीच की दूरी है। आपके पास कितना है, क्या है, इससे कोई सवाल नहीं, लेकिन आप नब्बे के फासले से गरीब बने रहेंगे।भिखमंगा और सम्राट दोनों बराबर गरीब होते हैं। उनके खाते में आकड़े अलग -अलग होते हैं, लेकिन दोनों की आकांक्षा मानवीय आकांक्षा है। जितना होता है, उससे एक खास फासले पर आकांक्षा होती है। कि आप सोचते हैं कि एक भिखमंगा खड़ा हो और एक सम्राट खड़ा हो, तो क्षितिज की रेखा दोनों के लिए अलग -अलग होगी।लेकिन क्षितिज की रेखा दोनों के लिए बराबर होती है।अमीर वही हो सकता है जिसकी क्षितिज रेखा आगे नहीं, पैर के नीचे है। इसका ही अर्थ है तृप्ति। जिस दिन कोई व्यक्ति इस भाव से भर जाता है, उस भाव का नाम संन्यास है ..तृप्ति है। या हम जो भी नाम देना चाहें। वह व्यक्ति दौड़ से मुक्त हो गया।जो दौड़ से मुक्त है, वह लांघने के पागलपन से मुक्त है। जो लाघने के पागलपन से मुक्त है, वह उस परमात्मा में प्रवेश कर जाता है जिसे लांघने का कोई भी उपाय नहीं।

क्या परमात्मा भयस्वरूप है ?

12 FACTS;-

1 -''परब्रह्म परमेश्वर से निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत है उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म -मरण से छूट जाते हैं''।यहां एक बहुत महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग है। जगत में परमात्मा की तरफ यात्रा करने वालों की दो श्रृंखलाएं हैं, दो धाराएं हैं। एक कहती है कि परमात्मा प्रेमस्वरूप है और एक कहती है कि परमात्मा भयस्वरूप है।दोनों बड़ी विपरीत हैं।संत तुलसीदास ने कहा है, भय बिन होइ न प्रीति। परमात्मा का अगर भय न हो, तो प्रेम न होगा। लेकिन वह जो प्रेमस्वरूप मानते है जैसे जीसस ने कहा है ..गॉड इज लव/परमात्मा प्रेम है ।वह दूसरी धारा कहेगी कि जहां भय हो, वहा प्रेम तो हो ही नहीं सकता।जहां भय पैदा हो जाएगा, वहां आप डर के कारण झुक सकते हैं, लेकिन आदर नहीं हो सकता। भय के कारण आप पैरों पर सिर रख सकते हैं, लेकिन समर्पण नहीं हो सकता। प्रेम का तो कोई उपाय नहीं है, जहां भय है।लेकिन जो कहते हैं कि परमात्मा भयस्वरूप है और उसके भय से ही चांद -तारे चल रहे हैं, उसके भय से ही प्रकृति अपनी लीक पर कायम है, उसके भय के कारण ही सब व्यवस्था है। उसका भय टूट जाए तो सारी व्यवस्था टूट जाए। उसके भय के कारण अनुशासन है। उनके कहने की भी बात समझने जैसी है।

2-दोनों धाराएं समझने जैसी हैं। और दोनों धाराएं उस तक ले जाती हैं।प्रेम की बात समझनी बहुत आसान है कि परमात्मा प्रेमस्वरूप है। परम प्रेम, परम प्रेम का धाम, और उससे प्रेम की धाराएं हमारी तरफ बह रही हैं। यह बात बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि हमारी धारणा परमात्मा के प्रति वही होती है, जो हमारी धारणा पिता और मां के प्रति होती है।परमेश्वर की धारणा पिता की धारणा का ही विस्तार है । जो बच्चे पिता के पास बड़े होते हैं, और जो पिता के प्रति प्रेम ,आदर से भर जाते हैं, वे बच्चे बाद में धार्मिक हो जाएंगे। और जो बच्चे पिता के प्रति विरोध ,विद्रोह से भर जाते हैं, वे बच्चे बाद में नास्तिक हो जाते हैं। पिता और बेटे के बीच कैसा संबंध है, इस पर निर्भर करेगा कि व्यक्ति और परमात्मा के बीच कैसा संबंध होगा। लेकिन पिता की तरफ भी अगर हम ध्यान दें, तो वहां भी दो धाराएं मौजूद हो जाती हैं। पिता प्रेम भी करता है, लेकिन पिता से बच्चा भयभीत भी होता है। अकेला प्रेम ही नहीं है पिता, साथ में भय भी है। और बडा भय तो यही है कि वह चाहे तो अपने प्रेम को देने से रोक सकता है।

3- मां या पिता चाहें, तो प्रेम देने से वे वंचित कर सकते हैं। वह भय भी है। वे प्रेम भी दे सकते हैं, वे प्रेम देने से रोक भी सकते हैं। और बच्चे के लिए इससे बडी भय की कोई बात नहीं होती। क्योंकि असहाय है बच्चा और पिता और मां का प्रेम उसे न मिल सके, तो वह खत्म हो जाएगा। तो मृत्यु का भय मालूम होता है। अगर मां इतना ही मुंह फेर ले, कह दे कि नहीं, मुझे तुझसे कुछ भी लेना -देना नहीं, तो बच्चे की पीड़ा हम नहीं समझ सकते हैं कि कितनी भयंकर हो जाती है।जिससे हम प्रेम करते हैं, उसके साथ -साथ छाया में छिपा हुआ भय भी है। और वह भय इस बात का है कि प्रेम नष्ट हो सकता है, प्रेम न दिया जाए, यह हो सकता है। प्रेम के और हमारे बीच में अवरोध आ सकते हैं।इसलिए पिता से बेटा सिर्फ प्रेम ही नहीं करता, भयभीत भी होता है। ये दोनों ही भाव साथ जुड़े रहते हैं। और बड़ी कला यही है, इन दोनों के बीच पिता संतुलन स्थापित कर ले। नहीं तो हर हालत में अयोग्य पिता सिद्ध होता है। और योग्य पिता होना बड़ा कठिन है।कठिनाई यही है कि भय और प्रेम के बीच संतुलन स्थापित करना है। अगर पिता बेटे को इतना ज्यादा भयभीत कर दे कि बेटे की आस्था ही प्रेम से उठ जाए, तो भी बेटा नष्ट हो जाएगा। क्योंकि जिंदगीभर अब वह किसी को प्रेम न कर सकेगा।

4-जिस बच्चे को बचपन में प्रेम नहीं मिला हो , वह बिना प्रेम के ही जीएगा।अगर मां और पिता बेटे को प्रेम न कर सकें, तो बेटा फिर किसी को प्रेम नहीं कर पाएगा। और वह जो क्रुद्ध बेटा है, वह सब तरफ से विनाश का कारण हो जाएगा।

प्रेम सृजनात्मक है और जब प्रेम न मिले तो व्यक्ति तोड़ने लगता है, नष्ट करने लगता है। ये विध्वंस से भर गए हैं।जिस दिन आपके जीवन में प्रेम आता है, उसी दिन सृजन आता है।जहाँ प्रेम न हो, वहाँ विध्वंस की धारा पकड़ जाती है।सारी दुनिया में चल रहे युवकों के विद्रोह प्रेम की कमी के कारण हैं। और सारी दुनिया में युवक नास्तिक होते जा रहे हैं। क्योंकि जिनको पिता का और मां का प्रेम न मिला हो, वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस जगत का कोई पिता और मां है। जो अनुशासन को थोपने वाले पिता या मां होती हैं, वे अपने सब तरह के प्रेम को रोक लेते हैं, कि कहीं बेटा प्रेम के कारण बिगड़ न जाए! वे उसे भयभीत करते हैं, डंडे के बल पर उसको सुधारने की कोशिश में लगे रहते हैं। वह सुधार अंततः विकृति सिद्ध होता है।

लेकिन दूसरी तरफ भी खाई है। आज मनोवैज्ञानिको ने बहुत डरा दिया है कि बच्चे को जरा भी भयभीत मत करना, उसे जरा भी डराना मत, उस पर जरा भी कुछ थोपना मत, अनुशासन मत लादना, नहीं तो वह विद्रोही हो जाएगा तो मां -पिता डर गए हैं। 5-अकेला प्रेम भी जहरीला हो जाता है क्योंकि अकेले प्रेम का मतलब स्वच्छंदता हो जाता है। और तब बेटों को लगता है कि प्रेम उनका अधिकार है। तुम्हें प्रेम देना ही पड़ेगा। प्रेम को अर्जित करने का कोई सवाल नहीं है कि बैटा कुछ करे और प्रेम अर्जित करे ..बेटे का हक है ..कर्तव्य कुछ भी नहीं है।और अगर मां -पिता सिर्फ प्रेम दें और भय की कोई भी उपस्थिति न हो, तो भी बेटा बिगड़ जाता है। तब वह सारी दुनिया से प्रेम मांगता है। दुनिया आपकी मां-पिता नहीं है। दुनिया कोई आपको प्रेम देने के लिए नहीं बैठी है। दुनिया में जब आप जाएंगे, तो वहाँ संघर्ष है, प्रतियोगिता है, युद्ध है। वहाँ कोई आपके लिए प्रेम देने नहीं बैठा है।और जिसके मां-पिता ने सिर्फ प्रेम दिया है, वह कोमल हो जाता है। वह इतना कोमल हो जाता है कि संघर्ष में वह टिक नहीं पाता, वह टूट जाता है। वह सब से प्रेम की आशा करता है। वह सब तरफ हाथ फैलाए रहता है कि मुझे प्रेम करो। और उसे एक बात भूल ही गई है कि संसार प्रेम देगा, लेकिन तुम्हें उसका प्रेम अर्जित करना पड़ेगा ...कुछ करना पड़ेगा अपने जीवन में। तुम्हें प्रेम कमाना पड़ेगा ..मुफ्त नहीं मिलेगा।मां -पिता का प्रेम मुफ्त मिल सकता है। इस जगत में फिर प्रेम मुफ्त नहीं मिलेगा ...उसको अर्जित करना होगा।

6-इसलिए अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां और पिता के होने की कला यह है कि भय और प्रेम के बीच एक संतुलन हो। इतना भय कि बच्चा बगावती न हो जाए और इतना प्रेम की बच्चा मुफ्त प्रेम को मांगने का आदी न हो जाए। यह बात बड़ी जटिल है । यह ऐसा ही है जैसे कि कोई रस्सी पर नट चलता हो, तो उसे पूरे वक्त संतुलन सम्हालना पड़ता है। दोनों के बीच जो रस्सी पर चलने वाले नट की तरह अपने को सम्हाल ले, वही कुशल पिता और कुशल मां हो सकते हैं।परमात्मा के संबंध में भी दो ही दृष्टियां हैं।ईसाइयत मानती है कि परमात्मा प्रेम है। और जीसस और यहूदी धर्म का विरोध यही था, क्योंकि यहूदी धर्म मानता है कि परमात्मा भयावह है। यहूदी शास्त्र यम के इस वचन से राजी हो जाएंगे कि वह उठे हुए वज्र की भांति भयस्वरूप है। वह पूरे समय अपने हाथ में शस्त्र लिए हुए है। जरा सी बात, और वह नष्ट कर देगा। जरा सी नाराजगी, और आग बरसा देगा। जरा सा क्रोध, और प्रलय हो जाएगा। यहूदी धर्म भय के ऊपर आधारित है। वह कहता है, परमात्मा जो है वह भयंकर है। विराट ऊर्जा है वहां। और वह विराट ऊर्जा प्रेमपूर्ण नहीं है।इसे थोड़ा समझना है। वह विराट ऊर्जा प्रेमपूर्ण नहीं है, वह विराट ऊर्जा तो जो उसके अनुकूल चलता है, बस उसी के लिए कृपापूर्ण है। जो उसके विपरीत चलता है, उसे नष्ट कर देती है।

7-यह बात कहने में बहुत अच्छी नहीं मालूम पड़ती, लेकिन विज्ञान के अनुसार जगत का कोई भी नियम प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आपका दुश्मन है।इसका कुल इतना मतलब है कि वे तटस्थ हैं। और आप अगर अनुकूल चलते हैं, तो आप सुख को उपलब्ध होंगे। अगर प्रतिकूल चलते हैं, तो दुख को उपलब्ध होंगे।जमींन में ग्रेविटेशन है। अगर आप जरा ही तिरछे चले, तो गिरेंगे। हाथ -पैर की हड्डी टूट जाएगी।उस वक्त पृथ्वी माता कुछ भी दया नहीं करेगी। नियम के विपरीत आप गए कि आप नुकसान उठाएंगे। लेकिन आप सम्हलकर चलते रहें, तो पृथ्वी आपकी हड्डी तोड़ने को जरा भी उत्सुक नहीं है।पुराने धर्मों की भाषा में, यहूदी और उस तरह के, जिन्होंने परमेश्वर को भयस्वरूप माना है , उनका भी कहना यही है कि वह आपका दुश्मन नहीं है। लेकिन वह शाश्वत नियम है। अगर आप उसके अनुकूल चलते हैं, तो परम मोक्ष तक पहुंच जाएंगे। और अगर प्रतिकूल चलते हैं, तो महानर्क में पड़ जाएंगे।यम भी नचिकेता को उसके भयस्वरूप का वर्णन कर रहे है। कारण भी है कि यम भयस्वरूप का वर्णन करे। क्योंकि यम स्वयं भय की ही प्रक्रिया है। यम का अर्थ है, मौत का देवता। मौत का देवता प्रेम की बात नहीं बल्कि भय की ही बात करेगा।

8-और यम की यह बात आधी सच है कि परमात्मा से जो सिर्फ प्रेम की ही आशा रखेंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। क्योंकि वे अपने को बदलने की कोई भी कोशिश न करेंगे। जो परमात्मा से भयभीत भी होंगे और जो समझेंगे कि अगर मैं अनुकूल नहीं हूं तो मेरी स्तुतियां काम आने वाली नहीं हैं केवल मेरे आचरण से वह..।जब कोई व्यक्ति नदी की धारा में बहता है तो नदी उसे ले चलती है सागर की तरफ। और जब कोई व्यक्ति नदी के विपरीत लड़ता है तो नदी भयावह हो जाती है। परमात्मा भयावह है, अगर हम विपरीत हैं। परमात्मा प्रेमपूर्ण है, अगर हम अनुकूल हैं। अगर हम नदी की धारा में बह रहे हैं, तो परमात्मा हमें ले चलेगा। फिर हमें तैरने की भी जरूरत नहीं है, हमें हाथ भी हिलाने की जरूरत नहीं है, नदी खुद ले चलेगी।संत रामकृष्ण कहते थे, तुम सिर्फ उसकी हवा का रुख पहचान लो, फिर तुम अपनी नाव का पाल खोल दो। फिर तुम्हें पतवार भी न चलानी पड़ेगी, फिर नाव, उसकी हवाएं ले चलेंगी गंतव्य की ओर। लेकिन तुम उसकी हवा का रुख पहचान लो। और अगर तुम हवा के विपरीत चले, तो तुम्हें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, और मेहनत करके भी तुम सफल न हो पाओगे, सिर्फ टूटोगे। क्योंकि विराट से लड़कर कोई भी सफल नहीं हो सकता।भयावह का अर्थ इतना ही है कि विराट से तुम लड़ना मत, विराट के प्रति समर्पित हो जाना।''इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं। जन्म -मरण से छूट जाते हैं!'

9-क्योंकि वस्तुत: अगर हम ठीक से समझें, तो मृत्यु भी हमारे गलत चलने का परिणाम है। हम अपने को शरीर से बांधते हैं, इसलिए मृत्यु घटित होती है। अगर हम शरीर से अपने को न बाधें, मृत्यु घटित न होगी। शरीर की ही मृत्यु होती है, हमारी तो मृत्यु नहीं होती, लेकिन हम शरीर से बांध लेते हैं।अगर आप कागज की नाव पर सवार थे, तो डूबना निश्चित ही था। जितनी देर चल गई, वही काफी है। वह भी चमत्कार है!शरीर के साथ जिसने अपने को बांधा है, उसने मरने की तो तैयारी कर ही ली, क्योंकि शरीर मरणधर्मा है। जो व्यक्ति भी मरणधर्मा के साथ चलेगा, वह अमृत के विपरीत चल रहा है। जो व्यक्ति अमृत के अनुकूल चलेगा,अपने को मरणधर्मा से नहीं बांधेगा। यम कह रहे है, वह समस्त भयों से मुक्त हो जाता है, जन्म -मरण से छूट जाता है।वे अमर हो जाते हैं, जो परमात्मा के भयस्वरूप को स्मरण करते हैं और उसके अनुकूल अपने जीवन को अनुशासन से भर लेते हैं।''इसी के भय से अग्नि तपती है इसी के भय से सूर्य तपता है इसी के भय से इंद्र वायु और पांचवें मृत्यु देवता अपने—अपने काम में प्रवृत्त हो रहे हैं''।यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक परमात्मा को साक्षात कर सका तब तो ठीक है नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है।

10-मनुष्य की की योनि में, एक विशेषता है। मनुष्य से नीचे भी योनियां हैं। पशु हैं, पक्षी हैं, वृक्ष हैं, पदार्थों का फैलाव है। मनुष्य से ऊपर की भी योनियां हैं ..देवता हैं, स्वर्गों के निवासी हैं। मनुष्य से पीछे और मनुष्य से आगे, दोनों तरफ योनियां हैं। मनुष्य ठीक मध्य की योनि है। लेकिन मध्य की योनि होने के कारण एक विशेषता है, और वह यह कि मनुष्य एक चौराहा है। वहां से नीचे की तरफ भी रास्ता जाता है, वहां से ऊपर की तरफ भी रास्ता जाता है। और वहां से ऊपर नीचे, दोनों से मुक्त होने की तरफ भी रास्ता जाता है। इसे हम थोड़ा समझें।नीचे की योनियां बिलकुल ही दुख में डूबी हैं। मनुष्य के नीचे का जगत नर्क है ..वहां दुख ही दुख है। वहा दुख इतना ज्यादा है कि दुख से मुक्त होने की आशा भी नहीं बंधती। दुख से मुक्त होने की आशा तभी बंधती है, जब थोड़ी बहुत सुख की रेखा हो।वास्तव में, जब दुख बहुत ज्यादा होता है तो क्रांति नहीं होती , क्योंकि दुख के लोग आदी हो जाते हैं। सुख की कोई आशा ही न हो, तो क्रांति किसलिए करनी?सभी क्रांतिकारी न तो अमीर घर में पैदा होते हैं और न गरीब घर में पैदा होते हैं। मध्यवर्गीय, बीच में, जिनको दुख का भी अनुभव है और जिन्हें सुख की भी आशा है। जो महल में भी नहीं पहुंच गए हैं और झोपड़े में भी नहीं हैं, जो बीच के मकान में हैं। कोशिश की जाए तो वह महल बन सकता है। और अगर कोशिश न की जाए तो जल्दी ही झोपड़ा हो जाएगा। जो बीच में अटके हैं, जिनको दुख की भी प्रतीति है और सुख का स्वप्न भी जिनके साथ है, वे लोग क्रांति पैदा करतें हैं।

11- मनुष्य के पीछे जो योनियां हैं, वे अत्यंत दारुण दुख की हैं। वहाँ कोई आशा नहीं बंधती। वहां कोई क्रांति नहीं हो सकती। मनुष्य के ऊपर की जो योनियां हैं ..महासुख की हैं। सुख से भी कभी कोई क्रांति नहीं करता। क्योंकि जो सुख में है, जिसके पास कुछ भी है खोने को, वह बदलाहट नहीं करना चाहता। सुखी व्यक्ति हमेशा चाहता है ..स्थिति वैसी ही बनी रहे ..कोई रूपांतरण नहीं चाहता।इसलिए स्वर्ग में कोई क्रांति नहीं होती।स्वर्ग से कभी कोई मुक्त नहीं हुआ है। हो भी नहीं सकता क्योकि सुख से कोई मुक्त होना ही नहीं चाहता। इसलिए दुख की अतिशयता तो अभिशाप है ही, सुख का अतिशय होना भी अभिशाप है।मनुष्य मध्यवर्गीय योनि है। न तो वह नर्क में है, और न स्वर्ग में। वह त्रिशंकु की तरह बीच में है। वह जरा ही भूल -चूक करे तो नर्क में गिर सकता है, और जरा ही होशियारी करे तो स्वर्ग में प्रवेश कर सकता है। वह दोनों के मध्य में है।मनुष्य योनि रूपांतरण /ट्रांसफामेंशन की अवस्था है। और अगर ठीक से समझ जाए , तो न नर्क में जाना चाहेगा और न स्वर्ग में। क्योंकि सुख भी बार -बार भोगने पर बासे हो जाते हैं, और दुख जैसे हो जाते हैं। सौंदर्य भी कुरूपता हो जाती है। मिष्ठान्न खाते -खाते जीभ तरसने लगती है, विपरीत के लिए।

12-सुविधा में बैठे -बैठे मन असुविधा में जाने की आकांक्षा करने लगता है। चारों तरफ मनोरंजन ही मनोरंजन हो और सुबह से रात तक आप मनोरंजन करते रहें तो मिनटों में रस खत्म हो जाता है।जो मनुष्य इस बात को समझ लेता है कि दुख तो दुख है ही, सुख भी अंततः दुख हो जाता है, और दुख से तो छुटकारा चाहिए ही, अंततः सुख से भी मनुष्य छूटना चाहता है। जो इस सत्य को समझ लेता है, वह न तो स्वर्ग को चाहता है न नर्क को, वह मुक्त होना चाहता है। वह समस्त वासनाओं के पार जाना चाहता है।तो मनुष्य के अस्तित्व से तीन मार्ग निकलते हैं। एक दुख का, एक सुख का और एक मोक्ष का, मुक्ति का। मुक्ति न तो सुख है न दुख। मुक्ति दोनों के पार है।यदि शरीर का पतन होने के पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक परमात्मा को साक्षात न कर सका तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश हो जाता है।फिर लंबी यात्रा का चक्र शुरू हो जाता है।जो व्यक्ति मनुष्य होने की अवस्था में मोक्ष की प्यास से नहीं भरते, उनका भविष्य अंधकारमय है।मनुष्य तेजी से भागा जा रहा है मौत की तरफ। और जिस जगह से वह मुक्त हो सकता है, वह प्रतिपल पीछे छूटी जा रही है। फिर दुबारा कब इस संयोग को उपलब्ध होगा, कहने का कोई उपाय नहीं है। अगर रुक जाए, ठहर जाए और आगे की तरफ दौड़ने की फिक्र छोड़ दे और भीतर की तरफ चलना शुरू हो जाए, दिशा मोड़ ले ..बाहर की तरफ से भीतर की तरफ, पदार्थ की तरफ से परमात्मा की तरफ, तो योनियों में भटकाव बंद हो जाता है। और मनुष्य अयोनि हो जाता है, मनुष्य मुक्त हो जाता है। फिर किसी और शरीर में उसका प्रवेश नहीं है।नचिकेता से यम ने कहा ''यही है वह परमात्मा, जिसके संबंध में तुमने पूछा था''।

....SHIVOHAM...


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