काश्मीर शैव दर्शनPART-03
बुद्ध;-
सामान्य ज्ञान को धारण करने वाला प्राणी। ऐसे प्राणी में अपने स्वरूप के साक्षात्कार के लिए किसी भी प्रकार की तीव्र उत्कंठा नहीं होती जैसा कि प्रबुद्ध (देखिए) में हुआ करती है परंतु अबुद्ध (देखिए) की तरह इनका ज्ञान अतीव संकुचित भी नहीं होता है। इनमें इतना सा सामान्य ज्ञान होता है कि भक्ति और ज्ञान के माध्यम से वे अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकते हैं। प्रयास करने पर ये प्रबुद्ध की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। जाग्रत् अवस्था में ठहरे जीवों का यह द्वितीय प्रकार होता है।
बुद्धि;-
सांख्ययोग में बुद्धि शब्द दो अर्थों में प्रचलित है – (1) ज्ञान अर्थात् वृत्तिरूप ज्ञान तथा (2) बुद्धितत्व अर्थात् महत्तत्त्व (द्र. महत्तत्त्व)। यह ज्ञान निश्चयरूप (प्रमारूप) ज्ञान है। यह बुद्धि विषय-इन्द्रिय-संयोग से प्रकटित होती है। वाचस्पति ने बुद्धिरूपवृत्ति के आविर्भाव की प्रक्रिया के विषय में ऐसा कहा है – ‘विषय के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर बुद्धिस्थ आवरक तमोगुण का अभिभव होता है। इस अभिभव के कारण जो सत्वसमुद्रेक होता है वह ज्ञानरूप बुद्धि है’ (तत्त्वकौमुदी 5)। यह ज्ञान इन्द्रिय का धर्म नहीं है, किन्तु बुद्धि का धर्म है। सांख्ययोग में कुछ ऐसे स्थल हैं, जहाँ महत्तत्त्व या चित्त आदि शब्दों का प्रयोग न कर बहुधा बुद्धि शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे ‘पुरुष बुद्धि का प्रतिसंवेदी है’, ‘काल बुद्धिनिर्माण है’, ‘बुद्धिनिवृत्ति ही मोक्ष है’, ‘भोगापवर्ग बुद्धिकृत है’, ‘पुरुष बुद्धिबोधात्मा है’ आदि। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि जो बुद्धि पुरुष की विषयभूत होती है, वह बुद्धिमात्र नहीं; बल्कि पुरुषार्थवती बुद्धि है (पुरुषार्थ = विवेकख्याति एवं विषय-भोग)। महत्तत्त्वरूप बुद्धि प्रकृति का प्रथम विकार है। द्र. महान् शब्द।
बुद्धि तत्त्व ;-
सत्त्वगुण प्रधान महत्-तत्त्व। मूल प्रकृति में स्थित गुणों में विषमता के आ जाने पर सर्वप्रथम प्रकट होने वाला प्रमुख अंतःकरण। करण, ज्ञान तथा क्रिया के साधन को कहते हैं। बुद्धि तत्त्व प्रमेय को प्रकाशित करने के कारण तथा नाम रूप की कल्पना करने के कारण पुरुष के लिए क्रमशः ज्ञान और क्रिया का साधन बनता है। सुख, दुःख तथा मोह का सामान्य रूप से निश्चय करने वाला तत्त्व। व्यवहार में समस्त आंतर और बाह्य विषयों का निश्चयात्मक अध्यवसाय कराने वाला पुरुष का मुख्य अंतःकरण बुद्धि तत्त्व कहलाता है। बुद्धि प्रमाता;-
बुद्धि को ही अपना स्वरूप समझने वाला प्राणी। स्वप्न अवस्था में शरीर और बाह्य इंद्रियाँ सभी निष्क्रिय पड़े रहते हैं। फिर भी सारे उपादान, परित्याग आदि व्यापार तीव्रतर गति से चलते रहते हैं। उनको चलाने वाला तथा उनके चलाने के अभिमान को करने वाला सूक्ष्म शरीर रूपी प्राणी ही बुद्धिप्रमाता कहलाता है। यह प्रमाता अन्य सभी करणों के सूक्ष्म रूपों का उपयोग तो करता रहता है और प्राणवृत्तियों का भी उपयोग करता रहता है। फिर भी बुद्धिकृत संकल्प विकल्प आदि की ही इसमें प्रधानता रहती है, अतः इसे बुद्धि-प्रमाता कहते हैं। देहांतरों को यही प्रमाता धारण करता है और स्वर्ग नरक आदि लोकों की गति इसी की हुआ करती है। देवगण सभी बुद्धि प्रमाता ही होते हैं। बुद्धिवृत्ति बुद्धि का व्यापार रूप परिणाम बुद्धिवात्त कहलाता है; विषय के संपर्क से ही बुद्धि से वृत्तियों का आविर्भाव होता है। बुद्धि चूंकि द्रव्य है, इसलिए वृत्ति भी द्रव्य है। वृत्ति को बुद्धि का धर्म कहा जाता है। यह वृत्ति वस्तुतः विषयाकार परिणाम ही है। बुद्धि चूँकि सत्वप्रधान है, अतः वृत्ति ज्ञान रूपा ही होती है; ‘वृत्ति प्रकाशबहुल धर्मरूप है’ ऐसा प्रायः कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि बुद्धि से वृत्तियों के उद्भव में विषय आदि कई पदार्थों की आवश्यकता होती है, पर वह वृत्ति विषय आदि का धर्म न होकर बुद्धि का ही धर्म मानी जाती है, क्योंकि वृत्ति सत्त्वबहुल होती है। सांख्य में जो बुद्धिवृत्ति है, योग में उसको चित्तवृत्ति कहा जाता है ।
बुद्धिसर्ग;-
सांख्यकारिका में जिस प्रत्ययसर्ग का उल्लेख है ,उसका नामान्तर बुद्धिसर्ग है। इस प्रत्ययसर्ग के चार भेद हैं – विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि। द्र. प्रत्ययसर्ग तथा विपर्यय आदि शब्द। किसी-किसी व्याख्याकार के अनुसार प्रत्ययसर्ग का अर्थ है – प्रत्ययपूर्वक=बुद्धिपूर्वक सर्ग, अर्थात् सृष्टिकारी प्रजापति का अभिध्यानपूर्वक जो सर्ग = सृष्टि है, वह प्रत्ययसर्ग है। यह सर्ग चार प्रकार का है – मुख्य स्रोत, (उद्भिज्जसर्ग, तिर्यक-स्रोत (पश्वादिसर्ग), ऊर्ध्वस्रोत (देवसर्ग) तथा अर्वाक् स्रोत (मानुषसर्ग)। इन चार प्रकारों में ही यथाक्रम विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि रहती हैं और तदनुसार इन चारों के नाम भी विपर्यय होते हैं । इस बुद्धिपूर्वक सर्ग के अतिरिक्त एक अबुद्धिपूर्वक सर्ग भी है, जिसका विवरण पुराणों के उपर्युक्त अध्यायों में मिलता है।
बृंहक ;-
परब्रह्म, परमेश्वर, परमशिव। परमेश्वर में जो विश्व बीजरूपतया अर्थात् शक्तिरूपतया सदा विद्यमान रहता है उसी को वह दर्पण नगर न्याय से प्रतिबिंब की तरह अपने से भिन्न रूपता में प्रकट करता रहता है। वही विश्व का विकास कहलाता है। ऐसे विकास को बृंहण करते हैं। इस बृंहण को करने वाला विश्वबृंहक या विश्वविकासक स्वयं परमेश्वर ही है। इसी बृंहणसामर्थ्य के कारण उसे शास्त्रों में ब्रह्म कहा गया है। बौद्ध अज्ञान;-
माया आदि छः कंचुकों से घिर कर पशुभाव की अवस्था में आने पर अशुद्ध विकल्पों द्वारा संकुचित ज्ञातृता तथा कर्तृता का आत्माभिमान होना तथा अपने पशुभाव का बुद्धि के स्तर पर निश्चय होना बौद्ध अज्ञान कहलाता है। अपने तात्त्विक स्वभाव का ज्ञान न होने के कारण अनात्म वस्तुओं पर आत्माभिमान का निश्चय होना भी बौद्ध अज्ञान कहलाता है। इस तरह से बौद्ध अज्ञान बुद्धि के स्तर पर होने वाले अयथार्थ और सीमित तथा विकल्पात्मक निश्चय ज्ञान को कहते हैं। बौद्ध ज्ञान ;-
बुद्धि के स्तर पर अपने तात्त्विक स्वभाव का निश्चयात्मक ज्ञान बौद्ध ज्ञान कहलाता है। बौद्ध ज्ञान के बिना पौरुष ज्ञान में स्थिति प्राप्त करना अतीव कठिन है, क्योंकि पौरुष ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी यदि बुद्धि के भीतर किसी प्रकार के संशय रह जाएँ तो पौरुष ज्ञान सफल नहीं हो पाता है . अतः पौरुष ज्ञान से पूर्व बौद्ध ज्ञान का होना आवश्यक माना गया है। ब्रह्म;-
ईश्वर का नामांतर।भगवान पशुपति को ब्रह्म नाम से भी अभिहित किया गया है, क्योंकि वह बृहत् (व्यापक अथवा श्रेष्ठ) है तथा उसमें बृंहण सामर्थ्य है । बृंहण वृद्धि को या विकास को कहते हैं। परमेश्वर से ही समस्त ब्रह्माण्ड का विकास होता है। वे ही इसके विकासक या बृंहक हैं। इसीलिए उन्हें ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म शब्द का ऐसा अर्थ काश्मीर शैव दर्शन के मालिनी विजय वार्तिक पृ.25 तथा पराजीशिका विवरण पृ.121 में भी दिया गया है।
ब्रह्म ;-
प्रपंच का बृंहण अर्थात् विस्तार करने के कारण तथा स्वयं बृहत् होने के कारण ब्रह्म कहा जाता है। यह ब्रह्म शब्द का योगार्थ है। यहाँ बृंहण करना उपलक्षण मात्र है। वस्तुतः प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण ब्रह्म है। ब्रह्म का यही लक्षण “जन्माद्यस्य यतः” इस सूत्र में प्रतिपादित किया गया है। उक्त सूत्र में प्रतिपादित यह लक्षण ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। सत्चित्त और आनंद (सच्चिदानन्द) यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। नामरूपात्मक प्रपंच के अंतर्गत जैसे रूप प्रपंच के कर्त्ता ब्रह्म हैं वैसे वेद या नाम प्रपंच के भी विस्तार कर्त्ता ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म का कार्य होने से वेद और नाम प्रपंच भी ब्रह्म शब्द से कहा जाता है ।
ब्रह्म ;-
परतत्त्व। परमशिव तत्त्व। पंचकृत्यों द्वारा विश्वलीला का विकासक परमेश्वर। बृहत् अर्थात् असीम और सर्वव्यापक चैतन्यात्मक प्रकाश, जो संपूर्ण जगत् का बृहंक अर्थात् विकासक है। समस्त प्रपंच का बृंहण अर्थात् विकास करने के कारण ही परमेश्वर को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पाँच कारणों को भी पंच ब्रह्म कहा जाता है क्योंकि ये ही इस विश्व विकास के कार्य को स्फुटतया आगे आगे चलाते रहते हैं। ब्रह्म त्रि श,ष और स – मातृका के ये तीन वर्ण। ब्रह्म पंच 1. श, ष, स, ह, क्ष – मातृका के ये पाँच वर्ण। 2. ब्रह्मा आदि पाँच कारण। ब्रह्म दृष्टि;-
“यह सब कुछ आत्मा ही है, यह सब कुछ ब्रह्म ही है”। यह दृष्टि ब्रह्म दृष्टि है। उक्त दृष्टि प्रतीकात्मक (आरोपात्मक) नहीं है, किन्तु श्रवण के अनन्तर होने वाला मनन रूप है क्योंकि सभी वस्तु वास्तव में ब्रह्म ही है ।
ब्रह्मचर्य;-
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।मनुष्य की त्रयोदश इन्द्रियों (पञ्च कर्मेन्द्रिय, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि व अहंकार) का संयम विशेषकर जिह्वा तथा उपस्था जननेन्द्रिय का संयम ब्रह्मचर्य कहलाता है। पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य में जिह्वा और उपस्थ के संयम का विशिष्ट निर्देश दिया गया है। क्योंकि शेष ग्यारह इन्द्रियाँ इन्हीं दो से संबंधित होती हैं। जिह्वा व उपस्थ को मानव का शत्रु माना गया है, क्योंकि इन्हीं दो की प्रवृत्तियों से समस्त देहधारियों का पतन होता है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति से, अर्थात् उनके किसी भी कर्म में प्रवृत्त होने से, दुःख उत्पन्न होता है, तथा उनके संयम में रहने से सुख होता है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ प्रवृत्त नहीं होंगी तो किसी भी परिणाम की जनक नहीं बनेंगी। परिणाम, सुख अथवा दुःखपूर्ण, नहीं होगा तो सुख, दुःख दोनों आपेक्षिक भावों का जन्म नहीं होगा। अतः इन्द्रियों को संयम में रखना अतीव आवश्यक है। पाशुपत योग में ब्रह्मचर्य को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं, वे दूध, मधु व सोमरस का पान करते हैं और मृत्यु के उपरांत अमरत्व को प्राप्त करते हैं। ब्रह्मचर्य वृत्ति में धैर्य है, तप है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्यवृत्ति का पालन करते हैं उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।
ब्रह्मचर्य ;-
पंचविध यमों में यह एक है । यह मुख्यतः उपस्थसंयम (मैथुनत्याग) है, यद्यपि अन्यान्य इन्द्रियों का संयम भी ब्रह्मचर्य में अन्तर्भूत है। उपस्थसंयम से शरीरवीर्य की अचंचलता अभिप्रेत है। वीर्यधारण से प्राणवृत्ति में सात्त्विक बल बढ़ता है, जो योगाभ्यास के लिए अपरिहार्य है। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर योगी शिष्य के हृदय में ज्ञान का आधान करने में समर्थ होता है। व्याख्याकारों ने कहा है कि ब्रह्मचर्य का भंग आठ प्रकारों से होता है, स्मरण या श्रवण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय तथा क्रियानिष्पत्ति। पुरुष के लिए स्त्रीसम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना तथा स्त्री के लिए पुरुष सम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना (रागपूर्वक, जिससे ब्रह्मचर्य की हानि होती है) श्रवण है। कीर्तन आदि को भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
ब्रह्मपुच्छ ;-
“ब्रह्मापुच्छं प्रतिष्ठा” यहाँ पर पुच्छ स्थानीय ब्रह्म आनंदमय का प्रतिष्ठा भूत है क्योंकि “ब्रह्मविदाप्नाति परम्”। इस श्रुति के अनुसार आनंद स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन ब्रह्मज्ञान है एवं साधनभूत ब्रह्मज्ञान के प्रति ज्ञेय रूप में (विषय रूप में) ब्रह्म शेष (अंग) है। इस प्रकार साधन कोटि के अंतर्गत होने से ब्रह्म उस आनंदमय का प्रतिष्ठाभूत पुच्छ स्थानीय है। अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म पुच्छ स्थानीय ज्ञेय ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। इसीलिए ज्ञेय ब्रह्म आनंद का पुच्छ रूप है ।
ब्रह्मानंद ;-
उच्चार योग की प्राण धारणा में भिन्न भिन्न स्तरों पर अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छः भूमिकाओं में से चौथी भूमिका। अपान द्वारा प्राण में अनंत प्रमेयों को विलीन कर देने की स्थिति में सहज स्थिरता आ जाने पर साधक प्राण योग में समान प्राण पर विश्रांति का अभ्यास करता है। इस अभ्यास में वह कोई भी आकांक्षा न रखते हुए सभी प्रमेय पदार्थों को भावना द्वारा समरसतया संघट्ट रूप में देखता है। इसके लिए वह समान नामक प्राण वृत्ति को ही आलंबन बनाता है। इस प्रकार समान प्राण पर विश्रांति के सतत अभ्यास से जो आनंद की भूमिका अभिव्यक्त होती है, उसे ब्रह्मानंद कहते हैं। ब्राह्म शरीर;-
भगवान् द्वारा अपने भोग के अनुरूप निर्मित सत्य-ज्ञान और आनंदात्मक शरीर ब्राह्म शरीर है ।
भस्म पाशुपत विधि का एक आवश्यक अंग।इन्धन व अग्नि के संयोग से जो राख उत्पन्न होती है अर्थात् इन्धन को जलाकर जो राख बनती है, वह भस्म कहलाती है। पाशुपत संन्यासी को भस्म की भिक्षा मांगनी होती है, क्योंकि भस्म को पवित्रतम वस्तु माना गया है और यह पवित्रीकरण का एक उत्कृष्ट साधन है। अतः पाशुपत योगी को भस्मप्राप्ति चाहे थोड़ी मात्रा में ही हो, आवश्यक रूप से करनी होती है। साधक को दिन में कई बार भस्म मलना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
भस्मशयन;-
पाशुपत विधि का एक अंग।पाशुपत विधि के अनुसार शारीरिक पवित्रीकरण के लिए भस्मशयन करना होता है। रात्रि में भस्मशय्या को छोड़कर कहीं और शयन करना विधि-विरुद्ध है। पाशुपत योगी के लिए रात्रि को भस्मशय्या पर ही शयन करना अतीव आवश्यक है। वह जब कभी लेटे तो उसे भस्म में ही लेटना होता है। उससे उसका शरीर सदा पवित रहता है। मन की पवित्रता भी उससे बढ़ती है।
भस्मस्नान ;-
पाशुपत विधि का एक अंग।पाशुपत विधि के अनुसार भस्मस्नान विधि का एक आवश्यक अंग है। योगी को जल की अपेक्षा भस्म से ही शारीरिक पवित्रीकरण के लिए स्नान करना होता है। शरीर पर भस्म मलना ही भस्मस्नान होता है जिससे शरीर पर लगे स्निग्ध द्रव, तेल अथवा लेप या स्वेदजनित दुर्गन्ध आदि दूर हो। भस्मस्नान दिन में तीन बार पूर्वसन्ध्या, अपराह्नसन्ध्या तथा अपरसन्ध्या अर्थात् दिन के तीन विशेष पहरों में करना होता है। यदि किसी आगंतुक कारण से पवित्रता में भंग आए तो तब भी उसे पुन: भस्मस्नान करना होता है।
भाव;-
सांख्य में तीन प्रकार की सृष्टि मानी गई है – तत्त्वसृष्टि, भूतसृष्टि तथा भावसृष्टि। भाव का अभिप्राय धर्म आदि आठ भावों से है (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य तथा उनके विरोधी अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य) । ये भाव त्रयोदश करणों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, अहंकार और बुद्धि) में आश्रित रहते हैं। ये भाव शरीर के उपादान कारणों से भी संबन्धित हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि विशेष प्रकार के शरीर धर्म -ज्ञानादि के साधन में विशेषतः उपयोगी होती हैं। इन आठ भावों को सांसिद्धिक और वैकृतिक नामक दो भागों में बाँटा गया है । सांसिद्धिक भाव वे हैं जो जन्म के साथ ही प्रकट होते हैं (पुरुषान्तर से उपदेश-ग्रहण के बिना)। ये प्राकृतिक भी कहलाते हैं। वैकृत भाव वे हैं जो साधनबल से क्रमशः प्रकट होते रहते हैं। कपिल मुनि प्रथम प्रकार के भाव के मुख्य उदाहरण हैं। कुछ व्याख्याकार भावों के तीन प्रकार बताते हैं – सांसिद्धिक, प्राकृतिक तथा वैकृत (या वैकृतिक)। जन्म के साथ उत्पन्न होने वाले सांसिद्धिक; कुछ आयु बीतने पर आकस्मिक रूप से उत्पन्न होने वाले प्राकृतिक (इसमें पुरुषान्तर से उपदेश की आवश्यकता नहीं है); पुरुषान्तर से उपदेश लेकर साधन करने पर जो धर्मादि उत्पन्न होते हैं, वे वैकृतिक हैं।
भाव ;-
04 FACTS;-
1-सात प्रकार के आचारों के समान ही तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों में त्रिविध भावों का भी विशद वर्णन मिलता है। ये हैं- पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव। जन्मकाल से सोलह वर्ष तक पशुभाव, इसके बाद पचास वर्ष तक वीरभाव और पचास वर्ष के पश्चात् मनुष्य दिव्यभाव में रहता है। भावत्रय से अन्ततः भावै की सिद्धि होती है। ऐक्यभाव से साधक कुलाचार में प्रतिष्ठित होता है और इस कुलाचार के द्वारा ही मानव देवमय बन पाता है। भाव एक मानव धर्म है। मन ही मन सर्वदा उसका अभ्यास किया जाता है। दिव्य और वीर ये दो महाभाव हैं, पशुभाव अधम है। वैष्णव को पशुभाव से पूजा करनी चाहिये। शक्ति मन्त्र में पशुभाव भीतिजनक है। दिव्य और वीर भाव में वस्तुतः अन्तर नहीं है, किन्तु वीरभाव अति उद्धत है। रुद्रयामल में बताया गया है कि पशुभाव स्थित साधक किसी एक सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। किन्तु कुलमार्ग अर्थात् वीरभाव स्थित योगी अवश्य ही सब प्रकार की सिद्धियों का अधिकारी हो जाता है। महाविद्याओं के प्रसन्न होने पर ही वीरभाव की प्राप्ति होती है और वीरभाव के प्रसार से ही दिव्यभाव प्रकट होता है। वीरभाव और दिव्यभाव को ग्रहण करने वाले साधक वाञ्छाकल्पतरुलता के स्वामी हो जाते हैं, अर्थात् जब जो चाहे सो प्राप्त कर सकते हैं।
2-(क) दिव्यभाव कुब्जिकातन्त्र प्रभृतति में दिव्यभाव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि यह विश्व देवतामय है। समस्त जगत स्त्रीमय और पुरुष भगवान् शिव है। इस प्रकार अभेद भाव से जो चिन्ता करता है, वह देवतात्मक या दिव्य है। उसको चाहिए कि वह नित्य स्नान, नित्य दान, त्रिसन्ध्या जप-पूजा, निर्मल वसन परिधान, वेदशास्त्र, गुरु और देवता में दृढ़ आस्था, मन्त्र और पितृ-पूजा में अटल विश्वास, बलिदान, श्राद्ध और नित्य कार्य का नियमित आचरण, शत्रु-मित्र में समभाव रखते हुए अन्य किसी के भी अन्न का ग्रहण न करे। शरीर यात्रा के लिये केवल गुरुनिवेदित अन्न स्वीकार करे। कदर्थ और निष्ठुर आचरण का परित्याग कर दिव्यभाव से सदा परमेश्वर की उपासना में निरत रहे। उसको सदा सत्य बोलना चाहिये। जो कभी असत्य का सहारा न ले वह साधक दिव्यभाव में स्थित माना जाता है। सत्ययुग और त्रेता के प्रथमार्ध तक दिव्यभाव की स्थिति मानी जाती है। दिव्यभाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस भाव के द्वारा साधक समस्त विश्व को परमशिव और उसकी पराशक्ति के रूप में ही देखता है तथा अपनी आहार-विहार आदि सभी क्रियाओं को शिवशक्ति की पूजा ही समझता है।
3-(ख) पशुभाव कामाख्यातन्त्र में पशुभाव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि जो पंचतत्व को स्वीकार नहीं करते और न उसकी निन्दा ही करते हैं, जो शिवोक्त कथा को सत्य मानते हैं, पाप कार्य को निन्दनीय समझते हैं, वे ही पशुनाम से प्रसिद्ध हैं। जो प्रतिदिन हविष्य का आहार करते हैं, ताम्बूल नहीं छूते, ऋतु स्नाता अपनी स्त्री के सिवा अन्य किसी भी स्त्री को कामभाव से नहीं देखते, परस्त्री के कामभाव को देखकर उसका साथ त्याग देते हैं, मत्स्य-मांस का सेवन कभी नहीं करते, गन्धमाल्य, वस्त्र आदि धारण नहीं करते, सर्वदा देवालय में रहते हैं और आहार के लिये घर जाते हैं, पुत्र और कन्याओं को अतिस्नेह दृष्टि से देखते हैं, ऐश्वर्य को नहीं चाहते, जो है उससे सन्तुष्ट रहते हैं, धन होने पर सदा दरिद्रों की सहायता करते हैं, कभी कृपणता, द्रोह और अहंकार नहीं दिखाते और जो कभी क्रोध नहीं करते, वे सब जीव पशुभाव में स्थित माने जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को दीक्षा नहीं देनी चाहिये। इनकी कभी मुक्ति नहीं होती।रुद्रयामल में लिखा गया है कि जो प्रतिदिन दुर्गापूजा, विष्णुपूजा और शिवपूजा करता है, वही पशु उत्तम है। शक्ति के साथ शिव की पूजा करने वाला भी उत्तम है। केवल विष्णु की पूजा करने वाला मध्यम और भूत-प्रेत आदि की उपासना करने वाला अधम है। शिव, शक्ति, विष्णु आदि की पूजा करने के बाद यक्षिणी आदि की सेवा करने वाला, ब्रह्मा, कृष्ण, तारक ब्रह्म प्रभृति की पूजा करने वाला साधक भी श्रेष्ठ माना जाता है।
4-(ग) वीरभाव पिच्छिलातन्त्र प्रभृति में वीरभाव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि इस भाव में शक्ति या मद्य, मत्स्य, मांस, मुद्रा और मैथुन के बिना पूजा नहीं की जाती। स्त्री का भग पूजा का आधार है। यहाँ स्वर्ण अथवा रजत का कुश बनाया जाता है। कलियुग में मुख्य द्रव्यों के अभाव में अनुकल्प का भी विधान है। अथवा मानस भावना से ही सारी विधियाँ पूरी की जा सकती हैं। स्नान, भोजन, स्वकीया अथवा परकीया स्त्री, मद्य, मांस, स्वयंभू कुसुम, भगपूजन प्रभृति सभी विधियाँ यहाँ मानसिक भावना द्वारा ही सम्पन्न की जाती हैं। कलिकाल में मनुष्य संशयों से ग्रस्त रहता है। वह वास्तविक वीरभाव का अधिकारी नहीं हो सकता। अतः मानस भावना से ही उसको अपने इष्टदेव की उपासना करनी चाहिये। निशंक वीर ही वीर या दिव्यभाव का अधिकारी होता है। पंचमकार साधन, श्मशानसाधन, चितासाधन जैसी क्रियाएँ दिव्य या वीरभाव स्थित साधक के द्वारा ही सम्पन्न की जा सकती हैं।
भावना;-
भावना का अर्थ वह शुद्ध मानसिक चेष्टा है, जिसका विषय शिव ही होता है, अर्थात् शिवविषयक मानसिक व्यापार का नाम है भावना। इसी को अनन्य-श्रद्धा भी कहते हैं। इसका आलंबन शुद्ध होने से यह भावना भी शुद्ध कहलाती है और यही जीव को मुक्त कराती है। आलंबन के अशुद्ध होने पर वही भावना संस्रति (संसार) का कारण बनती है। अतः वीरशैव आचार्यों ने पूजा आदि कर्म करते समय शुद्ध भावना की आवश्यकता बताई है। यह शुद्ध भावना एक ऐसी चीज है, जिसकी सहायता से भावुक व्यक्ति अत्यंत सूक्ष्म और इंद्रियों के लिये अगोचर परशिव का भी साक्षात्कार कर सकता है।पूजा आदि धार्मिक कृत्य करते समय आराध्य शिव के प्रति अनन्य श्रद्धा रूप भावना रहने पर ही वह पूजा श्रेष्ठ और फलदायी मानी जाती है। भावना के बिना केवल यंत्रवत् शारीरिक क्रिया होने पर उस पूजा का कोई मूल्य नहीं होता, चाहे वह कितनी ही बड़ी पूजा क्यों न हो। भावनायुक्त पूजा छोटी होने पर भी उसका फल महान् होता है और वही शिव के लिए प्रिय भी होती है।यह भावना पूजा प्रभृति कर्म करते समय रहने पर ‘श्रद्धा’ और ज्ञान के साथ रहने पर ‘निदिध्यासन’ कहलाती है। श्रद्धारूप भावना से भावुक को शिव की कृपा प्राप्त होती है और निदिध्यासन-रूप भावना से ध्याता शिवस्वरूप होता है ।
भावना ;-
भावनोपाय, ज्ञानयोग, शाक्त उपाय, ज्ञानोपाय, शाक्तयोग। ज्ञानयोग का वह अभ्यास, जिसमें साधक शुद्ध विकल्पों के माध्यम से यह अंतः परामर्श करता रहता है कि समस्त प्रपंच के संपूर्ण भावों एवं पदार्थों में एक ही पर तत्त्व विद्यमान है; सारा प्रपंच उसी परतत्त्व में संवित् रूप में ही रहता है; पर तत्त्व और उसमें (साधक में) मूलतः कोई भेद नहीं है; जो कुछ भी है वह उसी पर तत्त्व का अंतः या बाह्य रूप है; इत्यादि। इस प्रकार के शुद्ध विकल्पों द्वारा प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय में कोई भी भेद न मानकर उन्हें विकल्प बुद्धि के द्वारा ही संवित् रूप समझने तथा इस तरह से स्वात्मशिवता को ही सर्वत्र देखने के अभ्यास को भावना या भावनोपाय कहा जाता है। भावफल;-
सांख्यशास्त्र में आठ भाव माने जाते हैं – धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-अवैराग्य तथा ऐश्वर्य-अनैश्वर्य। इन आठों के जो फल हैं, वे भावफल हैं। इन फलों का उल्लेख सांख्यकारिका 844-45 में है, यथा – धर्म का फल है – ऊर्ध्वलोकों (सत्त्वप्रधान लोकों) में गमन; अधर्म का फल है – अधोलोक (तमः प्रधान निरयलोक) में गमन; ज्ञान का फल है – अपवर्ग (कैवल्य); अज्ञान का फल है – बन्धन; वैराग्य का फल है – प्रकृतिलय, अर्थात् आठ प्रकृतियों में चित्त का लीन हो जाना या तन्मय हो जाना (द्र. योगसूत्र 1/19 भी) जो तत्त्वज्ञानहीन केवल वैराग्य से होता है; अवैराग्य का फल है – संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करते रहना; ऐश्वर्य का फल है – इच्छा का अनभिधात = बाधाहीनता; अनैश्वर्य का फल है – अभीष्ट अर्थ की अप्राप्ति (अर्थात् अप्राप्ति के कारण मन के क्षोभ आदि)।
भावसर्ग;-
सांख्यशास्त्र में दो प्रकार के सर्ग माने गए हैं – लिङ्गसर्ग एवं भावसर्ग । (कहीं-कहीं लिङ्गसर्ग के लिए ‘भूतसर्ग’ शब्द भी प्रयुक्त होता है)। धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य (बुद्धितत्त्व के चार सात्त्विक रूप) एवं अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य (बुद्धितत्त्व के चार तामस रूप) – ये आठ ‘भाव’ या ‘रूप’ कहलाते हैं । इन आठ पदार्थों की सृष्टि भावसर्ग है। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि सांख्य में कहीं-कहीं तत्त्व, भाव एवं लिङ्ग नामक त्रिविध सर्ग माने गए हैं ।
भासाचक्र ;-
भासा या महाप्रतिभा भगवान् की स्वातन्त्र्यरूपा चिति शक्ति का ही नामान्तर है। इसी के गर्भ में पंचकृत्यमय अनन्त वैचित्र्य निहित है। यह सर्वातीत होने पर भी सबकी अनुग्राहिका पराशक्ति है। जिस प्रकार दर्पण में नगर आदि दृश्य प्रपंच प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार इस स्वच्छ चित्मयी पराशक्ति की भित्ति में भी प्रमाता, प्रमाण और प्रमेयात्मक समस्त जगत प्रतिबिम्ब की भाँति स्फुरित हो उठता है। यही निर्विकल्प परम धाम है। सृष्टि आदि समस्त चक्र इसी में प्रतिबिंब रूप से स्फुरित होते हैं। इसी को सप्तदशी कला कहा जाता है। यह स्वातन्त्र्यशक्ति रूपा संविद् देवी संकोच और विकास दोनों प्रणालियों से नाना रूप में प्रतिभात होती है। पचास मातृका रूपी वर्णमाला इसी का विकास है। सृष्टि, स्थिति, संहार अनाख्या और भासा पाँच चक्र ही क्रम दर्शन में पञ्चवाह महाक्रम के नाम से प्रसिद्ध हैं। सृष्टि से लेकर अनाख्या पर्यन्त चार चक्रों की पूजा क्रम-पूजा के नाम से तथा भासा चक्र की पूजा अक्रम-पूजा के नाम से शास्त्रों में वर्णित है। इसका विशेष विवरण महार्थमंजरी प्रभृति क्रम दर्शन के ग्रन्थों में देखना चाहिये।
भुवन ;-
तत्त्वों के स्थूल रूपों को भुवन कहते हैं। भुवनों को लोक भी कहा जाता है। भुवनों की संख्या भिन्न उपासना क्रमों में भिन्न भिन्न मानी गई है जो सूक्ष्मतर तथा स्थूलतर विश्लेषणों के आधार पर ठहरी रहती है। त्रिकशास्त्र के विशिष्ट गुरुओं ने इस संख्या को एक सौ अठारह माना है। तंत्रालोक आदि ग्रंथों में भुवन अध्वा की धारणा में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है।
भूचरी ;-
वामेश्वरी शक्ति से अधिष्ठित वे शक्तियाँ, जो भू अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप आदि पंचात्मक मेयपद पर ही विचरण करती रहती हैं। इस पंचात्मक मेयपद का आभोग करती हुई आश्यानी भाव से तन्मयता प्राप्त करती रहती हैं। ये शक्तियाँ प्रबुद्ध साधक के लिए चित्प्रकाशरूपतया आभासित होती रहती हैं और सामान्य साधक के लिए सभी ओर से भेद का ही प्रसार करती रहती हैं। भूत ;-
सांख्य के तत्त्वों में भूततत्त्व सबसे स्थूल है। भूत से पुनः कोई तत्त्व आविर्भूत नहीं होता, यद्यपि भूतों के धर्म, लक्षण और अवस्था नामक तीन परिणाम होते हैं । भूतों के परस्पर संमिश्रण से ही भौतिक जगत् बनता है। जो तन्मात्र के लिए भूत शब्द का प्रयोग करते हैं, वे भूत के लिए महाभूत शब्द का व्यवहार करते हैं – यह ज्ञातव्य है। भूत पाँच हैं – शास्त्रानुसार इनका स्वरूप यह है – आकाश = शब्द-गुण-युक्त जड़ परिणामी, बाह्य द्रव्य; वायु = स्पर्श-(शीत -ऊष्ण)-गुणक बाह्य द्रव्य; तेजस्=रूपगुणक बाह्यद्रव्य; अप् या जल= रसगुणक बाह्य द्रव्य; पृथ्वी या क्षिति = गन्धगुणक बाह्य द्रव्य। क्षिति में शब्दस्पर्शादि पाँच गुण हैं; अप् या जल में गन्ध को छोड़ कर चार गुण हैं; तेज में गन्ध-रस को छोड़कर तीन गुण हैं; वायु में स्पर्श-शब्द हैं और आकाश में शब्दगुण ही है – यह मत भी प्रचलित है। हमारी दृष्टि में यह मत भूततत्त्व को लक्ष्य नहीं करता है। यह व्यावहारिक दृष्टि है। इस विषय में विशेष विवरण के लिए स्वामी हरिहरानन्द आरण्यकृत पातंजल योगदर्शन द्रष्टव्य।
भूतकंचुकी;-
पृथ्वी आदि से बने हुए इस स्थूल शरीर रूपी चोले (कंचुक) को धारण करने वाला ज्ञानी साधक जब तक प्रारब्ध कर्म के भोगों को पूरा नहीं कर पाता है तब तक वह इस संसार से छुटकारा न पाता हुआ यहीं जीवन्मुक्त की अवस्था में निवास करता रहता है परंतु उसे यह निश्चय हुआ होता है कि वह शुद्ध और परिपूर्ण संवित्स्वरूप ही है तथा यह पंच भौतिक शरीर उसका एक चोला मात्र ही है, वास्तविक स्वरूप नहीं है। इस तरह से शरीर को कंचुकवत् मानने वाला जीवन्मुक्त योगी। भूतकैवल्य ;-
पंचभौतिक सृष्टि के सभी प्रकार के प्रभाव से मुक्त होकर केवल अपने शुद्ध चिदानंद स्वरूप में स्थिति। शैवी साधना के क्रम में नाडी संहार कर लेने पर भूतजय (देखिए) हो जाता है। भूतजय से साधक पंचभौतिक सृष्टि पर स्वातंत्र्य प्राप्त करके उसमें स्वेच्छा से विचरण करने की सामर्थ्य को प्राप्त कर लेता है। परंतु जब वह भूतजय से प्राप्त ऐश्वर्य को भी छोड़कर केवल अपनी शुद्ध संविद्रूपता में सहज ही प्रवेश कर जाता है तो उसकी उस अवस्था को भूत कैवल्य कहते हैं। भूतजय ;-
पंच महाभूतों पर विजय प्राप्त कर लेना। साधक शैवी साधना के अभ्यास से सभी वृत्तियों को इडा आदि तीन नाडियों में शांत करने के पश्चात् शांत हुई वृत्तियों सहित तीनों नाडियों को ब्रह्मरंध्र रूपी चिदाकाश में विलीन करके नाडी संहार (देखिए) करता है। नाडी संहार हो जाने पर पृथ्वी आदि धारणाओं का अभ्यास करता हुआ पंच भौतिक सृष्टि पर विजय प्राप्त कर लेता है। इसे ही भूतजय कहते हैं। इससे साधक पंच भैतिक विश्व में स्वच्छंद रूप से विहार करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। भूतपृथक्त्व;-
सभी तत्त्वों पर पूर्णतया अधिकार प्राप्त हो जाने पर उन्हें स्वतंत्र रूप से संयोजन तथा वियोजन करने की सामर्थ्य का प्राप्त होना। शैवी साधना के अभ्यास से नाडी संहार , भूतजय तथा भूतकैवल्य में स्थिति हो जाने पर साधक अपने शुद्ध स्वरूप में आनंदाप्लावित होकर रहता है। इस स्थिति में स्थिरता आने से छत्तीस तत्त्वों पर तथा उनकी भिन्न भिन्न प्रकार की पदार्थ रचना पर उसे स्वातंत्र्य प्राप्त हो जाता है। इस स्वातंत्र्य से वह किसी भी पदार्थ या तत्त्व का संघटन या विघटन कर सकता है तथा सभी तत्त्वों को अपनी शुद्ध संविद्रूपता में समरस करके पारमेश्वरी अखंडित स्वातंत्र्य को प्राप्त कर सकता है। छत्तीस तत्त्वों पर उसकी ऐसे सामर्थ्य को भूतपृथक्त्व कहते हैं। भूतभावन ;-
बंध से छुटकारे के लिए जीवों को भगवद् भाव से भावित करने वाले भगवान् भूतभावन कहे जाते हैं। चूंकि भगवान् ही संसार में रहते हुए बंधरहित हैं, अतः भगवद् भाव से भावित जीव भी कृतार्थ हो जाता है। इस प्रकार जीव को कृतार्थ करने वाले भगवान् भूतभावन हैं।
भूतलिपि;-
शारदातिलक में भूतलिपि का परिचय दिया गया है। वहाँ बताया गया है कि यह भूतलिपि अत्यन्त सुयोग्य है। इसकी प्राप्ति परम दुर्लभ है। भगवान् शिव से इसको पाकर मुनिगण सभी कामनाओं को प्राप्त कर सके थे। कामकला विलास में सूक्ष्म और स्थूल भेद से मध्यमा वाणी के दो प्रकार बताये गये हैं। सूक्ष्म मध्यमा नवनादात्मक तथा स्थूल भूतलिपिमयी है। कामकलाविलास में श्रीचक्र स्थित अष्टकोण, प्रथम दशार, द्वितीय दशार और चतुर्दशार चक्रम में 42 वर्णात्मक भूतलिपि का विन्यासक्रम वर्णित है। टीकाकार नटनानन्द ने चेष्टाविशेष से अभिव्यक्त आकार वाली लिपी को भूतलिपि माना है। इसमें नौ वर्ग होते हैं। इनका क्रम यह है :
अ इ उ ऋ लृ प्रथम वर्ग
ए ऐ ओ औ द्वितीय वर्ग
ह य र व ल तृतीय वर्ग
ङ क ख घ ग चतुर्थ वर्ग
ञ च छ झ ज पंचम वर्ग
ण ट ठ ढ ड षष्ठ वर्ग
न त थ ध द सप्तम वर्ग
म प फ भ ब अष्टम वर्ग
श ष स नवम वर्ग
भूतादि ;-
अहंकार-रूप तत्त्व के (गुणों के आधिक्य के अनुसार) तीन भाग माने गए हैं – सत्त्वप्रधान अंश, वैकृतिक या वैकृत नामक; रजःप्रधान अंश, तेजस नामक तथा तमःप्रधान अंश, भूतादि नामक । भूत का साक्षात् उपादान होने के कारण ही ‘भूतादि’ नाम दिया गया है – ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। जिनका भूतादि-अहंकार तन्मात्र को उद्भूत करता है, वे महैश्वर्यशाली जीव हैं; इनको ब्रह्माण्डाधीश प्रजापति माना जाता है। ऐसा सांख्यविदों का कहना है। प्रत्येक प्राणी में जो भूतादि -अहंकार है, वह तन्मात्र रूप में परिणत नहीं होता – यह ज्ञातव्य है।
भैरव;-
02 FACTS;-
1-अभिनवगुप्त ने तन्त्रलोक में बृहस्पतिपाद कृत शिवतनुशास्त्र के श्लोकों को उद्धृत कर बताया है कि इनमें अन्यर्थ नामों से भगवान भैरव की स्तुति की गई है। ‘भया सर्वं रवयति’ विज्ञानभैरव के इस श्लोक और उसकी व्याख्या में भी ‘भैरव’ पद की व्युत्पत्ति बताई है। क्षेमराज ने विज्ञानोद्द्योत के मंगल श्लोक में भैरव की स्तुति की है। इन सबका अभिप्राय यह है कि भैरव इस विश्व का भरण, रवण और वमन करने वाले हैं। वे इस संसार का भरण-पोषण करते हैं और वे ही इसकी सृष्टि और संहार भी करते हैं। ऐसा करके वे स्वयं पुष्ट होते हैं, प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव ही भैरव है। वे अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति रूपी तूलिका से इस संसार को चित्रित करते हैं और इसके बाद वे स्वयं ही इसको देखकर प्रसन्न होते हैं। ये संसारी जीवों को अभयदान करने वाले हैं। संसारी जीवों के आक्रन्द (छटपटाहट) के कारण भी ये ही हैं और त्राहि-त्राहि पुकारने वाले भक्त जनों के हृदय में प्रकट होकर उनका उद्धार भी ये ही करते हैं, अर्थात् निग्रह और अनुग्रह ये दोनों भगवान् भैरव के ही व्यापार हैं। इसलिये यह पंचकृत्यकारी कहलाता है।
2-यह कालका भी काल है। इसलिये इसको कालभैरव कहते हैं। यह कालवंचक योगियों के चित्त में समाधि दशा में स्फुरित होता है और अज्ञानी जीवों के हृदय में भी बाह्य और आन्तर इन्द्रियों (करणों) की अधिष्ठात्री देवियों (खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी) के रूप में, जो कि संविद्देवीचक्र के नाम से प्रसिद्ध है, प्रकट होता है। भगवान् भैरव का स्वरूप महाभयानक भी है और परम सौम्य भी। यही भैरव 64 भैरवागमों का तथा अन्य अनेक शैव और शाक्त आगमों का अवतारक है। शाक्त पीठों में सर्वत्र देवी के दर्शन के पहले भैरव की अर्चना की जाती है। केवल वैष्णव देवी का मन्दिर ही इसका अपवाद है। वहाँ देवी का दर्शन कर लेने के उपरान्त ही भैरव का दर्शन किया गया है। दस विद्याओं के दस भैरवों का, असितांग प्रभृति आठ भैरवों का तथा मन्थान प्रभृति भैरवों का वर्णन शक्तिसंगम प्रभृति तन्त्र ग्रन्थों में मिलता है।
भैरव ;-
1. विश्व का भरण, रमण एवं वमन करने वाला तथा ऐसा करने पर भी अपने अखंडित संवित्स्वरूपता में ही सतत रूप से आनंदाप्लावित रहनेवाला पर-भैरव परमशिव । 2. भाव, उद्योग, उन्मेष आदि शब्दों से इंगित सतत स्फुरणशील शार्व तत्त्व। 3. संसरणशील प्राणियों को अभय प्रदान करने वाला। 4. संसार का संहार करने के कारण त्रास का कारण बना हुआ तथा इस त्रास से उत्पन्न हुए क्रंदन से जो अत्यधिक भयानक घोष वाला है और इस प्रकार के भयावह घोष से जो सतत रूप से चमकता रहता है। 5. सांसारिक प्राणियों को अपने स्वरूप का साक्षात्कार करवाने वाली खेचरी, गोचरी आदि संवित्स्वरूपा शक्तियों का स्वामी। 6. संसार का संहार करते रहने के कारण भीषण बने हुए रूप वाला। 7. चौसठ अभेद प्रधान आगमों के उपदेश करने वाले मंत्र कोटि के देवता। भैरव-आगम;-
अभेद दृष्टि को लेकर भैरवों द्वारा कहे गए चौंसठ अभेद प्रधान शैव आगम। पंच मंत्रों की विविध प्रकार से सम्मिलित दृष्टियों को लेकर के दिव्य शरीरों में प्रकाट होकर अभेद दृष्टि की प्रधानता को अपना कर शैवदर्शन के सिद्धांतों और प्रक्रियाओं का उपदेश करने वाले मंत्र स्तर के स्वच्छंदनाथ के चौंसठ अवतार शरीर भैरव कहलाते हैं। उन्हीं के द्वारा उपदिष्ट आगम शास्त्र भैरव आगम हैं जिनकी संख्या चौसठ है तथा जो आठ आठ के आठ वर्गों में बँटे हैं। वर्तमान युग में उनमें से एक स्वच्छंद आगम ही शेष रहा है; रुद्रयामल के अनेकों खंड मिल रहे हैं; शेष सभी लुप्तप्राय हैं। उनके केवल नाम मिलते हैं और किसी किसी से उद्धृत पंक्तियाँ मिलती हैं। भैरवी ;-
02 FACTS;-
1-पर संवित्स्वरूप भैरव की पराशक्ति। क से लेकर क्ष पर्यंत समस्त योनि स्वरूपा शक्ति वर्गों की अदिष्ठात्री तथा इन सभी का संहार करने पर भैरव में अभिन्न रूप से ठहरने वाली परादेवी। माहेश्वरी, ब्राह्मी आदि आठ शक्तियों का मातृवर्ग इसी पराशक्ति का रश्मि रूप प्रसार माना गया है। ये आठ शक्तियाँ अ से लेकर क्ष पर्यंत भिन्न भिन्न मातृका वर्गों की अधिष्ठात्री शक्तियों के रूप में विश्व का समस्त व्यवहार चलाती हैं। इन सभी के संघट्ट रूप परम सामरस्य को भैरवी कहते हैं। भैरवी (शाम्भवी) मुद्रा दृष्टि जब निमेष (पलकों को बन्द करना) और उन्मेष (पलकों को खोलना) इन दोनों व्यापारों से शून्य होकर बाहर की ओर लगी हो और अवधान क्रिया बाहर की ओर न जाकर अन्तः स्थित आत्मा को अपना लक्ष्य बनावे, अर्थात् इन्द्रिय तो बाहर की तरफ खुली हो, किन्तु चित्त भीतर की ओर पलटा हुआ हो तो यह अवस्था भैरवी अथवा शाम्भवी मुद्रा के नाम से शास्त्रों में अभिहित है। इस अवस्था में प्रविष्ट हो जाने पर योगी दर्पण में बनते-बिगड़ते हुए नाना प्रकार के प्रतिबिम्बों की भाँति चिदाकाश में उदित और विलीन हो रहे बाह्य पदार्थों और आन्तर भावों को, अर्थात् समस्त विकल्पों को, निमीलन और उन्मीलन समापत्ति (समाधि) के बीज में अवधान रूपी चरणि से जलाई गई ज्ञानाग्नि के द्वारा भस्म कर अपने समस्त करण चक्र (इन्द्रिय समूह) को आलंबन के अभाव में अपने स्वरूप में ही विस्फारित (विस्तीर्ण) कर लेता है।
2-उस समय ऐसी प्रतीति होती है, मानो ये इन्द्रियाँ अपने अद्भुत स्वरूप को आँखें फाड़ कर देख रही हों।इस निर्विकल्प अवस्था में प्रवेश कर लेने पर साधक भैरव स्वरूप हो जाता है, अर्थात् उसको अपने वास्तविक स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा हो जाती है, प्राण और अपान की गति के शान्त हो जाने से हृदय और द्वादशान्त में प्राण और अपान की अस्पन्द अवस्था में स्थिति हो जाने से, मध्यदशा का विकास होने पर साधक अपने भैरवीय स्वरूप को पहचान लेता है, वह साक्षात भैरव स्वरूप हो जाता है। भैरवी मुद्रा के सहारे विषयों को देखते हुए भी अनदेखा कर दिया जाता है और इस तरह से अनालोचनात्मक पद्धति से भावों का परित्याग हो जाता है। ‘स्पर्शान्त कृत्वा’ प्रभृति गीता के श्लोक में इसी स्थिति का वर्णन मिलता है। क्रम दर्शन में प्रदर्शित पाँच मुद्राओं में भी यह वर्णित है। इसका विशेष विवरण खेचरी मुद्रा के प्रसंग में दिया गया है। हठ योग प्रभृति के ग्रन्थों में शाम्भवी मुद्रा के नाम से यह अभिहित है।
भोक्ता ;-
निर्गुण अपरिणामी पुरुष को जिस प्रकार ज्ञाता, अधिष्ठाता कहा जाता है, उसी प्रकार भोक्ता भी कहा जाता है। ‘भोग रूप क्रिया से जो विकारी होता है’ इस अर्थ में पुरुष भोक्ता नहीं हैं, क्योंकि पुरुष (तत्त्व) अपरिणामी हैं। भोग बुद्धि-व्यापार या बुद्धिधर्म है, वह बुद्धि में ही रहता है। स्वप्रकाश पुरुष बुद्धिस्थ भोग का भी प्रकाशक (निर्विकार रूप से) है, इस दृष्टि से ही पुरुष भोक्ता है – भोगकारी के अर्थ में नहीं। जिस प्रकार चिति (पुरुष) को चितिशक्ति कहा जाता है, उसी प्रकार भोक्ता को भोक्तृशक्ति भी कहा जाता है, जैसा कि पंचशिख के वाक्य में देखा जाता है।
भोग ;-
दो पुरुषार्थों में भोग अन्यतम है (दूसरा अपवर्ग है)। व्यासभाष्य में कहा गया है कि इष्ट और अनिष्ट रूप से गुणस्वरूप (अर्थात् त्रैगुणिक वस्तु) का अवधारण करना भोग है । यह भी कहा गया है कि यह भोग भोक्ता पुरुष और भोग्य बुद्धि की एकीभावप्राप्ति होने पर ही संभव होता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भोग एक प्रकार का ज्ञान (भ्रान्तज्ञान) है। यह भोग विषयदृष्टा के पार्थक्यज्ञान से शून्य विषय -ज्ञान है, अतः योगदृष्टि में हेय है। भोग की समाप्ति अपवर्ग में होती है; अपवर्ग भी जब समाप्त हो जाता है तब चित्त का शाश्वत निरोध (=अव्यक्तभावप्राप्ति) हो जाता है। ‘सुख-दुःख-बोध’ के अर्थ में भी भोग शब्द प्रयुक्त होता है, जैसा कि योगसूत्र के ‘जात्यायुभोगाः’ अंश में देखा जाता है। इस भोग का आश्रय होने के कारण शरीर को भोगाधिष्ठान कहा जाता है ।
मन्त्र ;-
04 FACTS;-
1-मन्त्र दो अक्षरों से बना है – मन् और त्र् मन् का अर्थ है मनन करना और त्र का अर्थ त्राण। मनन करने से जो त्राण (रक्षा) करे, वह मन्त्र है। मन्त्र उस अक्षर, शब्द या शब्दों के समुदाय को कहते हैं, जिसके उच्चारण और मनन से शक्ति जगती है। स्वच्छन्दतन्त्र प्रभृति ग्रन्थों में मन्त्र को ज्ञान शक्ति का विलास माना गया है। इसकी सहायता से साधक संसार सागर से मुक्त होकर शिव पद से संयुक्त हो जाता है।तन्त्रशास्त्र में मन्त्र के लिये मनु शब्द का भी प्रयोग मिलता है। स्त्री देवता वाले मन्त्रों को महाविद्या कहा जाता है। पिण्ड, कर्तरा, बीज, मन्त्र और माला के भेद से, बीज, कूट, पिण्ड और माला के भेद से तथा सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और अरि के भेद से मन्त्र नाना प्रकार के होते हैं। वैष्णव आगमों में पद, पिण्ड, बीज और संज्ञा के भेद से इनके चार प्रकार वर्णित हैं। नेत्रतन्त्र में संपुटित, ग्रथित, ग्रस्त, समस्त, विदर्भित, आक्रान्त, आद्यन्त, गर्भस्थ, सर्वतोवृत्त, युक्तिविदर्भित ओर विदर्भग्रथित- ये ग्यारह विधियाँ मन्त्रों के विन्यास अथवा उच्चारण की बताई गई हैं। शारदातिलक में शान्ति, वश्य, स्तम्भन, विवेशण, उच्चाटन और मारण नामक षट्कर्मों की सिद्धि के लिये ग्रथन, विदर्भ, संपुट, रोधन, योग और पल्लव नामक छः प्रकार की मन्त्रविन्यास की पद्धति वर्णित है। टीकाकारों ने इन पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को स्पष्ट किया है। तदनुसार उक्त विधियों में मन्त्राक्षरों अथवा मन्त्रों का विशेष स्थितियों में लेखन अथवा उच्चारण किया जाता है।
2-मीमांसा दर्शन में मन्त्र को ही देवता माना गया है। तन्त्रशास्त्र में भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। यहाँ मनु (मन्त्र) अथवा विद्या को उस देवता का विग्रह ही माना जाता है। दस महाविद्याओं के प्रतिपादक शाक्त तन्त्रों में काली, तारा, त्रिपुरा, प्रभृति शब्दों से मन्त्र और देवता दोनों अभिहित होते हैं। निरुक्त में मन्त्रार्थ के ज्ञान की महिमा वर्णित है। तदनुरूप ही तन्त्रशास्त्र में कहा जाता है कि मन्त्रार्थ की भावना के साथ मन्त्र का जप करने से मन्त्रचैतन्य की अभिव्यक्ति होती है, अर्थात् साधक के समक्ष मन्त्रदेवता अपने स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य प्रभृति शब्दों की निरुक्ति के प्रसंग में ये विषय चर्चित हैं।
3-मन्त्रस्वरूप, मन्त्रवीर्य, मन्त्रसामर्थ्य, मन्त्र, मन्त्रेश्वर, मन्त्रमहेश्वर, मन्त्रदोष, मन्त्रसंस्कार, मन्त्रसिद्धि प्रभृति विषयों पर तथा मन्त्रदीक्षा के प्रसंग में गुरु, शिष्य, देश, काल, स्थान आदि के विषय में तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। स्त्रीप्रदत्त तथा स्वप्नलब्ध मन्त्रों की साधनविधि तन्त्रों में वर्णित है। मन्त्रदीक्षा के समय कुलाकुलचक्र, नक्षत्रचक्र, राशिचक्र, नामचक्र, आदि की सहायता से मन्त्र का उद्धार और परीक्षण किया जाता है कि किस व्यक्ति को किसी मंत्र की दीक्षा दी जाय। हुं, फट् आदि अंग मन्त्रों के संयोजन की विधि का जानना भी आवश्यक माना गया है। मन्त्र, मण्डल आदि में जैसे प्रधान देवता के अतिरिक्त आवरण देवताओं का विन्यास विहित है, उसी प्रकार मूल विद्या अथवा प्रधान मन्त्र के भी अंग विद्या अथवा अंग मन्त्रों का शास्त्रों में वर्णन मिलता है। कुलार्णव तन्त्र के तृतीय और चतुर्थ पटल में जैसे प्रासाद अथवा पराप्रासाद मन्त्र का सविशेष महत्व वर्णित है, उसी तरह से तन्त्रशास्त्र के प्रत्येक ग्रन्थ अथवा सम्प्रदाय का अपना मूल (मूख्य) मन्त्र होता है। इसी मूल मन्त्र के अंग के रूप में अन्य मन्त्रों का विनियोग बताया जाता है। उक्त विषयों का विशेष विवरण जिज्ञासुओं को नेत्रतन्त्र, शारदातिलक, प्राणतोषिणी प्रभृति ग्रन्थों में देखना चाहिये।
4-नेत्रतन्त्र में कहा गया है कि वही साधक श्रेष्ठ है, जो हृदय और द्वादशान्त में मन्त्र के उन्मेष और विश्रान्ति को जानता है, मन्त्र की शक्ति से परिचित है, उसके ध्यान के स्वरूप और मुद्रा को हृदयंगम कर सका है। तन्त्रालोक, उत्तरषट्क, अर्थरत्नावली प्रभृति ग्रन्थों में उदय, संगम (व्याप्ति) और शान्ति (विश्रान्ति) नामक तीन अवस्थाओं का उल्लेख है। साधक को चाहिये कि वह आधार स्थान में मन्त्र के उदय की स्थिति का, हृदय स्थान में व्याप्ति का तथा ब्रह्मरन्ध्र में मन्त्र की विश्रान्ति दशा का सावधानी से अवलोकन करें। इसके लिये योनिमुद्रा के अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है, जिसका कि निरूपण अलग से किया गया है।..शाक्त दर्शन
मन्त्र-चैतन्य;-
02 FACTS;-
1-जपयज्ञ के अभ्यास के वैखरी वाणी के समस्त आगन्तुक मल जब दूर हो जाते हैं, तब इडा-पिंगला का मार्ग अवरूद्ध होने लगता है और सुषुम्ना पथ उन्मुक्त हो उठता है। इस स्थिति में शब्दशक्ति प्राणशक्ति की सहायता से शोधित होकर सुषुम्ना रूप ब्रह्मपथ का आश्रय लेकर क्रमशः ऊर्ध्वगामिनी होती है। यही शब्द की सूक्ष्म या मध्यमा नामक अवस्था है। इसी अवस्था में अनाहत नाद प्रकट होता है और स्थूल शब्द इस विराट प्रवाह में निमग्न होकर उससे भर जाता है तथा चेतनाभाव धारण कर लेता है। इसी स्थिति को मन्त्रचैतन्य का उन्मेष कहा जाता है। प्राणतोषिणी तन्त्र (पृ. 418-419) में बताया गया है कि मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य और योनिमुद्रा को जो नहीं जानता, उसकी तांत्रिक उपासना कभी भी सफल नहीं हो सकती। मन्त्र का अधिष्ठाता देवता ही मन्त्रचैतन्य के नाम से अभिहित होता है। शास्त्रों में बताया गया है कि मन्त्र मणि के समान है और मन्त्रदेवता अर्थात् मन्त्रचैतन्य मणि की प्रभा के समान है।
2-उत्तरषट्क नामक ग्रन्थ में मन्त्र की पाँच अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। उनके नाम हैं- स्पर्शन, अवलोकन, संभाषा, बिन्दुदर्शन और स्वयमावेशन। स्पर्शन का अर्थ मन्त्र के साथ साधक का संबंध है। इसका चिह्न कम्पन है। यह पहले हृदय में उत्पन्न होता है। मन्त्र का साधक को देखना ही अवलोकन है। इसका चिह्न घूनन है। इसकी उत्पत्ति कण्ठ में होती है। मन्त्र का साधक से भाषण संभाषा है। इसका चिह्न स्तोभ है। इस अवस्था में साधक समस्त विद्या और मन्त्रों की कल्पना कर सकता है। बिन्दुदर्शन का अर्थ है मन्त्र की आत्मा का साक्षात्कार। यह साक्षात्कार भ्रूमध्य में होता है। इससे साधक को सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। स्वयमावेशन का अभिप्राय है कि मन्त्र साधक को स्वात्मस्वरूप में समाविष्ट कर लेता है। यही वास्तविक मन्त्रचैतन्य की स्थिति है। यहाँ आकर मन्त्र की साधना फलीभूत हो जाती है। साधक की मन्त्र देवता के साथ समरसता हो जाती है।
मन्त्रयोग ;-
राजयोग से निम्नस्तर के जिन योगों का उल्लेख है, उनमें से एक मन्त्रयोग है। मन्त्रजप इस योगाभायास में मुख्य है। इस योग का प्रकृत स्वरूप है – निरन्तर (प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में) ‘हंसः’ मन्त्र का जप करना। अभ्यास की उन्नत अवस्था में सुषुम्ना में यह मन्त्र स्वतः उच्चारित होता रहता है – यह उपांशु जप से उन्नततर अवस्था है। ‘हंसः’ मन्त्र का जप विपरीतक्रम से (‘सोहम्’ रूप से) भी किया जाता है। योगबीज आदि ग्रन्थों में इस योग का विशद् परिचय मिलता है।
मन्त्रार्थ;-
मन्त्रजप के साथ मन्त्रार्थ की भावना आवश्यक है। राख में डाली गई आहुति जैसे निष्फल जाती है, इसी तरह से अर्थ के ज्ञान के बिना किया गया मन्त्र का उच्चारण भी व्यर्थ माना जाता है। निरुक्त प्रभृति ग्रंथों में भी अर्थज्ञान की महिमा वर्णित है। शास्त्रों में विविध प्रकार के मंत्रार्थों का विवरण पाया जाता है। भास्कर राय ने वरिवस्यारहस्य में 15 प्रकार के मन्त्रार्थों का निरूपण किया है। उनमें भावार्थ, सम्प्रदायार्थ, निगर्भार्थ, कौलिकार्थ, रहस्यार्थ और महातत्त्वार्थ – ये छः अर्थ ही प्रधान हैं। योगिनीहृदय के मन्त्रसंकेत प्रकरण में इनका ही निरूपण हुआ है। तदनुसार मन्त्र के अवयवभूत अक्षरों का अर्थ ही भावार्थ है। सर्वकारणकारण पूर्ण परमेश्वर ही सब मन्त्रों के मूल गुरु हैं। उनके मुख से अपने मन्त्र का उद्भव और उसका अवतरण क्रम अथवा परम्परा का ज्ञान सम्प्रदायार्थ है। परमेश्वर, गुरु और निज आत्मा का ऐक्यानुसन्धान निगर्भार्थ है। परमेश्वर निष्कल निरवयव है, गुरु भी वही है। निष्कल परमेश्वर का जो निज आत्मरूप में साक्षात्कार करते हैं, वे ही गुरु हैं। इसलिये गुरु और परमेश्वर अभिन्न हैं। चक्र, देवता, विद्या, गुरु और साधक का ऐक्यानुसन्धान कौलिकार्थ है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी रूपा विद्या ही साधक की स्वात्मा है। इस प्रकार की भावना का नाम रहस्यार्थ है। निष्कल, अणु से अणुतर और महान से महत्तर, निर्लक्ष्य, भावातीत, व्योमातीत परम तत्त्व के साथ प्रकाशानन्दमय, विश्वातीत और विश्वमय, गुरु प्रबोधित, निर्मलस्वभाव स्वकीय आत्मा का ऐक्यानुसन्धान महातत्त्वार्थ है। इन सब अर्थों के ज्ञान से पाशात्मक विकल्पजाल भली-भाँति निवृत्त हो जाता है।
....SHIVOHAM....
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