क्या उपवास तपश्चर्या है और अनाहार शरीर-दमन ?
अनाहार और उपवास में क्या फर्क है? 09 FACTS;- 1- तपश्चर्या का अर्थ हमारे लिए शरीर-कष्ट है। शरीर को कोई कष्ट दे रहा है, तो तपश्चर्या कर रहा है। जब कि तपश्चर्या का कोई संबंध शरीर के कष्ट से नहीं है। तपश्चर्या कुछ बात ही और है।वास्तव में,शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धि, शरीर-शून्यता, विचार-शून्यता, भाव-शून्यता--यह तपश्चर्या है।तपश्चर्या से लोग समझते हैं कि कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है, कांटों में लेटा हुआ है, भूखा बैठा हुआ है, तपश्चर्या कर रहा है! तपश्चर्या की हमारी दृष्टि बहुत शारीरिक हैं।एक व्यक्ति उपवास कर रहा है। हम समझते हैं, तपश्चर्या कर रहा है। वास्तव में,वह केवल भूखा मर रहा है।बल्कि उपवास कर ही नहीं रहा है ;केवल अनाहार है। अनाहार रहना, भोजन न करना एक बात है। उपवास में रहना बिलकुल दूसरी बात है।उपवास का मतलब है, परमात्मा के निकट निवास ,आत्मा के निकट होना , आत्मा के सान्निध्य में होना। और अनाहार का मतलब है, शरीर के सान्निध्य में होना। वे विपरीत बातें हैं।भूखा व्यक्ति शरीर के सान्निध्य में होता है, आत्मा के सान्निध्य में नहीं। उससे तो पेट भरा हुआ व्यक्ति शरीर के कम सान्निध्य में होता है । क्योंकि भूखा व्यक्ति पूरे वक्त भूख की और पेट की और शरीर के संबंध में सोचता है। उसके चिंतन की धारा शरीर होती है। उसका आंतरिक सान्निध्य शरीर से और रोटी से होता है।अगर भूखा रहना कोई सदगुण होता, तो दरिद्रता गौरव हो जाती।
2-अगर भूखे मरना कोई आध्यात्मिकता होती, तो दरिद्र देश आध्यात्मिक हो जाते। लेकिन कोई दरिद्र देश कभी आध्यात्मिक नहीं होता। जब कोई कौम समृद्ध होती है, तब वह धार्मिक हो पाती है।जिन दिनों का भारत धार्मिक था, वे बड़े समृद्धि के, बड़े सुख के, बड़े सौभाग्य के दिन थे। महावीर और बुद्ध राजाओं के पुत्र थे, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र थे, यह आकस्मिक नहीं है। अभी तक किसी दरिद्र घर में कोई तीर्थंकर पैदा नहीं हुआ।इसके पीछे कारण है।वास्तव में, अत्यंत समृद्धि में पहली बार तपश्चर्या शुरू होती है। दरिद्र तो शरीर के निकट होता है, समृद्ध शरीर से मुक्त होने लगता है। क्योंकि उसकी शरीर की जरूरतें तो पूरी हो गयी होती हैं और नयी जरूरतों का उसे पहली बार बोध होता है,जो आत्मा की हैं।इसलिए गरीबी अध्यात्मवाद नहीं हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं, वे धोखे में हैं और दूसरों को धोखे में डाल रहे हैं। और वे केवल गरीबी का समर्थन कर रहे हैं और संतोष के झूठे रास्ते निकाल रहे हैं।भूखे रहने का कोई मूल्य नहीं है, उपवास का मूल्य है। हां, यह हो सकता है कि उपवास की हालत में भोजन का स्मरण न रहे और अनाहार हो जाए। यह बिलकुल दूसरी बात है।महावीर तपश्चर्या करते थे, तो भूखे रहने की नहीं करते थे, उपवास की कर रहे थे। उपवास का मतलब है, वे निरंतर कोशिश कर रहे थे कि आत्मा के सान्निध्य में पहुंच जाऊं। किसी क्षण जब वे आत्मा के सान्निध्य में पहुंच जाते थे, शरीर का बोध भूल जाता था। ये क्षण लंबे हो सकते हैं। एक दिन, दो दिन, महीना भी बीत सकता है। 3-महावीर स्वामी के लिए कहा जाता है, बारह वर्षों की तपश्चर्या में उन्होंने केवल तीन सौ पचास दिन भोजन लिया।लेकिन भूखा व्यक्ति तो मर जाता है। लेकिन महावीर नहीं मरे,क्योंकि उन क्षणों में शरीर का बोध ही नहीं था। आत्मा की इतनी निकटता थी, इतना सान्निध्य था कि शरीर है, इसका भी पता नहीं था।और यह बड़े रहस्य की बात है। अगर आपको शरीर है, इसका पता न रह जाए, तो शरीर बिलकुल दूसरी व्यवस्था से काम करने लगता है और उसे भोजन की जरूरत नहीं रह जाती।और जितना व्यक्ति आत्मिक जीवन में प्रविष्ट होता है, उतना ही भोजन से बहुत सूक्ष्म, बहुत सूक्ष्म शक्ति को उत्पन्न करना संभव उसके लिए हो जाता है, जो कि सामान्य व्यक्ति को संभव नहीं होता।इसीलिए अनाहार और उपवास में फर्क है।अनाहार में हम भोजन छोड़ देते हैं और भोजन का चिंतन करते हैं। और उपवास का अर्थ यह है कि हमें भोजन से कोई मतलब ही नहीं होता, हम आत्मा के चिंतन में होते हैं और भोजन भूल जाता है।उपवास तो तपश्चर्या है और अनाहार शरीर-कष्ट है, शरीर-दमन है। अनाहार अहंकारी लोग करते हैं, उपवास निरहंकारी करते हैं। अनाहार में दंभ की तृप्ति होती है, मैं इतने दिन अनाहार रहा! चारों तरफ प्रशंसा और धार्मिक होने की खबर फैलती है। थोड़े-से शरीर-कष्ट में इतने दंभ की तृप्ति होती है। तो जो बहुत दंभी होते हैं, वे इतना करने को राजी हो जाते हैं।स्पष्ट रूप से ये अहंकार की ही वृत्तियां हैं। ये धर्म की वृत्तियां नहीं हैं।
4-धार्मिक व्यक्ति जरूर उपवास करते हैं, अनाहार नहीं करते। उपवास का मतलब यह है कि वे इस चेष्टा में सतत संलग्न होते हैं कि आत्मा की निकटता मिल जाए। और जब वे आत्मा के निकट होने लगते हैं, तो कभी ऐसे मौके आते हैं कि भोजन भूल जाता है, स्मरण नहीं होता।इसी तरह जो काम के दमन में लगा है, वह हमको तपस्वी मालूम होगा, जबकि वह तपस्वी नहीं है। तपस्वी वह है, जो प्रेम के विकास में लगा है। और प्रेम के विकास से काम अपने आप विलीन हो जाएगा। परमात्मा की निकटता जैसे-जैसे मिलने लगेगी, शरीर के बाबत बहुत-से परिवर्तन हो जाएंगे। शरीर की दृष्टि बदल जाएगी; देह-दृष्टि परिवर्तित हो जाएगी।तपश्चर्या एक विज्ञान है जिसके माध्यम से व्यक्ति, 'मैं देह हूं', इसे भूलकर, 'मैं आत्मा हूं', इसे जानता है।तपश्चर्या एक टेक्नीक है, एक सेतु है, एक रास्ता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति मैं देह हूं, इसको भूल जाता है और उसे इस बोध का जन्म होता है कि मैं आत्मा हूं।लेकिन भ्रांत तपश्चर्याएं सारी दुनिया में चली हैं और उन भ्रांत तपश्चर्याओं ने बड़े खतरे पैदा किए हैं। उनसे कुछ दंभियों का दंभ तो तृप्त होता है, लेकिन जन-मानस को नुकसान पहुंचता है। क्योंकि जन-मानस समझता है, यही तपश्चर्या है, यही साधना है, यही योग है। ये कुछ साधनाएं , योग नहीं हैं।
5-वास्तव में, जो लोग इस तरह से शरीर-दमन में उत्सुक होते हैं, वे कुछ थोड़े-से विक्षिप्त/Neurotic · होते हैं। और जो लोग अपने शरीर को कष्ट देने में मजा लेते हैं, ये वे ही लोग हैं, जिन्होंने किसी दूसरे के शरीर को कष्ट देने में मजा लिया होता। और यह केवल परिवर्तन की बात है कि जो कष्ट इन्होंने दूसरों को देने में मजा लिया होता, ये अपने ही शरीर को देकर ले रहे हैं। ये हिंसक लोग हैं। यह आत्महिंसा है। मनुष्य के भीतर दो तरह की वृत्तियां होती हैं। एक उसमें जीवन की वृत्ति होती है कि मैं जीवित रहूं और उसमें एक मृत्यु की वृत्ति भी होती है कि मैं मर जाऊं। अगर मृत्यु की वृत्ति न हो, तो दुनिया में आत्महत्याएं नहीं हो सकती हैं। मृत्यु की एक सोयी हुई वृत्ति,A death instinct हर व्यक्ति के भीतर है। ये दोनों उसके साथ बैठी हुई हैं।वह जो मृत्यु की वृत्ति है, वह अनेक बार व्यक्ति को अपनी ही हत्या करने के लिए उत्सुक करती है। उसमें भी रस आना शुरू हो जाता है। कई लोग एकदम आत्महत्या कर लेते हैं, कुछ लोग धीरे-धीरे करते हैं। जो धीरे-धीरे करते हैं, वे हमें तपस्वी लगते हैं । जो एकदम कर लेते हैं, हम कहते हैं, उन्होंने आत्महत्या कर ली।तपश्चर्या आत्महत्या नहीं है। तपश्चर्या का मृत्यु से संबंध नहीं है, अनंत जीवन से संबंध है। तपश्चर्या मरने को नहीं और पूर्ण जीवन को पाने को उत्सुक होती है।
6-तपश्चर्या यह नहीं है कि हम दूर भाग जाएं और उसका चिंतन चलता रहे।और स्मरण रखिए, जो लोग जिन चीजों को छोड़कर भागते हैं, वे लोग उन्हीं चीजों का चिंतन करते रहते हैं। यह असंभव है कि उनको उन्हीं चीजों का चिंतन न चले।वास्तव में, चिंतन, जो मौजूद नहीं रह जाता, उसका चलता है। जिनको आप प्रेम करते हैं, अगर वे आपके निकट हैं, तो आप उनको भूल जाते हैं; जब वे दूर होते हैं, तो वे याद आने लगते हैं। वे जितने दूर होते हैं, उतनी प्रगाढ़ उनकी स्मृति घनी होने लगती है।चीजें जब मौजूद होती हैं, तो उनका चिंतन नहीं चलता है; जब वे मौजूद नहीं रह जाती हैं, तब चिंतन चलता है।तपश्चर्या भागना नहीं है, ट्रांसफार्मेशन है। तपश्चर्या त्याग नहीं है, समपरिवर्तन/Conversion है। उस समपरिवर्तन से जो भी घटित हो, वह ठीक है। भागने से, त्यागने से जो भी घटित हो, वह ठीक नहीं है। और काश, हमें यह समझ में आ जाए,तो बहुत लाभ हो सकता है। लाखों जीवात्माएं कष्ट भोग रही हैं। उनका मजा एक ही है, वह सिर्फ दंभ की तृप्ति का है। वह भी उनमें से थोड़ों का तृप्त हो पाता है,सभी का तृप्त नहीं हो पाता। लेकिन इस आशा में कि शायद स्वर्ग मिलेगा, शायद नर्क से बच जाएंगे, शायद मोक्ष मिलेगा। वही लोभ जो आपको पकड़े हुए है, उन्हें पकड़े रहता है। और लोभ बहुत-से कष्ट सहने की सामर्थ्य दे देता है। 7-जिसने पूछा कि 'हमने सब छोड़ा और वहां भगवान के राज्य में क्या मिलेगा?' इस व्यक्ति को त्यागी नहीं कहिएगा बल्कि इससे बड़े लोभी खोजने जमीन पर मुश्किल हैं।जिसको मिलने का खयाल है, उसने कुछ छोड़ा ही नहीं। इसलिए यह सारी तपश्चर्या वाली जो बातें हैं, इन तपश्चर्या की बात करने वाले साथ में प्रलोभन भी देते हैं कि इस तपश्चर्या के साथ यह मिलेगा।वह तपश्चर्या झूठी है, जिसमें मिलने का खयाल है। क्योंकि वह तपश्चर्या ही नहीं है, वह लोभ का एक रूप है। इसलिए जितनी तपश्चर्याएं हैं, आपको सब में साथ लगा हुआ मिलेगा कि इस तपश्चर्या को करने से यह मिलेगा। और जिन-जिन ने इतिहास में यह तपश्चर्या की पीछे , उनको यह-यह मिला है। ये सब लोभ के रूप हैं।तपस्वी वह है, सिर्फ एक ही तपश्चर्या है और वह यह है कि वह स्वयं को जानने में लगे। इस वजह से नहीं कि स्वयं को जानने से कोई स्वर्ग में जगह मिल जाएगी, कोई बड़ा सुख होगा, बल्कि इसलिए कि स्वयं को न जानना जीवन को ही नहीं जानना है। और जिसमें थोड़ा भी बोध है, उसे स्वयं को जानने की वृत्ति का और विचार का पैदा न हो जाना असंभव है।वह परिचित हो कि मेरे भीतर यह जीवन-शक्ति क्या है।तपश्चर्या जीवन-सत्य को जानने का उपाय है। तपश्चर्या शरीर-दमन नहीं है।
8-कांटों पर लेटना सर्कस में भी कोई कर सकता है। धूप में खड़ा होना केवल एक अभ्यास है। और थोड़े दिन अभ्यास करने के बाद उसमें कोई मतलब नहीं है। सारे आदिवासी नग्न रहते हैं। लेकिन उसको हम तपश्चर्या नहीं कहते। और हम जाकर उनके पैर नहीं पड़ते कि आप नग्न हैं, तो आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं! हम जानते हैं, यह उनका अभ्यास है ,सहज है। तपश्चर्या मात्र अभ्यास नहीं है कि किसी चीज का अभ्यास कर लिया। लेकिन हम जिनको तपस्वी कहेंगे, उनमें से अधिकतर लोगों की हालत ऐसी है। मुश्किल से कभी कोई वह व्यक्ति मिलेगा, जिसकी तपश्चर्या उसके आनंद का फल है। और जब तपश्चर्या आनंद का फल होती है , तभी वह सत्य होती है। और जब वह दुख की आराधना होती है, तब वह आत्महत्या की वृत्ति का रूपांतर होती है और कुछ भी नहीं होती। वह धार्मिक नहीं है, वह न्यूरोटिक है; वह विक्षिप्त होने की बात है। तपश्चर्या से बड़ा कोई आनंद नहीं है। लेकिन जो उसे बाहर से पकड़ेंगे, उन्हें वह कष्ट दिखाई पड़ेगी, उन्हें वह पीड़ा मालूम पड़ेगी।तपश्चर्या मन का, देह का सहयोग लेकर अंतस में प्रवेश की विधि है। वह भी इस अर्थों में कठिन है कि उसके लिए बहुत संकल्प की जरूरत है। कांटों पर लेटने से ज्यादा तपश्चर्या इसमें है कि जब मुझे कोई पत्थर मारे तो मेरे हृदय के भीतर उसको पत्थर मारने की कल्पना न उठे ।
9-अगर शरीर के माध्यम से अगर भोगने में रस आ रहा है, यह एक बीमारी है ..भोगी की बीमारी है। और अगर शरीर को कष्ट देने में किसी को रस आ रहा है, यह भी एक बीमारी है ..विरागी की बीमारी है।बीमारी से मुक्त वह है, जो शरीर का उपयोग कर रहा है। शरीर से न तो रस ले रहा है, न उसके भोग से, न उसके त्याग से। शरीर केवल एक उपकरण है। उसको दबाकर या उसको फुलाकर, उस पर जिसका न कोई सुख आधारित है, न कोई दुख आधारित है; जिसके आनंद शरीर पर निर्भर नहीं हैं, जिसके आनंद आत्मा पर निर्भर हैं, वह व्यक्ति संन्यास की तरफ गतिमान है। तो दो तरह के लोग हैं, जिनके आनंद शरीर पर निर्भर हैं। एक वे लोग, जो ज्यादा खाकर आनंद लेते हैं। एक वे लोग, जो अनाहार रहकर आनंद लेते हैं। लेकिन दोनों शरीर का आनंद ले रहे हैं। यानि अगर उनका कोई भी रस है, तो वह शरीर से बंधा हुआ है।इसलिए भोगी और इस तल के संन्यासी, दोनों भौतिकवादी और शरीरवादी हैं । धर्म के इस शरीरवादी रूपांतर से बहुत अहित हुआ है। धर्म को वापस, उसके आत्मिक रूपों में प्रतिष्ठापित करने की जरूरत है।
....SHIVOHAM...
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