कुण्डली का चौथा भाव
कुण्डली का चौथा भाव हृदय है। यह हृदय साक्षात् ब्रह्म है। इसमें उपनिषद्व वाक्य प्रमाण है।
“एष प्रजापतिर्यद् हृदयमेतद् ब्रह्मतत् सर्वं तदेतत् ।
त्र्यक्षरं हृदयमिति ह।
इत्येकमक्षरमभिरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद।
द इत्येकमक्षरं ददत्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद ।
यमित्येकमक्षरमेति स्वर्ग लोकं य एवं वेद।"
( बृहदारण्यक उपनिषद् ५ । ३ । १)
[ एषः प्रजापतिः यद् हृदयम् एतद् ब्रह्म एतत् सर्वम् तद् एतत् । त्रि अक्षरम् हृदयम् इति । इति एकम् अक्षरम् अभिहन्ति अस्मै स्वः च अन्ये च यः एवम् वेद द इति एकम् अक्षरम् ददति अस्मै स्वः च अन्ये च यः एवम् वेद। यम् इति एकम् अक्षरम् एति स्वर्गम् लोकम् यः एवम् वेद ।]
जो हृदय है, वह प्रजापति है। यह ब्रह्म है। यह सर्व है। हृदय तीन अक्षर वाला है। 'ह' यह एक अक्षर है। जो ऐसा समझता है, उसके प्रति स्वजन और अन्य जन बलि समर्पण करते हैं। 'द' यह एक अक्षर है। जो ऐसा जातना है, उसे स्वजन और अन्यजन देते रहते हैं। 'य' यह एक अक्षर है। जिसे इसका ज्ञान है, स्वर्गलोक को वह जाता है।
यह हृदय सत्य है। उपनिषद्कार कहता है ...
“तद् वै तदेतदेव तदास सत्यमेव स यो हतं महद् यक्ष प्रथमजे वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमाल्लोकाञ्जित इन्वसावसद्य एवमेतत् महद् यक्ष प्रथमजं वेद । सत्यं ब्रह्मेति सत्य होव ब्रह्म । "
( बृहदारण्यक उपनिषद् ५ । ४ । १)
[तद् वै तद् एतद् एव तद् आस सत्यम् एव सः यः ह एतम् महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद सत्यम् ब्रह्म इति जयति इमान् लोकान् जितः इत् नु असौ असत् यः एवम् एतत् महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद। सत्यम् ब्रह्म इति सत्यम् हि एव ब्रह्म ।]
[ वही, वह हृदय ब्रह्म ही था जो कि सत्य है। जो भी इस महत् यक्ष प्रथमज को यह सत्य ब्रह्म है' ऐसा जानता है, वह इन लोकों को जीत लेता है। सब कुछ उसके अधीन हो जाता है। उसका शत्रु असत् हो जाता है। इस प्रकार प्रथमोद्भूत इस महान् यक्ष को जो 'सत्य ब्रह्म' समझता है, वह निश्चय ही सत्य-ब्रह्म होता है ।]
यहाँ यक्ष का अर्थ है-पुरुष / चेतनतत्व । पुरुष/ इस प्रकार, कुण्डली में #चतुर्थ_भाव हृदय होने से साक्षात् सत्य है। यह सत्य ब्रह्म है। यही यक्ष/ चेतन पुरुष है। जो बसको जानता है, वह चतुर्थ भाव को जानता है। जो चतुर्थ भाव को जानता है, वह सुख को जानता है। सुख जानते ही वह समाधिस्थ हो जाता है। #शंकराचार्य कहते हैं...
'शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठः।' सुख से कौन सोता है ? समाधिस्य ।
( - प्रश्नोत्तरी, ४)
#गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं "भगति हीन सुख कवने काजा ?'( -रा. च. मा.)
भक्ति के बिना सभी सुख व्यर्थ है। अर्थात् भक्ति ही सुख है। इस भक्ति का संबंध हृदय से है। भक्ति है, प्रेम प्रेम तो हृदयगत/ हृदयजन्य होता है। इसलिये चतुर्थ भाव भक्ति है। हृदय कोष्ठकों में बंटा होता है। इसलिये इसे भक्त कहते हैं। हृदय में रहने के कारण ही प्रेम का नाम भक्ति है। भाक्त, भागवत ओर भगवान में अभेद है। जो इसे जानता है, उसे मेरा नमस्कार ।
यह तीन अक्षरों वाला हृदय तीन सूत्रों वाले #यज्ञोपवीत से स्पर्शायमान होता है अर्थात् तीन गुणों वाली मूलाप्रकृति से आवृत रहता है। मायाछन्न ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं। कार्य भेद से यह ईश्वर तीन-ब्रह्मा, विष्णु, शिव है। हृदय के तीन अक्षरों में ये ही तीन अक्षर तत्व है। इस अक्षर तत्व को जो जानता है, उसे मेरा प्रणाम।
चतुर्थ भाव सुख है। सुख है, संत संग में।
संत की महिमा का गान वेद करता है, तो और शास्त्रों की बात हो क्या ? वसिष्ठ जी कहते हैं...
'न सज्जनाद् दूरतरः क्वचिद् भवेत् भजेत साधून् विनयक्रियान्वितः ।
(-योग वसिष्ठ निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध १८ । ३४)
संत से कभी दूर नहीं रहना चाहिये। विनयपूर्वक साधुजनों की सेवा सुश्रूषा करनी चाहिये।
'सुलभी दुर्जनाश्लेषो दुर्लभः सत्समागमः ।
( योग वसिष्ठ वैराज्ञ प्रकरण २६ । २२)
दुर्जनों का मिलना बहुत सुलभ है, सत्पुरुषों (संतों) का मिलना बहुत कठिन है। व्यास जी का कथन है...
सकृत् सतां संगतं लिप्सितव्यं ततः परं भविता भव्यमेव ।' (- महाभारत उद्योगपर्व १० । २३ )
[एक बार संत का संग अवश्य करना चाहिये। उसके बाद तो फिर कल्याण होने वाला है।]
'न चाऽफलं सत्पुरुषेण संगतम् ।' (महाभारत वनपर्व २९७ / ३० )
संत का संग निष्फल नहीं होता , श्रीमद् भागवत महापुराण में व्यास जी कहते हैं...
'संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्संग: शेवधिर्नृणाम् । ( भागवत ११ । २ । ३० )
इस संसार में आधे क्षण का भी सत्संग मनुष्यों के लिये महान् निधि होता है ।।
गुरुनानाक कहते हैं
"संत सरनि जो जनु परै, सो जनु उधरन हार।
संत की निन्दा नानका, बहुरि बहुरि अवतार ॥"
(सुखमनी साहिब)
मैं सब सन्तों की जय बोलता हूँ तथा कुण्डली में विद्यमान सन्त तत्व का सम्यक् निरुपण करता हूँ। कुण्डली में चौथा भाव सन्त स्थानहै। यह कैसे ? चौथा भाव सुख है। सुख का एक मात्र हेतु है-सत्वगुण । है जिसमें सत्व गुण की अतिशयता वा प्रधानता है, वह सन्त है। सहस्रनाम में, विष्णुः । सुखदः।
सृष्टि के विकासक्रम में सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति होती है। मन ही ब्रह्म है (मनो वै सः) । सन्ततो ब्रह्म है हो। चौथा भाव मन है। अतः ब्रह्म सन्तः = मनः चौथा भाव हृदय है। सन्त का हृदय नवनीत समान होता है। हृदय में ब्रह्म का वास होता है। सन्त ब्रह्म स्वरूप है। इसलिये चौथा भाव सन्त है। गोस्वामी जी कहते हैं...
"संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कविन्ह परि कहै न जाना ||
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥' (-उत्तरकाण्ड, रा. च. मा. )
संत का हृदय मक्खन के समन होता है ऐसा कवियों ने कहा है। परन्तु, कवियों ने ठीक से कहा नहीं। क्योंकि, मक्खन तो स्वतः पिघलता है और संत का हृदय दूसरे के दुःख से पिघलता है।
सन्त विटप सरिता पर्वत और पृथ्वी- इस लोक में परोपकार के लिये ही हैं। यही तो सन्त की महत्ता है।
'संत विटप सरिता गिरि धरनी।
पर हित हेतु सबन्ह के करनी ।।'
(-रा. च. मा. उत्तरकाण्ड )
संसार में सन्त का संग दुर्लभ है। दण्ड (घंटी) वा पल (क्षण) भर एक बार भी यदि संग का संग मिल जाय तो जातक अपने को धन्य समझे।
"सत संगति दुर्लभ संसारा ।
दंड निमिष भरि एकउ बारा ।।'
( -रा. च. मा उत्तर काण्ड )
सन्त का दर्शन सदैव सुखकारी होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्वभर के लिये सुखद होता है।
"संत उदय संतत सुखकारी।
विश्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ॥'
( -रा. च. मा उत्तरकाण्ड )
सन्त मिलन के समान इस संसार में कोई सुख नहीं है।
"संत मिलन सम सुख जग नाहीं।' (उत्तरकाण्ड )
जितने भी श्रेय प्राप्ति के साधन हैं, उनका फल है-भगवद् भक्ति। संत के बिना इसे तक किसी ने नहीं पाया है।
'सब कर फल हरि भगति सुहाई ।
सो बिनु संत न काहू पाई ।'
( -उत्तरकाण्ड )
मुझे संत समागम मिला और मिल रहा है। मैं जो कुछ भी हूँ, वह संत संग का परिणाम है। यह राम नाम की इष्टि है। श्री तुलसी दास जी महाराज के शब्दों में...
"आजु धन्य मैं धन्य अति, जद्यपि सब विधि हौन ।
निज जन जानि राम मोहि, संत समागम दीन ॥'
(-रा. च. मा. उत्तरकाण्ड )
कुण्डली में चौथा भाव संत होने से चार का अंक संत का प्रतीक हुआ। ४ का अंक चन्द्रमा है। चन्द्रमा सर्वाधिक तीव्रगामी ग्रह है। ४ अर्थात् कर्क राशि चर है। इसलिये सन्त सदैव चलता रहता है, एक जगह नहीं रहता। वह एक स्थानी न होकर सर्वस्थानी होता है। वह एक कालिक न होकर सार्वकालिक होता है। नारद जैसा संत सर्वत्र सर्वकाल में उपलब्ध है। किशोर वय के ४ संत सदा सतत एक साथ रहते हैं। ये चारों विष्णु के पार्थक हैं- सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार।
अतः संत चतुरात्मा है। चतुरात्मा चतुर्बाहु विष्णु ही सन्त है। इस सन्त को मैं सदा नमन करता हूँ।
हाथ में आये हुए धन के अनुरूप सुख की कल्पना करनी चाहिये। चर धन से चर सुख, अचर धन से अचर सुख, द्विस्वभाव धन से द्विस्वभाव सुख होता है। इस सुख के लिये लोग पागल हो रहे हैं। संतोष नहीं है तो यह सब सुख व्यर्थ है। संतवचन है...
"गो धन गज धन बाजि धन और रतन धन खान ।
जब आवे सन्तोष धन सब धन धूरि समान ॥"
संतोष से बड़ा और कोई सुख नहीं है। 'संतोष परमं सुखम्।' जब तक इच्छाओं का ज्वार है, तब तक सुख नहीं। बिना संतोष के इच्छाओं का ज्वार मिटता नहीं। गोस्वामी जी कहते हैं ...
"बिनु संतोष न काम नसाही ।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥'
(रा. च. मा. उत्तरकाण्ड )
गुरुनानक कहते हैं कि प्रभु का नाम सुख की मणि है। भक्तों के मन को नाम में विश्राम मिलता है। नाम सुखामृत है।
"सुखमनी सुख अमृत प्रभ नामु।
भगतजना के मनि विस्राम ॥
सिमरउ सिमरि सिमरि सुख पावउ ।
कलि कलेस तन माहि मिटावर "
( सुखमनी साहिब)
सुख का मूल सन्तोष है और दुःख का मूल उसके विपरीत है। यह व्यास वाक्य है।
'सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः।'
( महाभारत, वनपर्व २३३ | ४)
सन्तोष सर्वप्रथम स्वर्ग है तथा परम सुख है। व्यास जी कहते हैं....
'संतोष व स्वर्गत संतोष परमं सुखम्।'
( महाभारत शान्तिपर्व २१ । २)
इसलिये, एकमात्र सुख है वह (ब्रह्म) उपनिषद् कहता है...
"यो वौ भूमा तत् सुखम्। नात्ये सुखमस्ति भूमैव सुखम् ।भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य इति । यदा वै सुखं लभते अथ करोति । नासुखं लब्ध्वा करोति । सुखमेव लब्ध्वा करोति। सुखं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति । "
( छान्दोग्योपनिषद् ७ | २३ । १
जो भूमा है वही सुख है। जो अल्प है वह सुख नहीं है।
भूमा (ब्रह्म) ही सुख है। इसलिये भूमा को जानने का यत्न करना चाहिये।
जब मनुष्य सुख पाता है, तभी काम करता है। वह दुःख प्राप्त कर काम नहीं करता। वह सुख पाकर ही कार्य करता है। अतः सुख को ही जिज्ञासा करनी चाहिये-सुख क्या है ? इसे जानने का प्रयत्न करना चाहिये ||
सुख क्या है ? इसका स्पष्टीकरण मनु महाराज करते हैं ...
'सर्वमात्मवशं सुखम्।' ( मनुस्मृति ४। १६०)
सुख के रहस्य को जो जानता है, वही चतुर्थ भाव का चक्षुष्मत है। चतुर्थ भाव के तल में उसी की दृष्टि जाती है जो विष्णु का चिन्तन करता है। तस्मै वैष्णवाय नमः ।
कुण्डली में चौथा भाव जातक के आवास निवास स्थान से संबंध रखता है। इस प्रकार, यह भाव गृह स्थान / गृह सुख का प्रतीक है। लग्न को भी गृह कहते हैं। किन्तु इस गृह का अर्थ है-शरीर। शरीर में आत्मा का निवास रहता है। अतः यह शरीर आत्मा का घर है। यह शरीर, मन्दिर नाम से अभिहित होता है। मन् + इदिर शरीर में मन वसता है। अतः यह मन्दिर है। इस शरीर के रहनेके लिये स्थान की आवश्यकता होती है। यह शरीर जहाँ रहे सोये, जागे, खाये, पिये तथा अन्य क्रिया कलाप करे, वह इसका आवास है, निवास है, भवन है, प्रासाद है, मन्दिर है, गृह है। शरीर (लग्न) से चौथा स्थान सुख है। अतएव सुख स्थान ही निवास / घर है। वास्तु देवता को प्रसन्नता अप्रसन्नता अर्थात् गृह सुख की प्राप्ति अप्राप्ति का विचार इस चतुर्थ भाव से करना चाहिये। जातक किस प्रकार के घर में रहेगा, कैसा घर बनवायेगा, उसके भाग्य में घर का सुख है कि नहीं इन सब प्रश्नों का उत्तर चतुर्थ भाव को देख-परख कर दिया जाता है।
घर का निर्माण स्त्री के लिये किया जाता है। बिना घर के स्त्री सुख क्षीण होता है। बिना ली के घर में सुख नहीं मिलता। व्यास जी कहते हैं...
'न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुचयते । '
( - शांतिपर्व १४४ । ६ )
गृह को गृह नहीं कहा जाता, गृहिणी को ही गृह कहा जाता है ।।
विष्णु शर्मा लिखते हैं...
"वृक्षमूलेऽपि दयिता यदि तिष्ठति तद् गृहम् । (पंचतंत्र ४। ७४ )
यदि वृक्ष के नीचे भी अपनी प्रियतमा हो, तो वही गृह ।
इन दो कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि गृह गृहिणी एवं सुख में अन्योन्याश्रय संबंध है। अर्थात् गृह से सुख है, #गृहिणी से सुख है, सुख के लिये घर है, सुख के लिये गृहिणी है, गृहिणी के लिये गृह है। गृहिणी के लिये सुख है। जो इस त्रिकोण को सम्यक रूप से समझता है, वह गृहस्थ है। ऐसे घर में जो पुरुष रहे, वह गृहस्थ है। गृहे स्थितः पुरुषः हि गृहस्थः। गृहस्थाश्रमी के लिये गृह की अनिवार्यता है। जिस गृहस्थ के पास अपना घर है, वह धन्य है। अपने घर में किया गया यज्ञादि कर्म पूर्ण फलप्रद होता है। व्यास जी कहते हैं...
'गृहाश्रमः कर्मक्षेत्रं यस्मिन्नहि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एवं आवसथ: । ' (भागवत ५ । १४ । ४)
[गृहाश्रम वह कर्म क्षेत्र है, जिसमें कर्म कभी समाप्त नहीं होते। क्योंकि यह आश्रम कामनाओंका पिटारा होता है।]
ग्रह + क= गृहम्। गृह्णति गृहमिति । जो पकड़ता है, कसकर पकड़ता है. थामता है, बाहर जाने से रोकता है, छोड़ता नहीं उसे गृह कहते हैं। व्यास जी कहते हैं...
"गृणाति पुरुष यस्मात् गृहं तेन प्रकीर्तितम्।'
(-देवी भागवत १ । १४ । ५३)
गृहपति/ गृहस्थ को हो गृहमेधिन कहा गया है। ब्रह्मचर्याश्रम के पश्चात् विवाहित जीवन बिताने वाला घर का स्वामी/यजमान/आतिथ्यादि कर्मों का सम्पादन करने वाला गृहमेधिन है। कश्यप ऋषि के प्रति अदिति की यह युक्ति (उक्ति) है...
'गृहस्थस्थ परं क्षेत्रं गृहमेधिन् गृहा इमे।'
( श्रीमद् भागवत महापुराण ८। १६ । ११ )
ये घर गृहस्थों के लिये सर्वोत्तम कर्मक्षेत्र हैं । यह गृहस्थ सब धर्मो का मूल
'गृहस्थस्त्वेष सर्वेषां धर्माणां मूलमुच्यते।' ( शांतिपर्व २३४ । ६)
गृहस्वामी सब से श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि वह इन तीनों (ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी) का भरण-पोषण करता है।
'गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठ: स त्रीनेतान् बिभर्ति हि। " (मनुस्मृति ६ । ८९ )
समस्त प्राणियों के हित की कामना करना, यही गृहस्थ का धर्म है।
'गृहस्थ धर्मो नगेन्द्र सर्वभूतहितैषिता ।'
( शान्तिपर्व ३४७/७)
दुष्ट गृहिणी पा कर घर में सुख कहाँ ?
'कुगेहिनीं प्राप्य गृहे कुतः सुखम् ?'
( नीतिवचनम् )
वे गृहस्थ धन्य हैं, जो गृह और गृहिणी से युक्त होकर सुखी हैं। जिस गृहस्थ के घर का आँगन यज्ञ की वेदी से युक्त हो तथा जिसके आँगन वा भोजन कक्ष में ब्राह्मण अतिथि भोजन करते हों, वह धन्य मैं उसे प्रणाम करता हूँ।
जिस गृहस्थ के घर के बैठक / स्वागत-सभा कक्ष में सामने मुखरूपी मुख्य द्वार हो, अगल-बगल कान रूपी दो अतिरिक्त द्वार हों, पीछे कण्ठ रूपी अन्तः द्वार भोजन कक्ष/ आँगन की ओर खुलता हो तथा जिसमें नासा छिद्र रूपी दो वातायनएवं चक्षु रूपी दो गवाच्छ हों, वह गृहस्थ महान् है। मैं ऐसे गृहस्थ को नमस्कार करता हूँ।
सभा/ वार्ता कक्ष गोलाकार होता है, कपाल की तरह। इसकी छत भी सपाट/ समतल न होकर वर्तुल होनी चाहिये। जैसे कपाल में शिखा रखी जाती है, वैसे ही इस वर्तुलाकार छत के ऊपर ध्वज फहराते रहना चाहिये। ऐसे वैष्णव चिह्नित ध्वज वाले गृहस्थ के स्वागत कक्ष में आने वाले विद्वानों को मैं नमन करता हूँ।
चौरासी लाख योनियों को बनाने वाले ब्रह्मा ने इस मनुष्य देह के निर्माण में अपना सम्पूर्ण तप लगा दिया। इससे श्रेष्ठ अन्य कोई शरीर नहीं ब्रह्मा से श्रेष्ठ और कोई शिल्पी नहीं। इस विश्वकर्मा ब्रह्मा को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ। इस मानव तन को आदर्श गृह मान कर तदनुरूप वास्तु को मैंने कहा की । १४ भुवनों का पति आत्मा इस मानव देह में रहता है। यह मनुष्य, गृहस्थ धर्म अंगीकार करके १४ कक्षों वाले ईंट पत्थर मिट्टी लकड़ी वाले घर में रह कर के सनातन धर्म की ध्वजा को ऊंचा उठाये रखे- ऐसी कल्पना करता हूँ। इस शरीर को क्षेत्र कहते हैं। भगवान् कृष्ण अर्जुन के प्रति कहते हैं..
'इदं शरीर कौन्तेय क्षेत्रमिति अभिधीयते)'( -गीता १३ । १)
क्षेत्र कभी रिक्त रहीं रहता। उसमें न बोने पर भी तृण आदि उगते रहते हैं। खेत में उगे हुए खर-पतवार घास पात को उखाड़ कर फेंक देना चाहिये। खेत में तैयारी के साथ अच्छे बीज बोना चाहिये. जिससे सुस्वादु अन्न/ फल मिले। जो ऐसा नहीं करता, वह घास ही खाता है अथवा भूखों मरता है। संसार में ऐसे मूर्खो की कमी नहीं है।
ऐसे मूर्ख नारायण को मैं नमन करता हूँ।
गृहस्थ का घर कर्मक्षेत्र है। इसमें रहते हुए धर्म करना चाहिये। यज्ञ, दान, तप, व्रत, आतिथ्य- ये गृहस्थ धर्म के बीज हैं। इन्हें बोना चाहिये। इनका फल है-सुख, आरोग्य, आयुष्य, शक्ति, यश जिस घर में सद् कर्मों के बीज नहीं बोये जाते वहाँ भूतप्रेत, डाकिनी शाकिनी, वेताल पिशाच, पूतना कूष्माण्डी, ज्वर राक्षस रूपी कँटीली झाड़ियाँ भड़भड़ा भटकटैया गाजरघास आदि तृणों का दुःखद फैलाव होता है। यह अकाट्य तथ्य है और प्रत्यक्ष प्रकट है। इसलिये बिना कर्म किये, धर्म किये, घर में नहीं रहना है। गृही के लिये कर्म (धर्म) अनिवार्य है।
जो घर की मापिकी (नक्शा) तैयार करता है, वह वास्तुविद होता है। जो घर की संरचना करता है, उसे वास्तुकार कहते हैं। ऐसे वास्तुविदों एवं वास्तुकारों द्वारा, जो विश्वकर्मा की श्रेष्ठतमकृति से अपरिचित है, घर बनवाने से गृही को शांति नहीं मिलती। १४ भुवनों वाले वास्तु देवता के अनुरूप घर बनवा कर रहने से गृही को चतुर्वर्ग की प्राप्ति सद्यः होती है। [१४= १ +४= ५ कक्षों वाला घर ।
जो पुरुष / ब्राह्मण / यजमान मेरी तरह है, अर्थात् घर बनाने की इच्छा नहीं रखता वा घर निर्माण की क्षमता से होन है वा घर बनाने के झंझट में नहीं पड़ना चाहता, उसके लिये भी मार्ग है। बड़ा सरल मार्ग है। इस शरीर को ही घर मान कर इसमें रहने वाले भुवनपति की प्रसन्नता के लिये सतत जपयज्ञ किया जाय, व्रतों का परिपालन किया जाय, तिर्यक् योनियों वाले प्राणियों का आतिथ्य किया जाय। एतस्मै वास्तुदेवतायै नमः।
इस देह खेत में जो सत्कर्मों के बीच नहीं बोता अथवा कुछ नहीं बोता, इसे खाली रखता है, इसका सदुपयोग नहीं करता, दुरुपयोग करता है, उससे यह खेत छीन लिया जाता है। अर्थात् फिर मनुष्य तन नहीं मिलता। वह काल के दण्ड का भागी होता है। इस देह के दाता श्री राम का स्मरण तो करते रहना ही होगा।
गोस्वामी जी कहते हैं...
'लव निमेष परमानु जुग, बरस कलप सर चण्ड ।
भजसि न मन तेहि राम को, कालु जासु को दण्ड ।'
( -रा. च. मा. लंकाकाण्ड )
[ लव, निमेष, परमाणु, वर्ष युग, कल्प-ये जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, है मन ! तू उन श्री राम जी को क्यों नहीं भजता ? ]
किसी को जीवन अवधि लव मात्र, किसी को निमेष भर, किसी का परमाणु तक, किसी की वर्ष / युग / कल्प पर्यन्त है। इन काल खण्डों से अधिक यह शरीर नहीं रहता। इसलिये काल से डर कर आत्मकल्याण हेतु राम में मन लगाना ही है। कालपुरुषाय नमः ।
#कालचिन्तन
#कर्म_मीमांसा
#ज्योतिषनिरूपण_भ्रान्तिनिवारण
#यज्ञस्वरूप
#वैदिकज्योतिष
#ज्योतिपुरुष
#शब्द_क्या_है
#नवग्रहोंमें
#स्वरशास्त्र
#ज्योतिष
[8:23 PM, 3/11/2023] 🅿️🔅Ⓜ️prabodh23: कुण्डली में दूसरा भाव आँख है। आँख (२) से भाग्य वा भगवान् (९) को देखना ही लाभ ११ है । अर्थात् २ + ९ = ११ = भगवद्भर्शन।
आँखें मिली हैं भगवद्दर्शन का आनन्द लेने के लिये। आँखें होते हुए भी प्रत्यक्ष परमात्मा को जो न देखे, उसे भाग्यहीन कहते हैं। ऐसे भाग्यहीनों को मेरा नमस्कार !
परमात्मा प्रत्यक्ष है। इसमें कोई सन्देह नहीं। लोग इसे प्रतिदिन देखते हैं। किन्तु जानते नहीं कि यह जो देख रहा हूँ वह सब परमात्मा है। वेद इसे शिंशुमार (तारागण) चक्र कहता है। शिंशुमाराः। (अथर्व ११ ।२ ।२५)
'केचनैतज्ज्योतिरनीकं शिशुमार संस्थानेन भगवतो वासुदेवस्य योगधारणायामनुवर्णयन्ति यस्य पुच्छाग्रेऽवाक्शिरसः कुण्डलीभूतदेहस्यध्रुव उपकल्पितस्तम्य लाङ्गूले प्रजापतिरग्निरिन्द्रो धर्म इति पुच्छमूले धाता विधाता च कट्यां सप्तर्षयः ।"( भागवत ५। २३ । ४)
कोई कोई विद्वान् भगवान् की योगधारणा के आधार पर ज्योतिष चक्र का शिशुमार (सूंस) के रूप में वर्ण करते हैं। यह शिशुमार कुण्डलाकार देहवाला है। इसका सिर नीचे की ओर है। इसकी पूँछ के सिरे पर (सब से ऊपर) ध्रुव तारा स्थित है। पूंछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म (नाम के तारे) स्थित हैं। पूंछ की जड़ में धाता और विधाता (नाम वाले तारे हैं। इसके कटि प्रदेश में सप्तर्षि (कश्यय, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज नाम के सात तारे) हैं।
[ ध्रुव तारा उत्तरगोल में है, सुदूरस्थ है। इसे सर्वोच्च स्थान मिला है।]
"तस्य दक्षिणावर्तकुण्डलीभूत शरीरस्थ यान्युदगयनानि दक्षिणपातु नक्षत्राण्युपकल्पयन्ति दक्षिणायनानि तु सव्ये यथा शिशुमारस्य कुण्डलाभोग सन्निवेशस्य पार्श्वयोरुभयोरप्यवयवाः समसंख्या भवन्ति। पृष्ठे त्वजवीथी आकाशगंगा चोदरतः ॥" ( भागवत ५। २३ । ५ )
यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थित में जो उत्तरायण के नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भाग में हैं। तथा, जो दक्षिणायन के नक्षत्र हैं, वे इसके बायें भाग में हैं। इस प्रकार दोनों ओर समान संख्या में नक्षत्र होने से इसका देह सन्तुलित रहता है। शिशुमार के पृष्ठ भाग में अजवीथी नामक नक्षत्रों का समूह है और उदर में आकाश गंगा है।
"पुनर्वसु पुष्यौ दक्षिणवामयोः श्रोण्योरार्द्राश्लेषे च दक्षिणवामयोः पश्चिमयोः पादयोरभिजिदुत्तराषाढ़े दक्षिणवामयोः नासिकयोः यथासंख्यं श्रवणपूर्वाषाड़े दक्षिणवामयोः लोचनयोः धनिष्ठा मूलं च दक्षिणवामयोः कर्णयोः मपादीन्य नक्षत्राणि दक्षिणायनानि वामपार्श्ववरिषु युञ्जीत तथैव मृगशीर्षादीन्युदयानि दक्षिणपार्श्ववदिषु प्रातिलोम्येन प्रयुञ्जीत शतभिषज्येष्ठे स्कन्धवो दक्षिणवामयोः न्यसेत् ॥"
( भागवत ५। २३ । ६)
इसके दाहिने एवं बायें कटितटों (कूल्हों) में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं।
इसके पीछे के दाहिने एवं बायें पादों (चरणों) में आर्द्रा ओर आश्लेषा नक्षत्र हैं।
इसके दाहिने और बायें नथुनों (नामछिद्रों में क्रमश: अभिजित और उत्तराषाढ़ नक्षत्र है।
इसी प्रकार, दाहिने और बायें नेत्रों में श्रवण और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र तथा दाहिने और बायें कानों में धनिष्ठा और मूलनक्षत्र हैं।
मघा आदि दक्षिणायन के आठ नक्षत्र मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा) बायीं पसलियों में है तथा विपरीत क्रम से मृगशिरा आदि उत्तरायण के आठ नक्षत्र (मृगशिरा, रोहिणी, कृतिक, भरणी, अश्विनी, रेवती, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद) विपरीत क्रम से दाहिनी पसलियों में है। शतभिषा और ज्येष्ठा ये दो नक्षत्र क्रमशः दायें और बायें कंधों की जगह हैं।
"उत्तराहना वगस्तिः, अथराहनौयमो मुखेषु चांगारकः शनैश्वरः उपस्ये, बृहस्पतिः ककुदि, वक्षस्यादित्यो, हृदये नारायणो, मनसि चन्द्रो, नाभ्यामुशना, स्तनयोरश्विनौ, बुधः प्राणापानयोः, राहुर्गले, केतवः सर्वागेषु, रोमसु सर्वे तारागणाः ।
(भगवत ५ १२३ । ७)
इसके उत्तर हनु (ऊपरी जबड़े पर में अगस्ति नाम का नक्षत्र, नीचे के जबड़े के स्थान पर यम नाम का नक्षत्र स्थित है। इसके मुख में मंगल, उपस्थ (लिंग प्रदेश) में शनैश्वर है। इसके ककुद (गर्दन के पिछले भाग अर्थात डिल) में बृहस्पति, वक्षस्थान में सूर्य है। इसके हृदय में नारायण तथा मन में चन्द्रमा है। इसकी नाभि में शुक्र, स्तनों में दोनों आश्विनी कुमार (प्रातः साथ की संध्याएँ) हैं। इसके प्राण और अपान अर्थात् श्वास में बुध है। इसके गले में राहु समस्त अंगों में केतु का है। इसके रोगों में सभी तारागण स्थित है।
"एतदु हैव भगवतो विष्णोः सर्वदेवमयं रूपमहरहः सन्ध्यायां प्रयतो वाग्यतो निरीक्षमाण उपतिष्ठे नमो ज्येतिलोंकाय कालायनायानिमिषां पतये महापुरुषाय अभिधीमहि इति ।। "
(भागवत ५ | २३ | ८ )
यह भगवान् विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका नित्यप्रति सायंकाल के समय पवित्र और मौन होकर ध्यान करना चाहिये तथा इस मंत्र का जप करते हुए भगवान् की स्तुति करना चाहिये।
'सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय, कालस्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्मा का हम नमस्कार पूर्वक 'चिन्तन करते हैं।'
'ग्रहक्वर्षतारामथमाधिदैविकं पापापहं मन्त्रकृत त्रिकालम् ।
नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालं, नश्येत तत्कालजमाशु पापम्
( भागवत् ५। २३ ।९)
ग्रह- अक्ष-तारामयम् = समस्त ग्रह नक्षत्रों से युक्त।
आधिदैविकम् = समस्त देवताओं के आश्रयस्वरूप।
पाप-अपहम् = पापों को नाश करने वाले विष्णु को।
मंत्र कृताम् त्रिकालम् = तीनों कालों में (जो लोग) मनन करते हैं।
नमस्यतः स्मरतः वा त्रिकालम् = भगवान् के इस स्वरूप को नमन एवं स्मरण करते हुए, त्रिकाल पर्यन्त किये हुए
नश्येत तत्कालजम् पापम् आशु = पाप तत्क्षण शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
ऐसे महाविष्णु को जिसमें असंख्य विश्व सृष्टियाँ सतत स्थित एवं लय को प्राप्त होती रहती हैं, मैं नमस्कार करता हूँ। यह विश्व विष्णु से है और विष्णु में है। यह तो प्रत्यक्ष सत्य है। इसका क्या अन्य प्रमाण दिया जाय ? ऐसे विष्णु को न देखने वाला आँखों के होते हुए भी अन्धा है। यह अपनी दुर्गति का उत्तरदायी स्वयं है। शिशु का अर्थ है- अज्ञ, मूर्ख, अशक्त, अबल मार का अर्थ है-मारने वाला। शिशुमार का अर्थ हुआ- अज्ञान नाशक, दौर्बल्य नाशक, पाप नाशक, मृत्यु नाशक लोक में शिशुमार एक भयावह मत्स्य होता है। इसे सूंस कहते हैं। यह बच्चों / शिशुओं को अपने जबड़ों में जकड़ कर निगल जाता है। यह गहरे जल वाली नदियों एवं समुद्र में पाया जाता है। जो लोग शिशु अपनी रक्षा के प्रति = असावधान वा अशक्त हैं, उन्हें चट कर जाता है। इसलिये इसका नाम शिशुनार पड़ा है। शिशुमार महामत्स्य । भगवान् विष्णु का प्रथम अवतार यही मत्स्य है। मत्स्यावतारधारी भगवान् विष्णु की शरण में आने वाले जीवों को मेरा नमस्कार !
आकाश की अनन्तता एवं महनता में विष्णु के इस नक्षत्रात्मक ज्योतिबिन्दु स्वरूप को जो देखता, मनन करता, जानता तथा इसके सौन्दर्य में निमग्न होकर अपने स्वाहंकार से पृथक् होकर तन्मय हो जाता। है, उस द्रष्टा देव को मेरा नमस्कार। यह विष्णु निराकार है और मूर्तिमान् है। निराकार का अर्थ आकारहीनता नहीं, अपितु एक सुनिश्चित आकार का अभाव (न होना) है। यही कारण है कि यह अवर्ण्य है, अनन्त है, अनेक मूर्तिवाला है। यह ज्योतिर्वद् का आराध्य देव है। इसको जानने वाला महात्मा भाग्यवान् है।
शिशुमार चक्र वाले देव के गले में राहु है। राहु सर्प है। शिवजी गले में सर्प धारण करते हैं। राहु विष है। शिव जी के कण्ठ में विष है। इससे ये नील कण्ठ कहलाते हैं। अतः यह शिशुमार चक्र शिव नाम से ख्यात है। इसको देखने एवं नमस्कार करने से प्राणियों का कल्याण (शिव) होता है। इसलिये यह विष्णु ही शिव है।
शिशुमार चक्ररूप परमात्मा के समस्त अंगों में केतु है। केतु का अर्थ है, प्रकाश। इसलिये विष्णु के समस्त अंग प्रकाशित हो रहे हैं। जिस भाव में केतु बैठता है, वहाँ प्रकाश होता है। जिस भाव में राहु बैठता है, वहाँ कालिमा छा जाती है, अन्धकार हो जाता है; कुछ सूझता नहीं। राहु अपने पीछे वाले भाव में अन्धकार करता है। केतु अपने से पीछे वाले भाव में प्रकाश करता है। क्योंकि ये दोनों वक्री होते हैं। मनुष्य के भाग्य के नियन्ता ये ही दो ग्रह हैं। ये बिगड़े हुए काम को बनाते तथा बनते हुए काम को बिगाड़ते हैं। ये सौर मण्डल में दिखयी नहीं पड़ते। ये अशरीरी हैं। इनके गुण कर्म प्रभाव को ठीक-ठीक जानना सम्भव नहीं। विष्णु को नमस्कार करने से ये अनुकूल फल देते हैं।
.SHIVOHAM....
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