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कुण्डली में दूसरा भाव

कुण्डली में दूसरा भाव आँख है। आँख (२) से भाग्य वा भगवान् (९) को देखना ही लाभ ११ है । अर्थात् २ + ९ = ११ = भगवद्भर्शन।आँखें मिली हैं भगवद्दर्शन का आनन्द लेने के लिये। आँखें होते हुए भी प्रत्यक्ष परमात्मा को जो न देखे, उसे भाग्यहीन कहते हैं। ऐसे भाग्यहीनों को मेरा नमस्कार !परमात्मा प्रत्यक्ष है। इसमें कोई सन्देह नहीं। लोग इसे प्रतिदिन देखते हैं। किन्तु जानते नहीं कि यह जो देख रहा हूँ वह सब परमात्मा है। वेद इसे शिंशुमार (तारागण) चक्र कहता है। शिंशुमाराः। (अथर्व ११ ।२ ।२५)


'केचनैतज्ज्योतिरनीकं शिशुमार संस्थानेन भगवतो वासुदेवस्य योगधारणायामनुवर्णयन्ति यस्य पुच्छाग्रेऽवाक्शिरसः कुण्डलीभूतदेहस्यध्रुव उपकल्पितस्तम्य लाङ्गूले प्रजापतिरग्निरिन्द्रो धर्म इति पुच्छमूले धाता विधाता च कट्यां सप्तर्षयः ।"( भागवत ५। २३ । ४)


कोई कोई विद्वान् भगवान् की योगधारणा के आधार पर ज्योतिष चक्र का शिशुमार (सूंस) के रूप में वर्ण करते हैं। यह शिशुमार कुण्डलाकार देहवाला है। इसका सिर नीचे की ओर है। इसकी पूँछ के सिरे पर (सब से ऊपर) ध्रुव तारा स्थित है। पूंछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म (नाम के तारे) स्थित हैं। पूंछ की जड़ में धाता और विधाता (नाम वाले तारे हैं। इसके कटि प्रदेश में सप्तर्षि (कश्यय, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भरद्वाज नाम के सात तारे) हैं।


[ ध्रुव तारा उत्तरगोल में है, सुदूरस्थ है। इसे सर्वोच्च स्थान मिला है।]


"तस्य दक्षिणावर्तकुण्डलीभूत शरीरस्थ यान्युदगयनानि दक्षिणपातु नक्षत्राण्युपकल्पयन्ति दक्षिणायनानि तु सव्ये यथा शिशुमारस्य कुण्डलाभोग सन्निवेशस्य पार्श्वयोरुभयोरप्यवयवाः समसंख्या भवन्ति। पृष्ठे त्वजवीथी आकाशगंगा चोदरतः ॥" ( भागवत ५। २३ । ५ )


यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थित में जो उत्तरायण के नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भाग में हैं। तथा, जो दक्षिणायन के नक्षत्र हैं, वे इसके बायें भाग में हैं। इस प्रकार दोनों ओर समान संख्या में नक्षत्र होने से इसका देह सन्तुलित रहता है। शिशुमार के पृष्ठ भाग में अजवीथी नामक नक्षत्रों का समूह है और उदर में आकाश गंगा है।


"पुनर्वसु पुष्यौ दक्षिणवामयोः श्रोण्योरार्द्राश्लेषे च दक्षिणवामयोः पश्चिमयोः पादयोरभिजिदुत्तराषाढ़े दक्षिणवामयोः नासिकयोः यथासंख्यं श्रवणपूर्वाषाड़े दक्षिणवामयोः लोचनयोः धनिष्ठा मूलं च दक्षिणवामयोः कर्णयोः मपादीन्य नक्षत्राणि दक्षिणायनानि वामपार्श्ववरिषु युञ्जीत तथैव मृगशीर्षादीन्युदयानि दक्षिणपार्श्ववदिषु प्रातिलोम्येन प्रयुञ्जीत शतभिषज्येष्ठे स्कन्धवो दक्षिणवामयोः न्यसेत् ॥"

( भागवत ५। २३ । ६)


इसके दाहिने एवं बायें कटितटों (कूल्हों) में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं।


इसके पीछे के दाहिने एवं बायें पादों (चरणों) में आर्द्रा ओर आश्लेषा नक्षत्र हैं।


इसके दाहिने और बायें नथुनों (नामछिद्रों में क्रमश: अभिजित और उत्तराषाढ़ नक्षत्र है।


इसी प्रकार, दाहिने और बायें नेत्रों में श्रवण और पूर्वाषाढ़ नक्षत्र तथा दाहिने और बायें कानों में धनिष्ठा और मूलनक्षत्र हैं।


मघा आदि दक्षिणायन के आठ नक्षत्र मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा) बायीं पसलियों में है तथा विपरीत क्रम से मृगशिरा आदि उत्तरायण के आठ नक्षत्र (मृगशिरा, रोहिणी, कृतिक, भरणी, अश्विनी, रेवती, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद) विपरीत क्रम से दाहिनी पसलियों में है। शतभिषा और ज्येष्ठा ये दो नक्षत्र क्रमशः दायें और बायें कंधों की जगह हैं।


"उत्तराहना वगस्तिः, अथराहनौयमो मुखेषु चांगारकः शनैश्वरः उपस्ये, बृहस्पतिः ककुदि, वक्षस्यादित्यो, हृदये नारायणो, मनसि चन्द्रो, नाभ्यामुशना, स्तनयोरश्विनौ, बुधः प्राणापानयोः, राहुर्गले, केतवः सर्वागेषु, रोमसु सर्वे तारागणाः ।

(भगवत ५ १२३ । ७)


इसके उत्तर हनु (ऊपरी जबड़े पर में अगस्ति नाम का नक्षत्र, नीचे के जबड़े के स्थान पर यम नाम का नक्षत्र स्थित है। इसके मुख में मंगल, उपस्थ (लिंग प्रदेश) में शनैश्वर है। इसके ककुद (गर्दन के पिछले भाग अर्थात डिल) में बृहस्पति, वक्षस्थान में सूर्य है। इसके हृदय में नारायण तथा मन में चन्द्रमा है। इसकी नाभि में शुक्र, स्तनों में दोनों आश्विनी कुमार (प्रातः साथ की संध्याएँ) हैं। इसके प्राण और अपान अर्थात् श्वास में बुध है। इसके गले में राहु समस्त अंगों में केतु का है। इसके रोगों में सभी तारागण स्थित है।


"एतदु हैव भगवतो विष्णोः सर्वदेवमयं रूपमहरहः सन्ध्यायां प्रयतो वाग्यतो निरीक्षमाण उपतिष्ठे नमो ज्येतिलोंकाय कालायनायानिमिषां पतये महापुरुषाय अभिधीमहि इति ।। "

(भागवत ५ | २३ | ८ )


यह भगवान् विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका नित्यप्रति सायंकाल के समय पवित्र और मौन होकर ध्यान करना चाहिये तथा इस मंत्र का जप करते हुए भगवान् की स्तुति करना चाहिये।


'सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय, कालस्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्मा का हम नमस्कार पूर्वक 'चिन्तन करते हैं।'


'ग्रहक्वर्षतारामथमाधिदैविकं पापापहं मन्त्रकृत त्रिकालम् ।

नमस्यतः स्मरतो वा त्रिकालं, नश्येत तत्कालजमाशु पापम्


( भागवत् ५। २३ ।९)


ग्रह- अक्ष-तारामयम् = समस्त ग्रह नक्षत्रों से युक्त।


आधिदैविकम् = समस्त देवताओं के आश्रयस्वरूप।


पाप-अपहम् = पापों को नाश करने वाले विष्णु को।


मंत्र कृताम् त्रिकालम् = तीनों कालों में (जो लोग) मनन करते हैं।


नमस्यतः स्मरतः वा त्रिकालम् = भगवान् के इस स्वरूप को नमन एवं स्मरण करते हुए, त्रिकाल पर्यन्त किये हुए


नश्येत तत्कालजम् पापम् आशु = पाप तत्क्षण शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।


ऐसे महाविष्णु को जिसमें असंख्य विश्व सृष्टियाँ सतत स्थित एवं लय को प्राप्त होती रहती हैं, मैं नमस्कार करता हूँ। यह विश्व विष्णु से है और विष्णु में है। यह तो प्रत्यक्ष सत्य है। इसका क्या अन्य प्रमाण दिया जाय ? ऐसे विष्णु को न देखने वाला आँखों के होते हुए भी अन्धा है। यह अपनी दुर्गति का उत्तरदायी स्वयं है। शिशु का अर्थ है- अज्ञ, मूर्ख, अशक्त, अबल मार का अर्थ है-मारने वाला। शिशुमार का अर्थ हुआ- अज्ञान नाशक, दौर्बल्य नाशक, पाप नाशक, मृत्यु नाशक लोक में शिशुमार एक भयावह मत्स्य होता है। इसे सूंस कहते हैं। यह बच्चों / शिशुओं को अपने जबड़ों में जकड़ कर निगल जाता है। यह गहरे जल वाली नदियों एवं समुद्र में पाया जाता है। जो लोग शिशु अपनी रक्षा के प्रति = असावधान वा अशक्त हैं, उन्हें चट कर जाता है। इसलिये इसका नाम शिशुनार पड़ा है। शिशुमार महामत्स्य । भगवान् विष्णु का प्रथम अवतार यही मत्स्य है। मत्स्यावतारधारी भगवान् विष्णु की शरण में आने वाले जीवों को मेरा नमस्कार !


आकाश की अनन्तता एवं महनता में विष्णु के इस नक्षत्रात्मक ज्योतिबिन्दु स्वरूप को जो देखता, मनन करता, जानता तथा इसके सौन्दर्य में निमग्न होकर अपने स्वाहंकार से पृथक् होकर तन्मय हो जाता। है, उस द्रष्टा देव को मेरा नमस्कार। यह विष्णु निराकार है और मूर्तिमान् है। निराकार का अर्थ आकारहीनता नहीं, अपितु एक सुनिश्चित आकार का अभाव (न होना) है। यही कारण है कि यह अवर्ण्य है, अनन्त है, अनेक मूर्तिवाला है। यह ज्योतिर्वद् का आराध्य देव है। इसको जानने वाला महात्मा भाग्यवान् है।


शिशुमार चक्र वाले देव के गले में राहु है। राहु सर्प है। शिवजी गले में सर्प धारण करते हैं। राहु विष है। शिव जी के कण्ठ में विष है। इससे ये नील कण्ठ कहलाते हैं। अतः यह शिशुमार चक्र शिव नाम से ख्यात है। इसको देखने एवं नमस्कार करने से प्राणियों का कल्याण (शिव) होता है। इसलिये यह विष्णु ही शिव है।


शिशुमार चक्ररूप परमात्मा के समस्त अंगों में केतु है। केतु का अर्थ है, प्रकाश। इसलिये विष्णु के समस्त अंग प्रकाशित हो रहे हैं। जिस भाव में केतु बैठता है, वहाँ प्रकाश होता है। जिस भाव में राहु बैठता है, वहाँ कालिमा छा जाती है, अन्धकार हो जाता है; कुछ सूझता नहीं। राहु अपने पीछे वाले भाव में अन्धकार करता है। केतु अपने से पीछे वाले भाव में प्रकाश करता है। क्योंकि ये दोनों वक्री होते हैं। मनुष्य के भाग्य के नियन्ता ये ही दो ग्रह हैं। ये बिगड़े हुए काम को बनाते तथा बनते हुए काम को बिगाड़ते हैं। ये सौर मण्डल में दिखयी नहीं पड़ते। ये अशरीरी हैं। इनके गुण कर्म प्रभाव को ठीक-ठीक जानना सम्भव नहीं। विष्णु को नमस्कार करने से ये अनुकूल फल देते हैं।


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