कर्मों की तीन श्रेणियाँ/कर्म और आक्सीजन
कर्म क्या है?--
सृष्टि में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए नहीं रह सकता है। वह या तो विचारों के माध्यम से सक्रिय है अथवा क्रियाओं के माध्यम से या फिर कारण बन कर कर्म में योगदान कर रहा है। जीव-जंतु हों या मनुष्य, कोई भी अकर्मण्य नहीं है और न ही कभी रह सकता है। विद्वानों ने मुख्य रूप से तीन प्रकार के कर्म बताए हैं जिनमें एक होता है क्रियमाण कर्म, जिसका फल इसी जीवन में तुरंत प्राप्त हो जाता है। दूसरा संचित कर्म होता है, जिसका फल बाद में मिलता है। तीसरा होता है प्रारब्ध।पाप कर्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है - पातक, महा-पातक और अतिपातक। और दो प्रभागों में भी; प्रारब्ध और अप्रारब्ध। प्रारब्ध का तात्पर्य उन पापपूर्ण प्रतिक्रियाओं से है जिनसे व्यक्ति वर्तमान में पीड़ित है, और संभावित पीड़ा के स्रोतों से है। जब पापी प्रतिक्रियाओं के बीज अभी तक फलित नहीं हुए हैं, तो प्रतिक्रियाओं को अप्रारब्ध कहा जाता है। पाप कर्म के ये बीज अदृश्य हैं, लेकिन वे असीमित हैं, और कोई भी पता नहीं लगा सकता कि वे पहली बार कब बोए गए थे। प्रारब्ध के कारण, पापी प्रतिक्रियाएं जो पहले ही फलित हो चुकी हैं, व्यक्ति को निम्न परिवार में जन्म लेना या अन्य दुखों से पीड़ित होना देखा जाता है।हालाँकि, जब कोई व्यक्ति भक्ति सेवा करता है, तो प्रारब्ध, अप्रारब्ध और बीज सहित पापपूर्ण जीवन के सभी चरण नष्ट हो जाते हैं।अभक्तों को भौतिक कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है क्योंकि वे पापपूर्ण सकाम कर्म करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। अज्ञानता के कारण उनके हृदय में पाप कर्म करने की इच्छा बनी रहती है। मनुष्य की अंतः चेतना ऐसी निष्पक्ष, निर्मल, न्यायशील और विवेकवान है कि अपने पराए का कुछ भी भेदभाव न करके सत्यनिष्ठ न्यायाधीश की तरह हर एक भले-बुरे काम का विवरण अंकित करती रहती है।(1) संचित (2) प्रारब्ध और (3) क्रियमाण , इन तीन प्रकार के कर्मों का संचय हमारी संस्कार भूमिका में होता है।
संचित कर्म क्या है?--
02 FACTS;-
1-दिन भर के कामों का यदि निरीक्षण किया जाय, तो वे तीन श्रेणियों में बाँट देने पड़ेंगे। कुछ तो ऐसे होते हैं, जो बिना जानकारी में होते हैं। जैसे बुरे लोगों के मुहल्ले में या सत्संग में रहने से उनका प्रभाव किसी न किसी अंश में गुप्त रूप से अपने ऊपर पड़ जाता है। यह प्रभाव पड़ा तो परंतु हमने उसे इच्छापूर्वक स्वीकार नहीं किया इसलिए वह हल्का, निर्बल एवं कम प्रभाव वाला होकर हमारी भीतरी चेतना के एक कोने में पड़ा रहा। ऐसे हीन संस्कार वाले, संचित कर्म कहे जाते हैं। जो कार्य विवशता में, दबाए जाने पर, असहाय अवस्था में करने तो पड़ें, और मन जिनके विरुद्ध विद्रोह करता रहा एवं उस काम को स्वभाव बनाकर अपना नहीं लिया, तो उस कार्य का संस्कार भी हल्का और कम प्रभाव वाला होता है। ऐसे काम भी संचित कर्म के ही श्रेणी में आते हैं। इन संचित कर्मों के संस्कार बहुत कमजोर एवं हल्के होते हैं, इसलिए वे मनोभूमि के किसी अज्ञात कोने में सिमटे हुए हजारों वर्ष तक पड़े रहतें हैं, यदि इन्हें प्रकट होने के कोई अच्छा अवसर न मिले, तो यों ही दबे दबाए पड़े रहते हैं। किंतु यदि उसी प्रकार के बुरे कर्म कभी जानबूझ कर स्वेच्छा से, विशेष मनोयोग के साथ किए गए, तो वे सड़े-गले संचित संस्कार भी कुलबुलाने लगते हैं।
2-जिस प्रकार घुना हुआ बीज भी अच्छी भूमि और अच्छी वर्षा पाकर उग आता है, वैसा ही संचित संस्कार भी बलवान कर्मों की सहायता पाकर उग आते हैं। परंतु यदि उन संचित संस्कारों को लगातार विपरीत स्वभाव के बलवान कर्म संस्कारों के साथ रहना पड़े, तो वे नष्ट भी हो जाते हैं। गर्म जगह में रखा हुआ एक पानी का घड़ा गर्मी के प्रभाव से एक-दो महीने में सूख ही जाता है, इसी प्रकार उत्तम कर्मों के संस्कार जमा हो रहे हों, तो बुरे संस्कार उनकी गर्मी में जलकर नष्ट भी हो जाते हैं। धर्म ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि तीर्थयात्रा आदि अमुक शुभ कर्म करने से इतने जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। वास्तव में वह संकेत इन अल्प संचित संस्कारों के सम्बन्ध में ही है। भले और बुरे दोनों ही प्रकार के संचित कर्म संस्कार अनुकूल परिस्थिति पाकर फलदायक होते हैं एवं तीव्र प्रतिकूल परिस्थितियों में नष्ट भी हो जाते हैं।
प्रारब्ध कर्म क्या है?-
02 FACTS;-
1-प्रारब्ध वे मानसिक कर्म होते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर, तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर किए जाते हैं। इन कार्यों को विशेष मनोयोग के साथ किया जाता है, इसलिए उनका संस्कार भी बहुत बलवान बनता है। हत्या, खून, डकैती, विश्वासघात, चोरी, व्याभिचार जैसे प्रचण्ड क्रूरकर्मों की प्रतिक्रिया अंतःकरण में बहुत ही तीव्र होती है, उस विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल देने के लिए आध्यात्मिक पवित्रता निरंतर व्यग्र बनी रहती है। और एक न एक दिन उसे निकाल कर बाहर कर ही देती है।हमारी अंतःचेतना निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह हमारे हर काम को देखती रहती है और उसकी न्यूनता- अधिकता के परिणाम के अनुसार दण्ड की व्यवस्था करती रहती है। चूँकि मानसिक दण्ड अपने आप अंदर ही अंदर पूरा नहीं हो सकता, इसके लिए दूसरे साधनों की भी आवश्यकता होती है, दण्ड कार्य को पूरा करने लिए सूक्ष्म लोक में से उसी प्रकार का घटनाक्रम उपस्थित करने के लिए हमारी अंतः चेतना एक वातावरण तैयार करती है। इस तैयारी में कभी बहुत समय भी लग जाता है। जैसे छल स्वभाव के निवारण के लिए शोक रूपी दण्ड की आवश्यकता है। अब यह देखा जाएगा कि छल किस दर्जे का है, उसकी शुद्धि किस दर्जे के शोक से पूरी हो सकती है। अंतःचेतना वैसी ही परिस्थितियाँ पैदा करने में भीतर ही भीतर लगी रहेगी। वह शरीर में ऐसे तत्त्व पैदा करेगी, जिससे पुत्र उत्पन्न हो, उस पुत्र शरीर में ऐसी आत्मा का मेल मिलवाएगी, जिसे अपने कर्मों के अनुसार दस वर्ष ही जीना पर्याप्त हो, दस वर्ष का पुत्र हो जाने पर वही हमारी अंतःचेतना गुप्त रूप से पुत्र पर असर डालेगी और उसे रोगी करके मार डालेगी एवं शोक का इच्छित अवसर पैदा कर देगी। ऐसे अवसर तैयार करने में केवल अपना ही कार्य अकेला नहीं होता, वरन् दूसरे पक्ष का भी कार्य होता है। दोनों ओर की चेतनाएँ अपने-अपने लिए अवसर तलाश करती फिरती हैं और फिर जब उन्हें इच्छित जोड़ मिल जाता है, तो एक घटना की ठीक भूमिका बँध जाती है। ऐसे कार्यों में कई बार एक, दो, तीन या कई जन्मों का समय लग जाता है।
2-इसी प्रकार पिता को पुत्र शोक और पुत्र को अल्पायु का संयोग, जब दोनों ही विधान ठीक बैठ जाते हैं, तो वे एकत्रित हो जाते हैं। शारीरिक दण्ड एकांगी है.. विष खाते ही तुरंत मृत्यु हो जाती है, परंतु मानसिक दण्ड में अपवाद है। जैसे क्रूरता से प्रेरित होकर किसी की हत्या की गई, वह यदि प्रकट हो गयी तो राज्य द्वारा दण्ड मिल जाएगा, किंतु यदि हत्यारे ने अपना कार्य छिपा लिया तो उसका अंतःकरण तुरंत ही पाप दण्ड न दे बैठेगा, वरन् इस तलाश में फिरेगा कि हिंसा वृत्ति से घृणा कराने के लिए हिंसा में जो दुःख होता है, उसका अनुभव उसे कराऊँ । जब दूसरी ओर का भी कोई अंकुर मिल जाता है, तो दोनों आपस में लिपट कर एक निर्धारित घटना की भूमिका बन जाते हैं।इस प्रकार मानसिक पापों का फल मिलता है और उसमें विलम्ब हो जाने का कारण है। दैनिक आपत्तियाँ क्रमपूर्वक, व्यवस्था के साथ आती हैं, पर लोग उन्हें दैव का प्रकोप, ईश्वर-इच्छा, संसार दुःखमय है आदि शब्दों के द्वारा मन में संतोष करते हैं। यथार्थ में ईश्वर किसी के लिए भी दुःख - शोक उपस्थित नहीं करता, न उसकी किसी को कष्ट में डालने की इच्छा है और न यह संसार ही दुःखमय है। मकड़ी अपने आप जाला बुनती हैं और उसमें खुद फँसती, उलझती, लटकती रहती है। मन को अशुभ, अधर्मी, पापी बनाकर अपने लिए दुःख-द्वंद्वों के काँटे खुद ही बोते हैं और जब वे चुभते हैं, तो रोते-चिल्लाते हैं तथा दूसरों को दोष देते हैं। यहाँ एक बात और भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि प्रारब्ध फल आकस्मिक तरीके से मिलेगा जैसे रोग से मृत्यु, मकान गिर पड़ना, धन खो जाना, गिर पड़ने से चोट लगना, अंग-भंग हो जाना आदि। जो अनायास, आकस्मिक ढंग से कष्ट आ पड़ता है, वे प्रारब्ध के भोग हैं।
क्रियमाण कर्म क्या है?-
02 FACTS;-
1-निश्चित फल वाले शारीरिक कर्म क्रियमाण हुआ करते हैं। क्रियमाण प्रत्यक्ष हैं।कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया । विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उसमें तुरंत ही बदला मिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार-विहार करने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है। मजदूर परिश्रम करता है, बदले में उसे पैसे मिल जाते हैं। जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर द्वारा शरीर के लिए किए जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। संचित कर्मों का फल मिलना संदिग्ध है यदि अवसर मिलता है, तो वे फलवान होते हैं। नहीं तो विरोधी परिस्थितियों से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्मों का फल मिलना निश्चित है, परंतु उसके अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने में कुछ समय लग जाता है। यह समय कितने दिन का होता है, इस सम्बन्ध में कुछ नियम मर्यादा नहीं है, वह आज का आज भी हो सकता है और कुछ जन्मों के अंतर से भी हो सकता है, किंतु प्रारब्ध फल होते वही हैं, जो अचानक घटित हों और जिसमें मनुष्य का कुछ वश न चले। पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है उसे कदापि प्रारब्ध फल नहीं कहा जा सकता। इनके फल मिलने में अधिक समय नहीं लगता। इस प्रकार तीन प्रकार के कर्म और उसके फल मिलने की मर्यादा है।
2-कष्टों का स्वरूप अप्रिय है, उनका तात्कालिक अनुभव कड़ुआ होता है, अंततः वे जीव के लिए कल्याणकारी और आनंददायक सिद्ध होते हैं। उनसे दुर्गुणों के शोधन और सद्गु णों की वृद्धि में असाधारण सहायता मिलती है। आनंदस्वरूप, आत्म प्रकाशमय जीवन और सुखमय संसार में कष्टों का थोड़ा स्वाद परिवर्तन इसलिए लगाया गया है कि प्रगति में बाधा न पड़ने पाए। घड़ी में चाबी भर देने से उसकी चाल फिर ठीक हो जाती है । पैडल चलाने से साइकिल ठीक तरह घूमती है, अग्नि की गर्मी से सूखकर भोजन पक जाते हैं। थोड़ा-सा कष्ट भी जीवन की सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है। संसार में जो कष्ट है वह इतना ही है और ऐसा ही है, किंतु स्मरण रखिए जितना भी थोड़ा-बहुत दुः ख है, वह हमारे अन्याय का, अधर्म का, अनर्थ का फल है। आत्मा दुः ख रूप नहीं है, जीवन दुः खमय नहीं हैं और न संसार में ही दुः ख है।आप दुः खों से डरिए मत, घबराइए मत, वरन् उन्हें सहन करने को तैयार रहिए। कटुभाषी किंतु सच्चे सहृदय मित्र की तरह उससे भुजा पसारकर मिलिए।ऐसा मत कहना कि ‘यह संसार बुरा है, दुष्ट है, पापी है, दुः खमय है, ईश्वर की पुण्य कृति, जिसके कण-कण में उसने कारीगरी भर दी है, कदापि बुरी नहीं हो सकती। सृष्टि पर दोषारोपण करना, तो उसके कर्त्ता पर आक्षेप करना होगा। ‘‘यह घड़ा बहुत बुरा बना है’’ इसका अर्थ है कुम्हार को नालायक बताना। आपका पिता इतना नालायक नहीं है, जितना कि आप ‘‘दुनियाँ दुः खमय है’’ यह शब्द कहकर उसकी प्रतिष्ठा पर लाँछान लगाते हैं। ईश्वर की पुण्य भूमि में दुः ख का एक अणु भी नहीं है। हमारा अज्ञान ही हमारे लिए दुः ख है।अपने अंदर के समस्त कुविचारों और दुर्गुणों को धोकर अंतःकरण को पवित्र कर लें, जिससे दुः खों की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाए और हम परम पद को प्राप्त कर सकें।
कर्म और आक्सीजन ;-
02 FACTS;-
1-आक्सीजन शारीरिक और मानसिक रोगो को दूर करने में सक्षम है ।नियमित रूप से अगर शरीर के सभी अंगो को आक्सीजन मिलती रहे तॊ साधक में इतना बल आ जाता है क़ि वह चलती ट्रेन को रोक सकता है ।जंजीरों को तोड़ सकता हैं और सलाखों को मोड़ सकता है ।शरीरिक बीमारिया, दुर्भावना, ईर्ष्या एवं कुंठा मन क़ी मैल है।जैसे ही ये भावनाए उठे सांस रोक कर शिव बाबा को याद करें और सांस छोड़े । फिर लंबा सांस जितना अंदर खींच सकते हैं खींचे, रोके और याद करें, मन क़ी यह मैल धुलने लग जाएगी । भगवान के बिन्दी रूप को याद करते हुए शरीर के सभी जोड़ो या संबंधित भागों तक आक्सीजन पहुचाने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं ।शरीर में जहां भी रोग हैं उस से पहले वाले जोड़ में ऊर्जा चक्र का सूक्ष्म रूप होता है । जब इस सूक्ष्म ऊर्जा केन्द्र में आक्सीजन क़ी कमी हो जाती हैं तॊ उस से अगले भाग में रोग आ जाता है ।शिव बाबा क़ी याद से उस सूक्ष्म ऊर्जा चक्र तक आक्सीजन पहुंचाओ ।
2-अगर हम शरीर के सभी जोड़ो तक हर रोज आक्सीजन पहुंचाये तॊ हम निरोगी होने लगेंगे।सब से पहले पैर के दायें अंगूठे के पोर से एक इंच दूर शिव बाबा के बिंदू रूप को देखें और सांस रोक कर बाबा को याद करें ।आप शांति के सागर हैं ।फिर लंबा सांस ले और सांस रोक कर याद करें । ऐसा पांच बार करें । इस विधि से आक्सीजन और भगवान क़ी शक्ति अंगूठे के पोर तक सभी कोशिकाओं को पहुंच जाती है ।यही अभ्यास अंगूठे के साथ वाली पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी अंगुली पर करें ।ऐसा करने से आप के पैर क़ी सभी कोशिकाओं को जो भी इस रास्ते में प्रयोग हो रही हैं ...आक्सीजन और भगवान क़ी शक्ति पहुंच जाती है ।इन सभी कोशिकाओं का रोग दूर होने लग जाएगा ।यही अभ्यास अंगूठे और अंगुलियो के दूसरे जोड़ और तीसरे जोड़ पर करना हैं ।इसके बाद जहां हड्डियों के जोड़ है जैसे क़ि टखने पर, घुटने पर, हिप पर, नाभि, हृदय और कंठ के पीछे रीढ़ क़ी हड्डी पर अभ्यास करते हुए भृकुटी और सह्स्त्रार (सिर ) तक पहुचना है ।ऐसा करने से शरीर के दायें भाग को आक्सीजन और परमात्म शक्ति मिल जाती है और आत्मा तथा मन क़ी अशुद्धता ठीक हो जाती है ।ऐसा ही अभ्यास बांए पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक करें ।यही अभ्यास पहले दायें हाथ फिर बांए हाथ के अंगूठे और अंगुलियो से होते हुए और रास्ते में जहां जोड़ हैं वहां भी अभ्यास करते हुए सिर तक पहुँचो।ऐसे करने से आक्सीजन और ईश्वरीय बल शरीर क़ी प्रत्येक कोशिका को मिल जाता है जिससे आत्मा और शरीर दोनो कंचन बन जाते हैं ।
पीनियल ग्रंथि और आक्सीजन ;-
02 FACTS;-
1-भृकुटी क़ी सीध में दिमाग के अढ़ाई तीन इंच अंदर एक पिनियल नाम क़ी ग्रंथी है ।यह ग्रंथी सोने-जागने तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करती है।इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है ।पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली होती है ।पीनियल ग्रंथि को अक्सर खोपड़ी के सामान्य एक्स-रे में देखा जा सकता है ।पिनियल ग्रंथी में आत्मा रहती है । इस ग्रंथी के एक हिस्से से नेगेटिव चुम्बीक्य बल पैदा होता है और दूसरे हिस्से से पॉज़िटिव चुंबकीय बल पैदा होता हैं ।इन दोनो बलो के बीच आत्मा रुकी हुई हैं ।जब किन्ही कारणो से एक साइड का चुंबकीय बल खत्म हो जाता है तॊ आत्मा शरीर छोड़ देती है जिसे हम मृत्यु कहते हैं ।इसी ग्रंथी से आत्मा शरीर के प्रत्येक हिस्से को नियंत्रित करती है ।पूरे शरीर क़ी नस नाड़ियां यहीं पर मिलती हैं ।यही से आत्मा शरीर के सातों ऊर्जा केन्द्रो को नियंत्रित करती हैं ।स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर क़ी प्रत्येक कार्यविधि का प्रभाव इस ग्रंथी पर पड़ता है ।भगवान क़ी याद से आत्मा पावन बनती हैं उसका प्रभाव भी इस ग्रंथी पर पड़ता है ।इस ग्रंथी को जब पर्याप्त आक्सीजन नहीं मिलता तॊ हमें रोग होने लगते हैं ।
2-आधा सिर में दर्द होना पिनियल ग्रंथी में कम आक्सीजन के कारण होता है ।ब्रैन ट्यूमर होना, कानो के रोग, आंखो के रोग, स्मृति कमजोर होना, बी पी का होना, ब्रैन हेम्रेज होना , बुद्वि का कमजोर होना, अति क्रोध, अति कामुक और अन्य मानसिक विकारों का मूल कारण है पिनियल ग्रंथी में आक्सीजन क़ी कमी का होना।मंद बुद्वि होना, गूंगा होना, बहरा होना, जन्म से दृष्टिहीन होना, ये सब दर्शाते हैं क़ि पिनियल ग्रंथी अविकसित है ।इन रोगो के अनेको कारण हो सकते हैं परन्तु इस का मूल कारण आक्सीजन क़ी कमी है ।महान योगी भी ऐसी समस्याओ से ग्रस्त पाए जाते हैं ।वह योग में तॊ महान होते हैं । 20 -20 घंटे तप करते हैं और अन्य सेवा कार्यो में लगे रहते हैं परन्तु वह अपने शरीर का ध्यान नहीं रखते। जिससे उन्हे अनेको जान लेवा रोग लग जाते हैं । वह यह भूल जाते हैं क़ि प्राकृति के नियमो का उलंघन करेगें तॊ वह हमें क्षमा नहीं करेगी । अगर हम श्रेष्ट योगी बनना चाहते हैं या श्रेष्ट संसारिक जीवन जीना चाहते हैं तॊ पिनियल ग्रंथी को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन पहुचाये ।भगवान को याद करते हुए, आप चलते फिरते या बैठ कर ये कर सकते हैं । खुली हवा हो या पार्क हो या घर में हो खासतौर पर हरियाली वाले स्थान या पार्क में या हरे भरे खेतो में बैठ कर करें तॊ अच्छा रहेगा ।आप को लम्बे लम्बे और धीरे सांस को अंदर खीचना हैं और ऐसे समझना है ये भृकुटी के पीछे पीनियल ग्रंथी तक पहुंच रहा हैं । फिर धीरे धीरे सांस छोड़ना है और ऐसे लगे जैसे पिनियल ग्रंथी से सांस बाहर आ रहा है ।
...SHIVOHAM....
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